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________________ ३, १७५. वेदमग्गणाए बंधसामित्त ( २५३ उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । ___ अपच्चक्खाणचउक्कस्स सव्वगुणहाणेसु ओघपच्चया चेव । णवरि पुरिसणQसयपच्चया सव्वत्थ अवणेदवा। असंजदसम्मादिट्ठिम्हि ओरालिय-वेउव्वियमिस्सकम्मइयपच्चया च अवणेदव्वा । एवं वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणस्स वि वत्तव्वं । णवरि सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइट्ठीसु ओरालियकायजोगपच्चओ अवणेदव्यो । मणुसगइमणुसगइपाओग्गाणुपुब्बी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु दुरूवूणाघपच्चया चेव होंति, पुरिस-णqसयवेदपच्चयाणमभावादो। सम्मामिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीसु चालीस पच्चया, पुरिस-णवंसयवेदेहि सह ओरालियदुगाभावादो, असंजदसम्मादिद्विम्हि वेउब्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाभावादो च' । सेसं सुगमं । अपच्चक्खाणचउक्कं मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणो तिगइसंजुत्तं, उवरिमा दुगइसंजुत्तं बंधति । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीओ मणुसगइसंजुत्तं सव्वे बंधति । .......... गुणस्थानों में निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, वहां उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके सब गुणस्थानों में ओघप्रत्यय ही हैं। विशेषता केवल इतनी है कि पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको सर्वत्र कम करना चाहिये । असंसयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको भी कम करना चाहिये । इसी प्रकार वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननके भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें औदारिक काययोग प्रत्यय कम करना चाहिये। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगके मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में दो कम ओघप्रत्यय ही हैं, क्योंकि, पुरुष और नपुंसक वेदप्रत्ययोंका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में चालीस प्रत्यय हैं, क्योंकि, वहां पुरुष और नपुंसक वेदोंके साथ औदारिकद्धिकका अभाव है तथा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वैऋियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव भी है । शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कको मिथ्यादृष्टि चार गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियों से संयुक्त, और उपरिम जीव दो गतियों से संयुक्त बांधते हैं । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रचोग्यानुपूर्वीको मनुष्यगतिसे संयुक्त सभी स्त्रीवेदी जीव १ काप्रती - पुरिस णबुसयवेदपच्चयाणमभावादो। सम्मामिच्छाइट्ठी-असजदसम्मादिट्ठीसु वेउब्वियमिस्सकम्मइयपच्चयाभावादो च ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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