Book Title: Sagar Dharmamrutam
Author(s): Ashadhar, Manoharlal Shastri
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमिह विद्यते, न सहश पवि LILLLLL नदिबाने WATRINTIMMIKIDY माणिकचन्द-दिगम्बर-जैन गन्शमाला। सागारधर्मामृतम् सटीकम् । A.K.MAYEKER Jain Education internauonal For Private & Personalise inelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृतम् 1 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्ददिगम्बर जैनग्रन्थमाला, द्वितीय पुष्प । पण्डितप्रवराशाधरविरचितम् । सागारधर्मामृतम् । स्वोपज्ञ - भव्य कुमुदचन्द्रिका टीकासमेतम् । पाढमनिवासिपण्डितमनोहरलालशास्त्रिणा संशोधितम् । प्रकाशिका माणिकचन्द - दिगम्बर जैनग्रन्थमाला समितिः । श्रीवीर नि० संवत् २४४२ । विक्रमाब्द १९७२ । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by Crishnarao Sakharam Patker, at the Shri Laxmi-Narayan Press, 402, Thakurdwar, Bombay. Published by Nathuram Premi, Honorary Secretary Manickchandra D. Jains Granth Mala Hirahag Near C. P. Tank Bombay. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयुक्त लाला बिहारीलालजी सी. टी. मास्टर ग० हाईस्कूल - अमरोहा । The Jain Vijaya Printing Press, Surat Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - F = = = = = = = "श्रीयुक्त लाला बिहारीलालजी।। आप अग्रवालजातीय दिगम्बर जैन हैं। बुलन्दशहरके रहने२ वाले हैं और अमरौहाके गवर्नमेंट हाईस्कूलमें मास्टर हैं। बड़े 7 ही योग्य हैं । जैनधर्मके आप अच्छे जानकार हैं। उर्दूके नामी लेखक हैं । सन् १८९७ से १९०५ तक आप 'दिलआराम' नामक उर्दूका पत्र निकालते रहे हैं । उर्दूमें आपने २०-२५ ग्रन्थ लिखे हैं। जैनधर्मका प्रचार करनेकी ओर आपकी बहुत रुचि है। जैनसमाजको आपके द्वारा बहुत लाभ पहुंच रहा है। आपने एक 'जैनधर्मसंरक्षिणीसभा' स्थापित कर रक्खी है जो बहुत अच्छा काम कर रही है। in आपके पुत्र चिरंजीवि शान्तिचन्द्रजी भी बड़े धर्मप्रेमी और होनहार युवक हैं। आपने धर्मप्रचार करने के लिए इस ग्रंथकी लगभग २५० प्रतियाँ लेनेकी कृपा करके इस संस्थाको बहुत ही उपकृत किया है। ९ = = == = = = = Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन | स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्द हीराचन्दजी जे. पी. के कृती नामको स्मरण रखने के लिए कौनसा कार्य किया जाय, जिस समय इस विषयपर विचार किया गया उस समय यही निश्चय किया गया कि उनके नामसे एक ग्रन्थमाला निकाली जाय जिसमें संस्कृत और प्राकृतके प्राचीन ग्रन्थोंके प्रकाशित करनेका प्रबन्ध किया जाय । ग्रन्थोंका प्रकाशित करना और उनका प्रचार करना, यह सेठजीका बहुत ही प्यारा कार्य था, अतएव उनके स्मारक में भी यही कार्य किया जाना सबने पसन्द किया और तदनुसार स्मारककण्डकमेटीकी सम्मति से यह कार्य शुरू कर दिया गया। कमेटीने इस कार्यके लिए एक स्वतंत्र समिति भी बना दो जिसकी अनुमति से ग्रन्थोंका चुनाव, आमद खर्च की व्यवस्था आदि कार्य सम्पादित होते हैं । ग्रन्थमालाके दो अंक एक साथ ही प्रकाशित किये जाते हैं। मुझे आशा थी कि सागारधर्मामृत जल्दी तैयार हो जायगा; परन्तु कई कारणोंसे इसके प्रकाशित होनेमे देरी हो गई और इसी कारण यह पहले नहीं किन्तु दूसरे अंकके रूपमें प्रकाशित होता है । आगे के लिए कवि हस्तिमल्लकृत विक्रान्त कौरवीय नाटक, और महाकवि वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरित ये दो ग्रन्थ तैयार कराये जा रहे हैं जो संभवतः दो दो महीने के अन्तरसे प्रकाशित हो जायँगे । 6 ग्रन्थमालाका प्रत्येक ग्रन्थ लागतके मूल्यपर बेचा जायगा, यह निश्चय हो चुका है, इसलिए यह आशा नहीं कि ग्रन्थमाला में कुछ मुनाफा रहेगा जिसके द्वारा यह कार्य स्थायीरूपमें चलता रहेगा । इसके सिवाय इसका फण्ड भी इतना नहीं है जिसके व्याजसे इसका खर्च चलता रहे, अतएव , Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मात्मा भाइयोंको चाहिए कि एक तो ग्रन्थमालाके फण्डको बढ़ानेका प्रयत्न करें और दूसरे इसके द्वारा प्रकाशित हुए ग्रन्थोंकी सौ सौ पचास पचास, या कमसे कम दश दश पाँच पाँच प्रतियाँ खरीदकर जैनसंस्था ओंको, विद्यार्थियोंको, निर्धनोंको और अन्यधर्मी विद्वानोंको दान कर दिया करें। यदि जैनसमाजके धर्मात्माओंने इस ओर ध्यान दिया, तो हम विश्वास दिलाते हैं कि इस संस्थाके द्वारा सैकड़ों लुप्तप्राय और दुर्लभ जैनग्रन्थोंका उद्धार हो जायगा और विश्वसाहित्यमें जैनसाहित्य भी एक गणनीय साहित्य समझा जाने लगेगा। हीराबाग, बम्बई।। कार्तिक वदी २ सं० १९७२ विनीत-~नाथूरामप्रेमी। (अवैतनिक मंत्री) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितप्रवर आशाधरः। (हिन्दीभाषातः संस्कृतेऽनुवादः कारितः) अयं श्रीविद्वच्छिरोमणिः व्यारवाल-(वघरवाल ) जातिदिशां निजतेजसा भूषयांचके, अतएवास्य आशाधरेति सार्थकं नामास्ति । तस्य पितु म सलखणो मातुश्च श्रीरत्नी इति प्रथितम् । जन्म चास्य माण्डलगढे यदस्मिन् समये मेवाड़राज्येऽन्तर्गतः, खामिलोचनेन्दुमित १२३. विक्रमसंवत्सरे निकटवर्तिनि कस्मिंश्चित्समये बभूव। एकोनपंचाशदधिकद्वादशशत( १२४९) विक्रमाब्दे गजनीपट्टनस्थशहाबुद्दीनगौरीनामकेन तुरुष्कराजेन पृथ्वीराजनृपेन्द्रं निजबंधने कृत्वा इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) स्वकीयराजधानी स्थापिता। तदैव च तेन अजमेराख्यप्रान्ते आक्रमितं । यवनानां महदत्याचारेभ्यः धर्मनाशभयेन तत्क्षणे पंडितवरस्य पूज्यपितरः सकुटुंबं मालवीयराजधान्यां धागपुरी न्यबसन् । तदा तत्र परमारवंशीयस्य प्रतापिनो विन्ध्यवर्मनृपस्य राज्यमासीत् । एष विन्ध्यनरेन्द्रविजयवर्मेत्याख्याभ्यामपि प्रथितः । - आशाधरस्य पिता सलखणः ( सल्लक्षणः) भुवि बहुसंमानित इत्यनुमीयते । अर्जुनवर्मदेवमहाराजस्य द्वासप्तत्यधिकद्वादशशतपरिमित ( १२७२) विक्रमाब्दीयमेकं दानपत्रमुपलब्धमस्ति यदमरेश्वरतीर्थे समर्पितम् । तदन्ते च " महासांधिविग्रहिकराजा सलखणसंमतेन राजगुरुणा मदनेन" इति लिखितमस्ति । अनेन ज्ञायते यत् आशाधरस्य पिता सलखणाख्यः अर्जुनवर्मदेवनृपस्य सांधिविग्रहिकमंत्री ( फोरेन सेक्रेटरी ) बभूव, तं च राजपदवी उपब्धाऽऽसीत् । अर्जुनवमा विन्ध्यवर्मणः पौत्रः सुभटवर्मणस्तनूज आसीत् । अस्य राज्यसमयो विक्रमीयपंचषठ्यधिकद्वादशशताब्दत एकद्विवर्ष पूर्व पश्चाद्वाऽस्ति इति कल्प्यते। आशाधरस्य रमणी सरस्वतीति नाम्ना प्रख्याता। तस्याःकुक्षितः छाहडाख्यः सू नुरभवत् यस्य प्रशंसा तैरेव स्वयंकृता लिखितं चास्ति यत् महाराजार्जुनदेवा अपि तद्गुणेऽनुरक्ता आसन् । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदाऽऽशाधरो धारापुरी समागतस्तदा तदायुर्विंशतिवर्षपरिमितमासीत् । तैजैनेन्द्रव्याकरणस्य जैनन्यायशास्त्राणां चाध्ययनं धारामेवागत्य कृतमिति धर्मामृतप्रशस्तितोऽवगम्यते । एतानि ग्रन्थानि तेन विदुषा विद्वद्वरमहावीराख्योपाध्यायात् श्रीवादिराजपण्डितधरसेनशिष्यादधीतानि । विषयान्तराणामध्ययनं कुत्र कस्मात्कृतमिति नावगम्यते । विद्याध्ययनानंतरं तेन संसारयात्रानिहाय व्यापारं राजसेवा वेत्यादि किं कार्यमनुष्ठितमत्र विषये किमपि न निर्णीयते परमिति त्वनुमीयते यत्तस्याशेषं जीवनं विद्यासेवने एव व्यतीतं स्यात् । व्याकरण-काव्य-कोश-न्याय-वैद्यक-धर्मशास्त्रादिविषयेषु तस्यासाधारणा गतिरासीत् । एषु अखिलेषु विषयेषु तेन शतानि विद्यार्थिनो निष्णापिताः । एतद्ग्रन्थप्रशस्तेर्नवमश्लोके तट्टीकायां च केषांचिनिजशिष्याणामुल्लेखं करोति कथयति च यदेतादृशा अनेके जना मया विद्वांसोऽनुष्ठिताः । यथा-पंडित देवचन्द्रादयो व्याकरणज्ञाः कृताः । वादीन्द्रविशालकीर्त्यादीन् षड्दर्शनन्यायज्ञान विधाय परवादिषु विजयः कारितः। भट्टारकदेवचंद्रविनयचंद्रादयः धर्मशास्त्राण्यध्यापयित्वा मोक्षमार्गे प्रवर्तिताः। मदनोपाध्यायादींश्च साहित्यज्ञान विधायार्जुनदेवसदृशानां सहृदयनृपाणां प्रतिष्ठाधिकारिणः (राजगुरवः ) कारिताः । एभिः कारणैः श्रीआशाधरस्य पाण्डित्यमतितरमित्यनुमीयते । विन्ध्यवर्मणः सांधिविग्रहिकमंत्रिणा महाकविविल्हणेन एकदा श्रीआशाधरस्य महती प्रशंसा कृता । तेनोक्तं हे आर्य युष्माभिः सह स्वाभाविकं सहोदर्य भ्रातृवर्य चास्ति, यतो यथा यूयं सरस्वती (शारदा) सूनवस्तथाहमपि सरस्वती ( मातृ) पुत्रोऽस्मि । विक्रमाङ्कचरित-कर्णसुन्दरीनाटकादिकर्ता विद्यापतिर्विल्हणः आशाधरप्रशंसाकर्तुरस्माद्विल्हणकवीशद्भिन्नेस्ति। विद्यापतिविल्हणेन विक्रमीयसंवत् विंशत्यधिकैकादशशत ११२० मिते काश्मीर।। नरेशकलशाख्यस्य राज्यसमये काश्मीरदेशस्त्यक्तः । अयं च विल्हणो विन्ध्यनरेन्द्रसमये विक्रमीयपंचाशदधिकद्वादशशता १२५० ब्दानुमिते जीवित आसीत् । आशाधरेण स्वीयप्रशंसाकोरुभयोर्विदुषो मनी अन्येपि दत्ते तयोरेक उदयसेनो मुनिर्द्वितीयश्च मदनकीर्तियतिपतिरासीत् । उदयसेनेन स ___ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याघेरवालवरवंशसरोजंड्सः काव्यामृतोघरसपानसुतृप्तगात्रः नयविश्वचक्षुः कलिकालिदास इतिविशेषणैर्विशेषितः। एवं मदनकीर्तिनापि 'प्रज्ञापुंज' इत्युक्त्वा तस्य स्तुतिः कृता। उदयसेनमुनेः कश्चिदपि विशेषपरिचयो न मिलितः, परं तु मदनकीर्तियतिपतिविषयेऽधुना कतिचित् वृत्तांतानि अवगतानि संति । श्वेताम्बराचार्यराजशेखरसूरिणा पंचाधिकचतुर्दशशतविक्रमाब्दे १४०५ निर्मिते 'चतुर्विंशतिप्रबंधा'ख्यैतिहासिकग्रन्थे एको ' मदनकीर्तिप्रबन्धनामकोऽध्यायो वर्तते । तेन ज्ञायते यत् मदनकीर्तिः वादीन्द्रविशालकीर्तेः शिष्य आसीत् । स विद्वदग्रणी बभूव । चतसृणामपि दिशानां वादिनः पराजित्य तेन महाप्रामाणिकेति पदमधिष्ठितम् । एकदा स गुरुणा निषिद्धो दक्षिणापथं प्रस्थितः विजयमनुतिष्ठन् कर्णाटकदेशं प्राप्तः । तत्र विजयपुरनरेशः कुंतिभोजस्तत्पांडित्योपरि मोहितो जातः तस्माच्च सकाशात् स्वीयपूर्वजचरितविषयक एको ग्रन्थो निर्मापितवान् । मदनकीर्तिः पद्यरचनया यदाब्रवीत् तदैव च राजकन्या मदनमंजरी अपि पटाभ्यंतरे स्थिता तानि पद्यानि लिखतिस्म । केषुचिद्दिनेषु व्यतीतेषु तयोः परस्परं प्रेमाविर्भूतं एको द्वितीयं मनसा इच्छतिस्म । नृपेणेदं वृत्तमवगतं । तेन कुपितेन मदनकीर्तिवधायाज्ञा दत्ता परंतु तदर्थ कन्यापि मर्तु संनद्धा तदा विवशेन राज्ञा स क्षान्तः, तौ च विवाहसूत्रेण बंधितौ । मदनकीर्तिः गृहस्थो भूत्वा स्थितः अवसानावस्थापर्यंतमपि गृहस्थ एव आसीत् । विशालकीर्तिगुरुणा बहु प्रबोधितः परं किमपि फलं न जातं । मदनकीर्तेः कीदृशी दशा अभूदित्यनेनास्माकं न किमपि प्रयोजनं । अत्र तु तस्य विद्वत्तायाः संबंधोस्ति । अस्मिन् विषये न कोपि संदेहः यत् स दिग्गजविद्वानासीत् । तेन चाशाधरस्य प्रशंसा कृताऽऽसीत् । उपरि एकस्मिन् स्थले यस्य मदनोपाध्यायस्योल्लेखः आगतः यमाशाधरः काव्यशास्त्रे निपुणं कृतवान् स पूर्वोक्तमदनकीर्तितो भिन्न एव । मदनोपाध्यायोऽर्जुनवर्मदेवस्य गुरुरासीत् । तस्योपनाम बालसरस्वतीत्यासीत् । अर्जुनवर्मदेवेन स्वकृतामरुशतकटीकायामनेकस्थलेषु लिखितं " उक्तं चोपाध्यायेन बालसरस्वतीत्यपरनाम्ना मदनेनेति । " आशाधरेणापि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वोपजधर्मामृतटीकायां 'स बालसरस्वती महाकविमदन' इति कथितः । तेन निर्मिता 'परिजातमंजरी ' नाम्नी एका नाटिकास्ति ।। विक्रमीयपंचषठ्यधिकद्वादशशतपीरमिताब्दे १२६५ आशाधरेण धारानगरी त्यक्ता नलकच्छपुरे च गत्वाऽऽवासः कृतः । यमधुना 'नालछा ' इति कथयति । नलकच्छपुरं धारातः क्रोशदशकं दूरे वर्तते तत्र श्रावकाणां निवासो विपुल आसोत् । तदा मालवप्रांतस्य नृपोऽर्जुनवर्मदेव आसीत् । नलकच्छपुरं गत्वा निवासकारणमाशाधरो निजप्रशस्ता जिनधर्मोद्योतनेच्छां प्रकटयति । अनेन ज्ञायते यदस्मिन् समये तेन गृहस्थाश्रमात्संबंधस्त्यक्तः। स च कश्चिदुच्चप्रतिमाधारकः श्रावक इव निवसतिस्म । तन्निर्मितजिनसहस्रनाम स्तोत्रस्य निम्नश्लोकैः प्रतीयते यत्स गृहस्थाश्रमादुदासीनो जातः ।-- प्रभो भवाङ्गभोगेषु निर्विष्णो दुःखभीरुकः । एष विज्ञापयामि त्वां शरण्यं करुणार्णवम् ॥ १ ॥ सुखलालसया मोहाद् भ्राम्यन्बहिरितस्ततः । सुखैकहेतोर्नामापि स्तवनं ज्ञातवान् पुरा ॥२॥ अद्य मोहग्रहावेशशैथिल्यात्किंचिदुन्मुखः । अनन्तगुणमाप्तेभ्यस्त्वां श्रुत्वास्तोतुमुद्यतः ॥ ३॥ ज्ञायते यदाशाधरोऽन्तिमसमयपर्यंतं नलकच्छपुरे एव न्यवसत् । तन्निर्मितैप्रा प्यग्रंथेषु अनागारधर्मामृतस्य टीका निखिलग्रंथभ्यः पश्चादर्थात् त्रयोदशशतविक्रमाब्दे १३०० रचितास्ति, सा च नलकच्छपुरस्थनेमिनाथचैत्यालये पूर्णतां गता । तस्यान्येऽपि प्राप्यग्रन्था तत्पुरे एव रचिताः संति । ___ आशाधरः त्रयोदशशतविक्रमाब्दतः १३०० पश्चात् कदापर्यंतं जीवित इति बोध्दुं किमपि साधनं नास्ति । तथापि तेन महदायुः प्राप्तं स्यात् । पूर्वोक्ताब्दकाले स वृद्ध एव जातः स्यात् । तेन धारागमनानंतरं मालवदेशे नृपपंचकं सिंहासनासीनं दृष्टं भवेत् । विंध्यवर्मसमये धारां समागतः। विंध्यवर्मणस्तनुजः सुभटवर्मा जातः । सुभटवमसून्वर्जुनवर्मणः समये स नलकच्छपुरमागतः । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुनवर्मणः कोऽपि पुत्रो नासीत् अतस्तस्य प्रपितामहजयवर्मणो भ्रातुर्लक्ष्मीवर्मणः पौत्रो देवपालः साहसमल्लाप राख्यो राजसिंहासनं लब्धवान् । अस्यैव देवपालस्य समये आशाधरेण स्वीयजिनयज्ञकल्प ( प्रतिष्ठापाठ ) रचयित्वा समाप्तिं नीतम् । देवपालानंतरं तत्पुत्रो जैतुगिदेवो जयसिंहापराख्यो राजा बभूव । र्मामृतस्य ा पण्णवत्यधिकद्वादशशतविक्रमाब्दे १२९६ अनागारधर्मामृतस्य टीका त्रयोदशशतविक्रमाब्दे १३०० यदा समाप्तिमगात्तदा जैतुगिदेवस्यैव शासनकाल आसीत् । आशाधरो निजग्रंथप्रशस्तिषु स्वनिर्मितनिम्नलिखित ग्रंथानामुल्लेख करोति १ प्रमेयरत्नाकरः ( न्यायग्रन्थः ) | २ भरतेश्वराभ्युदयकाव्यं स्वोपज्ञटीकासहितं । २ धर्मामृतशास्त्रं - अस्य द्वौ भागौ स्तः । एको अनागारो द्वितीयः सागरः । द्वावपि भागौ स्वोपज्ञटीकासमलंकृतौ । सागारभागस्यैका पंजिकानाम्नी टीकापि स्वोपज्ञास्ति । I ४ अष्टांगहृदयोद्योतिनी टीका - इयं वाग्भटसंहिताख्यसुप्रसिद्धवैद्यकग्रंथस्य टीकाsस्ति । ५ आराधनासारटीका । ६ इष्टोपदेशटीका - इयं पूज्यपादकृतेष्ठोपदेशस्य टीका । ७ अमरकोषस्य क्रियाकलापटीका । ८ भूपालचर्तु विंशतिका टीका । ९ काव्यालंकारटीका - रुद्रटस्य प्रख्यातालंकारग्रंथस्य टीका | १० जिनसहस्रनाम सटीकम् । ११ जिनयज्ञकल्पं सटीकम् । १२ त्रिषष्ठिस्मृतिशास्त्रं सटीकम् । १३ नित्यमहोद्योतम् । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ राजीमतीविप्रलम्भकाव्यं सटीकम् । १५ अध्यात्मरहस्यं ( योगशास्त्रं )। १६ रत्नत्रयविधानम् । · अनेनेति संभवति यत् त्रयोदशशताब्दतः पश्चात् तेनान्येषामपि ग्रंथानां रचना कृता स्यात् । येषामुल्लेख एतत्प्रशस्तिषु नास्ति । पूर्वोक्तेषु ग्रंथेषु मध्येऽधुना जिनयज्ञकल्पं, सागारधर्मामृतं, अनागारधर्मामृतं,जिनसहस्रनाम,नित्यमहोद्योतं, इष्टोपदेश इत्यादयो ग्रंथा उपलभ्यते । शेषग्रन्थानामन्वेषणं भवितव्यं ।। आशाधरस्य रचनातीवक्लिष्टास्ति ज्ञायते चात एव तेन प्रायः स्वनिर्मितसकलानामपि ग्रन्थानामुपरि टीका लिखिता संति । एतत्सागारधर्मामृतस्य तु तेन द्वे टीके रचिते तथापि तस्य कृतौ तदसाधारणपाण्डित्यमनुमीयते । अन्यग्रन्थसदृशं तस्यायं ग्रंथोऽपि अतीव महनीयोऽस्ति, अनेनैव च कारणेनायं प्रकाश्यते, श्रावकाचारस्यान्य ईदृग्विस्तृतो विशदश्च ग्रन्थो नास्ति । इति कृतं पल्लवितेन । निवेदकः नाथूरामप्रेमी। मल्लिखित विद्वद्रनमालायामाशाधरविषये एको विस्तृतो लेखोस्ति, ये महाशयाः पिपठिषवस्ते 'जैनमित्र आफिस, हीराबाग, बंबई' इति स्थानत आनाय्य पटंतु। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो वीतरागाय। सटीकं सागारधर्मामृतम् । श्रीवर्द्धमानमानम्य मन्दबुद्धिप्रबुद्धये । धर्मामृतोक्तसागार-धर्मटीका करोम्यहम् ॥ १॥ समर्थनादि यन्नात्र ब्रुवे व्यासभयात्कचित् । तज्ज्ञानदीपिकाख्यैत-त्पनिकायां विलोक्यताम् ॥२॥ अथ चतुर्थाध्याये सुदृग्बोधो गलवृत्त-मोहो विषयनिःस्पृहः । हिंसादेर्विरतः काढून्या-द्यतिः स्याच्छ्रावकोऽशतः॥ इत्युक्तम् । अतो मध्यमङ्गलविधानपूर्वकं विनेयान्प्रति सागारधर्मामृतं प्रतिपाद्यतया प्रतिजानीते अथ नत्वाहतोलण-चरणान् श्रमणानपि । तद्धर्मरागिणां धर्मः सागाराणां प्रणेष्यते ॥ १॥ टीका--प्रणेष्यते प्रतिपादयिष्यतेऽस्माभिः। कः, 'उक्तकर्मतापन्नः धर्मः एकदेशविरतिलक्षणं चारित्रम् । केषां, सागाराणां वक्ष्यमाणलक्षणानां गृहस्थानाम् । किंविशिष्टानां, तद्धर्मरागिणां तेषां श्रमणानां धर्मे सर्वविरतिरूपे चारित्रे रागिणां संहननादिदोषादकुर्वतामपि प्रीतिमताम्, यतिधर्मानुरागरहितानामगारिणां देशविरतेरप्यसम्यग्रूपत्वात् । सर्वविरतिलालसः खलु देशविरतिपरिणामः । किं कृत्वा प्रणेष्यते, नत्वा शिरः प्रव्हीकरणादिना विशुद्धमनोनियोगेन च पूजयित्वा । कान्, अर्हतस्तीर्थकरपरमदेवान् । किंवि १ प्रणयनक्रियाकर्मतापनः । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते wwwwwwwwwwwwwwwwww शिष्टान् , अक्षूणचरणान् अक्षुणं सम्पूर्ण सकलमोहप्रक्षयादाविर्भूतत्वेन नित्यं निर्मलं चरणं यथाख्यातचारित्रं येषां ते अक्षुणचरणास्तान् । न केवलमहतो नत्वा श्रमणानपि नमस्कृत्य, श्राम्यन्ति बाह्यमाभ्यन्तरं च तपश्चरन्तीति श्रमणा आचार्योपाध्यायसाधवस्तान् । किंविशिष्टान्, अथूणचरणान् अक्षुणं भावनाविशेषबलादनतिचारं चारित्रं क्षायोपशमिकसंयमपरिणामो येषां ते तान् । कथं अथ, अथेतिशब्दो मङ्गलार्थः अधिकारार्थो वा। इतः सागारधर्मोऽधिक्रियते इत्यर्थः ॥ १॥ किं लक्षणाः सागारा इत्याह अनाद्यविद्यादोषोत्थ-चतुःसञ्जाज्वरातुराः। शश्वत्स्वज्ञानविमुखाः सागारा विषयोन्मुखाः ॥ २॥ टीका-अत्र भवन्तीति क्रियाध्याहारः । भवन्ति । के, सागाराः अगारं गृहं सकलपरिग्रहोपलक्षणं सह अगारेण वर्तन्ते इति सागाराः । एतदेव अनाद्यविद्येत्यादिविशेषणत्रयेण स्फुटयति-किंविशिष्टाः सागारा भवन्ति, शश्वत्स्वज्ञानविमुखाः शश्वदनवरतं स्वज्ञाने “एगो मे सासदो आदा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥" इत्यादिपरमागमप्ररूपिते स्वात्मावबोधे विमुखाः पराङ्मुखाः, तत्र मुख्यतयाऽनुपयुक्ता इत्यर्थः । पुनः किंविशिष्टाः, विषयोन्मुखाः विषयेष्विष्टेषु स्रक्कामिन्यादिष्वनिष्टेषु च दुर्भोजनदुर्व्यसनादिषु उन्मुखाः रागात् द्वेषाच्च व्यापृताः उद्युक्ताः। कुत एतदिति हेतुं प्रथमान्तत्वेन निर्दिशति । पुनः किंविशिष्टाः, अनाद्यविद्यादोषोत्थचतु:सञ्जाज्वरातुराः अविद्या अनित्याशुचिदुःखानात्मसु विपरीतख्यातिः, यस्मात्पूर्व नास्ति स आदिः, नास्त्यादियस्याः साऽनादिः, अनादिश्चासौ अविद्या च अनाद्यविद्या, सैव दोषो वातपित्तकफानां वैषम्यम्, उत्थानमुत्था उद्भूतिः, अनाद्यविद्यादोषादुत्था येषां ते अनाद्यविद्यादोषोत्थाः, सज्ञाः आहाराद्यभिलाषानुभवनसंस्काररूपाश्चतस्रः, तथा ज्वराः प्राकृतो वैकृतश्चेति द्वौ प्रत्येकं साध्योऽसाध्यश्चेति चत्वारः, सञ्ज्ञा एव ज्वरा मोहसन्तापरूपत्वात् सज्ञाज्वराः, चत्वारश्च ते सज्ञाज्वराश्च चतुःसञ्जाज्वराः, अनाद्यविद्यादोषोत्थाश्च ते चतुस्सज्ञा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोध्यायः । ज्वराश्च अनाद्यविद्यादोषोत्थचतुः सञ्ज्ञाज्वराः तैरातुराः कदर्शिताः । यत एवम्भूतास्ततः शश्वत्स्वज्ञानविमुखाः । अत एव च नित्यं विषयोन्मुखाः स्वपरप्रकाशात्मकत्वादात्मनो विमुखाः ॥ २॥ भङ्गयन्तरेण तानेवाह 1 अनाद्यविद्यानुस्यूतां ग्रन्थसञ्ज्ञामपासितुम् । अपारयन्तः सागाराः प्रायो विषयमूर्च्छिताः ॥ ३॥ टीका - अत्रापि भवन्तीति क्रियाध्याहारः । एवमश्रूयमाणं क्रियापदं पुरस्तादप्यध्याहार्यम् | भवन्ति । के ते, सागाराः । किंविशिष्टाः विषयमूर्च्छिताः कामिन्यादिविषयेषु ममेदं भोग्यमहमस्य स्वामीत्येवं ममकाराहङ्कारविकल्पपरतन्त्रतयाऽध्यवसिताः । कथं प्रायो, बाहुल्येन सुदृष्टयोऽपि चारित्रावरणकर्मोदयवशादेवं पर्यवसन्नाः सम्यग्दृष्टयः | ये तु केचिज्जन्मान्तराभ्यस्तरत्नयानुभावात्साम्राज्यादिश्रियमप्यनुभवन्तोऽसंतीनाथोपभोगन्यायेन तत्त्वज्ञानदेशसंयमप्रणिधानपरत्वेन भुज्जाना अन्यभुज्जानवदवभासन्ते तद्व्यभिचारप्रदर्शनार्थं प्राय इत्युच्यते । किं कुर्वन्तस्ते तथा भवन्तीत्याह- अपारयन्तः अशक्नुवन्तः । किं कर्तुं अफासितुं निराकर्तुं । कां, ग्रन्थसञ्ज्ञां ग्रन्थे परिग्रहे सज्ञा ममेदमिति मूर्च्छापरिणामस्तां । किंविशिष्टां, अनाद्यविद्ययाऽनुस्यूतां - बीजाङ्कुरन्यायेन सन्तत्या प्रवर्तमाना ताम् ॥ ३ ॥ एवं सागारान् लक्षयित्त्वा तद्भावाभावनिदानयोरविद्याविद्ययोर्बोजोपदेशार्थमिदमाह --- नरत्वेऽपि पश्यन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः । पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतनाः ॥ ४ ॥ M टीका - पशूयन्ते हिताहितविवेक विकलतया पशव इवाचरन्ति । के ते, मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः मिथ्यात्वेन विपरीताभिनिवेशेन ग्रस्तमाविष्टं चेतो १ धात्रीबालासतीनाथ- पद्मिनीचलवारिवत् । दग्धरज्जुवदाभाति भुञ्जानोऽपि न पापभाक् ॥ २ वपुर्गृहं धनं दाराः पुत्रमित्राणि शत्रवः । सर्वथान्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते vvvv मनो येषां ते। क्व सति, नरत्वेऽपि, नरा हि प्रायो विचारचतुरचेतसः किल प्रसिद्धास्तद्भवेऽपि सति किं पुनस्तिर्यगादिभवे इत्यपिशद्धार्थः । एवमविद्यामूलकारणं मिथ्यादर्शनं विभाव्य विद्यामूलकारणं सम्यग्दर्शनं भावयितुमाह-पशुत्वेऽपीत्यादि, नरायन्ते हिताहितविचारचतुरतया नरा इवाचरन्ति । के ते, सम्यक्त्वव्यक्तचेतना: सम्यक्त्वेन तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणेन सम्यग्दर्शनपरिणामेन व्यक्ता शमसंवेगानुकम्पास्तिक्यानुभावैःप्रतीतियाग्या कृता चेतना चैतन्यसम्पद् येषां ते । क्व सति, पशुत्वेऽपि, पशवस्तिर्यञ्चस्ते चात्र सज्ञिन एव । जात्या तिर्यग्भावेऽपि सति सम्यक्त्वमाहात्म्याद्धेयोपादेयतत्त्वज्ञाः पशवोऽपि भवन्ति किं पुनर्मनुष्यादय इत्यपिशब्दार्थः ॥ ४ ॥ एवं सामान्यतो मिथ्यात्वानुभावं प्रदश्येदानीं तस्य त्रिविधस्याप्यनुभावमुपमानैरनुभावयितुमाह..केषाश्चिदन्धतमसा-यतेऽगृहीतं ग्रहायतेऽन्येषाम् । मिथ्यात्वमिह गृहीतं शल्यति सांशयिकमपरेषाम् ॥५॥ ___टीका-अन्धतमसायते घोराज्ञानविवर्तहेतुतया निबिडांधकारवदाचरति। किं तत्, मिथ्यात्वं । किविशिष्टमगृहीतं परोपदेशमन्तरेण प्रवृत्तत्वादनुपात्तं अनादिसन्तत्या प्रवर्तमानस्तत्वारुचिरूपश्चित्परिणाम इत्यर्थः । केषां तत्तथा स्यादित्याह-केषाञ्चित् एकेन्द्रियादिसज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां । क्व, इह संसारे। तथा ग्रहायते विविधाकारकारितया ग्रहवदाचरति भूतावेशवद्विवर्तत इत्यर्थः ।। किंतत्, मिथ्यात्वं। किंविशिष्टं, गृहीतं परोपदेशादुपात्तमतत्त्वाभिनिवेशलक्षणं १ रागादिषु च दोषेषु चित्तवृत्तिनिबर्हणम् । __ तं प्राहुः प्रशमं प्राज्ञाः समन्ताद्रव्रतभूषणम् ॥ २ शारीरमानसागन्तु-वेदनाप्रभवाद्भवात् । स्वप्रेन्द्रजालसंकल्पा-द्भीतिः संवेग उच्यते ॥ ३ सत्वे सर्वत्र चित्तस्य दयार्द्रत्वं दयालवः । धर्मस्य परमं मूल-मनुकम्पां प्रचक्षते ॥ ४ आप्ते श्रुते व्रते तत्त्वे चित्तमस्तिक्यसंयुतम् । आस्तिक्यमास्तिकैरुक्तं युक्तं युक्तिधरेण वा । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोध्यायः । चिद्वैकृतं । केषां, अन्येषां सज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां। तथा शल्यति बहुदुःखहेतुत्वाच्छरीरान्तःप्रविष्टकाण्डादिवदाचारति । किं तत्, मिथ्यात्वं । किमाख्यं, सांशयिकं मिथ्यात्वकर्मोदये सति ज्ञानावरणोदयविशेषवशात् किमिदं जीवादि वस्तु यथा जैनैरनेकान्तात्मकमुच्यते तथा स्यादुतस्विदन्यथेति चलिता प्रतीतिः संशयः, संशये भवं सांशयिकं कचिदप्राप्तनिश्चयमात्मस्वरूपं । केषां तत्तथा स्यादित्याह-परेषाम् इन्द्राचार्यादीनाम् ॥ ५ ॥ नन्वविद्यामूलामिथ्यात्वनिर्मथनसमर्थस्य सम्यक्त्वपरिणामस्य कतमा प्रादुर्भावनसामग्रीत्यनुयोगे सतीदमुच्यते आसन्नभव्यताकर्म-हानिसज्ञित्वशुद्धिभाक् । देशनाद्यस्तमिथ्यात्वो जीवः सम्यक्त्वमश्रुते ॥६॥ टीका-अश्नते प्राप्नोति । कोऽसौ, जीव आत्मा । किं तत्, सम्यक्त्वं तत्वार्थश्रद्धानं । किंविशिष्टः. सन्, आसन्नभव्यताकर्महानिसज्ञित्वशुद्धि भाक्, भव्यो रत्नत्रयाविर्भावृयोग्यो जीवः, आसन्नः कतिपयभवप्राप्यनिर्वाणपदः, आसन्नश्चासौ भव्यश्वासनभव्यस्तस्य भाव आसन्नभव्यता, कर्महानिर्मिथ्यात्वादीनां सम्यक्त्वप्रतिबन्धककर्मणां यथासम्भवमुपशमः क्षयोपशमः क्षयो चा, सज्ञा शिक्षांक्रियालापोपदेशग्राहित्वं सज्ञाऽस्यास्तीति सज्ञी सज्ञिनो भावः सज्ञित्वं, मनोऽवष्टम्भतः शिक्षा-क्रियालापोपदेशवित् । येषां ते सज्ञिनो मां वृषकीरगजादयः ॥ इति । शुद्धिर्विशुद्धपरिणामः, आसन्नभव्यता च कर्महानिश्च सज्ञित्वं च शुद्धिश्चेतीतरेतरयोगे द्वन्द्वे सति ताश्चतस्रो भजते सेवते ततो नापतीति तद्भागन्तरङ्गसम्यग्दर्शनादिभावकारणसम्पन्न इत्यर्थः । पुन: किंविशिष्टः, देशनाद्यस्तमिथ्यात्वः देशना सम्यग्गुरूपदेशः सा आदिर्यस्य जातिस्मरणजिनप्रतिमादर्शनादेर्बहिरङ्गकारणकलापस्य स देशनादिः तेन अस्तं निराकृतमुपशमाद्यवस्था नीतं मिथ्यात्वं दर्शनमोहाख्यं कर्म तद्धेतुको वा सर्वथैकान्ताभिनिवेशो यस्य स तथोक्तः ॥ ६॥ ___ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते NA साम्प्रतं योऽयं सम्यक्त्वसामय्यां सत्यां सम्यग्गुरूपदेशोऽवश्यमृग्यस्तःस्येदानीमत्र समुपदेष्टणां प्रविरलत्वानुशोचनद्वारेण दुर्लभत्वं लक्षयति कलिप्रावृषि मिथ्यादि-मेघच्छन्नासु दिविह । खद्योतवत्सुदेष्टारो हि द्योतन्ते क्वचित्कचित् ॥ ७ ॥ टीका-द्योतन्ते प्रकाशन्ते आत्मानं दर्शयन्ति दृश्यन्ते इत्यर्थः । के ते, सुदेष्टारः सु शोभनं निर्बाधं सम्पूर्ण वा जीवादितत्वं दिशत्युपदिशन्तीति सुदेष्टारः सम्यग्गुरवः । क्वचित्क्वचित्, क्वापि क्वापि न सर्वत्र । कस्मिन् , इह भरतक्षेत्रे। किंवत्, खद्योतवत् ज्योतिरिगणा यथा । कासु सतीषु, दिक्षु सदुपदेशेषु ककुप्सु च । किंविशिष्टासु, मिथ्या सर्वथैकान्तविषयत्वादसत्या दिशो बौद्धादिवायुपदेशास्त एव मेघा दिशामिवानेकान्तोपदेशनावारकत्वात् तैश्च्छन्नासु छादितासुप्रतीत्यविषयीकृतासु। कदा, कलिप्रावृषि कलिः दुष्षमाख्यः पञ्चमकाल: स एव प्रावृड् वर्षाकालस्तत्र । अयमर्थः-यदा वर्षाकाले मेघाच्छादितासु दिक्षु सूर्यादिप्रकाशाभावे क्वचित्क्वचित्प्रदेशे खद्योता द्योतन्ते तथेह दुष्षमायां क्वचित्कचिदार्यदेशे सदुपदेष्टारः प्रकाशन्ते न पुनः कृतयुगादिवद्यत्रतत्रश्रुतकेवलिनः केवलिनो वा दृश्यन्ते इति । हि-शब्देन कष्टार्थेनान्तस्तापमभिव्यनक्ति। इह दुष्षमासमयसामर्थ्यादेशिकवद्देश्यानामपि दर्शनमोहोदयाक्रान्तचित्त तया देशनानहत्वात्प्रायो भद्रका अपि पुरुषा देशनायां भूयासुरित्याशास्ते नाथामहेऽद्य भद्राणा-मप्यत्र किमु सदृशाम् । हेम्न्यलभ्ये हि हेमाश्म-लाभाय स्पृहयेन कः ॥ ८॥ टीका-नाथामहे भद्रका अपि जीवा देशनार्हा भूयासुरित्याशास्महे ! के, वयं । केषां, भद्राणामपि । किमु, किं पुनः । सदृशां सम्यग्दृष्टीनां विशेषतो. १ विद्वन्मन्यतया सदस्यतितरामुद्दण्डवाग्डम्बराः शृंगारादिरसैः प्रमोदजनकं व्याख्यानमातन्वते । ये ते च प्रतिसभ सन्ति बहवो व्यामोहविस्तारिणो येभ्यस्तत्परमात्मतत्वविषयं ज्ञानं तु ते दुर्लभाः ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोध्यायः । नाथामह इत्यर्थः । क्व, अत्र क्षेत्रे । कदा, अद्य अस्मिन्काले । अमुमेवार्थमुत्तरा. ईन समर्थयते । हि यस्मादर्थे । को न स्पृहयेत् नाभिलषेत् । कस्मै, हेमाश्मलाभाय सुवर्णोपलप्राप्त्यर्थं । क्व सति, हेम्नि सुवर्णे । किंविशिष्टे, अलभ्ये लब्धुमशक्ये ॥ २ ॥ भद्रकस्य लक्षणमुक्त्वा तस्यैव द्रव्यतया देशनार्हत्वमाह कुधर्मस्थोऽपि सद्धर्म लघुकर्मतयाद्विषन् । भद्रः स देश्यो द्रव्यत्वा-नाभद्रस्तद्विपर्ययात् ॥ ९॥ टीका-भण्यते । कोऽसौ, भद्रः । किं कुर्वन् , अद्विषन् द्वेषविषयमकुर्वन् । कं, सद्धर्म सन् समीचीनः प्रमाणोपपन्नो धर्मोऽभ्युदयनिःश्रेयसोपायस्तम् । कया, लघुकर्मतया लघु अल्पं कर्म सद्धर्मद्वेषनिमित्तं मिथ्यात्वं यस्य सोयं लघुकर्मास्तस्य भावस्तत्ता तया लघुकर्मतया । किंविशिष्टोऽपि, कुधर्मस्थे प्रमाणबाधिते धर्मे आसक्तः, न केवलमुभयोर्मध्यस्थ इत्यपिशब्दार्थः । किं पुनरसावित्याह-देश्य:,धर्मे व्युत्पादनीयः। कोऽसौ,स भद्रः। कस्मात्,द्रव्यत्वात् आगामिसम्यक्त्वगुणयोग्यत्वात् । न पुनर्देश्यः । कोऽसौ अभद्रः कुधर्मस्थः सद्धर्म गुरुकर्मतया द्विषन् कस्मात्, आगामिसम्यक्त्वगुणयोग्यत्वाभावात् । इदानीमाप्तोपदेशसम्पादितशुश्रूषादिगुणः सम्यक्त्वहीनोऽपि तद्वानिव सद्भूतव्यवहारभाजां प्रतिभासते इति निदर्शनेन प्रव्यक्तीकरोति शलाकयेवाप्तगिराऽऽप्तसूत्र प्रवेशमार्गो माणिवच यः स्यात् । हीनोऽपि रुच्या रुचिमत्सु तद्वद् भूयादसौ सांव्यवहारिकाणाम् ॥ १०॥ टीका-यः पुरुषः स्यात् भवेत् । किंविशिष्टः, आप्तसूत्रप्रवेशमार्ग एव । चशब्दस्यात्रावधारणार्थस्य योजनात् । सूत्रं परमागमः, प्रवेशमार्गः शुश्रूषादिगुणः, सूत्रस्य प्रवेशमार्गोऽन्तस्तत्त्वपरिच्छेदनोपायः सूत्रप्रवेशमार्गः, आप्तः प्राप्तः सूत्रप्रवेशमार्गो येन स तथोक्तः । कया, आप्तगिरा सद्गुरुवाचा। कयेव, शलाकयेव छिद्रकरवज्रसूचिकया यथा । किंवत्, मणिवत् यथा मणिः शलाकया आप्तप्रवेशमार्गः स्यात्,आप्तःप्राप्तः सूत्रस्य तन्तोः प्रवेशमार्ग:छिद्रं येन स ___ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते तथोक्तः । असौ भूयात् प्रतिभासेत । किंवत्,तद्वत् रुचिमानिव। केषां सांव्यवहारिकाणां सुनयप्रयोक्तृणाम् । केषु मध्ये,रुचिमत्सु सुदृष्टिषु दीप्तिमन्मणिषु च मध्ये। किंविशिष्टोऽपि हीनोऽपि रिक्तोऽल्पो वा । कया, रुच्या शुध्द्या दीप्तया किं पुना रुचिसम्पन्न इत्यपिशब्दार्थः । एतेनाव्युत्पन्नसम्यक्त्वानां सुदृष्टिषु च मध्ये गणनीयतोपदिष्टा । सुदृष्टिवत्तेऽपि सतां मान्या भवन्तीति भावः । एवं देश्यदेशको व्यवस्थाप्य सागारधर्माचारिणमगारिणं लक्षयितुमाहन्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून् सद्गीत्रिवर्ग भज नन्योन्यानुगुणं तदहगृहिणीस्थानालयो हीमयः । युक्ताहारविहार आर्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी शृण्वन् धर्मविधि दयालुरघभीः सागारधर्म चरेत्॥११॥ टीका-अत्र ‘पूज्याश्चाई' इत्यनेनाहे सप्तमी । चरितुमर्ह. तीत्यर्थः । विधौ वा, यथोक्तगुणेन गृहिणा सागारधर्मश्चरितव्य इत्यर्थः । अत्र पूर्वो भद्रक उत्तरो द्रव्यपाक्षिक इति विभागः। चरेत् अनुतिष्ठेत् । कोऽसौ, 'न्यायोपात्तधन' इत्यादिविशेषणेश्चतुर्दशभिः समस्तैर्व्यस्तैर्वा विशिष्टो गृही। कं,सागारधर्ममिति वाक्यार्थः । इतो विशेषणानि व्याख्यायन्ते । न्यायोपात्तधनः, स्वामिद्रोहमित्रद्रोहविश्वसितवञ्चनचौर्यादिगार्थोपार्जनपरिहारेणार्थोपार्जनोपायभूतः स्वस्ववर्णानुरूपः सदाचारो न्यायः तेनोपात्तमुपार्जितमात्मसात्कृतं धनं विभवो येन स तथोक्तः । यजन् गुणगुरून्, गुणा: संदाचारसौजन्यौदार्यदाक्षिण्यस्थैर्यप्रियपूर्वकप्रथमाभिभा. १ सर्वत्र शुचयो धीराः सुकर्मबलगर्विताः । स्वकर्मनिहितात्मानः पापाः सर्वत्र शडिताः ॥ अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति । प्राप्ते त्वेकादशे वर्षे समूलं च विनश्यति ॥ यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तियञ्चोपि सहायताम् । अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति ॥ लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणादरः । कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं सदाचारः प्रकीर्तितः ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोध्यायः । पणादयः स्वपरोपकारिण आत्मधर्मास्तान् पूजयन् बहुमानप्रशंसा साहाय्य - करणादिना समुल्लासयन्, तथा गुरवो मातापितरावाचार्यश्च तानपि पूजयन् त्रिसन्ध्यप्रणामकरणादिनोपचरन्, तथा गुणैर्ज्ञानसंयमादिभिर्गुरवो महान्तो गुणगुरवस्तानपि यजन् सेवाञ्जल्यासनाभ्युत्थानादिकरणगणेन मानयन्, गुणाश्च गुरवश्च गुणगुरवश्चेति विगृह्यैकशेषेण गुणगुरवस्तान् । सैद्गीः, सती प्रशस्ता परावर्णवादपारुण्यादिदोषरहिता गीर्वाग्यस्यासौ सद्गीः । त्रिवर्ग भजन्नन्योन्यानुगुणं, परस्परानुपघातकं त्रिवर्ग धर्मार्थकामान् भजन् सेवमानः । तदहं गृहिणीस्थानालयः, गृहिणी कौलीन्यादिगुणालङ्कृता पत्नी, स्थानं पुरग्रामादि वास्तु च, आलयो गृहं, गृहिणी च स्थानं च आलयश्च गृहिणीस्थानालयाः, तदहीस्त्रिवर्गयोग्या गृहिणीस्थानालया यस्य सः तथाक्तः । हीमयः, लज्जाया निवृत्त इव लज्जाभूयिष्ठो वा । युक्ता हारविहारः, युक्तौ शास्त्रविहितावाहारविहारौ भोजनविचरणे यस्य सः । ३ १ यन्मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम् । न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्त्तुं वर्षशतैरपि ॥ यदिच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा । परापवादशस्येभ्यो गां चरन्तीं निवारय ॥ परपरिभवपरिवादा-दात्मोत्कर्षाच्च बध्यते कर्म । नीचैर्गोत्रं प्रतिभव-मनेकभवकोटिदुर्मोचम् ॥ यस्य त्रिवर्गशून्यानि दिनान्यायान्ति यान्ति च । स लोहकारभस्त्रेव श्वसन्नपि न जीवति ॥ पादमायान्निधिं कुर्यात्पादं वित्ताय खट्वयेत् । धर्मोपभोगयोः पादं पादं भर्तव्यपोषणे ॥ आयार्द्धं च नियुञ्जीत धर्मे समधिकं ततः । शेषेण शेषं कुर्वीत यत्नतस्तुच्छ मैहिकम् ॥ ४ अभ्युत्थानमुपागते गृहपतौ तद्भाषणे नम्रता २ तत्पादार्पितदृष्टिरासनविधौ तस्योपचर्या स्वयं । सुप्ते तत्र शयीत तत्प्रथमतो जह्याच्च शय्यामिति प्राज्ञैः पुत्रि निवेदिताः कुलवधूसिद्धांतधर्मा इमे ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सागारधर्मामृते आर्यसमितिः, आर्येषु सदाचरणैकप्राणेषु, न तु कितवधूर्तविटभट्टभण्डनटादिषु, समितिः सङ्गतिर्यस्यासी । प्राज्ञः, ऊहापोहात्मकमतिज्ञानातिशयवान् । कृतज्ञः, कृतं परोपकृतं जानाति न निन्हुते । वैशी, इष्टेष्वर्थेष्वनासक्त्या विरुद्ध वाऽप्रवृत्त्या स्पर्शनादीन्द्रियविकारनिरोधकान्तरङ्गादिषड्वर्गनिगृहपरश्च । शृण्वन् धर्मविधि, धर्मस्याभ्युदयनिश्रेयसहेतोर्विधिः युक्त्यागमाभ्यां प्रतिष्टा तं अण्वन् प्रत्यहमाकर्णयन् । दयालुः, दुःखितदुःखप्रहाणेच्छालक्षणां दयां शीलयन्, 'धर्मस्य मूलं दयेति' १ यदि सत्सङ्गनिरतो भविष्यसि भविष्यसि । अथ सज्ञानगोष्ठीषु पतिष्यसि पतिष्यसि ॥ २ इदं फलमियं क्रिया करणमेतदेष क्रमो व्ययोऽयमनुषगजं फलमिदं दशैषा मम । अयं सुहृदयं द्विषत्प्रयतदेशकालाविमाविति प्रातीवतर्कयन्प्रयतते बुधो नेतरः ॥ प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः । । किन्नु मे पशुभिस्तुल्यं किन्नु सत्पुरुषैरिति ॥ विवित्सुरेनं तदिहात्मवश्यं कृतज्ञतायाः समुपैहि पारम् । गुणैरुपेतोऽप्यखिलैः कृतघ्नः समस्तमुद्वेजयते हि लोकम् ॥ भव्यः किं कुशलं ममेति विमृशन्दुःखाभृशं भीतवान् सौख्यैषी श्रवणादिबुद्धिविभवः श्रुत्वा विचार्य स्फुटम् । धर्म शर्मकरं दयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थितं गृह्णन्धर्मकथाश्रुतावधिकृतः शास्यो निरस्ताग्रहः ॥ ५ प्राणा यथाऽऽत्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा । आत्मौपम्येन भूतानां दयां कुर्वीत मानवः ॥ श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ अवृतिव्याधिशोकार्ता-ननुवर्तेत शक्तितः । आत्मवत्सततं पश्ये-दपि कीटपिपीलिकाः ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोध्यायः। श्रुतस्तामवश्यं कुर्वाणः । अघभीः, अघात्पापात् दृष्टादृष्टापायफलाकर्मणश्चौर्यादेमद्यपानादेश्च बिभ्यत् पापभीररित्यर्थः । एषा संक्षेपतो व्याख्याऽत्र कृता। विस्तरतो धर्मामृतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकासज्ञिकायां कृता, सा सर्वाऽत्र द्रष्टव्या ॥ ११ ॥ साम्प्रतं मन्दमतिविनेयानां सुखस्मृत्यर्थं सकलसागारधर्म सङ्ग्रह्णातिसम्यक्यत्वममलममला न्यणुगुणशिक्षाव्रतानि मरणान्ते । सल्लेखना च विधिना पूर्णः सागारधर्मोऽयम् ॥ १२ ॥ टीका-भवति । अयं श्रूयमाणः सागारधर्मः । किंविष्टः, पूर्णः समग्रः । किं किमित्याह-सम्यक्त्वं तावत्किंविशिष्टं, अमलं शङ्कादिदोषरहितं । तथा अणुगुणशिक्षापूर्वाणि व्रतानि अणुगुणशिक्षाव्रतानि अणुव्रतानि गुणव्रतानि शिक्षाव्रतानि च । किंविशिष्टानि, अमलानि निरतिचाराणि । न केवलं निरतिचारतत्त्वार्थश्रद्धानपूर्वाणि निरतिचाराणुव्रतादीनि, किं तर्हि, मरणान्ते विधिना सल्लेखना चेत्ययं सम्पूर्णः श्रावकधर्मः । शेषविशेषणानां यथास्वमत्रैवान्तर्भावादनुक्तसमुच्चयार्थेन चशब्देन समुच्चयनाञ्च । तत्र मरणमेवान्तो मरणान्तस्तद्भवमरणं, नत्वावीचिमरणं तस्य प्रतिक्षणं सर्वप्राणिषु भावात् । सल्लेखना सम्यक् लाभाद्यनपेक्षत्वेन लेखना, बाह्येनाभ्यन्तरेण च तपसा कायकषायाणां कृशीकरणम् । विधिस्तु सप्तदशाध्याये वक्ष्यते । ( यत्प्रति. समयमायुषः कर्मणो निषेकस्योदयपूर्विका निर्जरा भवति तदावीचिमरणम्) असंयमिनोऽपि सम्यग्दृशः कर्मक्लेशापकर्षो भवतीत्युपदेशार्थामदमाह भूरेखादिसहकषायवशगो यो विश्वदृश्वाशया हेयं वैषायकं सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्दधत् । चौरों मारयितुं धृतस्तलवरेणेवाऽऽत्मनिन्दादिमान शर्माक्षं भजते रुजत्यपि परं नोत्तप्यते सोऽप्यघैः॥१३।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सागारधर्मामृते ___टीका-नोत्तप्यते नोत्कृष्टं क्लिश्यते । कोऽसौ, सोऽपि अविरैतसम्यग्दृष्टिः, किं पुनः त्यक्तविषयसुखः सर्वात्मनैकदेशेन वा हिंसादिभ्यो विरतश्चेत्यपिशब्दार्थः । कैः कर्तृभिः, अधैः पापैर्दोषैर्वा बहुभिः । य: किं करोतीत्याहयो भजते सेवते । किंतत्, शर्म सुखम् । किं विशिष्टं, आक्षं अक्षेभ्य इद्रियेभ्य आगतं चक्षुरादिभिरिष्टरूपादीननुभवत आविर्भूतमित्यर्थः । न केवलमिन्द्रियसुखमनुभवति यो रुजत्यपि पीडयति च । कं, परं स्थावरं जगमं वा भूतग्रामं । किं कुर्वन, श्रद्दधत् अभिनिविशमानः । किं, हेयं वैषयिकं सुखं निजमुपादेयमिति । एव तु असावधारणार्थों भिन्नक्रमः । हेयं त्याज्यं न जातु सेव्यं । किं तत्, सुखं । किं विशिष्टं, वैषयिकं विषयेष्विष्टकामिन्यादिष्वमुभूयमानेषु जातं, तत्सेवनस्य दुःखकारणकर्मबन्धनिबन्धनत्वात् । तथा उपादेयं रत्नत्रयोपयोगादात्मन्याविर्भावनीयं । किं तत्, सुखं । किंभूतं, निजं आत्मोथं नित्यं चा । इत्येवं रोचमानो न स्वमेऽप्यन्यथा । कया हेतुभूतया, विश्वदृश्वनः सर्वज्ञस्य आज्ञा शासनमनुलंध्यं तया 'नान्यथा वादिनो जिना' इति दृढतमप्रतिपत्त्येत्यर्थः । एतेन निश्चयसम्यग्दर्शनभाग्भवन्नित्युक्तं वेदितव्यम् । पुनः किंविशिष्टः सन, आत्मनिन्दादिमान् धिग्मामेवं प्रदीपहस्तमप्यन्धकूपे पतन्तमित्यात्मानं निन्दयन्, भगवन्कथमस्मै दुर्गतिदुःखाय घटिष्यते एवमुत्पथचारी जनोऽयमिति गुरुसाक्षिकं गर्हमाणश्च । नन्वेवंभूतो भवन्नपि कुतोऽक्षसुखं सेवते, कुतश्च तदर्थं भूतग्रामं पीडयतीत्याह--भूरेखादिसडकषायवशगो यतः, भूरेखादिभिः पृथ्वीभेदादिभिः सदृशास्तुल्याः कषायाः भूरेखादिकषायाः, दृषदवनीत्यादिसूत्रोक्तलक्षणा अप्रत्याख्यानावरणादयो द्वादश क्रोधादिविकल्पाः तेषां वशः पारतंत्र्यं तं गच्छतीति तद्गश्चरित्रमोहोदयपरतंत्रः संन्नित्यर्थः । क इव, चौर इव तस्करो यथा । किं विशिष्टः, धृतोऽरुद्रः किं कर्तु, मारयितुं । मारयिष्याम्यनमहमिति प्रतिरुद्धः । केन, तलवरेण कोट्टपालेन । अयमों-यथा तलवरेण मारयितुमुपक्रान्तश्चौरो यद्यत्तेन खरारोहणादिकं कार्यते तत्तत्करोति तथा जीवोऽपि चारित्रमोहोदयेन यद्यदात्मनीनं भावगव्यसिंहादिकं कार्यते तत्तदयोग्यं जानन्नपिकरोत्येव, १ न दुःखबीजं शुभदर्शनक्षितौ कदाचन क्षिप्रमपि प्ररोहति । सदाप्यनुप्तं सुखबीजमुत्तमं कुदर्शने तद्विपरीतमिष्यते ।। २ णो इन्दिएसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहदि जिणुत्तं समाइट्ठी अविरदो सो ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोध्यायः। दुर्निवारत्वात्स्वकाले विपच्यमानस्य कर्मणः । एतेन सम्यक्त्वग्रहणात्पूर्वमब-- द्घायुषोऽसंयतस्यापि सम्यग्दृष्टेः सुदेवत्वसुमानुषत्वव्यतिरेकेण सकलसंसारसंहरणात् कर्मक्लेशापकर्षः । बद्धायुषस्तु पश्चादगृहीतसम्यक्त्वस्य नरकगतेरपि रत्नप्रभायां जघन्यस्थित्यैवानुभवनसम्भवात् बहुदुःखोपरमश्च प्रतिपादितः प्रतिपत्तव्यः । ततः संयमलब्धिकालात्पूर्व संसारभीरुणा भव्येन सम्यग्दर्शनाराधनायां नित्यं यतितव्यमिति विधौ पर्यवसन्नमेतत्सूत्रमधिगन्तव्यम् । इदानीं धर्मशर्मवद्यशोऽपि मनःप्रसत्तिनिमित्तत्वात् शिष्टैरवश्यं सेव्यमिव्युपदेष्टुमाह-- धर्म यशः शर्म च सेवमानाः __ केऽप्येकशो जन्म विदुः कृतार्थम् । अन्ये द्विशो विन वयं त्वमोघा न्यहानि यान्ति त्रयसेवयैव ।। १४ ॥ टीका-विदुः जानन्ति । के, केऽपि लौकिकाः । किं तत्, जन्म मनुष्यभवग्रहणम् । किंविशिष्टं, कृतार्थ कृतः साधितोऽर्थः प्रयोजनं साध्यं यस्य तत् । किंकुर्वाणाः, सेवमानाः कर्तव्यतानुरक्तबुद्धया साधयन्तः। कं,धर्म सुकृतम्, यशः कीर्तिम्, शर्म सुखम् । कथम् , एकशः एकैकम् । केचिद्धर्ममानं केचिद्यशोमात्रं केचिच्च सुखमात्रं साधयन्तो वयं प्राप्तमनुष्यजन्मफला इति मन्यन्ते. नानारुचित्वाल्लोकस्य । तथा अन्ये लोकच्छन्दानुवर्तिन: शास्त्रज्ञम्मन्याः विदुः । किं,जन्म । किम्भूतं,कृतार्थम् । किं कुर्वाणाः, धर्म यशः शर्म च सेवमानाः । कथं,द्विशः द्वे द्वे । केचिद्धर्मयशसी केचिद्धर्मशर्मणी केचिद्यशःशर्मणी च साधयन्तो जन्म फलवन्मन्यन्त इत्यर्थः। तर्हि युष्माकं किं मतमित्यत्राह१ दुर्गतावायुषोबन्धात्सम्यक्त्वं यस्य जायते । गतिच्छेदो न तस्यास्ति तथाप्यल्पतरा स्थितिः ॥ २ जन्मोन्माज्यं भजतु भवतः पादपद्मं न लभ्यं तच्चेत्स्वैरं चरतु न च दुर्देवतां सेवतां सः । अनात्यन्नं यदिह सुलभं दुर्लभं चेन्मुधाऽऽस्ते क्षुद्यावृत्यै कवलयति कः कालकूटं बुभुक्षुः ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते तुर्विशेषे । विन जानीमः । के ते, वयं लौकिकशास्त्रज्ञपरितोषकारिणः। कानि, अहानि दिनानि अर्थान्नृजन्मसम्बन्धीनि । किं कुर्वन्ति, यान्ति गच्छन्ति । किंविशिष्टानि,अमोघानि सफलानि । कया, वयसेवया धर्मयशःशर्मसाधनया, न पुनरेकैकस्य द्वयोर्द्वयोर्वा निर्वर्तनयेत्येवकारार्थः । एतेनाहरहर्यथाशक्तिधर्मादित्रयं साध्यामिति विधिः प्रत्येयः ।। १४ ॥ एवं भावितसम्यक्त्वस्य संयतत्वसामग्रीविरहे कालादिलब्धिलाभादवश्यारोहणीयं सँयतासँयतत्वपदं निर्देष्टुमाह मूलोत्तरगुणनिष्ठा मधितिष्ठन्पश्चगुरुपदशरण्यः । दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधां श्रावकः पिपासुः स्यात् ॥ १५ ॥ टीका-स्यात् भवेत् । कोऽसौ, श्रावकः शृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावकः । किं कुर्वन् , अधितिष्ठन् उपयुञानः। कां, मूलोत्तरगुणनिष्ठां मूलानि उत्तरगुणप्ररोहणनिमित्तत्वात् सँयमाथिभिः प्रागनुष्ठेयत्वाच्च उत्तरे मूलगुणान न्तरसेव्यत्वादुत्कृष्टत्वाच्च, मूलानि च उत्तरे च मूलोत्तरास्ते च ते गुणाश्च संयमविकल्पाः तेषां निष्ठा निर्वाहो दृष्टफलनिरपेक्षतया निराकुलं वहन् । किम्भूतो भूत्वेत्याह-पंचगुरुपदशरण्यः, पंचानां गुरूणामहदादीनां पदानि चरणाः शरण्यानि शरणे आर्तिहरणे स्वात्मसमर्पणे वा साधूनि योग्यानि यस्य स तथोक्तः । एवं सम्यग्दर्शनपूर्वकं देशसयममधितिष्टतो दानयजनाध्ययनलक्षणमाचारं कर्तव्यतया दानेत्यादिना निर्दिशति-कीदृशस्तथाभूतः श्रावकः स्यात्, दोनयजनप्रधानः दान-पात्रादिभिश्चतुर्धा, यजनं-नित्यमहादियज्ञ: पंचधा, दानं च यजनं च दामयजने प्रधाने मुख्य यस्यासौ । १ जो तसवहादु विरदो अविरदओ तह य थावरवहादो। एकसमयाह्म जीवो विरदाविरदो जिणेकमइ ॥ २ ध्यानेन शोभते योगी संयमेन तपोधनः । सत्येन वचसा राजा गेही दानेन शोभते ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोध्यायः । orwwwwwwwwwwwwwwwwwwwr वार्ता तु श्रावकंस्य गोणीति प्रधानग्रहणाल्लशयति । किं चरिष्णुः श्रावकः स्यात्, पिपासुः पातुमिच्छुः उपयोक्तकामः। कां, ज्ञानसुधां स्वपरान्तरज्ञानामृतम् । एवं पञ्चमगुणस्थानं निर्दिश्य तद्विकल्पानां भावद्रव्यात्मनामेकादशाना मुपासकपदानां मध्येऽन्यतमं विशुद्धदृष्टिमहाव्रतपरिपालनलालसो यथा. त्मशक्ति यः प्रतिपद्यते तमभिनन्दति रागादिक्षयतारतम्यविकसच्छुद्धात्मसंवित्सुखस्वादात्मस्वबहिर्बहिस्त्रसवधायहोव्यपोहात्मसु । सग्दर्शनिकादिदेशविरतिस्थानेषु चैकादश स्वेकं यः श्रयते यतिव्रतरतस्तं श्रद्दधे श्रावकम् ॥१६॥ टीका-श्रद्दधे साधु करोत्ययमिति प्रतिपद्येऽहम् । कं, तं श्रावकं । यः किं, यः श्रयते स्वीकुरुते । किं तत्, एकं पदं । केषु मध्ये, दर्शनिकादिदेशविरतिस्थानेषु एकादशसु वक्ष्यमाणेषु । कथम्भूतो भूत्वा, सहक् सम्यग्दर्शनशुद्धः ! पुनः किंविशिष्टः, यतिव्रतरतः यतीनामनगाराणां व्रतानि सर्वहिंसादिविरतिपरिणामास्तेषु रत आसक्तः, सर्वविरतिकलशारोपणो हि श्रावकधर्मप्रासादः। किंविशिष्ठे भावतस्तेष्वित्याह-रागादिक्षयतारतम्येत्यादि, क्षयः सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयाभावः अर्थाद्देशघातिस्पर्द्धकानामुदयः, तारतम्यं यथोत्तरमुत्कर्षः, रागादीनां रागद्वेषमोहानां क्षयतारम्येन विकसन्ती आविर्भवन्ती चासो शुद्धात्मसंविञ्च निर्मलचिद्रपानुभूतिः सैव तदुत्थं वा सुखमानन्दस्तस्य स्वादः स्वसंवित्याऽनुभवः स एवात्मा स्वरूपं येषां तानि तदात्मानि तेषु । क, एवंभूतेषु अबहिरध्यात्मं । तर्हि द्रव्यतः किंरूपेष्वित्याहबहिः शरीरे वाचि मनसि च सवधं आदिर्येषां स्थूलादीनां तानि त्रसव'धादीनि तान्येव अंहांसि पापानि तत्फलत्वात्तेभ्यो व्यपोहो विधिपूर्वक देवगुरुसधर्मसाक्षिकमपोहो विरतिः सैवात्मा एषां तानि तेषु । 'च' शब्दस्यात्र भिन्नक्रमस्य योजनात्॥ १६ ॥ __ आयुःश्रीवपुरादिकं यदि भवेत्पुण्यं पुरोपार्जितं स्यात्सर्वं न भवेन तच्च नितरामायासितऽप्यात्मनि । इत्यार्याः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मंदोद्यमा द्रागागामिभवार्थमेव सततं प्रीत्या यतन्ते तराम् ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते-- किं लक्षणास्त्रे दर्शनिकादयो भवन्तीत्युद्दिशतिदृष्ट्या मूलगुणाष्टकं व्रतभरं सामायिक प्रोषधं सच्चित्तानदिनव्यबायवनितारम्भोपधिभ्यो मतात् । उद्दिष्टादपि भोजनाच विरतिं प्राप्ताः क्रमात्माग्गुणप्रौढ्या दर्शनिकादयः सह भवन्त्येकादशोपासकाः॥१७॥ टीका-भवन्ति । के, उपासकाः श्रावकाः । कति, एकादश । किन्नामानः दर्शनिकादयः । दर्शनिकोऽथ व्रतिक इत्यादिना वक्ष्यमाणाः । किं विशिष्टासन्तः, प्राप्ताः प्रतिपत्राः । किं तत्, दृष्ट्या मूलगणाष्टकमित्यादिविरतिमि. त्यन्तं देशसंयमातथा हि-सम्यक्त्वेन विशिष्टं मूलगुणाष्टकं प्राप्तो दर्शनिकः स एव च व्रतभरं निरतिचाराण्यणुव्रतादीनि प्राप्तो व्रतिकः । एवमुत्तरेष्वपि सम्बन्धः कर्तव्यः । व्यवायो मैथुनम्, वनिता स्त्रीः, उपधिः परिग्रहः, मतात् मदर्थ साधुकृतमनेनेदमित्यनुमोदितात्, अपि भोजनात् मतादुद्दिष्टाच्च भोजनादपि विरतिं प्राप्तोऽनुमतविरत उद्दिष्टविरतश्च,योऽनुमतमुद्दिष्टं च भोजनपि न कुर्यात् स किमां न्यत्रारम्भादौ पापकर्मण्यनुमतिं दद्यात्, उद्दिष्टं च वसत्याच्छादनादिकमुपयुञ्जीतेत्यपिशब्दाल्लभ्यते। कथं ते तत्तत्पदं प्राप्ताः, सह सार्धम् । कया, प्राग्गुणप्रौव्या दृष्टिमूलगुणाष्टकप्रकर्षेण सह व्रतभरं, तलयप्रकर्षेण सामायिकमित्यादियुक्त्या ते तथा भवन्तीत्यर्थः । कस्मात्तथा भवन्ति, क्रमात् अनादिविषयाभ्यासासंय. मभग्नमनस्कतया युगपत्तत्रासामर्थ्यात् ।। .. साम्प्रतं दुरितापचयनिमित्तेज्यादिधर्मकर्मसिध्यर्थं कृष्यादिषट्कर्मलक्षण वार्तामाचरतो गृहस्थस्यावश्यंभावी सावद्यलेशः प्रायश्चित्तेन पक्षादिभिश्च निराकार्य इत्युपदेशार्थमाह नित्याष्टाह्निकसच्चतुर्मुख महः कल्पद्रुमैन्द्रध्वजाविज्याः पात्रसमक्रियान्वयदयादत्तीस्तपःसंयमान् । स्वाध्यायं च विधातुमादृतकृषीसेवावणिज्यादिकः शुध्याऽऽप्तोदितया गृही मललवं पक्षादिभिश्च क्षिपेत् ।। टीका-क्षिपेत् निराकुर्यात् । कोऽसौ, गृही गृहस्थः । कं, मललवं पापले' शम् । कया, शुध्धा प्रायश्चित्तेन । किंविशिष्टया, आप्तोदितया । न केवलं तया Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोध्यायः। १७ पक्षादिभिश्च पक्षचर्यासाधनैस्त्रिभिः । किंविशिष्टः सन्, आइतकृषीसेवावणिज्यादिकः आदृतानि यथास्वं प्रवर्तितानि कृषीसेवावणिज्यानि आदिशब्दान्मषीविद्याशिल्पानि च षडाजीवनकर्माणि येन सः आदृतकृषीसेवावणिज्यादिकः । किं कर्तुं, विधातुं कर्तुं करिष्याम्यहमिज्यादीनि जिनागमप्रसिद्धानि पञ्च धर्मकर्माणीति अध्यवसायः । कानि तानीत्याह-नित्येत्यादि, नित्यमहः *अष्टाह्निकमहः सच्चतुर्मुखमंहः कल्पद्रुमः ऐन्द्रध्वजश्चेति पञ्चाहत्पूजाविशेषाः इज्याः । चतुर्मुखस्य सदितिविशेषणादत्रेदानीमयमेव परमोत्कृष्टः कल्पवृक्षस्यासम्भवादिति प्रकाशयति । अत एवैन्द्रध्वजेन सह समस्यैष निर्दिष्टः । पात्रे उक्तं च आर्षे भगवजिनसेनपादैःप्रोक्ता पूजार्हतामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुखमहः कल्प-द्रुमश्चाष्टाह्निकोऽपि च ॥ १ तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनगृहं प्रति । स्वगृहान्नीयमानाऽचो गन्धपुष्पाक्षतादिका ।। चैत्यचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदार्चनम् ॥ या च पूजा मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी । स च नित्यमहो ज्ञेयो यथा शक्त्युपकल्पितः ।। * अष्टाह्निको महः सार्वजनिको रूड एव सः । २ महामकुटबद्धस्तु क्रियमाणो महामहः ।। ___ चतुमुर्खः स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि ॥ ३ दत्वा किमिच्छुकं दानं सम्राभिर्यः प्रवर्त्यते । कल्पवृक्षमहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः ॥ ४ महानैन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजैः कृतो महः ।। बलिस्नपनमित्यन्य-त्रिसंध्यासेवया समम् । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम् ॥ एवं विधविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम् । विधिज्ञास्तामुशन्तीज्यां वृत्तिं प्राथमकल्पिकीम् ॥ वार्ता विशुद्धवृत्या स्यात्कृष्यादीनामनुष्ठितिः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सागारधर्मामृते त्यादि, समा आत्मना समाना क्रिया आधानादिका उपलक्षणान्मन्त्रव्रतादयश्च यस्यासौ समक्रियः, पात्रं च समक्रिपश्च अन्वयश्च दया च पीत्रसम क्रियान्वयदयास्तदाश्रया दत्तयो दानानि तद्दत्तयस्ताः, पात्रदत्तिं समानदत्तिमन्वयदत्तिं दयादत्तिं च । तपोऽनशनादि संयमं व्रतधारणं । स्वाध्यायं श्रतभावनाम् | किमेतत्पक्षादित्रयमित्याह स्यान्मैत्र्याद्युपबृंहितोऽखिलवधत्यागो न हिंस्यामहं धर्माद्यर्थमितीह पक्ष उदितं दोषं विशोध्योज्झतः । सूनौ न्यस्य निजान्वयं गृहमथां चर्या भवेत्साधनं त्वन्तेऽनेह तनूज्झनाद्विशदया ध्यात्यात्मनः शोधनम् ।। टीका -- स्यात् भवेत् । कोऽसौ पक्षः अहिंसापरिणामत्वं । किमात्मा, अखिलवधत्यागः अखिलोऽनृतादिसहितो वधः प्राणातिपातः, सह सागारधर्मप्रक्रमात्त्रसवधविषय एव तस्य त्यागो वर्जनं । किंविशिष्टः, मैत्र्याद्युपबृंहितो मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यभावनाभिरुपचितः । केन, न हिंस्यामहं , १ चतुर्धा वर्णिता दत्ति - दयादानसमाऽन्वयैः ॥ सानुकम्पमनुग्राह्ये प्राणिवृन्देऽभयप्रदा । त्रिशुध्यानुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः ॥ महातपोधनायाय-प्रतिग्रहपुरःसरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते ॥ समानायात्मनाऽन्यस्मै क्रियामन्त्रत्रतादिभिः । निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ॥ समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतामिते । समानप्रतिपत्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयान्विता ॥ आत्मान्वयप्रतिष्ठार्थं सूनवे यदशेषतः । मं समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ॥ सैषा सकलदत्तिः स्यात् स्वाध्यायः शुभभावना | तपोऽनशनवृत्यादि संयमो व्रतधारणम् ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोध्यायः । , धर्माद्यर्थमित्येवम्प्रकारेण सङ्कल्पेन धर्मार्थं देवतार्थं मन्त्रसिध्द्यर्थमौषधार्थमाहारार्थं वा प्राणिघातं न कुर्यामिति प्रतिज्ञाय । अ हि मन्दकषायोऽपि गृहवाससेवनरतत्वेन प्रवर्तितारम्भत्वादनारम्भजामेव साङ्कल्पिकीं हिंसां परिहर्तुं शक्नोति न पुनरारम्भानुषङ्गिणीम् तस्या गृहिणोऽवश्यम्भावात् । क्व पक्षः स्यात्, इह एतेषु पक्षादिषु मध्ये । तथा भवेत् । काऽसौ, चर्या दर्शनिकादारभ्यानुमतिविरतं यावदुपासकाचारः । कस्य गृहिणः । किं कुर्वतः, उज्झतस्त्यजतः । किं तत् गृहं । किं कृत्वा, न्यस्य स्थापयित्वा । कं, निजान्वयं स्वं पोष्यवर्गं धनं धर्म्यं च । क्क, सूनौ पुत्रे । तदसम्भवे तत्तुल्ये वंश्येऽपि । किं कृत्वा, विशोध्य विधिपूर्वकं प्रायश्चित्तेन शास्त्रोक्तविधानेन निराकृत्य । कं, दोषं हिंसादिकं । किंविशिष्ट, मुदितं कृष्यादिद्वारेणोत्पन्नं । कथमथो, पक्षसँस्कारानन्तरं वैराग्यपरिणामे प्रत्यहमारोहति सतीत्यर्थः । तथा भवेत् । किं तत् साधनं । किं, शोधनं शुद्धी रागादिदोषापनयनं । कस्य, आत्मनः चिद्रूपस्य । कया, ध्यात्या ध्यानेन । किं विशिष्टया, विशदया शुद्धया । कस्मात्, अन्नेहतनूज्झनात् अन्नं चाहारः ईहश्च शरीरचेष्टा तनुश्च शरीरमन्नेहतनवस्तासामुज्झनं नियतकालं यावज्जीवं च यथोचितं परित्यागस्तस्मात्। क्व,अन्ते गृहत्यागावसाने मरणे चासन्ने । 'तु'शब्दादुदितं दोषं विशोध्येत्यनुवृत्यात्रापि योज्यम् ||१९|| इदानीं पक्षादिकल्पनाद्वारेण कृतावतारान् श्रावकस्य त्रीन् प्रकारानुद्दिश्य संक्षेपेण लक्षयन्नाह पाक्षिकादिभिदा त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्वनिष्ठो नैष्ठिकः साधकः स्त्रयुक् ||२०|| टीका - भवति । कोऽसौ, श्रावकः । कतिधा, त्रेधा त्रिविधः । कया, पाक्षिकादिभिदा पक्षेण चरति दीव्यति जयति वा, पाक्षिकः आदिर्यस्यासौ पाक्षिकादिः, पाक्षिको नैष्ठिकः साधकश्चेति स एव तेन वा भिद् भेदो विकल्पकथनं पाक्षिकादिभिद् तया । तानेव लक्षणतो दर्शयति- तत्रेत्यादि, तत्र तस्यां पाक्षिकादिभिदि । भवति । कोऽसौ, पाक्षिकः । किंरूपः, तद्धर्मगृह्यः तस्य श्रावकस्य धर्म एकदेशहिंसाविरतिरूपं व्रतं गृह्यं पक्षः प्रतिज्ञा १९ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० सागरधर्मामृते विषयो यस्यासौ प्रारब्धदेशसंयमः श्रावकधर्मस्वीकारपर इत्यर्थः। तथ: भवति । कोऽसौ, नैष्टिकः निष्ठया चरति तत्र वा भवः । किंविशिष्टः, तनिष्ठः तत्र धर्मे निष्ठा निर्वहणं यस्यासौ घटमानदेशसंयमो निरतिचारश्रावकधर्मनिर्वाहपर इत्यर्थः । तथा भवति । कोऽसौ, साधकः समाधिमरणं साधयतीति साधकः । किंविशिष्टः, स्वयुक् स्वस्मिन्नात्मनि युक् समाधिर्यस्यासौ निष्पन्न - देशसंमय आत्मध्यानतत्पर इति भद्रम् ॥ २० ॥ इत्याशाधरविरचितायां स्वोपज्ञधर्मामृत सागारधर्मदीपिकायां भव्यकुमुदचंद्रिकासज्ञायामादितो दशमः प्रक्रमाच्च प्रथमोऽध्यायः । - द्वितीयोऽध्यायः। एवं सागारधर्मं सूचयित्वा पाक्षिकाचारं प्रपञ्चयितुकामः प्रथमं तावद्या-- दृशस्य भव्यस्य सागारधर्माभ्युपगमो धर्माचार्यैरभ्यनुज्ञायते तादृशं तं. दर्शयन्नाह त्याज्यानजस्रं विषयान् पश्यतोऽपि जिनाज्ञया। मोहात्त्यक्तुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते ॥ १॥ टीका-अनुमन्यते क्रियतामित्यनुज्ञायते धर्माचार्यैः । कोऽसौ, गृहिधर्मः कस्य, अशक्तस्य असमर्थस्य । किं कर्तु, त्यक्तुं। कान् , विषयान् इष्टकामिन्यादीन् । कस्मात्, मोहात् प्रत्याख्यानावरणलक्षणचारित्रमोहोदयोद्रेकात् । किं कुर्वतोऽपि, पश्यतोऽपि प्रतिपद्यमानस्य, न पुनरनन्तानुबन्धिरागादिपरतंत्रवसेव्यतयाऽभ्युपगच्छत इत्यपिशब्दार्थः। कान्, विषयान् । किंविशिष्टान्, त्याज्यान असेव्यान् । कथम्, अजस्रं शश्वत् । कया, जिनाज्ञया वीतरागसर्वज्ञानल्लंघ्यशासनेन सम्यग्दर्शनशुद्धस्य सत इत्यर्थः । इदमत्र तात्पर्य, एकदेश १ विषयविषमाशनोत्थित-मोहज्वरजनिततीव्रतृष्णस्य । निःशक्तिकस्य भवतः प्रायः पेयाद्युपक्रमः श्रेयान् ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । २१ विरतिमहं करिष्यामीति प्रतिपद्यमानो गृही सूरिभिरोमित्यनुज्ञायते । एतेन स्थावरवधानुमतिदोषानुषंगोऽप्याचार्याणां परिहृतो भवति ॥ १ ॥ अधुना पाक्षिकं दर्शन विशुद्धिमध्यासीनम हिंसा सिध्यर्थं मद्यादिविरतौ नियुक्त तत्रादौ श्रधज्जैनी - माज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्युज्झेत्पञ्च क्षीरिफलानि च ॥ २ ॥ टीका-उज्झत् त्यजेत् । कोऽसो, देशसंयमोन्मुखो गृही। कानि, मद्यैमांसमधूनि न केवलमेतानि पञ्च क्षीरिफलानि च क्षीरिणां पिप्पलादीनां पञ्चानां फलानि । च-शब्दान्नवनीतरात्रिभुक्त्यगालितपानीयादिकमप्युत्सृजेदित्यनुक्तं समुच्चितं व्रतयति । किं कर्तुं, अपासितुं त्यक्तुं । कां, हिंसां भावतो मद्यादिवि'रागरूपां द्रव्यतश्च तद्गतप्राणिप्राणव्यपरोपणलक्षणाम् । किं कुर्वन् श्रधत् । कां, आज्ञां । किंविशिष्टां, जैनीं जिनागममित्यर्थः । क्क, आदौ प्रथमतः । क्व, तत्र गृहिधर्मे । एतेनेदमुक्तं भवति, तादृग्जिनाज्ञा श्रद्धानेनैव मद्यादिविरतिं कुर्वन् देशवती स्यात् न कुलधर्मादिबुध्द्या ॥ २ ॥ अथ स्वमतपरमताभ्यां मूलगुणान् विभजते अद्वैतान् गृहिणां मूल-गुणान् स्थूलवधादि वा । फलस्थाने स्मरेद् द्यूतं मधुस्थान इहैव वा ॥ ३ ॥ टीका-स्मरेत् स्मृतिविषयीकुर्यात् । कोऽसौ, मूलगुणस्थापनोद्यतः सूरिः । कानू, मूलगुणान् । केषां गृहिणां । किंविशिष्टान् एतान् उपासकाध्ययनादि " १ सर्वविनाशी जीवस्त्रसहनने त्याज्यते यतो जैनैः । स्थावरहननानुमतिस्ततः कृता तैः कथं भवति ॥ २ मांसाशिषु दया नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु । अनृशंस्यं न मत्यैषु मधूदुम्बर से विषु ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते शास्त्रानुसारिभिः पूर्वमनुष्ठेयतयोपदिष्टान् । कति, अष्ट मंद्यमांसमधुपञ्चोदुम्बरफलविरतिरूपान्। वा-शब्दः पक्षान्तरसूचने । स्वामिसमंतभद्रमते पुनः सूरिः स्म - रेत् । किं तत्, स्थूलवधादि स्थूल हिंसानृत स्तेय मैथुनग्रन्थपञ्चकम् । क, फलस्थाने पञ्चोदुम्बरफलप्रसङ्गे तनिवृत्तौ वा मद्यमांसमधुविरतित्रयं पञ्चाणुव्रतानि चाष्ट मूलगुणान् स्मरेदित्यर्थः । पुनर्वाशब्दः पक्षान्तरसूचने । महापुराणमते तु स्मरेत् । किं तत्, द्यूतं । व, मधुस्थाने । कस्मिन् इहैव अस्मिन्नेव स्वाम्युक्ताष्टमूलगुणपक्षे मद्यमांसद्यूतविरतित्रयं पंचाणुत्रतानि चाष्टौ मूलगुणान् स्मरेदित्यर्थः । स्मरेदित्यनेन न च सर्वत्र यमनियमादौ भुक्त्यंगे स्मरणपरेण भवितव्यमिति लक्षयति ॥ सम्प्रति मयस्य जन्तुभूथिष्टतानुवादपुरस्सर सुपयोक्तृणामुभयलोकवाधकत्वमुपदर्शयन्नवश्य त्याज्यतामभिधत्तेयदेकबिन्दोः प्रचरन्ति जीवा - तत् त्रिलोकीमपि पूरयन्ति । यद्विक्लवावे मममुं च लोकं २२ यस्यन्ति तत् कश्यमवश्यमस्येत् ॥ ४ ॥ टीका– अस्येत् त्यजेत् । कोऽसौ, स्वहितैषी । किं तत्, कश्यं मद्यं कथं, अवश्यं नियमेन मद्यविरतिव्रतं स्वीकुर्यादित्यर्थः । यतः पूरयन्ति १ मद्यमांसमधुत्यागैः सहोदुम्बरपञ्चकैः । अष्टावेते गृहस्थाना·मुक्ता मूलगुणाः श्रुते ॥ ( सोमदेवः ) २ मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम् । अप्रै मूलगुणानाहु-र्गृहिणां श्रमणोत्तमाः || (समन्तभद्रः ) ३ हिंसासत्यस्तेया- दब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मांसान्मया-द्विरतिगृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणाः ॥ ४ मनोमोहस्य हेतुत्वा - निदानत्वाच्च दुर्गतेः । मद्यं सद्भिः सदा त्याज्य - मिहामुत्र च दोषकृत् ॥ विवेकः संयमो ज्ञानं सत्यं शौचं दया क्षमा । मद्यात्प्रतीयते सर्वं तृण्या वन्हिकणादिव ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । २३ भरन्ति । के ते, जीवाः। कां,त्रिलोकीमपि समस्तविष्टपमपि । कथं, तत् ततः। चे,-द्यदि । प्रचरन्ति संचरन्ति । के, जीवाः । कस्मात्, यदेकबिन्दोः यस्य मद्यस्यैकस्माद् बिन्दोः पृषतः सकाशात्, तज्जाः प्राणिनो यदि विचरेयुरित्यर्थः। यतश्च यस्यन्ति भ्रंशयन्ति श्रेयो, हितं कुर्वन्तीत्यर्थः। के ते, यद्विक्लवाः येन मद्येन मोहितमतयः। कं, लोकं । किंविशिष्ट, ममुं, न केवलममुं च तद्भवमुत्तरभवं च दुःखमयं कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ ४ ॥ इदानीं मद्यपानस्य द्रव्यभावहिंसानिदानत्वमनूद्य तन्निवृत्तिप्रवृत्तिशीलानां गुणदोषौ दृष्टान्सद्वारेण स्पष्टयन्नाह पीते यत्र रसाङ्गजीवनिवहाः क्षिप्रं म्रियन्तेऽखिलाः कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतयः सावद्यमुद्यन्ति च । तन्मयं व्रतयन्न धृतिलपरास्कन्दीव यात्यापदं तत्पायी पुनरेकपादिव दुराचारं चरन्मज्जति ॥ ५॥ टीका-न याति न प्राप्नोति । कोऽसौ, पुरुषः । कां, आपदं विपदं। किं कुर्वन् ,व्रतयन् व्रतं कुर्वन् अमद्यपकुलजातोऽपि देवादिसाक्षिकं निवर्तयन्नित्यर्थः। किं तत्, तत्प्रागुक्तविनिपातप्रायं मद्यम् । क इव, धूर्तिलपरास्कन्दीव धूर्तिलनामा चोरो यथा। तत्पायी पुनर्मद्यपानशीलो मजति दुर्गतिदुःखे ब्रजति। किं कुर्वन् , चरन् अनुतिष्ठन् । कं, दुराचारं अगण्यगमनाभक्ष्यभक्षणापेयपानादिकं । क इव, एकपादिव एकपान्नामपरिव्राजको यथा । यत्र किं, यस्मिन्मद्ये पीते सति । नियन्ते विपद्यन्ते । के ते, रसाङ्गजीवनिवहाः रसोऽङ्गं कारणं येषां ते रसांगाः रसजा इत्यर्थः, तथा रसस्यांगानि कारणानि रसांगानि मद्ये रसजनका इत्यर्थः, रसांगाश्च ते जीवाश्च रसांगजीवास्तेषां निवहाः संघाताः । किंवि रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् । मद्यं भजतां तेषां हिंसा सजायतेऽवश्यम् ॥ समुत्पद्य विपद्येह देहिनोऽनेकशः किल । मद्ये भवन्ति कालेन मनोमोहाय देहिनाम् ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सागारधर्मामृते शिष्टाः, अखिलाः समस्ताः । कथं, क्षिप्रं पानानन्तरमेव । तथा उद्यन्ति उत्पद्यन्ते । के ते, कामादयः। क्व सति, यत्र पीते सति । कथं, सावा पापेन निन्दया वा सह । कामो योन्यादौ रिरंसा, भ्रमो मिथ्याज्ञानं चक्रारूढस्येव शरीरभ्रमणं, कामश्च क्रोधश्च भयं च भ्रमश्च कामक्रोधभयभ्रमाः ते प्रभृतयः प्रमुखा येषामभिमानहास्यारतिशोकादीनां ते ॥ ५॥ अथाचारविशुद्धिगर्वितानां पिशिताशनं गह्यमाणः प्राह स्थानेऽनन्तु पलं हेतोः स्वतश्चाशुचिकश्मलाः । वादिलालावदप्याः शुचिम्मन्याः कथं नु तत् ॥६॥ टीका-अनन्तु भक्षयन्तु । के ते, कश्मलाः जातिकुलाचारमलिनाः । किं तत्, पलं मांसं । किंविशिष्टं, अशुचि । कस्मात्, हेतोः शुक्रशोणितलक्षणात कारणात्, न केवलं हेतोः स्वतश्च स्वभावेन अमेध्यबीजममेध्यस्वभाव चेत्यर्थः । कथं, स्थाने युक्तं कश्मलानां तथाप्रवृत्त्युपपत्तेः । नु अहो । कथमद्युः कथं खादेयुः गर्हामहे । अन्याय्य (अनार्य) मेतत् । गर्दै सप्तम्या विधानात् । के ते, शुचिम्मन्याः आचारविशुद्धमात्मानं मन्यमानाः । किं तत्, पलं । किंविशिष्टं, श्वादिलालावदपि श्वादीनां कुक्करचित्रकश्येनादीनां लाला मुखस्रावः श्वादिलाला सा अस्मिन्नस्तीति श्वादिलालावत्, अथवा श्वादिलालया तुल्यं श्वादिलालवत् कुक्करादिलालायुक्तं तत्तुल्यं वा । अपि विस्मये ॥ ६ ॥ साम्प्रतं स्वयमेव पञ्चत्वं प्राप्तस्य पञ्चेन्द्रियस्य मत्स्यादेर्भक्षणमदूषणमुत्ने क्षमाणान् प्रत्याह हिंस्रः स्वयम्मृतस्यापि स्यादनन् वा स्पृशन्पलम् । पक्कापका हि तत्पेश्यो निगोदौघसुतः सदा ॥ ७ ॥ १ भक्षयन्ति पलमस्तचेतनाः सप्तधातुमयदेहसंभवम् । यद्वदन्ति च शुचित्वमात्मनः किं विडम्बनमतः परं बुधाः ।। यतो मांसाशिनः पुंसो दमो दानं दयार्द्रता । सत्यशौचव्रताचारा न स्युर्विद्यादयोऽपि च ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्याय । २५ टीका - स्यात् भवेत् । कोऽसौ, पुमान् । किंविशिष्टः, हिंस्त्रेः द्रव्यहिंसाशीलः । भावहिंसायास्तु मांसभक्षणे दर्जेकरतरत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् । किं कुर्वन्, अश्नन् खादन्, स्पृशन् वा हस्तादिना संयोजयन् । किं तत्, पलं मांसं । कस्य, स्वयमृतस्यापि भोक्तुः प्रयत्नमन्तरेणापि त्यक्तप्राणस्य मत्स्यमहिषादेः किं पुनरातमना वधितस्येत्यपिशब्दार्थः । कुत इत्याह- हि यस्मात् । भवन्ति । का, - स्तत्पेश्यः तस्य पलस्य पेश्यः कोशाः । किंविशिष्टाः, निगोदौघसुतः निगोदानां साधारणांगजीवानामेकशरीर भोक्तृणामनन्तप्राणिनामोघाः सङ्घातास्तान् सुवन्ति जनयन्तीति निगोदौघसुतः । किं कदाचिन्नेत्याह-सदा सर्वदा । किंविशिष्टाः सत्यः, पक्कापक्काः पक्काश्चापवाश्चेति विगृह्यैकशेषेण पक्कापक्का इत्यस्य लोपस्तेन पक्काः आमाः पच्यमानाश्चेत्यर्थः ॥ ७ ॥ अथ मांसस्य प्राणिहिंसातिरेकप्रभवत्वेनेन्द्रियदर्पकरतरत्वेन च भावहिंसाहैतुत्वानुवादपुरस्सरं तद्भक्षणं नरकादिगतिविवर्तननिमित्तत्वेनोपदिशन्नाह— प्राणिहिंसार्पितं दर्प-मर्पयत्तरसं तराम् । रसयित्वा नृशंसः स्वं विवर्तयति संसृतौ ॥ ८ ॥ " १ टीका — विवर्तयति द्रव्यक्षेत्र कालभावैः परिवर्तयति । कोऽसौ नृशंसः क्रूरकर्मकृत् । कं, स्वं आत्मानं । क, संसृतौ संसारे । किं कृत्वा, 1 refecar आस्वाद्य । किं तत्, तरसं मांसं । किंविशिष्टं प्राणिहिंसार्पितं पञ्चेन्द्रियजीवअभिमानभयजुगुप्सा- हास्यारतिकामशकिकोपाद्याः । हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च नरकसंनिहिताः ॥ न विना प्राणिविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥ ये भक्षयन्त्यन्यपलं स्वकीयपलपुष्टये । त एव घातका यन्न वद को भक्षकं विना ॥ मांसास्वादनलुब्धस्य देहिनो देहिनं प्रति । हन्तुं प्रवर्तते बुद्धिः शाकिन्य इव दुर्धियः आमां वा पक्कां वा खादति वा स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनोम् ॥ आमास्वपि पक्कास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सागारधर्मामृते वधसम्पादितं । किं कुर्वत्, अर्पयत् सम्पादयत् । कं, दर्प मदावेशं । कथं, तरां अतिशयेनेत्यऽव्ययमिदम् । मृष्टान्नादिभ्योऽतिशयेन प्राणिवधादुत्पन्नं तद्वदर्पकरं चेत्यर्थः ॥ ८ ॥ इदानीं सङ्किल्पिकस्यापि पलभक्षणस्य दोषं तद्विरतिनिष्टायाश्च गुणमुदाहरणद्वारेण दर्शयतिभ्रमति पिशिताशनाभि-ध्यानादपि सौरसेनवत्कुगतीः । तद्विरतिरतः सुगतिं श्रयति नरश्चण्डवत्खदिरवद्वा ॥ ९॥ __टीका-भ्रमति परापरविवर्ते परिवर्तयति । कोऽसौ, जीव : । काः, कुगतीः नरकादिभवग्रहणानि । कस्मात् पिशिताशनाभिध्यानादपि मांसभक्षणसङ्कल्पात्, किं पुनस्तद्भक्षणादित्यपिशब्दार्थः । किंवत्, सौरसेनवत् सौरसेनराज्ञा तुल्यं । तथा श्रयति लभते । कोऽसौ,नरः। कां, सुगतिं स्वर्गादिगतिं । किंविशिष्टः सन् , तद्विरतिरतः पिशितनिवृत्तावासक्तः। किंवत्, चण्डवत् चण्डनामोजयिन्यां मातङ्गो यथा । अथवा खदिरवत् खदिरसारो नाम भिल्लराजो यथा ॥९॥ __ अधुना मांसं सतां भक्षणीयं प्राण्यङ्गत्वान्मुद्गादिवदित्यनुमानाभिधानग्रहा वशान्मांसभक्षणदक्षिणान् प्रत्याह प्राण्यङ्गत्वे समेऽप्यन्नं भोज्यं मांसं न धार्मिकैः । भोग्या स्त्रीत्वाविशेषेऽपि जनै यैव नाम्बिका ॥१० । टीका-भोज्यं भोक्तव्यं । किं तत्, अन्नं मुद्गोंदिधान्यं रसरक्तविकारजत्व। भावात् । न तु भोज्यं । किं तत्, मांसं रसरक्तविकारजत्वात् । कैः, धार्मिकै धर्ममहिंसारूपं चरद्भिः । क्व सति, प्राण्यङ्गत्वे जीवकायत्वे । किंविशिष्टे १ पञ्चेन्द्रियस्य कस्यापि वधे तन्मांसभक्षणे । यथा हि नरकप्राप्ति-न तथा धान्यभोजनात् ॥ धान्यपाके प्राणिवधः परमेकोऽवशिष्यते ।। गृहिणां देशयमिनां स तु नात्यन्तबाधकः ।। मांसखादकगतिं विमृशन्तः शस्यभोजनरता इह सन्तः । प्राप्नुवन्ति सुरसम्पदमुच्चै-जैनशासनजुषो गृहिणोऽपि ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । २७. समेऽपि अन्नमांसयोस्तुल्येऽपि, न च प्राणिकायत्वाद्धान्यस्यापि मांसल्वमुपकल्प्यं, यो यः प्राणिकायः स स मांसमिति व्याप्तेरभावात् । अन्यथा वृक्षत्वादशोकादीनामपि निम्बत्वकल्पनाग्रसङ्गात् । यतः भोग्या अनुभवनीया। काऽसौ, जायैव, न पुनरम्बिका माता भोग्या । कैर्जनैः लोकैः । क्व सति, स्त्रीत्वाविशेषऽपि भार्यामात्रोः स्त्रीत्वे तुल्येऽपि ॥ १० ॥ अथ क्रमप्राप्तान्मधुदोषानाह मधुकृबातघातोत्थं मध्वशुच्यपि बिन्दुशः। खाद बनात्यघं सप्त-ग्रामदाहांहसोऽधिकम् ॥ ११ ॥ टीका-बध्नाति आत्मना योजयति । कोऽसौ, पुमान् । किं तत्, अघं पापं । कियत्, अधिकं अतिरिक्तं । कस्मात् सप्तग्रामदाहांहसः ग्रामसप्तकदाहकपातकात् । किं कुर्वन्, खादन् भक्षयन् । किं तत्, मधु क्षौद्रं । किंमात्रमपि बिन्दुशः बिन्दुमात्रमपि। किंविशिष्टं, मधुकृतां मक्षिकाभ्रमरमशकादीनां मधुकरप्राणिनां व्रातः सङ्घस्तस्य धातो नाशस्तस्मादुत्था उत्पत्ति यस्य तन्मधुकृदवातवातोत्थं । पुनः १ मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन वा मासम् । यद्वनिम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः ॥ शुद्धं दुग्धं न गोमांसं वस्तुवैचित्र्यमीदृशं । विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः ॥ हेयं पलं पयः पेयं समे सत्यपि कारणे । विषद्रोरायुषे पत्रं मूलं तु मतये मतम् ॥ ग्रामसप्तकविदाहिर कसा तुल्यता न मधुनक्षिरेफसः । तुल्यमञ्जलिजलेन कुत्रचि-निम्नगापतिजलं न जायते ॥ यश्चिखादिषति स रघं कुधी- मक्षिक गणविनाशनस्पृहः । पापकर्दमनिषेधनिम्नगा यस्य हन्त करुणा कुतस्तनी ॥ स्वयमेव विगलितं यद् गहीतमथवा बलेन निजगोलात् । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ॥ ३ अनेकजन्तुसङ्घात-निघातनसमुद्भवम् । जगुप्सनीय लालाव-त्कः स्वादयति माक्षिकम् ॥ माक्षिकागर्भसम्भूत-बालाण्ड कनिपीडनात् । जातं मधु कथं सन्तः सेवन्ते कललाकृति ॥ एकैककुसुमक्रोडाद्रसमापीय मक्षिकाः । यमन्ति मधूच्छिणं तदनन्ति न धार्मिकाः ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ porn सागारधर्मामृतेकिंविशिष्टं, अशुचि प्राणिनिर्यासजन्यत्वान्मक्षिकादिवान्तत्वाच्चापवित्रं म्लेच्छलालादिसम्पृक्तत्वात् तुच्छं च ॥११॥ अथ क्षौद्वन्नवनीतस्य दोषभूयिष्टतया त्याज्यतामुपतिशति मधुवन्नवनीतं च मुश्चेत्तत्रापि भूरिशः । द्विमुहूर्तात्परं शश्वत्संसजन्त्यंगिराशयः ॥१२॥ टीका-मुञ्चेत् व्रतयेत् । कोऽसौ, धार्मिकः। किं तत्, नवनीतं च दधिसारमपि । किवत्, मधुवत् क्षौद्रं यथा । यतः संसजन्ति सम्मूर्च्छन्ति । के, अङ्गिराशयः जीवसंघाताः । कियन्तो, भूरिशः प्रचुराः । क, तत्रापि न केवलं मधुनि नवनीतेऽपि । कंथ,शश्वत् सदा। कथं,परम् ,ऊर्ध्व । कस्मात्, द्विमुहूर्तात् मुहूर्तद्वयात् ॥ १२ ॥ अथ पञ्चोदुम्बरभक्षणे द्रव्यभावहिंसादोषमुपपादयति पिप्पलोदुम्बरप्लक्ष-वटफल्गुफलान्यदन् । हन्त्याद्रोणि सान् शुष्का-ण्यपि स्वं रागयोगतः १३ टीका-हन्ति हिनस्ति । कोऽसौ, पुरुषः । कान्, सान् स्थूलसूक्ष्मप्राणिकुलाकुलत्वात्तेषाम् । किं कुर्वन् , अदन् भक्षयन् । कानि, पिप्पलादिफलानि । १ यन्मुहूर्तयुगतः परं सदा मूर्छति प्रचुरजीवराशिभः । तद्लिन्ति नवनीतमत्र ये ते व्रजन्ति खलु कां गतिं मृताः ॥ अंतर्मुहूर्तात्परतः सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः।। यत्र मूर्छन्ति नायं तनवनीतं विवकिभिः ॥ २ अश्वत्थोदुम्बरप्लक्ष-न्यग्रोधादिफलेष्वपि । प्रत्यक्षाः प्राणिनः स्थूलाः सूक्ष्माश्चागमगोचराः ॥ ससंख्यजीवव्यपघातवृत्तिभिर्न धीवरैरस्ति समं समानता । अनन्तजीवव्यपरोपकाणामुदुम्बराहारविलोलचेतसाम् ॥ मद्योदुम्बरपञ्चकाभिषमधुत्यागाः कृपा प्राणिनां नक्तंभुक्तिविमुक्तिराप्तविनुतिस्तोयं सुवस्त्रस्रतम् । एतेऽष्टौ प्रगुणा गुणा गगधरैरागारिणां कीर्तिता ऐकेनाप्यमुना विना यदि भवेद् भूतो न गेहाश्रमी ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । Amarn . फल्गुरत्र काकोदुम्बरिका । किंविशिष्टानि, आणि, न केवलमार्द्राणि तान्यदन् स्थूलसूक्ष्मप्राणिनो हन्ति, किं तर्हि, शुष्काण्यपि कालोच्छिन्ननसान्यपि । तान्यदन् स्वमात्मानं हन्ति । कस्मात्, रागयोगतः प्रीतिसम्बन्धात् । अन्तर्दीपकत्वादिदं मध्वादिष्वपि योज्यम् । तत्रापि गंगावतारद्वारेणात्मघातस्यो. तत्वात् ॥ १३ ॥ अथ निशाभोजनागालितजलोपयोगयोर्मद्याधुपयोगवद्दोषमयत्वात्परिहारमाह रागजीववधापाय-भूयस्त्वात्तद्वदुत्सृजेत् । रात्रिभक्तं तथा युज्या-न पानीयमगालितम् ॥ १४ ॥ टीका--उत्सृजेद्वर्जयेद्धार्मिकः । किं तत्, रात्रिभक्तं रानावन्नप्राशनं । किंवत्, सद्वत् मद्यपानादिवत् । कस्मात् , रागेत्यादि, रागश्च जीववधश्च अपायाश्च जलोदरादयस्ते भूयांसो दिनभोजनादतिशयेन बहवो यत्र तद्रागजीववधापायभयस्तस्य भावस्तत्त्वं तस्मात् । तथा न युज्यात नोपयुञ्जति। किं तत,पानीयं जलं पेयत्वात्तैलघृतादि वा सर्व द्रवद्रव्यं किंविशिष्ट, मगालितं वस्त्रादपरिसृतम् । साम्प्रतमनस्तमितभोजिनः सत्फलं किञ्चिदृष्टान्तेन मुग्धजनप्ररोचनार्थ प्रकटयति चित्रकूटेऽत्र मातङ्गी यामानस्तमितव्रतात् । स्वभत्रो मारिता जाता नागश्रीः सागराङ्गजा ॥ १५ ॥ टीका-जाता उत्पन्ना । काऽसौ, मातङ्गी अन्तेवासिनी । किंविशिष्टा, सागराङ्गजा सागरदत्तश्रेष्टिपुत्री । किंनाम्नी, नागश्री। क्व, चित्रकूटे। किंविशिष्टे,ऽत्र एतस्मिन्नेव मालवदेशस्योत्तरस्यां दिशि प्रसिद्धे । कस्मात्, यामानस्तमितव्रतात यामं प्रहरमानं पालितादनस्तमितभोजननियमात्। किंविशिष्टा सती, मारिता । केन स्वभा जागरिकनाम्ना ॥ १५ ॥ एवं कृतपरिकर्मणा पाक्षिकश्रावकेण स्थूलहिंसादिविरतिरपि यथात्मशक्ति भावनीयेत्युपदेशार्थपाह१ अर्कालोकेन विना भुंजानः परिहरेत्कथं हिंसाम् । अपि बोधितप्रदीपो भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम् ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० सागारधर्मामृते स्थूलहिंसानृतस्तेय मैथुनग्रन्थवर्जनम् । पापभीरुतयाऽभ्यस्ये-द्वलवीर्यनिगूहकः ॥ १६ ॥ टीका – अभ्यसेद्भावयेत् । कोऽसौ, श्रावकः । किं तत्, स्थलेत्यादि, वक्ष्यमालक्षणं स्थूलहिंसादिविरतिरूपमणुव्रतपञ्चकं । कया, पापभीरुतया, न तु राजादिभयेन ततस्तदभ्यासे कर्मक्षपणाऽनिष्टेः । किंविशिष्टः सन्, बलवीर्यनिगूहकः बलमाहारादिजा शक्तिः सैव नैसर्गिकं वीर्य तयोर्निगृहकस्तदंनुसारीत्यर्थः ॥ १६ ॥ एवं हि स्थूलहिंसाविरतिमभ्यस्यता वेश्यादाविव यूतेऽध्यासक्तिर्न कर्तव्येत्युपदिशति — द्यते हिंसानृतस्तेय लोभमायामये सजन् । क स्वं क्षिपति नानर्थे वेश्याखेटान्यदारवत् ॥ १७ ॥ 4 टीका — कानर्थे न क्षिपति, सर्वस्मिन्धर्मादिभ्रंशे व्यापारयतीत्यर्थः । कं, स्वं आत्मानं जातिं च । किं कुर्वन् सजन् गृद्धिं कुर्वन्, कौतुकमात्रेण द्यूतक्रीडनस्य पाक्षिकेण त्यक्तुमशक्यत्वादेवमुच्यते । क्व सजन्, द्यूते । किंविशिष्टे, हिंसा प्राणातिपातः, अनृतमसत्यवचनं, स्तेयं चौर्य, लोभो गार्ध्य, माया वञ्चना, ताः प्रकृताः प्राचुर्येण कृता अस्मिन्निति हिंसादिमये । किंवत्, वेश्यायामाखेटे परदारेषु च यथा । वेश्यादिष्वपि हिंसादिमयत्वादासजतः स्वस्य ज्ञातीनां च पुरुषार्थभ्रंशस्य सुप्रसिद्धत्वात् ॥ १७ ॥ अथ प्रतिपाद्यानुरोधाद्धर्माचार्याणां सूत्राविरोधेन देशनानानात्वोपलम्भामंग्यन्तरेणाष्टमूलगुणानुद्देष्टुमाह १ सवानर्थप्रथनं मथनं शौचस्य सद्म मायायाः । दूरात्परिहर्तव्यं चौर्यासत्यास्पदं द्यूतम् ॥ २ कौपीनं वसनं कदन्नमशनं शय्या धरा पांसुला जल्पाश्लीलगिरः कुटुम्बकजनद्रोहः सहाया विटाः । व्यापाराः परवञ्चनानि सुहृदचौरा महान्तो द्विषः प्रायः सैष दुरोदरव्यसनिनः ससारवासक्रमः ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । vwww मद्यपलमधुनिशाशन पञ्चफलीविरतिपञ्चकाप्तनुती । जीवदया जलगालन मिति च कचिदष्टमूलगुणाः ॥ १८ ॥ टीका-वर्तन्ते । के, मूलगुणाः । कति, अष्ट । क, क्वचित शास्त्रे। कथं, मद्येत्यादि, पञ्चफली पञ्चानां फलानां समाहारः पिप्पलादिफलपञ्चकमित्यर्थः, तद्विरतिरेक एकात्र मूलगुणः, आप्तनुप्तिः त्रिकालदेववन्दना, मद्यं च पलं च मधु च निशाशनं च पञ्चफली च ताभ्यः पञ्चभ्यो विरतस्तासां पञ्चकं, तच्चाप्तनुतिश्च ते द्वे, जीवदया अनुकम्पा, जलगालनं चेति ॥ १८ ॥ प्रकृतमुपसंहरन् सार्वकालिकसम्यक्त्वशुद्धिपूर्वकमद्यादिविरतिकृतां कृतो. पनीतिनां ब्राम्हणक्षत्रियविशां जिनधर्मश्रुत्यधिकारितामाविष्कर्तुमाह यावज्जीवमिति त्यक्त्वा महापापानि शुद्धधीः । जिनधर्मश्रुतेर्योग्यः __ स्यात्कृतोपनयो द्विजः ॥ १९ ॥ टीका--स्याद्भवेत् । कोऽसौ, द्विजः द्विर्जातो मातृगर्भे जिनसमयज्ञानगर्भ चोत्पादात् द्विजो ब्राह्मणक्षत्रियविशामन्यतमः ‘त्रयो वर्णा द्विजातय' इति वचनात् । किंविशिष्टः, कृतोपनयः कृतो यथाविध्युपकल्पित उपनयो मौञ्जीबन्धादिलक्षणोपनीतिक्रिया यस्य स तथोक्तः । किंविशिष्टः स्यात्, योग्योऽधिकारी। कस्या, जिनधर्मश्रुतेः वीतरागसर्वज्ञोपदिष्टस्य धर्मस्य श्रुतिः श्रवणं शास्त्रं वा उपासकाध्ययनादि तस्याः । किं कृत्वा, शुद्धधीः सम्यक्त्वविशुद्ध बुद्धिः सन् । त्यक्त्वा । कानि, महापापानि महद्विपुलमनन्तसंसारकारणं पाप येभ्यस्तानि मद्यपानादीनि प्राक्प्रबन्धेनोक्तानि । कथं यावजीवं जीवितावधि कथं, इति अनेन प्रकारेण ॥ १९ ॥ १ अष्टावनिष्टदुस्तर दुरितायतनान्यमूनि परिवज्यं । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥ ___ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सागारधर्मामृते सहजामहार्यां चालौकिकी गुणसम्पदमुद्हतो भव्यान् यथासम्भवमगमयन्नाह-- जाता जैनकुले पुरा जिनवृषाभ्यासानुभावाद्गुणै र्येऽयत्नोपनतः स्फुरन्ति सुकृतामग्रेसराः केपि ते । येऽप्युत्पद्य कुदृक्कुले विधिवशादीक्षोचिते स्वं गुणैविद्याशिल्पविमुक्तवृत्तिनि पुनन्त्यन्वीरते तेऽपि तान् ।। टीका-सन्ति । के ते, केऽपि प्रविरलाः सम्प्रति बहूनामभावात् । किंविशिष्टा, अग्रेसराः सम्यक्त्वसहचारिपुण्योदयोन्मुख्याः। केषां, सुकृतां कृतपु. ण्यानां । ये किं, ये स्फुरन्ति लोकचित्ते चमत्कारं कुर्वन्ति । कैः, गुणैः सम्यक्त्वादिभिः । किंविशिष्टै,-यत्नापेनतैः प्रयत्नमन्तरेण प्राप्तैः सहजैरित्यर्थः । किंवि. शिष्टाः सन्तो, जाता उत्पन्नाः । क्व, जैनकुले जिनो देवता येषां ते जैनास्तेषां कुलं पूर्वपुरुषपरम्पराप्रभवो वंशस्तत्र, जिनोक्तगर्भाधानादिनिर्वाणपर्यन्तक्रियामंत्रसंस्कारयोग्ये महान्वय इत्यर्थः । कस्मात्, पुरा पूर्वजन्मनि जिनवृषस्य सर्वज्ञोक्तधर्मस्याभ्यासः असकृत्प्रवृत्तिस्तस्यानुभावो माहात्म्यं तजनितपुण्योदयस्तस्मात् । तथा अन्वीरतेऽनुगच्छन्ति । के, तेऽपि । कान्, तान् पर्वोक्तान जैनकुलजातान् , तत्सदृशा भवन्तीत्यर्थः । ये किं, ये पुनन्ति पवित्रीकुर्वन्ति। कं, स्वमात्मानं । कैः, गुणैः वक्ष्यमाणतत्त्वार्थप्रतिपत्त्यादिभिः। किं कृत्वा, उत्पद्य जनित्वा । क्व, कुटक्कुलेऽपि मिथ्यादृष्टिवंशेऽपि । अपिरत्र विस्मये भिन्नक्रमः । किंविशिष्टे, दीक्षोचिते दीक्षा व्रताविष्करणं व्रतोन्मुखस्य वत्तिरिति यावत्, सा चानोपासकदीक्षा जिनमुद्रा वा उपनीत्यादिसंस्कारो वा । पुनः किंविशिष्टे, विद्याशिल्पविमुक्तवृत्तिनि विद्याऽत्राजीवनाथ गीतादिशास्त्रं, शिल्पं कारुकर्म, ताभ्यां विमुक्ता ततोऽन्या वृत्तिर्वार्ता कृष्यादिलक्षणो जीवनोपायो यत्र तस्मिन् । कस्मात्, विधिवशात् मिथ्यात्वसहचारिपुण्योदययोगात् ॥ २० ॥ इदानीं द्विजातिषु कुलक्रमायातमिथ्याधर्मपरिहारेण विधिवज्जिनोक्तमार्ग माश्रित्य स्वाध्यायध्यानबलादशुभकर्माणि निघ्नन्तं भव्यमभिष्टौति Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । तत्त्वार्थं प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशवतं तद्दीक्षायधृतापराजितमहामन्त्रोऽस्तदुर्दैवतः । आङ्गं पूर्वमथार्थसंग्रहमधीत्याधीतशासान्तरः पर्वान्ते प्रतिमासमाधिमुपयन्धन्यो निहन्त्यंहसी॥ टीका-निहन्ति नाशयति । कोऽसौ, धन्यः सुकृती । के, अंहसी द्रव्यभावपापे इत्यर्थः । किं कुर्वन् , उपयन् अभ्यस्यन् । कं, प्रतिमासमाधिं रात्रि. प्रतिमायोगं । क्व, पर्वान्ते पर्वणां मासि मासि द्वयोरष्टम्योर्द्वयोश्चतुर्दश्योरन्ते अवसाने रातावित्यर्थः । किंविशिष्टः सन्, अधीतशास्त्रान्तरः अधीतानि विपठितानि शास्त्रान्तराणि सौगतादिग्रन्था व्याकरणादीनि च येनासौ। किं कृत्वा, अधीत्य पठित्वा । कम्, अर्थसहं उद्धारग्रन्थमुपश्रुत्य, सूत्रमपि । किंविशिष्ट, माझं आचाराङ्गादिद्वादशाङ्गाश्रितं, न केवलमाङ्गं, पौर्वं च चतुर्दशपूर्वगतश्रुताश्रितम् । अथ शद्धोऽत्र चार्थे । किम्भूतो भूत्वा, अस्तदुर्दैवतः त्यक्तमिथ्यादेवतागणः । पुनः किंविशिष्टो भूत्वा, तदित्यादि, तस्य देशव्रतस्य दीक्षा अग्रं पूर्व यस्य तत्तद्दीक्षाग्रं उपासकदीक्षापूर्वकं धृतो गुरुमुखाद्धारितोऽपराजितो नाम महान् गणधरदेवादीनां पूज्यो मन्त्रः पञ्चनमस्काराख्यो येन स तद्दीक्षाप्रतापराजितमहामन्त्रः। किं कृत्वा, आसाद्य लब्ध्वा । किं तत्. देशव्रतं तद्दीक्षामूलगुणाष्टकादिकं । किं कृत्वा, प्रतिपद्य निश्चित्य । कं, तत्वार्थ जीवादिकं । कस्मात्, तीर्थकथनात् तीर्थस्य धर्माचार्यस्य गृहस्थाचार्यस्य वा कथनाद्वाक्यप्रबन्धात् । एता अष्टौ मिथ्यादृशो दीक्षान्वयक्रियाः क्रमेण संक्षेपादत्रोक्ता विस्तरतस्तु ज्ञानप्रदीपिकायामार्षे वा. द्रष्टव्याः । अत्रा!क्तः श्लोको यथा अवतारो वृत्तलाभः स्थानलाभो गणग्रहः । पूजॉराध्यं पुर्ययज्ञो दृढर्योपयोगिता ॥ १ गुरुर्जनयिता तत्व-ज्ञानं गर्भः सुसंस्कृतः । तथा तत्रावतीर्णोऽसौ भव्यात्मा धर्मजन्मना ॥ २ ततोऽस्य वृत्तलाभः स्यात्तदैव गुरुपादयोः । प्रणतस्य व्रतवातं विधानेनोपसेदुषः ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ सागारधर्मामृते ३ ततः कृतोपवासस्य पूजाविधिपुरस्सरम् | स्थानलाभो भवेदस्य तत्रायमुचितो विधिः ॥ जिनालये शुचौ रंगे पद्ममष्टदलं लिखेत् । विलिखेद्वा जिनास्थान- मण्डलं समवृत्तकम् ॥ श्लक्ष्णेन पिष्टचूर्णेन सलिलालोडितेन वा । वर्तनं मण्डलस्येष्टं चन्दनादिद्रवेण वा ॥ तस्मिन्नष्टदले पद्मे जैने वाssस्थानमण्डले । विधिना लिखिते तज्ञै र्विष्वविरचितार्चने ॥ जिनार्थ्याभिमुखं सूरि-विधिनैनं निवेशयेत् । तवोपासक दीक्षेय-मिति मूर्ध्नि मुहुः स्पृशन् ॥ पञ्चमुष्टिविधानेन स्पृष्ट्वैनमधिमस्तकम् । पूतोऽसि दीक्षयेत्युक्त्वा सिद्धशेषं च लम्भयेत् ॥ ततः पञ्चनमस्कार- पदान्यस्मायुपादिशेत् । मन्त्रोऽयमखिलात्पापा-त्त्वां पुनीतादितीरयन् ॥ कृत्वा विधिमिमं पश्चात्पारणाय विसर्जयेत् । गुरोरनुग्रहात्सोऽपि सम्प्रीतः स्वं गृहं व्रजेत् ॥ ४ इयन्तं कालमज्ञानात्पूजिताः स्थ कृतादरम् । पूज्या स्त्विदानीमस्माभि-रस्मत्समय देवताः ॥ ततोऽपमृषितेनाल-मन्यत्र स्वैरमास्यताम् । इति प्रकाशमेवैता नीत्वान्यत्र क्वचित्त्यजेत् ॥ गणग्रहः स एषः स्यात्प्राक्तनं देवतागणम् । विसृज्यार्चयतः शान्ता देवताः समयोचिताः ॥ ६ ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रिया पुण्यानुबन्धिनी । शृण्वतः पूर्वविद्यानामर्थ सब्रह्मचारिणः ॥ तदास्य दृढचर्याख्या क्रिया स्वसमयश्रुतम् । निष्ठाप्य शृण्वतो ग्रन्थान्बाह्यानन्यांश्च कांश्चन ॥ दृढव्रतस्य तस्यान्या क्रिया स्यादुपयोगिता । पर्वोपवासपर्यन्ते प्रतिमायोगधारणम् ॥ 18 पूजाराध्याख्यया ख्याता क्रियाऽस्य स्यादतः परा । पूजोपवाससम्पत्या गृहतोऽङ्गार्थसंग्रहम् ॥ ८ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । ३५ अथ शूद्रस्याप्याहारादिशुद्धिमतो ब्राह्मणादिवद्धर्मक्रियाकारित्वं यथोचित - -मनुमन्यमानः प्राह शूद्रोऽप्युपस्कराचारःवपुशुध्याऽस्तु तादृशः । जात्या हीनोsपि कालादिलब्धौ ह्यात्माऽस्ति धर्मभाक् ॥ २२ ॥ टीका - अस्तु भवतु । कोऽसौ शूद्रोऽपि । किंविशिष्ट, स्तादृशो जिनधर्मश्रुतेर्योग्यः । किंविशिष्टः सन्, उपस्करः आसनाद्युपकरणं, आचारः मद्यादिविरतिः, वपुः शरीरं, तेषां त्रयाणां शुध्या पवित्रतया विशिष्टः । कुत इत्याह-जात्येत्यादि, हि यस्मादस्ति भवति । कोऽसौ, आत्मा जीवः । किंविशिष्टो, धर्मभाक् श्रावकधर्माराधकः । कस्यां सत्यां, कालादिलब्धौ कालादीनां कालदेशादीनां लब्धौ धर्माराधनयोग्यतायां सत्यां । किंविशिष्टोऽपि, हीनो रिक्तोऽल्पो वा, किं पुनरुत्कृष्टो मध्यमो वेत्य पिशद्वार्थः । कया, जात्या वर्णसम्भूत्या । वर्णलक्षणमार्षे यथा > जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः । येषु ते स्युयोवर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः ॥ इत्थमानृशंस्यममृषाभाषित्वं परस्वनिवृत्तिरिच्छा नियमो निषिद्धासु च स्त्रीषु ब्रह्मचर्यमिति सर्वसाधारणधर्ममभिधायेदानीमध्ययनं यजनं दानं ब्राह्मणक्षत्रियविशां समानो धर्मोऽध्यापनयाजनप्रतिग्रहाश्च ब्राह्मणानामेवेति विशेषतस्तद्व्याख्यानार्थमुत्तरप्रबन्धमुपक्रममाणो यजना दिविधानाय पाक्षिकं तावदेवं नियुंक्ते- . यजेत देवं सेवेत गुरून्पात्राणि तर्पयेत् कर्म धर्म्यं यशस्यं च यथालोकं सदा चरेत् ॥ २३ ॥ टीका- - यजेत् पूजयेत् । कोऽसौ, श्रावकः । कं देवं दीव्यते स्तूयते इन्द्रादिभिरिति देवः परमात्मा तं । तथा सेवेत उपासीत । कोऽसौ, श्रावकः कानू, गुरून् धर्माचार्यादीन् । तथा तर्पयेत् प्रीणयेत् । कोऽसौ, श्रावकः । कानि, पात्राणि संपूज्यमानमक्षिकारणगुणान् । तथा आचरेत् अनुतिष्ठेत् । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते कोऽसौ, श्रावकः । किं तत्, कर्म भृत्वाऽऽश्रितानित्यादिना वक्ष्यमाणं । किंविशिष्टं, धयं दयाप्रधानत्वाद्धर्मादनपेतं, न केवलं धयं यशस्यं च धर्म्य तावदवश्यमाचरणीयं तच्चेत्कीत्यर्थं स्यात्तदा सुतरां भद्रकमित्ययमर्थश्चशद्वेनाचीयते । अनुक्तसमुच्चये वाऽत्र चः तेनायुष्यं च कर्म ब्राह्ममुहर्तोत्थानशरीरचिन्तादन्तधावनादिकमायुर्वेदप्रसिद्धमाचरेदिति लभ्यते । कथ, यथालोकं. लोकस्यानतिक्रमेण लोकानुसारेणत्यर्थः । यो य आलोक आप्तोपदेशप्रकाशस्तेन तेन तत्तत्कर्माचरेदिति ग्राह्यम् । कथं, सदा नित्यम् ॥ २३ ॥ इतोऽष्टादशभिः पद्यैर्जिनपूजां प्रपञ्चयति-- यथाशक्ति यजेताई-देवं नित्यमहादिभिः। सल्पतोऽपि तं यष्टा भेकवत्स्वमहीयते ॥ २४ ॥ टीका-यजेत् । कोऽसौ, श्रावकः । कं, अर्हदेवं । कथं, यथाशक्ति या या शक्तिस्तया। कै,-नित्यमहादिभिः वक्ष्यमाणैः । यतो महीयते पूज्यो भवति । कोऽसौ, जीवः । किंविशिष्टो, यष्टा ताच्छील्येन साधुत्वेन वा यजमानः । कं, तं अर्हदेवं । कस्मात्सङ्कल्पतोऽपि यजेऽहमहदेवमिति चिन्तनात्, किं पुनः कायेन गन्धाक्षतादिभिर्वाचा च विचित्रस्तवनैरुपचरन्नित्यपिशद्वार्थः । क महीयतेऽसौ, स्वः स्वर्गे महर्द्धिकदेवैः स्वामीति मत्वा पूज्यत इत्यर्थः । किंवत्, भेकवत् राजगृहनगरे श्रेष्ठिचरो दर्दुरो यथा ॥ २४ ॥ अथ नित्यमहमाहप्रोक्तो नित्यमहोऽन्वहं निजगृहानीतेन गन्धादिना पूजा चैत्यगृहेऽर्हतः स्वविभवैश्चैत्यादिनिर्मापणम् । दानं पूजा जिनैः शील-मुपवासश्चतुर्विधः । श्रावकाणां मतो धर्मः संसारारण्यपावकः ॥ आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिके प्रीतिरुच्चैः पात्रेभ्यो दानमापनिहतजनकृते तच कारुण्यबुध्द्या । तत्त्वाभ्यासः स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शन यत्र पूज्यं तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दुःखदो मोहपाशः ।। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः। भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधादानं त्रिसन्ध्याश्रया सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिना नित्यपदानानुगम् ।। टीका-प्रोक्तः प्रवचने कथितः । कोऽसौ, नित्यमहः । किं, पूजा। कस्य, अर्हतः । क, चैत्यगृहे । केन, गन्धादिना चन्दनाक्षतपुष्पादिना। किंविशिष्टेन, नीतेन चैत्यालयं प्रापितेन । कस्मा,-निजगृहात् । कथ,-मन्वहं दिने दिने । तथा प्रोक्तो नित्यमहः । किं तत्, चैत्यादिनिर्मापणं चैत्यचैत्यालयादिनिष्पादनं । कस्मात्, स्वविभवात् निजधनविनियोगात् । तथा प्रोक्तो नित्यमहः । किं तत्, ग्रामगृहादिशासनविधादानं ग्रामः संवसथः, गृहं वेश्म आदिशद्धारक्षेत्रहट्टादिपरिग्रहः, ग्रामगृहादेः शासनविधया शासनविधानेन दानं । कया, भक्त्या । तथा प्रोक्तो नित्यमहः । किं, सेवा आराधना । कस्य, अर्हतः। किंविशिष्टा, त्रिसन्ध्याश्रया त्रैकालिकी । क्व, गृहे । किंविशिष्टे, स्वे निजे, अपिशब्दाच्चैत्यगृहे च । न केवलमहत्पूजादिकं नित्यमहः प्रोक्तः, अर्चनं च पूजा । केषां, यमिनां संयतानां । किंविशिष्टं, नित्यप्रदानानुगं अहरहःप्रकृष्ट. दानसम्बन्धि ॥ २५॥ अथाष्टान्हिकैन्द्रध्वजौ लक्षयतिजिनार्चा क्रियते भव्यैर्या नन्दीश्वरपर्वणि । अष्टाह्निकोऽसौ सेन्द्रायैः साध्या विन्द्रध्वजो महः ॥२६॥ टीका--प्रोक्तः सूरिभिः । कोसा, बसौ महः । किमाख्यः, आष्टान्हिकः । या किं, या क्रियते । का,-सौ जिनार्चा अर्हत्पूजा । कै,-भव्यैर्भावुकलोकैः सम्भूयकरणज्ञापनार्थ बहुवचनं । क, नन्दीश्वरपर्वणि प्रतिवर्षमाषाढकार्तिकफाल्गुनसितपक्षेष्वष्टम्यादिदिनाष्टके । तथा प्रोक्तः । कोऽसौ, इन्द्रध्वजाख्यो महः । काऽसौ, सा जिनार्चा । किंविशिष्टा, साध्या क्रियमाणा । कै,-रिंद्राद्यैः इन्द्रप्रतीन्द्रसामानिकादिभिः । तुर्विशेषे ॥ २६ ॥ अथ महामहं निर्दिशति-- भक्त्या मकुटबद्धैर्या जिनपूना विधीयते । तदाख्या सर्वतोभद्र-चतुमुखर्भहामहाः ॥ २७ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सागारधर्मामृते-- . टीका-भवन्ति । का,-स्तदाख्याः तस्या जिनपूजाया आख्या नामानि । किं किं, सर्वतोभद्र इति, चतुर्मुख इति, महामह इति च तिस्रोऽन्वर्थाः तत्र सर्वत्र प्राणिवृन्दे कल्याणकरणात्सर्वतोभद्रः, चतुर्मुखमण्डपे विधीयमानत्वाञ्चतुर्मुखः, अष्टान्हिकापेक्षया गुरुत्वान्महामहः । या किं, जिनपूजा विधीयते । कै,-मकुटबद्धर्मकुटानि बद्धानि सामान्तादिभिर्येषां ते मकुटबद्धा मण्डलेश्वरास्तैः । कया, भक्त्या, न तु चक्रवर्त्यादिभयादिना । एषोपि कल्पवृक्षवत् केवलमत्र प्रतिनियतजनपदविषयं दानादिकम् ॥ २७ ॥ अथ कल्पवृक्षमहमाह--- किमिच्छकेन दानेन जगदाशाः प्रपूर्य यः। चक्रिभिः क्रियते सोऽर्ह-यज्ञः कल्पद्रुमो मतः ।। २८॥ टीका--मतः पूर्वाचार्यैः सम्मतः । कोऽसौ, सोऽहंद्यज्ञः । किमाख्यः, कल्पद्रुमः कल्पवृक्षनामा । यः किं, यः क्रियते । के,-श्चक्रिभिः सम्राभिः । किं कृत्वा,प्रपूर्य प्रकर्षेण पूरयित्वा । काः,जगदाशाः लोकानां मनोरथान् । केन, दानेन त्यागेन । किविशिष्टेन, किमिच्छकेन किमिच्छसीति प्रश्नपूर्वकं याचकेच्छानुरूपं क्रियमाणेन ॥ २८ ॥ सम्प्रति बलिस्नपनादिजिनपूजाविशेषाणां नित्यमहादिष्वेवान्तर्भावमाह-- बलिस्नपननाट्यादि नित्यं नैमित्तिकं च यत् ।। भक्त्या कुर्वन्ति तेष्वेव तद्यथास्वं विकल्पयेत् ॥ २९॥ टीका-विकल्पयेत् नित्यमहादीनामेव भेदमाचक्षीत विद्वान् । किं, तत् तत् । केषु, तेष्वेव नित्यमहादिषु । कथं, यथास्वं यथायोग्यं । यत्किं, यत्कुर्वन्ति निर्वर्तयन्ति । के ते, भक्ता भक्तिमन्तः । किं तत्, बलिस्नपननाट्यादि, बलिरुपहारः, स्नपनमभिषेकः, नाट्य गीतनृत्यवाद्यं, आदिशब्दात्प्रति ठारथयात्रादि । किंविशिष्टं, नित्यं प्रत्यहविधेयं । तथा नैमित्तिकं पर्वकर्तव्यम् ॥ २९॥ इदानीं जलादिपूजानां प्रत्येकं फलमालपतिवार्धारा रजसः शमाय पदयोः सम्यक्प्रयुक्तार्हतः सद्गन्धस्तनुसौरभाय विभवाच्छेदाय सन्त्यक्षताः । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः। ३९ यष्टुः स्रग्दिविजस्र चरुरुमास्वाम्याय दीपस्त्विषेः । धूपो विश्वगुत्सवाय फलमिष्टार्थाय चाय सः॥३०॥ टीका-भवति । काऽसौ, वार्धारा वारो जलस्य धारास्रुतिः । कसै, शमाय अनुद्रेकाय । कस्य, रजसः पापस्य ज्ञानदृगावरणकर्मणो । कस्य, यष्टुरात्मनः पूजयितुः। किंविशिष्टा सती, प्रयुक्ता सम्पादिता। कयोः, पदयोश्चरणयोः । कस्य, अर्हतो जिनेन्द्रस्य । कथं, सम्यक् यथोक्तविधानेन । तथा भवति । कोऽसौ, सद्गन्धः श्रीचन्दनद्रवः । कस्मै, तनुसौरभाय शरीरसौगन्ध्यनिमित्तम् । कस्य, यष्टुः । किंविशिष्टः सन्, अर्हतः पदयोः सम्यक् प्रयुक्तः । तथा सन्ति भवन्ति । के, अक्षताः अखण्डतण्डुलाः। कस्मै, विभवाच्छेदाय विभवस्याणिमादिविभूतेविणस्य वाऽच्छेदो निरन्त. रप्रवृत्तिस्तदर्थं । शेषं पूर्ववत् । तथा भवति । का,-सौ सक् पुष्पमाला । कस्यै, दिविजस्रजे स्वर्गजन्ममन्दारमालार्थं । तथा भवति । कोऽसौ, चरुः नैवेद्यं । कस्मै, उमास्वाम्याय लक्ष्मीपतित्वार्थ । तथा भवति । कोऽसौ, दीपः आरार्तिकं । कस्यै, त्विषे दीप्त्यर्थं । तथा भवति । कोऽसौ, धूपः । किंविशिष्टः, अर्हतः पदयोः सम्यक्मयुक्तः । कस्मै, विश्वगुत्सवाय यष्टुः परमसौभाग्यार्थं । तथा भवति । किं तत्, फलं बीजपूरादि । कस्मै, इष्टार्थायाभिमतवस्तुप्राप्त्यर्थ । तथा भवति । कोऽसौ, सः तत्वादर्घः पुष्पाञ्जलिरित्यर्थः । कस्मै भव, त्यर्घाय पूजाविशेषार्थं । अथवा स इत्यनेन पूर्वोक्त इष्टार्थ एव परामृश्यते तेनायमर्थः कथ्यते । यद्यद्यष्टुरात्मनोऽभिमतं वस्तु गीतादिकं तेन जिने सम्यक्प्रयुक्ते तत्तद्विशिष्टगीतादिवस्तुनोऽर्धाय मूल्याय स्यात्तत्सम्पादयतीत्यर्थः ॥ ३०॥ अथ जिनेज्यायाः सम्यक्प्रयोगविध्युपदेशपुरस्सरं लोकोत्तरं फलविशेषमाविष्करोति चैत्यादौ न्यस्य शुद्ध निरुपरमनिरौपम्यतत्तद्गुणौघश्रद्धानात्सोऽयमहनिति जिनमनघैस्तद्विधोपाधिसिद्धैः । नीराद्यैश्वारुकाव्यस्फुरदनणुगुणग्रामरज्यन्मनोभिभव्योऽर्चन् दृग्विशुद्धिं प्रबलयतु यया कल्पते तत्पदाय॥३१॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते > टीका - प्रबलयतु प्रबलां प्रकृष्टस्वफलदानसमर्थां करोतु । कोऽसौ, भव्यो भाक्तिकः कः । कां दृग्विशुद्धिं शङ्कादिदोषरहिततत्त्वश्रद्धानं । किं कुर्व, नर्चन् पूजयन् । कं, जिनं । कै, नराद्यैः जलगन्धाक्षतादिभिः । किंविशिष्टै, -रनधैः हठहृतत्वाहृद्यत्वस्वान्यभुक्तशेषत्वादिपापहेतुदोषमुक्तैः । पुनः किंविशिष्टैः, तद्विधोपाधिसिद्धैः निष्पापसाधन निष्पन्नैः । पुनरपि किंविशिष्टैः, चार्वित्यादिचारूणि दोषनिरासागुणालङ्कारस्वीकाराच्च सहृदयहृदयावर्जकानि काव्यानि लोकोत्तरवर्णनारमणीयगद्यपद्यवाङ्मयानि, अनणुगुणग्रामा अनणूनां महतां गुरूणां गुणानां निसर्ग निर्मलत्वसौरभ्यातिशयादीनां ग्रामाः सङ्घाताः, चारुकाव्यैः स्फुरन्तो भावुकलोकचित्तेषु चमत्कुर्वन्तोऽनगुगुणमामास्तै रज्यन्ति प्रियमाणानि मनांसि येषु तानि तैः । किं कृत्वा अर्चन्, न्यस्य सोऽयमर्हनिति उत्सर्पणावसर्पणतृतीयचतुर्थकालयोर्यश्चतुस्त्रिंशदतिशयसमेतः समवसृतावष्टमहाप्रातिहार्यविराजितस्तत्वोपदेशेन भव्यलोकं पुनीतवान् सोऽर्हनेवायमिति नामस्थापनाद्रव्यभावैः स्थापयित्वा । कं, जिनं । क्क, चैत्यादी चैत्ये प्रतिमायां, आदिशब्देन तदलाभे जिनाकाररहितेऽप्यक्षतादौ । किंविशिष्टे, शुद्धे निर्दोषे रुद्राकाररहिते इत्यर्थः । कस्मा, निरित्यादि, निरुपरमा अविनश्वरा निरोपम्या असाधारणास्तत्तद्गुणा व्यवहारेण दर्शन विशुध्द्यादिभावनाप्रमुख कल्याणपञ्चकलक्षणा निश्चयेन चिदचिज्ञेयद्रव्याकारविशेषस्वरूपास्ते धामोघे समूहे श्रद्धानं रुचिरतरोऽनुरागस्तस्मात् । इत्थं तां दृग्विशुद्धि प्रबलयतु भव्यो यया दृग्विशुध्द्या प्रबलीकृतया कल्पते सम्पद्यते भव्यः । कस्मै, तत्पदाय तीर्थकरत्वाय । एकस्या अपि दृग्विशुद्धेरुत्कर्षस्य तीर्थ करत्वाख्यपुण्य विशेषबन्धहेतुत्वप्रसिद्धेः ॥ ३१ ॥ अधुना व्रतभूषितस्य जिनयष्टुरिष्टफल विशेषममिधत्ते ४० दृक्पूतमपि यष्टार - महतोऽभ्युदयत्रियः । श्रयन्त्यहम्पूर्विकया किं पुनर्वतभूषितम् ॥ ३२ ॥ टीका — श्रयन्ति आश्रयन्ति । का, अभ्युदयश्रियः पूजार्थज्ञैश्वर्यविशिष्टबलपरिजनकामभोगसम्पदः । कं, यष्टारं पूजकं । कस्य, अर्हतः । किंविशिष्ट, पूतमपि सम्यक्त्वविशुद्धं । अपिर्विस्मये । कया, अहम्पूर्विकया अहं पूर्वमहं पूर्वमित्य हम्पूर्विका तथा अहंप्रथमिकया। किंपुन - विशेषात् श्रयन्ति । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । ४१ का, अभ्युदयश्रियः । कं अर्हतो यष्टारं । किंविशिष्टं व्रतैर्दैशतो हिंसादिविर तिलक्षणैर्भूषितमलंकृतम् ॥ ३२ ॥ जिनपूजान्तराय परिहारोपायविधिमाह यथास्वं दानमानाद्यैः सुखीकृत्य विधर्मणः । सधर्मणः स्वसात्कृत्य सिध्यर्थी यजतां जिनम् ॥ ३३ ॥ " टीका - यजतां पूजयतु । कोऽसौ सिध्यर्थी जिनपूजासम्पूर्णतां स्वात्मोपलब्धि वा अभीप्सुः । कं, जिनं । किं कृत्वा, स्वसात्कृत्य स्वाधीनान् कृत्वा । कानू, सधर्मणः जिनधर्मभावितान् । किं कृत्वा, सुखीकृत्य अनुकूलान् कृत्वा । कानू, विधर्मणः शिवादिधर्मरतान् सर्वधर्मबाह्यान् वा । कैः यथास्वं यथायोग्यं । दानमानाद्यैः अर्थविनियोगसत्काराभ्युत्थानासनप्रदानादिभिरावर्जनोपायैः ॥ ३३ ॥ स्नानापास्तदोषस्यैव गृहस्थस्य स्वयं जिनयजनेऽधिकारित्वमन्यस्य पुनस्तथाविधेनैवान्येन तद्याजन इत्युपदेशार्थमाह स्त्र्यारम्भसेवासंक्लिष्टः स्नात्वाऽऽकण्ठमथाशिरः | स्वयं यजेताईत्पादानस्नातोऽन्येन याजयेत् ॥ ३४ ॥ टीका- यजेत् पूजयेत् । कोऽसौ, भाक्तिको गृही। कानs, -ईत्पादान् जिनचरणान् । केन, स्वयमात्मना । किं कृत्वा, स्नात्वा शौचं कृत्वा । कथ, माकण्ठं १ नित्यं स्नानं गृहस्थस्य देवार्चनपरिग्रहे । यतेस्तु दुर्जनस्पर्शात्स्नानमन्यद्विगर्हितम् ॥ वातातपादिसंस्पृष्ठे भूरितोये जलाशये । अवगाह्याचरेत्स्नान-मतोऽन्यद्गालितं भजेत् ॥ पादजानुकटिग्रीवा-शिरः पर्यन्तसंश्रयम् । स्नानं पञ्चविधं ज्ञेयं यथादोषं शरीरिणाम् ॥ ब्रम्हचर्योपपन्नस्य निवृत्ताम्भकर्मणः । यद्वा तद्वा भवेत्स्नान- मन्त्यमन्यस्य तु द्वयम् ॥ सर्वारम्भविजृम्भस्य ब्रह्मजिह्मस्य देहिनः । अविधाय बहिः शुद्धिं नाप्तोपास्त्यधिकारिता ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सागारधर्मामृते कण्ठावधि । अथ अथवा । आशिरः मस्तकावधि, यथादोषं जलेन शुचीभूयेत्यर्थः । किंविशिष्टः सन्, स्न्यादीति, स्त्रीसेवया कृप्यादिकर्मसेवया च संक्लिष्टः समन्तात्काये मनसि चोपतप्तः, प्रस्वेदतन्द्रालस्यदौर्मनस्यादिदोषदूषितकायमनस्क इत्यर्थः । सोऽस्नातः किं कुर्यादित्याह-याजयेत्पूजया संयोजयेत् । कोऽसौ, अस्नातस्तथाविधो गृही। कानs, हत्पादान् । केन, कर्नाऽन्येन स्नातेन सब्रह्मचारिसतीर्थ्यसधर्मकादिना ॥ ३४ ॥ चैत्यादिनिर्माणस्य फलविशेषसमर्थनया विधेयतामभिधत्तेनिर्माप्यं जिनचैत्यतद्गृहमठस्वाध्यायशालादिकं श्रद्धाशक्त्यनुरूपमस्ति महते धर्मानुबन्धाय यत् । हिंसारम्भविवर्तिनां हि गृहिणां तत्ताहगालम्बन प्रागल्भीलसदाभिमानिकरसं स्यात्पुण्यचिन्मानसम् ।। टीका-निर्माप्यं कारापणीयं । किं तत्, तजिनचैत्यादि । कैः, पाक्षिकश्रावकैः । किंविशिष्टं, श्रद्धाशक्त्यनुरूपं रुच्या सामर्थ्येन च सदृशं । यत्कि, यदस्ति भवति । कस्मै, धर्मानुबन्धाय धर्मस्यानुबन्धोऽलब्धलाभो लब्धपरिरक्षणं रक्षितवर्धनमित्येवमात्मकस्तस्मै । किंविशिष्टाय, महते विपुलाय । एतेन चैत्यालयादिनिर्मापणे सावद्यदोषशङ्कानिरस्ता । यदाह तत्पापमपि न पापं यत्र महान धर्मसम्बन्ध इति । हि यस्मात् । स्यात् भवेत् । किं तत्, मानसं मनः । किंविशिष्टं, पुण्यचित् पुण्यं सुकृतं चिनोति वर्धयति, अथवा पुण्या पवित्रा निर्मला चित् संवित्तिर्यस्य तत्पुण्यचित् । केषां, गृहिणां गृहस्थानां आप्लुतः सम्प्लुश्चान्तः शुचिवासोविभूषितः। मौनसंयमसम्पन्नः कुर्याद्देवार्चनाविधिम् ॥ दन्तधावन शुद्धास्यो मुखवासोवृताननः । असञ्जातान्यसंसर्गः सुधीर्देवानुपाचरेत् । १ यद्यप्यारम्भतो हिंसा हिंसायाः पापसम्भवः । तथाऽप्यन कृतारम्भो महत्पुण्यं समश्नुते ॥ निरालम्बनधर्मस्य स्थितिर्यस्मात्ततः सताम् । मुक्तिप्रासादसोपान-माप्तैरुक्तो जिनालयः ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः। किंविशिष्टानां, हिंसारम्भविवर्तिनां हिंसाप्रायः आरंभः कृष्यादिः तत्र विवर्तन्ते विविधं परिणमन्तेऽभीक्ष्णमिति तद्विवर्तिनस्तेषां । किंविशिष्टं तत्, तदित्यादि, तजिनचैत्यचैत्यालयादि तादृक्तीर्थयात्रादि, आलम्बनं दृग्विशुध्द्यङ्गं, प्रागल्भी प्रौढिः, आभिमानिकरसः अहङ्कारानुरक्तो हर्षः, तच्च तादृक्च तत्तादृक् तच्च तदालम्बनं च तस्य प्रागल्भी तया लसन् द्योतमानः स्वसंवित्तिविषयीभवन् आभिमानिकरसो यस्मिन् तत् तथोक्तम् ॥ ३५ ॥ शास्त्रविदामपि प्रायः प्रतिमादर्शनेनैव देवादिसेवापरां मतिं कुर्वाणं कलिकालमपवदते धिग्दुष्षमाकालरात्रिं यत्र शास्त्रदृशामपि । चैत्यालोकादृते न स्यात् प्रायो देवविशा मतिः ॥३६॥ टीका-धिक् निन्दामीत्यर्थः । कां, दुःषमाकालरात्रिं दुःषमा पञ्चमकालः कालरात्रिर्मरणनिशेव दुर्निवारमोहावहत्वात् । यत्र किं, यस्यां न स्यात् । काऽसौ, मतिरन्तःकरणप्रवृत्तिः । किंविशिष्टा, देवविशा देवं परमात्मानं विशत्यनन्यशरणीभूय श्रयतीति क्विबन्तादजाद्यतष्टाप् । केषां, शास्त्रदृशामपि श्रुतचक्षुषामपि । कथं, ऋते विना । कस्मात्, चैत्यालोकात् प्रतिमादर्शनात् । कथं, प्रायो बाहुल्येन । केषाञ्चित् ज्ञानवैराग्यपराणां चैत्यदर्शनमन्तरेणापि मनः परमात्मानं संश्रयतीति भावः ॥ ३६ ॥ कलौ धर्मस्थितिः सम्यक्चैत्यालयमूलैवेत्यनुशास्ति प्रतिष्ठायात्रादिव्यतिकरशुभस्वैरचरणस्फुरद्धमोद्धर्षप्रसररसपूरास्तरजसः । कथं स्युः सागाराः श्रमणगणधर्माश्रमपदं न यत्रार्हद्नेहं दलितकलिलीलाविलसितम् ॥ ३७ ॥ टीका-तत्र नगरादौ कथं स्युः, कथमपि न भवेयुरित्यर्थः । के ते, सागारा गृहस्थाः । किंविशिष्टाः, प्रतिष्ठेत्यादि, आदिशद्धः पूजाभिषेकजागरणाद्यर्थः । व्यतिकरः प्रघट्टकः, स्वैरं स्वच्छन्दं, उद्धर्ष उत्सवः, प्रसरश्चिरावस्थायित्वं, रसः हर्षों जलं वा, रजः पापं रेणुश्च, प्रतिष्ठायात्रादीनां व्यतिकरे शुभं प्रशस्तं Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “४४ सागारधर्मामृते पुण्यास्रवणकारणं स्वैरं चरणं मनोवाक्कायव्यापारस्तेन स्फुरश्चासौ धर्मोद्धर्षस्तस्य प्रसरः स एव रसपूरो जलप्रवाहस्तेनास्तं स्फाटितं रजो येषां ते तथा । कथं स्युस्तत्र । यत्र किं, यत्र न भवति । किं तत्, अहंद्वहं जिनचैत्यालयः । किंविशिष्टं, दलितं छिन्नं खण्डितं कलिलीलाविलसितं मठपत्यादिदुर्गयो निरंकुशविज़म्भमाणसंक्लेशपरिणामो वा यत्र तद्दलितकलिलीलाविलसितं । पुनः किंविशिष्टं, श्रमणगणधर्माश्रमपदं श्रमणस्य यतिसङ्घस्य धर्मार्थमाश्रमपदं निवासस्थानम् ॥ ३७ ॥ कलौ वसतिविशेष विना सतामप्यनवस्थितचित्तत्वं दर्शयति मनी मठकठेराणां वात्ययेवानवस्थया । चेक्षिप्यमाणं नाद्यत्वे क्रमते धर्मकर्मसु ॥ ३८ ॥ टीका-न क्रमते नोत्सहते । किं त,-न्मनः । केषां, मठकठेराणां वसतिदरिद्राणामरण्यादिवासिनां यतीनामित्यर्थः । क, धर्मकर्मसु धर्मार्थासु क्रियासु आवश्यकादिषु । कदा, अद्यत्वे अस्मिन् काले । क्रियमाणं, चेक्षिप्यमाणं भृशं पुनःपुनर्वा चाल्यमानं । कया, अनवस्थया परापररागादिविवर्तनपरिणत्या । कयेव, वात्ययेव वातमण्डल्या तूल्यादिर्यथा ॥ ३८ ॥ विमर्शस्थानं विना महोपाध्यायादीनामपि शास्त्रान्तस्तत्वज्ञानदौःस्थित्यं प्रथयति विनेयवद्विनेतृणा-मपि स्वाध्यायशालया। विना विमर्शशून्या धीष्टेऽप्यन्धायतेऽध्वनि ॥ ३९॥ टीका-अन्धायते अन्धमिवात्मानमाचरति तत्त्वं न पश्यतीत्यर्थः । काऽसौ, धीर्बुद्धिः । केषां, विनेतृणामपि । केषामिव, विनेयवत् उपाध्यायानाम् शिष्याणां यथा। क, अध्वनि मार्गे अर्थाच्छास्त्रे निःश्रेयसि वा। किंविशिष्टेऽपि, दृष्टेऽपि । अभ्यस्तेऽपि । किंविशिष्टा सती, विमर्शशून्या अन्तस्तत्वक्षोदविधुरा। कथं, विना । कया, स्वाध्यायशालया पाठस्थानेन । ततश्चैत्यादिचतुष्टयं श्रेयोऽर्थ नियमेन कारयेदिति प्रतिपत्तव्यम् ॥ ३९ ॥ सत्रातुरोपचारस्थानयोरनुकम्प्यप्राण्यनुग्रहबुब्या विधापनं बह्वारम्भरतानां -गृहस्थानां जिनपूजार्थ पुष्पवाटिकादिनिर्मापणे दोषाभावं च प्रकाशयन्नाह Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । ४५. सत्रमप्यनुकम्प्यानां सृजेदनुजिघृक्षया । चिकित्साशालबद्दष्ये-न्नेज्यायै वाटिकाद्यपि ॥ ४० ॥ टीका-सृजेन्निर्मापयेत्पाक्षिकः । किं तत्, सत्रमन्नप्रदानस्थानं अपिशद्धात्प्रपां च । किंवत्, चिकित्साशालवत् व्याधिप्रतीकारस्थानं यथा । कया, अनुजिघृक्षया उपकर्तुमिच्छया । केषा,-मनुकम्प्यानां कृपाविषयानां क्षुत्तृष्णा. तानां व्याधितानां च । तथा न दुष्येन्न दुष्टं भवेत् । किं तत्, वाटिकादि आदिशहाद्वापीपुष्करिण्यादि । किमर्थ,-मिज्यायै पूजार्थं । अपिशब्देनानादरार्थेन विषयसुखार्थं कृष्यादिकं कुर्वतां यद्यपि धर्मबुध्द्या वाटिकादिविधाने लोके व्यवहारानुरोधाद्दोषो न भवति, तथापि तदकुर्वतामेव क्रयक्रीतेन पुष्पादिना तेषामपि जिनं पूजयतां महान् गुणो भवतीति ज्ञाप्यते ॥ ४०॥ निर्व्याजभक्त्या येन केनापि प्रकारेण जिनं सेवमानानां समस्तदुखोच्छेद मितस्ततः समस्तमीहितार्थसम्पत्तिं चोपदिशति यथाकथञ्चिद्भजतां जिनं नियोजचेतसाम् । नश्यन्ति सर्वदुःखानि दिशः कामान्दुहन्ति च ।। ४१ ॥ टीका-नश्यन्ति निवर्तन्ते । कानि, सर्वदुःखानि शरीरमनस्तापाः । केषां निर्व्याजचेतसां निर्मायमनसां भाक्तिकानामित्यर्थः । किं कुर्वतां, भजतां सेवमानानां । कं, जिनं । यथाकथञ्चित् येनकेनापि स्नपनपूजास्तवनादिप्रकारेण । तथा दुहन्ति प्रपरयन्ति । का, दिशः ककुभः । कान्, कामान् मनोरथान् । यद्यत्कामयन्ते जिनयष्टारस्तत्तत्सर्वत्र लभन्ते इत्यर्थः॥ ४१ ॥ ___ एवं जिनपूजां विधेयतयोपदिश्य तद्वसिध्दादिपूजामपि विधेयतयोपदेटुमाह जिनानिव यजन्सिध्दान्साधुन्धर्म च नन्दति । तेऽपि लोकोत्तमास्तद्वच्छरणं मङ्गलं च यत् ॥ ४२ ॥ टीका-नन्दति अन्तरङ्गबहिरङ्गविभूत्या संवर्धते । कोऽसौ, जीवः । किं कुर्वन् , यजन् पूजयन् । कान् , सिद्धान् मुक्तात्मनः, तथा साधून् सिद्धिं साधयन्तीत्यन्वर्थनामानुसरणादाचार्योपाध्याययतीन्, न केवलं तान्, धर्म च ब्यव Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते हारनिश्चयरूपं रत्नत्रयं । कानिव, जिनानिव अर्हतो यथा । कुत इत्याह-यद्य स्मात् । वर्तन्ते । के ते, अपि सिद्धसाधुधर्माः । किंविशिष्टाः, लोकोत्तमाः लोकेषूत्कृष्टाः, तथा शरणमार्तिहरणमपायपरिरक्षणोपाया इत्यर्थः । तथा मङ्गलं पापापहाः पुण्यप्रदाश्च । किंवत्, तद्वत् जिनवत् ॥ ४२ ॥ सकलपूज्यपूजाविधिप्रकाशनेनानुग्राहिकायाः सम्यक् श्रतदेवतायाः पूजायां ४६ सज्जयन्नाह यत्प्रसादान्न जातु स्यात् पूज्यपूजाव्यतिक्रमः । तां पूजयेज्जगत्पूज्यां स्यात्कारोडमरां गिरम् ।। ४३ ॥ टीका - पूजयेच्छेयोऽर्थी यजेत । कां तां गिरं श्रतदेवतां । किंविशिष्टां, स्यात्कारोड्डुमरां स्यात्पदप्रयोगेण सर्वथैकान्तवादिभिरजय्यां । पुनः किंविशिष्टां, जगत्पूज्यां विश्वलोकानामच्य । यत्प्रसादात् यस्या अनुग्रहात् न स्यात् न भवेत् । कोऽसौ, पूज्यपूजाव्यतिक्रमः पूज्यानां अर्हत्सिद्धसाधुधर्माणां पूजायां व्यतिक्रमो यथोक्तविधिलंघनं । कथं, जातु कदाचिदपि ॥ ४३ ॥ श्रुतपूजकाः परमार्थतो जिनपूजका एवेत्युपदिशति - ये यजन्ते श्रतं भक्त्या ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम् । न किञ्चिदन्तरं प्राहु- राप्ता हि श्रुतदेवयोः ॥ ४४ ॥ टीका - यजन्ते पूजयन्ति । के ते, पुमांसः । कं, जिनं । केन, अञ्जसा परमार्थेन | ये किं, ये यजन्ते । किं तत् श्रुतं । कया, भक्त्या । हि यस्मात् । न प्राहुः न ब्रुवन्ति । के ते, आप्ताः गुरवः । किं तत्, अन्तरं भेदं । कयोः, श्रुतदेवयोः प्रवचनपरमात्मनोः । कीदृशं किञ्चित् यदेव श्रुतं स एव देवो य एव च देवस्तदेव श्रुतमित्यर्थः ॥ ४४ ॥ एवं देवपूजाविधिं संक्षेपेणोपदिश्य साक्षादुपकारकत्वेन गुरूणामुपासने नित्यं नियुङ्क्ते उपास्या गुरवो नित्य-मप्रमत्तैः शिवार्थिभिः । तत्पक्षताक्ष्य पेक्षान्त-श्वरा विनोरगोत्तराः ॥ ४५ ॥ टीका - उपास्याः सेव्याः । के ते गुरवः धर्माराधनायां प्रयोक्तारः । कैः, शिवार्थिभिः परमकल्याणकामैः । किंविशिष्टैः, सद्भिरप्रमत्तैः प्रमादरहितैः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । ४७ कथं, नित्यं शश्वत् । यतो भवन्ति । के ते, तत्पक्षतायपक्षान्तश्चराः तेषां गुरूणां पक्षस्तदायत्ततया वृत्तिः स एव तायपक्षो गरुडपतत्रं तत्रान्तर्मध्ये चरन्ति तदन्तश्चराः । किंविशिष्टा भवन्ति, विघ्नोरगोत्तराः विनाः प्रक्रमाद्धर्मानुष्ठानविषये अन्तरायास्त एवोरगाः सर्पाः अपकारकत्वात् तेभ्य उत्तरा: परे तरचारिणः, धर्मानुष्ठानप्रत्यूहस(नाभिभूयन्त इत्यर्थः ॥ ४५ ॥ गुरूपास्तिविधिमाह - निर्व्याजया मनोवृत्या सानुवृत्त्या गुरोर्मनः । प्रविश्य राजवच्छश्व द्वनयेनानुरञ्जयेत् ॥ ४६ ॥ टीका-अनुरायेदात्मनि रक्तं कुर्यात् । कोऽसौ, श्रेयोऽर्थी । किं त,न्मनश्चित्तं । कस्य, गुरोराराध्यस्य । केन, विनयेन अभ्युत्थानादिना कायिकेन, हितमितादिप्रतिपादनेन वाचनिकेन, शुभचिन्तनादिना चित्तेन च । कथं, शश्वत् नित्यं । किं कृत्वा, प्रविश्यान्तश्चरित्वा । किं तत्, गुरोर्मनः । कया, मनोवृत्या चित्तप्रवृत्त्या। किंविशिष्टया, निर्व्याजया निर्दम्भया । पुनः किंवि. शिष्टया, सानुवृत्त्या छन्दानुवृत्तिसहितया । कस्येव, राजवत्, राज्ञो यथा सेवकवर्गः ॥ ४६ ॥ विनयेनानुरञ्जयेदित्येतदर्थ व्यनक्तिपार्श्वे गुरूणां नृपवत्मकृत्यभ्यधिकाः क्रियाः। अनिष्टाश्च त्यजेत्सर्वा मनो जातु नु दूषयेत् ॥४७॥ टीका-त्यजेत् वर्जयेत् उपासकः । काः, क्रियाश्चेष्टाः । सर्वाः । किंविशिष्टाः, प्रकृत्यभ्यधिकाः स्वभावादतिरिक्ताः वैकारिकीः कोपहास्यविवादादिकाः । न केवलं ताः अनिष्टाश्च शास्त्रनिषिद्धाश्च पर्यस्तिकोपाश्रयादिकाः । क्व, पार्वे समीपे । केषां, गुरूणां । केषामिव, नृपवत् राज्ञां यथा । तथा न दूषयेत् न विकारयेत् । किं तत्, राज्ञामिव गुरूणां मनः । कथं, जातु कदाचिदपि आर्तावस्थायामपीत्यर्थः ॥ ४७ ॥ १ निष्ठीवनमवष्टम्भं जम्भणं गात्रभञ्जनम् । असत्यभाषणं नर्म हास्यं पादप्रसारणम् ॥ अभ्याख्यानं करस्फोटं करेण करताडनम् । विकारमंगसंस्कारं वर्जयेद्यतिसन्निधौ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते साम्प्रतं पात्राणि तर्पयेदित्यादिपूर्वोद्दिष्टदानादिविधिप्रपञ्चार्थमाहपात्रागमविधिद्रव्य- देशकालानतिक्रमात् । दानं देयं गृहस्थेन तपश्चर्ये च शक्तितः ॥ ४८ ॥ टीका — देयं दातव्यं । किं तत्, दोनं रत्नत्रयानुग्राहकं वस्तु । केन, गृहस्थेन । कस्मात् पात्राद्यनतिक्रमात् यथापात्रं यथाssगंम यथाविधि यथाद्रव्यं यथादेशं यथाकालं चेत्यर्थः । तथा चर्यमनुष्ठेयं गृहस्थेन । किं तत्, तपोऽनशनादि । कस्मात् शक्तितः निजसामर्थ्यानुसारेण दानतपसी कुर्यादित्यर्थः ॥ ४८ ॥ सम्यग्टशो नित्यमवश्यतया विधीयमानयोर्दानतपसोरवश्यम्भाविनं फलविशेषमाह ४८ नियमेनान्वहं किञ्चिद्यच्छतो वा तपस्यतः । सन्त्यवश्यं महीयांसः परे लोका जिनश्रितः ॥ ४९ ॥ > टीका - अवश्यं निश्चितं । सन्ति भवन्ति । के ते लोकाः । किंविशिष्टाः, परे जन्मान्तराणीत्यर्थः । किंविशिष्टाः सन्ति, महीयांसः इन्द्रादिपदलक्षणाः । कस्य, जिनश्रितः परमात्मानं सेवमानस्य भव्यस्य । किं कुर्वतो, यच्छतो ददतः तपस्यतो वा तपश्चरतः । किं किञ्चित् यद्वा तद्वा शास्त्रविहितं । केन, नियमेन अवश्यतया । कथ, - मन्वहं दिनेदिने ॥ ४९ ॥ यदर्थं यद्दानं कर्तव्यं तत्तदर्थमाह धर्मपात्राण्यनुग्राह्याण्यमुत्र स्वार्थसिद्धये । कार्यपात्राणि चात्रैवकीयै त्वौचित्यमाचरेत् ॥ ५० ॥ टीका -- अनुग्राह्याणि उपकार्याणि श्रेयोऽर्थिना । कानि, धर्मपात्राणि: रत्नत्रयसाधनपराः नराः । किमर्थं, स्वार्थसिद्धये । क्क, अमुत्र परलोके स्वर्गादिसुखसम्पत्त्यर्थमित्यर्थः । तथा अनुग्राह्याणि । कानि, कार्यपात्राणि त्रिवर्गसाधन सहायाः । कस्यै, अत्रैव जन्मनि स्वार्थसिद्धये पुरुषार्थसम्प्राप्तये । तथा आचरेदनुतिष्ठेत् गृही । किं तत्, औचित्यं दानप्रियवचनाभ्यामन्यस्य सन्तोषोत्पादनं । कस्यै कीत्यै यशोऽर्थम् ॥ ५० ॥ १ वर्य मध्यजघन्यानां पात्राणामुपकारकम् । दानं यथायथं देयं वैयावृत्यविधानिना ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । ४९ धर्मपालाणां यथागुणं सन्तर्पणीयत्वमाहसमयिकसाधकसमयद्योतकनौष्ठकगणाधिपान्धिनुयात् । दानादिना यथोत्तरगुणरागात्सद्गृही नित्यम् ।। ५१॥ टीका-समयिको गृही यतिर्वा जिनसमयश्रितः, साधको ज्योतिषमन्त्रवादादिलोकोपकारकशास्त्रज्ञः, समयद्योतको वादित्वादिना मार्गप्रभावकः, नैष्ठिको मूलोत्तरगुणश्लाध्यतपोऽनुष्ठाननिष्ठः, गणाधिपः धर्माचार्यस्तादृग्गृहस्थाचार्यो वा एतान् पञ्च धिनुयात् प्रीणयेत् । कोऽसौ, सद्गृही पाक्षिकश्रावकस्त्रैवर्णिको वा गृहस्थः । केन, दानादिना दानमानासनसम्भाषणादिना । कस्मात्, यथोत्तरगुणरागात् यो य उत्तर उत्कृष्टः समयिकादीनां मध्ये तस्य तस्य गुणेषु प्रीतितः, अथवा यो यो यस्योत्कृष्टो गुणस्तत्र तत्र प्रीत्या तं धिनुयादिति योज्यम् । अत्र श्रमणोपासकेषु मुमुक्षुषु रत्नत्रयानुग्रहबुध्या सन्तर्पणं पात्रदत्तिः, बुभुक्षुषु च गृहस्थेषु वात्सल्येन यथार्हमनुग्रहः समान दत्तिरिति विभागः ॥ ५ ॥ समदत्तिविधानोपदेज्ञार्थमाह स्फुरत्येकोऽपि जैनत्व-गुणो यत्र सतां मतः । तत्राप्यजनैः सत्पात्रै?त्यं खद्योतवद्रवौ ॥ ५२ ।। १ गृहस्थो वा यतिर्वाऽपि जैनं समयमास्थितः । यथाकालनुप्राप्तः पूजनीयः सुदृष्टिभिः ॥ २ ज्योतिर्मन्त्रनिमित्तज्ञः सुप्रज्ञः कायकर्मसु । मान्यः समयिभिः सम्यक्परोक्षार्थ+++धीः ॥ ३ दीक्षायात्राप्रतिष्ठाद्याः क्रियास्तद्विरहे कुतः । तदर्थं परपृच्छायां कथं च समयोन्नतिः ॥ ४ मूलोत्तरगुणश्लाध्यैस्तपोभिर्निष्ठितास्थितिः । साधुः साधु भजेत्पूज्यः पुण्योपार्जनपण्डितैः ॥ ५ ज्ञानकाण्डे क्रियाकाण्डे चातुर्वर्ण्यपुरस्सरः । सूरिदेव इवाराध्यः संसाराधितरण्डकः ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सागारधर्मामृते ............. टीका-द्योत्यं प्रकाश्यं प्रभाव्यं । कैः, सत्पात्रैः ज्ञानतपोऽधिकैः। किंविशिष्टै,-रजैनैः शिवादिभक्तिग्रहाविष्टैः । क, तत्रापि तपोज्ञानरहितेऽपि जैने । किंवत्, खद्योतवत् खद्योतैरिव । कस्मिन्, रवौ रविसन्निधाने ज्योतिरिङ्गणा यथा निष्प्रभा भवन्ति तथा स्फुरज्जैनत्वगुणपुंसः समीपे मिथ्यादृष्टिधार्मिका इत्यर्थः । यत्र किं, यत्र स्फुरति प्रतपति । कोऽसौ, जैनत्वगुणः जिन एव देवो मे भवार्णवोत्तारकत्वादित्यभिनिवेशधर्मः। किंविशिष्टोऽपि, ज्ञानतपोरहितः,किं पुनस्तत्सहित इत्यपिशब्दार्थः । किंविशिष्टः, सतां मतः साधूनामिष्टः॥ ५२ ॥ श्रेयोऽर्थिनां जैनानुग्रहानुभावमाह वरमेकोऽप्युपकृतो जैनो नान्ये सहस्रशः । दलादिसिद्धान् कोऽन्वेति रससिद्ध प्रसेदुषि ।। ५३ ॥ टीका-वरं भवत् । कोऽसौ, जैनः। किंविशिष्टः, उपकृतोऽनुगृहीतः । किंविशिष्टोऽपि, एकोऽपि । न वरं। के,-ऽन्ये अजैनाः । किंविशिष्टाः, उपकृताः। कियन्तः, सहस्रशः सहस्रसंख्याः । अत्र दृष्टान्तमाह-को, न कश्चित् । अन्वेति अनुवर्तते । कान् , दलादिसिद्धान् दलं बीजरहितकृत्रिमसुवर्णादिद्रव्यं आदिशद्धाद्वोत्कर्षादि तत्र तेन वा सिद्धान् प्रसिद्धान् । क्व सति, रससिद्धे पारदेन दारिद्यव्याधिजरादिनिराकरणशक्त्या प्रतीते पुंसि । किंविशिष्टे, प्रसेदुषि प्रसन्ने अनुग्रहोद्यते ॥ ५३ ॥ नामादिनिक्षेपविभक्तानां चतुर्णा जैनानां पात्रत्वं यथोत्तरं विशिनष्टि नामतः स्थापनातोऽपि जैनः पात्रायते तराम् । स लभ्यो द्रव्यतो धन्यैर्भावतस्तु महात्माभिः ॥ ५४ ॥ टीकाः-पात्रायते तरां अजैनपात्रेभ्योऽतिशयेन संयुज्यमाननिर्वाणकारणगुणलक्षणपात्रवदाचरति, सम्यक्त्वसहचारिपुण्यासवकारणत्वात् । कोऽसौ. जैनः । केन, नामतः सज्ञामात्रेण, न परं नाम्ना स्थापनातोऽपि सोऽयं जैन इति कल्पनामात्रेणापि । लभ्यः प्राप्यः । कोऽसौ, स जैनः । केन, द्रव्यतो द्रव्येण आगामिजैनत्वगुणयोग्यत्वेन विशिष्टः। कैः, धन्यैः पुण्यवद्भिः। स एव तु भावतो भावेन जैनत्वगुणयोगेन लभ्यः । कैः, महात्मभिः महाभागैः ॥५४॥ भावजैनं प्रति निरुपाधिप्रीतिमतोऽभ्युदयनिःश्रेयससम्पदं फलमाह ___ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीतजैनत्वगुणेऽनुरज्यन्निव्याजमासंमृति तद्गुणानाम् । धुरि स्फुरनभ्युदयैरदृप्तस्तृप्तस्त्रिलोकीतिलकत्वमेति ॥५५॥ टीका-एति गच्छति । कोऽसौ, गृही। किं कुर्वन्, अनुरज्यन् स्वयमेवानुरागं कुर्वन् । कथ, निर्व्याजं निच्छद्म । क्व, प्रतीत: प्रसिद्धो जैनत्वगुणो यस्य तस्मिन् प्रतीतजैनत्वगुणे । कि-,मेति त्रिलोकीतिलकत्वं परमपदं । किंभूतो भूत्वा, तृप्तः वितृष्णीभूत इत्यर्थः । कैः,अभ्युदयैराश्वर्यादिभिः । किंविशिष्टः सन् , अदृप्तोऽकृतमदः सम्यक्त्वसहचारिपुण्योदययागोत् । किं कुर्वन्, स्फुरन् दीव्यन् । क,धुरि अग्रे । केषां सद्गुणानां प्रतीतजैनत्वगुणानां । कथम्.आसंमृति संसारं यावत्, भवे भवे जैनानामग्रणीर्भवन्नित्यर्थः ॥ ५५ ॥ गृहस्थाचार्याय तदभावे मध्यमपात्राय वा कन्यादिदानं पाक्षिकश्रावकस्य कर्तव्यतयोपदिशति निस्तारकोत्तमायाथ मध्यमाय सधर्मणे । कन्याभूहेमहस्त्यश्व-रथरत्नादि निर्वपेत् ॥ ५६ ॥ टीका--निर्वपेत् दद्यात् गृही। किं तत्, कन्या कुमारी, भूभूमिः, हेम काञ्चनं, हस्ती गजः, अश्वो बाजी, रथः स्यन्दनः, रत्नं वज्रादि, आदिशब्देन वस्त्रगृहनगरायेवंजातीयकमन्यदपि त्रिवर्गसाधनाश्रयं वितरेत् । कस्मै,सधर्मणे समान आत्मना समो धर्मः क्रियामन्तवतादिलक्षणो गुणो यस्य तस्मै । किविशिष्टाय, निस्तारकोत्तमाय संसाराणवोत्तारकाणां गृहिणां मध्ये प्रधानाय, न केवलं तस्मै तदलाभे च मध्यमाय अनुत्तमाधमाय । अथशब्दोऽत्र पक्षान्तरसूचनेऽधिकारे वा । अत्र जघन्यविषयां समदत्तिं व्याख्याय मध्यमविषयाs सावधिक्रियते इत्यर्थः । यत्यपेक्षया गृहस्थस्य गुणाधिकस्यापि मध्यमपात्रत्वात् ॥ ५६ ॥ सधर्मभ्यः कन्यादिदाने हेतुमाह आधानादिक्रियामन्त्र-व्रतावच्छेदवाञ्छया। प्रदेयानि सधर्मभ्यः कन्यादीनि यथोचितम् ।। ५७ ।। टीका-प्रदेयानि प्रकृष्टं कृत्वा दातव्यानि गृहिणा। कानि, कन्यादीनि । केभ्यः, सधर्मभ्यः साधर्मिकेभ्यः । कथं, यथोचितं यो यो यद्दानस्य योग्यस्तस्मै Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ सागारधर्मामृते तस्मै तद्दातव्यमित्यर्थः । कया, आधामादीत्यादि -आधानं गर्भाधानविधानमादिर्यासां प्रीतिसुप्रीत्यादीनामातोक्तानां क्रियाणां ता आधानादयस्ताश्च ताः क्रियाश्च कर्माणि गृहस्थानामवश्यकार्याणि, मन्त्राः प्रत्यासत्तेराधानादिक्रियासम्बन्धिन एवासेोक्ताः अपराजितमन्त्री वा व्रतानि मद्यविरत्यादीनि आदिशब्दाद्देवपूजापात्रदानादिधर्मकर्माणि तेषामच्छेदः सातत्येन प्रवृत्तिस्तत्र वाञ्छा आकांक्षा तया ॥ ५७ ॥ - सम्यक्कन्यादानविधिं तत्फलं चाह - निर्दोषां सुनिमित्तसूचितशिवां कन्यां वराहैर्गुणैः स्फूर्जन्तं परिणाय्य धर्म्यविधिना यः सत्करोत्यञ्जसा । दम्पत्योः स तयोस्त्रवर्गघटनात्त्रैवर्गिकेष्वग्रणीर्भूत्वा सत्समयास्तमोहमहिमा कार्ये परेऽप्यूर्जति ॥ ५८ ॥ टीका - यो गृही । अञ्जसा श्रद्वापरत्वेन । साधर्मिकं सत्करोति सम्मानयति यथोचितवस्त्रादिदानेनोपचरति । किं कृत्वा, परिणाय्य युक्तितो वरणविधानमग्निदेवद्विजसाक्षिकं च पाणिग्रहणं विवाहस्तं कारयित्वा । केन, धर्म्यविधिर्ना धर्म्या धर्मादनपेता ब्राह्मप्राजापत्यार्थदेवाश्चत्वारो विवाहास्तेषां यथार्ह प्रयो धर्म्याविवाहविधिरार्षे यथा तसोsस्य गुर्वनुज्ञाना-दिष्टा वैवाहिकी क्रिया । वैवाहिके कुले कन्या - मुचितां परिणेष्यतः | सिद्धार्चनविधिं सम्य-निर्वर्त्य द्विजसत्तमाः । कृतामित्रयसम्पूजाः कुर्युस्तत्साक्षिकां क्रियाम् ॥ पुण्याश्रमे क्वचित्सिद्ध- प्रतिमाभिमुखं तयोः । दम्पत्योः परया भूत्या कार्यः पाणिग्रहोत्सवः ॥ वेद्यां प्रणीतमग्नीनां त्रयं द्वयमथैककम् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रशय्य विनिवेशनम् ॥ पाणिग्रहणदीक्षायां नियुक्तं तद्वधूवरम् । आसप्ताहं चरेद्रम्ह - व्रतं देवाग्निसाक्षिकम् ॥ ( शेषस्त्वग्रपृष्ठे । ) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । ५३ गेण । किं कुर्वन्तं, स्फूर्जन्तं विचारकचेतसि स्फुरन्तं । कैर्गुणैः । किंविशिष्टैः, वराहैवरयितुर्योग्यैः कुलशीलसानाध्यविद्यावित्तसौरूप्ययोग्य वयोर्थिवैः । कां परिणाय्य, कन्यां । किंविशिष्टां निर्दोषां सामुद्रिकशास्त्रोक्तदोषरहितां । पुनः किंविशिष्टां, सुनिमित्तसूचित शिवां सुनिमित्तैः सामुद्रिक दूतज्योतिषादिभविष्यच्छुभाशुभज्ञानोपायैः सूचितं प्रकाशितं शिवं स्वस्य वरस्य च कल्याणं यस्यास्तां । स किमित्याह – ऊर्जति समर्थो भवति । कोऽसौ स यथाविधि - कन्यादाता । क्क, कार्येऽवश्यकृत्ये । किंविशिष्टे, परेऽपि पारलौकिके न केवलं लौकिकं इत्यपिशब्दार्थः । किंविशिष्टः सन्, सदित्यादि- दे - सत्समयः जिनप्रवचनार्यसङ्गतिर्वा तेनास्तो निराकृतो मोहस्य चारित्रावरणकर्मणो महिमा गुरुत्वं येन स तथोक्तः । किं कृत्वा, भूत्वा । किम्भूतोऽग्रणीः प्रधानं । केषु मध्ये, taraषु धर्मार्थकामानाचरत्सु । कस्मात् त्रिवर्गघटनात् धर्मार्थकामसम्पादनात् । कयो, -स्तयोः स्वकन्यातद्वरलक्षणयोर्दम्पत्योर्जायापत्योः ॥ ५८ ॥ सत्कन्याप्रदातुः साधर्मिकोपकारकरणद्वारेण महान्तं सुकृतलाभमवभासय, नाह- " क्रान्त्वा स्वस्योचितां भूमिं तीर्थभूमीर्विहृत्य च । स्वगृहं प्रविशेद्भूत्या परया तद्वधूवरम् ॥ विमुक्तकंकणः पश्चात्स्वगृहे शयनीयकम् | अधिशय्य यथाकालं भौगाङ्गैरुपलालितम् ॥ सन्तानार्थमृतावेव कामसेवां मिथो भजेत् । शक्तिकालव्यपेक्षोऽयं क्रमोऽशक्तेष्वतोऽन्यथा ॥ १-२ द्वौ हि धर्मों गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥ सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिने यत्र न व्रतदूषणम् ॥ स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् । तत्क्रियाविनियोगाय जैनागमविधिः परम् ॥ यद्भवभ्रान्तिनिर्मुक्ति-हेतुस्तत्र दुर्लभा । संसारव्यवहारे तु स्वतः सिद्धे वृथाऽऽगमः ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सागारधर्मामृते सत्कन्यां ददता दत्तः सत्रिवर्गो गृहाश्रमः । गृहं हि गृहिणीमाहु-र्न कुड्यकसंहतिम् ॥ ५९ ॥ - टीका - दत्तो वितीर्णः सगृहिणा साधर्मिकाय । कोऽसौ गृहाश्रमः गृहे आश्रमो धर्मानुष्ठानं गृहमेव वाऽश्रमस्तपःस्थानं । किं कुर्वता, ददता । कां सत्कन्यां सती प्रशस्ता कौलीन्यादिगुणोपेता सामुद्रिकोक्तदोषरहिता च कन्या कुमारी सत्कन्या तां । किंविशिष्ट गृहाश्रमो दत्तः, सत्रिवर्गों धर्मार्थकामानां सद्गृहिणीमूलत्वात् । तथा हि- धर्मः स्वदारसन्तोषाद्यात्मक संयम लक्षणो देवादिपरिचरणस्वरूपः सत्पात्रदानादिस्वभावश्च, अर्थो वेश्यादिव्यसनव्या वर्तनेन निष्प्रत्यूहमर्थस्योपार्जनादुपार्जितस्य च रक्षणाद्रक्षितस्य च वर्द्धनाद्यथाभाग्यं ग्राम सुवर्णादिसम्पत्तिः, 'संकल्परमणीयस्य प्रीतिसम्भोगशोभिनो रुचिरस्या - भिलाषस्य नाम काम' इति स्मृतिरिति वचनात् कामश्च यथेष्टमाभिमानिकरसानुविद्धसर्वेन्द्रियप्रीतिहेतुः कुलाङ्गनासङ्गिनां सुप्रतीतः । हि यस्मात् । आहुः ब्रुवन्ति विद्वांसः । किं, गृह । कां, गृहिणीं कुलपत्नीं । न आहुः । किं तत्, गृहं । कुड्यकटसंहतिं भित्तिवंशादिच्छादन सङ्घातम् ॥ ५९ ॥ कुलत्रपरिग्रहं लोकद्वयाभिमतफलसम्पादकत्वात् त्रैवर्गिकस्य विधेयतयोपदिशति धर्मसन्ततिमक्लिष्टां रतिं वृत्तकुलोन्नतिम् । देवादिसत्कृतिं चेच्छन्सत्कन्यां यत्नतो वहेत् ॥ ६०॥ टीका - वहेत् परिणयेत । कोऽसौ, श्रावकः । कां, सत्कन्यां सती प्रशस्ता सतश्च सज्जनस्य कन्या सत्कन्या तां । कस्मात्, यत्नतः प्रयत्नेन तत्परतया । किं कुर्वन्, इच्छन् आकांक्षन् । किं किं, धर्मसन्ततिं धर्मार्था सन्ततिरपत्यानि अथवा धर्मस्य सन्ततिरविच्छेदो धर्मसन्ततिस्तां, तथा अक्लिष्टामनुपहतां रति संम्भोगं, तथा वृत्तकुलोन्नतिं वृत्तस्याचारस्य कुलस्य च वंशस्य गृहस्य वा उन्नतिरुद्गतिस्तां, तथा देवादिसत्कृतिं देवद्विजातिथिबान्धवसत्कारम् ॥ ६०॥ दुष्कलन्रस्याकलत्रस्य वा पात्रस्य भूम्यादिदानान्न कश्चिदुपकारः स्यादित्यमुमर्थमवश्यं सत्कन्याविनियोगेन सधर्माणमनुगृह्णीयादिति विधिव्यवस्थापनार्थमर्थान्तरन्यासेन समर्थयते Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । सुकलत्रं विना पाते भूहेमादिव्ययो वृथा । कीटैर्दन्दश्यमानेऽन्तः कोऽम्बुमेकाद्भुमे गुणः ॥ ६१॥ ५५ टीका - भवति । कोऽसौ भूहेमादिव्ययः भूमिसुवर्णादिदानं । कथम्भूतो, वृथा व्यर्थ: । क्क, पात्रे संयुज्यमानमोक्षकारणगुणे गृहिणि । कथं, विना । किं तत्, सुकलत्रं सत्पत्नीं । अत्र दृष्टान्तमाह- को भवति, न कश्चित् । कोऽसौ, गुण उपकारः । कस्मात्, अम्बुसेकात् जलसेचनात् । क्व, द्रुमे वृक्षे । किं क्रियमाणे, दन्दश्यमाने गर्हितं भक्ष्यमाणे । कैः, कीटैः घुणैः । क्क, अन्तर्मध्ये । विषयसुखोपभोगेनैव चारित्रमोहोदयोद्रेकस्य शक्यप्रतीकारत्वात्तद्वारेणैव तस्मादपवर्त्यत्मानमिव साधर्मिकमपि विषयेभ्यो व्युपरमयेदित्युपदेशार्थमाह विषयेषु सुखभ्रान्ति कर्माभिमुखपाकजाम् । छित्वा तदुपभोगेन त्याजयेत्तान्स्ववत्परम् || ६२ ॥ > टीका - त्याजयेद्विमोचयेत् । कोऽसौ सद्गृही । कं परं कन्यादिदानेन विषयीक्रियमाणं साधर्मिकं । कानू तानू, सुकलत्रादिविषयान् । किंवत्, स्वचत् आत्मानं यथा । किं कृत्वा, छित्वा प्रशमय्य । कां, सुखभ्रान्ति सुखयन्तीति सुखाः सुखहेतव इमे सुखं वेति विपर्यासमतिं । केषु विषयेषु । किंविशिष्टां, कर्माभिमुखपाकजां कर्मणश्चारित्रमोहस्याभिमुखो निजफलदानोद्यतः पाको रसः कर्माभिमुखपाकस्तस्मात् जातां । छित्वा प्रशमय्य । कां सुखभ्रान्ति । केन, तदुपभोगेन विषयानुभवनेन ।। ६२ । पुरुषाणामाचार विप्लवदर्शनाद्विचिकित्साकुलित दुष्षमाकालवशात्प्रायेण चित्तस्य दातुः सौचित्यविधानार्थं चतुरः श्लोकानाह— दैवाल्लब्धं धनं प्राणैः सहावश्यंविनाशि च । बहुधा विनियुञ्जानः सुधीः समयिकान्क्षिपेत् ॥ ६३ ॥ टीका -- क्षिपेत् धिगिमान् सम्भाषणमात्रस्याप्ययोग्यानित्याद्यवर्णवादेन तिरस्कुर्यादिति काक्वा न क्षिपेदिति प्रतिषेधे पर्यवस्यति । कोऽसौ, सुधीः श्रेयोऽथ गृही । कानू, समयिकान् समयाश्रितान् गृहस्थान् यतीन् वा । किं कुर्वाणो, विनियुञ्जानो व्ययमानः । किं तत्, धनं । कतिधा, बहुधा बहुभिः Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सागारधर्मामृते प्रकारैः लजाभयपक्षपातादिभिः। किंविशिष्टं धनं, लब्धं प्राप्तं । कस्मात् , दैवात्पुण्योदयान पुरुषकारात् , तस्य संसारे गौणत्वात् । किंविशिष्ट, मवश्यंविनाशि नियमेन गत्वरं । कथं, सह । कैः, प्राणैः ॥ ६३ ॥ किं तर्हि कुर्यादित्याहविन्यस्यैदंयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव ।। भक्त्या पूर्वमुनीनर्चेत्कुतः श्रेयोऽतिचर्चिनाम् ॥ ६४ ॥ टीका-अर्चेत् पूजयेत् । कोऽसौ, सद्गृही । कान्, पूर्वमुनीन् प्राक्तनसाधून् । कया, भक्त्या । किं कृत्वा, विन्यस्य नामादिविधिना निक्षिप्य । केषु, ऐदंयुगीनेषु अस्मिन् युगे साधुषु । कास्विव कान्, प्रतिमासु जिनानिव प्रति. बिम्बेष्वहतो यथा । यतः कुतो भवति, न कुतश्चित् । किं तत्, श्रेयः पुण्यं । केषाम्, अतिचर्चिनाम् अतिमात्रं क्षोदकाराणाम् ॥ ६४ ॥ १ भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्तः सन्त्वसन्तो वा शूद्रो दानेन शुध्यति ॥ सर्वारम्भप्रवृत्तानां गृहस्थानां धनव्यत्रः । बहुधाऽस्ति ततोऽत्यर्थ न कर्त्तव्या विचारणा ॥ यथा यथा विशिष्यन्ते तपोज्ञानादिभिर्गुणैः तथा तथाऽधिकं पूज्या मुनयो गृहमधिभिः ।। दैवालब्धं धनं धन्यैर्वप्तव्यं समयाश्रिते। एको मुनिर्भवेल्लभ्यो न लभ्यो वा यथागमम् ॥ उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनशिनाम् । नैकस्मिन्पुरुष तिष्ठे-देकस्तम्भ इवालयः ॥ ते नामस्थापनाद्रव्य-भावन्यासैश्चतुर्विधाः । भवन्ति मनुयः सर्वे दानमानादिकर्मसु ॥ उत्तरोत्तरभावेन विधिस्तेषु विशिष्यते । पुण्यार्जने गृहस्थानां जिनप्रतिकृतिष्विव ॥ काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके । एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । पुनस्तदर्थसमर्थनार्थमाह भावो हि पुण्याय मतः शुभः पापाय चाशुभः । तद्दुष्यन्तमतो रक्षेद्वीरः समयभक्तितः ।। ६५ । टीका - हि यस्मात् । पुनरिष्टः । कोऽसौ भावः परिणामः । कस्मै, पुण्याय सुकृतनिमित्तं । किंविशिष्टः, शुभः प्रशस्तः । तथा मतः । कोऽसौ, भावः । किंविशिष्टो,-ऽशुभोऽप्रशस्तः । कस्मै, पापाय पातकनिमित्तं । यत एवमतः एतस्मात्कारणात् । रक्षेन्निवारयेत् । कोऽसौ, धीरोऽविकारप्रकृतिः । कं तं, भावं । किं कुर्वन्तं, दुष्यन्तं विकुर्वाणं । कस्मात्, समयभक्तितः जिनशासनं कलौ धारयन्तोऽमी अतो जिनवन्मान्या इत्यनुरागबुध्या ॥ ५६ ॥ ज्ञानतपसोः पृथक् समुदितयोश्च तद्वतां च पूज्यत्वे युक्तिमाहज्ञानमर्च्य तपोऽङ्गत्वा त्तपोऽर्च्य तत्परत्वतः । द्वयम शिवाङ्गत्वात्तद्वन्तोऽर्थ्या यथागुणम् ॥ ६६ ॥ टीका - अर्च्य पूज्यं गृहिणां । किं तत् ज्ञानं साधकस्थं दीक्षायात्राप्रतिपयोगि । कुतस्तपोऽङ्गत्वादनशनादितपोनिमित्तत्त्वात् । तथा अर्थ्यं । किं तत्, तपो नैष्ठिकस्थं । कस्मात्त, त्परत्वतः ज्ञानातिशयहेतुत्वात् ज्ञानं परमुत्कृष्टं यस्मादिति व्युत्पत्याश्रयणात् । तथा अर्घ्यं । किं तत्, द्वयं ज्ञानतपोयुगलं गणाधिपस्थं । कस्मात्, शिवाङ्गत्वान्मोक्षकारणत्वात् । तथा अर्ध्याः । के ते, तद्वन्तो ज्ञानिनस्तपस्विनो ज्ञानतपोयुक्ताश्च । कथं, यथागुणं यो यो गुणो यस्याधिकस्तेन तेन तं तं विशेषेण पूजयेदित्यर्थः ॥ ६६ ॥ अथ मिथ्यादृष्टेश्च सुपात्रेष्वेवान्नदानादुत्पन्नस्य पुण्यस्य फलविशेषमपात्रे चार्थविनियोगस्य वैयर्थ्यं प्रतिपादयितुमाह न्यग्मध्योत्तमकुत्स्यभोगजगती भुक्तावशेषाद्वृषातादृक्पात्रवितीर्णभुक्तिरसुदृग्देवो यथास्वं भवेत् । यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम् । तथा पूर्वमुनिच्छायाः पूज्याः सम्प्रति संयताः ॥ ५७ ( पूर्वपृष्टादागता । ) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ सागारधर्मामृते सद्दृष्टिस्तु सुपात्रदान सुकृतोद्रेकात्सुभुक्तोत्तमस्वर्भूमर्त्यपदो शिवपदं व्यर्थस्त्वपात्रे व्ययः ॥ ६७ ॥ टीका - भवेत् जायेत । कोऽसौ असुहस्मिथ्यादृष्टिर्जीवः । किं भवेत्, देवः सुरः । कथं, यथास्वं यद्यत्स्वमात्मीयं दानं तत्तदनतिक्रमेणेत्यर्थः । किंविशिष्टः सन् तादृक्पात्रवितर्णभुक्तिः तादृग्भ्यो न्यग्मध्योत्तमकुत्सितेभ्यः पात्रेभ्यो वितीर्णा दत्ता भुक्तिराहारो येन स तथोक्तः । कस्माद्भवेत्, वृषात् पुण्यविशेषात् । किंविशिष्टात्, न्यागत्यादि, - न्यक् जघन्य एकपल्योपमभोग्यत्वात् उत्तमस्त्रिपल्योपमभोग्यत्वात् कुत्स्यः सुस्वादुमृत्पुष्पफलाशनवृत्तित्वादेकोरुकादिदेहयोगाच्च । न्यक्च मध्यमश्च उत्तमश्च कुत्स्यश्च न्यग्मध्योत्तमकुत्स्यास्ते च ते भोगाश्च न्यग्मध्योत्तमकुत्स्यभोगास्तैरुपलक्षिता जगत्यो भूमयो जवन्यभोगभूमिर्मध्यमभोगमूमिरुत्तमभोगभूमिः कुभोगभूमिश्चेति चतस्रस्तासु भुक्ताः कल्पवृक्षादिसम्पादितेष्टविषयोपभोगमुखेन निजीर्णश्चासा ववशेषश्चोद्धृतो यो वृषस्तस्मात् । तत्र मिथ्यादृष्टिर्जघन्यपात्राय सुदृष्टिलक्षणायाहारदानं दत्वा जघन्य भोगभूमौ मध्यमपात्राय सम्यक्त्वाणुव्रतपवित्राय मध्यभोगभूमी, उत्तमपात्राय सम्यग्दर्शनमहाव्रतभूषिताय चोत्तमभोगभूमी, निरातङ्कभोगान् भुक्त्वा स्वायुः क्षये यथायोग्यं गच्छेत् । तत्तत्पात्रसन्निधानात्तथाविधशुभ परिणाम विशेषोपपत्त्या तादृक्पुण्यप्रचयानुभावात् । स एव च कुपात्रा सम्यक्त्वरहितत्रततपोयुक्तायाहारं दत्वा कुभोगभूमौ निर्भूषाविवस्त्रगुहावृक्षमूलनिवास्ये कोरुकादिशरीरो भूत्वा स्वसमानपत्न्या सह यथास्वं निराबाधतया भोगं भुक्त्वा पल्योपममात्रस्वायुःक्षये मृत्वा स्वर्गे वाहनदेवो ज्योतिषको वा व्यन्तरो वा भवनवासी वा भूत्वा दीर्घं दुर्गतिदुःखानि भुञ्जन् संसरति । किं च ये भोगभूमिषु ये च मानुषोत्तरपर्वताद्बहिः प्राक्च स्ययम्प्रभपर्वतात्तिर्यञ्च ये च म्लेच्छराजगजतुरगादयो वेश्यादयो वा नीचात्मानो 1 पात्रापात्रलक्षणं यथा १-२ उत्कृष्टपात्रमनगारम णुत्रताढ्यं मध्यं व्रतने रहितं सुदृशं जघन्यम् । निर्दर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्र युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं हि विद्धि ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । भोगभाजो दृश्यन्ते ते सर्व कुपात्रदानतो यथापरिणाममुत्पन्नेन मिथ्यात्वसहचारिणा पुण्येन तथा स्युरिति निर्णयः । अद्भुते प्राप्नोति । कोऽसौ, सद्दृष्टिः सम्यक्त्वविशुद्धो जीवः । तुर्विशेषे । किं, शिवपदं । किंभूतो भूत्वा, सुष्ठु यथेष्टं भुक्तानि उत्तमानि महर्द्धिकानि स्वर्भुवां कल्पोपपन्नदेवानां मर्त्यानां च चक्रवर्त्यादीनां पदानि येन स सुभुक्तोत्तमस्वर्भूमर्त्यपदः । कस्मात् सुदात्रदान सुकृतोद्रेकात् सुपात्राय महातपोधनाय त्रिविधपात्राय वा दानमनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गस्तस्माज्जातं सुकृतं पुण्यं तस्योद्रेकादुदयात् । भवेत् । कोऽसौ व्ययः अर्थविनियोगः । क्क, अपाचे' सम्यक्त्वव्रतर हितप्राणिनि । किंविशिष्ट, व्यर्थो विपरीतफलो निष्फलो वा ॥ ६७ ॥ > इदानों पात्रदानपुण्योदयफलभाजां भोगभूमिजानां जन्मप्रभृति सप्ताह-सप्तकभाविनीरवस्था निर्देष्टुमाह उत्तमपत्तं साहू मज्झमपत्तं च सावया भणिया । अविरदसम्माइलो जहण्णपत्तं मुणेयव्यम् ॥ मिथ्यात्वग्रस्त चित्तेषु चारित्रा + + भागिषु । दोषायैव भवेद्दानं पयःपानमिवाहिषु ॥ कारुण्यादथवौचित्यात्तेषां किञ्चिद्दिशन्नपि । दिशेदुद्धृतमेवानं गृहे भुक्ति न कारयेत् ॥ सत्कारादिविधावेषां दर्शनं दूषितं भवेत् । यथा विशुद्धमप्यम्बु विषभाजन संगमात् ॥ पात्राय विधिना दत्वा दानं मृत्वा समाधिना । अच्युतान्तेषु कल्पेषु जायन्ते शुद्धदृष्टयः ॥ ज्ञात्वा धर्मप्रसादेन तत्र प्रभवमात्मनः । पूजयन्ति जिनार्थ्यास्ते भक्त्या धर्मस्य वृद्धये ॥ १ - अपात्रदानतः किञ्चिन्न फलं पापतः परम् । लभ्यते हि फलं खेदो बालुकापुञ्जपेषणे ॥ अपात्राय धनं दत्ते यो हित्वा पात्रमुत्तमम् । साधुं विहाय चौराय तदर्पयति स स्फुटम् ॥ ५९. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० सागारधर्मामृते सप्तोत्तानशया लिहन्ति दिवसान्स्वांगुष्ठमार्यास्ततः कौ रिङ्गन्ति ततः पदैः कलगिरो यान्ति स्खलद्भिस्ततः । स्थेयोभिश्च ततः कलागुणभृतस्तारुण्य भोगोद्गताः सप्ताहेन ततो भवन्ति सुहगादानेऽपि योग्यास्ततः ॥ ६८ ॥ I टीका – लिहन्ति आस्वादयन्ति । के, आर्याः भोगभूमिजमनुजाः । कं, स्वांगुष्ठं । कानू, दिवसान् । कति, सप्त जन्मानन्तरं सप्ताहमित्र्थः । किंविशिष्टाः सन्तः, उत्तानश्या उत्तानमनधोमुखं शेरते । ततः प्रथमसप्ताहानन्तरं रिङ्गन्ति पद्भ्यां सर्पन्ति । के, आर्याः । कस्यां कौ भूमौ । कानू, सप्तदिवसानू । ततो द्वितीय सप्ताहानन्तरं यान्ति सञ्चरन्ति । के, आर्याः । कस्यां कौ । कैः पदैः पादन्यासैः । किं कुर्वद्भिः स्खलद्भिर्यत्रततपतद्भिः । किंविशिष्टाः सन्तः, कलगिरो मनोहरवाचः । ततस्तृतीय सप्ताहानन्तरमार्याः सप्ताहेन सप्तभिर्दिनैः स्थेयोभिः स्थिरतरैः पदैः यान्ति गच्छन्ति । कस्यां, कौ पृथिव्यां । ततश्चतुर्थसप्ताहानन्तरमार्याः सप्ताहेन सप्तभिर्दिनैः कलगीतादिगुणश्च लावण्यादीन् बिभ्रतो भवन्ति । ततः पञ्चमसप्ताहानन्तरं सप्ताहेनार्याः तारुण्यभोगोद्गता उदितोदितयौवना अविच्छिन्नमद्यादीष्टविषयाश्च भवन्ति । ततः षष्ठसप्ताहानन्तरं सप्ताहेनार्याः योग्या भवन्ति । क्क, सुहगादाने सम्यक्त्वग्रहणे । अपिर्विस्मये ॥ ६९ ॥ अथ मुनिदेय निर्णयार्थमाह- तपः श्रुतोपयोगीनि निरवद्यानि भक्तितः । मुनिभ्योऽन्नौषधावास - पुस्तकादीनि कल्पयेत् ॥ ६९ ॥ टीका - कल्पयेदुपकारयेत् । सङ्गृही। कानि, अन्नौषधावासपुस्तकादीनि । आदिशद्वेन पिच्छिकाकमण्डल्वादीनि । केभ्यो, मुनिभ्यः संयतेभ्यः । कस्मात्, भक्तितः । किंविशिष्टानि, तपः श्रुतोपयोगीनि तपसः श्रुतज्ञानस्य चोपकाकाणि । पुनः किंविशिष्टानि, निरवद्यानि पिण्डशुध्युक्तोद्मोत्पादनादिदोषरहितानि ॥ ६९ ॥ अन्नादिदानफलानां क्रमेण निदर्शनान्याह - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः। भोगित्वाद्यन्तशान्तिप्रभुपदमुदयं संयतेऽन्नप्रदानाच्छ्रीषेणो रुग्निषेधाद्धनपतितनया पाप सर्वोषधर्द्धिम् । प्राक्तज्जन्मर्षिवासावनशुभकरणात्सूकरः स्वर्गमग्र्यं कौण्डेशः पुस्तका वितरणविधिनाऽऽप्यागमाम्भोधिपारम् टीका-माप लब्धवान् । कोऽसौ, श्रीषेणो नाम राजा। कम्, उदयमभ्युदयं । किंविशिष्टं, भोगित्वाद्यन्तशान्तिप्रभुपदं भोगित्वमुत्तमभोगभूमिजत्वमादावन्ते च शान्तिप्रभोः शान्तिनाथतीर्थङ्करस्य पदं यस्य तं । कस्माद,-- अप्रदानात् विधिवदाहारवितरणात् । क, संयते संयमभाजि आदित्यगत्याख्यारिञ्जयसंज्ञचारणर्षियुगले । बीजत्वमात्रविवक्षाऽत्र । तथाविधाभ्युदयस्योत्तरपुण्यविशेषोदयसम्पाद्यत्वात् । तथा प्राप । काऽसौ, धनपतितनया वृषभसेनाभिधाना पूर्वभवे राज्ञो देवकुलस्य सम्मार्जिका । कां प्राप, सवौषधदि सर्वेषां ज्वरातिसारादिव्याधीनामौषधं चिकित्सितं तस्य ऋद्धिरव्याहतसिद्विस्तां । कस्मात्, रुग्निषेधात् व्याधिप्रतीकारादौषधादेः दोषनिषेधात् । क्व, संयते तपोधने । तथा प्राप। कोऽसौ, शूकरो वराहः । कं, स्वर्ग । किंविशिष्टम् , अय्यं सौधर्मे महर्द्धिकदेवत्त्वमित्यर्थः । कस्मात्, प्रागित्यादि-प्राक्च पूर्व तच्च तात्कालिकं च प्राक्ते, प्राक्ते च ते जन्मनी च प्राक्तजन्मनी तयोः ऋषेर्वासावने निवासरक्षणे तयोः शुभकारणः शुभाभिसन्धिपरिणामस्तस्मात् । पूर्वभवे मुनेरावासदानाभिप्रायेण तद्भवे च रक्षणाभिप्रायेणेत्यर्थः । तथा कोण्डेशोऽपि गोविन्दाख्यगोपालचरो ग्रामकूटपुत्रः सन् कौण्डेशो नाम मुनिश्च प्राप। कम्, आगमाम्भोधिपारं द्वादशाङ्गश्रुतसारपर्यन्तं । केन पुस्तकस्य अर्चायाः पूजायाः वितरणस्य च दानस्य विधिना करणेन ॥ ७० ॥ जिनधर्मानुबन्धार्थमसतां मुनीनामुत्पादने सतां च गुणातिशयसम्पादने प्रयत्नविधानार्थमाह-- जिनधर्म जगद्वन्धु-मनुबध्दुमपत्यवत् । यतीजनयितुं यस्येत्तथोत्कर्षयितुं गुणैः ॥ ७१ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते टीका--यस्येत् प्रयतेत । सद्गृही। किं कर्तु,जनयितुम् अपूर्वानुत्पादयितुं । कान् साधून् । किंवत्, अपत्यवत् पुत्रान्यथा । किं कर्तुम् , अनुबध्दुं सन्तत्या प्रवर्तयितुं । कं, जिनधर्म । किंविशिष्टं, जगद्वन्धुं लोकानामुपकारकं । तथा यस्येत् । किं कर्तुम्. उत्कर्षयितुम् उत्कृष्टान् कर्तुं । कान्, वर्तमानान् यतीन् । कै,-र्गुणैः श्रुतज्ञानादिभिः । जिनधर्ममित्यादि पूर्ववदत्रापि योज्यम् ॥ ७१ ॥ सम्प्रति पुरुषाणां दुष्कर्मगुणत्वाद्गुणातिशयांसिद्धेदर्शनात्तदुत्पादने निष्फलः प्रयत्न इति गृहिणां मनोभङ्गनिषेधार्थमाह-- श्रेयो यत्नवतोऽस्त्येव कालिदोषाद्गुणातौ ।। असिद्धावपि तत्सिद्धी स्वपरानुग्रहो महान् ॥ ७२ ॥ टीका---अस्त्येव नियमेन भवति । किं तत्, श्रेयः पुण्यं । कस्य, यत्नवतः प्रयतमानस्य गृहस्थस्य । कस्मिन्विषये, गुणातौ गुणातिशयशालिनां विषये । कस्यां सत्याम् . असिद्धावपि आवृत्त्या गुणातावनिप्पत्तावपि । कस्मात, कलेः पञ्चमकालस्य पापकर्मणो वा दोषादपराधात् प्रातिलोम्यादित्यर्थः।तत्सिद्धौ महालाभमाह । भवति । कोऽसौ, स्वपरानुग्रहः स्वस्य वैय्यावृत्यकरस्य परस्य च साधर्मिकस्य सामान्यजनस्य च अनुग्रह उपकारः । किंविशिष्टो, महान् विपुलः । कस्यां सत्यां, तत्सिद्धौ तेषां गुणद्युतां निष्पत्तौ । कस्मात्, कलिदोपाहुष्कर्मप्रतिघातात् दैवदुर्योगादित्यर्थः ॥ ७२ ॥ महाव्रतमणुव्रतं वा बिभ्रत्यः स्त्रियोऽपि धर्मपात्रतयाऽनुग्राह्या इति समर्थयितुमाह-- आर्यिकाः श्राविकाश्चापि सत्कुर्याद्गणभूषणाः । चतुर्विधेऽपि सधे यत्फलत्युप्तमनल्पशः ।। ७३ ।। टीका--सत्कुर्याद्यथोक्तविनयप्रतिपत्त्यादिना आवर्जयेत् सद्गही । काः, आर्यिका उपचरितमहाव्रतधराः स्त्रीः, न केवलं ता: श्राविकाश्च यथाशक्तिमूलोत्तरगुणभृतः तदुपासिकाश्च । अपिशब्दान्न केवलं तिन्योऽवतिनीरपि सन्मानयदित्यर्थः । किंविशिष्टाः, गुणभूषणाः गुणाः श्रुततपःशीलादयो भूषणान्यलङ्करणानि यासां ताः। यद्यस्मात् । फलति इष्टं सम्पादयति । किं तत्, उसं Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । विधिवत्प्रयुक्तं भक्तवसत्यादि । क्व, सचे गुणसङ्घाते प्राणिगणे । किंविशिष्टे, चतुर्विधे यत्यार्यिकाश्रावकश्राविकाप्रकारे । न केवलमर्हच्चैत्यचैत्यालयश्रुतेषु विधिवत्प्रयुक्तमात्मीयं धनमल्पशः प्रभूतं भूत्वा फलति, किं तर्हि, सधेऽपीत्य. पिशब्दार्थः । एतेन सप्त गृहिणो धनव्ययस्थानानीत्युपदिष्टं वेदितव्यम् ॥ ७३। ___ एवं धर्मपात्रानुग्रहं गृहस्थस्यावश्यकार्यतयोपदिश्य सम्प्रति कार्यपात्रानु. ग्रहविध्युपदेशार्थमाह-- धर्मार्थकामसधीचो यथौचित्यमुपाचरन् । सुधीस्त्रिवर्गसम्पत्त्या प्रेत्य चेह च मोदते ॥ ७४ ॥ टीका--मोदते प्रल्हादते । कोऽसौ, सुधीः सद्बुद्धिः। कया, त्रिवर्गसम्पत्त्या धर्मार्थकामसम्पदा । क. प्रेत्य जन्मान्तरे। इहास्मिञ्जन्मनि । द्वौ च शब्दौ जन्मद्वयेऽपि तुल्यकक्षतां सूचयतः । किं कुर्व.-नुपाचरन् उपकुर्वन् ऋणीकमन्यान् कुर्वन् । कान्, धर्मार्थकामसध्रीचः त्रिवर्गसहकारिणः पुरुषान् । कथं, यथोचित्यं यद्यद्यस्य यस्य योग्यं दानमानादिकं तत्तत्तस्य तस्य कुर्वनि. त्यर्थः ॥ ७४ ॥ एवं समदत्तिं पात्रदात्तं च प्रबन्धेनाभिधायदानी दयादत्तिं विधेयतमत्वे नोपदिशन्नाह-- सर्वेषां देहिनां दुःखाद्विभ्यतामभयप्रदः । दयार्दो दातृधौरेयो निः सौरूप्यमश्नुते ॥ ७ ॥ टीका--अनुते प्राप्नोति । कोऽसौ, अभयप्रदः प्राणादिभयापसारकः । १ तेनाधीतं श्रुतं सर्व तेन तप्तं परं तपः। तेन कुत्स्नं कृतं दानं यः स्यादभयदानवान् । धर्मार्थकाममोक्षाणां जीवितं मूलमिष्यते । तद्रक्षता न किं दत्तं हरता तन्न किं हृतम् ॥ दानमन्यद्भवेन्मा वा नरश्चेदभयप्रदः । सर्वेषामेव दानानां यतस्तदानमुत्तमम् ॥ यो भूतेष्वभयं दद्यात् भूतेभ्यस्तस्य नो भयम् । यादृग्वितीर्यते दानं तागाध्यास्यते फलम् ॥ सौरूप्यमभयादाहुराहाराद्भोगवान्भवेत् । आरोग्यमौषधाज्ञेयं श्रुतात्स्यात् श्रुतकेवली ॥ (शेषत्स्वग्रपृष्ठे ।) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते केषां देहिनां प्राणिनां । किं कुर्वतां, बिभ्यतां त्रस्यतां । कस्मात्, दुःखात् देहमनस्तापात् । कियतां सर्वेषां । किम्, अनुते, सौरूप्यं रूपातिशयं । उपल क्षणात्स्थैर्य गाम्भीर्य तेजस्वित्वमादेयत्वं सौभाग्यं सौम्यत्वं त्यागित्वं भोगित्वं यशस्वित्वं निरामयत्वं चिरजीवित्वमित्यादिलोक्तोत्तरगुणग्राम। किंविशिष्टःसन् , निर्भीः सर्वतो भयरहितः । किंविशिष्टोऽसौ, दयार्द्रः करुणामृदुहृदयः । पुनः किंविशिष्टो, दातृधौरेयः अन्नादिदातणामग्रणीः । धर्मार्थकाममोक्षाणां जीवितमूलत्वाजीवितप्रदः किमभिमतं न ददातीति भावः ॥ ७५ ॥ अथ कर्मधर्म्यमित्यादि प्राक् सूत्रितं प्रपञ्चयन् श्रितभरणकृपादानपुरस्सरं दिवाभोजनमुपदिशन्नीरादीनां रात्रावप्यप्रत्याख्येयतामाख्याति-- भृत्वाऽऽश्रितानवृत्त्याऽऽर्तान्कृपायाऽनाश्रितानपि।। भुञ्जीतान्ह्यम्बुभैषज्य-ताम्बूलैलादि निश्यपि ॥ ७६ ।। टीका--भुञ्जीत ओदनादिकमुपयुञ्जीत गृही । क्व, अन्हि दिने । किं कृत्वा, भृत्वा पोषयित्वा । कान्, आश्रितान् अनन्यस्वामिकान् मानुषान् तिरश्चश्च । किंविशिष्टान् , अवृत्त्या जीवनाभावेनार्ता अनवस्थितचित्तास्तान् , न केवलमाश्रिताननाश्रितानपि भृत्वा । कया, कृपया करुणया, न केवलं तथा कृत्वा दिवा भक्तादिकं भुञ्जीत । निश्यपि रात्राववि भुञ्जीत । किं तत्, अम्ब्वादि अम्बु जलं, भैषज्यमौषधं ताम्बूलं क्रमुकं, एला प्रसिद्धा । आदिशब्देन जातीफलकर्पूरादिमुखवासनप्रायद्रव्यपरिग्रहः ॥ ७६ ॥ मनोभूरिव कान्ताङ्गः सुवर्णाद्रिरिव स्थिरः। सरस्वानिव गम्भीरो विवस्वानिव भासुरः ॥ आदेयः सुभगः सौम्यस्त्यागी भोगी यशोनिधिः । भवत्यभयदानेन चिरजीवी निरामयः॥ १ ताम्बूलमौषधं तोयं मुक्त्वाऽऽहारादिकां क्रियाम् । प्रत्याख्यानं प्रदीयेत यावत्प्रातर्दिनं भवेत् ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः। NR... सेव्यानामप्यर्थानां सेवायामसम्भवत्त्यां कालपरिस्थित्या प्रत्याख्येयता मुपदिश्य तत्प्रत्याख्यानं फलवत्तया समर्थयते यावन्न सेव्या विषयास्तावत्तानाप्रवृत्तितः। व्रतयेत्सवतो दैवान्मृतोऽमुत्र सुखायते ॥ ७७ ॥ टीका--आप्रवृत्तितो व्रतयेत् आप्रवृत्तेर्निवृत्तिर्मेऽस्य ताम्बूलादेरिति नियमयेद्गही । कान् , तान् ताम्बूलकामिन्यादिविषयान् । कथं, तावत् तावन्तं कालं यावनिक, यावन्तं कालं । न सेव्या न सेवितुं सम्भाव्या: । के ते, विषयाः । एवं कृते किं फलं स्यादित्याह-सुखायते सुखमनुभवति । कोऽसौ, स तथा कृतनियमः । क्व, अमुत्र परलोके। किंविशिष्टो, मृतः । कस्मात् , दैवात् कर्मवशात् । किंविशिष्टः सन्, सव्रतस्तथावतभावितः॥७७॥ तपश्चर्य च शक्तित इत्युक्तं तद्विशेषविधिमभिधत्ते---- पञ्चम्यादिविधिं कृत्वा शिवान्ताभ्युदयप्रदम् । उद्योतयेद्यथासम्पनिमित्त प्रोत्सहेन्मनः ॥ ७८॥ टीकाः---उद्योतयेत् उद्यापयेत् । कं, पञ्चम्यादिविधि पञ्चम्यां पुष्पाञ्जलिमुक्तावलिरत्नत्रयादिविधानं । किंविशिष्टं, शिवान्ताभ्युदयप्रदं निःश्रेयसावसानशक्रचक्रधरादिपदसम्पादकं । किं, कृत्वा यथाम्नायं परिसमाप्य । कथम् उद्योतयेत्, यथासम्पद्यथाविभवं । ननु नित्यानुष्ठाने सत्यपि किमिदमनुष्ठीयते इत्याह-प्रोत्सहेत् नित्यानुष्ठानापेक्षया प्रकर्षणोत्साहं गच्छेत् मनश्चित्तं ! क्व, निमित्ते नैमित्तिकानुष्टाने ॥ ७८ ॥ अथ व्रतग्रहणरक्षणच्छेदोपस्थापनविधीनुपदिशति समीक्ष्य व्रतमादेयमात्तं पाल्यं प्रयत्नतः । छिन्नं दीप्रमादादा प्रत्यवस्थाप्यमञ्जसा ॥ ७९ ॥ टीका--आदेयं ग्राह्यं श्रेयोऽर्थिना । किं तत्, व्रतं । किं कृत्वा, समीक्ष्य आत्मानं देशकालस्थानसहायादींश्च सम्यगालोच्य । तथा पाल्यं रक्षणीय व्रतं । किंविशिष्टम्, आत्तं तथा गृहीतं । कस्मात्, प्रयत्नतः प्रकृष्टयतनया । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ सागारधर्मामृते . . . . . . . . . तथा प्रत्यवस्थाप्यं प्रायश्चित्तविधिना पुनरनुसन्धेयं व्रतं । कथम् , अञ्जसा सद्य एव । किंविशिष्टं तत्, छिन्नम् अतिचरितं । कस्मात्, दर्पात् मदावेशात् प्रमादाद्वाऽनवधानात् ॥ ७९ ॥ किं व्रतमित्याह-- सङ्कल्पपूर्वकः सेव्ये नियमोऽशुभकर्मणः । निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि ॥ ८० ॥ टीका--स्याद्भवेत् । किं तत्, व्रतं । किं, नियमः प्रत्याख्यानं । क्व, सेव्ये स्वदारताम्बूलादौ । किंविशिष्टः, संकल्पपूर्वकः, इदमियदेतावन्तं कालं न सेविष्येऽहमिति मनसाऽध्यवसायं कृत्वा इत्यर्थः । अथवा अहमिदमियदेतावन्तं कालं सेविष्याम्यवेति सङ्कल्पेन नियमः प्रतिज्ञा व्रतं स्यात् । अथवा व्रतं स्यात् । किं, निवृत्तिः विरतिः । कस्मात्,अशुभकर्मणो हिंसादेः । किंवि. शिष्टा, सङ्कल्पपूर्विकेति लिङ्गपरिणामेन सम्बन्धः । अथवा व्रतं स्यात् । किं, प्रवृत्तिराचरणं । क्व, शुभकर्मणि पात्रदानादौ । सङ्कल्पपूर्विकेत्यत्रापि योज्यम् ॥ ८० ॥ विशिष्टागमप्रत्ययावष्टम्भात्प्राणिरक्षाविधिमनुशास्ति--- न हिंस्यात्सर्वभूतानीत्यारे धर्म प्रमाणयन् । सागसोऽपि सदा रक्षेच्छक्त्या किं नु निरागसः ॥८१॥ टीका--रक्षेत् पालयेत् । कोऽसौ, धर्मी धार्मिकः । कान् , सागसोऽपि सापराधानपि जीवान् । कया, शक्त्या यथाशक्ति । किं निमित्तं, धर्मे धर्मनिमित्तं । क्व, सदा सर्वस्मिन् काले । किं नु निरागसो निरपराधान् विशेषतो रक्षेदित्यर्थः । किं कुर्वन् , प्रमाणयन् अविसंवादयन् इदमेवमित्थमेवेति प्रतिपद्यमानः । किं तत्, आर्ष ऋषिभिः प्रोक्तं शास्त्रं । किंरूपमित्याह-इति एवं रूपं । न हिंस्यात् न हन्यात् । कोऽसौ, श्रेयोऽर्थी । कानि, सर्वभूतानि सर्वान् त्रसस्थावरजीवान् ॥ ८१ ॥ साङ्कल्पिकहिंसापरित्यागमुपदिश्यार्थान्तरन्यासेन समर्थयते आरम्भेऽपि सदा हिंसां सुधीः साङ्कल्पिकी त्यजेत् । नतोऽपि कर्षकादुच्चःपापोऽनन्नपि धीवरः ।।८२॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः। टीका--त्यजेत् परिहरेत् । कोऽसौ, सुधी: शास्त्रबलेन हिंसायाः फलमेतदिति निश्चितमतिः । कां, हिंसां प्राणातिपातं । किंविशिष्टां, साङ्कल्पिकी अमुं जन्तुमासाद्यार्थित्वेन हन्मीति सङ्कल्पपूर्विकां । आरम्भजा तु हिंसाऽशक्यप्रत्याख्यानेति तत्र यतनामेव कुर्यादिति भावः । क्व सति, आरम्भेऽपि कृप्यादिकर्मण्यपि प्रवर्तमानः । कथं, सदा नित्यं । हि यस्मात् भवति । कोऽसौ, "धीवरो मात्स्यिकः । किंविशिष्टः, उच्चः पापः उत्कृष्टपातकी। किं कुर्वन्नपि, बहून्मत्स्यान् हनिप्यामोत्यभिध्यानेन प्रवृत्तोऽमारयन्नपि । कस्मात्, कर्षकात् कर्षणप्रवृत्तात् । किं कुर्वतो, नतोऽपि देवब्राह्मणकुटुम्बाद्यर्थ धान्यमुत्पादयिप्यामीति अभिध्यानविशेषेण प्रवृत्तादहूनपि मारयतः ॥ ८२ ॥ परैर्विधेयतया व्यवस्थाप्यमानं हिंस्रादिप्राणिनां बधं प्रतिविधातुमाहहिंस्रदुःखिसुखिप्राणि-घातं कुर्यान्न जातुचित् । अतिप्रसङ्गश्वभ्रार्ति-सुखोच्छेदसमीक्षणात् ।। ८३ ॥ टीका-न कुर्यात् श्रेयोऽर्थी । कं, हिंस्रदुःखिसुखिप्राणिघातं । कथं, जातुचित् कदाचिदपि । कुतः, अतीत्यादि-हिंस्रा व्याघ्रादयः । अत्र केचिदाहुः, हिंस्रजीवा हन्तव्याः । हिंसे ह्येकस्मिन्हते भूयसां रक्षा कृता भवति । ततश्च 'धर्माधिगमः पापोपरमश्च स्यात् । तदयुक्तमतिप्रसङ्गात् । सर्वेषां प्राणिनां हिंस्रतया हन्तव्यतानुषङ्गात् । तथा च लाभमिच्छतां तथावादिनां मूलोच्छेदः स्यात् । न च बहुरक्षणाभिप्रायेणापि हिंस्रं हिंसतो धर्मः पापोच्छेदो वा युज्येत । दयामूलत्वात्तयोः । यच्च संसारमोचकः प्रचक्षते दुःखिनो जीवा हन्तब्यास्तेषां विनाशे दुःखविनाशसम्भवादिति; तदप्ययुक्तं । तेषां स्वल्पदुःखानां निहतानां नरकेऽनन्तदुःखे संयोजनाया दुर्निवारत्वात् । अन्ये त्वाहुः-सुखिनो हन्तव्याः यतः संसारे सुखं दुर्लभं । सुखिनश्च हताः सुखिन एव भवन्तीति तदप्यसङ्गतं। सुखिनां हन्यमानानां दुःखावेशेन सुखोच्छेदस्यावश्यम्भावात् । दुःखमृत्युना च दुर्थ्यानानुसन्धानाहुरन्तदुर्गातदुःखावनिर्वर्तनात् । तदलमतिप्रसङ्गेन । स्वगता परगता वा यथाकथञ्चित्क्रियमाणा हिंसा न धर्माय स्यात् । किं तर्हि, पातकसम्भवायैवेति प्रतिपद्यमानैर्यथाशक्ति तत्परित्यागे धर्मार्थिभिः सन्ततं यतितव्यमिति आप्तसूक्तोपनिषत् ॥ ८३ ॥ अथ पाक्षिकस्य दृग्विशुद्धयर्थी लोकानुवृत्त्यर्थाश्च क्रियाः कृत्यतयोपदिशति Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते स्थूललक्षः क्रियास्तीर्थ-यात्राया दृग्विशुद्धये । कुर्यात्तथेष्टभोज्याद्याः प्रीत्या लोकानुवृत्तये ॥ ८४ ॥ टीका---कुर्यात् । कोऽसौ, स्थूललक्षः स्थूलं व्यवहारं लक्षयत्यालोचयतीति स्थूललक्षो व्यवहारप्रधानो बहुप्रदश्च गृही। काः, क्रियाः। किंविशिष्टाः, तीर्थयात्राद्याः तीर्थान्यूर्जयन्तादीनि पुण्यपुरुषाध्युषितस्थानानि तेषु यात्रा गमनं, आद्यशब्देन रथयात्राक्षपकयात्रानिषिद्धिकागमनादयः, तीर्थयात्रा आद्या यासु ताः । किमर्थ, दृग्विशुद्धये सम्यक्त्वनिर्मलीकरणा) । तथा स्थूललक्षः क्रियाः कुर्यात् । किंविशिष्टाः, इष्टभोज्याद्याः इष्टाः सधर्माणः स्वजना मित्रादयो भोज्यन्ते स्वगृहे भोजनं कार्यन्ते यस्यां सा इष्टभोज्या क्रिया, सा आद्या आसु अतिथिपूजनभूतबल्यादिक्रियासु ताः । कया, प्रीत्या हषेण नोद्वेगेन । किमर्थं, लोकानुवृत्तये लोकचिन्तावर्जनार्थम् ॥ ८४ ॥ श्रेयोऽर्थिनः कीर्तेरप्यर्जनीयत्वमाह-- अकीया तप्यते चेतश्चेतस्तापोऽशुभास्रवः । तत्तत्प्रसादाय सदा श्रेयसे कीर्तिमर्जयेत् ।।८५॥ टीका--तप्यते संक्लिश्यते । किं तत्, चेतश्चित्तं । कया, अकीर्त्या अयशसा । भवति च । कोऽसौ, चेतस्तापो मनःकालुष्यं । किंविशिष्टो,ऽशुभास्त्रवः पापहेतुः । यत एवं तत्तस्मात्कारणात् । अर्जयेत् उपार्जयेत् । गृही। कां, कीर्ति । कथं, सदा । कस्मै, तत्प्रसादाय चेतःप्रसत्त्यर्थम् । कस्मै तत्प्रसादः, श्रेयसे । अथवा श्रेयसे। पुण्यकारणाय तत्प्रसादायेति व्याख्येयम्॥८५॥ कीर्युपार्जनोपायमाह-- परासाधारणान्गुण्य-प्रगण्यानघमर्षणान् । गुणान् विस्तारयेन्नित्यं कीर्तिविस्तारणोद्यतः।। ८६ ॥ टीकाः-विस्तारयद्विपुलीकुर्यात् । कोऽसो, कीर्तिविस्तारणोद्यतो यशःप्रसारणतत्परः । कान्, गुणान् दानसत्यशौचशीलादीन् । किंविशिष्टान्, परासाधारणान अनन्यसदृशान् । पुनः किंविशिष्टान्, गुण्यप्रगण्यान् गुणवद्भिः प्रकर्षण माननीयान् । पुनरपि किंविशिष्टान्, अघमर्षणान् पापविध्वांसनः ॥ ८६॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोध्यायः । एवंविधाचारपरस्य श्रावकस्योत्तरोत्तरभूमिकाश्रयणेन सकलविरतिपदाधिरोहणविधिमुपदिशति सैषः प्राथमकल्पिको जिनवचोऽभ्यासामृतेनासकृनिर्वेदद्रुममावपन् शमरसोदारोंडुरं बिभ्रति । पाकं कालिकमुत्तरोत्तरमहान्त्येतस्य चर्याफला न्यास्वाद्योधतशक्तिरुद्धचरितमासादमारोहतु ॥ ८७॥ टीका-आरोहतु चटतु। कोऽसौ, सैषः स एवेत्यर्थः । पादपूरणेऽत्र सेर्लोपः। कोऽसौ, प्राथमकल्पिकः प्रारब्धदेशसंयमः । कमारोहतु, उद्धचरितप्रासाद सल्लेखनान्तयतिधर्मसौधं । किंविशिष्टः सन्, उद्यतशक्तिरुद्भूतसामर्थ्यः । किं कृत्वा, आस्वाद्यानुभूय । कानि, चर्याफलानि दर्शनिकादिप्रतिमाफलानि । कस्य, एतस्य निर्वेदद्रुमस्य । किंविशिष्टानि, उत्तरोत्तरमहान्ति यथोत्तरं पृथूनि । किं कुर्वन्ति, बिभ्रति धारयन्ति । किं, पाकमात्मीयपरिणतिं परिपाकं च । किंविशिष्टं, कालिकं कालकृतं । पुनः किंविशिष्टं, शमरसोगारोऽदुरं शमः प्रशमसुखं स एव रसो रसनेन्द्रियग्राह्यो गुणस्तस्योद्गारोऽभिव्यक्तिस्तेनोध्दुरमुत्करं स एव वा उद्धरौ यत्र । किं कुर्वन्, आवपन् सिञ्चन् पोषयन् । कं, निर्वेदमं संसारशरीरभोगवैराग्यवृक्षं । केन, जिनवचोऽभ्यासामृतेन जिनागमभावनापीयूषेण । कथम्, असकृदभीक्ष्णमिति भद्गम् ॥ ८७ ॥ इत्याशाधरविरचितायां स्वोपज्ञधर्मामृतसामारधर्म दीपिकायां भव्यकुमुदचन्द्रिकासज्ञायामादित एकादशः प्रक्रमाच्च द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ॥२॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • तृतीयोऽध्यायः । नैष्ठिकलक्षणमाह- देशयमन्नकषायक्षयोपशमतारतम्यवशतः स्यात् । दर्शनिकाद्येकादशदशावशो नैष्ठिकः सुलेश्यतरः ॥ १ ॥ टीका- स्याद्भवेत् । कोऽसौ नैष्ठिकः श्रावकः । किंविशिष्टो, दर्शनिकाद्येकादश दशावशः, दर्शनं निर्मलमद्यादिविरत्या हितातिशयं सम्यक्त्वमस्यास्तीति अतिशायने ठावत' इति ठः । एवं व्रतिकादित्रयो व्युत्पाद्याः । दर्शनिक आदिर्यासां व्रतिकादीनां ता दर्शनिकादय एकादशदशाः श्रावकसंयमस्था. नानि, तासां वशः पारतंत्र्यं यस्य स घटमानदेश संयम इत्यर्थः । कस्मात्, देशेत्यादि - देशयमघ्ना अप्रत्याख्यानावरणाख्याः कषायाः क्रोधादयस्तेषां क्षयेनोदयाभावेन प्रत्याख्यानावरणकषायोदय विशिष्टेन युक्त उपशमः सदवस्था तत्क्षयोपशमस्तस्य तारतम्यं यथोत्तरमुत्कर्षस्तद्वशतस्तत्पारतन्त्र्यात् । पुनः किंविशिष्टः स्यात्, सुलेश्यतरः । लिंपति स्वीकरोति पुण्यपापे स्वयं जीवो यया सा लेश्या, अथवा लिशत्यल्पी करोत्यात्मानमिति लेश्या कषायोदय , १ लिम्पत्यात्मीकरोत्यात्मा पुण्यपापे यया स्वयम् । सा लेश्येत्युच्यते सद्भिर्द्विविधा द्रव्यभावतः ॥ प्रवृत्तियौगिकी लेश्या कषायोदयरञ्जिता । भावतो द्रव्यतो देहच्छवि षोढोभयी मता ॥ कृष्णा नीलाऽथ कापोती पीता पद्मा सिता स्मृता । लेश्या षड्भिः सदा ताभिगृह्यते कर्म जन्मिभिः || योगाविर तिमिथ्यात्व कषायजनितोऽगिनाम् । संस्कारो भावलेश्याऽस्ति कल्माषात्रवकारणम् ॥ कापोती कथिता तीव्रो नीला तीव्रतरो जिनैः । कृष्णा तीव्रतमो लेश्या परिणामः शरीरिणाम् ॥ पीता निवेदिता मन्दः पद्मा मन्दतरो बुधैः । शुक्ला मन्दतमस्तासां वृद्धिः षट्स्थानयायिनी ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोध्यायः। रञ्जिता योगप्रवृत्ति: सैषा भावतः, द्रव्यतस्तु शरीरच्छविलेश्या । सा च द्वितय्यपि कृष्णादिभेदेन षोढा, कृष्णा नीला कापोती पीता पद्मा शुक्ला निर्मूलस्कन्धयोश्छेत्तुं भावाः शाखोपशाखयोः । उच्चये पतितादाने भावलेश्या फलार्थिनाम् ॥ षट्पट् चतुर्पु विज्ञेयास्तिस्रास्तिस्रः शुभास्त्रिषु । शुक्ला गुणेषु षट्स्वेका लेश्या निर्लेश्यमन्तिमम् ॥ रागद्वेषग्रहाविष्टो दुर्ग्रहो दुष्टमानसः । क्रोधमानादिभिस्तीत्रैर्ग्रस्तोऽनन्तानुबन्धिभिः ॥ निर्दयो निरनुक्रोशो मद्यमांसादिलम्पटः । सर्वदा कदनासक्तः कृष्णलेश्यान्वितो जनः॥ कोपी मानी मायी लोभी । रागी द्वेषी मोही शोकी । हिंस्रः करश्चण्डश्चौरो । मूर्खः स्तब्धः स्पर्धाकारी ।। निद्रालुः कामुको मन्दः कृत्याकृत्याविचारकः । महामूर्ची महारम्भो नीललेश्यो निगद्यते ॥ शोकभीमत्सरासूयावरनिन्दापरायणः। प्रशंसति सदाऽऽत्मानं स्तूयमानः प्रहृष्यति ॥ वृद्धिहानी न जानाति न मूढः स्वपरान्तरम् । अहङ्कार ग्रहग्रस्तः समस्तां कुरुते क्रियाम् ॥ श्लाधितो नितरां दत्ते रणे मर्तुमपीहते । परकीययशोध्वंसी युक्तः कापोतलेश्यया ॥ समदृष्टिरविद्वेषो हिताहितविवेचकः। वदान्यः सदयो दक्षः पीतलेश्यो महामनाः ॥ शुचिदीनरतो भद्रो विनीतात्मा प्रियंवदः। साधुपूजोद्यतः साधुः पद्मलेश्यो नयक्रियः ॥ निर्णिदानोऽनहंकारः पक्षपातोज्झितोऽशठः । रागद्वेषपराचीनः शुक्ललेश्यः स्थिराशयः ॥ तेजः पद्मा तथा शुक्ला लेश्यास्तिस्रः प्रशस्तिकाः। संवेगमुत्तमं प्राप्तः क्रमेण प्रतिपद्यते ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ सागारधर्मामृतेचेति । प्रशस्ता लेश्या यस्यासौ सुलेश्यः प्रकृष्टः पाक्षिकापेक्षया सुलेश्यः । सुलेश्यतरः अथवा सर्वेऽपि यथोत्तरं विशुद्धतरलेश्याः स्युः ॥ १॥ दर्शनिकादीनुद्दिशंस्तेषां गृहित्वब्रह्मचारित्वभिक्षुकत्वानि जघन्यमध्यमात्तेमत्वाच्च विभक्तुमार्याद्वयमाहदर्शनिकोऽथ बतिकः सामयिकी प्रोषधोपवासी च । सचित्तदिवामैथुन-विरतो गृहिणोऽणुयमिषु हीनाः षट्।।२।। अब्रह्मारम्भपरि-ग्रहविरता वर्णिनस्त्रयो मध्या। अनुमतिविरतोद्दिष्टवि-रतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टौ च।।३।। युग्मं । टीका-अथशब्दोऽत्रानन्तर्यार्थः प्रत्येकं योज्यः । भवान्त । के, श्रावकाः। कति, षट् । किंविशिष्टा भवन्ति, हीना जघन्याः । केषु मध्ये, अणुयमिषु । श्रावकेषु न केवलं हीनाः गृहिणश्च । कः कः, दर्शनिकोऽथानन्तरं व्रतिकस्ततः सामयिकी तदनु प्रोषधोपवासी तदनन्तरं सचित्तविरतोऽपि दिवामैथुनविरतश्च । भवन्ति । के ते, त्रयः । किंविशिष्टा, मध्याः अणुयमिषु मध्ये मध्यमाः । पुनःकिंविशिष्टा, वर्णिनो ब्रह्मचारिणः । कति, त्रयः । किमाख्या, अब्रह्मारम्भपरिग्रहविरता अब्रम्हविरतः, आरम्भविरतः परिग्रहविरतश्च । तदनन्तरं भवतः । को, उभौ। किंविशिष्टौ, प्रकृष्टौ अणुयमिषु मध्ये उत्कृष्टौ । पुनः किंविशिष्टौ, भिक्षुकौ । अल्पा भिक्षा यत्यपेक्षया ययोस्तौ । किमाख्यौ, अनुमतिविरतोद्दिष्टविरतौ ॥ २॥३॥ नैष्ठिकोऽपि यादृशः सन् पाक्षिकव्यपदेशमेव लभते तादृशं दर्शयति दुर्लेश्याभिभवाजातु विषये कचिदुत्सुकः । स्खलन्नपि कापि गुणे पाक्षिकः स्यान नैष्ठिकः॥४॥ १ षडत्र गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युर्ब्रम्हचारिणः । भिक्षुको द्वौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो यतिः ॥ आद्यास्तु षड् जघन्याः स्युमध्यमास्तदनु त्रयः । शेषौ द्वावुत्तमावुक्तौ जनेषु जिनशासने ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोध्यायः । टीका--स्याद्भवेत् गृही। किंविशिष्टः, पाक्षिको न नैष्ठिकः । किंविशिष्टः सन्, उत्सुकः सोत्कण्ठाभिलाषः । क्व, विषये इन्द्रियार्थे । किंविशिष्टे, क्वचित् कामिन्यादीनामन्यतमे न सर्वत्र । कदा, जातु कदाचिन्न सर्वदा । कस्मात् , दुर्लेश्याभिभवात् दुर्लेश्यया कृष्णनीलकापोतीनामन्यतमया अभिभवः कुतश्चिन्निमित्ताच्चेतनशक्तेस्ताहसंस्कारोद्बोधस्तस्माद्धेतोः तं वाऽऽश्रित्य । न केवलं तथा भवन् । स्खलन्नपि अतिचारं गच्छंश्च अनभ्यस्तपूर्वत्वात्संयमस्य दुर्धरत्वाद्वा मनसः । क्व, गुणे । किंविशिष्टे, क्वापि मद्यविरत्यादीनामन्यतमे न सर्वत्र ।। ४ ॥ दर्शनिकादीनामा स्वस्वानुष्ठानदााद्रव्यत एव दर्शनिकादिव्यपदेशः स्याद्भावतस्तु पूर्वपूर्वोऽसाविति बोधयन्नाह तद्वदर्शनिकादिश्च स्थैर्य स्खे स्वे व्रतेऽत्रजन् । ___लभते पूर्वमेवार्थाद्वयपदेशं न तूत्तरम् ॥ ५॥ टीका-लभते । कोऽसौ, दर्शनिकादिश्च दर्शनिकवतिकादिरपि श्रावकविकल्पः । कं, व्यपदेशं सज्ञां । किंविशिष्टं,पूर्वमेव प्राक्तनमेव । न तु न पुनः । उत्तरं परापेक्षया परं । कस्मात्, अर्थात् परमार्थतो व्यवहारादुत्तरमपि लभते । किंवत्, तद्वत् नैष्टिकमात्रवत् । किं कुर्वन्, अव्रजन् अगच्छन् । किं तत्, स्थैर्य स्थिरत्वं क्वचित्कदाचित्कथांचदचलनम् । क्व, स्वे स्वे व्रते निरतिचाराष्टमूलगुणादिलक्षणे ॥५॥ एतदेव समर्थयितुमाह प्रारब्धो घटमानो निष्पन्नश्चाहतस्य देशयमः । योग इव भवति यस्य त्रिधा स योगीव देशयमी ॥६॥ टीका-भवति । कोऽसौ, स देशयमी श्रावकः । कतिधा, त्रिधा त्रिप्रकारः। क इव, योगीव यथा प्रारब्धयोगो घटमानयोगो निष्पन्नयोगश्चेति नैगमादिनयापेक्षया विविधो योगी तथा प्रारब्धदेशसंयमो घटमानदे. शसंयमो निष्पन्नदेशसंयमश्चेति त्रिविधः श्रावकोऽपि स्यादित्यर्थः । यस्य किं, यस्याहतस्य जिनैकशरणस्य सतो भवति । कोऽसौ, देशयमो देशसंयमः । किंविशिष्टः, प्रारब्ध उपक्रान्तः, तथा घटमानः सम्पद्यमानः, तथा निप्पन्नः पर्यन्तं प्राप्तः, क इव, योग इव समाधियथा ॥ ६ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ सागारधर्मामृतेएवं स्थलशुद्धिं विधायाधुना दर्शनिकस्वरूपनिरूपणार्थ श्लोकद्वयमाह पाक्षिकाचारसंस्कार-दृढीकृतविशुद्धदृक् । भवाङ्गबोधनिर्विण्णः परमेष्टिपदैकधीः ॥७॥ निर्मूलयन्मलान्मूल-गुणेष्वग्रगुणोत्सुकः। न्याय्यां कृत्तिं तनुस्थित्यै तन्वन्दर्शनिको मतः ॥ ८॥ युग्मं । टीका-मतः एवम्भूतनयादिष्टः सूरिभिः । एतेन नैगमनलादेशात्पाक्षिकस्यापि दर्शनिकत्वमनुज्ञातं भवति । ततो न ' श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानी'त्यनेन विरोधः, पाक्षिकस्य द्रव्यतो दर्शनिकत्वात् । कोऽसौ, मतः दर्शनिक: । किंलक्षणः, पाक्षिकाचारस्य पूर्वाध्याये प्रपञ्चेनोक्तस्य संस्कार उत्कर्षस्तन दृढीकृता निश्चलत्वं नीता विशुद्धा निर्दोषा दृक् दर्शनं येन स पाक्षिकाचारसंस्कारदृढीकृतविशुद्धदक्, तथा भवाङ्गभोगनिर्विण्णः भवाङ्ग. भोगाः संसारशरीरेष्टविषयाः, अथवा भवाङ्गं संसारकारणं यो भोगो गृद्धिपूर्वकं कामिन्यादिविषयसेवनं ततो निर्विण्णो विरक्तः प्रत्याख्यानावरणाख्यचारित्रमोहकर्मविपाकवशात् कामिन्यादिविषयान् भजन्नपि तत्राकृतसेवानिबन्ध इत्यर्थः, तथा परमेष्ठिपदैकधीः परमेष्ठिपदेषु अईदादिपञ्चगुरुचरणेषु एका धीरन्तदृष्टिर्यस्य स तथोक्तः । आपदाकुलितोऽपि दर्शनिकस्तन्निवृत्त्यर्थ शासनदेवतादनि कदाचिदपि न भजते । पाक्षिकस्तु भजत्यपीत्येवमर्थमेकग्रहणम् । तथा निर्मूलयन् मूलादपिनिरस्यन् । कान्, मलान् अतिचारान् । केषु, मूलगुणेषु तथा अग्रगुणोत्सुकः अग्रगुणे व्रतिकपदे उत्सुकोऽनुष्ठातुमत्क. ण्ठितः । तथा तन्वन्ननुबध्नन् । कां, वृत्तिं कृष्यादिवोता। किंविशिष्टां,न्याय्यां १ आदावेते स्फुटमिह गुणा निर्मला धारणीयाः पापध्वंसि व्रततपमलं कुर्वता श्रावकीयम् । कर्तुं शक्यं स्थिरमुरुभरं मन्दिरं गर्तपूरं न स्थेयोभिदृढतममृते निमित्तं ग्रावजालैः ।। २ कृषि वणिज्यां गोरक्ष्यमुपायैगुणिनं नृपम् । लोकद्वयाविरुद्धां च धनार्थी संश्रयेत् क्रियाम् ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोध्यायः । स्ववर्णकुलव्रतानुरूपां । किमर्थं तनुस्थित्यै शरीरवर्तनार्थं न विषयोपसेवनार्थं एवंविधलक्षणो दर्शनिको नाम श्रावको मन्यते ॥ ७८ ॥ न , अथ मद्यादिवतद्योतनार्थं तद्विक्रयादिप्रतिषेधार्थमाहमद्यादिविक्रयादीनि नार्यः कुर्यान्न कारयेत् । न चानुमन्येत मनोवाक्कायैस्ततद्युते ॥ ९ ॥ टीका- कुर्यात् । कोऽसौ, आर्यो दर्शनिकः । कानि, मद्यादिविक्रया-दीनि मद्यादीनां मद्यमांसमधुनवनीतप्रभृतीनां विक्रयादीनि आदिशब्दात्सन्धानक संस्कारोपदेशाद्युपादानं । तथा न कारयेत् । न चानुमन्येत नाप्यनुमतिं दद्यात् । कै मनोवाक्कायैः मनसा वाचा कायेन च । किमर्थं ततद्युते मद्यविरत्याद्यष्टमूलगुणनिर्मलीकरणार्थम् ॥ ९ ॥ यच्छीलनान्मद्यदिद्व्रतक्षतिः स्यात्तदुपदेशार्थमाह-भजन्मद्यादिभाजस्त्री - स्तादृशैः सह संसृजन् । " I भुक्त्यादौ चैति साकीर्तिं मद्यादिविरतिक्षतिम् ॥ १०॥ टीका -- एति गच्छति । कोऽसौ व्रती पुमान् । कां, मद्योदिविरतिक्षतिम् अष्टमूलगुणहानिं । किंविशिष्टां, साकीर्ति वाच्यतासहितां । किं कुर्वन्, भजन् सेवमानः । काः, स्त्रीः । किंविशिष्टाः, मद्यादिभाजो मद्यमांसादिसेविनीः । न केवलं ता भजन् संसृजश्च संसर्गं कुर्वन् । कैः सह, ताशैर्मद्यादिभाग्भिः पुम्भिः । क्व, भुक्त्यादौ भोजनभाजनासनादौ ॥ १० ॥ एवं सामान्यतो मूलवता तिचारनिवृत्तिमभिधाय मयादितातिचारनिवृ-त्यर्थमाह- ७५. सन्धानकं त्यजेत्सर्व दधि तक्रं द्वयोषितम् । काञ्जिकं पुष्पितमपि मद्यत्रतमलोsन्यथा ॥ ११ ॥ टीका -- त्यजेत् । कोऽसौ दर्शनिकः । किं तत्, संधानकं । किंविशिष्ट, सर्वं । एतेन काञ्जिकवटकादेरपि हेयत्वं दर्शयति । उक्तं च- १ मयादिस्वादिगेहेषु पानमन्नं च नाचरेत् । तदामत्रादिसम्पर्क न कुर्वीत कदाचन ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते जायन्तेऽनन्तशो यत्र प्राणिनो रसकायिकाः । सन्धानानि न वल्भ्यन्ते तानि सर्वाणि भक्तिकाः ॥ तथा त्यजेत् । किं तत्, दधितकं दधि च मथितं च । किंविशिष्टं, पुष्पितं ब्यहोषितं अहोरात्रिद्वयमतिक्रान्तं। तथा त्यजेत् कांजिकं, धान्याम्लं, सपुष्पमिव जातं । अपिशब्दाद्वयहोषितं च । अन्यथा उक्तविपर्यये । भवति । कोऽसौ, मद्यवतमल: मद्यविरत्यतिचारः ॥ ११ ॥ मांसविरत्यतिचारानाह चर्मस्थमम्भः स्नेहश्च हिंग्यसंहृतचर्म च । सर्व च भोज्यं व्यापनं दोषः स्यादामिषत्रते ॥ १२ ॥ टीका-~-स्यात् भवेत् । किं तत्, चर्मस्थमम्भःप्रमुखमुपयुज्यमानं । किं स्यात्, दोषोऽतिचारः । क्व, आमिषव्रते मांसविरतौ प्रतिपन्नायां । किं किं तदित्याह-अम्भो जलं, हश्च घृतादिकं दोषः स्यात्। किंविशिष्टं,चर्मस्थं दृत्यादिस्थं जलं कुतुपादिस्थं च घृतादिकमुपयुज्यमानं । एतेन खट्टिकायादिस्थवञ्चटिकादिस्थचूतफलादीनां चर्मोपनद्धचालनीशूर्पटिकाद्युपस्कृतकणिकादीनां च त्याज्यतामुपलक्षयति । तथा हिंगु रामठं दोषः स्यात् । किंविशिष्टम्, असंहतचर्म असंहृतं स्वस्वभावेनापरिणामितं चर्म येन तत् 'असंवृतचर्मेति वा पाठः । तत्र चर्मणा छादितं चर्मणि बद्धं प्रसारितं वा रामठं न गृह्णीयादिति भावः। उपलक्षणमेतत् । तेन तथाभूतं लवणाद्यपि । तथा भोज्यं भक्तघृतादि सर्वं । किंविशिष्टं, व्यापन्नं कुथितं स्वादचलितमिनि गावत् ॥ १२ ॥ मधुव्रतातिचारनिवृत्त्यर्थमाह प्रायः पुष्पाणि नाश्नीयान्मधुव्रतविशुद्धये । बस्त्यादिष्वपि मध्वादि-प्रयोगं नाहति व्रती ॥ १३ ॥ टीका-नाश्नीयात् न भक्षयेत् मधुविरतः । कानि, पुष्पाणि । किमर्थं, मधुव्रतविशुद्धये क्षौद्रविरत्यतिचारनिवृत्त्यर्थं । कथं, प्रायः । तेन मधूकभल्लातकपुष्पाणां शक्यशोधनत्वान्नात्यंतनिषेधः । शुष्कत्वान्नागकेसरादीनामपीति लक्षयति । तथा नाहति न कर्तु योग्यो भवति । कोऽसौ, व्रती मधुमांसमधेभ्यो. तिशयेन निवृत्तः । कं, मध्वादिप्रयोगं माक्षिकमांसमद्योपयोगं । केषु, बस्त्या Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोध्यायः । दिषु बस्तिकर्मपिण्डप्रदाननेत्राञ्जनसेचनलताग्रासादिषु, किं पुनः स्वास्थ्यानुवृत्तिवाजीकरणादिविधिष्वित्यपिशद्वार्थः ॥ १३ ॥ पञ्चोदुम्बरविरत्यतिचारपरिहारार्थमाह सर्व फलमविज्ञातं वार्ताकादि त्वदारितम् तद्भल्लादिसिम्बीश्च खादेनोदुम्बरबती ॥ १४ ॥ टीका-न खादेन्न भक्षयेत् । कोऽसौ, उदुम्बरव्रती पिप्पलादिफलनिवृत्तः किं तत्, फलं सर्वं । किंविशिष्टम् , अविज्ञातमज्ञातनाम । तथा न खादेत् । किं तत्, वार्ताकादि। आदिशब्देन कर्चरबदरपूगफलादि। किंविशिष्टम् , अदारितमभिन्नं अशोधितमध्यमित्यर्थः । तथा भल्लादिसिम्बीः भल्लराजमाषप्रमुखफलिका न खादेत् । किंवत्, तद्वत् अदारिता इत्यर्थः ॥ १४ ॥ अनस्तमितभोजनातिचारमाह मुहूर्तेऽन्त्ये तथाऽऽद्येऽह्नो बल्भाग्नस्तमिताशिनः । गदच्छिदेऽप्याम्रघृता-धुपयोगश्च दुष्यति ॥ १५ ॥ टीका-दुष्यति दोषो भवति । कोऽसौ, वल्भा भोजनं । क, मुहूर्ते घटिका. द्वये । कस्य अह्नो दिनस्य । किंविशिष्टे, अन्त्ये पर्यन्तवर्तिनि । तथा आद्ये प्रथमे । कस्य, अनस्तमिताशिनः अनस्तमिते सूर्येऽभातीत्येवंव्रतस्य । तथा दुष्यति । कोऽसौ, आम्रघृताधुपयोगः चूतचारचोचमोचादिफलानां घृतक्षीरेक्षुरसादीनां च सेवनं । कस्यै, गदच्छिदे रोगनिवृत्त्यर्थं, किं पुनः स्वास्थ्यानु. वृत्त्याद्यर्थमित्यपिशब्दार्थः ॥ १५ ॥ जलगालनव्रतातिचारनिवृत्त्यर्थमाह-- मुहूर्तयुग्मोमगालनं वा दुर्वाससा गालनवम्बुनो वा । अन्यत्र वा गालितशेषितस्य न्यासो निपानेऽस्य न तव्रतेऽर्यः ॥१६॥ टीका-अर्च्य इति लिङ्गविपरिणामेन सम्बन्धः । न अर्घ्य निन्द्यमित्यर्थः । किं तत्, अगालनमश्रावणं । कस्य,अम्बुनो जलस्य । कथं, मुहूर्तयुग्मोचं घटिकाचतुष्टयादुपरि । क्व, तद्रते गालितजलपाननिष्ठायां । वाशब्दास्त्रयोऽपि पर Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते स्परसमुच्चये । तथा नायं । किं तत्, अम्बुनो गालनं । केन, दुर्वाससा अल्पसच्छिद्रजर्जरादिवस्त्रेण । तथा नार्यः। कोऽसौ,न्यासः स्थापनं । कस्य,अम्बुनः । किंविशिष्टस्य, गालितशोषितस्य वस्त्रस्रावितादुद्धरितस्य । क्व, निपाने जलाशये। किंविशिष्टे,अन्यत्र स्वाधारजलाशयादन्यास्मिन् । अथ ___“ पंचुंबरसहियाई सत्तवि वसणाइं जो विवजेइ। सम्मत्तविसुद्दमई सो दसणसावओ भणिओ ॥" इति वसुनन्दिसैद्धान्तिमते ॥ १६ ॥ दर्शनिकस्य द्यूतादिव्यसननिवृत्तिमुपदेष्टुं तेषामिहामुत्र चापायावद्यप्रायत्वमुदाहरणद्वारेण व्याहरन्नाह द्यूताद्धर्मतुजो बकस्य पिशितान्मद्याद्यदूनां विपचारोःकामुकया शिवस्य चुरया यब्रह्मदत्तस्य च । पापद्धया परदारतो दशमुखस्योचैरनुश्रुयते द्यूतादिव्यसनानि घोरदुरितान्युज्झेत्तदायस्त्रिधा ॥१७|| टीका-उज्झेत् त्यजेत् । कोऽसौ, आर्यः सद्भती गृही। कथं, त्रिधा मनोवाक्कायकृतकारितानुमतैः । कानि, द्यूतादीनि व्यसनानि । द्यूतमांसमद्यवेश्याचोर्यपापचिपरदारोपसेवनानि । किंविशिष्टानि, घोरदुरितानि घोराणि दुर्गतिदुःखकारणानि दुरितानि पापानि येभ्यस्तानि । कथं, तत्तस्मात् । यद्यस्मादनुश्रूयते वृद्धपरम्परया आकर्ण्यते । का सौ, विपत् । कथम्भूता । उच्चैः प्रकृष्टा । कस्मात, घृतात् द्यूतक्रीडनात् । कस्य, धर्मतुजो धर्मपुत्रस्य युधिष्ठिरस्य । तथोचावपंर्दनुश्रूयते । कस्य,बकस्य बकनाम्नो राज्ञः । कस्मात्,पिशितात् मांसभक्षणात्। तथाच्चैर्विपदन श्रयते । केषां, यदूनां यदोरपत्यानां यादवानां । कस्मात्, मद्यात् मद्यपानात् । तथा उचैर्विपदनुश्रूयते । कस्य, चारोः चारुदत्तनाम्नः श्रेष्टिनः । कया, कामुकया वेश्योपसेवनया। तथा उच्चैर्विपदनुश्रूयते । कया, चुरया चौरिकया। कस्य, शिवभूतिनाम्नो द्विजस्य । तथा उच्चैर्विपदनुश्रयते । कस्य, ब्रह्मदत्तनाम्नोऽन्त्यचक्रवर्तिनः । कया, पापद्धर्या आखेटकेन । तथा उच्चैविपदनुश्रूयते । कस्य, दशमुखस्य रावणस्य । कुतः, परदारतः परस्त्रीगमनाभिलाषनिर्बन्धन ॥ १७ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोध्यायः । SA व्यसनशब्दनिरुक्तिद्वारेण द्यूतादे|रदुरितश्रेयः प्रत्यावर्तनहेतुत्वं समर्थ्य तद्विरतस्य तत्समानफलत्वाद्धातुपातायुपव्यसनानामपि दूरपरिहरणीतामु - पदिशति जाग्रत्तीवकषायकर्कशमनस्कारार्पितैर्दुष्कृतैचैतन्यं तिरयत्तमस्तरदपि द्यूतादि यच्छ्यसः । पुंसो व्यस्यति तद्विदो व्यसनमित्याख्यान्त्यतस्तद्वतः कुर्वीटापि रसादिसिद्धिपरतां तत्सोदरी दूरगाम्॥१८॥ टीका-आख्यान्ति व्यपदिशन्ति । के ते, विदो विद्वांसः । किं तत्, द्यूतादिसप्तकं । किमाख्यान्ति, व्यसनं व्यसनमितिशब्देन व्यवहरन्तीत्यर्थः । कथं, तत् तस्मात् । यद्यस्मात्, व्यस्यति प्रत्यावर्तयति । किं तत्, द्यूतादि । कान्, 'पुंसः पुरुषान् । कस्मात्, श्रेयसः अकल्याणं प्रापयतीत्यर्थः । किं कुर्वत्,तिरयत् छादयत् । किं तत्, चैतन्यमन्तस्तत्त्वं । कैः, दुष्कृतैः पापैः । किंविशिष्टैः, जाग्रदित्यादि, जाग्रद्भिनित्योदितैस्तनिर्निवारैः कषायैः क्रोधादिभिः कर्कशदृढकर्मबन्धसम्पादनोद्यतो मनस्कारश्चित्तप्रणिधानं तेनार्पितैरात्मना संयोजितैः। किं कुर्वदपि, तरदपि अतिक्रामत् । किं तत, तमो मिथ्यात्वं । किं पुनर्मिध्यात्वे विवर्तमानमित्यपिशब्दार्थः । यत एवं तत एतस्मात् कारणात् कुर्वीत विदधीत । कोऽसौ, तद्वतः यतादिविरतिं प्रतिपन्नः । कां रसादिसिद्धिपरतामपि, न परं द्यूतादिपरतामित्यपिशब्दार्थः । किंविशिष्टां, दूरगां दूरवार्तनीं । किंविशिष्टां, यतस्तत्सोदरी द्यूतादिव्यसनसदृशीं, दुरन्तदुष्कृतबन्धश्रेयःप्रत्यावर्तनहेतुत्वाविशेषात् । रसादीत्यादिशब्देनाञ्जनगुटिकापादुकाविवरप्रवेशादि गृह्यते ॥ १८ ॥ द्यूतनिवृत्त्यतिचारमाह दोषो होढाद्यपि मनो-विनोदार्थ पणोज्झिनः । होमर्षोदयाङ्गत्वात् कषायो ह्यंहसेऽञ्जसा ॥ १९ ॥ टीका-भवति । किं तत्, होढादि । होढा परस्परस्पध था धावनादि आदिशब्देन छूतदर्शनादि । किं भवति, दोषोऽतिचारः । कस्य , पणोज्झिन Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते— पणं नतमुज्झतीत्येवंव्रतस्य । किमर्थ, मनोविनोदार्थमपि मनोऽपि रमयितुं प्रयुज्यमानं दोषः, किं पुनर्धनाद्यर्थं । कुतो हर्षामर्षोदयाङ्गत्वात् प्रमोदक्रोधोवहेतुत्वात् । एतदपि समर्थयितुमाह - हि यस्माद्भवति । कोऽसौ, कषायो रागद्वेषपरिणामः । कस्मै, अंहसे पापनिमित्तं । केन अञ्जसा परमार्थेन ||१९|| वेश्याव्यसनव्रता तिचारनिवृत्यर्थमाह ८० · त्यजेत्तौर्यत्रिकासक्तिं वृथाव्यां षिङ्गसङ्गतिम् । नित्यं पण्याङ्गनात्यागी तहगमनादि च ॥ २० ॥ टीका ---त्यजेत् । कोऽसौ, पण्याङ्गनात्यागी वेश्यानिवृत्तित्रतः । किं किं, तौर्यत्रिकासक्ति गीतनृत्यवाद्येषु सेवानिबन्धं । आसक्तिग्रहणांच्चत्यालयादौ धर्मार्थ गीतश्रवणं न दोष इति लक्षयति । तथा वृथाट्यां प्रयोजनं विना विचरणां त्यजेत् । तथा षिङ्गसङ्गतिं विटैः सह सागत्यं त्यजेत् । षिड्ग इति पिट् ' सिट् ' अनादरे । सेटनं सिट् अनादरः । सिटा अनादरेण गायति गच्छति वा । "अन्यतोऽपि चेति डः पृषोदरादित्वात्सस्य च पत्वं । तथा तद्द्वेहगमनादि वेश्यागृहगमनसम्भाषणसत्कारादि त्यजेत् नित्यमित्यनेन सर्वदा । अत्र व्रते यत्नं कुर्यात दुर्निवारत्वादित्युपदिशति ॥ २० ॥ चौर्य व्यसनमलोपदेशार्थमाह- ॥ दायादाज्जीवतो राज-वर्चसाद्गृह्णता धनम् । दायं वाऽपवानस्य काचौर्यव्यसनं शुचि ॥ २१ ॥ टीका--क, कस्मिन्देशे काले च । अचौर्यव्यसनं चोरिकापरिहारव्रतं । शुचि निरतिचारं भवति न क्वापीत्यर्थः । कस्य, पुंसः किं कुर्वतो, गृह्णतः । स्वीकुर्वतः । किं तत् धनं ग्रामसुवर्णादिद्रव्यं । कस्मात् दायादात् दायं कुलसाधारणं द्रव्यमादत्ते इति दायादो भ्रात्रादिस्तस्मात् । किं कुर्वतो. जीवतः । मृतस्य तु यथान्यायं स्वीकुर्वतो नास्ति दोषः । कस्माद्गृह्णतो, राज. वर्चसात् नृपतेजसः न जातिकुलदेशकालाद्यनुरोधात् । तथा अपह्नुवानस्य नात्रादिभ्यः अपलपतः । कं, दायम् ॥ २१ ॥ पापा पर्द्धिविरत्यती चारनिषेधार्थमाह 3 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोध्यायः। AAAAAAAAAAAAAN वस्त्रनाणकपुस्तादि-न्यस्तजीवच्छिदादिकम् । न कुर्यात्त्यक्तपापर्द्धि-स्तद्धि लोकेऽपि गर्हितम् ॥ २२ ॥ टीका-न कुर्यात् । कोऽसौ, त्यक्तपापर्द्धिः । किं तत्, वस्त्रेत्यादि, वस्त्राणि पञ्चरङ्गपटादीनि, नाणकानि सीतारामटङ्कादीनि, पुस्तादीनि च लेप्यचित्र. काष्ठाश्मदन्तधात्वादिशिल्पानि, वस्त्राणि च नाणकानि च पुस्तादीनि च वस्त्रनाणकपुस्तादीनि तेषु न्यस्तो नामोच्चारणपूर्वकः सोऽयमिति स्थापितो जीवः प्राणी गजतुरगादिस्तस्य छिदादिकं खण्डनावर्तनभञ्जनादि । हि यस्मात् भवति। किं तत्, वस्त्रादिन्यस्तजीवच्छिदादिकं । किंविशिष्टं, गर्हितं निन्दितं । क, लोकेऽपि व्यवहर्तृजनमध्येऽपि न परं शास्त्रे ॥ २२ ॥ परदारव्यसनदोषनिषेधार्थमाह-- कन्यादूषणगान्धर्व विवाहादि विवर्जयेत् । परस्त्रीव्यसनत्यागवतशुद्धिविधित्सया ॥ २३ ॥ टीका--विवर्जयेत् । कोऽसौ, परदारवर्जी। किं तत्, कन्येत्यादि । कन्यादूषणं कुमार्या अभिगमनं स्वविवाहनार्थ दोषोद्भावनं वा, गान्धर्वविवाहो यो मातुः पितुर्बन्धूनां चाप्रामाण्यात्परस्परानुरागेण मिथः समवायाद्वधूवराभ्यां क्रियते, आदिशब्देन हरविवाहो हरणादि । कया, परस्य स्त्री परस्त्री तत्र तदेव वा व्यसनं तस्य त्यागः स एव व्रतं तस्य शुद्धिर्निर्दोषता तत्र विधित्सा कर्तुमिच्छा तया ॥ २३ ॥ मद्यमांसव्यसननिवृत्त्योस्त्वतीचाराः प्रागेवोक्ताः । इदानीं यतो लोकद्वयविरुद्धबुद्धया आत्मना विरतिः क्रियते परस्मिन्नपि तत्प्रयोग तगतविशुद्धयर्थं न विदध्यादित्यनुशास्ति-- व्रत्यते यदिहामुत्रा-प्यपायावद्यकृत्स्वयम् । तत्परेऽपि प्रयोक्तव्यं नैव तद् व्रतशुद्धये ॥ २४ ॥ १ पंचुम्बरसहियाई सत्तइ वसणाइ जो विवज्जेइ। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावयो भणियो ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ सागारधर्मामृते टीका - त्यते संकल्पपूर्वं प्रत्याख्यायते । किं तत्, यत् वस्तु । किंविशिष्टम्, अपायावद्यकृत् अपायोऽभ्युदयनिःश्रेयसभ्रशनोपायः, अवद्यं गर्ह्य, अपायश्वावद्यं चापायावद्ये ते करोति तत् । क्क, इहास्मिञ्जन्मनि । तथाऽमुत्र परजन्मनि । केन प्रत्यते, स्वयं आत्मना । किं तत् व्रतविषयीकृतं वस्तु । नैव प्रयोक्तव्यं प्रयोज्यं । क्व, परेऽपि आत्मनीव पुरुषान्तरेऽपि । कस्यै, व्रतशुद्धये प्रकृतव्रतनिर्मलकरणार्थम् ॥ २४ ॥ एवं प्रतिपन्नदर्शनप्रतिमस्य श्रावकस्य स्वप्रतिज्ञानिर्वाहार्थमुत्तरेण प्रबन्धेन शिक्षां प्रयच्छन्नाह अनारम्भबंधं मुञ्चेच्चरेन्नारम्भमुध्दुरम् । स्वाचारप्रतिलोम्येन लोकाचारं प्रमाणयेत् ॥ २५ ॥ टीका – मुञ्चेत् त्यजेत् । दर्शनिकः । कम्, अनारम्भबधं तपः संयमादिसाधनतनुस्थित्यर्थायाः कृष्यादिक्रियाया अन्यत्र प्राणिहिंसां । एतेन यदुक्तं स्वामिसमन्तभद्रदेवैः - ' दर्शनिकस्तत्वपथगृह्य' इति दर्शनप्रतिमालक्षणं तदपि संगृहीतं, तथाविघहिंसाविरतिविध्युपदेशेन पञ्चाणुव्रतानुसरणविधानोपदेशात् । तथा न चरेत् न कुर्यात् । कम्, आरम्भं कृष्यादिकं । किंविशिष्टम्, उध्दुरम् आत्मनिर्वाह्यभरं । परेण हि कृष्यादिक्रियां कारयतो द्वन्द्वलाघवान्न तादृशी प्रतिज्ञातधर्मकर्मानुष्ठाने गृहिणो विहस्तंता भवति यादृशी तामात्मना कुर्वतः सा स्यात् द्वन्द्वावर्तविवर्तनात् । तथा प्रमांणयेत् प्रमाणं कुर्यात् न विसंवादयेदित्यर्थः । कं, लोकाचारं स्वामिसेवाक्रयविक्रयादिकं । केन स्वाचाराप्रतिलोम्येन आत्मप्रतिपन्नव्रतानुष्ठानानुपघातेन ॥ २५ ॥ धर्मे पत्न्याः सुतरां व्युत्पादनविधिमुपदिशतिव्युत्पादयेत्तरां धर्मे पत्नीं प्रेम परं नयन् । साहि मुग्धा विरुद्धा वा धर्माद् भ्रंशयते तराम् ॥ २६॥ टीका -- व्युत्पादयेत् तरां । अर्थादिव्युत्पाद्यात् धर्मेऽतिशयेन व्युत्पन्नां कुर्यात् अथवा धर्मविषये सर्वमपि परिवारं च पत्नीं च व्युत्पादयन् पत्नीं ततोऽतिशयेन तत्र व्युत्पादयेदिति व्याख्येयं । कोऽसौ दर्शनिकः । कां, पत्नीं भार्या । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोध्यायः। ८३ व, धर्मे । किं कुर्व,-नयन् प्रापयन् । कां, पत्नी। किं तत्, प्रेम स्वस्मिन् धर्मे च स्नेहं । किंविशिष्टं, परमुत्कृष्टं । हि यस्मात् भ्रंशयते तरां परिवारा-(दा) दतिशयेन प्रच्यावयति । काऽसौ, सा पत्नी । कं, पुरुष । कस्मात्, धर्मात् । किंविशिष्टा सती, मुग्धा धर्मे मूढा धर्ममजानतीत्यर्थः । तथा विरुद्धा पुंसि 'धर्मे वा द्वेषिणीत्यर्थः । इदमत्र तात्पर्य धर्ममजानानो विरक्तश्च परिजनो नर धर्मात्प्रच्यावयति । ततोऽप्यतिशयेन तादृग्विधा गृहिणी । तदधीनत्वाद्गहिणो धमकार्याणाम् ॥ २६ ॥ प्रेम परं नयन्नित्यस्य समर्थनार्थमाह स्त्रीणां पत्युरुपेक्षैव परं वैरस्य कारणम् । तनोपेक्षेत जातु स्त्री वाञ्च्छन्लोकद्वये हितम् ॥ २७ ॥ टीका-भवति । किं तत्, वैरस्य कारणं वैरस्य विरागताया हेतुः । अथवा वैरस्य विरोधस्य कारणं । किंविशिष्टं, परमुत्कृष्टं । कासां, स्त्रीणां । किं तत्, उपेक्षैव अनादर एक, न तु वैरूप्यनिर्धनत्वादि । कस्य पत्युर्भर्तुः । यत एवं तत्तस्मात् । नोपेक्षेत, नोपेक्षणीयत्धेन पश्येत् । कोऽसौ, पुमान् । कां, स्त्री स्त्रियं कदा जातु कदाचिदपि धर्माद्यनुष्ठानकाले । किं कुर्वन्, वाँच्छन् अभिलषन् । किं तत्, हितं सुखं सुखकारणं च । क्व, लोकद्वयेऽपि इहलोके परलोके च॥२७॥ कुलस्त्रियाऽपि धर्मादिकमिच्छन्त्या भर्तृच्छन्दानुवृत्तिरेव कर्तव्येति प्रास. ङ्गिकी स्त्रियाः शिक्षा प्रयच्छन्नाह नित्यं भर्तमनीभूय वर्तितव्यं कुलस्त्रिया । धर्मश्रीशर्मकीत्येककेतनं हि पतिव्रताः ॥ २८॥ टीका-वर्तितव्यं मनोवाकायकर्मभिराचरितव्यं । कया, कुलस्त्रिया कुलीननार्या । किं कृत्वा, भर्तृमनीभूय अभर्तृमना भर्तृमना भूत्वा पतिचित्तानुवर्तनेनैव चिन्त्यं वाच्यं चेष्टितव्यं च। कथं,नित्यं सर्वदा। हि यस्मात् । भवन्ति। काः, पतिव्रताः पतिसेवैव व्रतं प्रतिज्ञा शुभकर्मप्रवृत्तिर्वा यासां ता इत्यर्थः । किं भवति, धर्मेत्यादि-धर्मस्य पुण्यस्य, श्रियो विभूतेर्भारत्याश्च, शर्मण Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ramananmann.in ८४ सागारधर्मामृतेआनन्दस्य, कीर्तेर्यशसः एकमुत्कृष्टमव्यभिचाीर केतनं गृहं ध्वजो वा यास्ताः धर्मश्रीशर्मकीयॆककेतनं । नित्यं धर्मादिमत्यो धर्मादिविख्याता वा इत्यर्थः॥२८॥ धर्माद्यर्थिनः कुलस्त्रियामप्यत्यासक्तिं निषेधयन्नाह भजेदेहमनस्तापशमान्तं स्त्रियमन्नवत् । क्षीयन्ते खलु धर्मार्थकायास्तदतिसेवया ॥ २९ ॥ टीका-भजेत् सेवेत । कोऽसौ, त्रैवर्णिकः विशेषणादर्शनिकः श्रावकः । कां, स्त्रियं । कथं, यथा भवति देहमनस्तापशमान्तं शरीरमनसोः सन्तापोपशमो यथा भवति न पुनरत्यासक्त्या । किंवत्, अन्नवत् भोजनं यथा। खलु. यस्मात् । क्षीयन्ते क्षयं यान्ति । के, धर्मार्थकायाः धर्मों, धनं, शरीरं च श्रीण्यपि । कया, तदतिसेवया अन्नस्येव स्त्रिया अप्यतिमात्रोपयोगेन ॥ पुत्रस्योत्पादनादिप्रयत्नविधिमाह पुत्रोत्पादनविधिस्त्वयमष्टाङ्गहृदयोक्तः१ पूर्णषोडशवर्षा स्त्री पूर्णविंशेन सङ्गता। शुद्धे गर्भाशये मार्गे रक्ते शुक्रेऽनिले हृदि ॥ वीर्यवन्तं सुतं सूते ततो न्यूनाब्दयोः पुनः। रोग्यल्पायुरधन्यो वा गर्भो भवति नैव वा ॥ शुक्र शुक्लं गुरु स्निग्धं मधुरं बहुलं बहु । घृतमाक्षिकतैलाभं सदीयार्त्तवं पुनः ॥ लाक्षारसशशास्राभं धौतं यच्च विरज्यते । शुद्धशुक्रात्तवं स्वस्थं संरक्तं मिथुनं मिथः॥ स्नेहैः पुंसवनैः स्निग्धं शुद्धं शीलितवस्तिकम् । नरं विशेषात्क्षीराद्यैर्मधुरौषधसंस्कृतैः ॥ नारी तैलेन माषैश्च पित्तलै: समुपाचरेत् । क्षामप्रसन्नवदनां स्फुरच्छोणिपयोधराम् ॥ स्रस्ताक्षिकाक्षं पुंस्कामा विद्यादृतुमती स्त्रियम् । पदं सङ्कोचमायाति दिनेऽतीते यथा तथा ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोध्यायः । प्रयतेत सधर्मिण्यामुत्पादयितुमात्मजम् ॥ व्युत्पादयितुमाचारे स्ववत्त्रातुमथापथात् ॥ ३०॥ टीका-प्रयतेत परमादरं कुर्यात् । कोऽसौ, दर्शनिकः । किं कर्तुम् , उत्पादयितुं जनयितुं । कम्, आत्मजमौरसं पुत्रं । क्षेत्रजाघेकादशपुत्राणामनभ्युपगमात् । कस्यां, सधर्मिण्यां समानो धर्मो अस्यामस्तीति नित्ययोगे 'इन्' कुलास्त्रियामित्यर्थः । आत्मनो जात आत्मज इत्यन्वर्थतासिध्द्यर्थ कुलस्त्रीरक्षायां नित्यं यतितव्यमिति प्रतिपत्तव्यं । तथा प्रयतेत । कोऽसौ, सः । किं कर्तु, व्युत्पादयितुं विविधमुत्कृष्टं ज्ञानं प्रापयितुं । कम्, आत्मजं । क्व, आचारे कुललोकसंव्यवहारे। किंवत्, स्ववत् आत्मना तुल्यं । तथा प्रयतेतासौ। किं कर्तु, त्रातुं रक्षितुं निवर्तयितुमित्यर्थः । कम्, आत्मजं । कस्मात्अपथात् धर्मादिभ्रंशनोपायात् दुराचारादित्यर्थः । स्ववदित्यत्रापि योज्यं । अथशब्दः समुच्चये ॥ ३० ॥ __ सत्पुत्ररहितेन श्रावकेणोत्तरपदं प्रति प्रोत्साहो दुष्करः स्यादिति दृष्टान्तेनोपष्टम्भयन्नाचष्टे विना सुपुत्रं कुत्र स्वं न्यस्य भारं निराकुलः । गृही सुशिष्यं गणिवत् प्रोत्सहेत परे पदे ॥ ३१ ॥ ऋतावतीते योनिः स्याच्छुकं नातः प्रतीच्छति । मासेनोपचितं रक्तं दमानभ्यामृतौ पुनः ॥ ईषत्कृष्णं विगन्धं च वायुर्योनिमुखान्नुदेत् । ततः पक्षेक्षणादेव कल्याणध्यायिनी त्र्यहम् ॥ रजालङ्काररहिता दर्भसंस्तरशायिनी। क्षरेयं यावकं स्तोक कोष्टशोधनकर्शनम् ॥ पणे शरावे हस्ते वा भुञ्जीत ब्रह्मचारिणी । चतुर्थेऽह्नि ततः स्नाता शुक्लमाल्याम्बरा शुचिः ।। इच्छन्ती भर्तृसदृशं पुत्रं पश्येत्पुरः पतिम् । ऋतुस्तु द्वादशानिशाः पूर्वास्तिस्रोऽथ निन्दिताः ॥ एकादशी च युग्मासु स्यात्पुत्रोऽन्यासु कन्यका । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते टीका-कुत्र, कस्मिन् पुंसि । स्वमात्मीयं । भारं पोष्यादिनिर्वाहभरं । न्यस्य स्थापयित्वा । निराकुलो निर्द्वन्द्वः सन् । प्रोत्सहेत प्रकृष्टमुद्योगं कुर्यात् न वापीत्यर्थः । कोऽसौ, गृही प्रकृतत्वाद्दर्शनिकः । क्व, पदे संयमस्थाने । किंविशिष्टे, परे व्रतिकप्रतिमायां वानप्रस्थाद्याश्रमे वा । कथं, विना अन्तरेण । कं, सुपुत्रं आत्मसमानमात्मजं । किंवत् , गणिवत् धर्माचार्यों यथा । कं सुशिष्यमात्मसमानमेवाचार्याद्विना । कुत्र, श्रमणे । स्वं भारं सङ्घनिवाहलक्षणं । न्यस्य निराकुलो निर्व्यापेक्षः सन् परे आत्मसंस्कारादौ मोक्षपदे वा प्रोत्सहेत, न वापीत्यर्थः । इदमत्रैदम्पयं- दर्शनिकेन धर्माचार्येण च परं पदमाश्रयितुमिच्छता सत्पुत्रः सच्छिष्यश्चात्मवनिष्पादनीयः ॥ ३१ ॥ प्रकृतमर्थमुपसंहरन् बतिकप्रतिमारोहणयोग्यतां सूत्रयन्नाह-- दर्शनप्रतिमामित्थमारुह्य विषयेष्वरम् । विरज्यन् सत्त्वसज्जः सन्त्रती भवितुमर्हति ॥ ३२ ॥ टीका--अर्हति योग्यो भवति। कोऽसौ, श्रावकः । किं कर्तुं, भवितुं सम्पत्तुं किंविशिष्टो, व्रती व्रतिकप्रतिमावान् । किंविशिष्टः सन्, सत्त्वसज्जः धैर्यादिसात्विकभावनिष्ठः किं कुर्वन् , विरज्यन् स्वयमेव विरक्तिं गच्छन् । केषु, विषयेषु कामिन्यादिषु । कथ,-मरं पाक्षिकापेक्षया स्वस्य च प्राक्तनावस्थापेक्षयातिशेयन । किं कृत्वा, आरुह्य पर्यन्तं प्राप्य । कां, दर्शनप्रतिमां । कथम्, इत्थमनेन पाक्षिकाचारसंस्कारेत्यादिपूर्वोक्तप्रकारेणेति भद्रम् ॥ ३२॥ इत्याशाधरविरचितायां स्वोपज्ञधर्मामृतसागारधर्मदीपिकायां भव्यकुमुदचन्द्रिकासज्ञायामादितो द्वादशः प्रक्रमाञ्च तृतीयोऽध्यायः समाप्तः ॥३॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्थोऽध्यायः । अथ व्रतिकप्रतिमामध्यायत्रयेण प्रपञ्चयिष्यन् प्रथमं तावत्तल्लक्षणं संगृह ब्राह सम्पूर्णहग्मूलगुणो निःशल्यः साम्यकाम्यया । धारयनुत्तरगुणानक्षूणान्त्रतिको भवेत् ।। १ ।। टीका - भवेत् । कोऽसौ, व्रतिकः । किं कुर्वन् धारयन् अकृच्छ्रेण दधन् । कानू, उत्तरगुणान् वक्ष्यमाणान् । किंविशिष्टान् अक्षूणान् निरतिचारान् । कया, साम्यकाम्यया इष्टानिष्टयो रागद्वेषोपरमवाञ्छया, न पुनर्लाभादीच्छया । किंविशिष्टः सन् सम्पूर्णहग्मूलगुणः सम्पूर्णा उपयोगमात्राश्रयेणान्तरेङ्गण चेष्टामात्राश्रयेण च बहिरšणातिचारेण रहितत्वादखण्डा दृक् सम्यक्त्वं, मूलगुणाश्च यस्य स तथोक्तः । पुनः किंविशिष्टः, निःशल्यः गुणाति हिनस्तीति शल्य शरीरानुप्रवोशिकाण्डादि, शल्यमिव शल्यं कर्मोदयविकारः शारीरमानसबाधहेतुत्वात् । तत् त्रिविधं मिथ्यात्वमायानिदानभेदात् । मिथ्यात्वं विपरीताभिनिवेशः, माया वञ्चना, निदोनं तपःसंयमाद्यनुभावेन कांक्षाविशेषः, शल्यान्निष्क्रान्तो निःशल्यः ॥ ननु च सम्पूर्णहम्मूलगुण इत्यनेनैव शल्यपरिहारस्य सिद्धत्वात् व्यर्थमिदमिति चेत्सत्यं, किन्त्वचिरप्रतिपन्नव्रतस्य पूर्ववि १ तपःसंयमाद्यनुभावन कांक्षाविशेषो निदानम् । तत् द्वेधा प्रशस्तेतरभेदात् प्रशस्तं पुनर्द्विविधम् । विमुक्तिसंसारानिमित्तभेदात् तत्र विमुक्तिनिमित्तं कर्मक्षयाद्याकाङ्क्षा । उक्तं च कर्मव्यपायं भवदुःखहानिं बोधिं समाधिं जिनबोधसिद्धिम् । आकांक्षितं क्षीणकषायवृत्तेर्विमुक्तिहेतुः कथितं निदानम् ॥ जिनधर्मसिद्धयर्थं तु जात्याद्याकाङ्क्षणं संसारनिमित्तम् । जातिं कुलं बन्धविवर्जितत्वं दरिद्रतां वा जिनधर्मसिध्यै । प्रयाचमानस्य विशुद्धवृत्तेः संसारहेतुर्गदितं निदानम् ॥ मोक्षेऽपि मोहादभिलाषदोषो विशेषतो मोक्षनिषेधकारी | यतस्ततोऽध्यात्मरतो मुमुक्षुर्भवेत्किमन्यत्र कृताभिलाषः ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ सागारधर्मामृते भ्रमसंस्कारारोप्यमाणतत्परिणामानुसरणनिवारणार्थं भूयो यत्नः क्रियते । उपदेशे च पौनरुक्त्यं न दोषः ॥ १ ॥ शल्यत्रयोद्धरणे हेतुमाह सागारो वाऽनगारो वा यनिःशल्यो व्रतीष्यते । तच्छल्यवत्कुदृङ्मायानिदानान्युद्धरेद्धृदः ॥२॥ टीका-यद्यस्मात्कारणात् । इष्यते । कोऽसौ, व्रती । किंविशिष्टो,निःशल्यः किंविशिष्टः सन् , सागारो वा अनगारो वा । अत्रेयं भावना-शल्यापगमे सत्येव व्रतसम्बन्धाद्रती मन्यते, न हिंसाधुपरतिमानवतसम्बन्धात् यथा बहुक्षीरघृतो गोमानिति व्यपदिश्यते । बहुक्षीरघृताभावात् सतीष्वपि गोषु न गामान्, तथा सशल्यत्वात् सत्स्वपि व्रतेषु न व्रती । यस्तु निःशल्यः स व्रतीति । तत्तस्मात् । उद्धरेत् निष्कासयेत् । कोऽसौ, व्रतार्थी । कानि, कुदृड्मा' यानिदानानि । कस्मात्, हृदो हृदयात् । किंवत्, शल्यवत् शल्यानि यथा॥२॥ शल्यसहचारीणि व्रतानि धिक्कुर्वन्नाह आभान्त्यसत्यदृमायानिदानः साहचर्यतः । यान्यत्रतानि व्रतवदुःखोदकाणि तानि धिक् ॥ ३ ॥ टीका-धिक् निन्द्यानि । कानि, तानि अव्रतानि व्रताभासानि । किंविशिष्टानि, दुःखोदाणि यतः दुःखमुदर्क उत्तरफलं येषां तानि । यानि किं, यानि आभान्ति आभासन्ते । कानि, अव्रतानि । किंवत्, व्रतवत् ब्रतानि यथा । कस्मात्, साहचर्यतः सहचारित्वात् । कैः, असत्यदृशा मिथ्यात्वेन मायया निदानेन च ॥ ३ ॥ उत्तरगुणनिर्णयार्थमाह-- पञ्चधाऽणुव्रतं त्रेधा गुणवतमगारिणाम् । शिक्षाव्रतं चतुर्धेति गुणाः स्युादशोत्तरे ।। ४ ॥ टीका--स्युः भवेयुः । के, गुणाः संयमविकल्पाः। केषाम् अगारिणां गृहिणां । किंविशिष्टाः, उत्तरे मूलगुणानन्तरसेव्यत्वादुत्कृष्टत्वाच्च । कति, ___ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः। द्वादश । कथ,-मित्यनेन प्रकारेण । भवति । किं तत् , अणुव्रतं अणुव्रतापेक्षया लघुव्रतमहिंसादि । कतिधा, पञ्चधा अस्य पञ्चधात्वं बहुमतत्वादिष्यते क्वचित्तु राज्यभोजनमप्यणुव्रतमुच्यते। तथा भवति । किं तत्, गुणवतं । कतिधा, त्रेधा । गुणार्थमणुव्रतानामुपकारार्थ व्रतं गुणवतं दिग्विरत्यादीनामणुव्रतानुबृंहणार्थत्वात् । तथा भवति। किं तत्, शिक्षावतं । कतिधा, चतुर्धा शिक्षायै अभ्यासाय व्रतं देशावकाशिकादीनां प्रतिदिवसाभ्यसनीयत्वात् । अत एव गुणव्रतादस्य भेदः । गुणवतं हि प्रायो यावजीविकमाहुः । अथवा शिक्षाविद्योपादानं शिक्षाप्रधान व्रतं शिक्षाव्रतं देशावकाशिकादेर्विशिष्टश्रुतज्ञानभावनापरिणतत्वेनैव निर्वाह्यत्वात् ॥ सामान्येन पञ्चाणुव्रतानि लक्षयन्नाह-- विरतिः स्थूलषधांदेर्मनोवचोऽङ्गकृतकारितानुमतैः । कचिदपरेऽप्यननुमतैः पञ्चाहिंसाधणुव्रतानि स्युः ।।५।। टीका--स्युः भवेयुः । कानि, अहिंसाद्यणुव्रतानि । कति, ञ्च । विरतिः निवृत्तिः । कस्मात्, स्थूलबधादेः। कैः, मन इत्यादि--कृतादयो भावे क्तसाधनाः । मनश्च वचश्च अङ्गं च मनोवचोऽङ्गानि, तेषां प्रत्येकं कृतं च कारितं चानुमतं च मनोवचोऽङ्गकृतकारितानुमतानि तैः । केषां पञ्चाणुव्रतानि स्युः, क्वचिद्गृहवासनिवृत्ते श्रावके तथा अपरे गृहवासनिरते श्रावके । अननुमतैर. नुमतिवर्जितैस्तैः षड्भिस्तानि स्युरिति संक्षेपः । इतो विस्तरः--स्थूलजीवादिविषयत्वान्मिथ्यादृष्टीनामपि हिंसादित्वेन प्रसिद्धत्वाद्वा स्थूलो बधादिः स्थूला हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहा इत्यर्थः । ततो मनसा वाचा कायेन च पृथक्करणकारणानुमननैर्निवृत्तिरहिंसासूनृतास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाख्यानि पञ्चाणुव्रतानि क्वचिद्गहवासनिवृत्ते श्रावके भवेयुरित्युत्कर्षवृत्त्याऽणुव्रतान्युपदिश्यन्ते। यान्यपरे गृहवासनिरते श्रावकेऽननुमतैरनुमतिविवर्जितैमनस्करणादिभिः षड्भिः स्थूलहिंसादिनिवृत्त्या सम्पद्यन्ते तानि मध्यमवृत्त्या व्रतान्यभिमन्यन्ते । तस्यापत्यादिभिर्हिसादिकरणे तत्कारणे वा अनुमतेरशक्यप्रतिषेधत्वात् । स उक्तंच चारित्रासारे१ धादसत्याचौर्याच कामाद्गन्थानिवर्तनम् । पञ्चधाऽणुव्रतं राज्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम् ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते .. एष द्विविधत्रिविधाख्यः स्थूलहिंसादिविरतिभङ्गो बहुविषयत्वात् श्रेयान् । अपिशब्दः प्रकारान्तरेणापि स्थूलहिंसादिनिवृत्तेरणुत्वख्यापनार्थः । शक्त्या हि व्रतं प्रतिपन्नं सुखनिर्वाहं श्रेयोऽर्थं च स्यात् । तद्विरतिभङ्गाः करणादित्रिकेण योगत्रिकेण च विशिष्यमाणा एकोनपञ्चाशद्भवन्ति । यथा हिंसां न करोति मनसा १, वाचा २, कायेन च ३, मनसा ४, मनसा कायेन ५, वाचा कायेन ६, मनसा वाचा कायेन च ७, एते करणेन सप्तभङ्गाः एवं कारणेन सप्त। अनुमत्याऽपि सप्त । तथा हिंसां न करोति न कारयति च मनसा १, वाचा २, कायेन ३, मनसा वाचा ४, मनसा कायेन ५, वाचा कायेनं ६, मनसा वाचा कायेन च ७, एते करणकारणाभ्यां सप्त । एवं करणानुमतिभ्यां सप्त । कारणानुमतिभ्यामपि सप्त । करणकारणानुमतिभिरपि सप्त । एवं सर्वे मिलिता एकोनपञ्चाशद्भवन्ति । एते च त्रिकालविषयत्वात्प्रत्याख्यानस्य कालत्रयेण मुणिताः सप्तचत्वारिंशदधिकं शतं भवान्त १४७ । त्रिकालविषयता चातीतस्य निन्दया साम्प्रतिकस्य संवरणेनानागतस्य च प्रत्याख्यानेनेति । एते च भङ्गा अहिंसावतवद्वतान्तरेष्वपि द्रष्टव्याः अत्रेयं भावना दिक् । तत्र तावब्दाहुल्येनोपदेशात् द्विविधत्रिविधभङ्गमाश्रित्योच्यते । स्थूलहिंसां न करोत्यात्मना न कारयत्यन्येन मनसा वाचा कायेन चेति । तथा स्थूलहिंसां न करोति न कार. यति मनसा वाचा । यद्वा मनसा कायेन अथवा वचसा कायेन चेति । तत्र यदा मनसा वाचा न करोति न कारयति तदा मनसाऽभिसन्धिरहित एव वाचाऽपि हिंसकमब्रव व कायेनैव दुश्चेष्टितादि असज्ञिवत्करोति । यदा तु मनसा कायेन न करोति न कारयति तदा मनसाऽभिसन्धिरहित एव कायेन दुश्चेष्टितादि परिहरन्नेवानाभोगाद्वाचैव हन्मि घातयामि वेति ब्रूते । यदा तु वाचा कायेन च न करोति न कारयति तदा मनसैवाभिसन्धीकृत्य करोति कारयति च । अनुमतिस्तु त्रिभिरपि सर्वत्रैवास्ति । एवं शेषविकल्पा अपि भावनीयाः । स्थूलग्रहणमुपलक्षणं । तेन निरपरोधसंकल्पपूर्वक हिंसादीनामपि ग्रहणम् । एतेन-“दण्डो हि केवलो लोकाममं चामुं च रक्षति । राज्ञा शत्रौ च पुत्रे च यथादोषं समं घृत" इति वचनादपराधकारिषु यथाविधदण्ड १ पंगुकुष्टिकुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां संकल्पतस्त्यजेत् ।। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः । प्रणेतृणामपि चक्रवर्त्यादीनामणुव्रतादिधारणं पुराणादिषु च बहुशः श्रूयमाणं न विरुष्यते । आत्मीयपदवीशक्त्यनुसारेण तैः स्थूलहिंसादिविरतेः प्रतिज्ञानात् ॥ ५॥ स्थूलविशेषणं व्याचष्टे स्थूलाहिंस्याद्याश्रयत्वात् स्थूलानामपि दुर्दृशाम् । तत्त्वेन वा प्रसिद्धत्वावधादि स्थूलमिष्यते ॥ ६॥ टीका-इष्यते अभिमन्यते आचार्यैः । किं तत् , बधादि हिंसादिपापकर्म-- पञ्चकं । किंविशिष्टमिष्यते, स्थूलं । कस्मात् , स्थूलहिंस्याद्याश्रयत्वात् स्थूला बादरा हिंस्यादयो हिंस्यभाष्यमोष्यपरिभोग्यपरिग्राह्या आश्रया आलम्बनानि यस्य तत्तदाश्रयं तद्भावात् । तथा बधादि स्थूलमिष्यते। कस्मात् ,प्रसिद्धत्वात् सम्प्रतिपनत्वात् । केषां, स्थूलानामपि । किंलक्षणानां, दुईशां मिथ्यादृष्टीनां केन, तत्त्वेन बधादिभावेन । वाशद्वात्स्थूलकृतत्वाच्चेत्यनुक्तं समुच्चीयते ॥ ६ ॥ इदानीमौत्सर्गिकमहिंसाणुव्रतं व्याचष्टे--- शान्ताद्यष्टकषायस्य सङ्कल्पैर्नवभिस्त्रसान् । अहिंसतो दयार्द्रस्य स्यादहिंसेत्यणुव्रतम् ॥ ७ ॥ टीका--स्याद्भवेत् । किं तत् , अणुव्रतं । किमाख्यम् , अहिंसेति अहिं-- साख्यं । कस्य, शान्ताद्यष्टकषायस्य शान्ता शमङ्गताः शमिता वा आद्या अनन्तानुबन्धिनो अप्रत्याख्यानावरणाश्च अष्टा कषायाः क्रोधादयो यस्य येन वा तस्य । पुनः किंविशिष्टस्य, दयार्द्रस्य करुणामृदुहृदयस्य । प्रयोजनोद्देशेन कदाचित् स्थावरघाते प्रवृत्तावप्यनुकम्प्यमानमानसस्येति भावः। किं कुर्वत;, अहिंसतो द्रव्यभावप्राणैरवियोजयतः । कान् , सान् द्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियजविान् ।कैः, सङ्कल्पैः उत्तरसूत्रद्वयनिर्दिष्टैर्हिसाभिसन्धिभिः। कतिभिः, नवभिः मनोवाक्कायैः पृथक्करणकारणानुमननैरित्यर्थः । अत्र करणग्रहणं. कर्तुः स्वातन्त्र्यप्रतिपत्त्यर्थ । कारणाश्रयणं परप्रयोगापेक्षं । अनुमननोपादानं प्रयोजकस्य मानसपरिणामप्रदर्शनार्थं । तथाहि-त्रसहिंसां स्वयं न करोमि असान् हिनस्मीति मनःसङ्कल्पं न करोमीत्यर्थः । तथा मनसा त्रसहिंसामन्यं ___ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ सागारधर्मामृते न कारयामि श्रसान् हिंसय हिंसयेति मनसाऽन्यप्रयोजको न भवामीत्यर्थः । अत्र हिंसयेति हन्त्यर्थाच्चेति हिनस्तेश्चुरादिपाठाणिजन्तस्य रूपं । तथाऽन्यं त्रसहिंसां कुर्वन्तं मनसा नानुमन्ये सुन्दरमनेन क्रियते इति मनःसङ्कल्पं न करोमीत्यर्थः : । एवं वाचा स्वयं त्रसहिंसां न करोमि त्रसानू हिनस्मीति स्वयं वाचं नोच्चारयामीत्यर्थः । तथा वाचा त्रसहिंसां न कारयामि त्रसान् हिंसय हिंसयेति वाचं नोच्चारयामीत्यर्थः । तथाऽन्यं त्रसहिंसां कुर्वन्तं वाचा नानुमन्ये साधु क्रियते त्वयेति वाचं नोच्चारयामीत्यर्थः । तथा कायेन त्रसहिंसां स्वयं न करोमि त्रसहिंसने दृष्टिमुष्टिसन्धाने स्वयं कायव्यापारं न करोमीत्यर्थः । तथा कान सहिंसां न कारयामि त्रसहिंसने हस्तादिसञ्ज्ञया कायेन परं 'न प्रेरयामीत्यर्थः । त्रसहिंसां कुर्वन्तमन्यं कायेन नानुमन्ये त्रसहिंसने प्रवर्त-मानमन्यं नखच्छोटिकादिना नाभिनन्दामीत्यर्थः ॥ ७ ॥ एतदेव पद्यद्वयेन संगृह्णन्नाह - इमं सत्त्वं हिमस्मीति हिन्धि हिन्ध्येष साध्विमम् । हिनस्तीति वदन्नाभिसन्दध्यान्मनसा गिरा ॥ ८ ॥ वर्तेत न जीवबधे करादिना दृष्टिमुष्टिसन्धाने । न च वर्तयेत्परं तत्परे नखच्छोटिकादि न च रचयेत् ॥९॥ टीकाः-नाभिसन्दध्यात् न सङ्कल्पयेत् । कोऽसौ, त्यक्तगृहः श्रावकः । कं, बंधं हिंसां । केन, मनसा तथा गिरा वाचा । कथमिति किमिति, हिनस्मि हन्मि । कं, सत्त्वं जीवं । किंविशिष्टम् इमं पुरोवर्तिनं । तथा हिन्धि, हिन्धि मारय मारय । कं, इमं । तथा हिनस्ति हन्ति । कोऽसौ, एषः पुरुषः कम्, इमं । कथं, साधु सुंदरं । न वर्तेत न व्याप्रियेत । कोऽसौ व्यक्तगृहः । जीवबधे जीवानां सत्त्वकल्पितत्र सप्राणिनां प्राणव्यपरोपणे । क्क विषये, दृष्टिमुष्टिसन्धाने दृष्टिःचक्षुः मुष्टिर्हस्तांगुलीबन्धविशेषः, दृष्टिश्वमुष्टिश्च दृष्टिमुष्टी ताभ्यां सन्धानं संयोजनं यस्मिन् प्रवृत्तिविषये तत् दृष्टिमुष्टिसन्धानं पुस्तकासनादिकमुपकरणवस्तु तस्मिन् । व्यक्तगृहस्यपि श्रावकस्य सम्भावनि जीवबधे करादिना हस्तांगुल्याद्यङ्गोपाङ्गेन न प्रवर्तेतेत्यर्थः । उक्तंच- 1 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः । arrowinnames आसनं शयनं यानं मार्गमन्यच्च वस्तु यत् । अदृष्टं तन्न सेवेत यथाकालं भजन्नपि ॥ दृष्टिग्रहणं ज्ञानक्रियोपलक्षणं । मुष्टिग्रहणं च ग्रहणादिक्रियोपलक्षणं । तथा न च वर्तयेत् । कोऽ सौ, त्यक्तगृहः । कं, परं क, तादृशे जीववधे । तथा न च रचयेत् न कुर्यात् । किं तत् नखच्छोटिकादि । क्व, तत्परे जीवबधे स्वयमेव वर्तमाने पुंसि ॥ ८ ॥ ९ ॥ __ एवं त्यक्तगृहस्योपासकस्याहिंसाणुव्रतविधानमुपदिश्येदानीं गृहवर्तिनस्तदुपदिशन्नाह-- इत्यनारम्भजां जह्याद्धिंसामारम्भजां प्रति । व्यर्थस्थावरहिंसावद्यतनामावहेगृही ॥१०॥ टीका-जह्यात् त्यजेत् । कोऽसौ, गृही गृहवर्तिश्रावकः । कां, हिसां । किंविशिष्टाम्, अनारम्भजां अनारम्भे आसनोपवेशनादौ जातां तत्सम्भ. विनामित्यर्थः । उक्तंच-- गृहकार्याणि सर्वाणि दृष्टिपूतानि कारयेत् । कथं जह्यात् इति अनेन त्यक्तगृहोपासकोपदिष्टेन प्रकारेण । तथा आवहेत् कुर्यात् । कोऽसौ, गृही। कां, यतनां समितिपरतां । कथं, प्रत्युद्दिश्य कां, हिंसां । किंविशिष्टाम्, आरम्भजां कृष्याद्यारम्भसम्भविनीं । किंवत्, व्यर्थस्थावरहिंसावत् निष्प्रयोजनैकेन्द्रियबधे यथा ॥ १० ॥ स्थावरबधादपि निवृत्तिमुपपादयति-- यन्मुक्त्यङ्गमाहिसैव तन्मुमुक्षुरुपासकः। एकाक्षबधमप्युज्झेद्यः स्यानावयंभोगकृत् ॥ ११ ॥ हिंसा द्वेधा प्रोक्ताऽऽरम्भानारम्भभेदतो दक्षैः । गृहवासतो निवृत्तो द्वेधाऽपि त्रायते तां च ॥ गृहवाससे वनरतो मन्दकषायः प्रवर्तितारम्भः । आरम्भजां स हिंसां शक्नोति न रक्षितुं नियतम् ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ सागारधर्मामृते टीका-- यद्यस्माद्भवति । किं तन्मुक्त्यङ्गं मोक्षसाधनं । किं, अहिंसैव द्रव्यभावहिंसाविरमणमेव । तत्तस्मात् । उज्झेत् त्यजेत् । कोऽसौ, उपासकः श्रावकः । किंविशिष्टो, मुमुक्षुः बुभुक्षोर्नास्ति नियम इति भावः। कम्, एकाक्षबधमपि त्रसहिंसामिव स्थावरहिंसामपि । यः किं, यःएकाक्षबधः। न स्यात् । किंविशिष्टः, अवयंभोगकृत् अवानां वर्जयितुमशक्यानामावानां वा अर्जनीयानां भोगानां सेव्यार्थानां कारणम् ॥ ११ ॥ साङ्कल्पिकबधं नियमयति-- गृहवासो विनाऽऽरम्भान चारम्भो विना वधात् । त्याज्यःस यत्नात्तन्मुख्यो दुस्त्यजस्त्वानुषङ्गिकः॥१२॥ टीका--न भवति । कोऽसौ, गृहवासो गेहाश्रमः । कथं, विना । कस्मात् आरम्भात् कृष्यादिजीवनोपायात् । तथा न भवति। कोऽसौ, आरम्भः । कथं विना । कस्मात्, बधात् प्राण्युपमर्दनात् । यत एवं तत्तस्मात्याज्यः। कोऽसौ स बधः। किंविशिष्टो, मुख्यः इमं जन्तुमासाद्यार्थित्वेन हन्मीति सङ्कल्पप्रभवः। कस्मात्,यत्नात् अवधानात् । तुर्विशेषे । तेन भवति । कोऽसौ,आरम्भः। किंविशिष्टो,दुस्त्यजः त्यक्तुमशक्यः। किंविशिष्टः, आनुषङ्गिकः कृष्याद्यनुषङ्गे जातः कृष्यादौ क्रियमाणे सम्भवन्नित्यर्थः ॥ १२ ॥ प्रयत्नहेयां हिंसामुपदिशति दुःखमुत्पद्यते जन्तोर्मनः संक्लिश्यतेऽस्यते । तत्पर्यायश्च यस्यां सा हिंसा हेया प्रयत्नतः॥१३॥ जे तसकाया जीवा पुन्चुद्दिहा ण हिंसिदव्वा ते। एगिदियावि णिक्कारणेण पढमं वदं थूलम् ॥ स्तोकैकेन्द्रियघातात् गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति कर्तव्यम् ॥ भूपयःपवनानीनां तृणादीनां च हिंसनम् । यावत्प्रयोजनं स्वस्थं तावत्कुर्यादजन्तुजित् ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः। ____टीका-हेया त्याज्या गृहिणा । काऽसौ, हिंसा । कस्मात् , प्रयत्नतः प्रणि'धानेन । उत्पद्यते । किं, दुःखं शारीरं दुःखं क्लेशः। कस्य, जन्तोर्जीवस्य परजीवस्य वा । तथा संक्लिश्यते सन्तप्यते । किं तत्, मनश्चित्तं जन्तोः । तथाs स्यते विनाश्यते । कोऽसौ, तत्पर्यायः स चासौ पर्यायश्च तत्पर्यायो वर्तमानभवग्रहणम् ॥ १३ ॥ अहिंसाणुव्रताराधनापेदशामित उत्तरः प्रबन्धः । तत्र तावत्प्रयोक्तारमाश्रित्येदमुच्यते-- सन्तोषपोषतो यः स्यादल्पारम्भपरिग्रहः । भावशुद्धयेकसर्गोऽसावहिंसाणुव्रतं भजेत् ॥ १४ ॥ टकिा--भजेत् आराधयेत् । कोऽसौ, गृही । किं तत्, अहिंसाणुव्रतं । यः किं, यः स्यात् । किंविशिष्टोऽल्पारम्भपरिग्रहः आरम्भश्च परिभ्रहश्च ममदेमहमस्येति बुद्विग्राह्यो भार्याद्यर्थः आरम्भपरिग्रहौ, अल्पो दुनिप्रकर्षानुस्यादको आरम्भपरिग्रहौ यस्य स तथोक्तः । कस्मात्, सन्तोषपोषतो धृतेः प्रकर्षात् । पुनः किंविशिष्टो, भावशुद्धयेकसो मनःशुद्धावेकानः ॥ १४ ॥ पञ्चातिचारान् परिहरन् वाङ्मनोगुप्त्यादिभावनापञ्चकेनाहिंसाणुव्रतमुपयुजीतेत्युपदिशति-- मुञ्चन् बन्धं बधच्छेदावतिभारादिरोपणम् । भुक्तिरोधं च दुर्भावाद्भावनाभिस्तदाविशेत् ।।