________________
३, १८.] ओघेण अपरचक्खाणावरणीयादीणं बंधसामित्तपरूवणा [४.
अपच्चक्खाणावरणचउक्कादीणं सव्वेसिं सोदय-परोदएहि बंधो, विरोहाभावादो । णवरि सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं परोदओ बंधो । अपच्चक्खाणावरणचउक्कबंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । मणुसगइ-मणुसगइपा
ओग्गाणुपुट्विबंधो मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठीणं सांतर-णिरंतरो, आणदादिदेवेसु णिरंतरबंध लद्धण अण्णत्थ सांतरबंधुवलंभादो । सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइट्ठीसु णिरंतरो, देव-णेरड्यअप्पिददोगुणट्ठाणेसु अण्णगइ-आणुपुव्वीणं बंधाभावादो। एवमोरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं वत्तव्यं । कुदो ? ओरालियसरीरस्स सव्वदेव-णेरइएसु तेउवाउकाइएसु च णिरंतरं बंधुवलंभादो, अण्णत्थ सांतरबंधदंसणादो; ओरालियसरीरअंगोवंगस्स सव्वणेरइए सु सणक्कुमारादिदेवेसु च णिरंतरं बंधं लद्धण ईसाणादिहेट्ठिमदेवाणं मिच्छाइटिसासणेसु तिरिक्ख-मणुस्सेसु च सांतरबंधुवलंभादो, वज्जरिसहसंघडणस्स देव-णेरइयसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरं बंधं लद्धण अण्णत्थ सांतरबंधुवलंभादो ।
अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क आदिक सबका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, पसा होने में कोई विरोध नहीं है। विशेष यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें मनुष्यगनिद्धिक, औदारिकद्विक एवं वज्रर्षभसंहननका परोदय बन्ध होता है।
_ अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध निरन्तर है, क्योंकि, ये चारों प्रकृतियां ध्रुवबन्धी हैं । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दाष्टके सान्तर निरन्तर है, क्योंकि, आनतादि देवोंमें निरन्तर बन्धको प्राप्तकर अन्यत्र सान्तर वन्ध पाया जाता है । सम्यग्मिथ्याहाष्ट्र और असयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोमे निरन्तर बन्ध है, क्योंकि. देवों व नारकियोंके इन विवक्षित दो गुणस्थानों में अन्य गति व आनुपूर्वीके बन्धका अभाव है। इसी प्रकार औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननके भी कहना चाहिये । इसका कारण यह कि औदारिकशरीरका सर्व देव नारकी तथा तेजकायिक व वायुकायिक जीवों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है, अन्यत्र यही बन्ध सान्तर देखा जाता है; औदारिकशरीरांगोपांगका सब नारकियोंमें और सानत्कुमार एवं माहेन्द्र कल्पके देवोंमें भी निरन्तर बन्ध पाकर ईशानादिक अधस्तन देवोंके मिथ्यादृष्टि व सासादन गुणस्थानों में तथा तिथंच और मनुष्यों में सान्तर बन्ध पाया जाता है; बज्रर्षभसंहननका देव और नारकी सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध पाकर अन्यत्र सान्तर बन्ध पाया जाता है।
१ अ-आप्रत्योः 'देव-णेरइअप्पिद-' काप्रती · देव-णेरइयप्पिद- ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org