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________________ ३, १८५.] वेदमग्गणाए बंधसामित्त [२६७ अगइसंजुत्तो, एत्थ चउगइबंधाभावादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहितों विसेसाभावादी । मणुसा चेव सामी, अण्णत्थेदेसिमभावादो । बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्मि अद्धाणविरोहादो । अधवा अत्थि, पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे अवगदवेदाणमणियट्टीणं संखेजाणमुवलंभादो अणियट्टिकालं संखेज्जाणि खंडाणि' करिय तत्थ बहुखंडेसु अइक्कंतेसु एगखंडावसेसे कोधसंजलणस्स बंधो वोच्छिण्णो । तिविहो बंधो, धुवबंधित्तादो । माण-मायांसंजलणाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १८४ ॥ सुगमं । अणियट्टी उवसमा खवा बंधा । अणियट्टिवादरद्धाए सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूण बंधे। वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १८५॥ एदासिं बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, विणट्ठबंधाणमुदयाणुवलंभादो । सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधुवलंभादो। णिरंतरो, धुवबंधित्तादो। अवगयपच्चओ, ओघपच्चएहिंतो अविसिट्ठ यहां चारों गतियों के बन्धका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंक, ओघप्रत्ययोंसे यहां कोई भेद नहीं है । मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंक, अन्य गतियोंमें अपगतवेदियोंका अभाव है । बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्वानका विरोध है । अथवा बन्धाध्वान है, क्योंकि, पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर अपगतवेदी अनिवृत्तिकरणों के संख्यात नेिसे अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात खण्ड करके उनमें बहुत खण्डोंके वीत जाने और एक खण्डके शेष रहनेपर संज्वलनक्रोधका बन्ध व्युच्छिन्न होता है। तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वह ध्रुवबन्धी है। संज्वलनमान और मायाका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१८४ ॥ यह सूत्र सुगम है। अनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक बन्धक हैं । अनिवृत्तिकरणबादरकालके शेष शेष कालमें संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥१८५॥ इन दोनों प्रकृतियोंका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, बन्धके नष्ट हो जानेपर इनका उदय नहीं पाया जाता। स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी बन्ध पाया जाता है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे १ प्रतिषु । बंधाणिं ' ' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'मायसंजलणाणं 'इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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