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________________ [ २४३ ३, १७०.] वेदमग्गणाए बंधसामित्त इत्थिवेदस्स ताव वुच्चदे- एत्थ उदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, पुरिसवेदस्स एयंतेणुदयाभावादो सेसाणं च पयडीणं बंधोदयवोच्छेदाभावादो । पंचणाणावरणीय-चउर्दसणावरणीय-पंचंतराइयाणं च सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । पुरिसवेदस्स परोदओ बंधो, इथिवेदे उदिण्णे पुरिसवेदस्सुदयाभावादो। सादावेदणीयचदुसंजलणाणं सोदय-परोदओ बंधो, उदएण परावत्तणपयडित्तादो । जसकित्तीए मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्टि ति सोदय-परोदओ, एदेसु पडिवक्खुदयसंभवादो । उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खपयडीए उदयाभावादो । उच्चागोदस्स मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव संजदासजदा त्ति बंधो सोदय-परोदओ, एदेसु णीचागोदुदयसंभवादो । उवरि सोदओ चेव, णीचागोदस्सुदयाभावादो। पंचणाणावरणीय च उदंसणावरणीय-चउसंजलण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । सादावेदणीय-जसकित्तीणं मिच्छादिटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडीए बंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खत्तादो । पुरिसवेदुच्चागोदाणं पहले स्त्रोवेदीके विषय में कहते हैं- यहां उदयसे बन्ध पूर्वमें या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है, क्योंकि, नियमसे वहां पुरुषवेदके उदयका अभाव है, तथा शेष प्रकृतियोंके बन्ध और उदयके व्युच्छेदका अभाव है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं । पुरुषवेदका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्त्रीवेदका उदय होनेपर पुरुषवेदके उदयका अभाव है। सातावेदनीय और चार संज्वलनका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उदयकी अपेक्षा ये प्रकृतियां परिवर्तनशील हैं। यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिका उदय सम्भव है । उपरिम गुणस्थानों में उसका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है । उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानोंमें नीचगोत्रका उदय सम्भव है । संयतासंयतसे ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नीचगोत्रके उदयका अभाव है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, चार संज्वलन और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं । सातावेदनीय और यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है । ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धसे रहित है। पुरुषवेद और उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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