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________________ १२२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, ६६. सांतर-णिरंतरो। एदासिं पच्चया सव्वगुणेसु पंचट्ठाणियपयडिपच्चएहि तुल्ला । णवरि तिरिक्खमणुस्साउआणं मिच्छाइटिम्हि कम्मइयपच्चओ णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु ओरालियभिस्स-कम्मइयपच्चया णस्थि । च उबिहेसु तिरिक्खेसु सासणे ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चया णस्थि, अपज्जत्तकाले तस्साउबंधाभावादो । थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिच उक्काणं भिच्छाइट्ठी च उगइसंजुत्तं, सासणो तिगइसंजुत्तं बंधओ । इत्थिवेदं णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं, मणुसाउ-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बीओ मणुसगइसंजुत्तं, तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बी-उज्जोवाणि तिरिक्खगइसंजुत्तं, औरालियसरीर-च उसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडणाणि तिरिक्ख-मणुसगइसंजुतं, अप्पसत्य - विहायगइ-दुभग दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि देवगदीए विणा तिगइसंजुत्तं बंधति । एदासिं पयडीणं बंधस्स तिरिक्खा सामी । बंधद्धाणं बंधविणठ्ठाणं च सुगमं । थीणगिद्धितियअणताणुबंधिचउक्काणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउबिहो बंधो । सासणे दुविहो, अणादि-धुवा सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है । इन प्रकृतियोंके प्रत्यय सब गुणस्थानों में पंचस्थानिक प्रकृतियोंके समान है। विशेषता केवल यह है कि तिर्यगायु और मनुष्यायुका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें कार्मण प्रत्यय नहीं होता। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमतियों में औदारिकमिश्र व कार्मण प्रत्यय नहीं होते। चार प्रकारके तिर्यंचों में सासादन गुणस्थानमें औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्यय नहीं होते, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें उसके आयुका बन्ध नहीं होता । स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कके मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त और सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बन्धक है । स्त्रीवेदको नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, मनुष्यायु एवं मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको मनुष्यगतिसे संयुक्तः तिर्यगायु, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतको तिर्यचगतिसे संयुक्त; औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग और पांच संहननको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त; तथा अप्रशस्तविहायोगात, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रको देवगतिक विना तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं। इन प्रकृतियोंके वन्धके तिर्यंच स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्ट स्थान सुगम हैं । स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबधिचतुष्कका मिथ्यावृष्टि गणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध होता है। सासादन गणस्थान में दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका १ प्रतिपु' इत्थिवेद-' इति पाठः । २ प्रतिषु — अपज्जत्त- ' इति पाठः । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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