१५।। टीका--आविशेदुपयुञ्जीत। कौऽसौ, व्रतिकः किं तत् अहिंसाणुव्रतं । काभिः भावनाभिः वारगुप्तया मनोगृप्तया ईयासमित्या आदाननिक्षेपणसमित्या आलो कितपानभोजनेनेति पंचभिरभ्यासविशिष्टैः । किं कुर्वन्, मुञ्चन् वर्जयन्। किंतत्, बन्धादिपञ्चकं । कस्मात् , दुर्भावादिति समन्वयः। इतो विस्तरः-बन्धो रज्वादिना गोमनुष्यादीना नियन्त्रणं । स च पुत्रादीनामपि विनयग्रहणार्थ विधीयते अतो दुर्भावादित्युक्तं । दुर्भावं दुष्परिणामं प्रबलकषायोदयमाश्रित्य क्रियमाणो यो बन्धस्तं वर्जयन्नित्यर्थः । अनायं विधिः-बन्धो द्विपदानां चतुष्पदानां वा स्यात् । सोऽपि सार्थकोऽनर्थको वा तत्रानर्थकस्तावच्छावकस्य कर्तुं न युज्यते Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते सार्थकः पुनरसौ द्वेधा । सापेक्षो निरपेक्षश्च । तत्र सापेक्षो यो दामग्रंथ्यादिना शिथिलेन चतुष्पादानां विधीयते यश्च प्रदीपनादिषु मोचयितुं छेत्तुं वा शक्यते । निरपेक्षो यन्निश्चलमत्यर्थममी बद्ध्यन्ते। द्विपदानां तु दासदासीचोरजारादिप्रमत्तपुत्रादीनां यदा बन्धो विधीयते तदा सविक्रमणा एवामी बन्धनीया रक्षणीयाश्च यथाऽग्निभयादिषु न विनश्यन्ति । यद्वा द्विपदचतुष्पदाः श्रावकेण त एव संग्राह्या ये बद्धा एव तिष्ठन्तीति प्रथमोऽतिचारः । बधो दण्डकशाद्यभिघातः । सोऽपि दुर्भावाद्विधीयमानो बन्धवदतिचारः । यदि पुनः कोऽपि न करोति विनयं तदा तं मर्माणि मुक्त्वा लतया दवरकेण वा सकृत् द्विर्वा ताडयेदिति द्वितीयोऽतिचारः । छेदः कर्णनासिकादीनामवयवानामपनयनं । सोऽपि दुर्भावास्क्रियमाणोऽतिचारो निर्दयं हस्तादीनां छेद इत्यर्थः स्वास्थ्यापेक्षया तु गण्डवणादिच्छेदनदहनादिकं ससान्त्वनं कुर्वतोऽपि नातिचारः स्यादिति तृतीयः । अतिभारादिरोपणं न्याय्यभारादतिरिक्तस्य वोढ़मशक्यस्य भारस्यारोपणं वृषभादीनां पृष्टस्कन्धादौ वाहनोपाधिरोपणं । तदपि दुर्भावात्क्रोधाल्लोभाद्वा क्रियमाणमतिचारः । अत्राप्ययं विधिः-श्रावकेण तावत् द्विपदादिवाहनेन जीविका प्रागेव मोक्तव्येत्येष श्रेष्टः पक्षः अथान्योऽसौ न स्यात्तदा द्विपदो यावन्तं भारं स्वयमुत्क्षिपति अवतारयति च. तावन्तमेव वा वाह्यते मोच्यते चोचितवेलायाम् । चतुष्पदस्य तु यथोचितभारः किञ्चिदूनः क्रियते । हलशकटादिषु पुनरुचितवेलायामसौ मुच्यते इति चतुर्थः । भुक्तिरोधोऽन्नपानादिनिषेधः । सोऽपि दुर्भावाद्वन्धवदतिचारः। तीक्ष्णक्षुधादिपीडितः प्राणी म्रियत इत्यन्नादिनिरोधो न कस्यापि कर्तव्यः । अपराधकारणि च वाचैव वदेदद्य ते न दास्यते भोजनादिकमिति। स्वभोजनवेलायां तु नियमत एवान्यं भोजयित्वा स्वयं भुञ्जीतान्यत्रोपवासचिकित्स्यज्वरादिव्याधितेभ्यः । शान्तिनिमित्तं चोपवासाद्यपि कारयेदिति पञ्चमः । किंबहना मूलगुणस्याहिंसालक्षणस्यातिचारो यथा न भवति तथा यतनया वर्तितव्यम् ॥ १५ ॥ उक्तमेवार्थं मुग्धधियां सुखस्मृत्यर्थं किञ्चिदुपसंगृह्णन्नाह-- गवानैष्ठिको वृत्तिं त्यजेद्वन्धादिना विना। भोग्यान् वा तानुपेयात्तं योजयेद्वा न निर्दयम् ॥ १६ ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः। टीका--त्यजेद्वर्जयेत् । कोऽसौ, नैष्ठिकः । पाक्षिकस्य तु नास्ति नियमः । का, वृत्तिं जीवनार्थं व्यापारं । कैः, गवाद्योमहिषतुरगादिभिः । एषः प्रश. स्यतमः पक्षः । वा अथवा । उपेयात् परिगृह्णीयात् नैष्ठिकः । कान्, एतान् गवादीन् । किंविशिष्टान्, भोग्यान वाहदोहादावुपयोक्तुं शक्तान् । कथं, विना केन, बन्यादिना नियन्त्रणताडनादिना एष मध्यमः पक्षः । अथवा न योजयेत् स्वयमन्येन वा न विधापयेत् नैष्टिकः । कं, तं बन्धादि । कथं, निर्दयं । एषोऽधमः पक्षः । 'व्रतानि पुण्याय भवन्ति जन्तो-न सातिचाराणि निषेवितानि । सस्यानि किं वापि फलन्ति लोके मलोपलीढानि कदाचनापि' ॥ अत्राह कश्चित्-ननु हिंसैव श्रावकेण प्रत्याख्याता न बन्धादयः ततस्तत्करणेऽपि न दोषो हिसाविरतेरखाण्डितस्वात् । अथ बन्धादयोऽपि प्रत्याख्यातास्तदा तत्करणे व्रतभङ्ग एव विरतिखण्डनात् । किं च वधादीनां प्रत्याख्येयत्वे व्रतेयत्ता विशीर्येत प्रतिव्रतम. तिचारव्रतानामाधिक्यादिति । एवं च न बन्धादीनामतिचारतति । अत्रोच्यते। सत्यमहिंसैव प्रत्याख्याता न बन्धादयः । केवलं तत्प्रत्याख्यानेऽर्थतस्तेऽपि प्रत्याख्याता द्रष्टव्या हिंसोपायत्वात्तेषां । न च बन्धादिकारणेऽपि व्रतभङ्गः किन्त्वतीचार एव । कथं ? द्विविधं हि व्रतं अन्तर्वृत्त्या बहिर्वृत्त्या च, तत्र मारयामीति विकल्पाभावेन यदा कोपाद्यावेशात्परप्राणप्रहाणमविगणयन् बन्धादौ प्रवर्तते न च हिंसा भवति तदा निर्दयताविरत्यनपेक्षतया प्रवृत्तत्वनान्तर्वत्त्या व्रतस्य भङ्गो हिंसाया अभावाद्वहिर्वृत्त्या पालनमिति देशस्य भङ्गजननाद्देशस्यैव पालनादतिचारव्यपदेशःप्रवर्तते। तदुक्तंः-"न मारयामीति कृतव्रतस्य विनैव मृत्यु क इहातिचारः । निगद्यते यः कुपितो वधादीन् करोत्यसौ स्यन्नियमानपेक्षः॥ मृत्योरभावान्नियमोऽस्ति तस्य कोपाहयाहीनतया हि भङ्गः । देशस्य भंगादनुपालगाच्च पूज्या अतीचारमुदाहरात्न ॥" यच्चोक्तं व्रतेयत्ता विशीर्यतेति तदयुक्तं विशुद्धाहिंसासद्भावेः हि बन्धादीनामभाव एवातः स्थितमेतत् बन्धादयोऽतिचारा एवेति ॥ एतदवे संगृह्णन्नाह न हन्मीति व्रतं क्रुध्यानिर्दयत्वान्न पाति न । भनक्त्यघ्नन् देशभङ्गत्राणात्त्वतिचरत्यधीः ॥ १७ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ सागारधर्मामृते टीका-न पाति न पालयति । कोऽसौ, अधीरज्ञोऽसमीक्ष्यकारी। किं तत्, न हन्मीति व्रतं न मारयामीति नियमं । किं कुर्वन्, क्रुध्यन् क्रोधावेशं गच्छन्। कुतो न पाति, निर्दयत्वात् करुणारहितत्वात् । तथा न भनक्ति न नाशयति । कोऽसौ, अधीः । किं तत्, न हन्मीति व्रतं । किं कुर्वन्,-अघ्नन् प्राणैर्जीवमवियोजयन् । किं तर्हि करोतीत्याह–अतिचरति व्रतमतिक्रम्याधिवर्तते । तु पुनः। कस्मात्,देशभङ्गत्राणात् भगश्च त्राणं च भङ्गत्राणं देशस्यान्तर्बहिर्वृत्त्युभयरूपवतैकदेशस्य भङ्गत्राणमन्तवृत्त्या भञ्जनं बहिर्वृत्त्या च पालनं तस्मात् ॥ १७ ॥ आतिचरतीति पदार्थमभिव्यक्तुं भुक्तिरोधनं चेत्यत्र चशब्देन समुचितं चातिचारजातं वक्तुमाह-- सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंऽशभञ्जनम् । मन्त्रतन्त्रप्रयोगाद्याः परेऽप्यूह्यास्तथाऽत्ययाः॥१८॥ टीका-हि यस्मात् । स्याद्भवेत्। कोऽसौ, अतिचारः । किं स्यादंशभञ्जनं अन्तर्वृत्त्या बहिवृत्त्या वा खण्डनं । कस्य, सापेक्षस्य । क, व्रते प्रतिपन्नमहिंसाव्रतं न भनज्मीति अपेक्षमाणस्य पुंसः। तथा ऊह्याः विताः । के, अत्यया अतीचाराः । किंविशिष्टाः, मन्त्रतन्त्रप्रयोगाद्याः मन्त्र इष्टकर्मसाधनसमर्थः पठितसिद्धोऽक्षरपिण्डः, तन्त्रं सिद्धौषधिक्रियाः, मन्त्रश्च तन्त्रं च मन्त्रतन्त्रे तयोः प्रयोगो विधिवत्कर्मणि व्यापारणं स आयो येषां ध्यानादीनां ते मन्त्रतन्त्रप्रयोगाद्याः गतिस्तम्भमतिस्तम्भोच्चाटनादिदुष्टकर्मसाधनहेतवः, न केवलं ते परेऽपि शास्त्रान्तरनिर्दिष्टाश्च । कथमूह्याः । तथा तेन व्रतापेक्षापूर्वकं तदेकदेशभञ्जनलक्षणेन प्रकारेण मन्त्रादिकृत् ॥ १८ ॥ बन्धादीनामतिचारत्वसमर्थनपुरस्सरमतिचारपरिहारे यत्नं कारयन्नाह मन्त्रादिनापि बन्धादिः कृतो रज्वादिवन्मलः । तत्तथा यतनीयं स्यान यथा मलिनं व्रतम् ॥ १९ ॥ टीका-भवति । कोऽसौ, बन्धादिः बन्धनताडनादिः । किं स्यात्, मल: यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धित्वादहिंसाणुव्रतातिचारःस्यात्तदेकदेशभञ्जकत्वाविशेषा ___ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः। त् । किंविशिष्टः, कृतो विहितः । केन, मन्त्रादिना मन्त्रतन्त्रादिना, न केवलं रज्वादिनेत्यपिशब्दाथः । केनेव, रज्वादिवत् पाशकादिना यथा । तत्तस्माद्यतनीयं मैत्र्यादिभावनालक्षणया प्रमादपरिहारपूर्वकचेष्टारूपया च यतनया वर्तितव्यं । कथं, तथा तेन विशुद्धाध्यवसायलक्षणेन प्रकारेण । यथा किं, यथा न स्यात् । किं तत्, व्रतं । किंविशिष्टं, मलिनं सातिचारम् ॥ १९ ॥ अहिंसाणुव्रतस्वीकारविधिमाह हिंस्यहिंसकहिंसातत्फलान्यालोच्य तत्त्वतः । हिंसां तथोज्झेन यथा प्रतिज्ञाभङ्गमाप्नुयात् ॥ २०॥ टीका--उज्झेत् व्रतयेत् । कोऽसौ, श्रावकः । कां, हिंसां । कथं, तथा तेन स्वशक्त्यनुसारलक्षणेन प्रकारेण । किं कृत्वा, आलोच्य गुरुसधर्मश्रेयोऽ थिभिः सह विमृश्य । कानि, हिंस्यहिंसकहिंसातत्फलानि । वध्यवधकवधतसाध्यानि । कस्मात्, तत्त्वतः याथात्म्येन ।यथा किं, यथा नाप्नुयात् । कोऽसौ, व्रती प्रतिपन्नव्रतः । कं, प्रतिज्ञाभड्गं नियमखण्डनम् ॥ २० ॥ हिंसकादील्लँक्षयति-- प्रमत्तो हिंसको हिंस्या द्रव्यभावस्वभावकाः । प्राणास्तद्विच्छिदा हिंसा तत्फलं पापसश्चयः ॥२१॥ टीका-भवति । कोऽसौ, हिंसकः । किंरूपः, प्रमत्तः कषायाद्याविष्टः । प्रपञ्चितं चैतदहिंसामहाव्रतोपदेशप्रस्तावे प्रागिति न पुनरिह प्रपंच्यते । तथा 'भवन्ति । के, हिंस्याः प्राणाः । किमात्मानो,द्रव्यभावस्वभावकाः द्रव्यात्मकाः पुद्गलविवर्तरूपाः भावात्मकाश्च चित्परिणामलक्षणाः । तथा भवति । काऽसौ, हिंसा । किंलक्षणा, तद्विच्छिदा तेषां द्रव्यभावप्राणानां वियोगकारणं । तथा भवति । किं तत्, तत्फलं हिंसासाध्यं । किं, पापसञ्चयः दुष्कर्मबन्धः ॥२१॥ गृहिणोऽप्यहिंसाव्रतनमल्याय विधिविशेषमाह-- कषायविकथानिद्राप्रणयाक्षविनिग्रहात । नित्योदयां दयां कुयोत्पापध्वान्तरविप्रभाम् ॥ २२ । ____ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सागारधर्मामृते marwwwwwwwwwww . टीका-कुर्यात् । कोऽसौ, अहिंसाणुव्रतनैर्मल्यार्थी । कां, दयामनुकम्पा ।। किंविशिष्टां, नित्योदयां अविच्छिन्नोल्लासां । पुनः किंविशिष्टां, पोपध्वान्तरविप्रभा पापं बन्धाद्यतिचारदुष्कृतं तत् ध्वान्तमिव पुण्यप्रकाशविरोधित्वात् तत्र रविप्रभावात्तदनवगाह्यत्वात् । कस्मात्, कषायेत्यादि-कषायाः क्रोधादयः, विकथा मार्गविरुद्धाः कथाः, निद्रा भुक्तानपरिणामहेतुः स्वापः, प्रणयो मोहः स्नेहानुबन्धान्ममायमिति ग्रहः, अक्षाणि स्पर्शादिविषयरागद्वेषपरिणतानोन्द्रियाणि, तेषां पञ्चदशप्रमादानां विनिग्रहात् विधिपूर्वकनिग्रहात् । अत्र मार्गवि रुद्धाः कथाः भक्तस्त्रीदेशराजसम्बन्धिन्यः । तत्र भक्तकथा-इदं चेदं श्यामाकपायमोदकादि साधु भोज्यं, साध्वनेन भुज्यते, अहमपि चेदं भोक्ष्ये इत्यादिरूपा। तथास्त्रीकथा स्त्रीणां नेपथ्याङ्गहारहावभावादिवर्णनरूपा 'कर्णाटी सुरतोपचारचतुरा' लाटी विदग्धा प्रियेत्यादिरूपा वा । तथा देशकथा-दक्षिणपथःप्रचुरान्नपानस्त्रीसम्भोगप्रधानः, पूर्वदेशो विचित्रवस्त्रगुडखण्डशालिमद्यादिप्रधानः, उत्तरापथे शूराः पुरुषाः,जविनो वाजिनो, गोधूमप्रधानानि धान्यानि, सुलभं कुंकुम, मधुराणि द्राक्षादाडिमकपित्थादीनि, पश्चिमदेशे सुखस्पर्शानि वस्त्राणि सुलभा इक्षवः, सितं वारीत्येवमादि । राजकथा-शूरोऽस्मदीयो राजा सधनः शौण्डः गजपतिौडः, अश्वपतिस्तुरुष्कः इत्यादिरूपा। एवं प्रतिकूला अपि भक्तादिकथा वाच्याः । यदा तु रागद्वेषावनास्कन्दन् धर्मकथागत्वेन अर्थकामकथाः कथयति तदा न वैकथिकः स्यात्। एवं प्रणयस्यापि धर्मविरोधित्वेनैव प्रमादत्वं बोध्यम् ॥ २२ ॥ गृहस्थस्याहिंसादुष्परिपाल्यत्वशङ्कामपाकरोति-- विष्वग्जीवाचते लोके कचरन् कोऽप्यमोक्षत । भावैकसाधनो बन्धमोक्षो चेन्नाभविष्यताम् ॥ ३२ ।। १ पुण्यं तेजोमयं प्राहुः प्राहुः पापं तमोमयम् । तत्पापं पुंसि किं तिष्ठेद्दयादीधितिमालिनि ॥ स्नेहानुविद्धहृदयो ज्ञानचरित्रान्वितोऽपि न श्लाघ्यः । दीप इवापादायता कज्जलमालिनस्य कार्यस्य ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः । टीका-अमोक्ष्यत मोक्षमगमिष्यत् । कोऽसौ, कोऽपि मुमुक्षुः । किं कुर्वन्, घरन् चेष्टमानः। कस्मिन् , क न क्वापि प्रदेशे । कस्मिन् , लोके जगति । किंविशिष्टे, विष्वग्जीवचिते समन्ताज्जन्तुव्याप्ते । चेद्यदि वा नाभविष्यतां नाजनिष्यतां । कौ, बन्धमोक्षौ । किंविशिष्टौ, भावैकसाधनौ भावः परिणाम एकमुत्कृष्टं प्रधानं साधनं निमित्तं ययोः । तत्र शुभाशुभोपयोगी पुण्यापापरूपबन्धस्य शुद्धोपयोगश्च मोक्षस्य प्रधान कारणमिति विभागः ॥२३॥ एवमतिचारपरिहारद्वारेगाहिंसाणुव्रतपरिपालनमुपदिश्य साम्प्रतं रात्रिभोजनवर्जनव्रतबलेन तदुपदिशन्नाह अहिंसावतरक्षार्थ मूलवतविशुद्धये । नक्तं झुक्तिं चतुर्धाऽपि सदा धीरास्त्रिधा त्यजेत् ॥२४॥ टीका--त्यजेत् । कोऽसौ, व्रती । का, भुक्तिं भोजनं । कतिधा, चतुर्धाऽपि अन्नपानखाद्यलेह्यप्रकारमपि । कदा, नक्तं रात्रौ । कथं, सदा सर्वदा यावज्जीवं । कथं, विधा मनोवाकायैः । किविशिष्टः सन् , धीरः परीषहोपसगैं. रक्षोभ्यः सत्त्वभावनानिष्ठ इत्यर्थः । किमर्थं, अहिंसावतरक्षार्थं मूलव्रत विशुद्धये च मूलगुणान्विमलीकर्तुमहिंसाणुव्रतं च रक्षितुमित्यर्थ ॥ २४ ॥ दृष्टादृष्टदोषभूयिष्ठमपि रात्रिभोजनमाचरन्तं वक्रभणिया तिरस्कुर्वन्नाह जलोदरादिकृयूकायङ्कमप्रेक्ष्यजन्तुकम् ।। श्रेतायुच्छिष्टमुत्सृष्टमप्यश्ननिश्यहो सुखी ॥ २५ ॥ टीका-अहो आश्चर्य कष्टं च । भवति । कोऽसो, जनः । किंविशिष्टः, सुखी सुखिनमात्मानं मन्यते इहामुत च दुःखभागेव भवतीति भावः । किं कुर्वन् , अनन् भोज्यमाहरन् । क्व, निशि रात्रौ। किंविशिष्टम् , जलोदरादिकृयूकाद्यङ्कमपि अपिशब्दोऽन्तदीपकत्वाच्चतुर्भिरपि विशेषणैः सम्बध्यते । जलोदरमादिर्येषां कुष्टादीनामपायानां तान् कुर्वन्तीति तत्कृतो जलोदरादिहेतवस्ते च ते यूकादयश्च यूकामर्कटिकादयस्ते तथाविधा अङ्काः कलङ्का अङ्के वा उत्सङ्गे मध्ये यस्यान्नपानादेर्भोज्यवस्तुनस्तथोक्तं । तत्र यूका । भोजनेन सह भुक्ता जलोदरं करोति, कौलिकः कुष्ठं, मक्षिका छर्दैि, मद्किा मेदोहानि Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सागारधर्मामृते व्यञ्जनान्तः पतितो वृश्चिकस्तालुव्यथां, कण्टकः काष्टखण्डं वा गलव्यथां वालश्च गले लग्नः स्वरभङ्गमित्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां प्रतीतिकरा, रातिभोजने सम्भवन्ति । तथा अप्रेक्ष्यजन्तुकमपि अप्रेक्ष्यास्तमसा छन्नत्वाद्द्रष्टुमशक्या जन्तुका अल्पजन्तवः सूक्ष्मजीवाः कुन्थ्वादयो जलघृतादिमध्ये पतिताः मोदकखर्जूराद्यनुषङ्गिणो वा यत्र तत्तथोक्तं । किं च । निशि भोजने क्रियमाणेऽ वश्यं पापः सम्भवति । तत्र च षड्जीवनिकायवधोऽवश्यम्भावी। भाजनधावनादौ च जलगतजन्तुविनाशो जलोज्झने च भूमिगत कुन्थुपिपीलिकादिजन्तुघातश्च संभवति । तथा प्रेताद्युच्छिष्टमपि प्रेता अधमव्यन्तरा आदयो येषां पिशाचराक्षसादीनां तैरुच्छिष्टं स्पर्शादिना अभोज्यतां नीतं । एते पूर्वे चाटष्टदोषाः । तथा उत्सृष्टमपि प्रत्याख्यातमपि वस्तु घोरान्धकाररुद्वदृशां तदुपलक्षणासम्भवादेषोऽप्यदृष्टो दोषः ॥ २५ ॥ वनमालादृष्टान्तेन रात्रिभोजनदोषस्य महत्तां दर्शयति त्वां यद्युपैमि न पुनः सुनिवेश्य रामं लिप्ये वधादिकृदधैस्तदिति श्रतोऽपि । सौमित्रिरन्यशपथान्वनमालयैकं दोषाशिदोषशपथं किल कारितोऽस्मिन् ॥ २६ ॥ टीका - किल रामायणे ह्येवं श्रूयते । कारितो विधापितः । कोऽसौ. सौमित्रिलक्ष्मणः । कया, वनमालया स्वभार्यया । कं, दोषाशिदोषशपथं दोषाशिनो रात्रिभोजिनो दोषो महापातकाख्यः तेन लिप्येऽहमिति शपथं किंविशिष्टम्, एक शपथान्तररहितं । क्व, अस्मिन् लोके । किंविशिष्टोऽपि श्रितोऽपि प्रतिपन्नोऽपि । कानू, अन्यशपथान् शपथान्तराणि । कथं, इरि अनेन प्रकारेण । यदि नोपैमि नागच्छामि । कां त्वां । कथं पुनर्व्याघुक किं कृत्वा, सुनिवेश्य सुव्यवस्थितं कृत्वा । कं, रामं । तत् ततः । लि संयुज्येऽहं । कैः कर्तृभिः, वधादिकृदधैः गोत्र्यादिघातकादिपापैः । तत्कथ यथा-लक्ष्मणो दशरथपितृनिदेशासह रामेण सीतया च दक्षिणापथे प्रस्थित ऽन्तरा कूर्च्चनगरे महीधरराजतनयां वनमालां परिणतिवान् । ततश्च रामे Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः । सह परतो देशान्तरं यियासन् स्वभार्यां वनमालां प्रति मोचयति स्म । सा तु तद्विरहकातरा पुनरागमनमसम्भावयन्ती लक्ष्मणं • शपथानकारयत् । यथा प्रिये रामं मनीषिते देशे परिसंस्थाप्य यद्यहं भवतीं स्वदर्शनेन न प्रीणयामि तदा प्राणातिपातादिपातकिनां गतिं यामीति । सा तु तैः शपथैरतुष्यन्ती यदि रात्रिभोजनकारिणां शपथं करोषि तदा त्वां प्रति मुञ्चामि नान्यथेति । स च तथेत्यभ्युपगत्य देशान्तरं प्रस्थितवानिति ॥ २६ ॥ लौकिकसंवाददर्शनेनापि रात्रिभोजनप्रतिषेधमाह यत्र सत्पात्रदानादि किञ्चित्सत्कर्म नेष्यते । कोऽद्यात्तत्रात्ययमये स्वहितैषी दिनात्यये ॥ २७ ॥ टीका-कः, स्वहितैषी आत्मनो लोकद्वयेऽपि पथ्यमिच्छुः । अद्यात्, न कश्चित्स्वहितैषी भुञ्जीतत्यर्थः । क्व, तत्र दिनात्यये रात्रिसमये । किंविशिष्टे, अत्ययमये दोषभूयिष्टे दोषनिवृत्ते वा । यत्र किं, यत्र नेष्यते बारिपि नाभिमन्यते । किं तत्, सत्कर्म शुभक्रिया। किंविशिष्टं, किंञ्चित् किमपि। किं पुनः सर्वं ! किंविशिष्टं तत्, सत्पात्रदानादि सत्पात्रदानं स्नानं देवार्चनमाहुतिः श्राद्धं विशेषतो भोजनं च ॥ २७ ॥ दिनरात्रिभोजनद्वारेण पुंसामुत्तममध्यमजघन्यभावमाह भुञ्जतेऽह्नः सकृद्वर्या द्विर्मध्याः पशुवत्परे। राज्यहस्तहतगुणान् ब्रह्मोद्यान्नावगामुकाः ॥ २८ ॥ टीका--भुञ्जते अश्नन्ति । के ते, वर्या उत्तमाः शुभकर्मणोल्बणः । कथं, सकृत् एकवारं । कस्य, अहो दिनस्य मध्ये । तथा भुञ्जते । के, मध्याः मध्यमाः शुभक्रियाभिरनुत्तमाधमाः । कथं, द्विः द्विवारं। कस्य, अह्नः तथा परे अधमाः पापकर्माणः । भुञ्जते। किंवत्, पशुवत् गोमहिषादिभिस्तुल्यं । कथं, रात्र्यहः नक्तंदिनं । किंविशिष्टाः सन्तो,नावगामुकाः अजानानाः । कान्, तद्वतगुणान् रात्रिभोजनवर्जनोपकारकधर्मान् । किंविशिष्टान्, ब्रह्मोद्यान् सर्वज्ञप्रतिपाद्यान् ॥ २८ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते शास्त्रनिदर्शनं विना सकलजनानुभवसिद्धं रात्रिभोजननिवृत्तिफलविशेषमाह - १०४ योऽत्ति त्यजन् दिनाद्यन्तमुहूर्ती रात्रिवत्सदा । सवतोपवासेन स्वजन्मार्द्ध नयन् कियत् ॥ २९ ॥ , टीका -- योऽत्ति भोजनं करोति । किं कुर्वन् त्यजन् वर्जयन् । कौ, दिनाद्यन्तमुहूर्ती दिवसस्यादावन्ते च द्वे द्वे घटिके । किंवत्, रात्रिवत् रात्रि यथा । कथं, सदा नित्यं । स कियत् कियान्मात्रं वण्येंत स्तूयेत सद्भिः । किं कुर्वन्, नयन् गमयन् । किं तत्, स्वजन्मार्धं अर्धं निजं जन्म | केन, उपवासेन चतुर्विधाहारपरिहारेण । समांशे विषमांशे वाऽत्रार्धशब्दो व्याख्येयः ॥ २९ ॥ अथ रात्रिभोजन वर्जनवन्मूलव्रत विशुध्द्यङ्गत्वादहिंसाव्रत रक्षाङ्गत्वाच्च श्रावकस्य भोजनान्तरायान् श्लोकचतुष्टयेन व्याचष्टे अतिप्रसङ्गमासेतुं परिवर्धयितुं तपः । व्रतबीजवृतीर्भुक्तेरन्तरायान् गृही श्रयेत् ॥ ३० ॥ " टीका- श्रयेत् प्रतिपद्येत । कोऽसौ, गृही प्रतिको गृहस्थः । कानू, अन्तरायान् । कस्या, भुक्तेः भोजनवर्जन हेतूनित्यर्थः । किंविशिष्टान् व्रतबीजवृती: बीजस्येव व्रतानामावेष्टकान् रक्षोपायत्वात् अहिंसाणुव्रतशीलभूतानित्यर्थः । किं कुर्वन् कर्तुं, असितुं त्यक्तुं । कम्, अतिप्रसङ्गं विहितातिक्रमेणोपर्युपरि प्रवृत्तिं । तथा परिवर्द्धयितुं समन्तादुपचेतुं । किं तत्, तपः इच्छानिरोधम् ॥ ३० ॥ तानेव श्लोकत्रयेण विशेषतो निर्देष्टुं विवृणोति-दृष्ट्वाऽऽर्द्रचर्मास्थिसुरामांसापूपूर्वकम् । स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्कचमस्थिशुनकादिकम् ॥ ३१॥ श्रुत्वाऽतिकर्कशाक्रन्दविड्वरमायनिःस्वनम् । भुक्त्वा नियमितं वस्तु भोज्येऽशक्यविवेचनैः ॥ ३२ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः । संसृष्टे सति जीवद्भिर्वा बहुभिर्मृतैः । इदं मांसमिति दृष्टसङ्कल्पे चाशनं त्यजेत् ॥ ३३ ॥ , टीका - - त्यजेत् । कोऽसौ, व्रतिकः । किं तत्, अशनं तात्कालिकमेवाहारं, न तु वैकालिकादिकं । किं कृत्वा दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा चेत्यपि द्रष्टव्यं । किं तत् आर्द्रत्यादि -- आईमशुष्कं चर्माजिन, अस्थि च कीकसं, तथा सुरां मद्यं, मांसं पिशितं, असृक् शोणितं, पूयं व्रणादिगतं पक्का, पूर्वशब्दाद्वशांत्रादि तथा स्पृष्ट्वा । किं तत्, रजस्वलां पुष्पवतीं स्त्रीं शुष्के चर्मास्थिनी, शुनकं श्वानं, आदिशब्देन मार्जारश्वपचादि । तथा श्रुत्वा आकर्ण्य । कम्, अतिकर्कशनिःस्वनं अस्य मस्तकं कृन्धि इत्यादिरूपं, आक्रन्दनिःस्वनं हाहेत्याद्यार्तस्वरस्वभावं, बिड्डुरप्रायनिःस्वनं परचक्रागमनातङ्क प्रदपिनादिविषयं । तथा भुक्त्वा शिवा । किं तत् वस्तु । किंविशिष्टं, नियमितं प्रत्याख्यातं । तथा अशनं त्यजेत् । क्व सति, भोज्ये भोक्तव्ये द्रव्ये सति । किंविशिष्टे, संसृष्टे मिलिते | कैः, -जीवैः द्वित्रिचतुरिन्द्रियप्राणिभिः । किं कुर्वद्भिः, जीवद्भिः प्राणद्भिः । किंविशिष्टैः सद्भिः, अशक्यविवेचनैः भोज्यद्रव्यात्पृथक्कर्तुमशक्यैः । वा अथवा संसृष्टैः। कैः, मृतैर्जीवैः । कतिभिः, बहुभिस्त्रिचतुरादिभिः । तथा । इदमित्यादि इदं भुज्यमान वस्तु मांसं सादृश्यात् इदं रुधिरमिदमस्थ्ययं सर्प इत्यादिरूपेण मनसा विकल्प्यमाने भोज्यवस्तुनीत्यर्थः ॥ ३३ ॥ अथाहिंसाणुव्रतशीलत्वेन मौनव्रतं व्याचिख्यासुः पञ्चश्लोकीमाहगृध्यै हुङ्कारादिसञ्ज्ञां संक्लेशं च पुरोऽनु च । मुञ्चन् मौनमदन् कुर्यात्तपःसंयमबृंहणम् ॥ ३४ ॥ टीका - कुर्याद् व्रतिकः । किं तत्, मौनमजल्पनं । किं कुर्वन्, अदन् भोजनं कुर्वन् । पुनः किं कुर्वन्, मुञ्चन् वर्जयन् । कां, हुङ्कारादिसञ्ज्ञां हुङ्कारखात्कारमूघांगुलिचलनादिभिः स्वाभिप्रायज्ञापनं । कस्यै, गृध्यै इष्टभोज्यार्थं । तन्निषेधार्थं तु हुङ्कारादिना सञ्ज्ञाकरणे अपि न दोषः । अथवा गृध्यै भोज १ हुंकारांगुलिखात्कार भ्रूमूर्धचलनादिभिः । मौनं विदधता संज्ञा विधातव्या न गृद्धये ॥ T भ्रूनेत्रहुंकारकरांगुलीभिर्गृद्धिप्रवृत्यै परिवज्ये संज्ञाम् । करोति भुक्तिं विजिताक्षवृत्तिः स शुद्धमौनत्रतवृद्धिकारी ॥ १०५ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ सागारधर्मामृते नाभिकांक्षाप्रवृत्त्यर्थं । तथा मुञ्चन् । कं, संकेशं कोपदैन्याद्यविशुद्धपरिणामं । कथं, पुराऽनु च पूर्व पश्चाच्च । किविशिष्टं मौनं, तपःसंयमबृंहणं इच्छानिरोधस्य प्राणेन्द्रियसंयमस्य च पुष्टिकरम् ॥ ३४ ॥ मौनस्य तपोवर्द्धकत्वं श्रेयःसञ्चायकत्वं च श्लोकद्वयेन समर्थयते-- अभिमानावने गृद्धि-रोधाद्वर्धयते तपः। मौनं तनोति श्रेयश्च-श्रुतप्रश्रयतायनात् ।। ३५ ॥ टीका-वर्धयते । किं तत्,मौनं । किं, तपः । कस्मिन्निमित्ते सति, अभिमानावने अयाचकत्ववतरक्षायां सत्यां । तथा गृद्धिरोधात् भोजनलौल्यप्रति. बन्धाद्धेतोः । तथा तनोति स्फीतीकरोति । किं तत्, मौनं। किं, श्रेयः पुण्यं । कस्मात्, श्रुतप्रश्रयतायनात् श्रुतज्ञानविनयानुबन्धात् ॥ ३५॥ शुद्धमौनान्मनःसिध्या शुक्लध्यानाय कल्पते । वासिध्या युगपत्साधुस्त्रैलोक्यानुग्रहाय च ॥ ३६ ।। टीका-कल्पते सम्पद्यते समर्थो भवति । कोऽसौ, साधुदेशसंयतः संयतश्च । कस्मै, शुक्लध्यानाय । कया, मनःसिध्या चित्तवशीकरणेन । कस्मात्,जातया, शुद्धमौनात् भोजनोंदी निरतिचारमौनव्रतात् । तथा साधुः कल्पते । कस्मै, त्रैलोक्यानुग्रहाय त्रिजगदव्यजनानुपकर्तुं । कथं, युगपत् एककालं । कया, वाक्सिध्दया युगपत्रिजगदनुग्रहसमर्थभारतीविभूत्या ॥ ३८ ॥ नियतकालिकसार्वकालिकमौनयोरुद्योतनविशेषनिर्णयार्थमाह उद्योतनं महेनेकघण्टादानं जिनालये। असार्वकालिके मौने निर्वाहः सार्वकालिके ।। ३७ ।। १ सर्वदा शस्यते जोषं भोजने तु विशेषतः रसायनं सदा श्रेष्ठं सरोगत्वे पुनर्न किम् ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः । टीका - भवति विधीयते वा । किं तत्, उद्योतनं फलातिशयलाभमाहात्म्यापादनं । क, मौने' । किंविशिष्टे, असार्वकालिके यथात्मशक्ति नियतकालं कृते । किं तत्, एकेत्यादि - एकघण्टादानं एकस्या घण्टाया दानं वितरणं । क्व, जिनालये अर्हच्चैत्यगृहे । कथं, सह । केन, महेनोत्सवेन पूजया वा । तथा सार्वकालिके यावज्जीवं प्रतिपन्ने मौने । उद्योतनं भवति । किं तत्, निर्वाहो निराकुलं वहनं । नान्यत् ॥ ३७ ॥ आवश्यकादिषु शक्तितः कृत्वा मौनं सर्वदाऽपि मौनविधानेन वाग्दोषो-च्छेदमाह आवश्यके मलक्षेपे पापकार्ये च वान्तिवत् । मौनं कुर्वीत शश्वद्वा भूयोवाग्दोषविच्छिदे || ३८ ॥ टीका - कुर्वीत । कोऽसौ साधुः । किं तत्, मौनं । क्व, आवश्यके सामयि कादिकर्मषट्टे, तथा मलक्षेपे विण्मूत्रोत्सर्गे तथा पापकायें हिंसादिकर्मणि , १ सन्तोषं भाव्यते तेन वैराग्यं तेन दश्यते । संयमः पोष्यते तेन मौनं येन विधीयते ॥ लौल्यत्यागात्तपोवृद्धिरभिमानस्य रक्षणम् । ततश्च समवाप्नोति मनःसिद्धिं जगत्रये ॥ श्रुतस्य प्रश्रयात् श्रेयःसमृद्धेः स्यात्समाश्रयः । ततो मनुजलोकस्य प्रसीदति सरस्वती ॥ वाणी मनोरमा तस्य शास्त्रसन्दर्भ गर्भिता । आदेया जायते येन क्रियते मौनमुज्ज्वलम् ॥ पदानि यानि विद्यन्ते वन्दनीयानि कोविदैः । सर्वाणि तानि लभ्यन्ते प्राणिना मौनकारिणा ॥ भव्येन शक्तितः कृत्वा मौनं नियतकालिकम् । जिनेन्द्रभवने देया घण्टैका समहोत्सवम् ॥ न सार्वकालिके मौने निर्वाहव्यतिरेकतः । उद्योतनं परं प्राज्ञैः किंचनापि विधीयते ॥ १०७ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सागारधर्मामृते परेण क्रियमाणे, चशब्देन स्नानाशनमैथुनादौ च । यतेस्तु भ्रामरीप्रवेशेऽपि किंवत्, वान्तिवत् । छा यथा छर्दनादनन्तरमाचमनं यावदित्यर्थः । अथवा मौनं कुर्वीत । कथं, शश्वत् नित्यं । किमर्थ, भूय इत्यादि-भूयसां कायदोषापेक्षया बहुतराणां वाग्दोषाणां परुषादिवचनकृतपापासवाणां विच्छेदार्थम् ॥३८॥ अथ सत्याणुनतरक्षणार्थमाह कन्यागोक्ष्मालीककूटसाक्ष्यन्यासापलापवत् ।। स्यात्सत्याणुव्रती सत्यमपि स्वान्यापदे त्यजन् ॥३९॥ टीका--स्यात् । कोऽसौ, व्रतिकः श्रावकः । किंविशिष्टः, सत्याणुव्रती। किं कुर्वन्, त्यजन् वर्जयन् । किं तत्, सत्यमपि चोरे चोरोऽयमित्यादिरूपं तथ्यमपि । किमर्थ, स्वान्यापदे स्वपरविपत्त्यर्थं यत्तथाभूतं तत्सत्यमपि । किंवत्, कन्यालीकादिवत् । यस्मिन्नुक्ते स्वपरयोर्वधबंधादिकं राजादिभ्यो भवति तत्स्थूलासत्यं तादृक् सत्यं च स्वयमवदन् पराँश्चावादयन् सत्याणुव्रती स्यादित्यर्थः । तत्र कन्यालीकं यथा-भिन्नां कन्यामभिन्नां वा विपर्ययं वा वदतो भवति । इदं सर्वस्य कुमारादिद्विपदविषयकस्यालीकस्यापलक्षणं । गवालीक-अल्पक्षीरां गां बहक्षीरां विपर्ययं वा वदत: स्यात् । इदमपि सर्वचतुष्पदविषयालीकस्योपलक्षणं । क्ष्मालीकं-परस्वकामपि भूमिमात्मस्वका विपर्ययं वा वदतो भवेत् । इदं चाशेषपादपाद्यपदद्रव्यविषयालीकस्यापलक्षणं । कन्याउलीकानां च लोकेऽतिगर्हितत्वेन रूढत्वात् द्विपदादिग्रहणं न क्रियते । कन्याद्यलोकत्रयं लोकविरुद्धत्वान्न वाच्यं । कूटसाक्ष्यं-प्रमाणीकृतस्य लञ्चामत्सरादिना कूटं वदतः स्यात् । यथाऽहमत्र साक्षीति । अस्य च परपापसमर्थकत्वविशेषेण पूर्वेभ्यो भेदः । तच्च धर्मविपक्षत्वान्न वदेत् । धयं ब्रूयान्नाधर्म्यमिति विवादिभिरभ्यर्थितत्वात् । न्यासापलापः-न्यस्यते रक्षणार्थमन्यस्मै समय॑त इति न्यासः सुवर्णादिद्रव्यं तदपलापं नालपेत विश्वसितघातकत्वात् । किं चाज्ञानसंशयादिनाऽप्यसत्यं न ब्रूयात्, किं पुना रागद्वेषाभ्याम् ॥ ३९ ॥ लोकव्यवहाराविरोधेन च तदप्रयोगमुपदिशति लोकयात्रानुरोधित्वात्सत्यसत्यादि वाक्त्रयम् । यादसत्यासत्यं तु तद्विरोधान जातचित ॥ ४०॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः। टीका-ब्रूयात् । कोऽसौ, सत्याणुवृती । किं तत्, सत्यसत्यादिवाक्त्रयं वक्ष्यमाणलक्षणं । कस्मात्, लोकयात्रानुरोधित्वात् लोकव्यवहारविसंवादित्वात् । न तु ब्रूयात् । किं तत्, असत्यासत्यं । कथं, जातुचित् कदाचिदपि । कस्मात्, ताद्वरोधात् लोकयात्राविप्रलम्भनात् ॥ ४० ॥ सत्यसत्यादीनि श्लोकत्रयेण लक्षयन्नाह यद्वस्तु यद्देशकाल-प्रमाकारं प्रतिश्रुतम् । तस्मिंस्तथैव संवादि सत्यसत्यं वचो वदेत् ॥ ४१ ॥ टीका-वदेत् सत्याणुव्रती । किं तत्, वचः । किंविशिष्टं, सत्यसत्यं । किंलक्षणं, संवादि तथाभूतं । क्व, तस्मिन् प्रतिज्ञाते वस्तुनि । कथं, तथैव तेनैव तद्देशकालपरिणामरूपत्वेन प्रकारेण । यत्किं, यद्वस्तु । प्रतिश्रुतं प्रतिज्ञातं । किंविशिष्टं, यद्देशकालप्रमाकारं प्रमा परिमाणं संख्या च, आकारो वर्णसंस्थानादिरूपं, देशश्च कालश्च प्रमा च आकारश्च देशकालप्रमाकाराः प्रतिज्ञाविषयीकृता यस्य च तत्तथोक्तम् ॥ ४१ ॥ असत्यं वय वासोऽन्धो रन्धयेत्यादि सत्यगम् । वाच्यं कालातिक्रमेण दानात्सत्यमसत्यगम् ॥ ४२ ॥ टीका-वाच्यं वक्तव्यं सत्याणुव्रतिना । किं तद्वचः । किंविशिष्टं, असत्यं किंविशिष्टं सत्, सत्यं सत्याश्रितं । असत्यमपि किञ्चित्सत्यमेवेत्यर्थः । तदेव वयेत्यादिना दर्शयति-भोः कुविन्द वय आतानवितानीभावरूपतया आसूत्रय त्वं । किं तद्वासो वस्त्रं । वस्त्रनिर्माणयोग्यतन्तुषु वस्त्रशब्दप्रयोगादसत्यत्वं तथा भो भक्तक रन्धय पच त्वं । किं तत्, अन्धः क्रूरं । अन्धोयोग्यतण्डुलेष्व. न्धशब्दप्रयोगादसत्यत्वं । आदिशब्दाभोः पेषक कणिकां पिष्टीत्यादिरूपं ग्राह्य। अत्र तत्तच्छब्दावाच्यत्वेऽपि लोके तथाव्यवहारात्सत्यत्वं । इदमसत्यसत्यं ॥ तथा वाच्यं । किं तत् , सत्यं । किंविशिष्टं, असत्यगं सत्यासत्यमित्यर्थः । कुतः, सम्भवद्दानात् वितरणात् । केन, कालातिक्रमेण । यथा अर्द्धमासतमे दिवसे तेवेदं देयमित्यास्थाय मासतमे संवत्सरतमे वा दिवसेदातीति । अत्र दाना Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सागारधर्मामृते व्यभिचारात्सत्यत्वं । प्रतिपन्नतत्कालव्यभिचाराचासत्यत्वं । इदमपि लोके तथा व्यवहारात्वचिद्वक्तव्यम् ॥ ४२ ॥ यत्स्वस्य नास्ति तत्कल्ये दास्यामीत्यादिसंविदा । व्यवहारं विरुधानं नासत्यासत्पमालपेत् ॥ ४३ ॥ टीका-न आलपेत् न ब्रूयात् सत्याणुव्रती । किं तत्, असत्यासत्यं वचः । किं कुर्वाणं, विरुधानं बाधमानं । कं, व्यवहारं लोकयात्रां। कया,यदित्यादियद्वस्तु नास्ति । कस्य, स्वस्यात्मनः सम्बन्धी । तदास्यामि तुभ्यं वितरिप्यामि । कदा, कल्ये प्रातः । इत्यादिरूपया संविदा प्रतिज्ञया ॥ ४३ ॥ सावद्यव्यतिरिक्तानृतपञ्चकस्य नित्यं वर्जनयित्वमाह भोक्तं भोगोपभोगाङगमात्रं सावद्यमक्षमाः। ये तेऽप्यन्यत्सदा सर्व हिंसेत्युज्झन्तु वाऽनृतम् ॥ ४४ ॥ टीका-अबायोग्याविशेषवचनवाच्यतानिवृत्तावशक्तान् प्रति सावधविशेषवक्तव्यतानुवृत्त्यर्थों वाशब्दः किं बहुनेत्यर्थः । वा किं बहुना । उज्झन्तु त्यजन्तु । के, तेऽपि धर्मैषिणः । किं नत्, अनृतं । किंविशिष्टं, अन्यत् सावधव्यतिरिक्तं सदपलपनादि । कियत्, सर्व पञ्चधाऽपि । कथं, सदा नित्यं । कथं कृत्वा, हिंसति यतः सर्वमनृतं हिंसापर्यायत्वाद्धिसैव प्रमादयोगाविशेषात् । यत्र तु प्रमत्तयोगो नास्ति तद्धियाऽनुष्टानाद्यनुवदनं नासत्यं । एतेनेदमपि संगृहीतं‘सा मिथ्याऽपि न गीमिथ्या या गुर्वादिप्रसादिनी ' इति । के ते, इत्याह-ये भवंति । किंविशिष्टा, अक्षमा असमर्थाः । किं कर्तु, मोक्तुं त्यक्तुं । किं तत्, सावयं वचः क्षेत्रं कृषेत्यादिरूपं प्राणिबधादिप्रवर्तकं । किंविशिष्टं सत्, भोगोपभोगाङ्गमात्रं भोगो भोजनादिः, उपभोगः काभिन्यादिः भोगश्चोपभोगश्च भोगोपभोगौ तयोरङ्गं साधनं तदेव तन्मात्रं न पुनस्तदसाधनं । सावद्यं वचःतत्र नास्त्यात्मेत्यादि सदपलपन । सर्वगत आत्मा श्यामाकतण्डुलमानो वेत्यादिकमसदुद्भावनं । गामश्वमभिवदतो विपरीतं । काणं काणमभिदधानस्याप्रियं अरे बान्धकिनेय इत्यादि गर्हितं साक्रोशमित्यन्यत् ॥४४॥ ___ www Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः । १११ सत्याणुव्रतस्य पञ्चातिचारान् हेयत्वेनाह मिथ्यादिशं रहोऽभ्याख्यां कूटलेखक्रियां त्यजेत् । न्यस्तांशविस्मत्रनुज्ञा मन्त्रभेदं च तद्वतः ॥ ४५ ॥ टीका-त्यजेत् । कोऽसौ, तद्रतः । तत्स्थूलालीकादिवचनविरतिलक्षणं व्रतं यस्यासौ सत्याणुव्रतीत्यर्थः । किं तत्, मिथ्यादिशमित्यादि पञ्चकं । तत्र मिथ्यादिक मिथ्योपदेशः । अभ्युदयनिःश्रेयसार्थेषु क्रियाविशेषेष्वन्यस्यान्यथा प्रवर्तनं । परेण• सन्देहापन्नेन पृष्ठेऽज्ञानादिनाऽन्यथाकथनमित्यर्थः । अथवा प्रतिपन्नसत्यव्रतस्य परपीडाकरं वचनमसत्यमेव । ततः प्रमादात्परपीडाकरणे उपदेशे अतिचारो यथा वाह्यन्तां खरोष्ट्रादयो हन्यन्तां दस्यव इति निष्प्रयोजनं वचनं । यद्वा विवादे स्वयं परेण चाऽन्यतरातिसन्धानोपायोपदेशो मिथ्योपदेशः ॥ रहोऽभ्याख्या--रहस्येकान्ते स्त्रीपुम्भ्यामनुष्टितस्य क्रियाविशेषस्याभ्याख्या प्रकाशनं यया दम्पत्योरन्यस्य वा पुंसः स्त्रिया वा रागप्रकर्ष उत्पद्यते । सा च हास्यक्रीडादिनैव क्रियमाणोऽतिचारो न त्वभिनिवेशेन । तथा सति व्रतभङ्ग एव स्यात् ॥ कूटलेखक्रियाअन्येनानुक्तमननुष्टितं च यत्किञ्चित्तस्य परप्रयोगवशादेवं तेनोक्तमनुष्टितं चेति वञ्चनानिमित्तं लेखनं । अन्यसरूपाक्षरमुद्राकरणमित्यन्ये । न्यस्ताशविस्मर्त्रनुज्ञा-न्यस्तस्य निक्षिप्तस्य हिरण्यादिद्रव्यस्य अंशमेकमंशं विस्मतुर्विस्मरणशीलस्य निक्षेप्तुरनुज्ञा । द्रव्यमरॉनिक्षेप्तुर्विस्मृततत्संख्यस्याल्पसंख्यं तद्गृह्नत एवमित्यनुमतिवचनं । सोऽयं न्यासापहाराख्योऽतिचारः ॥ मन्त्रभेदः अङ्गविकारभ्रूक्षेपादिभिः पराभिप्रायं ज्ञात्वाऽसूयादिना तत्प्रकटनं। विश्वसितमित्रादिभिर्वा आत्मना सह मन्त्रितस्य लज्जादिकरस्यार्थस्य प्रकाशनं ॥ यत्तु“मन्त्रभेदः परीवादः पैशून्यं कूटलेखनम् । मुधा साक्षिपदोक्तिश्च सत्यस्यैते बिधातकाः' ॥ इति यशस्तिलके अतिचारान्तरवचनं तत्परेऽप्यूह्यास्तदात्यया इत्यनेन संगृहीतं प्रतिपत्तव्यम् ॥ ४५ ॥ अथाचौर्याणुव्रतलक्षणार्थमाह चौरव्यपदेशकरस्थूलस्तयवतो मृतस्वधनात् । परमुदकादेश्वाखिलभोग्यान हरेददीत न परस्वम्॥४६॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सागारधर्मामृते टीका- न हरेत् न गृह्णीयात् । नापि ददीत न परस्मै वितरेत् । कोऽसौ । चौरेत्यादि - चौरोऽयमुपलक्षणाद्धर्मपातकोऽयं बधकारो अयमित्यादिव्यपदेशं नाम करोतीति चौरादिव्यपदेशकरं, स्थूलस्तेयं बादरचौर्यं खात्रखननादिकं, तत्पूर्वमदत्तादानं वा, तत्र व्रतं नियमस्तस्माद्वा व्रतं निवृत्तिर्यस्य स तथोक्तोऽ चौर्याणुव्रतीत्यर्थः । किं तत् परस्वं परस्य धनं चेतनमचेतनं वा द्रव्यं सामर्थ्याददत्तं तस्यैव परस्वामिकत्वोपपत्तेर्दत्तस्य च स्वस्वामिकत्वसम्भवात् ॥ किंविशिष्टं, परमन्यत् । कस्मात् मृतस्वधनात् मृतश्चासौ स्वो ज्ञातिश्च मृतस्वः अर्थात्पुत्रादिरहितो लोकान्तरप्राप्तो बन्धुस्तस्य धनं तस्मात्, अन्यत् जीवतां ज्ञातीनामित्यर्थः । न केवलं ततः परं उदकादेश्व तोयतृणप्रभृतेश्च । किंविशिष्टात्, अखिलभोग्यात् अखिलैः सर्वैः स्थिरैरागन्तुभिश्च लोकैभाक्तुं योग्यत्वेन राजादिसमुत्कलितात् ॥ ४६ ॥ प्रमत्तयोगात्परकीय तृणस्याप्यदत्तस्यादाने दाने चाचार्यव्रतभङ्गं दर्शयति संक्लेशाभिनिवेशेन तृणमप्यन्यभर्तृकम् । अदत्तमाददानो वा ददानस्तस्करो ध्रुवम् ॥ ४७ ॥ टीका - ध्रुवं निश्चितं भवति ! कोऽसौ पुरुषः । कीदृशः, तस्करचौरः । किं कुर्वाणः, आददानः आत्मसात्कुर्वन् । ददानो वा परस्मै प्रयच्छन् । किं तत्, तृणमपि किं पुनः सुवर्णादिकं । किंविशिष्टं, अन्यभर्तृकं अन्यः स्वस्मात्परो भर्ता स्वामी यस्य तदन्यभर्तृकमन्यदीयमित्यर्थः । किंविशिष्टं सत्, अदत्तं तत्स्वा - मिना अवितीर्णं । केन, संक्लेशाभिनिवेशेन रागाद्यावेशेन । एतेनेदमुक्तं भवति - प्रमत्तयोगे सत्येवादत्तस्यादाने दाने वा चौर्य स्यान्नान्यथा ॥ ४७ ॥ निधानादिधनं राजकीयत्वसमर्थनेन व्रतयन्नाह स्वामिकमिति ग्राह्यं निधानादिधनं यतः । धनस्यास्वामिकस्येह दायादो मेदिनीपतिः ॥ ४८ ॥ टीका- न ग्राह्यं नादेयमचौर्याणुव्रतिना । किं तत्, निधानादि धनं नदीगुहाविवराकरादिस्थितं द्रव्यं । कथं कृत्वा, अस्वामिकमिति नास्य कश्चित् स्वमीति परस्वं न भवतीति सङ्कल्प्य । कुतः, इत्याह यतो यस्मात् । भवति । कोऽसौ, Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः। ११३ मेदिनीपतिः राजा । कीदृशः, दायादः साधारणः स्वामी । कस्य, धनस्य । कीदृशस्य, अस्वामिकस्य स्वामिरहितस्य । क्व, इह लोके ॥४८॥ स्वामिसांशयिके स्वधनेऽपि नियमं कारयन्नाह खमपि स्वं मम स्याद्वा न वेति द्वापरास्पदम् । यदा तदाऽऽदीयमानं व्रतभङ्गाय जायते ।। ४९ ॥ टीका--जायते सम्पद्यते । किं तत्, स्वमपि स्वं आत्मीयमपि द्रव्यं । कस्मै, व्रतभङ्गाय अचौर्यव्रतभङ्गं करोतीत्यर्थः । किं क्रियमाणं, दीयमानं आकारप्रश्लेषादादीयमानं च । कदा, तदा तस्मिन् काले । यदा यस्मिन् काले भवति । किं तत् , स्वमपि स्वं । किंविशिष्टं, द्वापरास्पदं संशयस्थानं । कथं कृत्वा, इदं धनं मम स्याद्भवेद्वा न वा स्यादित्येवं ॥ ४९ ॥ अचौर्याणुव्रतातिचारप्रहाणार्थमाह--- चोरप्रयोगचोराहतग्रहावधिकहीनमानतुलम् । प्रतिरूपकव्यवहृति विरुद्धराज्येऽप्यतिक्रमं जह्यात्॥५०॥ टीका-जह्यात् त्यजेत् । कोऽसौ,अचौर्याणुव्रती । किं तत् , चोरप्रयोगाद्यतिचारपञ्चकमिति समन्वयः । तत्र चोरप्रयोगः-चोरयतः स्वयमन्येन वा चोरय त्वमिति चोरणक्रियायां प्रेरणं । प्रेरितस्य वा साधु करोषीत्यनुमननं । कुशिकाकर्तरिकाघर्धरिकादिचोरोपकरणानां वा समर्पणं विक्रयणं वा । अत्र च यद्यपि चौर्य न करोमि न कारयामीत्येवं प्रतिपन्नव्रतस्य चोरप्रयोगो व्रतभङ्ग एव तथाऽपि किमधुना यूयं निर्व्यापारास्तिष्टथ, यदि वो भक्तादिकं नास्ति तदाऽहं तद्ददामि, भवदानीतमोषस्य वा यदि क्रेता नास्ति तदाऽहं विक्रेष्ये इत्येवंविधवचनैश्चौरान व्यापारयतःस्वकल्पनया तद्वयापारणं परिहरतो व्रतसापेक्षस्यासावतिचारः । चौराहतग्रहः-अप्रेरितेनाननुमतेन च चौरेणानीतस्य कनकवस्त्रादेरादानं मूल्येन मुद्रिकया वा। चौरानीतं च काणक्रयेण मुद्रिकया वा प्रच्छन्नं गृह्णश्चौरो भवति ततश्चौर्यकरणाद्रतभङ्गः । वाणिज्यमेव मया क्रियते न चौरिकेत्यध्यवसायेन व्रतसापेक्षत्वादभङ्ग इति भङ्गाभङ्गरूपोऽतिचारः ॥ अधिकहीनमानतुलं-मानं प्रस्थादि हस्तादि च। तुला Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सागारधर्मामृते उन्मानं । मानं च तुला च मानतुलं, अधिकं च हीनं चाधिकहीनं तच्च तन्मानतुलं च, अधिकमाने हीनमानं, अधिकतुला हीनतुला चेत्यर्थः । तत्र न्यूनेन मानादिनाऽन्यस्मै ददाति, अधिकेनात्मनो गृह्णातीत्येवमादिकूटप्रयोगो हीनाधिकमानोन्मानमित्यर्थः ॥ प्रतिरूपकव्यवहृतिः - प्रतिरूपकं सदृशं ब्रीहीणां पलंजि, घृतस्य वसा, हिङ्गोः खदिरादि वेष्टस्तैलस्य मूत्रं, जात्य सुवर्णरूप्य योयुक्तसुवर्णरूपये, इत्यादिप्रतिरूपकेण व्यवहृतिर्व्यवहारो ब्रीह्यादिषु पलंज्यादि प्रक्षिप्य तद्विक्रयणं । एतत् द्वयं परधनग्रहणरूपत्वाद्भङ्ग एव । केवलं खात्रखननादिकमेव चौर्य प्रसिद्धं । मया तु वणिक्कलैव कृतेति भावनया व्रतरक्षणोद्यतत्वादतिचार एवेति । विरुद्ध राज्येऽप्यतिक्रमः । अपिः समुच्चये । विरुद्धं विनष्टं विगृहीतं वा राज्यं राज्ञः पृथ्वीपालनोचितं कर्म विरुद्वराज्यं छतभङ्गः पराभियोगो वेत्यर्थः । तत्रातिक्रम उचितन्यायादन्येनैव प्रकारेणार्थस्य दानग्रहणं । विरुद्धराज्येऽ ल्पमूल्यलभ्यानि महायणि द्रव्याणि इति प्रयततः । अथवा विरुद्वयोरर्थाद्राज्ञो राज्यं नियमिता भूमिः कटकं वा विरुद्वराज्यं तत्र । षष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रति भेदाभावात् । तस्यातिक्रमो व्यवस्थालंघनं । व्यवस्था च परस्परविरुद्धराजकत्वे एव । तल्लंघनं चान्यतरराज्यनिवासिन इतरराज्ये प्रवेश: । इतरराज्यनिवासिनो वा अन्यतरराज्ये प्रवेशः । विरुद्धराज्यातिक्रमस्य च यद्यपि स्वस्वामिनोऽननुज्ञातस्यादत्तादानलक्षणयोगेन तत्कारिणां च चौर्यदण्डयोगेन चौर्यरूपत्वाद्रतभङ्ग एव, तथाऽपि विरुद्धराज्यातिक्रमं कुर्वता मया वाणिज्यमेव कृतं न चौर्यमिति भावनया व्रतसापेक्षत्वाल्लोके च चोरोऽयमिति व्यपदेशाभावादतिचारता स्यात् । अथवा चोरप्रयोगादयः पञ्चाप्येते व्यक्तचौर्यरूपा एव । केवलं सहकारादिना वा प्रकारेण क्रियमाणास्तेऽतिचारतया व्यपदिश्यन्ते । न चैते राज्ञां तत्सेवकादीनां वा न सम्भवन्तीति वाच्यम् । यतः प्रथमो द्वितीयः स्पष्ट एव । तृतीयस्तुर्यश्च यदा राजा भाण्डागारे हीनाधिकमानोन्मानं द्रव्याणां विनिमयं च कारयति तदा राज्ञोऽप्यतिचारौ स्तः । विरुद्वराज्यातिक्रमस्तु यदा सामन्तादिः कश्चित् स्वस्वामिनो वृत्तिमुपजीवति तद्विरुद्वस्य च सहायो भवति तदा अस्यातिचारः स्यात् । सोमदेवपण्डितस्तु मानन्यूनत्वाधिकत्वेन द्वावतीचारौ मन्यमान इदमाह - मानवन्न्यूनताधिक्ये तेनकर्म ततो ग्रहः । विग्रहो संग्रहोऽर्थस्यास्तेयस्यैते निवर्तकाः ॥ ५० ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः। ११५ अथ स्वदारसन्तोषाणुव्रतस्वीकारविधिमाह प्रतिपक्षभावनैव न रती रिरंसारुजि प्रतीकारः। इत्यप्रत्ययितमनाः श्रयत्वहिंस्रः स्वदारसन्तोषम् ॥५१॥ टीका-श्रयतु स्वीकरोतु । कोऽसौ, अहिंस्रः ईषद्विसनशीलोऽणुवती । कं, स्वदारसन्तोषं स्वदारेषु स्वभार्यायां स्वदारैर्वा सन्तोषो मैथुनसज्ञावेदनाशान्त्या देहमनसोः स्वास्थ्यापादनं । किंविशिष्टः सन्, अप्रत्ययितमनाः प्रत्ययो विश्वासः प्रत्ययः सजातोऽस्येति प्रत्ययितं न प्रत्ययितमप्रत्ययितं मनो यस्यासावप्रत्ययितमना असञ्जातविश्वासचित्त इत्यर्थः । कथं, इति अनेन सदुपदेशप्रकारेण। तमेव दर्शयति-भवति । कोऽसौ, प्रतीकारः प्रशमनोपायः । कस्यां रिरंसारुजि योन्यादौ रन्तुमिच्छारूपायां वेदनायां । किं प्रतीकारः, प्रतिपक्षभावनैव ब्रह्मचर्यस्य प्रागुक्तविधिना पुनश्चेतसि सन्निवेशनमेव । न पुनर्भवति तत्र प्रतीकारः । किं, रतिः स्त्रीसम्भोगः ॥ ५१ ॥ स्वदारसन्तोषिणं व्याचष्टे सोऽस्ति स्वदारसन्तोषी योऽन्यस्त्रीप्रकटस्त्रियौ। न गच्छत्यंहसो भीत्या नान्यैर्गमयति त्रिधा ॥ ५२ ॥ टीका-अस्ति भवति । कोऽसौ, स गृहाश्रमी । कीदृशः, स्वदारसन्तोषी स्वदारेषु निजधर्मपत्न्यां सन्तुष्यति मैथुनसज्ञा प्रतिचिकीर्ष यन् भजतीत्येवं. व्रतः । स्वदारेषु सन्तोषोऽस्यास्तीति वा । यः किं, यः न गच्छति न भजति । के, अन्यस्त्रीप्रकटस्त्रियौ अन्यस्त्री परदाराः परिगृहीता अपरिगृहीताश्च । तत्र परिगृहीताः सस्वामिका अपरिगृहीता स्वैरिणी प्रोषितभर्तृका कुलाङ्गना वा अनाथा। कन्या तु भाविभर्तृकत्वात्पित्रादिपरतन्त्रत्वाद्वा सनाथेत्यन्यस्त्रीतो . न विशिष्यते । प्रकटस्त्री वेश्या । अन्यस्त्री च प्रकटस्त्री च अन्यस्त्रीप्रकटस्त्रियो। ते द्वे अपि यो न भजति । कया, भीत्या भयेन । कस्मात्, अंहसः पापात् न राजादेः । नापि यो गमयति उपभोजयति । के, ते द्वे । कैः कर्तृभिः, अन्यैः परदारादिलम्पटैः । कथं, त्रिधा मनोवाकायैः कृतकारिताभ्यामनुमत्याऽपि वा । तदेतद्ब्रह्माणुव्रतं निरतिचारं मद्यामिपक्षौद्रपञ्चोदुम्बरविरंतिलक्षणाष्टमूल Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते min marrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. गुणान् प्रतिपन्नवतो विशुद्धसम्यग्दृशः श्रावकस्योपदिश्यते । यस्तु स्वदारव साधारणस्त्रियोऽपि व्रतयितुमशक्तः परदारानेव वर्जयति सोऽपि ब्रह्माणुव्रतीप्यते । द्विविधं हि तद्गतं । स्वदारसन्तोषः परदारवर्जनं चेति । एतच्चान्यस्त्रीप्रकटस्त्रियाविति स्त्रीद्वयसेवाप्रतिषेधोपदेशाल्लभ्यते । तत्राद्यमभ्यस्तदेशसंयमस्य नैष्टिकस्येष्यते । द्वितीयं तु तदभ्यासोन्मुखस्य । तदाह श्रीसोमदेवपण्डितःवधूवित्तस्त्रियो मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने । माता स्वसा तनूजेति मतिब्रह्म गृहाश्रमे । यस्तु-पंचुंबरसहियाइं सत्त वि वसणाइ जो विवजेइ । सम्मत्तविसुद्धमई सो दसणसावओ भणिओ ॥ इति वसुनन्दिसैद्धान्तिमतेन दर्शनप्रतिमायां प्रतिपन्नस्तस्येदं ॥ तन्मतेनैव व्रतप्रतिमां बिभ्रतो ब्रह्माणुव्रतं स्यात् तद्यथा-पव्वेसु इथिसेवा अणंगकीडा सया विवजेइ ॥ थूळअड वंभयारी जिणेहिं भणिदो पवयणम्मि ॥ यस्तु “सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिविण्णः। पञ्चगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्य इति” । स्वामिमतेन दर्शनिको भवेत्तस्येदं ब्रह्माणुव्रतमतिचारवर्जनार्थमेवानानूद्यते ॥ ५२ ॥ ___ अथ यद्यपि गृहस्थस्य प्रतिपन्नं व्रतमनुपालयतो न तादृशः पापबन्धोऽस्ति तथापि यतिधर्मानुरक्तत्वेन तत्प्राप्तेः प्राग्गार्हस्थ्येऽपि कामभोगविरक्तः सन् श्रावकधर्म प्रतिपालयति तं वैराग्यकाष्टामुपनेतुं सामान्येनाब्रह्मदोषानाह सन्तापरूपो मोहाङ्गसादतृष्णानुबन्धकृत् । स्त्रीसम्भोगस्तथाऽप्येष सुखं चेत्का ज्वरेऽक्षमा ॥५३॥ टीका--भवति । कोऽसौ, स्त्रीसम्भोगः । कीदृशः, सन्तापरूपः स्त्रीसम्पकस्य पित्तप्रकोपहेतुत्वात्सन्तापयतीति सन्तापः सन्तापकरं रूपं यस्य स सन्तापरूपः ज्वरपक्षे तु सन्तपनं सन्तापः संज्वरः स एव रूपमस्येति विग्रहः। तथा चोक्तं सन्तापात्कोपजो ज्वर इति । पुनः कीदृशः, मोहेत्यादि-मोहो हिताहितविवेकविकलत्वं, अंगसादः शरीरनिःसहत्वं तृष्णानुबन्धः तर्षाविच्छेदः पक्षे पिपासासातत्यं मोहश्चांगसादश्च तृष्णानुबन्धश्च मोहांगसादतृष्णानुबंधास्तान् करोति । यद्यप्येवंविध एष तथाऽपि सुखं चेत् मन्यसे भो आत्मन् तदा न काऽपि त्वया कार्या । काऽसौ, अक्षमा । क, ज्वरे ज्वरोऽपि सुखं मन्तव्य इति भावः । तथा चोक्तमार्ष-स्त्रीभोगो न सुखं चेतस्सम्मोहागात्रसादनात् । तृष्णानुबन्धात्सन्तापरूपत्वाच्च यथा ज्वरः ॥ ५३ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः। ११७ परदाररतौ सुखाभावमुपदिशतिसमरसरसरङ्गोद्गममृते च काचित्क्रिया न निवृतये । स कुतः स्यादनवस्थितचित्ततया गच्छतः परकलत्रम्॥५४॥ टीका-न च भवति । काऽसौ, क्रिया प्रवृत्तिः । किंविशिष्टा, काचित् आलिंगनचुम्बनादिका । कस्यै, निवृतये सुखार्थं । कथं, ऋते विना । कं, समरसरसरंगोद्गमं । समसमायोगं समानरतिमित्यर्थः । कुतः, स्यान्न कुतश्चि. गवेदित्यर्थः । कोऽसौ, समरसरसरंगोद्गमः । कस्य, पुंसः । किं कुर्वतो, गच्छतः सेवमानस्य । किं तत्, परकलत्रं । कया, अनवस्थितचित्ततया स्वपरजनशंकातंकाकुलितमनस्कतया ॥ ५४ ॥ स्वदाररतस्यापि भावतो द्रव्यतश्च हिंसासम्भवं नियमयति-- स्त्रियं भजन भजत्येव रागद्वेषौ हिनस्ति च । योनिजन्तून् बहून् सूक्ष्मान् हिंस्रः स्वस्त्रीरतोऽप्यतः॥५५॥ टीका-भवति । कोऽसौ, नरः। किंविशिष्टः, हिंस्रः । भावव्याभ्यां हिंसनशीलः । किंविशिष्टोऽपि, स्वस्त्रीरतोऽपि स्वस्त्रियां रतं मैथुनं यस्य सोऽपि विशेषतस्तु परस्त्रीरतः । तत्र रागद्वेषयोबहुतरत्वसम्भवात् । कस्मादत एतस्मात्कारणात् । यतो भजत्येव अवश्यमाश्रयति । कोऽसौ, स्त्रियं भजन स्त्रियं सेवमानः पुमान् । कौ, रागद्वेषौ प्रीत्यप्रीती। तथा हिनस्ति हन्ति । कान्, योनिजन्तून् भगजीवान् । किंविशिष्टान् , सूक्ष्मान् दुर्लक्ष्यान् । कति, बहुन् प्रचुरान् । वात्स्यायनोऽपि योनौ जन्तूनिच्छति तथा च तद्ग्रन्थ:" रक्तजाः कृमयः सूक्ष्मा मृदुमध्यादिशक्तयः । जन्मवर्त्मसु कण्डूतिं जनयन्ति तथाविधाम्" ॥ ५५ ॥ ब्रह्मचर्यमहिमानमभिष्टौति-- स्वस्त्रीमात्रेऽपि सन्तुष्टो नेच्छेद्योऽन्याः स्त्रियः सदा । सोऽप्यद्भुतप्रभावः स्यात् किं वयं वर्णिनः पुनः ॥ १६ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते ११८. टीका -- यो नेच्छेत् नाभिलषेत् । काः, स्त्रियः नारीः । किंविशिष्टाः, अन्याः स्वस्त्रीतो व्यतिरिक्ताः । किंविशिष्टः सन् सन्तुष्टः सन्तोषं गतः । केन, स्वस्त्रीमात्रेण निजनार्यैव । स्यात् । कोऽसौ सोऽपि स्वदारसन्तुष्टोऽपि । किंविशिष्टः, अभ्दुतप्रभावो लोकविस्मयनीयमाहात्म्यः । किं वर्ण्य । किं माहात्म्यं स्तुत्यं । कस्य, वर्णिनः सर्वस्वीनिवृत्तस्य । कथं, पुनः प्राग्वर्णितप्रायत्वादित्यर्थः ॥ ५६ ॥ इदानीं स्वभर्तृमात्रसेवनव्रतायाः स्त्रिया बहुमान्यतां दृष्टान्तेन स्पष्टयतिरूपैश्वर्य कलावर्यमपि सीतेव रावणम् । परपुरुषमुज्झन्ती स्त्री सुरैरपि पूज्यते ॥ ५७ ॥ I टीका -- पूज्यते सत्क्रियते । काऽसौ, स्त्री । कैः, सुरैर्देवैः किं पुनर्मनुष्यादिभिरित्यपिशब्दार्थः । किं कुर्वती, उज्झन्ती व्रतयन्ती । कं, परपुरुषं स्वभ र्तुरन्यं पूरुषं । अत्र हेतौ शतृङ्, परपुरुषोज्झनेन सुरपूजाया जन्यत्वात् - किंविशिष्टमपि रूपेत्यादि -- रूपमाकारसौन्दर्यं ऐश्वयं पूजार्थाज्ञाधिपत्यं कला गीतनृत्यादिकाः । रूपं चैश्वर्यं च कलाश्च ताभिर्वर्यमुत्कृष्टमसाधारणरूपा-दिमन्तमित्यर्थः । अपिर्विस्मये । केव कमित्याह- सीतेव रावणं जानकी. यथा लंकेश्वरम् ॥ ५७ ॥ ब्रह्माणुव्रतातिचारानाह- इत्वरिकागमनं परविवाहकरणं विटत्वमतिचाराः । स्मरतीव्राभिनिवेशोऽनङ्गक्रीडा च पञ्च तुर्ययमे ॥ ५८ ॥ टीका --- इत्वरिकागमनादयः पञ्चातिचारास्तुर्ययमे सार्वकालिकब्रह्मचर्या - ते भवन्तीति सम्बन्धः । तत्रेत्वरिकागमनं अस्वामिका असती गणिकात्वेन पुंश्चलित्वेन वा पुरुषानेति गच्छतीत्येवंशीला इत्वरी । तथा प्रतिपुरुषमेतीत्येवंशीलेति व्युत्पत्त्या वेश्यापीत्वरी । ततः कुत्सायां के इत्वरिका तस्यां गमनमा सेवनं । इयं चात्र भावना - भाटिप्रदानान्नियतकालस्वीकारेण स्वकलत्रीकृत्य वेश्यां वेत्वरिकां सेवमानस्य स्वबुद्धिकल्पनया स्वदारत्वेन व्रतसापे. क्षचित्तत्वादल्पकालपरिग्रहाच्च न भंगो वस्तुतोऽस्वदारत्वाच्च भंग इति भंगा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः। ११९ भंगरूपत्वादित्वरिकाया वेश्यात्वेनान्यस्यास्त्वनाथतयैव परदारत्वात् । किं चास्य भाव्यादिना परेण किञ्चित्कालं परिगृहीतां वेश्यां गच्छतो भंगः कथञ्चित्परदारत्वात्तस्याः । लोके तु परदारत्वारूढेर्न भंग इति भंगाभंगरूपोऽ तिचारः । अन्ये त्वपरिगृहीतकुलांगनामप्यन्यदारवर्जिनोऽतिचारमाहुः । तत्कल्पनया परस्य भर्तुरभावेनापरदारत्वादभङ्गो लोके च परदारतया रूढे. भंग इति भङ्गाभङ्गरूपत्वात्तस्य । एतेनेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनलक्षणमतिचारद्वयं तत्वार्थशास्त्रोद्दिष्टमपि संगृहीतं भवति । परविवाहकरणादयस्तु चत्वारो द्वयोरपि स्फुरन्तीति प्रथमोऽतिचारः ॥ १॥ _परविवाहकरणं-स्थापत्यव्यतिरिक्तानां कन्याफललिप्सया स्नेहसम्बन्धादिना वा परिणयनविधानं । एतच्च स्वदारसन्तोषवता स्वकलत्रेतरदारवर्जन च स्वकलत्रवेश्याभ्यामन्यत्र मनोवाक्कायमैथुनं न कार्य न च कारणीयमिति व्रतं यदा गृहीतं भवति तदाऽन्यविवाहकरणं मैथुनकरणमित्यर्थतः प्रतिषिद्धमेव च भवति । तद्रती तु मन्यते विवाह एवायं मया क्रियते न मैथुनं कार्यत इति व्रतसापेक्षत्वादतिचारः । कन्याफललिप्सा च सम्यग्दृष्टेरप्युत्पजावस्थायां सम्भवति । मिथ्यादृष्टेस्तु भद्रकावस्थायामनुग्रहार्थं व्रतादाने सा सम्भवति । ननु परविवाहूनवत् स्वापत्यविवाहनेऽपि समान एव दोष इति चेत् सत्यं । किं तर्हि यदि स्वकन्याविवाहो न कार्यते तदा स्वच्छन्दचारिणी स्यात् । ततश्च कुलसमयलोकविरोधः स्यात् । विहितविवाहात्तु पतिनियतस्त्रीत्वेन न तथा स्यात् । एष न्यायः पुत्रेऽपि विकल्पनीयः । यदि पुनः कुटुम्बचिन्ताकारकः कोऽपि स्वभ्रात्रादिर्भवेत्तदा स्वापत्यविवाहनेऽपि नियम एव श्रेयान् । यदा तु स्वदारसन्तुष्टो विशिष्टसन्तोषाभावात् अन्यत्कलत्रं परिणयति तदाऽप्यस्यायमतिचारः स्यात् । परस्य कलत्रान्तरस्य विवाहकरणमात्मना विवाहनमिति व्याख्यानादिति द्वितीयोऽतिचारः ॥ २ ॥ विटत्वं भण्डिमा तत्प्रधानवाक्प्रयोगः ॥ ३ ॥ स्मरतीब्राभिनिवेशः-कामे. तिमात्रमाग्रहः। परित्यक्तान्यसकलव्यापारस्य तब्यवसायितेत्यर्थः । यथा मुखकक्षोपस्थान्तरेष्ववितृप्ततया लिङ्गं प्रक्षिप्य महती वेलां निश्चलो मृत इवास्ते । चटक इव चटकां मुहुर्मुहुः स्त्रियमारोहति । जातबलक्षयश्च वाजीकरणान्युपयुङ्क्ते । अनेन खल्वौषधादिप्रयोगेण गजप्रसेकी तुरगावमर्दी च पुरुषो भव तीति बुध्द्या इति चतुर्थः ॥ ४ ॥ ___ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सागारधर्मामृते अनङ्गकीडा अङ्गं साधनं देहावयवो वा तच्चेह मैथुनापेक्षया योनिर्मेहनं च ततोऽन्यत मुखादिप्रदेशे रतिः। यतश्च चर्मादिमौलिङ्गैः स्वलिङ्गेन कृतार्थोऽपि स्त्रीणामवाच्यदेशं पुनः पुनः कुद्राति । केशाकर्षणादिना वा क्रीडन् प्रबलरागमुत्पादयति साऽप्यनङ्गक्रीडोच्यते । इह च श्रावकोऽत्यन्तपापभीरुतया ब्रह्मचर्य चिकीर्षुरपि यदा वेदोदयासहिष्णुतया तत्कर्तुं न शक्नोति तदा यापनामात्रार्थ स्वदारसन्तोषादि प्रतिपद्यते । मैथुनमात्रेण च यापनायां सम्भ. वत्यां विटत्वादित्रयमर्थतः प्रतिषिद्धमेव । तत्प्रयोगे हि न कश्चिद्गुणः । प्रत्युत सद्योऽतिरागोद्दीपनं बलक्षयस्तात्कालिकी च्छिदा राजयक्ष्मादिरोगाश्च स्युः। तदुक्तं-ऐदम्पर्यमतो मुक्त्वा भोगानाहारवगजेत् ॥ देहदाहोपशान्त्यर्थमभिध्यानविहानये ॥ १ ॥ एवं प्रतिषिद्धाचरणाद्भङ्गो नियमाबाधनाचाभङ्ग इत्येतेऽपि विटत्वादयस्त्रयोऽतिचाराः । यद्वा स्वदारसन्तोषी मैथुनमेव मया वेश्यादौ प्रत्याख्यातमिति स्वकल्पनया तत्र तदेव वर्जयति न विटत्वादिकं । परदारविवर्जकोऽपि परदारेषु मैथुनमेव वर्जयति नाशिष्टवाक्प्रयोगालिङ्गनादीनीति तयोः कथञ्चिद्वतसापेक्षत्वाद्विटत्वादयोऽतिचाराः । स्त्रियास्तु पूर्ववत्परविवाहकरणादयः । प्रथमस्तु यदा स्वकीयपतिर्वारकदिने सपत्न्या परिगृहीतो भवति तदा सपत्नीवारकं विलुप्य तं परिभुजानाथा अतिचारोऽ तिक्रमादिना च परपुरुषं (इव) स्वपति वा ब्रह्मचारिणमभिसरत्याः स्यात् ।। ५८ ॥ अथ परिग्रहपरिमाणाणुव्रतं व्याचष्टे ममेदमिति सङ्कल्पश्चिदचिन्मिश्रवस्तुषु । ग्रन्थस्तत्कर्शनात्तेषां कर्शनं तत्पमावतम् ।। ५९ ॥ - टीका--भवति । कोऽसौ, ग्रन्थः परिग्रहः । किंलक्षणो, ममेदमिति सङ्कल्पः इदं चेतनमचेतनं मिश्रं वा वस्तु मम सम्बन्धि मदीयं मत्स्वामिकमिति सङ्कल्पो मानसोऽध्यवसायो ममत्वपरिणामो मूछेति यावत् । केषु, चिद्वस्तुषु कलत्रपुत्रादिषु, आचद्वस्तुषु गृहसुवर्णादिषु । मिश्रवस्तुषु चेतनाचेतनेषु । बहिः पुष्पवाटिकादिषु । अन्ततश्च मिथ्यात्वादिषु । भवति । किं तत्, तत्प्रमावतं परिग्रहपरिमाणाख्यमणुव्रतं । किं कर्शनमल्पीकरणं । केषां, तेषां चिता Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः । मचितां चिदचितां च वस्तूनां । कस्मात्, तत्कर्शनात् यथोक्तमूर्छालक्षणपरि. ग्रहाल्पीकरणात् ॥ ५९॥ अन्तरङ्गसङ्गनिग्रहोपायमाह-- उद्यत्क्रोधादिहास्यादिषट्कवेदत्रयात्मकम् । अन्तरङ्ग जयेत्सङ्ग प्रत्यनीकप्रयोगतः ॥ ६०॥ टीका--जयेत् निगृह्णीयात् । कोऽसौ, पञ्चमाणुव्रतार्थी । कं, सङ्गं ग्रन्थं । किंविशिष्टं, अन्तरङ्गं आध्यात्मिकं । किमात्मकं, उद्यदित्यादि उद्यन्ति उच्चलन्ति विपच्यमानानि, उदितानां दुर्जयत्वात् , क्रोधादयोऽनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानावरणवर्जिताः, तान्मिथ्यात्वसहितानिगृह्मैव देशसंयमस्य प्रवृत्तत्वात् अष्टौ प्रत्याख्यानावरणसंज्वलनाख्या इह गृह्यन्ते, हास्यादिषट्कं हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साः, वेदाः स्त्रीपुन्नपुंसकवेदा रागाख्यास्तेषां त्रयं वेदत्रयं, क्रोधादयश्च हास्यादिषटकं च वेदत्रयं च क्रोधादिहात्यादिषटकवेदत्रयाणि, उद्यन्ति च तानि क्रोधादिहास्यादिषट्कवेदत्रयाणि च तान्येव आत्मा स्वरूपं यस्यासौ तदात्मकस्तं । केन •जयेत् , प्रत्यनीकप्रयोगतः यथास्वमुत्तमक्षमादिभावनया ॥ ६ ॥ बहिरङ्गसङ्गत्यागविधिमाह-- अयोग्यासंयमस्याङ्गं सङ्गं बाह्यमपि त्यजेत् । मुङ्गित्वादपि त्यक्तुमशक्यं कृशयेच्छनैः ॥६१॥ टीका--त्यजेत् । कोऽसौ, पञ्चमाणुव्रती । कं, सङ्गं । किंविशिष्टं, बाह्यं वस्तुक्षेत्रादिकं । अन्तरङ्गसङ्गत्यागापेक्षयाऽपिशब्दः समुच्चये । किंविशिष्टम्, अङ्गं साधनं । कस्य, अयोग्यासंयमस्य अयोग्यः श्रावकस्य कर्तुमनुचितोऽ संयमः स चेहानारम्भजस्त्रसवधो व्यर्थः स्थावरवधः परदारगमनादिश्व, अयोग्यश्चासावसंयमश्चायोग्यासंयमस्तस्य । कुतो हेतोः, मूर्छाङ्गत्वात् मोहोदयनिमित्तत्वात् । यस्त्वसौ त्यक्तुमशक्यस्तत्त्यागविधिमाह-कृशयेत् स्वल्पीकुर्यात् । कं, तं बाह्यसङ्गं । किंविशिष्टमपि, त्यक्तुमशक्यमपि अशक्यवर्जनमपि। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सागारधर्मामृते कथं, शनैः मनाक् समयपरिपाट्या कालक्रमेण परिग्रहसज्ञाया अनादिसन्तत्या प्रवर्तमानत्वेन सहसा तत्त्यागस्य कर्तुमशक्यत्वात् कृतस्यापि तद्वासनावशाद्भङ्गसम्भावनाच्चैतदुच्यते ॥ ६१ ॥ एतदेव प्रपञ्चयन्नाहदेशसमयात्मजात्याद्यपेक्षयेच्छां नियम्य परिमायात् । वास्त्वादिकमामरणात्परिमितमपि शक्तितः पुनः कृशयेत्॥६२॥ टीका--परिमायात् परिमितं कुर्यात् । किं तत्, वास्त्वादिकं वास्तुक्षेधनधान्यद्विपदचतुष्पदशयनासनयानकुप्यभाण्डलक्षणं दशभेदं बाह्यग्रन्थं । किं कृत्वा, नियम्य सन्तोषभावनया निगृह्य । कां, इच्छां परिग्रहे तृष्णां । कया, देशेत्यादि देशो वास्यमानो जनपदः, समयः कालः, आत्मा स्वात्मा, जातिः वणिक्त्वादिः, देशश्च संयमश्च आत्मा च जातिश्च ता: आदयो येषां स्वान्वयवयःपदव्यादीनां ते देशादयस्तेषामपेक्षया तानाश्रित्येत्यर्थः । कर्थ परिमायात्, आमरणात् मरणावधि यावज्जीवमित्यर्थः । तथा कृशयेच्छ्रावकः। किं तत्परिमितमपि वास्त्वादिकं । कथं पुनः । कस्मात्, शक्तितः नैस्सङ्गयभावनया समुत्पन्नां स्वशक्तिमपेक्ष्येत्यर्थः ॥ ६२ ॥ परिग्रहं वक्रमणित्या दूषयन्नाह अविश्वासतमोनक्तं लोभानलघृताहुतिः। आरम्भमकराम्भोधिरहो श्रेयः परिग्रहः ॥६३ ॥ टीका-अहो आश्चर्य । श्रेयः सेव्यः पुंसां कल्याणं वा । कोऽसौ, परिग्रहः। किंविशिष्टः, अविश्वासतमोनक्तं अविश्वास एव तमो ध्वान्तं दुःखहेतुत्वात् तत्र नक्तं रात्रिस्तद्धेतुत्वादिति अविश्वासतमोनक्तं। तथा लोभ एवानलोऽग्निश्चित्तसन्तापकत्वात् तत्र घृताहुतिः सर्पिःप्रक्षेपः प्रदीपकत्वादिति लोभानलघृताहुतिः । तथा आरम्भमकराम्भोधिः आरम्भाः कृष्यादयस्त एव मकरास्वासातङ्कनिमित्तत्वात् तत्र अम्भोधिः समुद्रः उत्पत्तिनित्यप्रवृत्तिनिमित्तत्वादित्यारम्भमकराम्भोधिः ॥ ६३ ॥ पञ्चमाणुव्रतातिचारपञ्चकनिषेधविधिमाह Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः । १२३ वास्तुक्षेत्रे योगाद्धनधान्ये बन्धनात्कनकरूप्ये। दानात्कुप्ये भावान गवादौ गर्भतो मितिमतीयात् ॥६४। टीका-नातीयान्नातिक्रमेत् । कोऽसौ, परिग्रहपरिमाणाणुव्रती। कां, मिति व्रतविषयीकृतं परिमाणं । क्व, वास्तुक्षेत्रे वास्तुनि च क्षेत्रे च । कस्मात् योगात् वास्त्वन्तरसंयोजनं क्षेत्रान्तरसंयोजनं चाश्रित्य । तथा धनधान्ये धने च धान्ये च न मितिमतीयात् । कस्मात्, बन्धनात् बन्धनं रज्ज्वादिनियन्त्रणं सत्यङ्कारदानादि चाश्रित्य । तथा कनकरूप्ये सुवर्णे च रूप्ये च न मितिमतीयात् । कस्मात् , दानात् दानमाश्रित्य । तथा कुप्ये सुवर्णरूप्याभ्यामन्यत्र कांस्यरथादिद्रव्ये न मितिमतीयात् । कस्मात्, भावात् भावं परिमाणान्तरं अभिप्राय वाऽऽश्रित्य । तथा गवादौ गोमहिषीवडवादिचतुष्पदपत्तिशुकादिद्विपदवर्गे न मितिमतीयात् । कस्मात, गर्भतो गर्भमाश्रित्यति समन्वयः॥ इतस्तदर्थो विस्तरतः कथ्यते-तत्र वास्तु गृहादि ग्रामनगरादि च । तत्र गृहादि त्रेधा खातोच्छ्रिततदुभयभेदात् । तंत्र खातं भूमिगृहादिकं, उच्छ्रितं प्रासादादिकं, खातोच्छ्रितं च भूमिगृहोपरिगृहादिसन्निवेशः । क्षेत्रं सस्योत्प. त्तिभूमिः। तत् त्रेधा सेतुकेतूभयभेदात् । तत्र सेतुक्षेत्रं यदरघट्टादिजलेन सिच्यते । केतुक्षेत्रं आकाशोदकपातानिष्पाद्यसस्यं । उभयमुभयजलनिष्पाद्य. सस्यं । वास्तु च क्षेत्रं च वास्तुक्षेत्रमिति समाहारनिर्देशोऽत्रोत्तरत्र च बाह्यग्रन्थस्य पञ्चविधत्वकल्पनयाऽतीचारपञ्चकस्य सुखप्रयोजनार्थ । तत्र वास्तुक्षेत्रे योगाद्भित्तिवृत्याद्यपनयेन वास्तुक्षेत्रान्तरमीलनान्तरमाश्रित्य परिमितपरिग्रहः श्रावको न मितिमतीयात् देवगुरुसाक्षिकव्रतग्रहणकाले यावजीवं चतुर्मासादिकालावधि वा प्रतिपन्ना संख्यां नातिक्रमेत् । वास्त्वादिकमेव मया विपुलीक्रियते न प्रतिपन्नां तत्संख्याऽतिक्रम्यत इति बुध्द्या तद्विषयं वा हस्तादिपरिमाणं सहसाकारादिना नातिक्रमेत् । अन्यथा वास्तुक्षेत्रप्रमाणाति. क्रमो नाम प्रथमोऽतिचारःस्यात् । व्रतसापेक्षस्यैव स्वबुध्द्या व्रतभङ्गमकुर्वतोऽ तिचारत्वव्यवस्थापनात् ॥१॥ धनं गणिमादिभेदात् चतुर्विधं । तत्र गणिमं पूगफलजातिफलादि । धरिमं कुंकुमकर्पूरादि । मेयं स्नेहलवणादि । परीक्ष्यं रत्नवस्त्रादि । धान्यं ब्रीह्या. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते दिभेदात्पञ्चदशधा । उक्तं च-ब्रीहिर्यवो मसूरो गोधूमो मुद्गमाषतिलचणकाः अणवः प्रियंगुकोद्रवमयुष्टिकाशालिराढक्यः ॥ १ ॥ १२४ किं च कलायकुलित्थौ पञ्चदशधान्यानीति च । धनं च धान्यं च धनधान्यं । तत्र स्वगृहगतधनादेर्विक्रये व्यये वा कृते गृहिष्यामीति भावनया बन्धनात् रज्ज्वादिनियन्त्रणलक्षणात् सत्यङ्कारदानादिरूपाद्वा स्वीकृत्य धनधान्यं विक्रेतृगृहे एव स्थापयन्न मितिमतीयात् । अन्यथा द्वितीयोऽ तिचारः स्यात ॥ २ ॥ कनकं सुवर्ण घटितमघटितं वाऽनेकप्रकारमेवं रूप्यमपि, कनकं च रूप्यं तत्र । दानात् स्वव्रतकालावधौ पूर्णे गृहिष्यामीति अभिप्रायेण तुष्टराजादितः स्वप्रतिपन्न संख्यां ततोऽधिके लब्धेऽन्यस्मै वितरणान्न मितिमतीयात् अन्यथा तृतीयोऽतिचारः स्यात् ॥ ३ ॥ कुप्ये रूप्यसुवर्णव्यतिरिक्ते कांस्यलोहताम्रसोसकत्र पुमृद्ध (ण्डवंशविकारोदङ्किकाकाष्टमञ्चकमञ्चिकामसूरकरथशकटहलप्रभृतिद्रव्ये भावात् द्वयोर्द्वयोर्भेलनेनैकीकरणरूपात् पर्यायान्तराद्रतावधौ पूर्णे गृहिष्यामीति अन्यप्रदेयतया व्यवस्थापनेनार्थित्वरूपाभिप्रायाद्वा न मितिमतीयादन्यथा चतुर्थोऽतिचारः स्यात् । कुप्यस्य हि या संख्या कृता तस्याः कथञ्चित् द्विगुणत्वे सति व्रतभङ्गगभयात् भावतो द्वयोर्द्वयोर्मीलनेनैकीकरणरूपात्पर्यायान्तरात्स्वाभाविकसंख्याबाधनात् संख्यामात्रपूरणाच्चातीचारः । अथवा भावतोऽभिप्रायादर्थित्वलक्षणाद्विवक्षितकालावधेः परतो गृहिष्याम्यतो नान्यस्मै प्रदेयतया व्यवस्थापयतोऽसौ स्यात् ॥ ४ ॥ गवादी गौरादिर्यस्य द्विपदचतुष्पदवर्गस्यासो गवादिः । आदिशद्वेन हस्त्यश्वमहिष्यादिचतुष्पदानां शुकसारिकादिद्विपदानां पत्न्युपरुदासपदात्यादीनां संग्रहः । तत्र गर्भतो न मितिमतीयात् । गवादीनां गर्भग्रहणादुपलक्षणादन्येषां यथास्वमनाभोगादिनाऽतिक्रमादिना वा संख्यां नातिक्रमेत् । गोमहिषविवादेर्हि विवक्षित संवत्सराद्यवधिमध्ये एव प्रसवे अधिकगवादिभावाद्रतभङ्गः स्यादिति तद्भयात्कियत्यपि काले गते गर्भग्रहणाद्गर्भस्थगवादिभावेन बहिस्तदभावेन च कथञ्चिद्रतभङ्गात्पञ्चमोऽतिचारः स्यात् ॥ ५ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोध्यायः । १२५. एते च क्षेत्रवास्तुहिरण्यरूप्यधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमा इति तत्त्वार्थमतेन पञ्चातिचाराः प्रपञ्चिताः । स्वामिमतेन त्विमे - अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षपाः पञ्च लक्ष्यन्ते || १ || अत्रातिवाहनं लोभावेशवशात् वृषभादीनां शक्त्यतिक्रमेण हान्मार्गे नयनं । अतिसंग्रहः इदं धान्यादिकमये विशिष्टं लाभं दास्यतीति लोभावेशादतिशयेन संग्रहणं । अतिविस्मयो धान्यादौ प्रपन्नलाभेन विक्रीते मूलतोऽप्यसंगृहीते वा तत्क्रयाणकेनाधिकेऽर्धे लब्धे लोभावेशादतिविषाद | अतिलोभो विशिष्टेऽर्धे लब्धेऽपि अधिकलाभाकांक्षा । अतिभारवहनं लोभावेशादधिकभारारोपणं ॥ सोमदेवपण्डितस्त्विदमाह - कृतप्रमाणो लोभेन धनाद्यधिकसंग्रहः || पञ्चमाणुव्रतज्यानीं करोति गृहमेधिनाम् ॥ १ ॥ तच्चैतच्च परेऽप्यूयास्तदत्यया इत्यनेन संगृहीतम् ॥ ६४ ॥ : एवं निर्मलीकृतपरिग्रहव्रतपालकस्य फलं दृष्टान्तेन स्फुटयन्नाह - यः परिग्रहसंख्यानव्रतं पालयतेऽमलम् | जयवज्जितलोभोऽसौ पूजातिशयमश्नुते ।। ६५ । टीका- यः पालयते रक्षयति । किं तत्, परिग्रहसंख्यानव्रतं । कथं कृत्वा, अमलं यथोक्तातिचाररहितं । असौ श्रावकः पूजातिशयं शक्रादिकृतामर्चनामनुते लभते । किंविशिष्टः, यतो जितलोभः जितलोभत्वादित्यर्थः । किंवत्, जयवत् मेघस्वराख्यकुरुराजो यथा ॥ ६५ ॥ इत्थं निरतिचाराणुव्रत परिणत्यनुपालनाय निर्मलशीलसप्तकपालनायामुपासकमुत्थापयितुं तदनुभावमाह - पञ्चाप्येवमणुव्रतानि समतापीयूषपानोन्मुखे सामन्येतरभावनाभिरमलीकृत्यार्पितान्यात्मनि । त्रातुं निर्मलशीलसप्तकमिदं ये पालयन्त्यादरात् ते सन्यासविधिप्रमुक्ततनवः सौवीः श्रियो भुंजते || ६६ || टीका - भुञ्जते अनुभवन्ति । के, ते निर्मलाणुव्रतशीलपालिनो भव्याः । काः, श्रियः सम्पदः । किंविशिष्टाः, सौर्वीः स्वर्भवाः यथास्वं सौधर्माद्यच्यु Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ सागारधर्मामृते MAHARArAnnonrnAmARAN Anamniwwwwwww तान्तकल्पसम्बन्धिनीः । किंविशिष्टाः सन्तः, सन्न्यासेत्यादि सन्न्यासविधिना सप्तदशाध्यायोक्तेन प्रकर्षण सकलसवसमक्षतालक्षणेन मुक्ता त्यक्ता तनुः शरीरं यैस्ते यथोक्ताः । सति साधने निस्तरणभणितिरियं । ये के, ये पालयन्ति । किं तत्, इदमनन्तराध्याये वक्ष्यमाणं । निर्मलशीलसप्तकं। कस्मात्, आदरात् तत्परतया । किं कर्नु, त्रातुं पालयितुं । निर्वहणार्थमिदं । कानि, अणुव्रतानि । कति, पञ्च अपिशब्दादेकं द्वे त्रीणि चत्वारि वा । कथं, एवं उक्तप्रकारेण । किंविशिष्टानि सन्ति, अर्पितानि परिणमितानि । क्व, आत्मनि अन्तस्तत्वे । उद्यपनप्रकाशनेयं । किंविशिष्टे, समतापीयूषपात्रोन्मुखे साम्यामृतपानाद्यभिमुखे । किं कृत्वा, अमलीकृत्य तत्तदतीचारेभ्यः प्रच्याव्य । उद्द्योतनोक्तिरियं । काभिः, सामान्येतरभावनाभिः सामान्यभावनाभिमैंत्र्यादिभिर्विशेषभावनाभिः प्रतिव्रतं पञ्चशो नियमिताभिमहाव्रताधिकारोक्ताभिरिति भद्रम् ॥ ६६ ॥ इत्याशाधरविरचितायां स्वोपज्ञधर्मामृतसागारधर्मदीपिकायां भव्यकुमुदचन्द्रिकासज्ञायामादितस्त्रयोदशः प्रक्रमाञ्च चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः ॥ ४ ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः अथ शीलसप्तकं व्याकर्तुकामस्ताविकल्पभूतानि गुणव्रतानि तावल्लक्षयति यद्गुणायोपकारायाणुव्रतानां व्रतानि तत् । गुणव्रतानि त्रीण्याहुर्दिग्विरत्यादिकान्यपि ॥ १ ॥ टीका--तत्तस्मादाहुर्बुवन्ति । स्वामिमतानुसारिणः । कानि, गुणव्रतानि । कति, त्रीणि । तानि, दिग्विरत्यादिकानि दिग्विरतिमनर्थदण्डविरतिं भोगोपभोगपरिमाणं । अपिशब्दः सितपटोक्तखरकर्मज्ञापनार्थः । यद्यस्मात् भवन्त्यमूनि व्रतानि । कस्मै, गुणाय । कोऽर्थः, उपकाराय । केषाम् , अणुव्रतानाम् ॥१॥ किं तद्दिव्रतमित्याह-- Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । १२७ यत्प्रसिद्धैरभिज्ञानैः कृत्वा दिक्षु दशस्वपि । नात्येत्यणुव्रती सीमा तत्स्यादिग्विरतिव्रतम् ॥ २ ॥ टीका-स्यात् । किं तत्। व्रतं गुणव्रतमित्यर्थः । नामैकदेशो हि व्रतशब्दो नाम्न्यपि वर्तते भीमादिवत् । किं नाम,दिग्विरतिः दिक्षु विरतिनियमितसीम्नो बहिर्यातायातनिवृत्तिः । यत्किं,यन्नात्येति नातिक्रम्य गच्छति । कोऽसौ,अणुव्रती न तु महाव्रती तस्य सर्वारम्भपरिग्रहविरतत्वेन समितिपरत्वेन च नृलोके यथाकामं सञ्चारादिग्विरत्यनुपपत्तेः । कां नात्येति, सीमां मर्यादा । किं कृत्वा, प्रतिपद्य । कां,सीमां। कासु, दिक्षु । कतिषु, दशसु । अपिशब्दादेकद्विव्यादिष्वपि यावजीवमल्पकालं चापि । कैः,अभिज्ञानैः समुद्रनद्यादिभिश्चिन्हैः। किंविशिष्टैः, प्रसिद्धः दिग्विरतिमर्यादाया दातुर्गृहीतुश्च प्रतीतैः ॥ २ ॥ दिग्नतेनाणुवतिनोऽपि महाव्रतित्वमुपपादयति दिग्विरत्या बहिः सीम्नः सर्वपापनिवर्तनात् । तप्तायोगोलकल्पोऽपि जायते यतिवद्गृही ॥ ३ ॥ टीका-जायते भवति । गृही। किंवत्, यतिवत् महाव्रती यथा । कस्मात् सर्वपापनिवर्तनात् सर्वपापानि स्थूलेतरहिंसादीनि भोगोपभोगादीनि च तेभ्यो निवर्तनात् विरमणात् तेषां निवारणाद्वा । क, बहिः परतः । कस्याः, सीनः प्रतिपन्नमर्यादायाः । कया, दिग्विरत्या दिग्विरतिगुणव्रतेन । किंविशिष्टोऽपि गृही, तप्तायोगोलकल्पोऽपि सन्तप्तलोहपिंण्ड इव आरम्भपरिग्रहपरत्वेन सर्वत्र गमनभोजनशयनादिक्रियासु जीवोपमर्दकरत्वात् ॥ ३ ॥ एतदेव दृढयन्नाहदिग्व्रतोद्रिक्तवृत्तघ्नकषायोदयमान्यतः । महाव्रतायतेऽलक्ष्यमोहे गेहिन्यणुव्रतम् ॥ ४ ॥ टीका-महाव्रतायते महाव्रतमिवाचरति नियमितदिग्विभागाद्वहिः सर्व सावद्यनिवर्तकत्वात् । न तु महाव्रतं भवति तत्प्रतिबन्धकोदयसद्भावात् । किं तत्, अणुव्रतं । क्व, गेहिनि गृहस्थे। किंविशिष्टे,अलक्ष्यमोहे निश्चेतुमशक्यभावे Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ सागारधर्मामृते प्रत्याख्यानावरणाख्यचारित्रमोहपरिणामे । कस्मात्, दिग्वतेत्यादि दिग्वतेनोदिक्तमुत्कर्ष नीतं व्रतध्नकषायाणां प्रत्याख्यानावरणाख्यद्रव्यक्रोधादीनामुदयस्य विपाकस्य मान्द्यमनौत्कट्यं यत्तस्मात् दिग्विरतिमन्दतरीकृतप्रत्याख्याना वरणविपाकादित्यर्थः ॥ ४ ॥ दिग्विरत्यतिचारानाह सीमविस्मृतिरूधिस्तिर्यग्भागव्यतिक्रमाः । अज्ञानतः प्रमादाद्वा क्षेत्रवृद्धिश्च तन्मलाः ॥ ५ ॥ टीका-भवन्ति । के ते, तन्मला: दिग्नतातिचाराः । कति, पञ्च । कथं, सीमविस्मृतिरूव॑भागव्यतिक्रमोऽधोभागव्यतिक्रमस्तिर्यग्भागव्यतिक्रमः क्षेत्रवृद्धिश्चेति । कस्मात्, अज्ञानतः प्रमादादेति संक्षेपः । इतो विस्तर:-तत्र सीमविस्मृतिः-नियमितमर्यादाया अज्ञानतो मत्यपाटवसन्देहादिना प्रमादाद्वाऽतिव्याकुलत्वान्यमनस्कत्वादिना स्मृतिभ्रंशः । तथाहि-केनचित्पूर्वस्यां दिशि योजनशतरूपं परिमाणं कृतमासीत् । गमनकाले च स्पष्टतया न स्मरति किं शतं परिमाणं कृतमुत पञ्चाशत् तस्य चैवं पञ्चाशतमतिक्रामतोऽतिचारः। शतमतिक्रामतो भङ्गः सापेक्षत्वनिरपेक्षत्वाच्चेति प्रथमोऽतिचारः । ऊर्वेत्यादि ऊर्ध्वं गिरितरुशिखरादेः, अधो ग्रामभूमिगृहकूपादेः, तिर्यक्पूर्वादिदिक्षु येऽमी भागा नियामतप्रदेशास्तेषां व्यतिक्रमाः। लङ्घनानि । एते च त्रयोऽनाभोगातिक्रमादिभिरेवातिचारा भवन्ति । अन्यथा प्रवृत्तौ तु भङ्ग एव । क्षेत्रवृद्धिःक्षेत्रस्य पूर्वादिदेशस्य दिग्विरतिविषयस्य -हस्वस्य सतो वृद्धिः पश्चिमादिक्षेत्रान्तरपरिमाणप्रक्षेपेण दीर्धीकरणं । तथाहि-केनचित्पूर्वापरदिशोः प्रत्येक योजनर्शतं परिमाणीकृत्यैकत्र क्षेत्रं गमनकाले वर्द्धयतो व्रतसापेक्षत्वादतिचारः। यदि चाप्रणिधानात् क्षेत्रपरिमाणमतिक्रान्तं भवति तदा निवर्तितव्यं ज्ञाते वा न गन्तव्यमन्योऽपि न विसर्जनीयः । अथाज्ञतया कोऽपि गतः स्यात्तदा यत्तेन लब्धं तत्त्याज्यामिति पञ्चमः ॥ ५ ॥ अथानर्थदण्डव्रतं लक्षयति पीडा पापोपदेशाद्यैदेहाद्यर्थाद्विनाऽगिनाम् । अनर्थदण्डस्तत्त्यागोऽनर्थदण्ड व्रतं मतम् ॥ ६ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः। १२९ टीका-मतं सम्मतं सूरीणां । किं तत् , अनर्थदण्डवतं । किं तत् , तत्त्यागस्तस्यानर्थदण्डस्य वर्जनं । यः किं, योऽनर्थदण्डः । किं, पीडा पीडनं । केषां, अङ्गिनां सस्थावरजीवानां। कैः, पापोपदेशाद्यैः पापोपदेशहिंसादानदुःश्रुत्यपध्यानप्रमादचर्याख्यापारैः । कथं, विना । कस्मात्, देहाद्यर्थात् स्वस्य स्वकीयजनानां वा शरीरवाङ्मनःप्रयोजनात् ॥ ६ ॥ पापोपदेशस्वरूपं तद्विरतिं चाहपापोपदेशो यद्वाक्यं हिंसाकृष्यादिसंश्रयम् । तज्जीविभ्यो न तं दद्यान्नापि गोष्ठयां प्रसञ्जयेत् ॥ ७॥ टीका--भवति । कोऽसौ, स पापोपदेशः । यत्किं, यद्वाक्यं । किंविशिष्टं, हिंसाकृष्यादिसंश्रयं । हिंसा मृषावादादिभिः कृषिवाणिज्यादिभिश्च संश्रयः सम्बन्धो यस्य तत्तथोक्तं तद्विषयमित्यर्थः । हिंसाद्यारम्भेति पाठे तु हिंसादिप्रधाना आरम्भा उपक्रमा इति व्याख्येयं । न दद्यात् मगास्तोयाशयमायाताः किमुपविष्टास्तिष्ठतेत्यादिरूपेण न सम्पादयेत् । कोऽसौ,अनर्थदण्डव. तार्थी । कं, तं पापोपदेशं । केभ्यः, तजीविभ्यः व्याधवञ्चकचोरादिभ्यः कृषीवलकिरातादिभ्यश्च । नापि प्रसञ्जयेत् पुनःपुनः प्रवर्तयेत् कथान्तरसम्बन्धे वा नावतारयेत् । कं, तं । कस्यां, गोष्ठयां सङ्कथायाम् ॥ ७ ॥ हिंसोपकरणदानपरिहारमाह हिंसादानं विषास्त्रादिहिंसाङस्पर्शनं त्यजेत् । पाकाद्यर्थं च नान्यादि दाक्षिण्याविषयेऽर्पयेत् ॥ ८ ।। टीका-त्यजेन्न कुर्यादनर्थदण्डव्रतार्थी । किं तत्, हिंसोपकरणानां दानं हिंसादानं । मयूरव्यंसकत्वात्समासः । तदेव व्याचष्टे विषास्त्रेत्यादिना विषा. स्वादीनां गरलप्रहरणहलशकटकुशिकुद्दालादीनां हिंसांगानां प्राणिवधसाधनानां स्पर्शनं दानं विषास्त्रादिहिंसाङ्गस्पर्शनं । न चार्पयेत् नापि ढौकयेदसौ। किं तत्, अग्न्यादि वन्हिघरट्टमुसलोलुखलादि । किमर्थं, पाकाद्यर्थ पचनपेषणकुट्टनादिनिमित्तं । क्व, दाक्षिण्याविषये परस्परव्यवहारविषयादन्यत्र ॥८॥ दुःश्रुत्यपध्यानयोः स्वरूपं परिहारं चाह Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते चित्तकालुष्यकृत्कामहिंसाद्यर्थश्रुतश्रुतिम् ।। न दुःश्रुतिमपध्यानं नातरौद्रात्म चान्वियात् ॥ ९ ॥ टोका-नान्वियात् नानुवर्तयेत् प्रसङ्गवशादायातमपि तत्क्षणान्निवर्तयेदित्यर्थः । कोऽसौ, अनर्थदण्डव्रतार्थी । कां, दुःश्रुतिं । कीदृशी, चित्तेत्यादि। कामश्च मन्मथो हिंसा च प्राणातिपातः कामहिंसे ते आदी येषां आरम्भादीनां ते कामहिंसादयोऽर्थी अभिधेया येषां तानि कामहिंसाद्यर्थानि तानि श्रुतानि शास्त्राणि । तत्र कामशास्त्रं वात्स्यायनादि। हिंसाशास्त्रं लटकादिमतं । आरम्भपरिग्रहशास्त्रं वार्तानीतिः । साहसशास्त्रं वीरकथा। मिथ्यात्वशास्त्रं ब्रह्माद्वैतादि मतं । मदशास्त्रं वर्णानां ब्राह्मणो गुरुरित्यादिग्रन्थः । रागशास्त्रं वशीकरणादितन्त्रं । तेषां श्रुतिराकर्णनं उपलक्षणादर्जनाद्यपि । चित्तस्य मनसः कालुष्यं रागद्वेषाद्यावेशश्चित्तकालुष्यं तत्करोतीति चित्तकालुष्यकृत् । सा चासौ । कामहिंसाद्यर्थश्रुतश्रतिश्च ताम् । न चान्वियादसौ । किं तत्, अपध्यानं अपकृष्टं भ्यानमेकाग्रचिंतानिरोधं । किंरूपं, आर्तरौद्रात्म आर्त ऋते दुःखे भवं । यदि वा अर्तिः पीडा यातना च तत्र भवं । रौद्रं रोधयति अपरानिति रुद्रो दुःखहेतुस्तेन कृतं तस्य वा कर्म । आर्त च रौद्रं च आतरौद्रे ते आत्मानौ स्वभावौ यस्य तदातरौद्रात्म आर्तरौद्रविकल्पमित्यर्थः । न दुःश्रुतिमपध्यानमातरौद्रात्म चान्वियादिति पाठे तु-दुःश्रुति कामादिशास्त्रश्रवणलक्षणां, अपध्यानं च नरेन्द्रत्वखचरत्वाप्सरोविद्याधरीपरिभोगादिविषयं, आर्त वैरिघाताग्निघातादिविषयं, रौद्रं वा नान्वियादिति व्याख्येयम् ॥ ९ ॥ प्रमादचर्यालक्षणं तत्त्यागं च श्लोकद्वयेनाह प्रमादचर्या विफलक्ष्मानिलाग्न्यम्बुभूरुहाम् । खातव्याघातविध्यापसेकच्छेदादि नाचरेत् ॥ १० ॥ टीका-नाचरेत् न कुर्यादनर्थदण्डविरतः । कां, प्रमादचर्या । किंरूपां, विफलमित्यादि । विफलं निप्प्रयोजनं क्ष्मादीनां खातादिविफलभूखननादिलक्षणमित्यर्थः । तत्र क्ष्मायाः भूमेः खातं खननं विफलं नाचरेत् । अनि । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । १३१ लस्य वातस्य व्याघातं स्वयमागच्छतः कवाटादिना प्रतिबन्धं विफलं नाचरेत् । अग्नेर्विध्यापं जलादिना विध्यापनं विफलं नाचरेत् । अम्बुनो जलस्य सेकं सेचनं भूम्यादौ प्रक्षेपं विफलं नाचरेत् । भूरुहां वनस्पतीनां छेदादि छेदनपत्रपुष्पफलत्रोटनादि विफलं नाचरेत् ॥ १० ॥ तद्वच्च न सरेद्वयर्थ न परं सारयेन्महीम् । जीवघ्नजीवान् स्वीकुर्यान्मार्जारशुनकादिकान् ॥ ११ ॥ टीका-न सरेत्करचरणादिव्यापार न कुर्यात् । किंविशिष्टं, व्यर्थं निष्प्रयोजनं । किंवत्, तद्वच्च क्षमाखननादिवदेवं तथा न सारयेत् करचरणादिव्या'पारं न कारयेत् । कं, परं भृत्यादिकं । कथं, व्यर्थं वृथा । न स्वीकुर्यात् न परिगृह्णीयात् । कान्, जीवनजीवान् प्राणिघातकप्राणिनः । किंविशिष्टान्, मारिशुनकादिकान् बिडालमण्डलनकुलकुकुटप्रभृतन् ि। कथं, नियमेन फलचतोऽपि नात्मसात्कुर्यादित्यर्थः ॥ ११ ॥ अनर्थदंडवतातिचारपरिहारमाहमुश्चेत्कन्दपकौत्कुच्यमौखर्याणि तदत्ययान् । असमीक्ष्याधिकरणं सेव्यार्थाधिकतामपि ।। १२ ॥ टीका-मुञ्चेद्वर्जयेदनर्थदण्डविरतः । कान्, तदत्ययान् तद्रतातिचारान् किंविशिष्टान्, कन्दर्पोदीन् पञ्च । तत्र कन्दर्पः कामस्तद्धेतुस्तत्प्रधानो वाक्प्र. योगोऽपि कन्दर्पो रागोद्रेकात्प्रहासमिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोग इत्यर्थः । कौत्कुच्यं कुदिति कुत्सायां निपातो निपातानामानन्त्यात् । कुतः, कुत्सितं कुचति भ्रनयनौष्टनासाकरचरणमुखविकारैः संकुचतीति कुत्कुचः सङ्कोचादिक्रियाभाक् तद्भावः कौत्कुच्यं । प्रहासो भण्डिमावचनं च भाण्डिमोपेतकायव्यापारप्रयुक्त. मित्यर्थः । एषः पूर्वश्च द्वावपि प्रमादचर्याविरतेरतिचारौ । मौखर्यं मुखमस्या. स्तीति मुखरोऽनालोचितभाषी वाचाटस्तस्य भावो धाष्टयप्रायमसत्यासंब. द्धबहुप्रलापित्वं । अयं च पापोपदेशविरतेरतीचारो मौखये सति पापोपदेशसम्भवादिति तृतीयः । असमीक्ष्याधिकरणं प्रयोजनमनालोच्य कार्यस्याधि. क्येन करणं । यथा बहुमपि कटमानयत,यावता मे प्रयोजन तावदहं ऋष्यामि Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANA.AnohnAAAAAAAAA. १३२ सागारधर्मामृतेशेषमन्ये बहवोऽर्थिनः सन्ति तेऽपि क्रेष्यन्ति अहं विक्रापयिष्यामीत्येवमनालोच्य बह्वारम्भतणाजीविभिः कारयति । एवं काष्ठच्छेदेष्टकापाकादिष्वपि वाच्यं । तथाहि स्वोपकरणं हिंसोपकरणान्तरेण संयुक्तं धारयति यथा संयुक्तमुलूखलेन मुसलं हलेन फालं शकटेन युगं धनुषा ारान् इत्यादि । तथा सति यःकश्चित् संयुक्तमुलूखलमुसलादिकमाददीत । वियुक्ते तु तस्मिन् सुखेन परः प्रतिषेध्दुं शक्यते । एतध्दिसोपकारिदानविरतेरतीचारः । सेव्यार्थाधिकतां सेव्यस्य भोगोपभोगलक्षणस्य जनको यावानर्थस्ततोऽधिकस्य तस्य करणं भोगोपभोगानर्थक्यामित्यर्थः । अत्रायं सम्प्रदायः यदि बहूनि स्नानसाधनानि तैलखल्यामलकादीनि गृह्णाति तदा लौल्येन बहवः स्नानार्थ तडागादौ गच्छन्ति । ततश्च पूरकायाप्कायिकादिवधोऽधिकः स्यात् । न चैवं युज्यते ततो गृह एव स्नातव्यं । तदसम्भवे तु तैलादिभिगृह एव शिरो घर्षयित्वा तानि सर्वाणि साधयित्वा तटागादितटे निविष्टो गालितजलेनाञ्जलिभिः स्नायात् । तथा येषु पुष्पादिषु संसत्तिः सम्भवति तानि परिहरेदिति सर्वत्र वक्तव्यामिति षष्टोऽपि प्रमादविरतेरतिचारः ॥ १२ ॥ अथ भोगोपभोगपरिमाणाख्यतृतीयगुणवतस्वीकरणविधिमाहभोगोऽयमियान् सेव्यः समयमियन्तं सदोपभोगोऽपि । इति परिमायानिच्छस्तावधिको तत्प्रमाव्रतं श्रयतु ॥ १३ ॥ टीका-श्रयतु स्वीकरोतु । कोऽसौ, गुणव्रती । किं तत्, तत्प्रमाव्रतं तयो. भौगोपभोगयोः प्रमा परिमाणं तत्प्रमा तत्प्रमैव व्रतं तत्र वा व्रतं तत्प्रमाव्रतं भोगोपभोगपरिमाणवतमित्यर्थः। किं कुर्वन् , अनिच्छन् अनाकांक्षन् । कौ, तो भोगोपभोगौ। किंविशिष्टौ, अधिकौ सेव्यासेव्यतया प्रतिज्ञाताभ्यामतिरिक्तौ। किं कृत्वा, परिमाय परिमितीकृत्य । कथमिति, किमिति भोग इत्यादि । अत्रैकं प्रतिषेधमुखेन वाक्यमन्यच्च विधिमुखेन । तत्राद्यं भोगोऽयं समयमियन्तं न सेव्यः इति । द्वितीयं भोगोऽयमियान्वा समयमियन्तं सेव्य इति । तत्राद्यं व्याख्यायते-न सेव्यो नोपयोक्तव्यः । कोऽसावयं भोग्यतया प्रसिद्धो भोगो माल्यताम्बूलादिः । केन, मया । कं, समयं कालं । कियन्तम्, इयन्तं एतावन्मानं यावजीवं दिवसमासादिपरिच्छिन्नं वा कालमित्यर्थः। द्वितीय Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः। १३३ व्याख्यात्वियं । वा अथवा । सेव्यः कोऽसौ, अयं भोगः । केन, मया। कियान, इयान् एतावान् । कं, समयं । किंविशिष्टं, इयन्तं । तथा उपभोगोऽयं समयमियन्तं न सेव्यो मयेत्येकं उपभोगोऽयमियान्वा समयमियन्तं मया न सेव्य ति द्वितीयं । एतयोरापे पूर्ववद्ध्याख्या ॥ १३ ॥ - भोगापेभोगयोर्लक्षणं तत्त्यागस्य च यावज्जीविकस्य नियतकालस्य च सज्ञाविशेषावाचष्टे भोगः सेव्यः सकृदुपभोगस्तु पुनःपुनः खगम्बरवत् । तत्परिहारः परिमितकालो नियमो यमश्च कालान्तः ॥१४॥ ___टकिा--स भोगो भण्यते । यः सकृदेकवार सेव्यः सेव्यते भुक्त्वा पुनर्न भुज्यते इत्यर्थः । किंवत्, स्रग्वत् उपलक्षणान्माल्यचन्दनताम्बूलादिर्यथा । स उपभोगो भण्यते तुर्विशेषे । यः पुनः पुनः सेव्यो भूयोभूयः सेव्यते सेवित्वाऽपि पुनः सेव्यते इत्यर्थः । किंवत्, अम्बरवत् अत्राप्युपलक्षणाद्वस्वाभरणकामिन्यादिर्यथा । अथवा स्त्रगम्बरवच्चेति भोगोपभोगलक्षणयोर्यथासंख्यमुदाहरणे उदाहरणस्य .दिङ्मात्रप्रदर्शकत्वात् । एवं तयोर्लक्षणमुक्त्वा तत्यागविशेषयोः सज्ञाविशेषप्रकाशनार्थमाह तदित्यादि--. व्यपदिश्यते । कोऽसौ, तत्परिहारः किं, नियमः। नियम इति सज्ञया व्यवन्हियते इत्यर्थः किंविशिष्टः, परिमितकालः एकद्विव्यादिसंख्यापरिच्छन्नदिवसमासादिसमयः। तथा व्यपदिश्यते । कोऽसा, तत्परिहारः। किं, यमः यम इति नाम्नव्यवव्हियत इत्यर्थः । किंविशिष्टः, कालान्तः कालो मरणमन्तोऽवसानं यस्य स कालान्तो मरणपर्यन्त इत्यर्थः ॥ १४ ॥ वसघातबहुबधप्रमादविषयानिष्टानुपसेव्यार्थत्यागवतपञ्चकमप्यत्रैवान्तर्भाचयितुमाह पलमधुमद्यवदखिलस्त्रसबहुघातप्रमादविषयोऽर्थः । त्याज्योऽन्यथाऽप्यनिष्टोऽनुपसेव्यश्च व्रताद्धि फलमिष्टम् ।। • टीका--त्याज्यः प्रत्याख्यातव्यः । कोऽसौ, अर्थ इन्द्रियोपभोग्यो रसश्च । केन, भोगोपभोगपरिसंख्यानव्रतिना । किंविशिष्टः, सेत्यादि--त्रसा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सागारधर्मामृते द्वीन्द्रियादिजीवाः बहवः प्रचुरास्त्रसस्थावरजीवा: साश्च बहवश्च सबहवस्तेषां घातौ ब्रसबहुघातौ त्रसघातो बहुघातश्चेत्यर्थः । प्रमादो धर्म_शनोपायः। सबहुघातौ च प्रमादश्च सबहुधातप्रमादाः ते विषया यस्य स त्रसबहुघातप्रमादविषयः । किंविशिष्टोऽखिल: सर्वः । किंवत्, पलमधुमद्यवत् । यथा सघाताश्रयत्वापिशितं त्यज्यते, यथा च बहुवधाश्रयस्वान्माक्षिकं त्यज्यते, यथा च प्रमादाश्रयत्वान्मद्यं त्यज्यते तथा यथासंख्यं सवाताद्याश्रयोऽर्थस्त्याज्य इत्यर्थः । तत सघातविषयोऽन्तःसुषिरप्रायं नालीनलपलक्यामृणालनालप्रमुखमागन्तुजन्तूनां सम्मूछिमजन्तूनां च योग्यमध्यावकाशं तथा बहुजन्तुयोग्यस्थानं केतकीनिम्बार्जुनारणिशिग्रुपुष्पमधूकबिल्वादिफलादि च वस्तु ।' बहुघातविषयो गुडूचीमूलकलशुनाशृङ्गबेरादिकं । प्रमादविषयो दूषिविषभाङ्गिकाधत्तरकादि वस्तु । एतेन धनार्थ क्रूरव्यापाराणामपि त्याज्यत्वमुक्तं. प्रतिपत्तव्यं । तथा त्याज्यो धर्मार्थिना । कोऽसौ, अखिलोऽर्थः । किंविशिष्टोऽनिष्टः । कथं, अन्यथाऽपि त्रसघाताद्यविषयोऽप्यर्थो योऽनिष्टो यदा स्वस्याप्यनभिमतः प्रकृतिसात्मको न भवति सोऽपि तदा प्रत्याख्येय इत्यर्थः । तथा त्याज्यः । कोऽसौ, अखिलोऽर्थः । किंविशिष्टो,अनुपसेव्यः इष्टोऽपि शिष्टानां शीलनायोग्यः चित्रवस्त्रविकृतवेषा. भरणादिरुद्वारलालामूत्रपुरीषश्लेष्मादिश्च । एतत्प्रत्याख्यानस्याप्यभिमतार्थहेतुत्वमुखेन करणीयत्वं समर्थयते व्रताद्धि फलमिष्टमिति-हि यस्माद्भवति । किं तत्, फलं साध्यं । किंविशिष्टं, इष्टमभिप्रेतमभ्युदयादिकं । कस्मात्, व्रतात् योग्याद्विषयादभिसन्धिकृताया विरतेः ॥ १५ ॥ उक्तमेवार्थ संव्यवहारप्रसिध्द्यर्थं श्लोकत्रयेण दर्शयति नालीमूरणकालिन्दद्रोणपुष्पादि वर्जयेत् । आंजन्म तद्भुजां ह्यल्पं फलं घातश्च भूयसाम् ॥१६॥ टीका-वर्जयेत् धर्मार्थी त्यजेत् । किं तत्, नालीत्यादि-आदिशब्देन मूल. काकनिम्बकुसुमकेतकादि । कथं, आजन्म यावज्जीवं । कुत, इत्याह-हि यस्मात् भवति । किं तत्, फलं जिव्हेन्द्रियप्रीणनमात्रं । किंविशिष्टं, अल्पं स्तोकं भक्ष्यमाणक्षणमात्रभावि । केषां, तद्भुजां नालीसूरणादिभक्षकाणां) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । १३५ भवति च । कोऽसौ, घातः तद्भक्षणे वधः । केषां, भूयसां बहुतराणां तदाश्रितजीवानाम् ॥ १६ ॥ उक्तमेवार्थ व्रतदाार्थं पुनर्विशेषतोऽभिधत्ते अनन्तकायाः सर्वेऽपि सदा हेया दयापरैः। यदेकमपि तं हन्तुं प्रवृत्तो हन्त्यनन्तकान् ।। १७ ॥ टीका-हेयाः प्रत्याख्येयाः। सदा नित्यं । के, अनन्तकायाः। कति,सर्वेऽपि । कैः, दयापरैः अनुकम्पाप्रधानैः श्रावकैः । कुत, इत्याह-यद्यस्मात् । हन्ति हिनस्ति । कोऽसौ, पुरुषः । कान्, अनन्तकान् अनन्तप्रमितान् जीवान् कशब्देनात्र जीवार्थस्य विवक्षितत्वादनन्ताश्च ते कायाश्च जीवाश्चेति विग्रहः । किंविशिष्टः, प्रवृत्तः । किं कर्तुं, हन्तुं भक्षणादिद्वारेण मारयितुं । कं, तमनन्तकायं । किंविशिष्टं, एकं व्यवहारेणैकसंख्यमपि किं पुनादीन् । एते चानन्तै वैरुपलक्षित: कायो येषां तेऽनन्तकाया मूलादिप्रभवा वनस्पतिकायिकाः । तथा हि मूलजा आर्द्रकहरिद्राप्रभृतयः । अग्रजा आर्यकोदिश्च ( ? ) प्रभतयः । पर्वजा देवनालेखुवत्रादयः । कन्दजाः. पलाण्डुसूरणादयः । स्कन्धजाः सल्लकीकण्टकप. लाशादयः । बीजजाः शालिगोधूमादयः । सम्मूछिमाः नियतबीजाभावे स्वयोग्यपुद्गलैर्निष्पन्नशरीराः । उक्तं च-मूलग्गपोरबीजा कंदा तह खंदबीजबी. जरुहा । सम्मुच्छिमा य भणिया पत्तेया णंतकाया य ।। १७ ॥ आमगोरससम्पृक्तं द्विदलं प्रायशोऽनवम् । वर्षास्वदलितं चात्र पत्रशाकं च नाहरेत् ॥ १८ ॥ टीका-नाहरेत् न भक्षयेद्दयापरः । किं तत्, द्विदलं मुद्माषादिधान्यं । किंविशिष्टं, आमेत्यादि-आमेनानग्निपक्वेन गोरसेन क्षीरेण दध्ना अक्कथित क्षीरादिसम्भूतेन तक्रेण च सम्पृक्तं मीलितं । तद्धि सूक्ष्मबहुलजन्त्वाश्रितमा. गमे श्रूयते । तथा नाहरेत् । किं तत्, द्विदलं । किंविशिष्टं, अनवं पुराणं । कथं, प्रायशः प्रायोग्रहणात्पुराणस्यापि चिरकालकृष्णीभूतकुलित्थादेरदृष्टजन्तुसम्मूर्छनस्याप्रतिषेधः । तथा नाहरेत् । किं तत्, द्विदलं । किंविशिष्टं, अद. लितमकृतद्विधाभावं । कदा, वर्षासु प्रावृषि हि मुद्दादीनामन्तःप्ररोहस्या Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ सागारधर्मामृते ......wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww युर्वेदे प्रसिद्धत्वात् ससम्मूछनस्य च दृष्टत्वेन सम्भाव्यमानत्वादभोज्यत्वं । एतेन रूढानामपि तेषां निषेध उक्तः स्यात् । तथा नाहरेत् । किं तत्. पत्रशाकं पत्ररूपं हरीतकं न तु फलादिरूपं । तत्र तत्परजन्तुभूयिष्टत्वात् । कदा, वर्षासु तदा सस्थावरसंसक्तिबहुलत्वात्पनशाकस्याल्पफलत्वाच्च ॥ १८ ॥ एतद्रतस्य विशेषादानृशंस्यसिध्द्यङ्गत्वमुपदिशति-- भोगोपभोगक्रशनात्कृशीकृतधनस्पृहः । धनाय कोट्टपालादिक्रियाः क्रूराः करोति कः ॥१९॥ ___टीका--कः करोति न कोऽपि विदधातीत्यर्थः । किंविशिष्टः, कृशीकृतध. नस्पृहः स्वल्पीकृतद्रविणाभिलाषः । कस्मात्, भोगोपभोगक्रशनात् भोगोपभोगयोर्विवेकबलेनाल्पीकरणात् । काः कोपालादिक्रियाः तलारबन्दिपालवीतपालशौल्किकादिव्यापारान् । किंविशिष्टाः क्रूराः प्राणिघातकर्कशाः । किमर्य, धनाय द्रव्यार्थम् ॥ १९ ॥ भोगोपभोगव्रतातिचारपञ्चकं लक्षयति सचित्तं तेन सम्बद्धं सम्मिश्रं तेन भोजनम् । दुष्पकमप्यभिषवं भुञ्जानोऽत्येति तद्वतम् ।। २० ॥ टीका--अत्येति अतिचरति श्रावकः । किं तत्, तद्वतं भोगोपभोगपरिमाणवतं । किं कुर्वाणो, भुञानोऽभ्यवहरन् । किं तत्, भोजनं भुज्यत इति भोजनमाहारो भोज्यद्रव्यं । किं किं, सचित्तं तेन सम्बद्धं सम्मिश्रं तेन सचित्तेन सम्मिश्रं सम्बद्धं । दुष्पकमभिषवं च । अपिश्चार्थे । तत्र सचित्तं चेतनावद्र्व्यं हरितकायं । अपक्वं कर्वट्यादि । सबहुधातेत्यादिना निषिद्धेऽप्यत्र प्रवृत्तौ भङ्गसहावेऽप्यतिचाराभिधानं व्रतसापेक्षस्याप्रणिधानाति. क्रमादिना प्रवृत्तौ द्रष्टव्यमिति प्रथमः ॥ १ ॥ तेन सम्बद्धं सचित्तेनोपश्लिष्टं सचेतनवृक्षादिना संबद्धं गोन्दादिकं पक्कफलादिकं वा सचित्तान्नीजं खजूराम्रादि च तद्भक्षणं हि सचित्तभोजन. वर्जकस्य प्रमादादिना सावद्याहारप्रवृत्तिरूपत्वादतचारः । अथवा बीजं Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । त्यक्षयामि तस्यैव सचेतनत्वात् कटांहं तु भक्षयिष्यामि तस्याचेतनत्वादिति बुध्या पक्कं खर्जूरादिफलं मुखे प्रक्षिपतः सचित्तवर्जकस्य सचित्तप्रतिबद्धाहारोऽसौ द्वितीयः ॥ २ ॥ सम्मिश्रं तेन सचित्तेन व्यतिकीर्ण विभक्तमशक्यं सूक्ष्मजन्तुकमित्यर्थः । अथवा सचित्तशबलं तत्संमिश्रं यथा आर्द्रकदाडिमबीज चिर्भटादिमिश्रं पूर'णादिकं तिलमिश्रं च यवधानादिकं अयमपि पूर्ववदति चारस्तृतीयः ॥ ३ ॥ १३७ दुष्पकं सान्तस्तण्डुलभावेन अतिक्लेदनेन वा दुष्टं पक्कं मन्दपक्कं वा दुष्पकं तच्चार्धस्विन्नं पृथुकतण्डुलयवगोधूमस्थूलमण्डकफलादिकमामदोषावहत्वेनैहिकप्रत्यवायकारणं । तथा यावतांशेन तत्सचेतनं तावता तत्परलोकमध्यपहन्ति । पृथुकादेर्दुष्पकतया किञ्चित्सचेतनावयवत्वात्पक्वत्वाच्च चेतनाचेतनमिति भुञ्जानस्यातिचारश्चतुर्थः ॥ ४ ॥ अभिषवं सौवीरादिद्रवं वा वृष्यं वा । अयमप्यतिक्रमादिनाऽतिचारः पञ्चमः ॥ ५ ॥ चारित्रसारे पुनः सचित्ताद्याहाराणामतिचारत्वोपपादनार्थमिदमुक्तं एतेषामभ्यवहरणे सचित्तोपयोग इन्द्रियमदवृद्धिर्वाताविप्रकोपो वा स्यात् । -तत्प्रतीकारविधाने पापलेपो भवति । अतिथयश्चैनं परिहरेयुरिति ।। अत्राह स्वामी यथा-विषय विषतोऽनुपेक्षाऽनुस्मृतिरतिलोल्यमतितृषानुभवा ॥ भोगोपभोगपरिमा व्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥ १ ॥ विषयविषतो विपकल्पेषु विषयेषु अनुपेक्षा आदरो विषयानुभवात्तद्वेदनाप्रतीकारे जातेऽपि पुनरभीष्टाङ्गनासम्भाषणालिङ्गनाद्यवर्जनरूपः प्रथमः || अनुस्मृतिस्तु तदनुभवात्तत्प्रतीकारे जातेऽपि पुनः पुनर्विषयाणां सौन्दर्यसुखसाधनत्वाद्यनुचिन्तनमत्यासक्तिहेतुत्वादतिचारः ॥ अतिलौल्यं अतिगृद्धिस्तत्परिहारे जातेऽपि पुनः पुनस्तदनुभवाकांक्षेत्यर्थः ॥ अतितृषा कामिनी भोगादेरतिगृध्या प्रात्याकांक्षा । अत्यनुभवो नियतकालेऽपि यदा भोगोपभोगावनुभवति तदा अत्यासक्त्याऽनुभवति, न पुनर्वेदनाप्रतीकारतयाऽतोऽतिचार इति ॥ एतेऽपि चात्र ग्रन्थे परेऽप्यूह्यास्तदत्यया इतिवचनत्संगृहीता एव ॥ तद्वच्चेमेऽपि श्रीसोमदेवबुधाभिमता :- दुष्पक्वस्य निषिद्धस्य जन्तुसम्बद्धमिश्रयोः ॥ अवीक्षितस्य च प्राशस्तत्संख्याक्षतिकारणम् ॥ १ ॥ अत्राह Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ सागारधर्मामृते सिताम्बराचार्यः-भोगोपभोगसाधनं यद्व्यं तदुपार्जनाय यत्कर्म व्यापारस्त. दपि भोगोपभोगशब्देनोच्यते कारणे कार्योपचारात् । ततः कोहपालनादिख. रकर्मापि त्याज्यं । तत्र खरकर्मत्यागलक्षणे भोगोपभोगवते अङ्गारजीविकादीन् पञ्चदशातिचाराँस्त्यजोदिति । तदचारु । लोके सावद्यकर्मणां परिगणनस्य कर्तुमशक्यत्वात् । अथोच्यते अतिमन्दमतिप्रतिपत्त्यर्थं तदुच्यते तर्हि तान्. प्रतीदमप्यस्तु । मन्दमतीन् प्रति पुनस्त्रसबहुधातविषयार्थत्यागोपदेशेनैव तत्प. रिहारस्य प्रदर्शितत्वादिति ॥ २० ॥ एतदेव श्लोकत्रयेण संगृह्णन्नाह व्रतयेत्खरकर्मात्र मलान् पञ्चदश त्यजेत् । वृत्तिं वनग्न्यनस्फोटभाटकैयन्त्रपीडनम् ॥ २१ ॥ निर्लाञ्च्छनासतीपोषौ सर शोषं दवप्रदाम् । विषलाक्षादन्तकेशरसवाणिज्यमाझिरुक् ॥ २२ ॥ इति केचिन्न तच्चारु लोके सावद्यकर्मणाम् । अगण्यत्वात्मणेयं वा तदप्यतिजडान् प्रति ॥ २३ ॥ टीका-व्रतयेत् प्रत्याख्यायाच्छ्रावकः । किं तत्, खरकर्म खरं कूरं प्राणिबाधकं कर्म व्यापारं । तथा त्यजेत् तद्वती। कान्, मलान् कर्मादानसज्ञान्। कति, पञ्चदश वृत्तिमित्यादिना निर्दिष्टान् । क्व, अत्र खरकर्मव्रते । अत्र तावत् वृत्तिं जीविकां त्यजेत् । कैः, वनाग्न्यनःस्फोटभाटकैः वनं चाग्निश्च अनश्च स्फोटश्च भाटकं च तैः पञ्चभिः । तथा यन्त्रपीडनं त्यजेत् । तथा निर्लान्च्छनासतीपोषौ त्यजेत् निर्लाञ्छनं चासतीपोषश्चेति द्वन्द्वः। तथा सरःशोषं त्यजेत् । तथा दवप्रदां दवदानं त्यजेत् । तथा विषादिवाणिज्यपञ्चकं त्यजेत् । किंविशिष्टं, अङ्गिरुक । प्राणिबाधकं ॥ तत्र वनजीविका छिन्नस्याच्छिन्नस्य वा वनस्पतिसमूहादेविक्रयेण तथा गोधूमादिधान्यानां घरट्टशिलादिना पेषणेन दलनेन वा वर्तनम् ॥ १ ॥ · अग्निजीविका अङ्गारजीविकाख्या षड्जीवनिकायविराधनाहेतुना अङ्गारकरणाद्यग्निकर्मणा जीवनं ॥ २ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । १३९ ___ अनोजीविका शकटजीविका शकटरथतञ्चक्रादीनां स्वयं परेण वा निष्पा दनेन वाहनेन विक्रयणेन वृत्तिबहुभूतग्रामोपमर्दिका गवादीनां च बन्धादिहेतुः ॥ ३ ॥ स्फोटजीविका उडादिकर्मणा पृथिवीकायिकाद्युपमर्दहेतुना जीवनं ॥ ४ ॥ भाटकजीविका शकटादिभारवाहनमूल्येन जीवनं ॥ ५ ॥ यन्त्रपीडाकर्म तिलयन्त्रादिपीडनं तिलादिकं च दत्वा तैलादिप्रतिग्रहणम् । तत्कर्मणश्च पीलनाय तिलादिक्षोदात्तद्गतत्रसघाताच दुष्टत्वं ॥ ६ ॥ निर्लाञ्च्छनं • निर्लाञ्च्छनकर्म वृषभादेन सावेधादिना जीविका । निर्लाच्छनं नितरां लाञ्च्छनमगावयवच्छेदः ॥ ७ ॥ असतीपोषः प्राणिघ्नप्राणिपोषो भाटिग्रहणार्थ दासपोषश्च ॥ ८ ॥ सरःशोषो धान्यवपनाद्यर्थ जलाशयेभ्यो जलस्य सारण्या कर्षणं । तत्रच जलस्य तद्गतानां त्रसानां तत्पालितानां च षण्णां जीवनिकायानां घात इति दूष्यत्वम् ॥ ९॥ वधदानं दावाग्नेस्तृणादिदहनार्थ वितरणं ।. तञ्च फलनिरपेक्षतात्पर्याद्वनेचरैर्वह्निज्वालनं व्यसनजमुच्यते । पुण्यबुद्धिजं तु यथा मदीये मरणकाले इयन्तो मम श्रेयोऽर्थ दीपोत्सवाः करणीया इति पुण्यबुध्या क्रियमाणं । तृणदाहे सति नवतृणांकुरोफ़ेदानावश्चरन्तीति वा क्षेत्र वा सस्यसम्पत्तिवृद्धयेऽ ग्निज्वालनं अत्र जीवकोटिनां वधो व्यक्त एव ॥ १० ॥ विषवाणिज्यं जीवघ्नवस्तुनिक्रयः ॥ ११ ॥ लाक्षावाणिज्यं लाक्षाविक्रयणं । लाक्षायाः सूक्ष्मत्रसजन्तुघातानन्तकायिकप्रवालजालोपमर्दाविनाभाविना स्वयोनिवृक्षादुद्धरणेन टङ्गणमनःशिलासकूमालिप्रभृतीनां बाह्यजीवघातहेतुत्वेन गुग्गुलिकाया धातकीपुष्पत्वचश्च मद्यहेतुत्वेन तद्विक्रयस्य पापाश्रयत्वात् ॥ १२ ॥ ___ दन्तवाणिज्यं हस्त्यादिदन्ताद्यवयवानां पुलिन्दादिषु द्रव्यदानेन तदुत्पत्तिस्थाने वाणिज्यार्थं ग्रहणं । ते हि तथा ग्रहणे तत्प्रतिक्रयार्थ हस्त्यादिवंधं कुर्वन्ति । अनाकारे तु दन्तादिक्रयविक्रये न दोषः ॥ १३ ॥ ___ केशवाणिज्यं द्विपदादिविक्रयः । तत्र च दोषः तेषां पारवश्यवधबन्धादयः क्षुत्पिपासापीडा चेति ॥ १४ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते रसवाणिज्यं नवनीतादिविक्रयः । नवनीते हि जन्तुसमूर्छन । मधुवसामद्यादौ तु जन्तुघातोद्भवत्वं । मद्येन मदजनकत्वं तद्गतक्रिमिविघातश्चेति तद्विक्रयस्य दुष्टत्वं ॥ १५॥ इति केचित् एवं सिताम्बराचार्या अवते । न तच्चारु तदसुन्दरं । कुत, अगण्यत्वात् परिसंख्यातुमशक्यत्वात् । केषां, सावद्यकर्मणां सपापक्रियाणां। क्व, लोके व्यवहारार्थिजने वर्तमानानां। प्रणेयं वा प्रतिपाद्यं वा । किं तत् तदपि खरकर्मव्रतमपि । कथं, प्रति उद्दिश्य । कान्, अतिजडान् अतिमुग्धबुद्धीन् । जडान् प्रति सबहुघातेत्यादिनैवोक्तत्वादिति भावः ॥ इति गुणवतप्रकरणम् ॥ २१॥२२॥२३ ।। अथ शिक्षाव्रतविधानार्थमाहशिक्षावतानि देशावकाशिकादीनि संश्रयेत् । श्रुतचक्षुस्तानि शिक्षाप्रधानानि व्रतानि हि ॥ २४ ॥ टीका-संश्रयेत् प्रतिपद्येत श्रावकः । कानि, शिक्षाव्रतानि शिक्षा विद्योपानं, शिक्षाप्रधानानि व्रतानि शिक्षावतानि । किंविशिष्टानि, देशावकाशिकादीनि देशावकाशिकं, सामयिक, प्रोषधोपवासं, अतिथिसंविभागं च । कथम्भूतो भूत्वा, श्रुतिचक्षुः श्रुतज्ञानलोचनः । कुत, इत्याह-हि यस्मात् भवन्ति । कानि, तानि व्रतानि । किंविशिष्टानि, शिक्षाप्रधानानि ॥ २४ ॥ देशावकाशिकं निरुक्त्या लक्षयतिदिखतपरिमितदेशविभागेऽवस्थानमस्ति मितसमयम् ।। यत्र निराहुर्देशावकाशिकं तद्वतं तज्ज्ञाः ॥ २५ ॥ टीका-निराहुः प्रकृतिप्रत्ययादिविभागेन निश्चितं ब्रुवन्ति । के, तज्ज्ञाः तद्रतनिर्वचनविदः । किं, तद्वतं । किमाख्यं, देशावकाशिकं देशे दिग्वतगृहीतपरिमाणस्य क्षेत्रस्य विभागे अवकाशोऽवस्थानं देशावकाशः, सोऽस्मिन्नस्तीति । यत्र यस्मिन् व्रते। अस्ति विद्यते । किं तदवस्थानमवस्थितिः श्रावकस्य । क, दिगित्यादि-दिग्बते परिमितः प्रतिपन्नपरिमाणो देशः क्षेत्र Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । दिग्वतपरिमितदेशस्तस्य विभागस्तत्काले स्वावस्थानविषयीकृतोऽशस्त-. स्मिन् । किंविशिष्टमवस्थानं, मितसमयं परिमितकालं ॥ १५ ॥ तद्वतयुक्तं लक्षयति स्थास्यामीदमिदं यावदियत्कालमिहास्पदे ॥ . इति सङ्कल्प्य सन्तुष्टस्तिष्ठन्देशावकाशिकी ॥ २६ ॥ ___टीका-भवति । कोऽसौ,श्रावकः । किंविशिष्टो,देशावकाशिकी। किं कुर्वन् ,. तिष्ठन् लक्षणहेत्वोः क्रियाया इति शतृच । कालपरिच्छित्त्या नियतदेशे सन्तुष्टतयाऽवस्थानेन देशावकाशिकवतित्वपरिमाणस्य लक्ष्यमाणत्वात् । किं कृत्वा, संङ्कल्प्य मनसा सम्प्रधार्य । कथं, इति । किमिति स्थास्यामि स्थिति करिप्याम्यहं । क, इहास्मिन्नास्पदे स्थाने । कथं, इदमिदं यावत् गृहगिरिग्रामादिमवधिं कृत्वा । कियत्कालं, इयत्कालं घटिकादिप्रहरदिनादिमानं । किंवि. शिष्टः सन्, सन्तुष्टः सीमभ्यो बहिनिगृहीततृष्णः सन् । दिवतवदस्यापि नियमितदेशाद्वहिर्लोभनिग्रहेण हिंसादीनां च सर्वशो निवर्तनेनात्र फलवत्त्वात् अमुत्राज्ञैश्वर्यसम्पादकत्वाच्च सुतरां करणीयत्वं चास्य शिक्षाव्रतत्वं शिक्षाप्रधानत्वात्परिमितकालभावित्वाच्चोच्यते ।न खल्वेतद्दिग्व्रतवद्यावज्जीविकमपीयति॥यत्तु तत्त्वार्थादौ गुणव्रतत्वमस्य श्रूयते तदिग्वतसंक्षेपणलक्षणत्वमात्रस्येव विवक्षित्वाविवक्षितत्वाल्लक्ष्यते । दिग्वतसंक्षेपकरणं चात्रागुणव्रतादिसंक्षेष. कारणस्याप्युपलक्षणं द्रष्टव्यं । एषामपि संक्षेपस्यावश्यकर्तव्यत्वात्प्रतिव्रत च संक्षेपकरणस्य भिन्नव्रतत्वे गुणाः स्यु‘दशेति संख्याविरोधः स्यात् ॥ २६ ॥ तद्ब्रतातिचारत्यागार्थमाह पुद्गलक्षेपणं शाब्दश्रावणं प्रैषं सीमबहिर्देशे ततश्चानयनं त्यजेत् ॥ २७ ।। टीका-त्यजेत् तद्वतनैमल्यार्थी । किं, पुद्गलक्षेपणादिपञ्चकं । तत्र पुगलक्षेपणं परिगृहीतदेशाद्रहिः स्वयमगमनात्कार्यार्थितया व्यापारकारकाणां चोदनाय लोष्ठादिप्रेरणं ॥१॥ शद्वश्रावणं शब्दरयाभ्युत्कशिकादेः श्रावणमाव्हानीयानां श्रोत्रेऽनुपातनं शब्दानुपातनं नामातिचारमित्यर्थः ॥२॥ स्वाङ्गदर्शनं Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सागारधर्मामृते शब्दोच्चारणं विना आव्हानीयानां दृष्टौ स्वरूपस्यानुपातनं रूपानुपात्ताख्यमतिचारं । एतत् त्र्यं मायावितयाऽतिचारत्वं याति ॥ ३ ॥ प्रैषं मर्यादीकृतदेशे स्थित्वा ततो बहिः प्रेष्यं प्रत्येवं कुर्विति व्यापारणं । देशावकाशिकवतं हि मा भूद्गमनागमनादिव्यापारजीनतः प्राण्युपमर्द इत्यभिप्रायेण गृह्यते । स तु स्वयंकृतोऽन्येन कारित इति न कश्चित्फलविशेषः । प्रत्युत स्वयं गमने ईर्यापथविशुद्धेर्गुणः । परस्य पुनरनिपुणत्वादीर्यासमित्यभावे दोष इति प्रेष्यप्रयोगं नाम चतुर्थमतिचारं त्यजेदिति सर्वत्र योज्यम् ॥ ४ ॥ ततश्चानयनं सीमबहिदेशादिष्टवस्तुनः प्रेष्येण विवक्षितक्षेत्रे प्रापणं । चशब्देन सीमबहिर्देशे स्थितं प्रेष्यं प्रति इदं कुर्वित्याज्ञापनं वा । एतौ चाव्युत्पन्नबुद्धितया सहसाकारादिना वाऽतिचारौ स्तः । सर्वत्र च-र -सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंऽशभञ्ज नम् - इत्युपजीवम् ॥ २७ ॥ अप्ररूपितस्वरूपस्यानुष्ठानं न स्यादिति सामायिकस्वरूपं प्ररूपयतिएकान्ते केशवन्धादिमोक्षं यावन्मुनेरिव । स्वं ध्यातुः सर्वहिंसादित्यागः सामायिकत्रतम् ||२८|| टीका — भवति । किं तत्, सामायिकवतं समस्य रागद्वेषविमुक्तस्य सतः अयो ज्ञानादीनां लाभः प्रशमसुखरूपः स समायः, समाय एव सामायः सामायः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकं रागद्वेषहेतुषु मध्यस्थतेत्यर्थः अथवा समय आप्तसेवोपदेशस्तत्र नियुक्तं कर्म सामायिकं व्यवहारेण जिनस्नपनार्चास्तुतिजपाः । निश्चयेन च स्वात्मध्यानमेव सामायिकं । सामायिक मेवव्रतं सामायिकवतं । किं, सर्वहिंसादित्यागः सर्वत्र सर्वेषां च हिंसादीनां प्रमत्तयोगभाविनां प्राणव्यपरोपणादिपञ्चपापानां त्यागः परिहारः सर्वत्रेति व्याख्यानाद्देशावकाशिकादस्य भेदः सूच्यते । कस्य, शिक्षात्रतिनः । किंविशिष्टस्य, ध्यातुः साधुत्वेन ताच्छील्येन वा ध्यायतः । कं, स्वमात्मानं अन्तर्मुहूर्तमात्रं धर्म्यध्याननिष्ठस्येत्यर्थः । कस्येव, मुनेरिव सर्वारम्भपरिग्रहाग्रह - -रहितत्वाद्यतिना तुल्यस्य । क्क, एकान्ते विविक्तस्थाने । कियत्कालं, केशब - -न्धादिमोक्षं यावत् केशबन्ध आदिर्येषां मुष्टिबन्धवस्त्रग्रन्थ्यादीनां गृहीतनियमकालावच्छेदहेतूनां ते केशबन्धादयः तेषां मोक्षो मोचनं तमवधीकृत्य स्थितस्येत्यर्थः । सामायिकं हि चिकीर्षुर्यावदयं केशबन्धो वस्त्रग्रन्ध्यादिर्वा I Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । १४३ मया न मोच्यते तावत्साम्यान्न प्रचलिष्यामीति प्रतिज्ञां करोति ॥ (साधु. स्वेनेत्यत्र साकल्येनेति पाठभेदः ) २८ ॥ सामायिकभावनासमयं नियमयन्नाह परं तदेव मुक्त्यमिति नित्यमतन्द्रितः । नक्तं दिनान्तेऽवश्यं तद्भावयेच्छक्तितोऽन्यदा ॥२९॥ टीका-भावयेदभ्यस्येन्मुमुक्षुः । किं तत्सामायिकवतं । क्व, नक्तदिनान्ते नक्तं च दिनं च• नदिने तयोरन्ते निशावसाने दिवसावसाने चेत्यर्थः । कथं, अवश्यं नियमेन । अथवा नास्तिवश्यं व्याध्यादिपारतन्त्र्यं यत्र भावनकर्मणि तदवश्यं यथा भवति । किंविशिष्टः सन्, अतन्द्रितः अनलसः । कथं, नित्यं सर्वकालं । कुतो हेतोः, इति यतो भवति । किं तत्, तदेव सामायिकमेव । किंविशिष्टं, मुक्त्यङ्गं मोक्षसाधनं । किंविशिष्टं ,परमुत्कृष्टं । परमप्रकर्षप्राप्तचारित्रस्यैव साक्षान्मोक्षहेतुत्वसिद्धेः ॥ एवं तर्हि मध्याह्नादौ तन्न भाव. यितव्यमिति शङ्कायामिदमाह-शक्तितोऽन्यदेति । भावयेन्मुमुक्षुस्तत् । कदाs न्यदाऽन्यस्मिन्मध्याह्नादौ काले । कथं, शक्तितः स्वशक्तिमपेक्ष्य । नियमकाला दन्यदाऽपि तद्भावने दोषाभावाद्गुणसद्भावाच ॥ २९ ॥ ___सामायिकस्थेन परीषहोपसर्गोपनिपाते सति तयोर्जयार्थ किं ध्यातव्यमित्याह मोक्ष आत्मा सुखं नित्यः शुभः शरणमन्यथा । भवोऽस्मिन्वसतो मेऽन्यत्किं स्यादित्यापदि स्मरेत्॥३०॥ टीका-स्मरेत् ध्यायेत् । कोऽसौ, प्रतिपन्नसामायिकः किं तत्, इति एतत् । कस्यां सत्यां, आपदि विनिपाते परीषहोपसर्गसंसर्गे इत्यर्थः । एतेन प्रतिपन्नसामायिकेन परीषहोपसर्गाः सोढव्या इत्याक्षिप्यते । किमेतदित्याह-- भवति । कोऽसौ, मोक्षः । किं, आत्मा अनन्तज्ञानादिरूपत्वात् । तथा सुख अनाकुलचिद्रूपत्वात् । तथा नित्यः अनन्तकालभाविप्रध्वंसाभावरूपत्वात् । तथा शुभः शुभकारणप्रभवत्वाच्छुभकार्यत्वाच्च । तथा शरणं समस्तविपदग. म्यतया अपायपरिरक्षणोपायत्वात् । संसारः किंरूप इत्याह-अस्ति । कोऽसौ, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सागारधर्मामृतेभवः स्वोपात्तकर्मोदयवशाच्चतुर्गतिविवर्तपरिवर्तनं । कथं, अन्यथा मोक्षविपरीतलक्षणः अनात्मा दुःखमनित्योऽशरणमित्यर्थः । अस्मिँश्च भवे । वसतोऽ वतिष्ठमानस्य मम किमन्यत्सुखदुःखादि स्यादभूदस्ति भविष्यति च किन्वा. पात एव पुनःपुनर्भवेदित्यर्थः ॥ ३० ॥ सामायिकसिध्द्यर्थमन्यत्र श्रावकेण किं कर्तव्यमित्यत्राह स्नपना स्तुतिजपान् साम्यार्थ प्रतिमार्पिते । युंज्याद्यथाम्नायमाघाइते सङ्कल्पितेऽर्हति ॥ ३१ ॥ टीका-युज्यात्प्रयोजयेत् मुमुक्षुः । कान्, स्नपना स्तुतिजपान् स्नपनमाश्रुत्येद्यादौ व्याख्यास्यते, अर्चादयो ज्ञानदीपिकायामत्र च प्राग्यथास्थानं व्याख्याताः । क्व, स्नपनादीन युञ्ज्यात् अर्हति भगवदर्हदेवे । किंविशिष्टे, प्रतिमार्पिते साकारस्थापनामवतारिते । कथं, यथान्नायं उपासकाध्ययनाद्यागमानतिक्रमेण । किमर्थ, साम्याथ परमार्थसामायिकसिध्द्यर्थ अन्यत्र किं प्रयोक्तव्यमित्याह-आधादित्यादि-युङ्ग्यात्साम्यार्थी । किं तत्, आद्यात्स्नपनात् । ऋते विना अन्यदर्चादित्रयं । क्व, अर्हति । किंविशिष्टे, सङ्कल्पिते निराकारस्थापनार्पिते । एतेन कृतप्रतिमापरिग्रहाः सङ्कल्पिताप्तपूजाग्रहाश्चेति ये देवसेवाधिऽकृता इति सूच्यते ॥ ३१ ॥ सामायिकस्य सुदुष्करत्वशङ्कामपाकरोति सामायिकं सुदुःसाधमप्यभ्यासेन साध्यते । निम्नीकरोति वार्बिन्दुःकिं नाश्मानं मुहुःपतन् ॥३२॥ टीका-साध्यते निष्पाद्यते । किं तत्, सामायिकं । केन, अभ्यासेन असकृत्प्रवृत्या । किंविशिष्टमपि, दुःसाधमपि अतिशयेन निष्पादयितुमशक्यमपि । अत्र दृष्टान्तमाह-किं न निम्नीकरोति अनिम्नं निम्नं करोति । कोऽसौ, वार्बिन्दुः । जलबिन्दुः । कम्, अश्मानं शिलां । किं कुर्वन् , पतन् । कथं, मुहु रंवारं । अत्र बाह्या अप्याहुः-अभ्यासो हि कर्मणां कौशलमावहति । न हि सकृन्निपातमात्रेणोदबिन्दुरपि ग्राणि निम्नतामादधातीति ॥ ३२ ॥ - तदतिचारपरिहारार्थमाह ___ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । पञ्चात्रापि मलानुज्झेदनुपस्थापनं स्मृतेः। कायवाङ्मनसा दुष्टप्रणिधानान्यनादरम् ॥ ३३ ॥ टीका-उज्झेत् त्यजेत् । फलार्थी। कान्, पञ्च मलान् । क, अत्रापि व्रतान्तरवत्सामायिकेऽपि । किं किं, स्मृत्यनुपस्थापनं कायवाङानसां दुष्टप्रणिधानानि श्रीणि, अनादरं च, तत्र स्मृतेरनुपस्थापनं सामायिके अनैकाग्र्यमित्यर्थः । अथवा सामायिकं मया कर्तव्यं न कर्तव्यमिति वा सामायिकं मया कृतं न कृतमिति वेति प्रबलप्रमादादस्मरणमतीचारः । स्मतिमूलत्वान्मोक्षमार्गानष्टानस्य । कायेत्यादि दुष्टप्रणिधानं सावधे प्रवर्तनं तत्र हस्तपा. दादीनामनिश्चलभृतत्वावस्थापनं कायदुष्प्रणिधानं । वर्णसंस्काराद्भवोऽर्थानवगमश्चापलं च वाग्दुष्प्रणिधानं । क्रोधलोभद्रोहाभिमानेादयः कार्यव्यासङ्गसम्भ्रमश्च मनोदुष्प्रणिधानं । एते त्रयोऽतीचाराः । मनोदुष्प्रणिधानस्य स्मृत्यनुपस्थापनस्य चायं भेदः क्रोधाद्यावेशात्सामायिके मनसश्विरमनवस्थापन प्रथमं । चिन्तायाः परिस्पन्दनादैकाग्र्येणानवस्थापनमन्यत्। अनादरोऽनुत्साहः प्रतिनियतवेलायां सामायिकस्याकरणं यथाकथञ्चिद्वा करणं। करणानन्तरमेव भोजनादिव्यासञ्जनं च । न चात्राविधिकृताद्वरमकृतमित्यसूयावचनं प्रमाणी. कृत्य भङ्गसम्भावनया सामायिकस्याप्रतिपत्तिः कर्तव्या। यतीनामप्यारम्भे भावितपूर्वत्वादेकदेशविराधनस्य सम्भवात् । न चैतावता तस्य भङ्गोऽपि मनसा सावधं न करोमीत्यादिप्रत्याख्यानेष्वेकतरभङ्गेऽपि शेषसद्भावान्न सामायिकस्यात्यन्ताभाव इत्यमीषामतिचारतैव । सुभावितसामायिकस्तु यदा श्रावको भविष्यति तदा तृतीयपदमेवाभ्युपगमिष्यतीति युक्तो व्रतिकस्यातिचारपरिहाराय यत्नः ॥ ३३ ॥ अथ प्रोषधोपवासव्रतं लक्षयति स प्रोषधोपवासो यच्चतुष्पा यथागमम् । साम्यसंस्कारदात्याय चतुर्भुक्त्युज्झनं सदा ॥ ३४ ॥ टीका-भवति । कोऽसौ, सः प्रोषधोपवासः प्रोषधे पर्वण्युपवासः उपवसनं । यत्किं, यच्छ्रावकेण क्रियते । किं तत्, चतुर्भुक्तयुज्झनं चतसृणां भुक्तीनां भोज्यानामशनस्वाद्यखाद्यपेयद्रव्याणां भुक्तिक्रियाणां च त्यागः । एका हि भुक्ति Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सागारधर्मामृतेक्रिया धारणकदिने द्वे उपवांसदिने चतुर्थी च पारणकदिने प्रत्याख्यायते । कस्यां, चतुष्पां चतुर्णा पर्वणां समाहारश्चतुष्प: तस्यां । मासे मासे द्वयोरष्टम्योश्चतुःश्योरित्यर्थः । कथं, यथागमं आगमानतिक्रमेण । किमर्थं, साम्य. संस्कारदाढाय साम्यस्य सामायिकस्य संस्कार उत्कर्षस्तस्य दाढ्यं स्थिरीकरणं परीषहाद्यापातेऽपि अविचलनं तस्मै। कदा, सदा सर्वस्मिन् काले यावजीवमित्यर्थः ॥ ३४ ॥ एवमुत्तमं प्रोषधविधानमुक्त्वा मध्यमं जघन्यं च तदुपदेष्टुमाह उपवासाक्षमैः कार्योऽनुपवासस्तदक्षमैः । आचाम्लनिर्विकृत्यादि शक्त्या हि श्रेयसे तपः ।।३५ ।। टीका --कार्यः कर्तव्यः । कोऽसौ, अनुपवासः जलवर्जनचतुर्विधाहारत्यागः। ईषदुपवासोऽनुपवास इति व्युत्पत्तेः । कैः, उपवासाक्षमैः प्रागुक्तलक्षणमुप वासं कर्तुमसमथैः । तथा कार्य । किं तत् । आचाम्लनिर्विकृत्यादि । कैः, तद. क्षमैः अनुपवासमपि कर्तुमसमथैः । तत्राचाम्लमसंस्कृतसौवीरमिश्रौदनभो. जन । निर्विकृतिः विक्रियेते जिह्वामनसी येनेति विकृतिोरसेक्षुरसफलरस. धान्यरसभेदाच्चतुर्धा । तत्र गोरसः क्षीरघृतादिः, इक्षुरसः खण्डगुडादिः, फलरसो द्राक्षाम्रादिनिष्यन्दो, धान्यरसस्तैलमण्डादिः । अथवा यद्येन सह भुज्यमानं स्वदते तत्तत्र विकृतिरित्युच्यते । विकृतनिष्क्रान्तं भोजनं निर्विकृति । आदिशब्देनैकस्थानकभक्तरसत्यागादि । हि यस्मात् । भवति । किं तत्तपः । कस्मै, श्रेयसे पुण्याय वा । कया चरितं, शक्त्या बलेन वीर्येण च ॥ ३५॥ यथागममित्यस्यार्थं चतुःश्लोक्या व्याचष्टे पर्वपूर्वदिनस्यार्धे भुक्त्वाऽतिथ्यशितोत्तरम् । लात्वोपवासं यतिवद्विविक्तवसतिं श्रितः ॥ ३६ ॥ धर्मध्यानपरो नीत्वा दिनं कृत्वाऽऽपराह्निकम् । नयेत्त्रियामां स्वाध्यायरतः प्रासुकसंस्तरे ॥ ३७ ।। टीका-नयेद्गमयेत् प्रोषधोपवासी । कां, त्रियामां रात्रि । क्व, प्रासुकसंरंतरे निर्जन्तुकायां भूमौ निर्जन्तुकैश्च तृणदर्भादिभिः कृते शयने। किंविशिष्टः Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । १४७ सन्, स्वाध्यायरतः । एतेन निद्रालस्ये त्यजेदिति लक्षयति । किं कृत्वा, विधाय । किं तत्, आपराह्निकं अपराह्णे भवं कर्म सांध्यं क्रियाकल्प मित्यर्थः । किं कृत्वा, नीत्वा अतिक्रम्य । किं तत्, दिनं । किंविशिष्टः सन् 1 धर्मध्यानपर आज्ञापायविपाक लोकसंस्थानविचयैकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणधर्मध्यानपरः । ध्यानोपर मे स्वाध्यायानुप्रेक्षाचिन्तनादिकमपि कार्यमिति परशब्देन प्रधानार्थेन सूच्यते । किंविशिष्टो भूत्वा, श्रितः अधिष्टितः । कां विविक्तवसतिं विविक्तां प्रासुकां अयोग्यजनरहितां निर्जनां वा वसतिं स्थानं । किं कृत्वा, लात्वा स्वीकृत्य । कं, उपवासं । किंवत्, यतिवत् यतिना तुल्यं यथा यतिर्भोजनानन्तरमेवोपवासं गृह्णाति विधिवत्सूरेश्व समीपं गत्वा पुनरुच्चारयति । सावद्यव्यापारं शरीरसंस्कारमब्रह्म च सदा त्यजति एवं प्रोषधे श्रावकोऽपि प्रवर्ततामित्यर्थः ॥ किं कृत्वा, भुक्त्या यथाविधि भोजनं कृत्वा । कथं, अतिथ्यशितोत्तरं अतिथेरशिताद्भोजनविधापनादनन्तरमतिथिं भोजयित्वेत्यर्थः । क्व, अर्धे । कस्य, पर्वपूर्वदिनस्य सप्तम्यास्त्रयोदश्याच अर्धे महरद्वये वा किञ्चिन्न्यूनेऽधिकेऽपि वा । समेऽप्यसमेऽपि वांऽशेऽर्धशब्दस्य रूढत्वात् ॥ ३६।३७ ॥ ततः माभातिकं कुर्यात्तद्वद्यामान् दशोत्तरान् । नीत्वाऽतिथिं भोजयित्वा भुञ्जीतालौल्यतः सकृत् ॥ टीका-कुर्याद्विध्यात् प्रोषधोपवासी । किं तत्, प्राभातिकं प्रभाते भवं कर्मावश्यकादिकं । कस्मात्, ततः यथोक्तविधिना प्रहरषट्कनयनादनन्तरं ततश्च भुज्जति भोजनं कुर्यात् असौ । कस्मादलौल्यतः भोजने आसक्तिमकृत्वेत्यर्थः । कथं, सकृदेकवारं पारणकदिनेऽप्येकभुक्तं कुर्यादित्यर्थः । किं कृत्वा, नीत्वा लङ्घयित्वा । कानू, यामान् प्रहरान् । कति दश । किंविशिष्टानुत्तरान् । अष्टावुपवासगोचराहोरात्रस्य द्वौ चोत्तरदिनस्य । किंवत्, तद्वत् पूर्वोक्तपट्हरवत् ॥ ३८ ॥ पूजयोपवसन् पूज्यान् भावमय्यैव पूजयेत् । मासुकद्रव्यमय्या वा रागाङ्गं दूरमुत्सृजेत् ॥ ३९ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ सागारधर्मामृते mmmmmmmmmmmm टीका-पूजयेदर्चयेत् असौ । उपवसन्नुपवासतपश्चरन् । कान्, पूज्यान् परमेष्टिश्रुतगुरून् । कया, पूजया आराधनया । किंविशिष्टया, भावमय्या सानुरागतद्गणानुस्मरणलक्षणया भावपूजार्थत्वात् द्रव्यपूजायाः । भावपूजा च सामायिकप्रसक्तत्वेनोपवसतः सिद्धेव । तदशक्तौ वा पूज्यान पूजया पूजयेत् । किंविशिष्टया, प्रासुकद्रव्यमय्या अक्षतमौक्तिकमालादिप्रकृतया। तथा दूरमत्यन्तं । उत्सृजेत् त्यजेदसौ। किं तत्, रागाङ्गं इन्द्रियमनःप्रीतिसाधनं गीतनृत्यादिकं ॥ ३९ ॥ एतद्रतातिचारपरिहारार्थमाह ग्रहणास्तरणोत्सगांननवेक्षाप्रमार्जनान् । अनादरमनैकाग्र्यमपि जह्यादिह व्रते ॥ ४० ॥ टीका-जह्यात् त्यजेत् श्रावकः । कान्, ग्रहणास्तरणोत्सर्गान् त्रीन् । किंविशिष्टान्, अनवेक्षाप्रमार्जनान् । तथा अनादरं चतुर्थ । अनैकाग्यं च पञ्चमं । क्व, इहास्मिन् प्रोषधोपवासाख्ये व्रते । अत्र ग्रहणं अर्हदादिपूजोपकरणपुस्तकादेरात्मपरिधानाद्यर्थस्य वाऽऽदानं । उपलक्षणात्तन्निक्षेपोऽपि आस्तरणं संस्तरोपक्रमणं । उत्सर्गो विमूत्रादीनां त्यागः । अवेक्षा जन्तवः सन्ति न सन्तीति वा चक्षुषा अवलोकनं । प्रमार्जनं मृदुनोपकरणेन प्रतिलेखनं । अवेक्षा च प्रमार्जनं च अवेक्षाप्रमार्जने ते न विद्यते येषु तान् । इह चानवेक्षया दूरावेक्षणमप्रमार्जनेन च दुष्प्रमार्जनं संगृह्यते नञः कुत्सार्थस्यापि दर्शनात् । यथा कुत्सितो ब्राह्मणोऽब्राह्मणः । अनादरः क्षुत्पीडितत्वादावश्यकेष्वनुत्साहः प्रोषधव्रत एव वा । तद्वदनैकाग्यमपि अन्यमनस्कत्वम् ॥ ४०॥ अथातिथिसंविभागवतं लक्षयति व्रतमतिथिसंविभागः पात्रविशेषाय विधिविशेषेण । द्रव्यविशेषवितरणं दातृविशेषस्य फलविशेषाय ॥४१ ।।। टीका-भवति । किं तद्रतं नियमेन सेव्यतया प्रतिपन्नत्वात् तथा च सति अतिथ्यलाभेऽपि तहानफलभाक्त्वोपपत्तेः । किं नाम, अतिथिसंविभागः अतिथेः सम्यक् निर्दोषो विभागः स्वार्थकृतभक्ताद्यंशदानरूपः। एतदेव व्यक्ती Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः। १४९ कर्तुमाह-द्रव्यविशेषवितरणं वक्ष्यमाणलक्षणविशिष्टद्रव्यदानं । कस्मै, पानविशेषाय । कस्य कर्तुः, दातृविशेषस्य । केन, विधिविशेषेण । कस्मै, फलविशेषाय ॥ ४१ ॥ अतिथिशब्दव्युत्पादनमुखेनातिथिलक्षणमाह ज्ञानादिसिद्धयर्थतनुस्थित्यत्राय यः स्वयम् । यत्नेनातति गेहं वा न तिथिर्यस्य सोतिथिः ॥४२॥ टीका-भवृति । कोऽसावतिथिः । यः किं, योऽतति सर्वदा गच्छति । किं तत्, गेहं दातृगृहं । केन, यत्नेन संयमाविराधनेन । कथं, स्वयं आह्वानादिना विना । किमर्थ, ज्ञानादीत्यादि-ज्ञानादीनां सिद्धिः साधनं सम्पूर्णीकरणं ज्ञानादिसिद्धिरर्थः प्रयोजनं यस्याः सा ज्ञानादिसिध्द्यर्था सा चासो तनुश्च शरीरं ज्ञानादिसिध्द्यर्थतनुः तस्याः स्थितिर्यावदायुरवस्थानं सैवार्थः प्रयोजनं यस्य तत्तदर्थ तच्च तदन्नं च भोजनं तस्मै वा । अथवा सोऽतिथिर्भण्यते । उपलक्षणात्पर्वोत्सवौ च । नास्ति तिथिर्यस्येत्यतिथिरिति व्युत्पत्तेः । उक्तं च-" तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना । अतिथिं तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः” ॥ ४२ ॥ पात्रस्वरूपसंख्या निर्णयार्थमाह यत्तारयति जन्माब्धेः स्वाश्रितान्यानपात्रवत् । मुक्त्यर्थगुणसंयोगभेदात्पात्रं त्रिधा मतम् ॥ ४३ ॥ टीका--अस्ति भवति । किं तत्पात्रं । कतिधा, त्रिधा त्रिभेदं । कस्मात्, मुक्तरों निमित्तं कारणं, मुक्तिर्वाऽर्थः प्रयोजनं येषां ते मुक्त्यर्थास्ते च ते गुणाश्च सम्यग्दर्शनादयो मुक्त्यर्थगुणास्तेषां संयोगः संयुज्यमानत्वं तेन भेदो विशेषस्तस्मात् । यत्किं, यत्तारयति पारं प्रापयति । कान्, स्वाश्रितान् दानस्य कर्तृहेतुकत्रनुमन्तुन् । कस्मात्, जन्माब्धेः संसारादर्णवादिव । किंवत्, यानपात्रवत् यानपात्रभम्भाधिस्थं यथा स्वाश्रितान् साँयात्रिकादीन् समुद्रा. त्तारयति तथा संसारादाश्रितान् यत्तारयति तत्पात्रमित्यर्थः ॥ ४३ ॥ एतदेव विशेषयन्नाह-- Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते यतिः स्यादुत्तमं पात्रं मध्यमं श्रावकोऽधमम् । सुदृष्टिस्तद्विशिष्टत्वं विशिष्टगुणंयोगतः ॥ ४४ ॥ टीका-स्यात् । किं तत्, पात्रं । किंविशिष्टं, उत्तममुत्कृष्टं । किं तत्, यतिः संयुज्यमानरत्नत्रयः । तथा मध्यमं पात्रं स्यात् । किं तत्, श्रावकः संयुज्यमानसम्यग्दर्शनज्ञानविकलसंयमः । तथा अधर्म पातं स्यात् । किं. तत्, सुदृष्टिरसंयतसम्यग्दृष्टिः । स्याच्च । किं तत्, तद्विशिष्टत्वं तेषामुत्तममध्यमाधमपात्राणां विशेषः परस्परतः परेभ्यश्च भेदः । कस्मात्, विशिष्टगुणयोगतः गुणविशेषसम्बन्धात ॥ ४४ ॥ दानविधेः प्रकारान् वैशिष्टयं चाह प्रतिग्रहोच्चस्थानांघ्रिक्षालनाचीनतीविदुः। योगानशुद्धीश्च विधीन् नवादरविशेषितान् ॥ ४५ ॥ टीका-विदुः जानन्ति पूर्वाचार्याः । कान्, विधीन् दानप्रयोगोपायान् । कति, नव । किमाख्यान, प्रतिग्रहादीन् । किंविशिष्टान्, आदरविशेषितान् आदरेण यथायोग्यभक्त्युपचारेण वैशिष्टयं नीतान् ॥ तत्र प्रतिग्रहः स्वगृहद्वारे यतिं दृष्ट्वा प्रसादं कुरुतेत्यभ्यर्थ्य नमोऽस्तु तिष्ठतेति त्रिणित्वा स्वीकरणं ॥ उच्चस्थानं स्वगृहान्तः स्वीकृतयतिं नीत्वा निरवद्यानपहतस्थाने उच्चासने निवेशनं ॥ अंघ्रिक्षालनं तथास्वीकृतनिवेशितसंयतस्य प्रासुकोदकेन पादधावनं तत्पादोदकवन्दनं च ॥ अर्चा तथाक्षालितांब्रेः संयतस्य गन्धाक्षतादिभिः पादपूजनं ॥ आनतिः तथापूजितसंयतस्य पञ्चाङ्गप्रणामकरणं । एते पञ्च ॥ तथा योगशुद्धयो मनोवाक्कायप्रसत्तयस्तिस्रः ॥ एका चान्नशुद्धिः । तत्र मनःशुद्धिरातरौद्रवर्जनं । वाक्शुद्धिः परुषकर्कशादिवचोवर्जनं ।। कायशुद्धिः सर्वत्र संवृताचारतया प्रवर्तनं ॥ अन्नशुद्धिः चतुर्दशमलरहितस्याहारस्य यतनया शोधितस्य हस्तपुटेऽर्पणम् ॥ ४५ ॥ देयद्रव्यविशेषनिर्णयार्थमाह पिण्डशुद्धयुक्तमन्नादिद्रव्यं वैशिष्टयमस्य तु । रागाद्यकारकत्वेन रत्नत्रयचयाङ्गता ॥ ४६ ।। ____ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । १५१ win mmmmmwww टीका-भवति । किं तत्, द्रव्यमर्थादेयं । किंविशिष्टमन्नादि आहारौषधावासपुस्तकपिच्छिकादि । किंविशिष्टं तत्, पिण्डशुध्द्युक्तं पिण्डशुद्धौ पिण्डशुद्धिप्ररूपणार्थे पूर्वमनगारधर्मस्कन्धे पञ्चमाध्याये प्रतिपादितं । अस्य तु यथोक्तदेय द्रव्यस्य पुनर्भवति । किं तत्, वैशिष्टयं विशेषः । किं तत्, रत्नतयचयाङ्गता सम्यग्दर्शनादिवृद्धिकारणत्वं । केन, रागाद्यकारकत्वेन रागद्वेपासंयममददुःखचयाद्यजनकत्वेन ॥ ४६ ॥ दातृलक्षणं तद्वैशिष्टयं चाह नवकोटीविशुद्धस्य दाता दानस्य यः पतिः। भक्तिश्रद्धासत्त्वतुष्टिज्ञानालौल्यक्षमागुणः ॥ ४७ ।। टीका-स दाता भण्यते पूर्वाचार्यैः । यः किं, यो भवति । किंविशिष्टः,पतिः स्वामीप्रयोक्ता । कस्य, दानस्य देयस्य दत्तिक्रियाया:वा। किंविशिष्टस्य, नवकोटीविशद्वस्य नवकोट्यः मनोवाकायैः प्रत्येकं कृतकारितानमतानि । अथवा देयशुद्धिस्तत्कृते च दातृपात्रशुद्धी,दातृशुद्धिस्तत्कृते च देयपात्रशुद्धी पात्रशुद्धिस्त स्कृते च देयदातृशुद्धी चेत्यार्पोक्ताः । नवकोटीभिर्विशुद्धमकृतपिण्डशुध्द्युक्तदोषसम्पर्क आर्षोक्तं तत्पक्षे नु नवकोट्या विशुद्धाः सुप्रसिद्धा यत्रेति विग्रहः । किंवि. शिष्टः सन् , भक्तीत्यादि भक्त्यादयः सप्तगुणाः विशेषणानि परासाधारणानि यस्य स तथोक्तः । तत्र भक्तिः पात्रगुणानुरागः। श्रद्धा पात्रदानफले प्रतीतिः। सत्त्वं सत्त्वाख्यो मनोगुणः स्वल्पवित्तस्यापि स्वाट्याश्चर्यकारिदानप्रवृत्त्यङ्गं । तुष्टिः दत्ते दीयमाने च प्रहर्षः । ज्ञानं द्रव्यादिवेदित्वं । अलौल्यं सांसारिकफलानपेक्षा । क्षमा दुर्निवारकालुप्यकारणोत्पत्तावपि कोपाभावः ।। तदुक्तंभाक्तक तौष्टिकं श्राद्धं सविज्ञानमलोलुपम् । सात्त्विकं क्षमकं सन्तो दातारं सप्तधा विदुः ॥ १॥ किं च । सत्त्वादिगुणदातृकं दानमपि सात्त्विकादिभेदात्रिविधमिप्यते । तदुक्तं--" आतिथेयं हितं यत्र यत्र पात्रपरीक्षणम् ।। गुणाः श्रद्धादयो यत्र तदानं सात्त्विकं विदुः ॥ १॥ यदात्मवर्णनप्रायं क्षणि काहार्यविभ्रमम् ॥ परप्रत्ययसम्भूतं दानं तद्राजसं मतम् ॥ २ ॥ पात्रा. पात्रसमावेक्षमसत्कारमसंस्तुतम् ॥ दासभृत्यकृतोद्योगं दानं तामसमूचिरे ॥३ ॥ उत्तमं सात्त्विकं दानं मध्यमं राजसं भवेत् ॥ दानानामेव सर्वेषां जघन्यं तामसं पुनः" ॥ ४७ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सागारधमामृतेदानफलं तद्विशेषं च व्याचष्टे रत्नत्रयोच्छ्रयो भोक्तुर्दातुः पुण्योच्चयः फलम् । मुक्त्यन्तचित्राभ्युदयप्रदत्वं तद्विशिष्टता ॥ ४८ ॥ टीका--भवति । किं तत्, फलं दानस्य साध्यं । कस्य, भोक्तुराहाराद्युपयोक्तुः । किं तत्, रत्नत्रयोछूयः सम्यग्दर्शनादीनामुद्गतिः तथा तत्फलं भवति । कस्य, दातुर्दायकस्य । किं तत्पुण्योच्चयः सुकृतराशिः । भवति । काऽसौ, तद्विशिष्टता तस्य दानस्य फलस्य वैशिष्टयं । किं तत्, मुक्त्यन्तेत्यादि चित्र नानाप्रकारा इन्द्रचक्रिबलदेवतीर्थकरादिपदलक्षणाः विश्वविस्मयकराश्च अभ्युदयाश्चित्राभ्युदयाः, मुक्तिरनन्तज्ञानादिचतुष्टयप्राप्तिलक्षणं निःश्रेयसं अन्ते अवसाने फलोपभोगच्छेदे येषां ते मुक्त्यन्तास्ते च ते चित्राभ्युदयाश्च मुक्त्यन्तचित्राभ्युदयास्तान् प्रकर्षणाप्रतिबन्धलक्षणेन ददाति सम्पादयतीति तत्प्रदं, तस्य भावस्तत्त्वम् ॥ उक्तं च--" पात्रदाने फलं मुख्यं मोक्षः सस्यं कृषेरिव ॥ पलालमिव भोगास्तु फलं स्यादानुषङ्गिकम्” ॥ ४८ ॥ गृहव्यापारप्रभवपातकापनोदनसामर्थ्य मुनिदानस्य दर्शयति पञ्चमूनापरःपापं गृहस्थःसञ्चिनोति यत् । तदपि क्षालयत्येव मुनिदानविधानतः ॥ ४९ ॥ टीका-यत्पापं सञ्चिनोति सम्बध्नाति गृहस्थः । किंविशिष्टः सन् , पञ्चसूनापरः, पेषणी कुट्टनी चुल्ली उदकुम्भी प्रमार्जनी चेति पञ्च क्रियाः सूना इति प्रसिद्धाः । सूना इव सूनाः प्राणिवातस्थानसाधात् । पञ्च सूनाः पराः प्रधानानि यस्य सः पञ्चसूनापरः । आसामवश्यम्भावित्वाद्हस्थस्य प्राधान्येनोपादानं । तेन ततो अन्यान्यपि पापकर्माणि गुणभावेन गृहिणः संगृह्यन्ते । क्षालयत्येव अवश्यं स्फेटयति । गृहस्थः । किं तत्, तदपि पञ्चावश्यकार्यव्या. पारहेतुकं पापं । अपिविस्मये समुच्चये वा । न केवलं तदेव पापं क्षालयति व्यापारान्तरप्रभवमपीत्यर्थः । कस्मात्, मुनिदानविधानतः मुनये उत्तमपात्राय दानं स्वपरोपकाराय स्वद्रव्यातिसर्जनं मुनिदानं तस्य विधानं विधिवत्प्रयोगः नम्मातेन वा ॥ १९ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः। १५३ दानस्य कादीनां फलानि दृष्टान्तमुखेन स्पष्टयतियत्कर्ता किल वज्रजङ्कनृपतिर्यत्कारयित्री सती श्रीमत्यप्यनुमोदका मतिवरव्याघ्रादयो यत्फलम् । आसेदुर्मुनिदानतस्तदधुनाऽप्याप्तोपदेशाब्दकव्यक्त कस्य करोति चेतास चमत्कारं न भव्यात्मनः ॥५०॥ टीका--किल एवं ह्याचे श्रूयते । यदासेदुः प्राप्ताः । के ते, मुनिदानस्य कादिभावमापन्ना वज्रजङ्घमहाराजप्रभृतयः । किं तत्फलं । कस्मात् मुनिदानतः । तत्कस्य चेतसि चमत्कारं न करोतीति समुदायेनार्थकथनं । इयं तु प्रत्येकवाक्यपरिसमाप्तिरिदानी प्रदश्यते। यत्किल वज्रजवनृपतिरुत्प, लखेटनगराधिपतिर्वज्रजवो नाम नृपतिराससाद प्राप्तः। किं तत्फलं। कस्मान्मुनिदानतः । किंविशिष्टः सन् , कर्ता दानस्य स्वातंत्र्येण विधाता । यच्च आससाद । काऽसौ, सती पतिव्रता । किंनाम्नी, श्रीमती पुण्डरीकिणीनाथस्य वज्रदन्तचक्रिणः पुत्री वज्रजङ्घनपतेः पत्नी । किं तत्, फलं । कस्मात्, मुनिदानतः। किंविशिष्टा सती, कारयित्री स्वभर्तुर्दानं कुर्वतः प्रयोजयित्री। अपिः समुच्चये पूर्वत्रोत्तरत्र च चशब्दार्थे योज्यः । यच्च आसेदुः प्राप्ताः । के ते, मतिवरव्याघ्रादयो मुनिदानतः फलं । मतिवरो वज्रजङ्वनृपतेर्मन्त्री आदिशब्दादानन्दो नाम तस्यैव पुरोहितोऽकम्पनाभिधानः सेनापतिर्धनमि. त्रनामा च श्रेष्टी । पुनरादिशब्दात्सूकरो वानरो नकुलश्च गृह्यते । मतिवरश्च व्याघ्रश्च मतिवरव्याघ्रौ तावादी येषामानन्दाख्यपुरोहितादीनां तद्वनवासिसू. करादीनां च ते मतिवरव्याघ्रादय इति विग्रहः। किंविशिष्टाः सन्तोऽनुमोदका एष साधु करोतीति तद्दानस्यानुमन्तारः तत्कर्तृत्वकारयितृत्वानुमोदकत्वपरिणामद्वारायातसुकृतसंघातहेतुकं मुनिदानफलं कर्तकस्य भव्यात्मनः चेतसि चमत्कारं न करोति ? सर्वस्यापि करोतीत्यर्थः । कदा, अधुनाऽपि । किं पुनस्तत्काले । किंविशिष्टं सत्, आप्तोपदेशाद्धकव्यक्तं आप्तानां परापरगुरूणामुपदेशो रहस्यवाक्यमाप्तोपदेशः स एवादक आदर्शः स्वविषयार्थस्पष्टप्रती. तिनिमित्तत्वादाप्तोपदेशाद्वकस्तत्र तेन वा व्यक्तंप्रतीतियोग्यतां नीतम्॥५० ।। अधुना अतिथ्यन्वेषणविधि श्लोकद्वयेनाह Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ सागारधर्मामृते hrVM कृत्वा माध्याहिकं भोक्तुमुद्युक्तोतिथये ददे । स्वार्थ कृतं भक्तमिति ध्यायन्नतिथिमीक्षताम् ॥ ११ ॥ टीका-ईक्षतामतिथिसंविभागव्रती श्रावकः अन्वेषयतु । कं, अतिथिं । किं. कुर्वन्, ध्यायन् एकाग्रतया चिन्तयन् । किमिति, एतत् । किमेदतित्याहददे प्रयच्छाम्यहं । किं तत्, भक्तमाहारं । कस्मै, अतिथये प्रागुक्तलक्षणाय । किविशिष्टं, कृतं साधितं । किमर्थं, स्वार्थ आत्मार्थं आत्मनो निमन्त्रणादौ सत्यात्मीयार्थमपि । स्वस्मै इदं स्वार्थमित्यस्य कृता पदेन विग्रहः । कीदृशो भूत्वा, एतध्यायन्नतिथिमीक्षतामित्यत्राह-उद्युक्तः उद्यतः । किं कर्तु, भोक्तुं. भोजनं करिष्याम्यहमित्यध्यवसानाभिमुखः । किं कृत्वा, कृत्वा विधाय । किं तत्, माध्याह्निकं मध्याह्ने भवं कर्म स्नानदेवार्चनादिकं ॥ ५१ ॥ द्वीपेष्वर्धतृतीयेषु पात्रेभ्यो वितरन्ति ये । ते धन्या इति च ध्यायेदतिथ्यन्वेषणोद्यतः ॥ ५२ ।। टीका--ध्यायेच्च चिन्तयेत् । कोऽसौ, अतिथ्यन्वेषणोद्यतः श्रावकः । किं, इति एतत् । वर्तन्ते । के, ते गृहस्थाः । किंविशिष्टाः, धन्याः पुण्यवन्तः । ये किं, ये वितरन्ति यथाविधि प्रयच्छन्ति । केभ्यः, पात्रेभ्यः । केषु, द्वीपेषु किंविशिष्टेषु, अर्धतृतीयेषु जम्बूद्वीपे घातकीखण्डे पुष्करवरद्वीपस्य चार्धे अर्धतृतीयो येषां ते अर्धतृतीया इति विग्रहः ॥ ५२ ॥ भूम्यादीनां देयत्वं ग्रहणादौ च दानं नैष्ठिकस्य हिंसासम्यक्त्वोपघातहेतु त्वप्रकाशनेन निषेद्धुमाह हिंसार्थत्वान्न भूगेहलोहगोश्वादि नैष्ठिकः। दद्यान्न ग्रहसङ्क्रान्तिश्राद्धादौ च सुदृग्गुहि ॥ ५३ ॥ टीका-न दद्यान्न प्रयच्छेत् । कोऽसौ, नैष्टिको दर्शनिकादिगृही ! किं तत्, भूगेहलोहगोश्वादि भूश्च भूमि हं च गृहं लोहं च शस्त्रोपादानं गौश्वानड्वाही अश्वश्च घोटको भूगेहलोहगोश्वास्ते आदयो यस्य कन्याहेमतिलदध्यन्नादेर्बादैः पुण्यार्थतया देयत्वेन समर्थितस्य द्रव्यस्य तत् भूगेहादिद्रव्यं नैष्ठिको न ____ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । १५५ दद्यात् । कस्मात्, हिंसार्थत्वात प्राणिवधनिमित्तत्त्वात् । एतस्योत्तरस्य च समर्थनं ज्ञानदीपिकायां विस्तरतोऽभिहितं प्रतिपत्तव्यं । न च दद्यान्नैष्ठिकः स्वद्रव्यं । कस्मिन् , ग्रहसंक्रान्तिश्राध्दादौ ग्रहः सूर्याचन्द्रमसोरुपरागः,संक्रान्तिः सूर्यस्य राश्यन्तरसंक्रमणं श्राध्दं, मृतपित्राद्युद्देशेन दानं, ग्रहश्च संक्रान्तिश्च श्राद्धानि तान्यादयो यस्य वारव्यतिपादादैर्बादैः पुण्यार्थत्वेन समर्थितस्य पर्वणस्तद्ग्रहादि पर्व तस्मिन् । तस्य पुण्यार्थदानविषयत्वकल्पनायां दोषसमर्थनार्थमाह-किंविशिष्टे तत्र, सुदृग्नुहि सम्यक्त्वघातके । यद्यपि च नैष्टिक इति वचनात्याक्षिकस्यानुत्पन्नसम्यक्त्वावस्थतया भूम्यादिदानं . न प्रतिषिध्यते तथापि ग्रहणादौ तस्यापि दानमविधेयमेव सम्यक्त्वोपघातस्य तेनाप्यवश्यपरिहार्यत्वात् ॥ ५३ ॥ तव्रतातिचारपरिहारार्थमाह-- त्याज्याः सचित्तनिक्षेपोऽतिथिदाने तदावृतिः । सकालातिक्रमपरव्यपदेशश्च भत्सरः ।। ५४ ॥ टीका-त्याज्याः तद्वतिना वर्जनीयाः । के ते, सचित्तनिक्षेपस्तदावृतिः कालातिक्रमपरव्यपदेशाभ्यां सह मत्सरश्चेत्यमी पञ्चातिचाराः । क्क, अतिथिदाने अतिथिसंविभागवते । तत्र सचित्तनिक्षेपः-सचित्ते सजीचे पृथिवीजलकुम्भोप( चुल्लि )भुवल्लिधान्यादौ निक्षेपो देयस्य वस्तुनः स्थापनं । तच्चादानबुध्द्या तत्र निक्षेप्यमाणमतिचारः । तुच्छबुद्धिः खलु सचित्तनिक्षिसं किल संयता न गृह्णन्तीत्यभिप्रायेण देयं सचित्ते निक्षिपतीति तच्च । संयतेस्वगृह्णत्सु लाभोऽयं ममेति च मन्यते इति प्रथमः ॥ १ ॥ तदावृतिः तेन सचित्तेन पत्रपुष्पादिना तथाविधयैव बुध्द्या आवृतिराच्छादनं द्वितीयः ॥ अथवा सचित्तनिक्षिप्तं तपिहितं च संयतस्याजानतः प्रयुज्यमानमतीचारः ॥२॥कालातिक्रमः साधूनामुचितस्य भिक्षासमयस्य लङ्घनं । स च यतीनयोग्ये काले भोजयतोऽनगारवेलाया वा प्रागेव पश्चाद्वा भुञानस्य च तृतीयः स्यात् ॥ ३ ॥ परव्यपदेशः परस्यान्यस्य सम्बन्धीदं गुडखण्डादीति विशेषेणापदेशो व्याजाद्यदि वाऽयमत्र दाता दीयमानोऽप्ययमस्येति समर्पणं चतुर्थः ॥ ४ ॥ मत्सरः कोपः । यथा मार्गितः सन् कुप्यति, सदपि वा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ सागारधर्मामृते : मार्गितन ददाति प्रयच्छतोऽप्यादराभावो वा अन्यदानुगासहिष्णुत्वं वा मत्सरः । यथाऽनेन तावच्छ्रावकेण मार्गितेन दत्तं किमहमस्मादपि हीन : इति परोन्नतिवैमनस्याद्ददाति । एतच्च मत्सर शब्दस्यानेकार्थत्वात्सङ्गच्छते ।। - तदुक्तं -- मत्सरः परसम्पत्त्यक्षमायां तद्वति क्रुधि ॥ एते पूर्वे चाज्ञानप्रमादानातिचराः । अन्यथा तु भङ्गा एवेति विभावनीयम् ॥ ५४ ॥ प्रकृतार्थोपसंहारपुरस्सरमुक्तशेषं निर्दिशन् श्रावकस्य महाश्रावकत्वमाहएवं पालयितुं व्रतानि विदधच्छीलानि सप्तामलान्यापूर्णः समितिष्वनारतमनोदीप्राप्तवाग्दीपकः । वैयावृत्यपरायणो गुणवतां दीनानतीवोद्धरं " श्वर्या दैवसिकीमिमां चरति यः स स्यान्महाश्रावकः ||५५ || टीका - स्यात् भवेत् । कोऽसौ स गृही। किंविशिष्टो, महाश्रावकः महानिन्द्रादीनां पूज्यः । शृणोति तत्त्वं गुरुभ्य इति श्रावकः महाँश्चासो श्रावकश्च महाश्रावकः । यः किं, यश्चरति अनुतिष्ठति । कां चर्यां आचारं । किंविशिष्टां, दैवसिकीं दिवसे अहोराले भवा दैवसिकी तां । पुनः किंविशिष्टां इमां अनन्तराध्याये वक्ष्यमाणां । किं कुर्वन् विदधत् आचरन् । कानि, शोलानि व्रतपरिरक्षणानि । कति, सप्त गुणव्रतत्रयशिक्षाव्रतचतुष्टयलक्षणानि । किंविशिष्टानि विदधत् अमलानि निरतिचाराणि । कथमेवमुक्तप्रकारेण । कि कर्तुं, पालयितुं पालयिष्याम्यहमित्यभिप्रायेण । कानि, व्रतानि सम्यग्दर्शन पूर्वाणि निरतिचारपञ्चाणुव्रतानि । किंविशिष्टः सन्, आगूर्णः उद्यतः । कासु, समितिषु श्रुतनिरूपितक्रमेणेर्याभाषपणादाननिक्षेपोत्सर्गप्रभृतिषु संयमरूपाणुव्रतनिष्ठ इत्यर्थः । अणुव्रत महाव्रतानि हि समितिसहितानि संयमस्तद्रहितानि विरतिरिति सिद्धान्तः । तदुक्तं-- अणुवयमहन्वयाई समिदीसहिदार्थि संजमो समिदिहिं विणा विरदि इति ॥ पुनः किंविशिष्टः, अनारतमनोदप्रिाप्तवग्दपिक: आप्तानां परापरगुरूणां वाग्वचनमाप्तवाक् तज्जन्यश्रुतज्ञानमिह गृह्यते । कारणे कार्योपचारात् । आप्तवागेव दीपकः प्रदीपः स्वपरप्रकाशकत्वादाप्तवान्देपिक : परमागमप्रदीपकः, अनारतं सततं मनसि चित्ते दीप्रो दीपनशीलोऽनारतमनोदप्रस्तथाविध आप्तवाग्दीपको यस्य स तथोक्तः । पुनः किंविशिष्टो, वैया " Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोध्यायः । १५७. वृत्यपरायणो वैयावृत्त्यं निरवद्यवृत्त्या आपत्प्रतीकारः तत्र परायणस्तत्परः। केषां, गुणवतां गुणभाजां संयमविकल्पातिशयभाजां रत्नत्रयाराधकानां वा । पुनः किं कुर्वन्, उद्धरन् दुःखाद्विमोचयन् । कान्, दीनान् अवृत्तिव्याधिशोकार्तान् । कथमतीव पाक्षिकाद्यपेक्षयाऽतिशयेन । एतेन सम्यग्दर्शनशुद्धत्वं व्रतभूषणभूषितत्वं निर्मलशीलनिधित्वं संयमनिष्ठत्वं जिनागमज्ञत्वं गुरुशुश्रूषकत्वं दयादिसदाचारपरत्वं चेति सप्तगुणयोगान्महाश्रावकत्वं कस्यचित्सुकृतिनः कालादिलब्धिविशेषवशाद्भवतीति तात्पर्यार्थोऽत्र प्रतिपत्तव्य इति भद्रम् ॥ ५५ ।। इत्याशाधरविरचितायां स्वोपज्ञधर्मामृत सागारधर्मदीपिकायां भव्यकुमुदचन्द्रिकासज्ञायामादितश्चतुर्दशः प्रक्रमाच पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः ॥ ५ ॥ अथ षष्ठोऽध्यायः। इदानीमाहोरात्रिकमाचार श्रावकस्योपदेष्टुकामः पूर्व पौर्वह्निकीमितिकत. व्यतां चतुर्दशभिः श्लोकैाकरोति-- ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय वृत्तपंचनमस्कृतिः । कोऽहं को मम धर्मः किं व्रतं चति परामृशेत् ॥ १॥ टीका-परामृशेत् चिन्तयेत् श्रावकः । किं, इति एतत् । तद्यथा-कोऽहं क्षत्रियो ब्राह्मणादिर्वा इक्ष्वाकुवंशोद्भवोऽन्यवंशोद्भवो वाऽहमित्यादि चिन्त. येत् । तथा को मम धर्मो जैनोऽन्यो वा श्रावकीयो यत्यादिसंबंधी वा मे देवादिसाक्षिक प्रतिपन्नो वृष इति चिन्तयेत् । तथा किं व्रतं मूलगुणरूपमणुव्रतादिरूपं वा मम । चशब्दात् के गुरवो ममेति । कुत्र ग्रामे नगरादौ वा. वसामीति । कोऽयं कालः प्रभातादिरिति चेत्यादि समुच्चीयते । स्ववर्णादिस्मृतौ हि तद्विरुद्ध परिहारं सुखेन करोति। कथम्भूतो भूत्वा, वृत्तपञ्चनमस्कृतिः अन्तर्जल्पेन बहिर्जल्पेनापि वा वृत्ता पठिता पञ्चनमस्कृतिः णमो अरहंताणमित्यादिगाथारूपः पञ्चनमस्कारो येन स तथोक्तः । किं कृत्वा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ सागारधर्मामृते तेनेत्याह, उत्थाय विनिद्रीभूय । क्व, मुहूर्ते नाडीद्वये। किंविशिष्टे, ब्राझे ब्राह्मी सरस्वती देवता अस्येति ब्राह्मस्तस्मिन्निशावसानघटिकद्वय इत्यर्थः। तदुक्तं-ब्राह्म मुहूर्त उत्थाय सर्वकार्याणि चिन्तयेत् । यतः करोति सान्निध्यं तस्मिन् हृदि सरस्वती ॥ १ ॥ ततः अनादौ बम्भ्रमन् घोरे संसारे धर्ममार्हतम् । श्रावकीयमिमं कृच्छ्रात् किलापं तदिहोत्सहे ॥ २ ॥ टीका-किल एवं ह्यागमे श्रूयते आपं प्राप्तोऽहं । कं, धर्म । किंविशिष्टं, आहतं अर्हता वीतरागसर्वज्ञेन प्रोक्तं । किंप्रयोक्तकं, श्रावकीयं श्रावकाणामयं श्रावकीयस्तमुपासकोपासनीयमित्यर्थः। कीदृशमिम इदानीमप्यंतःस्फुरंतं । कस्मादापं, कृच्छात् जगत्यनन्तैकेत्यादिना प्रागुक्तात् । किं कुर्वन्, बम्भ्रमन् कुटिलं पर्यटन् । क्व, संसारे द्रव्यक्षेत्रकालभवभावपरिवर्तनरूपे आजीवञ्जीवीभावे । किंविशिष्टे, घोरे भयङ्करे । पुनः किंविशिष्टे, अनादौ नास्ति पूर्वो यस्यासावनादिः तस्मिन् बीजाफुरन्यायेन सन्तत्या वर्तमान इत्यर्थः । तत्तस्मात् उत्सहे प्रमादपरिहारेण वर्तेऽहं । क्व, इहास्मिन् अत्यन्तदुर्लभे धर्मे ॥२॥ इत्यास्थायोत्थितस्तल्पाच्छुचिरेकायनोऽर्हतः। निर्मायाष्टतयीमिष्टिं कृतिकर्म समाचरेत् ॥ ३ ॥ टीका-समाचरेत् सम्यगनुतिष्ठेत् व्रतिकः । किं तत्, कृतिकर्म योग्यकालासनेत्यादिना प्राक्प्रबन्धेन सूचितप्रायं वन्दनाविधानं । किं कृत्वा, निर्माय कृत्वा । कां, इष्टिं पूजां किंविशिष्टामष्टतयीं अष्टौ जलगन्धाक्षतादयोऽवयवा यस्याः सा अष्टतयी तामष्टविधामित्यर्थः । कस्य, अर्हतः भगवतोऽहंद्देवस्य । उपलक्षणात् श्रुतस्य गुरुचरणानां च । किंविशिष्टः सन्, एकायनः एकाग्रमनाः । कथम्भूतो भूत्वा, शुचिः शरीरचिन्तां कृत्वा विधिवद्विहितशौचस्नानदन्तधावनादिक्रियः । एतच्चानुवादपरं लोकप्रसिद्धत्वान्मलोत्सर्गाद्यर्थस्य नोपदेशः । परमप्राप्ते शास्त्रस्यार्थवत्त्वादेवमुत्तरत्राप्यप्राप्त आमुष्मिकादिवि. पये उपदेशः फलवानिति चिन्त्यं । किंविशिष्टः सन्, उत्थितः उत्थाभूतः Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमोध्यायः । १५९ annanen कस्मात्, तल्पात् त्यक्तशयनीय इत्यर्थः। किं कृत्वा, आस्थाय प्रतिज्ञाय । कथमित्येवमनादावित्यादिना पूर्वोक्तप्रकारेण ॥ ३ ॥ ततश्च समाध्युपरमे शान्तिमनुध्याय यथाबलम् । प्रत्याख्यानं गृहीत्वेष्टं प्रार्य गन्तुं नमेत् प्रभुम् ॥ ४ ॥ टीका--नमेत् पञ्चाङ्गप्रणामेन नमस्येत कृतक्रियः श्रावकः । कं, प्रभु अर्हद्देवं । किं कर्तुं, गन्तुं इष्टदेशान्तरं विहर्तु । किं कृत्वा, प्रार्थ्य याचित्वा । किं तत्, इष्टं वांछितं पुनर्दशनसमाधिमरणादिकं । किं कृत्वा, गृहीत्वा प्रतिपद्य । किं तत्, प्रत्याख्यानं भोगोपभोगादिनियमविशेष । कथं, यथाबलं शक्त्यनातिक्रमेण । किं कृत्वा, अनुध्याय अनुचिन्त्य । कां, शान्ति । येऽभ्यर्चिता मुकुटकुण्डलहाररत्नैरित्यादिप्रबंधेन श्रूयमाणां । क्व सति, समाध्युपरमे समाधेरवश्यकरणीयस्य धर्म्यध्यानस्य निवृत्ती ॥ ४ ॥ ततश्च साम्यामृतसुधौतान्त-रात्मराजज्जिनाकृतिः । दैवादैश्वर्यदौर्गत्ये ध्यायन् गच्छेजिनालयम् ॥ ५ ॥ टीका-गच्छेत् व्रजेत् तथानुष्ठितावश्यकः श्रावकः । कं, जिनालयं अर्हचैत्यगृहं । किंविशिष्टः सन् , साम्येत्यादि साम्यं जीवितमरणादौ समतापरिणामस्तदेवामृत प्रसक्तिप्रकर्षहेतुत्वात्तेन सुष्टु संस्कारदा_लक्षणप्रकर्षापादनेन अतिशयेन धौतः क्षालितो विशुद्धिमापादितः अन्तरात्मा स्वपरभेदज्ञानोन्मुखमन्तःकरणं तत्र राजन्ती दीप्यमाना जिनाकृतिः परमात्ममूर्तिर्यस्य स तथोक्तः । किं कुर्वन् गच्छेत्, ध्यायन् चिन्तयन् । के, ऐश्वर्यदौगत्ये ऐश्वर्यमर्थाद्याधिपत्यं दौर्गत्यं दारिद्र्यं ऐश्वर्य च दौर्गत्यं च ऐश्वयदौर्गत्ये सम्भव. न्तीति ध्यायन् । कस्मात्, दैवात् पुराकृतशुभाशुभकर्मविपाकात् । इदमत्रैदम्पर्य यदीश्वरो महर्द्धिको राजा सामन्तादिर्वा भवति तदा पुण्यविपाकप्रभवा सम्पदियं न पौरुषेयी तदस्यां कथमात्मज्ञो मदमुपयादिति भावयन् गच्छेत् । अथ दरिद्रस्तदा पापविपाकजानतामद दारिद्यदुःखं न केनापि च्छत्तु शक्यं तदत्र को बद्रिमान विषादमासीदतीति भावयन गच्छेदिति ॥ ५ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० सागारधर्मामृते अनुवादमुखेन चैत्यालयव्रजनविधिमाह यथाविभवमादाय जिनाद्यर्चनसाधनम् । वजन्कौत्कुटिको देशसंयतः संयतायते ॥ ६ ॥ टीका--संयतायते संयतं यतिमिवात्मानमाचरति । कोऽसौ, देशसंयतः श्रावकः । किं कुर्वन्, व्रजन्गच्छन् । किंविशिष्टः सन् , कौत्कुटिकः पुरो युगमात्रप्रेक्षीत्यर्थः । किं कृत्वा, आदाय गृहीत्वा । किं तत्, जिनादीनामर्हच्छताचार्याणामचनसाधनं पूजाङ्गं जलगन्धाक्षतादिकं । कथं यथाविभवं स्वसम्पदनुसारण ॥ ६॥ दृष्ट्वा जगद्धोधकरं भास्करं ज्योतिराहतम् । स्मरतस्तद्गृहीशरोध्वजालोकोत्सवोऽघहत् ।। ७ ॥ टीका-भवति । कोऽसौ, तद्गृहशिरोध्वजालोकोत्सवः जिनचैत्यालयशिखरकेतनदर्शनानंदः । किंविशिष्टोऽघहृत् पापहरः । कस्य, तथागच्छतः श्रावकस्य 1 किं कुर्वतः, स्मरतः स्मृतिविषयीकुर्वतः । किं तत्, ज्योतिः ज्ञानमयं वाङ्मयं वा तेजः । किंविशिष्टमार्हतं जैनं । किं कृत्वा, दृष्टा आलोक्य । कं भास्करमादित्यं । किंविशिष्टं, जगद्बोधकरं जगतां दिवाचरप्राणिनां बोधं निद्रापनोदं करोतीत्येवंशीलं उद्यन्तमित्यर्थः । पक्षे बहिरात्मप्राणिनां मोहनिद्राप्रहरणशीलम् ॥ ७ ॥ वाद्यादिशब्दमाल्यादिगन्धद्वारादिरूपकैः । चित्रैरारोहदुत्साहस्तं विशनिसहीगिरा ॥ ८॥ टीका-विशेत् प्रविशेदसौ । कं, तं जिनालयं । कया, निसहीगिरा निस. हीति शब्दमुच्चारयन्नित्यर्थः । किंविशिष्टः सन्, आरोहदुत्साहः प्रवर्द्धमानधर्मा. चरणोद्योगः । कैः, वाद्यादीत्यादि वाद्यानां प्राभातिकतूर्याणामादिशब्देन स्वा. ध्यायस्तुतिमङ्गलगीतादीनां च शब्दैर्निनादैः । तथा माल्यादीनां चम्पकपुष्पादिमालानां आदिशब्देन धूपचूर्णादीनां च गंधैरामोदैस्तथा द्वारस्य प्रवेशमुखस्य आदिशब्देन तोरणस्तम्भशिखरादीनां च रूपकैश्चेतनाचेतनप्रतिच्छन्दैः । किंविशिष्टैश्चित्रैर्नानाप्रकारैविस्मयकरैश्च ॥ ८ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Awar षष्ठोध्यायः। १६१ क्षालितांघ्रिस्तथैवान्तःप्रविश्यानन्दनिर्भरः।। त्रिः प्रदक्षिणयेनत्वा जिनं पुण्याः स्तुतीः पठन् ॥ ९॥ टीका-प्रदक्षिणयेत् प्रदक्षिणीकुर्यादसौ । कं, जिनं स्थापनार्हन्तं । कथं, त्रिस्त्रीन् वारान् । किं कुर्वन् , पठन् निगदन् । काः, स्तुतीः स्तवनवाक्यानि । किंविशिष्टाः, पुण्याः ज्ञानसंवेगादिगुणप्रव्यक्तीकरणेन अशुभकर्मनिर्जरणीः पुण्यास्रवणीश्च । किं कृत्वा, नत्वा त्रिःप्रणम्य जिनं । किंविशिष्टः सन्, आनन्दनिर्भरः प्रमोदपूरितसर्वांगः । किं कृत्वा, प्रविश्य आक्रम्य । किं तत्, अन्तः चैत्यालयमध्यदेशं । कथं, तथैव निसहीगिरैव । कथम्भूतो भूत्वा, क्षालिताद्भिः धौतपादः ॥ ९ ॥ सेयमास्थायिका सोऽयं जिनस्तेऽमी सभासदः। चिन्तयनिति तत्रोचैरनुमोदेत धार्मिकान् ॥ १० ॥ टीका-अनुमोदेत साधु इमे अनुतिष्ठन्तीति मनसाऽभिनन्देदसौ । कान्, धार्मिकान् धर्मं चरतोऽनगारसागारभव्यजनान् । कथमुच्चैरतिशयेन मुहुर्मुहुरित्यर्थः । क्व, तत्र चैत्यालये । प्रदक्षिणीकरणे वा। किं कुर्वन्, चिन्तयन परामशन् । कथमिति । किमिति इयं चैत्यालयभूमिः । सा आगमप्रसिद्धा । आस्थायिका समवसरणभूमिः । तथा अयं प्रतिमार्पितो जिनः स आगमप्र. सिद्धोऽष्टमहाप्रातिहार्यादिविभूतिभूषितोऽर्हन् ।अमी आराधकभव्यास्ते आगम. प्रसिद्धाः सभासदः सभ्या यत्यादयो द्वादश साक्षादर्हद्देवसेवावहिताः॥ १०॥ अधैर्यापथसंशुद्धिं कृत्वाऽभ्यर्च्य जिनेश्वरम् । श्रुतं मूरिं च तस्याग्रे प्रत्याख्यानं प्रकाशयेत् ॥ ११ ॥ टीका-प्रकाशयेत् प्रतिपादयेदेष महाश्रावकः। किं तत् , प्रत्याख्यानं प्राग्गृहे गृहीतं । क्व, अग्रे । कस्य, तस्य सूरेः । किं कृत्वा, अभ्यर्च्य अभिमुखं पूजयित्वा । कं, जिनेश्वरं श्रुतं सूरिं च । किं कृत्वा, कृत्वा विधाय । कां, ईर्यापथसंशुद्धिं । कथं, अथ प्रणामपूर्वकपुण्यस्तुतिपाठविशेषप्रदक्षिणीकरणा. नंतरमिति समन्वयः । अयमत्र विशेषः । ईर्या ईरणं गमनं पन्था मार्गों यस्य तदर्यापथं संयमविराधनं तस्य संशुद्धिः सम्यक् शोधनं प्रतिक्रमण Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सागारधर्मामृते ~ ~ मित्यर्थः । अभ्यर्च्य " जावरहंताणं भयवंताणं णमोकारं करोमीति" वचनात् । प्रतिक्रमणानन्तरं नमोहऽद्य इत्यनेन " जयन्ति निर्जिताशेषसर्वथैकान्तनीतयः । सत्यवाक्याधिपाः शश्वविद्यानन्दा जिनेश्वराः " इत्यादिना वाचनिकनमस्कारेण जलादिपूजाष्टकेन वा अभिमुखं पूजयित्वा । एष क्रमः श्रुतसूर्योरपि यथास्वं कल्प्यः । स एष जघन्येन वन्दनाविधिः प्रकर्षवृत्याऽस्य प्रथममेव गृहेऽनुष्ठानोपदेशात् ॥ ११ ॥ ततश्चावर्जयेत्सर्वान्यथाई जिनभाक्तिकान् । व्याख्यातः पठतश्चाहद्वचः प्रोत्साहयेन्मुहुः ॥ १२ ॥ टीका-ततश्च प्रत्याख्यानप्रकाशनावसानक्रियाकल्पनिवर्तनानन्तरं आवर्जयेदनुरञ्जयेदसौ । कान्, जिनभाक्तिकान् अर्हदेवाराधकान् । किंविशिष्टान्, सर्वान् उत्तमादिभेदभिन्नान् । कथं, यथार्ह यथायोग्यप्रतिपत्त्या । तत्र मुनीनमोऽस्त्विति आर्यिका वंदे इति । श्रावकानिच्छामीत्यादिप्रसिद्धविनयकर्मणोपचरेदित्यर्थः । उक्तंच-अहंद्रूपे नमोऽस्तु स्याद्विरतौ विनयक्रिया । अन्योन्यं क्षुल्लके चाहमिच्छाकारवचः सदा ॥ तथा प्रोत्साहयेत् प्रकर्षेण उद्योगवतः कुर्यादसौ। कान् ,पुरुषान् । किं कुर्वतो,व्याख्यातः पदपदार्थादिसमर्थनलक्षणेन विशेषेण आ शिष्यबोधोत्पत्तेर्वर्णयत उपाध्यायादीनित्यर्थः । किं तब्याख्यातोऽर्हद्वचः परमागमयुक्तयागमशब्दागमादिभेदं जिनप्रवचनं । न केवलं व्याख्यातः पठतश्च अधीयानान् शिष्यादीनित्यर्थः । कथं, मुहुः पुनः पुनः ॥ १२ ॥ स्वाध्यायं विधिवत्कुर्यादुद्धरेच्च विपद्धतान् । पक्वज्ञानदयस्यैव गुणाः सर्वेऽपि सिद्धिदाः ॥ १३ ॥ टीका--कुर्यादसौ । कं, स्वाध्यायं श्रुताध्ययनं यथोचितं वाचनादिरूपं वा किंवत्, विधिवत् शास्त्रोक्तविधानेन व्यञ्जनशुध्द्यादिलक्षणाष्टविधवचनेन । तथा उद्धरेत् विपदो विमोचयेदसौ । कान्, विपद्धतान् शारीरमानसासातशातितशक्तीन् दीनानित्यर्थः । यतो भवन्ति । के ते, गुणाः काठिन्यत्यागशौर्यसौन्दर्यादयः । किं विशिष्टाः, सिद्धिदाः वाञ्छितार्थसम्पादका मुक्तिप्रदा वा। किं केचिन्नेत्याह, सर्वेऽपि निःशेषाः । कस्य, पक्कज्ञानदयस्यैव पुसः ज्ञानं तत्त्वाव Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोध्यायः। १६३ Avave बोधः दया सर्वप्राणिषु करुणा दुःखोच्छित्त्यभिलाषलक्षणा, ज्ञानं च दया च ज्ञानदये, पक्के परिणते सात्मीभूते ज्ञानदये यस्य स पक्कज्ञानदयस्तस्यैव । न तु बहियोंतिज्ञानस्य कदाचित्कानुकंपल्प चैवेत्येषशब्दार्थः ॥ १३ ॥ एवं विधेयमाचरणमुपदिश्य निषिद्धं तदुपदेष्टुमाह मध्यजिनगृहं हासं विलासं दुःकथां कलिम् । . निद्रां निष्ठद्यूतमाहारं चतुर्विधमपि त्यजेत् ॥ १४ ॥ टीका-त्यजेदसौ हास्यादीन् सप्त । क्व, मध्येजिनगृहं जिनगृहमत्र महाश्रावकापेक्षया सकलश्चैत्यालयः इतरापेक्षया तदेकदेशो गन्धकुटिमात्रं । जिनगृहस्य मध्ये मध्येजिनगृहं । पारे मध्ये तया वेत्यनेनाव्ययीभावः । हासो हास्यं । विलासः शृंगारचेष्टाविशेषः । दुःकथा दुष्टा चित्तकालुष्यकारिणी कथा कामक्रोधादिकथा राजादिकथा वा । कलिः कलहः । निद्रा स्वापः । निष्ठयूतं मुखश्लेष्मादिनिरसनं । आहारं चतुर्विधं खाद्यस्वाद्यलेह्यपानलक्षणम् ॥ १४ ॥ एवं प्राभातिकं धर्मोपदिश्यानन्तरविधेयमर्थार्जनादिविधिमभिधत्ते ततो यथोचितस्थानं गत्वाऽर्थेऽधिकृतान् सुधीः। अधितिष्ठेव्यवस्येद्वा स्वयं धर्माविरोधतः ॥ १५ ॥ टीका-ततः प्राभातिकधर्मानुष्ठाननिष्ठापनानन्तरं अधितिष्ठेत् सनाथीकुर्यात् । कोऽसौ, सुधीः लोकद्वयहिताहितविचारचतुरः श्रावकः । कान्, अर्थेऽधिकृतान् अर्थस्यार्जने रक्षणे वर्द्धने च नियुक्तान् । किं कृत्वा, गत्वा प्राप्य । किं तत्, स्थानं प्रदेशं । किंविशिष्टं, यथोचितं यद्यद्यस्यार्थार्जनादियोग्यं तत्तत्तेन गम्यमित्यर्थः । वा पक्षांतरे । ताहक्सामय्यभावे । पुनः सुधीः स्वयमात्मना अर्थ व्यवस्येत् तदर्जनादौ व्याप्रीयेत । कस्मात्, धर्माविरोधतः प्रतिपन्नजिनधर्मानुपघातेन । स च राज्ञां दरिद्रेश्वरयोमीन्यामान्ययोरुतमनीचयोश्च माध्यस्थेन न्यायदर्शनात् नियोगिनां च राजार्थप्रजार्थसाधनेन, वणिजां च कूटतुलामानादिपरिहारेण, वनजीविकादिपरिहारेण च बोद्धव्यः ॥ १५॥ पौरुषस्य वैफल्यसाफल्यादौ विषादहर्षपरिहारार्थमाह Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ सागारधर्मामृते ranwwwwwww निष्फलेऽल्पफलेऽनर्थफले जातेऽपि पौरुषे । न विषीदेनान्यथा वा हृषेल्लीला हि सा विधेः ॥ १६ ॥ टीका-न विषीदेत् न विषादं गच्छेदसावर्थानुबंधपरः । क्व सति, पौरुषे पुरुषकारे । किंविशिष्टे, जाते निष्पन्ने । कीदृशे, निष्फले चिकीर्षितप्रयोजनवन्ध्ये। तथा अल्पफले सम्भावितार्थलाभान्न्यूनार्थलाभे। तथाऽनर्थफले अनर्थोऽर्थनाशादिलक्षणपुरुषार्थभ्रंशः फलं साध्यं यस्य सोऽनर्थफलस्तस्मिन् । अपिः समुच्चये । न वा हृष्येत् हर्ष गच्छेदसौ । क्व सति, पौरुषे जाते सति । कथमन्यथा सफले बहुफलेऽर्थानुबन्धफलेऽपीत्यर्थः । कुत इाह, हि यस्मात् वर्तते । काऽसौ, सा पौरुषस्य नैष्फल्यसाफल्यादिजननलक्षणा लीला निरंकुशप्रवृत्तिः । कस्य, विधेः पुरार्जितपापपुण्यकर्मणः ॥ १६ ॥ अथ प्राणयात्राविध्यर्थं नवश्लोकीमाह कदा माधुकरी वृत्तिः सा मे स्यादिति भावयन् । यथालाभेन सन्तुष्ट उत्तिष्ठेत तनुस्थितौ ॥ १७ ॥ टीका-ततश्च उत्तिष्ठेत अर्थचिन्तातो विरम्बोद्यमं कुर्यादसौ । क्व, तनुस्थितौ शरीरस्वास्थ्यानुवृत्तिनिमित्तप्रवृत्तौ । किंविशिष्टः सन् , सन्तुष्टः पृति गतः । केन, यथालाभेन यो यो लाभो मूलधनादधिकं धनं तेन । किं कुर्वन्, भावयन् चित्ते धारयन् । किं, इति एतत् । किमेतदित्याह, कदा कस्मिन्काले। स्याद्भविष्यति । काऽसौ, सा सूत्रोक्ता वृत्तिः अर्थात् भिक्षा। कस्य, मे मम । किंविशिष्टा, माधुकरी मधुकराणां भ्रमरादीनामियं माधुकरी तत्संबंधिनीव । पुष्पाणामिव दातृणामनुपपीडनेनात्मप्रीणनहेतुत्वात् ॥ १७ ॥ नीरगोरसधान्यैधः-शाकपुष्पाम्बरादिभिः । क्रीतैः शुध्यविरोधेन वृत्तिःकल्प्यायलाघवात् ॥१८॥ टीका-कल्प्या सम्पाद्या । श्रावकेण । काऽसौ, वृत्तिः स्वास्थ्यानुवृत्तिः । कस्मात्, अघलाघवात् पापाल्पत्वात् । तदाश्रित्येत्यर्थः कैः । कल्प्या, नीरा. दिभिः । किंविशिष्टैः, क्रीतैः मूल्यदानेन गृहीतैः । केन, शुध्धविरोधेन स्वप्रीतपन्नसम्यक्त्वव्रतानुपघातेन । तत्र नीरं जलं गोरसः क्षीरादिः धान्यं Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोध्यायः । तण्डुलादिः एधांसि इन्धनानि शाकं पत्रादिहरितकं पुष्पाम्बरादि कुसुमवस्त्र. खट्वापट्टकतृणादि ॥ १८॥ सधर्मिणोऽपि दाक्षिण्याद्विवाहादौ गृहेऽप्यदन् । निशि सिद्धं त्यजेद्दीनैव्यवहारं च नावहेत् ॥ १९ ॥ टीका-त्यजेदसौ । किं तत् , सिद्धं निष्पन्नमन्नं । क्व, निशि रात्री तदा ह्यन्नपाके सघातपाता परिहर्तुमशक्यौ । किं कुर्वन् , अदन् भुजानः क्व, गृहे । कस्य सधर्मिणोऽपि न परं पुत्रादेः । किं तदासीनसाधर्मिकस्यापि । कस्मात् , दाक्षिण्यात् उपरोधवशात् । क्व, विवाहादावपि न परमिष्ठभोज्यादौ । तथा नावहत् न कुर्यात् । कं, व्यवहारं दानप्रतिग्रहादिलक्षणं कर्म । कैः सह, हीनः सर्वधर्मधनादिना रहितैरल्पैवी गृहिभिः सह ॥ १९॥ उद्यानभोजनं जन्तुयोधनं कुसुमोच्चयम् । जलक्रीडान्दोलनादि त्यजेदन्यच्च तादृशम् ॥ २० ॥ टीका--त्यजेदसौ । किं तत्, उद्यानभोजनं उद्यानिकायां जेमनं । तथा जन्तुयोधनं पदातिकुक्कुटमेषादीनां परस्परसम्प्रहारं । तथा कुसुमोच्चयं पुष्पा. वचयं । तथा जलक्रीडां शृङ्गारादिभिः सहर्षस्पर्दै जलव्यात्युक्षी तथा आन्दोलनं दोलाखेलनकर्म। आदिशब्देन चैत्रासितप्रतिपदादिषु भस्मव्यतिकारि परिहासादि । किं बहुना अन्यच्च परमपि तादृशं द्रव्यभावहिंसाबहुलं । कौमु. दीमहोत्सवकुद्दननाटकावलोकनसंग्रामदर्शनरासक्रीडादिकम् ॥ २० ॥ यथादोषं कृतस्नानो मध्याह्ने धौतवस्त्रयुक् । देवाधिदेवं सेवेत निर्द्वन्द्वः कल्मषच्छिदे ॥ २१ ॥ टीका-सेवेत आराधयेदसौ स्नपनादिभिः । कं, देवाधिदेवं देवैरिन्द्रादिभिरधिकमाचार्यादिभ्योऽतिरिक्तं दीव्यते स्तूयते आराध्यत इति देवाधिदेवो भगवानर्हन् । किंविशिष्टः सन्, निर्द्वन्द्वः समस्तव्याक्षेपमुक्तः । किमर्थ, कल्मपच्छिदे प्राचीनतात्कालीनपापच्छेदार्थ । कथम्भूतो भूत्वा, यथादोषं दोषानुसारेण मध्याह्ने अनगारभ्रामरीवेलाप्रत्यासन्नसमये कृतस्नानः कृतं विहितं स्नानं यथोचितमङ्गप्रक्षालनादिकं येन स तथोक्तः । तथा धौतवस्त्रयुक धौते Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ सागारधर्मामृते vvvvvvvvvvvvvvvvv.in क्षालिते जलादिना निर्मलीकृते वस्त्रे परिधानोत्तरीये युनक्ति स्वांगे सम्बनातीति धौतवस्त्रयुक् ॥ २१ ॥ जिनस्नपनाद्युपास्तिविधिमाह-- आश्रुत्य स्नपनं विशोध्य तदिलां पीठ्यां चतुष्कुम्भयुक् कोणायां सकुशश्रियां जिनपतिं न्यस्यान्तमाप्येष्टदिक् । नीराज्याम्बुरसाज्यदुग्धदाधिभिः सिक्त्वा कृतोद्वर्तनं सिक्तं कुम्भजलश्च गन्धसलिलैः सम्पूज्य नुत्वा स्मरेत् ।। टीका-स्मरेत् यथाशक्ति जपेत् ध्यायेत् । कोऽसौ, माध्याह्निकक्रियाकल्पोद्यतः श्रावकः । कं, जिनपति जिनेन्द्रं । किं कृत्वा, नुत्वा नित्यवन्दनादि. विधिना वन्दित्वा । किं कृत्वा, सम्पूज्य जलादिभिरष्टाभिः सम्यगर्चयित्वा । किंविशिष्टं सन्तं, सिक्तमभिषिक्तं । कैः , कुम्भजलैः पूर्वस्थापितकलशाम्भोभिः । तथा गन्धसलिलैः सुरभिद्रव्यमिश्रोदकैः । कथं कृत्वा, कृतोद्वर्तनं एलादिचूर्णकरककषायैरुद्वर्त्य कृतनन्द्यावर्ताद्यवतारणं । किं कृत्वा, सिक्त्वा अभिषिच्य । कैः, अम्बुरसाज्यदुग्धदधिभिः अम्बूनि तीर्थोदकानि,रसा इक्षुद्राक्षाम्रादिनिर्यासाः, आज्यानि हैयङ्गवीनादिघृतानि, दुग्धानि गव्यादिक्षीराणि, दधीनि माहिषादीनि, अम्बूनि च रसाश्च आज्यानि च दुग्धानि च दधीनि चाम्बुरसादीनि पञ्च स्नानीयद्रवद्रव्याणि तैः क्रमेण जिनपतिमभिषिच्येति संबंधः । किं कृत्वा, नीराज्य पूजापुरःसरं मृत्सागोमयभूतिपि. ण्डदूवादर्भपुष्पाक्षतसचन्दनोदकैर्नीराजनं प्रापय्य । कथं यथा भवति, इष्टदिक् इष्टा यज्ञांशं प्रापिता जिनयज्ञमभिवर्द्धयन्तो वाऽनुमोदिता दिशस्त. स्था दिक्पाला दशेन्द्रादयो यत्र नीराजनकर्मणि तदिष्टदिक । अथवा इष्टाः दिशो येन सोऽयमिष्टदिग्यष्टा । किं कृत्वा, न्यस्य स्थापयित्वा । कस्यांपीठ्यां स्नपनपीठस्योपरि । किविशिष्टायां, चतुष्कुंभयुक्कोणायां चत्वारः कुंभयुजः पूर्णकलशोपेताः कोणा यस्याः सा चतुष्कुंभयुक्कोणा तस्यां । पुनः किंविशिष्टायां, सकुशश्रियां दर्भेश्चन्दननिर्मितश्रीकाराक्षरेण च सहितायां । श्रियामित्युपलक्षणं तेन व्हीकारोऽपि लेख्यः । अन्ये तु अक्षतनिर्मितं श्रीकारमेवाहुः । तदुक्तं । " निस्तुषनिर्बणनिर्मलजलाशालीयतण्डुलालिखिते ।। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोध्यायः। १६७ श्रीकामः श्रीनाथं श्रीवणे स्थापयाम्युच्चैः" ॥ किं कृत्वा, विशोध्य रत्नाम्बुकुशाग्निना सन्तर्पणविधिभिः शोधयित्वा । का, तदिलां स्नपनभूमि। किं कृत्वा, आश्रत्य कर्तव्यतया प्रतिज्ञाय । किं तत्, स्नपनमभिषेकं । अत्र आश्रुत्य स्नपनमिति प्रस्तावना, विशोध्येत्यादि पुराकर्म, न्यस्येति स्थापना, अन्तमाप्येति सन्निधापनं, इष्टदिगित्यादि पूजेति प्रतिपत्तव्यम् । षड्विधं हि देवसेवनामाहुः। तद्यथा-प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना सन्निधापनम् । पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम् ॥ १ ॥ एतजिनस्नपनादिविधानसूचनामानं विस्तरतस्त्वेतत्पूर्वाचार्यकृतस्नानशास्त्रेवस्मत्कृतनित्यमहोदयाख्यस्नानशास्त्रे च दृष्टव्यम् ॥ २२ ॥ यज्ञान्तरोपदेशार्थमाह सम्यग्गुरूपदेशेन सिद्धचक्रादि चाचैयेत् । श्रुतं च गुरुपादांश्च को हि श्रेयसि तृप्यति ॥ २३ ॥ टीका-अर्चयेच्चासौ । किं तत्, सिद्धचक्रादि सिद्धचक्रं लघु बृहद्वा आदि. शब्देन पार्श्वनाथयन्त्रं गणध्नरवलयं सारस्वतयन्त्रमन्यद्वा सम्यक्त्वसंयमाविरोधेन दृष्टादृष्टफलप्रसादकत्वेन जिनशासने प्रसिद्धं । एतच्च रहस्यभावात्पदस्थध्यानप्ररूपणावसरे प्रपंचयिष्यते । केन तत्पूजयेत्, सम्यग्गुरूपदेशेन अन्यथा नैष्फल्यप्रत्यवायबाहुल्यसम्भवात् । तथा श्रुतमर्चयेत् । गुरोश्च दीक्षकाचार्यस्य पादान् तृतीयोऽपि चशब्दस्त्रयाणामपि पूज्यानां तुल्यकक्षतासूचनार्थ । कुत एतद्यज्ञान्तरप्रदर्शनं ? जिनयज्ञेनैव सर्वमनोरथपरिपूर्तिसंसिद्धेरिति शङ्कायामिदमाह-को हीत्यादि । हि यस्मात् कस्तृप्यति तृप्तमात्मानं मन्यते कस्मिन्, श्रेयसि अभ्युदयनिःश्रेयससाधनार्थे कर्मणि ॥ २३ ॥ ततः पात्राणि सन्तप्र्य शक्तिभक्त्यनुसारतः। सर्वाश्चाप्याश्रितान् काले सात्म्यं भुजीत मात्रया॥२४॥ टीका-ततो जिनयज्ञादिनिर्वर्तनानन्तरं पात्रसन्तर्पणादि कृत्वा भुञ्जीत अश्नीयादसौ । किं तत्, सात्म्यं वस्तु। सात्म्यलक्षणं यथा “ पानाहारादयो यस्य विरुद्धाः प्रकृतेरपि । सुखित्वायावकल्पंते तत्सात्म्यमिति कथ्यते ।" ___ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सागारधर्मामृते कया भुञ्जीत, मात्रया सुखजरणलक्षणया यदाह-“सायं प्राता वह्निमनवसादयन् भुञ्जति" इति । अपि च-'गुरूणामर्धसौहित्यं लघूनां नातितृप्तता । मात्र प्रमाणं निर्दिष्टं सुखं तावद्विजीर्यति ॥" व मात्रया सात्म्यं भुञ्जीत ? काले बुभुक्षाकाले। भोजनकालः तद्विस्तरशास्त्रं त्विदं-"प्रसृष्टे विण्मूत्रे हृदि सुविमले दोषे स्वपथगे, विशुद्धे चोद्वारे क्षुदुपगमने वातेऽनुसरति ॥ तथाऽग्नावुदृक्ते विशदकरणे देहे च सुलधौ, प्रयुञ्जीताहारं विधिनियमितं कालः स हि मतः।" किं कृत्वा, सन्तर्प्य सम्यक् प्रीणयित्वा । कानि, पात्राणि प्रागुक्तलक्षणानि । कथं, ततस्तदनन्तरं । कस्मात् , शक्तिभक्त्यनुसारतः शक्तिभक्योरनतिक्रमेण । न केवलं पात्राणि सन्तर्प्य सर्वानप्याश्रतांश्च तिरश्चोऽपि स्वयं परिगृहीतान् सन्तर्प्य सन्तोष्येत्यर्थः । कालविशेषोपदेशेन च माध्यातिकदेवपूजाभोजनयोर्नास्ति कालनियम इति बोधयति । तीव्रबुभुक्षायां हि मध्याह्लादयंगपि गृहीतप्रत्याख्यानं तिरयित्वा देवपूजादिपूर्वकं भोजनं कुर्वन् न दुष्यति ॥ २४ ॥ .. लोकद्वयाविरोधीनि द्रव्यादीनि सदा भजेत् । यतेत व्याध्यनुत्पत्तिच्छेदयोः स हि वृत्तहा ॥ २५ ॥ टीका-भजेत् सेवेतायं । कानि, द्रव्यादीनि द्रव्यक्षेत्रकालभावकर्मसहायादीनि । किंविशिष्टानि, लोकद्वयाविरोधीनि इहलोके परलोके च पुरुषार्थानुपघातकानि । क्व, सदा सर्वदा तथा यतेत तात्पर्य कुर्यात् । कयोाध्यनुत्पत्तिच्छेदयोः व्याधेः ज्वरादिरोगस्यानुत्पत्तावप्रादुर्भावे छेदे च निवर्तने । कुत इत्याह-हि यस्मात् भवति । कोऽसौ, स व्याधिः । कथम्भूतो, वृत्तहा संयमस्य हन्ता ।। २५ ॥ तदुत्तरकरणीयनिर्णयार्थमाह विश्रम्य गुरुसब्रह्मचारिश्रेयोऽर्थिभिः सह । जिनागमरहस्यानि विनयेन विचारयेत् ॥ २६ ॥ टीका-ततश्च विचारयेत् इदमित्थं भवति न वेति सम्प्रधारयेदसौ । गुरुमुखात् श्रुतान्यपि शास्त्ररहस्यानि परिशीलनाविकलानि न चेतसि सुदृढप्रति Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोध्यायः । १६९ NAM ष्टानि भवन्तीति मनसि कृत्वा । कानि, जिनागमरहस्यानि अर्हसिद्धान्तस्यैदम्पणि । केन, विनयेन प्रश्रयेण । कथं, सह । कैः,गुर्वादिभिः। किं कृत्वा, विश्रम्य भोजनश्रममपनीय । गुरवोऽत्र शास्त्रोपदेष्टारः । सब्रह्मचारिणः सहाध्यायिनः श्रेयोऽर्थिन आत्महितकामाः ॥ २६ ॥ ततश्चसायमावश्यकं कृत्वा कृतदेवगुरुस्मृतिः।। न्याय्ये कालेऽल्पशःस्वप्याच्छक्त्या चाब्रह्म वर्जयेत् ॥२७॥ टीका--स्तप्यात् शयीतासौ । कियत्, अल्पशः अल्पं । क्व, काले। किंविशिष्टे, न्याय्ये न्यायादनपेते । न्याय्यश्च कालो रात्रेः प्रथमयामोऽर्द्धरात्रं वा शरीरसात्म्येन अल्पश इति च विशेषणमिति विधिः । सविशेषणे हि विधिनिषेधौ विशेषणमुपसंकामत इति न्यायात् । स्वप्यादिति च विशेष्यं । न च तत्र विधिदर्शनावरणीयकर्मोदयेन स्वापस्य स्वतःसिद्धत्वात् । अल्पमपि च प्रशस्तं यथा भवति तथा स्वप्यादिति शसा द्योत्यते । तेन रोगमार्गश्रमादौ बह्वपि स्वप्यादिति विधिः। किंविशिष्टः सन् , कृतदेवगुरुस्मृतिः कृता देवस्याईतो गुरूणां च तदुपदेष्टणां च स्मृतिर्मनस्यारोपणं येन स तथोक्तः । किं, कृत्वा । किं तत्, आवश्यक देवार्चनं भूमिकौचित्त्येन च सामयिकादिषटकं । कदा, सायं संध्यासमये । तथा वर्जयेदसौ । किं तत्, अब्रह्म मैथुनं । कया, शक्त्या आत्मनः संयमसामर्थ्येन । उपलक्षणं चैतत् तेन यावन्न सेव्या विषयास्तावत्ताना प्रवृत्तितो व्रतयेदिति वचनाद्भोगादिनियम विना क्षणमपि स्थातुं न युक्तमिति स्मारयति ॥ २७ ॥ अथ परिणतायां रात्रौ निद्राच्छेदे सति निर्वेदादिभावनां कुर्यादित्युपदेशार्थं सप्तदश श्लोकानाह--- निद्राच्छेदे पुनश्चित्तं निदेनैव भावयेत् । सम्यग्भावितनिर्वेदः सद्यो निवोति चेतनः ॥ २८ ॥ टीका-भावयेत् संस्कुरूंदसौ । किं तत्, चित्तं मनः । केन, निदेन संसारशरीरविषयवैराग्येण । न पुनरर्थादिचिन्तयेत्येवशब्दार्थः । क सति, निद्राच्छेदे स्वापनिवृत्तौ । पुनःशब्दो विशेषार्थः । यतो निर्वाति प्रशमसुखमनुभ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० सागारधर्मामृतेवति । कोऽसौ, चेतन आत्मा । कथं, सद्यस्तरक्षण एव । किंविशिष्टः सन्, सम्यग्भावितनिर्वेदः यथावदभ्यस्तवैराग्यः ॥ २८ ॥ संसारनिर्वेदार्थमाह दुःखावर्ते भवाम्भोधावात्मबुध्याऽध्यवस्यता । मोहाद्देहं हहाऽऽत्माऽयं बुद्धोऽनादि मुहुर्मया ॥ २९ ॥ टीका-हहा कष्टं । बद्धो ज्ञानावरणादिकर्मपरतंत्रीकृतः । कोऽसावयं स्वसंवेदनवेद्य आत्मा जीवः । केन, मया आत्मना । कथं, मुहुर्वारंवारं । कथमनादि आदिरहितं । किं कुर्वता, अध्यवस्यता निश्चिन्वता । कं, देहं । कया, आत्म. बुध्द्या देह एवाहमिति संकल्पेन । कस्मात्, मोहात् अविद्यासंस्कारात् । क, भवाम्भोधौ संसारसागरे। किंविशिष्टे, दुःखावर्ते दुःखानि नारकादिभववेदना आवर्ता जलभ्रमणानीव अनियतोत्थायत्वाद्दर्निवारत्वाच्च यत्र स दुःखावर्तस्तस्मिन् ॥ २९ ॥ तदिदानी किं करोमीत्याह--- तदेनं मोहमेवाहमुच्छेत्तुं नित्यमुल्सहे । मुच्येतैतत्क्षये क्षीणरागद्वेषः स्वयं हि ना ॥ ३०॥ टीका-तत्तस्मादुल्सहे प्रयते अहं । किं कर्तुमुच्छेत्तुं क्षपयितुं । कमेनं प्रतीय. मानं मोहमज्ञानं 1 न देहादिकमित्येवशब्दार्थः । कथं, नित्यं सन्ततं हि यस्मात् मुच्येत मुक्तो भवेत् । कोऽसौ, ना पुरुषो न प्रधानादिकं । किंविशिष्टः सन्, क्षीणरागद्वेषः । कथं, स्वयमात्मना प्रयत्नमन्तरेणैव। व सति, एतत्क्षये मोहापगमे सति मोहमूलत्वाद्रागद्वेषयोः ॥ ३० ॥ इदानी बन्धमूलामनर्थपरम्परां परामृशन् पुनबंधानुबन्धिनं विषयसेवाभिनिवेशं संहर्तुं प्रतिज्ञां करोति बन्धादेहोत्र करणान्येतैश्च विषयग्रहः । बन्धश्च पुनरेवातस्तदेनं संहराम्यहम् ॥ ३१ ॥ टीका-भवति । कोऽसौ, देहः शरीरं । कस्मात् , बन्धात् पुण्यपापा. स्मककर्मविपाकात् । अत्र च देहे भवन्ति । कानि, करणानि स्पर्शनादीन्द्रि Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टोध्यायः। याणि । भवति च । कोऽसौ, विषयग्रहः । स्पर्शाद्यर्थपरिच्छेदग्रहः। कैः, एतैः करणैः तथा भवति । कोऽसौ, बन्धः शुभाशुभर्कमपुद्गलादानं । कस्मात्. अतः विषयग्रहात् । कथं, पुनरेव भूयोऽपि । यत एवं तत्तस्मात् संहरामि निर्मूलयाम्यहं । कं, एनं बन्धमूलं विषयग्रहम् ॥ ३१ ॥ विषयेष्वपि योषिदभिलाषस्यात्यन्तं दुर्निवारत्वात् तन्निग्रहोपायमनुचिन्तयन्नाह ज्ञानिसङ्गतपोध्यानैरप्यसाध्यो रिपुः स्मरः । देहात्मभेदज्ञानोत्थवैराग्यणैव साध्यते ॥ ३२ ॥ टीका–साध्यते निगृह्यते । कोऽसौ, स्मरः मैथुनसंज्ञासंस्कारोबोधः । किंविशिष्टो, रिपुः ऐहिकामुत्रिकपुरुषार्थनंशहेतुतयाऽपकर्ता । केन कळ करणेन वा, देहेत्यादि देहश्चौदारिकादिशरीरत्रयं आत्मा जीवानंदमयः पुमान् देहश्च आत्मा च देहात्मानौ तयोर्भेदेन पृथक्त्वेन भेदस्य वा ज्ञानं प्रतिपत्तिस्तस्मादुत्था उत्थानमुद्भवो यस्य तदेहात्मभेदज्ञानोत्थं तच्च तद्वैराग्यं च भवाङ्गभोगनिर्वेदः उपेक्षा वा तेनैवापदादिसमुत्थेन वैराग्यणात्मावमाननलक्षगेन । किंविशिष्टोऽसौ, असाध्यः साधयितुमशक्यो व्यभिचारदर्शनात् । कैः , ज्ञानिसंगतपोध्यानः ज्ञानिनामात्मदर्शिनां संगः संस! ज्ञानिसंगः, तपः कायक्लेशादिलक्षणमाचरणं, ध्यानं पदपदार्थादिचिन्तनं, ज्ञानिसश्च तपश्च ध्यानं च ज्ञानिसङ्गतपोध्यानानि तैर्व्यस्तैः समस्तैर्वा बाह्यलोकानां कन्दर्पशत्रुनिग्रहकत्वेन प्रसिद्धैः । अपिर्विस्मये ॥३२॥ आत्मदेहान्तरज्ञानार्थितया सन्यस्तसमस्तसङ्गानां प्राचां श्लाघापूर्वकमास्मानं कलत्रमात्रत्यागेऽप्यसमर्थं गर्हमाणः प्राह धन्यास्ते येऽत्यजन् राज्यं भेदज्ञानाय तादृशम् । घिमादृशकलत्रेच्छातंत्रगार्हस्थ्यदुःस्थितान् ॥ ३३ ॥ टीका--ते भरतसगरादयो भवन्ति । किंविशिष्टाः, धन्याः तपःश्रुताभ्या. सात्मसात्कृत-सुकृतविशेषफलोपभोगान्ते, सुदुस्त्यजसाम्राज्यलक्ष्मीपरित्यागितया महतामपि श्लाघ्याः । ये किं, ये अत्यजन् जरत्तणमिव त्यक्तवन्तः । किं तत्, राज्यं । किंविशिष्टं, तादृशं पूजार्थाजैश्वर्यवीर्यपरिजनकामभोगादिभि Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सागारधर्मामृतेwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm भुवनत्रयातिशायि । कस्मै, भेदज्ञानाय देहात्मव्यतिरकबोधार्थ । इदानीमास्मदृष्टान्तन विषयाभिलाषपरतंत्रतया दोषभूयिष्ठं गार्हस्थ्यं जानतोऽपि त्यक्तुम. शक्तांस्तिरस्कुर्वन्नाह--धिगित्यादि । धिक् निन्दामीत्यर्थः । कान्, मादृश; अहमिव दृश्यन्ते विषयाशावशवर्तितयोपलभ्यन्त इति मादृशः । मया सदृशाः नाविभूततत्त्वज्ञानत्वेऽपि विषयोपभोगपरित्यागासमर्थान् । किंविशिष्टान्, यतः कलत्रेच्छेत्यादि । कलत्रस्य भार्याया इच्छा मनोरथः छन्द इति यावत् कलत्रेच्छा सैव तन्त्रं प्रधानं यत्र तत्कलत्रेच्छातन्त्रं अथवा कलत्रे इच्छा अभिलाषः कलत्रेच्छा तस्यां तन्त्रमायत्तं कलत्रेच्छातन्त्रं तदधीनवृत्ति गृहस्थस्य नित्यनैमित्तिकानुष्ठानस्थस्य द्वितीयाश्रमिणो भावः कर्म वा गार्हस्थ्यं । कलेनेच्छा. तन्त्रं च तद्गार्हस्थ्यं च कलत्रेच्छातन्त्रगार्हस्थ्यं तेन दुःस्थिता दुरवस्था विविधदुराधिबाधाकुलितास्तान् । हेतुपरत्वेनायं निर्देशः ॥ ३३ ॥ स्वयमभिलाष्यमाणाया उपशमश्रियः स्त्रियाश्चात्माकर्षणविषये बलाबलं चिन्तयति इतः शमश्रीः स्त्री चेतः कर्षतो मां जयेन का। आ ज्ञातमुत्तरैवात्र जेत्री या मोहराट्चमूः ॥ ३४ ॥ टीका-कर्षतः स्वस्याभिमुखं नयतो द्वे । कं, मां अतीन्दियन्द्रियक सुखवि. शेषज्ञं । तत्र तावत् कर्षति । काऽसौ, शमश्रीः प्रशमसुखसम्पत् ।कं, मां । व, इतः अस्मिन्नेकस्मिन्पक्षे तथा कर्षति स्त्री मां। क, इतोऽन्यस्मिन्पक्षे नुर्वितर्के । अनयोः का कतरा जयेत् मदाकर्षणे बलवती भवेत् । संशयोऽत्र मे। अथवा आः स्मृतमाप्तोपदेशबलादनुभूतमेतयोर्बलाबलम् । सम्प्रत्यपि ज्ञातं निश्चितं । यदि वा आः संतापप्रकोपयोाख्ययः । आद्यपक्षे भविध्यति । काऽसौ, अत्र एतयोर्मध्ये । उत्तरैव स्त्री न शमश्रीः । किंविशिष्टा, जेत्री मदाकर्षणे शमश्रियोऽभिभवित्री न स्त्रियाः शमश्रीः । या किं, या निश्चिता मया । किंविशिष्टा, मोहराट्चमूः मोहोऽन्त्र चारित्रावरणोदयः स एव राट् राजा अधृष्यभावत्वात् मोहराजश्वमूः सेना । यथा राजा प्रतापित्वेन प्रतिपक्षं सेनया जयति तथा मोहः स्त्रियेति भावः ॥ ३४ ॥ कलत्रदुस्त्यजत्वं भावयंति Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टोध्यायः । १७३ चित्रं पाणिगृहीतीयं कथं मां विष्वगाविशत् । यत्पृथग्भावितात्माऽपि समवैम्यनया पुनः ॥ ३५ ॥ टीका-चित्रं यस्याः खलु पाणिर्गृह्यते सा कथं सर्वात्मना ग्राहकात्मानं प्रविशतीति विस्मयो मे । कथं केन प्रकारेण आविशत् प्रविष्टा । काऽसौ, इयं दृश्यमाना पाणिगृहीती परिणीतस्त्री। कं, मां परिणेतारं । कथं, विष्वक समन्तात् मामात्ममयं कृतवतीत्यर्थः। अत्रोपपत्तिमाह-यद्यस्मात् । समवैमि तादात्म्यं प्रतिपद्ये अहं । कथं,सह । कया,अनया अहमेवेयमियमेवाहमित्यभे. दाध्यवसायपरिणतो भवामीत्यर्थः। कथं,पुनर्भूयः । किंविशिष्टोऽपि सन् ,पृथग्भावितात्माऽपि पृथगेतस्या भेदेन इयमन्या अहमन्य इति कोऽनया सह ममाभेदप्रत्यय इति तत्त्वज्ञानेन भावितो मुहुर्मुहुश्चिन्तित आत्मा अहंकारास्पदमन्तस्तत्त्वं येन स तथोक्तः ।किं पुनर्मोहवशादभेदभावनापरिणत इत्यपिशब्दार्थः।३५। स्त्रीनिवृत्तिमात्मनो निरूप्य वित्तमुपपत्या प्रतिक्षिपन्नाह स्त्रीतश्चित्त निवृत्त चेन्ननु वित्तं किमीहसे । मृतमण्डनकल्पोहि स्त्रीनिरीहे धनग्रहः ॥ ३६ ॥ टीका--चेदिति पराभिप्रायद्योतने। हे चित्त अंतःकरण । यदि निवृत्त विवेकबलाघ्यावृत्तं । किं तत् कर्तृ, त्वं । कस्मात् , स्त्रीतः स्त्रियाः सकाशात् स्त्रियं नेच्छामीत्यभिप्रेषि यदि त्वमित्यर्थः । ननुरमर्षे न मृष्याम्यहमिमं त्वदभिप्रायमित्यर्थः । तदा किमिति प्रश्नाक्षेपे तदा किमीहसे किं वाञ्छसि त्वं हे चित्त । किं तद्वित्तं धनं । स्त्रीनिवृत्तस्य धनमिच्छतः किमनुपपन्नमित्यत्राह-हि यस्मात् भवति । कोऽसौ, धनग्रहः द्रविणार्जमरक्षणवर्जनाभिनिवेशो धनस्वीकारो वा । किंविशिष्टो मृतमण्डनकल्पः मृतस्य मण्डनमिव । क, स्त्रीनिरीहे स्त्रियां निःस्पृहे । यथा मृतकशरीरे क्रियमाणं मण्डनं तद्भोक्तुरभावान्निष्फलं तथा स्त्रियादिविषयविमुखस्य परिगृह्यमाणं धनमिति भावः । धनस्य हि विषयसुखसाधनं फलत्वेन प्रसिद्धं । तत्र च कामिन्य आलम्बनविभावत्वेन मुख्याः सौधोद्यानादयश्चोद्दीपनविभावत्वेन गौणाः । यस्य च नास्ति स्त्रियाम. भिलाषस्तस्य किमितरविषयैरिति ॥ ३६ ॥ एवं निर्वेदं भावयतः परमसामायिकभावनार्थं सप्तश्लोकीमाह ___ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ सागारधर्मामृतेइति च प्रतिसन्दध्यादुद्योग मुक्तिवर्त्मनि । मनोरथा अपि श्रेयोरथाः श्रेयोऽनुबन्धिनः ॥ ३७॥ टीका-प्रतिसन्दध्यात् पुनः संयोजयेदसौ। कमुद्योगमुत्साहं । क्व, मुक्तिवर्त्मनि मोक्षमार्गे । कथं, इति वक्ष्यमाणेन प्राणकायबलास्थिरत्वाद्यनुचिन्त. नलक्षणेन प्रकारेण । चः समुच्चये । न केवलं संसारादिनिर्वेदं तथा भावयेदित्थं मोक्षमार्गेऽभियोगं च प्रतिसन्दध्यादित्यर्थः । अनाचरणतो मनोरथाः स्वप्नराज्यसमाः इति विप्रतिपन्नं बोधयितुमिदमाह-यतो भवन्ति । के, मनोरथाः अशक्यप्राप्त्यर्थविषयाभिलाषाः । किं पुनस्तदर्थानुष्ठानप्रवृत्तय इत्यपिशब्दार्थः । कीदृशा भवन्ति, श्रेयोऽनुबन्धिनो भवे भवे अभ्युदयसम्पादिनः प्रभूतपुण्यबन्धनिबन्धनत्वात् । किमाश्रितास्ते तथा भवन्तीत्याह-श्रेयोरथाः श्रेयो निःश्रेयसं रथः स्यंदनो येषां ते श्रेयोरथाः मोक्षारूढा इत्यर्थः । तदुक्तंयत्र भावः शिवं धत्ते द्यौः कियदूरवर्तिनीति ॥ ३७ ॥ तत्रायुःकायमयत्वाजीवितस्य तदपायानुध्यानमुखेन जीवितव्योच्छेदं भावयन्प्रौढयोक्त्या स्वार्थसिद्धिभ्रंशं भावयति क्षणे क्षणे गलत्यायुः कायो हसति सौष्ठवात् । . ईहे जरां नु मृत्यु नु सध्रीची स्वार्थसिद्धये ॥ ३८ ॥ टीका--गलति क्षीयते एकदेशेनापगच्छति । किं तत् , आयुः भवधारणकारण कर्म । क, क्षणे क्षणे प्रतिक्षणं । तथा हसति देशतश्च्यवति । कोऽसौ, कायः शरीरं । कस्मात्, सौष्टवात् स्वार्थक्रियाकरणसामर्थ्यात् । क्षणे क्षणे इत्यत्रापि योज्यं । नुर्वितर्के । किमर्थ, तत्किमीहे वाञ्छाम्यहं । कां, जरां सर्वांगशक्तिक्षपणलक्षणां विस्रसां । किं वा, मत्यु निःशेषायु:क्षयलक्षणं मरणं । किंविशिष्टां, सध्रीची आत्मनः सहायभूतां । कस्यै, स्वार्थसिद्धये स्वाभिप्रेतार्थनिष्पत्त्यर्थ । पुरुषार्थसाधके ह्यायुः कायश्च प्रधानं कारणं । तञ्च प्रतिक्षणं विशरारुतया निश्चितं चेत्सर्वथा पुरुषार्थभ्रंशहेतुतया प्रसिद्धाभ्यां जरामत्युभ्यां तत्संभाव्यतेति वक्रभणित्या चोदयति ॥ ३८ ॥ जिनधर्मसेवासहचारिणीरापदोऽभिनन्य तद्विरहभाविनीः सम्पदोऽपि प्रतिक्षिपन्संगत्यागे दाढ्यं भावयति-- Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टोध्यायः। १७५ vvvvv क्रियासमभिहारोऽपि जिनधर्मजुषो वरम् । विपदां सम्पदा नासौ जिनधर्ममुचस्तु मे ॥ ३९ ॥ टीका--वरं भवतु सोऽपि श्लाघ्य इत्यर्थः । कोऽसौ, क्रियासमाभिहारः पौन:पुन्यं भृशत्वं वा । वरं सकृद्भवनं मंदत्वं चेत्यपिशब्दार्थः । कासां, विपदा शारीरमानसदुःखानां परिषहोपसर्गाणां वा । कस्य, मे मम । किंवि. शिष्टस्य सतो, जिनधर्मजुषः जिनोक्तं जिनानुष्ठितं वा धर्मं शुद्धाचदानंदरूरूपात्मपरिणतिलक्षणं प्रीत्या सेवमानस्य । न तु न पुनर्वरं । कोऽसौ, असो क्रियासमभिहॉरः। कासां, संपदां सर्वेन्द्रियार्थसुखसाधनानां विभूतीनां कस्य, मे । किंविशिष्टस्य सतो, जिनधर्ममुचो यथोक्तजिनधर्मरहितस्य ॥३९॥ श्रमणकर्माभ्यासेन अन्यगम्यं सर्वत्र साम्यं कामयते-- लब्धं यदिह लब्धव्यं तच्छामण्यमहोदाधिम् ।। माथित्वा साम्यपीयूषं पिबेयं परदुर्लभम् ॥ ४० ॥ टीका-लब्धं प्राप्तं तन्मया कलत्रसम्पदादिकं । यत् किं, यल्लब्धव्यं आप्तव्यं मया धन्यैर्वा । क; इह नृजन्मनि गृहाश्रमे वा । यत एवं कृतार्थोऽस्मि तत्तस्मात्पिबेयं अध्यात्ममनुभवेयं अहं । किं तत् , साम्यपीयूषं सर्वत्र समत्वममतमिव । किं कृत्वा, मथित्वा अभ्यस्य । विलोड्य च । कं, श्रामण्यमहोदधिं श्रमणानां यतीनां कर्म मूलोत्तरगुणाचरणलक्षणं श्रामण्यं महोदधिरिव अनर्ग्यरत्नोत्पत्तिनिमित्तत्वात् दुरवगाहत्वात् दुर्गमपारत्वाच्च । इयमत्र भावना यथा किल सुरासुरैः क्षीरोदधिं विलोऽय तत उद्धतममतं पीतमिति श्रयते तथा श्रामण्यं भावयित्वा उपेक्षालक्षणं चारित्रमहमात्मनि परिणमयितुमहामि । कीदृशं द्वयमपि, परदुर्लभं परैर्जिनमार्गानभिज्ञैः सुरासुरवगैश्च लोकैलब्धुमशक्यं जिनसमयाभिज्ञैरपि वा परमत्यर्थं दुर्लभं कतिपयैरेव तैरपि प्राप्यमित्यर्थः ॥ ४० ॥ तदेव भूयो भावयति पुरेऽरण्ये मणौ रेणौ मित्रे शत्रौ सुखेऽसुखे । जीविते मरणे मोक्षे भवे स्यां समधीः कदा ॥४१॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते टीका-कदा कस्मिन्काले । स्यां भवेयं भवितुमर्हाम्यहं भविष्यामीति या । किंविशिष्टः, समधीः तुल्यमनाः । क्व क्क, पुरे प्रीतिकारणे चातुर्वर्ण्यसमृध्यधिष्ठाननगरे । तथा तद्विपरीते अरण्ये अटव्यां । एतयोर्द्वयोरपि रागद्वेषनिबन्धनयोरुपेक्षापरिणतः कदा भविष्यामीत्यर्थः । एवमुत्तरत्रापि योज्यं । तथा मण वज्रादिने । रेणौ रजसि । तथा मित्रे सुहृदि । शत्रौ चापकर्तरि । तथा सुखे आल्हाद नाकारे । असुखे च दुःखे देहमनस्तापरूपे । तथा जीविते पुरुषार्थसिद्धिहेतावायुषि । मरणे च तद्विपरीते । तथा मोक्षे अनन्तसुखस्वरूपे । भवे च तद्विपरीते । अयमत्र विशेषः - पुरारण्यादिषु तुल्यमतित्वमन्यस्यापि भवेत् । असौ तु परमवैराग्योपगतो मोक्षभवयोरपि निर्विशेषमति. त्वमर्थयते । ' मोक्षे भवे च सर्वत्र निस्स्पृहो मुनिसत्तम” इति श्रुतेः ॥ ४१ ॥ यतिधर्मचर्याकाष्टाधिरोहणमाशंसति 1 १७६ मोक्षोन्मुख क्रियाकाण्डविस्मापित बहिर्जनः । कदा लप्स्ये समरसस्वादिनां पंक्तिमात्मदृक् ॥ ४२ ॥ टीका - कदा कस्मिन्काले । लप्स्ये प्राप्स्याम्यहं । कां पंक्तिं लक्षणया सजातीयत्वं । केषां समरसस्वदिनां समरसं ध्यातृभ्येयध्यानानामेकी भावे सत्यानन्दं स्वादयन्त्यभीक्ष्णं भूयोभूयोऽनुभवन्तीति समरसस्वादिनो घटमानयोगा निष्पन्नयोगा वा मुमुक्षवः समरसस्वादिनस्तेषां । किंविशिष्टः सन्, आत्मदृक् आत्मदर्शी भवन् । कथम्भूतो भूत्वा मोक्षोन्मुखेत्यादि - मोक्षे अनन्तज्ञानादिचतुष्टयाविर्भावस्वभावे निः श्रेयसि उन्मुखाः अभिमुखाः उद्यतास्तेषां क्रियाकाण्डगुरूकुलोपासनक्लेशातापनादियोग कायक्लेशादि तेन विस्मापितोऽनन्य सम्भाव्यतया विस्मयं नीतो बहिर्जनो बहिरात्मलोको येन स तथोक्तः ॥ ४२ ॥ योगपरमकाष्ठामभिकांक्षति- शून्यध्यानैकतानस्य स्थाणुबुध्याऽनडुन्मृगैः । उद्धृष्यमाणस्य कदा यास्यन्ति दिवसा मम ॥ ४३ ॥ टीका -- कदा कस्मिन् योगाभ्याससमये । यास्यन्ति गमिष्यन्ति । के, दिवसाः अहोरात्राः । कस्य, मम तत्त्वज्ञानवैराग्य सम्पन्नस्य । किंविशिष्ट Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोध्यायः । १७७ सतः, शून्यध्यानकतानस्य निर्विकल्पसमाधिपरिणतस्य । पुनः किं क्रियमाणस्य, उद्धृष्यमाणस्य स्कन्धश्रृङ्गकण्डूयनगोचरीक्रियमाणस्य । कैरनडुन्मृगैः अनड्वाहः उत्कृष्टपशवः मृगा अरण्यचारिणो हरिणाः अनड्वाहश्च मृगाश्च अनडुन्मृगास्तैः । कया, स्थाणुबुध्या स्थाणुः सीमाद्यर्थ ऊर्ध्वस्थितकाष्ठविशेष: स्थाणुरिति वुद्धिः कल्पना स्थाणुबुद्धिस्तया। यदा हि पुरावहिरहं कायोत्सर्गेण स्थास्यामि तदा स्वैरचारिणो वृषभादयः स्कन्धादिकण्डूत्याकुलितास्त. कण्डूयनाय मां स्थाणुरयमिति मन्यमानाः स्कन्धादिभिरुघृष्यन्ति । एवमरण्ये हरिणादयोऽपि । अहं पुनः पुरारण्ययोर्मुक्ताग्रहत्वेन तिष्ठन् शुद्धचिदानन्दमयं वात्मानमेवाधिवत्स्यामीति मनोरथोऽस्य महात्मनो लक्ष्यत इति॥४३|| महानिशायां पुरादहिः प्रोरधोपवासवतान् कायोत्सर्गस्थितानुपसर्गजयेन योगादचलितानप्राच्यश्रावकान् प्रशंसयति-- धन्यास्ते जिनदत्ताद्या गृहिणोऽपि न येऽचलन् । तत्तादृगुपसर्गोपनिपाते जिनधर्मतः ॥ ४४ ।। टीका–वर्तन्ते । के, ते प्रसिद्धाः जिनदत्ताद्याः जिनदत्तो नाम श्रेष्ठी आयः प्रथमो येषां वारिषेणकुमारादीनां ते जिनदत्ताद्याःप्रोषधोपवासव्रतिनः । किंविशिष्टा, धन्या सुकृतिनः तेभ्योऽहं स्पृहयामीत्यर्थः । ये किं, ये नाचलन् न चलिताः । कस्मात्, जिनधर्मतः जिनोक्ताजिनसेविताद्वा सामायिकात् । किंविशिष्टाः सन्तो, गृहिणो द्वितीयाश्रमिणः । किंपुनरुत्तराश्रमिण इत्यपिशब्दार्थः । क सति, तदित्यादि । ते श्रुतप्रसिद्धास्तादृशोऽनन्यसहशा उपसर्गाः शस्त्रप्रहारादयस्तेषां उपनिपाते समीपे निपतनं नियतमवश्यम्भावि पतनं तत्तादृगुपसर्गोपनिपातस्तस्मिन् ॥ ४४ ।। अतिकप्रतिमामुपसंहरंस्तदनुष्टायिनः फलविशेषमाह इत्याहोरात्रिकाचारचारिणि व्रतधारिण। स्वर्गश्रीः क्षिपते मोक्षश्रीर्षयेव वरस्रजम् ॥ ४५ ॥ टीका-क्षिपते मुंचति। काऽसौ, स्वर्गश्रीः यथास्वं सौधर्मादिकल्पलक्ष्मीः । कां, वरस्र वरोऽभिमतः पतिर्वरणं वा तत्स्वीकरणं वरार्था स्रक माला वर Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१७८ सागारधर्मामृते सक् तां वरमालामित्यर्थः । क, व्रतधारिणि व्रतानि प्रागुक्तानि धारयत्यात्मनि निरतिचारतया स्थिरीकरोत्यभीक्ष्णमिति व्रतधारी व्रतिकप्रतिमारूढः श्राव. कस्तस्मिन् । किंविशिष्टे, इत्येवमुक्तप्रकारेण । आहोरात्रिकमहोरात्रभवमाचारं ब्राह्ममुहूर्तोत्थानादिकं चरत्यनुतिष्ठतीत्येवंशीलस्तञ्चारी तस्मिन् । अत्रोत्प्रेक्षामाह-मोक्षश्रीर्षयेवेति । मोक्षश्रियामीर्षाऽक्षान्तिर्मोक्षश्रीर्षा तया। इयमत्र भावना-यथा काचिन्महाकुलीनकन्या पित्रादिभिरनुज्ञाता अभीष्टपताविमं नान्या स्वीकुर्यादिति बुध्द्या वरमालां क्षिपति तथा तत्तादृङ्महाश्रावके मोक्षश्रीर्षया स्वर्गश्रीरिति भद्रम् ॥ ४५ ॥ इत्याशाधरविरचितायां स्वोपज्ञधर्मामृतसागारधर्मदीपिकायां भव्यकुमुदचन्द्रिकासज्ञायामादितश्चतुर्दशः प्रक्रमाच्च षष्टोऽध्याय:समाप्तः ॥ ५ ॥ अथ सप्तमोऽध्यायः। अथ सामायिकादिप्रतिमानवकस्वरूपप्ररूपणार्थमुपक्रमते । तत्र यतिकप्रतिमायां सामायिकं शीलतया निर्दिष्टं तदेवेह व्रतत्वेन प्रतिपद्यमानं प्रति. मारूपतां यातीति प्ररूपयन्नाह सुदृङ्मूलोत्तरगुणग्रामाभ्यासविशुद्धधीः । भजस्त्रिसन्ध्यं कृच्छ्रेऽपि साम्यं सामायिकी भवेत् ॥१॥ टीका-भवेत् भवितुमर्हति । कोऽसौ, व्रतिकः । कीदृशः, सामायिकी सामायिकप्रतिमावान् । किं कुर्वन् , भजन सेवमानः किं । तत्साम्यं मोहक्षोभविहीनमात्मपरिणाम । कथं, त्रिसन्ध्यं सन्ध्यात्रये । क्व सति, कृच्छेऽपि परीषहोपसर्गसन्निपातेऽपि । कथम्भूतो भूत्वा, सुदृगित्यादि-हक्सम्यक्त्वं मूलो. त्तरगुणग्रामः प्रागुक्तलक्षणः दृक् च मूलोत्तरगुणग्रामश्च दृङ्मूलोत्तरगुणग्रामौ प्रशस्तौ निरतिचारौ दृङ्मूलोत्तरगुणग्रामौ सुदृङ्मूलोत्तरगुणग्रामौ । तयोरभ्यासोऽसकृत्प्रवृत्तिः तेन विशुद्धा प्रतिबन्धकापायात् प्रकृतसंयमानुष्ठानसाधनसामर्थ्य प्राप्ता धीनिं यस्य स तथोक्तः ॥ १ ॥ व्यवहारसामायिकविध्युपदेशपुरःसरं निश्चयसामयिकं विधेयतयोपदिशति Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्यायः। १७९ कृत्वा यथोक्तं कृतिकर्म सन्ध्यात्रयेऽपि यावनियम समाधेः। यो वज्रपातेऽपि न जात्वपैति सामायिकी कस्य सन प्रशस्यः।२। टीका-स सामायिकार्थिनः शक्रादेर्वा न प्रशस्यः सर्वस्यापि श्लाघ्य इत्यर्थः । यः किं, यो नापैति न प्रच्यवते । कस्मात्समाधेः रत्नत्रयैकाग्रलक्षणाद्योगात् । कदा, जातु कदाचिदपि । क्व सति, वज्रेऽपि पतति सति । किं पुनरन्यत्रोपसर्गकारणे । कियत्कालमित्याह -यावनियमं प्रतिज्ञावधि । एत. निश्चयसामायिकं । किं कृत्वा, अनुष्ठाय । किं तत्, कृतिकर्म । किंविशिष्टं, यथोक्तं आवश्यकाध्याये योग्यकालेत्यादिप्रबन्धेन व्याख्यातं वन्दनाकर्म । क, सन्ध्यात्रयेऽपि तिसृष्वपि सन्ध्यासु शक्त्याऽन्यदाऽपि । साम्यभावनानुज्ञा. नार्थो वा अपिशब्दः । एतद्व्यवहारसामायिकम् ॥ २ ॥ निश्चयसामायिकशिखराधिरूढाय श्लाघते आरोपितः सामयिकत्रतप्रासादमूर्धनि । कलशस्तेन येनैषा भूरारोहि महात्मना ॥ ३ ॥ टीका-आरोपितः स्थापिसः । कोऽसौ, कलशः । केन, तेन । क, सामायिकेत्यादि-समयः केशबन्धादिनियमितः कालस्तत्र भवं सामायिकं साम्यभावनं तदेव व्रतं सामायिकव्रतं तदेव प्रासादो देवगृहं दुरासदत्वात् दुरारोहस्वादिष्टसिद्धिनिबन्धनत्वाच्च तस्य मूर्धनि शिखराग्रे । येन किं कृतं, येन महास्मना गणधरचक्रधरेन्द्रादीनां स्पृहणीयेन आरोहि आरूढा। काऽसौ, एषा भूर्यवहारसामायिकपूर्वा निश्चयसामायिकप्रतिमा ॥ ३ ॥ अथ चतुःश्लोक्या प्रोषधोपवासस्थानं व्याचष्टे स प्रोषधोपवासी स्याद्यः सिद्धः प्रतिमात्रये । साम्यान च्यवते यावत्प्रोषधानशनव्रतम् ॥ ४ ॥ टीका-स्याद्भवेत् । कोऽसौ, स श्रावकः । किंविशिष्टः, प्रोषधोपवासी प्रोषधोपवासप्रतिमावान् । यः किं, यो न च्यवते न भ्रश्यति । कस्मात्साम्यात् भावसामायिकात् । प्रोषधोपवासशीले तु तदुपरमे नामादिसामायिकपञ्चकस्याप्यनुचरणात् । कियकालं, यावत्प्रोषधानशनव्रतं प्रोषधोपवासप्रति Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० सागारधर्मामृते ज्ञाविषयीकृतान् षोडश यामान् । किंविशिष्टः सन्, सिद्धः निष्पन्न: प्रतीतो वा । क्व, प्रतिमात्रये दर्शनव्रतसामायिकप्रतिमासु ॥ ४ ॥ प्रोषधोपवासिनो निष्ठाकाष्टां निर्दिशति त्यक्ताहाराङ्गसंस्कारव्यापारः प्रोषधं श्रितः । चेलोपसृष्टमुनिवद्भाति नेदीयसामपि ।। ५ ॥ टीका-भाति प्रतिभासते । कोऽसौ, प्रोषधं श्रितः प्रोषधोपवासनिष्ठः ।। किंवत्, चेलोपसृष्टमुनिवत् उपसर्गवशाद्वस्त्रेण वेष्टितो निर्ग्रन्थो यथा ब्रह्मचर्यधारणशरीरादिममत्ववर्जनयोगात् । केषां, नेदीयसां पाश्ववर्तिलोकानां बान्धवादीनां वा । विशेषतोऽन्येषामित्यपिशब्दार्थो विस्मये वा अपिशब्दः । किंविशिष्टः सन्, त्यक्तेत्यादि-आहारोऽशनादिश्चतुर्विधः अङ्गसंस्कारः स्नानोद्वर्तनवर्णकविलेपनपुष्पगन्धविशिष्टवस्त्राभरणादिव्यापारः साहचर्यात्सावद्यारम्भः आहारश्चाङ्गसंस्कारश्च व्यापारश्चाहाराङ्गसंस्कारव्यापारास्त्यक्ताः सर्वात्मनाः प्रत्याख्यातास्ते त्रयो येन । एतेन आहारादित्रयवर्जनाब्रह्मचर्यधारणाच चतु:र्विधं प्रोषधव्रतमुक्तम् ॥ ५॥ सामायिकोषधोपवासयोः प्रतिमाभावे युक्तिमाह यत्प्राक्सामायिकं शीलं तद्रतं प्रतिमावतः । यथा तथा प्रोषधोपवासोपीत्यत्र युक्तिवाक् ॥ ६ ॥ टीका-अस्ति । काऽसौ, युक्तिवाक् समाधानवचनं । क्व, अत्र सामायि-- कपोषधोपवासयोः प्रतिमाभावविप्रतिपत्तौ । कथं, इति किमिति भवति । कोऽसौ, प्राक् शीलतया अभ्यस्तः प्रोषधोपवासोऽपि । किं, व्रतं । कस्य, प्रतिमावतः चतुर्थसंयमविशेषपदमनुतिष्ठतः श्रावकस्य । कथं, तथा । यथा किं, यथा भवति । किं तत्, सामायिकं । किं भवति, व्रतं सस्यवद्रक्षणीयत्वात् । कस्य, प्रतिमावतः तृतीयसंयमविशेषपदमनुतिष्ठतः श्रावकस्य । यत किं, यत्सामायिकं भवति । किं, शीलं सस्यस्य वृतिरिव मुख्यतया रक्षणीयस्य व्रतस्य रक्षणकारणत्वात् । क्व, प्राक् व्रतप्रतिमानुष्ठानसमये ॥ ६ ॥ परमकाष्टाप्रतिपन्नान् प्रोषधोपवासिनः प्रशंसति Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्यायः । निशां नयन्तः प्रतिमायोगेन दुरितच्छिदे | ये क्षोभ्यन्ते न केनापि तान्नुमस्तुर्यभूमिगान् ॥ ७ ॥ टीका - नुमः स्तुमो वयं । कान् तान् तुर्यभूमिगान् चतुर्थी संयमविशेपदवीमारूढान् | ये किं, ये न क्षोभ्यन्ते समाधेर्न प्रच्याव्यन्ते । केन, केनापि परिपणोपसर्गेण वा । किं कुर्वन्तः, नयन्तो लङ्घयन्तः । कां, निशां पर्वरात्रिं । कैद, प्रतिमायोगेन संयतवत् कायोत्सर्गास्थानेन । कस्यै, दुरितच्छिदे अशुभकर्मनिर्जरणार्थं ॥ ७ ॥ 1 अथ सचित्तविरतस्थानं चतुःश्लोक्या व्याचष्टे हरीताङ्कुरबीजाम्बुलवणाद्यमासुकं त्यजन् । जाग्रत्कृपश्चतुर्निष्ठः सचित्तविरतः स्मृतः ॥ ८ ॥ १८१ टीका - स्मृतः । सूत्रज्ञैराम्नातः । कोऽसौ सचित्तविरतश्रावकः । किं कुर्वन् त्यजन् वर्जयन् अभक्षयन्नित्यर्थः । किं तत्, हरीताङ्कुरबीजाम्बुलवणादि अङ्कुरः प्ररोहः बीजं प्ररोहणद्रव्यं अम्बु जलं लवणं सैन्धवादि आदिशब्देन कन्दमूलफलपत्रकरीरादि, अंकुरश्च बीजं च अंकुरबीजमुपलक्षणात् त्वक्पत्रादि, हरीतमम्लानार्द्रावस्थं । हरीतं च तदंकुरबीजं च हरीतांकुरबीजं तच्चाम्बुलवणादि च हरीतांकुरबीजाम्बुलवणादि । किंविशिष्टमप्रासुकमनग्निपक्कमित्यर्थः । अत्र च द्वितीयपादे नवाक्षरत्वं न दोषाय अनुष्टुभि नवाक्षरस्यापि पादस्य शिष्टप्रयोगे क्वापि क्वापि दृश्यमानत्वात् । यथा-ऋषभाद्या वर्द्धमानान्ता जिनेन्द्रा दश पंच वेत्यादिषु । अथवा हरीताङ्कुरबी जालव`णाद्यप्रासुकं त्यजन्निति पाठः । अत्र आपो जलं । किंविशिष्टोऽसौ, जाग्रत्कृपो यतः जाग्रती नित्यं हृदि स्फुरन्ती कृपा अनुकम्पा यस्य स जाग्रत्कृपो `दयामूर्तिरित्यर्थः । कथम्भूतो भूत्वा, हरीताङ्कुरादिकमभक्षयन्सचित्तविरतः स्मृतः चतुर्निष्टः चतसृषु पूर्वोक्तप्रतिमासु निष्ठा निर्वाहो यस्य स च जाग्रत्कृप इति समर्थयते— 'चतुर्निष्टः ॥ ८ ॥ पादेनापि स्पृशन्नर्थवशाद्योऽतिऋतीयते । हरितान्याश्रितानन्तनिगोतानि स भोक्ष्यते ॥ ९ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सागारधर्मामृते wwwwwwwwww टीका-भोक्ष्यते काका न भक्षयिष्यतीत्यर्थः । कोऽसौ, स पञ्चमसंयम.स्थानसाधनोद्यतः श्रावकः । कानि, हरितानि हरितावस्थवनस्पतीन् । किंविशिष्टानि, आश्रितानन्तनिगोतानि आश्रितानि संसक्तानि अनन्तानि निगोतानि निगोताख्याः साधारणशरीरवनस्पतिकालिका येषु तानि । उक्तं चार्षे ब्राह्मणसृष्टिप्रस्तावे-सन्त्येवानन्तशो जीवा हरितेष्वंकुरादिषु । निगोता इति सार्वज्ञ देवास्माभिः श्रुतं वचः ॥१॥ यः किं, यो अतिऋतीयते पाक्षिकाद्य. पेक्षया अतिशयेन घृणां करोति । किं कुर्वन्, स्पृशन् परामृशन् । कानि तथाभूतहरितानि । केन, पादेन चरणेन किं पुनर्हस्तादिनेत्यपिशब्दार्थः । कस्मात्, अर्थवशात् प्रयोजनानुरोधात् । किं पुन: प्रयोजनाभावात् । प्रयोजनं विना स्थावरविराधनादपि निवृत्तिप्रतिज्ञानात् ॥ ९॥ . सचित्तविरतेभ्यः श्लाघते अहो जिनोक्तिनिपुतिरहो अक्षजितिः सताम् । नालक्ष्यजन्त्वपि हरित् प्सान्त्येतेऽसुक्षयेऽपि यत्॥१०॥ टीका-अहो आश्चर्य वर्तते । काऽसौ, जिनोक्तिनिर्णीतिः जिनागमनिश्चयः केषां, सतां प्रकरणात् सचित्तविरतिप्रयतानां । तथा अहो आश्चर्य वर्तते । काऽसौ, अक्षजितिः इन्द्रियजयः । केषां, सताम् । अत्रोपपत्तिमाह-यद्यस्मात् न प्सान्ति न भक्षयन्ति । के, एते सन्तः । किं तत्, हरित् हरितं । किंवि. शिष्टमपि, अलक्ष्यजन्त्वपि अलक्ष्याः अस्मदाद्यपेक्षया केवलागमगम्यत्वात् प्रत्यक्षाद्यसंवेद्याः जन्तवः प्राणिनो यस्मिन् तदलक्ष्यजन्तु हरितं वस्तु । किं पुनदृश्यानुमेयप्राणिकमित्यपिशब्दार्थः । क सति, असुक्षयेऽपि असूनां क्षयः प्रलयः असुक्षयस्तस्मिन्नपि प्राणेषु नश्यत्स्वपि । पुनः, प्रकारान्तरेण जीविते सम्भवतीत्यपिशब्दार्थः। अत्रालक्ष्यजन्त्वपीत्यनेन जिनागमप्रामाण्यविश्वासोऽ. सुक्षयेऽपीत्यनेन च जितेन्द्रियत्वं समर्थ्यते ॥ १० ॥ ___ साम्प्रतं भोगोपभोगपरिमाणशीलातिचारत्वेनोक्तं सचित्तभोजनमिह त्यज्यमानं प्रतिमाभावं यातीत्युपदिशति सचित्तभोजनं यत्पाङ् मलत्वेन जिहासितम् । .. व्रतयत्यङ्गिपञ्चत्वचकितस्तच्च पञ्चमः ॥ ११ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्यायः । १८३ - टीका - व्रतयति व्रतत्वेन प्रत्याख्याति । कोऽसौ, पञ्चमः सचित्तविरत्युद्यतः । किं तत्, तच्च तदपि । किंविशिष्टो, यतः अङ्गिपञ्चत्वचकित: अङ्गिनां भक्ष्यमाणसचित्तद्रव्याश्रितजीवानां पञ्चत्वं मरणं अङ्गिपञ्चत्वं तस्माच्चकितो भीतो यतः । यत्किं यजिहासितं त्यक्तुमिष्टं शीलोपदेशस्याभ्यासदशाविषयत्वात् । किं तत्, सचित्तभोजनं जीवाश्रितद्रव्यवल्भनं । केन, व्रतिकेन । केन कृत्वा, मलत्वेन भोगोपभोगपरिमाणाख्यशीलातिचारत्वेन । क्क, प्राक् शीलोपदेशसमये । स्वामी पुनर्भोगोपभोगपरिमाणशीलातिचारानन्यथा पठित्वा पञ्चमप्रतिमामेवमध्यगीष्ट -- मूलफलशाकशाखाकरीरकन्दप्रसूनबीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ॥ ११ ॥ अथ रात्रिभक्तव्रतं चतुःश्लोक्या व्याकरिष्यन् आदौ तल्लक्षणमाह स्त्रीवैराग्यनिमित्तैकचित्तः प्राग्वृत्तनिष्ठितः । यस्त्रिधाऽह्नि भजेन स्त्रीं रात्रिभक्तत्रतस्तु सः ॥ १२ ॥ टीका -- स तु श्रावको भवति । किंविशिष्टः, रात्रिभक्तव्रतः । यः किं, यो न भजेत् न सेवेत् । कां, स्त्रीं निःशेषामपि योषां । क, अह्नि दिने । कथं, त्रिधा मनोवाक्कायकृतकारितानुमतैः । किंविशिष्टः सन् स्त्रीत्यादि - स्त्रीवैराग्यनिमित्तानि कामदोषाः स्त्रीदोषाः स्त्रीसङ्गदोषा अशौचमार्यसङ्गतिश्चेति पञ्च तेष्वेकचित्तो यः स यथोक्तः तदेकाग्रमना इत्यर्थः । कथम्भूतो भूत्वा प्राग्वृतनिष्ठितः पूर्वोक्तप्रतिमापञ्चकाचारनिरूढः ॥ १२ ॥ 9 षष्टप्रतिमानिष्टानभिष्टौति अहो चित्रं धृतिमतां सङ्कल्पच्छेद कौशलम् । यन्नामापि मुदे साsपि दृष्टा येन तृणायते ॥ १३ ॥ ― टीका - अहो चित्रमाश्चर्यं वर्तते । किं तत्, संकल्पच्छेदकौशलं मनोव्यापारनिरोधसामर्थ्यं । केषां धृतिमतां संतोषभावनायुक्तानां पुंसां । येन किं, येन संकल्पच्छेद कौशलेन तृणायते तृणवत्प्रतिभाति अभोग्यतयाऽऽत्मानं तेषां दर्शयतीत्यर्थः । काऽसौ, साऽपि कान्ता । किंविशिष्टा सती, दृष्टा चक्षुचरीकृता । तथा आवृत्या सा कान्ता दृष्टाऽपि किं पुनः श्रुता संकल्पिता Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते चेत्यपिशब्दार्थः । गृहस्थस्य हि स्वदारान्प्रति प्रेम हव्यापारश्च दुःखं प्रतिपेदे। सा का, यन्नामापि यस्याः सज्ञाऽपि श्रुता भवति । कस्यै, मुदे प्रीतये। किं पुनदर्शनादिकमित्यपिशब्दार्थः ॥ १३ ॥ एतस्य रात्र्यादावपि मैथुनविनिवृत्तिमुपपादयन्नाह रात्रावपि ऋतावेव सन्तानार्थमृतावपि । भजन्ति वशिनः कान्तां न तु पर्वदिनादिषु ॥ १४ ॥ टीका-भजन्ति सेवन्ते । के, वशिनो जितेन्द्रियाः ।कां, कांतां । प्रियां। क, ऋतावेव पुष्पदर्शनोत्तरभाविचतुर्थदिवसस्नानानन्तरमेव नान्यदा । क,रात्रावपि निश्यपि । तथा ऋतावपि सन्तानार्थमेव ते भजन्ति तां न विषयसुखार्थ । एवशब्दोऽत्र सन्दशकन्यायेन उभयत्र योज्यः । न तु पुनः कथमपि वशिनस्त्रियं भजन्ति । केषु, पर्वदिनादिषु पर्वदिनानि धर्मकर्मानुष्ठानदिनान्यष्टम्यादीनि आदिशब्देन अमावास्याग्रहणादीनि गृह्यन्ते ॥ १४ ॥ अधुना चारित्रसारादिशास्त्रमतेन रात्रिभक्तवतं निरुक्त्या लक्षयन् रत्नकरण्डकादिप्रसिद्ध तदर्थ कथयति रात्रिभक्तवतो रात्रौ स्त्रीसेवावर्तनादिह । निरुच्यतेऽन्यत्र रात्रौ चतुराहारवर्जनात् ॥ १५ ॥ टीका-निरुच्यते व्युत्पाद्यते । कोऽसौ, रात्रिभक्तवतः समासशब्दः । क्व, इह अस्मिन् चारित्रसारादिशास्त्रानुसारिणि ग्रन्थे । कस्मात्, रात्री निशि स्त्रीसेवाया वर्तनात् रात्रौ भक्तं स्त्रीभजनं व्रतयति रात्रिभक्तवत इति तच्छब्दस्य व्युत्पादनात् । अन्यत्र पुना रत्नकरंडकादिशास्त्रे रात्रिभक्तवतशब्दो निरुच्यते । कस्मात्, रात्री चतुराहारवर्जनात् रात्रौ भक्तं चतुर्विधमप्याहारं व्रतयति प्रत्याख्यातीति रात्रिभक्तवत इति तच्छब्दव्युत्पादनात् । यदाह स्वामी--अन्नं पानं खाद्यं लेां नानाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिभक्तविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः ॥ १५ ॥ अथ ब्रह्मचर्यस्थानं व्याचष्टे Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM सप्तमोध्यायः । १८५ तत्ताहसंयमाभ्यासवशीकृतमनास्त्रिधा। यो जात्वशेषा नो योषा भजति ब्रह्मचार्यसौ ॥१६॥ . टीका-भवति । कोऽसावसौ श्रावकः । किंविशिष्टो, ब्रह्मचारी ब्रह्मणि चारित्रे आत्मनि ज्ञाने चरति प्रवर्तत इत्येवंवतः । यः किं, यो नो भजति न सेवते । काः, योषाः स्त्रीः । किंविशिष्टाः, अशेषाः मानवीदेवीस्तिरश्चीस्तत्प्रतिकृतिश्च । कदा, जातु कदाचिद्दिवा रात्रौ च । कथं, त्रिधा त्रिविधेन । कथम्भूतो भूत्वा तदित्यादि-स प्राक् प्रतिमाषट्कनिर्दिष्टः तादृक् क्रमोपचित: संयमः प्राणेन्द्रियपरिहाररूपापहृतसंयमैकदेशस्तस्याभ्यासो भावना तेन वशीकृतं स्वाधीनता नीतं मनश्चित्तं येन स तथोक्तः ॥ १६ ॥ ब्रह्मचारिणं श्लाघते-- अनन्त शक्तिरात्मेति श्रुतिर्वस्त्वेव न स्तुतिः । यत्स्वद्रव्ययुगात्मैव जगजैत्रं जयेत्स्मरम् ॥ १७ ॥ टीका--भवति । काऽसौ, श्रुतिराप्तोपदेशः । कथं, इति एवंस्वरूपा । भवति । कोऽसावात्मा पुरुषः । किंविशिष्टोऽनन्तशक्तिः अनन्ता निःसीमाः शक्तयो अर्थक्रियाकारिसामर्थ्यानि यस्य सः अनन्तशक्तिः । इति श्रुतिः । किं भवति, वस्त्वेव वस्तुविषयैव । न भवति सा । सा किं, स्तुतिः गुणाल्पत्वे सति तद्वहुत्वकथनं । कुत इत्याह-यद्यस्मात् जयेत् प्रतिबन्नीयात् । कोऽसावास्मैव । किंविशिष्टः, स्वद्रव्ययुक् परद्रध्यव्यावर्तनेन आत्मद्रव्यं समादधानः । कं, स्मरं कन्दर्प । किंविशिष्टं, जगजैत्रं जगतां परद्रव्यप्रवृत्तिमतां प्राणिनां जैत्रमभिभावुकं ॥ १७ ॥ मन्दमत्यनुजिघृक्षया ब्रह्मचर्यमाहात्म्यमाह विद्या मन्त्राश्व सिध्यन्ति किङ्करन्त्यमरा अपि । क्रूराः शाम्यन्ति नाम्नाऽपि निर्मलब्रम्हचारिणाम्।।१८।। टीका-सिद्धयन्ति वरप्रदा भवन्ति । काः, विद्याः साधितसिद्धाः। मन्त्राश्च पठितसिद्धाः । तथा किकरन्ति किङ्करा इव आचरन्ति । के, अमराः देवाः किं पुनर्मानवास्तिर्यञ्चो वेत्यपिशब्दार्थः । तथा शाम्यन्ति उपसर्गकरणानिव Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६. सागारधर्मामृते र्तन्ते । के, क्रूराः ब्रह्मराक्षसादयः । केन, नाम्ना सञोच्चारणमात्रेण । किं पुनः सन्निधानेनेत्यपिशब्दार्थः । केषां, निर्मलब्रह्मचारिणां निरतिचारब्रह्मचर्य भाजाम् ॥ १८ ॥ प्रसङ्गवशाब्रह्मचर्याश्रमं किञ्चिब्याचष्टे प्रथमाश्रमिणः प्रोक्ता ये पञ्चोपनयादयः । तेऽधीत्य शास्त्रं स्वीकुर्युर्दारानन्यत्र नैष्ठिकात् ॥ १९ ।। टीका-ये प्रोक्ताः परमागमे प्रतिपादिताः । के, प्रथमामिणः मौञ्जीबन्धनपूर्वव्रतानुष्टायिनः । कति, पञ्च । के, ते उपनयादयः उपनय आदिर्येषामवलम्बादीनां ते । तत्र उपनयब्रह्मचारिणो गणधरसूत्रधारिणः समभ्यस्तागमा गृहिधर्मानुष्ठायिनो भवन्ति । अवलम्बब्रह्मचारिणः क्षुल्लकरूपेणागममभ्यस्य परिगृहीतगृहावासा भवन्ति । अदीक्षाब्रम्हचारिणो वेषमन्तरेणाभ्यस्तागमा गृहधर्मनिरता भवन्ति । गूढब्रम्हचारिणः कुमारश्रमणाः सन्तः स्वीकृतागमाभ्यासा बन्धुभिदुःसहपरिषहैरात्मना नृपतिभिी निरस्तपरमेश्वररूपा गृहवासरता भवन्ति । नैष्ठिकब्रम्हचारिणः समधिगतशिखालक्षितशिरोलिङ्गा गणधरसूत्रोपलक्षितवक्षोलिङ्गाः शुक्लरक्तवसनकौपीनकटीलिङ्गाः तथा भिक्षावृत्तयो देवार्चनपरा भवन्ति । ते किं कुर्यरित्याह-परिगृह्णीयुः । के, ते । कान्, दारान्, पत्नीः । किं कृत्वा, अधीत्य पठित्वा । किं तत्, शास्त्रमुपासकाध्ययनादि श्रुतं । कथमन्यत्र । कस्मात्, नैष्ठिकात् नैष्ठिकं वर्जयिवेत्यर्थः ॥ १९॥ जिनदर्शने वर्णाश्रमव्यवस्था कुत्रास्तीति पृच्छन्तं प्रत्याह ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुश्च सप्तमे । चत्वारोऽङ्गे क्रियाभेदादुक्ता वर्णवदाश्रमाः ॥२०॥ 'टीका-उक्ताः प्रीताः । के, आश्रमाः आ शास्त्रोक्तकालात् श्राम्यन्ति यथास्वं तपस्यन्तीत्याश्रमाः । किंवत्, वर्णवत् ब्राह्मणादयो वर्णा यथा। कस्मात, क्रियाभेदात् धर्मकर्मविकल्पात् । कति, चत्वारः । क्व, अङ्गे। किंविशिष्टे, सप्तमे उपासकाध्ययनाख्ये । तानेवोपदेष्टुमाह-ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्यायः । १८७. भिक्षुश्चेति । उक्तं च । ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानां सप्तमाङ्गाद्विनिःसृताः ॥ १ ॥ तक्रियाभेदस्तु किञ्चिदयं दयतेब्रह्मचारिणस्तावदिमाः क्रियाः। द्विजसूनोर्गर्भाष्टमे वर्षे जिनालये कृतार्हत्पू जनस्य कृतमौण्ड्यस्य त्रिगुणमौजीबन्धसप्तगुणग्रन्थितयज्ञापवीतादि लिङ्गं विशुद्धं स्थूलहिंसाविरत्यादिव्रतं ब्रह्मचर्योपबृंहितं गुरुसाक्षिकं धारणीयं । तक्रियाप्रपञ्चः पुनरार्षे-शिखी सितांशुकः सान्तर्वासा निर्वेषविक्रयः । व्रतचिन्हं दधत्सूत्रं तदोक्तो ब्रह्मचार्यसौ ॥ चरणोचितमन्यच्च नामधेयं तदाऽस्य वै। वृत्तिश्च भिक्षयाऽन्यत्र राजन्यादुद्घवैभवात् ।। इत्यादिग्रन्थेनोक्तः प्रति. पत्तव्यः । पूर्वोक्तनित्यनैमित्तिकानुष्ठानस्थो गृहस्थः । स द्वेधा जातितीर्थक्षत्रियभेदात् । तत्र जातिक्षत्रियाः क्षत्रियब्राह्मणवैश्यशूद्रभेदाच्चतुर्विधाः । तीर्थक्षत्रियाः स्वजीवितविकल्पादनेकभेदा भिद्यन्ते । वानप्रस्था अपरिगृहीतजिनरूपा वस्त्रखण्डधारिणो निरतिशयतपस्युद्यता भवन्ति । भिक्षवो जिनरूप. धारिणो बहुधा भवन्ति । तद्यथा-देशप्रत्यक्षवित्केवलभृदिह मुनिः स्यादृषिः प्राप्तऋद्धिरारूढश्रेणियुग्मो जिनयतिरनगारोऽपरः साधुवर्गः । राजा ब्रह्मा च देवः परम इति ऋषिर्विक्रियाऽक्षीणशक्तिप्राप्तो बुध्द्यौषधीशो विविधनयपटुर्वि. श्ववेदी क्रमेण ॥ १ ॥ तक्रियाश्च प्राक्प्रबन्धेनोक्तास्तद्वद्वर्णक्रियाश्च व्याख्याता ॥ २० ॥ अथारम्भविरतं द्वाभ्यामाहनिरूढसप्तनिष्ठोऽङ्गिघाताङ्गत्वात्करोति न । नं कारयति कृष्यादीनारम्भविरतस्त्रिधा ॥ २१ ॥ टीका-- न करोति न कारयति च कोऽसावारम्भविरतः श्रावकः । कान्, कृष्यादीन् कृषिसेवावाणिज्यादिव्यापारान् । न पुनः स्नपनदानपूजाभिधानाद्यारम्भान् । तेषामङ्गिघाताङ्गत्वाभावात् । प्राणिपीडापरिहारेणैव तत्सम्भवात् । वाणिज्याद्यारम्भादपि तथा सम्भवस्तर्हि विनिवृत्तिर्न स्यादिति चेदे. बमेतत् । कथं, त्रिधा । कस्मात्, अङ्गिघाताङ्गत्वात् प्राणिवधनिबन्धनत्वात् । कथम्भूतो भूत्वा, निरूढसप्तनिष्ठः निष्ठितप्राक्सप्तप्रतिमासंयमः पुत्रादीन प्रत्यनुमतेः कदाचिन्निवारयितुमशक्यत्वान्मनोवाक्कायैः कृतकारिताभ्यामेव सावद्यारम्भान्निवर्तते इत्यत्र तात्पर्यार्थः ॥ २१ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ सागारधर्मामृते एतदेव समर्थयते यो मुमुक्षुरघाद्विभ्यत्त्यक्तुं भक्तमपीच्छति । प्रवर्तयेत्कथमसौ प्राणिसंहरणीः क्रियाः ॥ २२ ॥ टीका-कथं प्रवर्तयेत् कुर्यात् कारयेच्च । कोऽसावसावष्टमश्रावकः । काः, क्रियाः । किंविशिष्टाः, प्राणिसंहरणीः जीवघातिकाः । यः किं, य इच्छति वांच्छति । किं कर्तु, त्यक्तुं प्रत्याख्यातुं । किं तत्, भक्तमपि प्राणिसंहरणकारणं भोजनमपि । किं कुर्वन्, बिभ्यत् । कस्मादघापापात्। किंविशिष्टः सन्, मुमुक्षुः कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षमिच्छुः ॥ २२ ॥ अथ परिग्रहविरतं सप्तश्लोक्या व्याचष्टे स ग्रन्थविरतो यः प्राग्वतवातस्फुरद्धृतिः । नैते मे नाहमेतेषामित्युज्झति परिग्रहान् ॥ २३ टीका-स भवति । किमाख्यो, ग्रन्थविरतः। यः किं, य उज्झति त्यजति । कान्, परिग्रहान् वास्तुक्षेत्रादीन् दश । कथं, इति एवं संकल्प्य । न भवन्ति । के, एते वास्तुक्षेत्रादयोऽर्थाः । कस्य, मे मम स्वत्वभोग्यत्वादिना सम्बद्धाः । तथा न भवाम्यहं । केषामेतेषां स्वामित्वभोक्तृत्वादीनां सम्बन्धी । किंविशिष्टः सन्, प्रागित्यादि-प्राचां दर्शनिकादिप्रतिमांविषयाणां व्रतानां संयमविशेषाणां व्रातः सङ्कातः प्राग्व्रतवातः तेन स्फुरन्ती जाग्रती धृतिः सन्तोषो यस्य स तथोक्तः । किं च । स्वाचाराप्रातिलोम्येन लोकाचारं प्रमाणयेदिति वचनात्सर्वत्र स्वस्वस्थानाविरोधेनैव पूर्वस्थानानुष्टानमनुष्टेयम् ॥ २३ ॥ एतस्य सकलदत्तिमुत्तरप्रबन्धेन व्याचष्टे अथाहूय सुतं योग्य गोत्रज वा तथाविधम् । ब्रूयादिदं प्रशान् साक्षाजातिज्येष्ठसधर्मणाम् ॥ २४॥ टीका--अथाधिकारे इतः सकलदात्तराधिक्रियत इत्यर्थः । ब्रूयात् व्याहरेत्। कोऽसौ, प्रशान् प्रशमपरो नवमः श्रावकः । कं, सुतं पुत्रं । किंविशिष्टं, योग्यं स्वभारक्षमं। किं कृत्वा, आहूय भाकार्य । वा अथवा योग्यपुत्राभावे Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्यायः । १८९. गोत्रज भ्रातृतत्पुत्रादिकं । किंविशिष्टं, तथाविधं योग्यपुत्रतुल्यं । किं ब्रूयादिदं वक्ष्यमाणं । कथं, साक्षात् समक्षं । केषां, जातिज्येष्ठसधर्मणां जाता ब्राम्हणत्वादौ ज्येष्ठा मुख्या जातिज्येष्ठास्ते च ते सधर्माणश्च साधर्मिकास्ते षाम् ॥ २४ ॥ ताताद्ययावदस्माभिः पालितोऽयं गृहाश्रयः । विरज्यैनं जिहासूनां त्वमद्याहोस नः पदम् ।। २५ ।। टीका-हे नात स्वस्थ पोष्यत्वसूचनगर्भ पुत्रादेः प्रियत्वामंत्रणमिदं । पालि. तो यथाविधि निर्वाहितः । कोऽसावयं प्रस्तुतो गृहस्थाश्रमो गृहस्थाचारः ।। कैरस्माभिः नवमप्रतिमानुष्ठाननिष्ठाभ्युद्यतैः । कथमद्ययावत् इदंदिनावधि । अद्य सम्प्रति । अर्हसि स्वीकर्तुमुचितोऽसि । कोऽसौ, त्वं । किं तत्, पदं त्रिव. गेसारगृहाचारानुवर्तनलक्षणं । केषां, नः अस्माकं । किं चिकीर्षुणां, जिहासूनां त्यक्त्तुमिच्छूनां । कमेनं गृहाश्रमं । किं कृत्वा, विरज्य भवाङ्गभोगेषु वैराग्यं गत्वा ॥२५॥ पुत्रः पुपूषोः स्वात्मानं सुविधेरिव केशवः । य उपस्कुरुते वप्तुरन्यः शत्रुः सुतच्छलात् ॥ २६ ॥ टीका- य उत्पन्नः पुनीते वंशं स पुत्र इति वचनात् स पुत्रो भण्यते । यः किं, य उपस्कुरुते गृहादिममत्वच्छेदेनातिशयमादत्ते । कस्य, वस्तुः पितुः । किं चिकीर्षोः, पुपूषोः शोधयितुमिच्छोः । कं, स्वात्मानं स्वचिद्रूपं । क इव कस्येत्याह-सुविधेरित्यादि यथा उपश्चक्रे । कोऽसौ, केशवः केशवो नाम श्रीमतीचरस्तत्पुत्रः । कस्य, सुविधेः वृषभनाथस्य पूर्वभवे सुविधिनाम्नो राज्ञः । उक्तं चार्षे-नृपस्तु सुविधिः पुत्रस्नेहाद्गार्हस्थ्यमत्यजन् । उत्कृष्टोपासकस्थाने तपस्तेपे सुदुश्चरं ॥ उक्तलक्षणवैपरीत्ये पुत्रस्थापि शत्रुत्वं वक्तुमाह-भवति । कोऽसौ, अन्यः पुत्रः । किंविशिष्ट, शत्रुः शातयिता इष्टविघातित्वात् । कस्मात्, सुतच्छलात्पुत्रव्याजात् ॥ २६ ॥ उपसंहारमाह Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० सागारधर्मामृते तदिदं मे धनं धर्म्य पोष्यमध्यात्मसात्कुरु । सैषा सकलदत्तिर्हि परं पथ्या शिवार्थिनाम् ॥ २७ ॥ टीका- -यत एवं तत्तस्मात् | आत्मसात्कुरु स्वायत्तं विधेहि त्वं । किं तत्, इदं वर्तमानं मे मम सम्बधि धनं ग्रामसुवर्णादिकं धर्म्यं चैत्यालयपात्रदानादिकं पोष्यं च गृहिणीमातृपित्रादि । कुत एतदित्याह - हि यस्माद्वर्तते । काsसौ, सा सूत्रोक्ता एषा विधीयमाना सकलदत्तिरन्वय दत्त्य पराभिधाना । कीदृशी, पथ्या पथोऽनपेता रत्नत्रयानुगतेत्यर्थः । केषां, शिवार्थिनां मुमुक्षूणां । कथं, परं अत्यर्थम् ॥ २७ ॥ विदीर्णमोहशार्दूलपुनरुत्थानशङ्किनाम् । त्यागक्रमोऽयं गृहिणां शक्त्याऽऽरम्भो हि सिद्धिकृत् ||२८|| टीका-वर्तते । कोऽसावयं प्रकृतः त्यागक्रमः शनैः शनैर्बहिरन्तः सङ्गवर्जनं । केषां गृहिणाम् । किंविशिष्टानां विदीर्णेत्यादि -- विदीर्णस्तत्तन्निष्टा सौष्ठवेन भिन्नः स चासौ मोहशार्दूलश्च ममकारव्याघ्रः तस्य पुनरुत्थानं भूयो निहन्तुमभियोगस्तं शङ्कन्ते विकल्पयन्त्यभीक्ष्णमिति तच्छंकिनस्तेषां । अर्थसमर्थमाह - हि यस्माद्भवति । कोऽसावारम्भः ऐहिकमामुत्रिकं वा अभिमतार्थं साधयितुमुपक्रमः । कया, शक्त्या स्वसामर्थ्येन क्रियमाणः । किंविशिष्टो भवति, सिद्धिकृत् अभिप्रेतार्थसाधकः || २८ ॥ , एवं व्युत्सृज्य सर्वस्वं मोहाभिभवद्दानये । किञ्चित्कालं गृहे तिष्ठेदौदास्यं भावयन्सुधीः ॥ २९ ॥ टीका-तिष्ठेदासीत । कोऽसौ, सुधीः तत्त्वज्ञानसम्पन्नः । क्वगृहे । कं, कालं । कियन्तं, किंञ्चित्स्तोकं । किं कुर्वन्, भावयन्नभ्यस्यन् । किं तदौदास्यमुपेक्षां । कस्मै, मोहेत्यादि । मोहेन ममत्वेन अभिभत्र उपेक्षाशैथिल्यं येन पृष्टो वा आर-म्भादौ पुत्रादेरनुमतिं दास्यते तस्य हानये निराकरणार्थं । किं कृत्वा, व्युत्सृज्य विशेषणमिदं विधिपूर्व वा त्यक्त्वा । किं तत्सर्वस्वं चेतनमचेतनं च स्वं वस्तु । कथमेव मित्थं । किञ्चित्कालमित्यनेन सिताम्बरपरिकल्पितं प्रतिमासु कालनि Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्यायः । यमं निराकरोति तद्ग्रन्थानुवादस्तु ज्ञानदीपिकायां द्रष्टव्यः । गृहे तिष्टेदित्यनेन स्वांगाच्छादनार्थं वस्त्रमात्रधारणममूछीमस्य लक्षयति । तेन विना गृहेऽवस्थानानुपपत्तेः । तथा ह्यागमः " मोत्तूग वत्तमित्तं परिग्गहं जो विव. जदे सेसं । तं तत्थ विमुच्छण्णं करेदि जाग सो सावओ णवमो ॥ २९ ॥ अथानुमतिविरतं सप्तश्लोक्या व्याचष्टे नवनिष्ठापरः सोऽनुमतिव्युपरतः सदा । यो नानुमोदेत ग्रन्थमारम्भं कर्म चैहिकम् ।। ३० ॥ टीका-स भवति । किंविशिष्टोऽनुमतिव्युपरतोऽनुमतिविरत इत्यर्थः । यः किं, यो नानुमोदते नानुमन्यते । कं, ग्रन्थं धनधान्यादिकं। तथा आरम्भकृप्यादिकं । तथा कर्म व्यापारं । किंविशिष्टमहिक विवाहादिकं । कथं, विधा मनोवाकायैः । किंविशिष्टः सन् , नवनिष्ठापरः दर्शनिकादिप्रतिमान वकानुष्टाननिष्टः ॥ ३० ॥ एतस्य विधिविशेषमाह चैत्यालयस्थः स्वाध्यायं कुर्यान्मध्याह्नवन्दनात् । ऊर्ध्वमामन्त्रितः सोऽद्याद्गहे स्वस्य परस्य वा ॥ ३१ ॥ टीका---कुर्याद्विदध्यात्कोऽसावसौ अनुमतिविरतः । कं, स्वाध्यायमागमाध्ययनं । किंविशिष्टः सन्, चैत्यालयस्थः जिनगहे तिष्ठन् । तथा अद्यात् भुञ्जीत सः । क्व, गृहे । कस्य, स्वस्य आत्मीयस्य पुत्रादेः परस्य वा यस्य कस्य धार्मिकस्य । किंविशिष्टः सन्, आमंत्रित आहूतः । कथमूर्ध्वमुपरिष्टात् । कस्मान्मध्याह्नवन्दनात् माध्याह्निककृतिकर्मणः पश्चात् ॥ ३१ ॥ अस्यैवोद्दिष्टत्यागार्थ भावनाविशेषं श्लोकद्वयेनाह यथाप्राप्तमदन्देहसिध्यर्थ खलु भोजनम् । देहश्च धर्मसिध्द्यर्थ मुमुक्षुभिरपेक्ष्यते ॥ ३२॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ सागारधर्मामृते सा मे कथं स्यादुद्दिष्टं सावधाविष्टमश्नतः। कर्हि भैक्षामृतं भोक्ष्ये इति चेच्छेजितन्द्रियः ३३ युग्मम् टीका-इच्छेच्च आकांक्षेदसौ । किं. इति एतत् । किं कुर्वन् भुञ्जानः । किं, यथाप्राप्तं यद्यल्लब्धं तत्तत्संयमाविरोधेनाश्नन्नित्यर्थः । किंविशिष्टो, यतः जिते. न्द्रियः। जितानि वशीकृतानीन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि येन स जितेन्द्रियः । किमेतदिच्छदित्यत्राह-खलु निश्चयेन । अपेक्ष्यते आकांक्ष्यते । किं तत्, भोजनं । कैः, मुमुक्षुभिः । किमर्थं, देहसिध्द्यर्थं शरीरवर्तनाथ। तथा अपेक्ष्यते देहस्तः । किमर्थ, धर्मसिध्यर्थं रत्नत्रयानिष्पत्त्यर्थं । सा च धर्मसिद्धिः कथं न कथमपि स्यात् । कस्य, मे मम । किं कुर्वतोऽनतो भुजानस्य । किं तत्, उद्दिष्टं स्वोद्देशेन साधितमाहारं । किंविशिष्टं, सावद्याविष्ठं सावधेनाधःकर्मणा संसृष्टं । तत: कर्हि कस्मिन्काले । भोक्ष्ये वल्भिध्येऽहं । किं तत्, भैक्षामृतं भिक्ष्यन्त इति भिक्षाः याचितप्राप्ताहाराः भिक्षाणां समूहो भैक्षं भैक्षममृतमिवाजरामरत्वहेतुत्वात् ॥ ३२ । ३३ ॥ अस्यैव गृहत्यागविधिमाह पञ्चाचारक्रियायुक्तो निष्क्रमिष्यन्नसौ गृहात् । आपृच्छेत गुरून् बन्धून् पुत्रादींश्च यथोचितम् ॥ ३४॥ टीका-आपृच्छेत संवदेदसौ । कान्पुत्रादीन् । कथं, यथोचितं यथार्ह । किं करिष्यन् , निष्क्रमितुमिच्छन् । कस्माद्हात् द्रव्यभावगेहात् । किंविशिष्टः सन् , पञ्चाचाराक्रियोयुक्तः पञ्चानां ज्ञानाद्याचाराणां करणे तत्परः । अत्रायं विधिःअहो कालविनयोपधानबहुमानानिवार्थव्यञ्जनतदुभयसम्पन्नत्वलक्षणज्ञानाचार न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि, तथापि त्वां तावदाश्रयामिः यावत्त्वत्प्रसादाच्छुद्धमात्मानमुपलभे । अहो निःशंकितत्वनिःकांक्षितत्वनिर्वि. चिकित्सितत्वनिर्मूढदृष्टित्वोपबृंहणस्थितीकरणवात्सल्यप्रभावनालक्षणदर्शनाचार, शेषं पूर्ववत् । अहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारणपञ्चमहाव्रतोपेतकायवाङ्मनो. गुप्तीर्याभाषेषणापाननिक्षेपणप्रतिष्ठापनसमितिलक्षणचारित्राचार, शेषं पूर्ववत् । अहो अनशनावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लशे Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्यायः । १९३ प्राग्वत् ॥ अहो समस्तेतराचारप्रवर्तकस्वशक्त्यनिगृहनलक्षणवीर्याचार, शेषं प्राग्वत् । अथ यथोचितमेतदाचक्ष्महे ।। तथाहि-अहो मदीयशरीरजनकस्यात्मन् अहो मदीयशरीरजनन्यात्मन् नायं मदात्मा युवाभ्यां जनितो भवतीति निश्चयेन युवां जानीतं। तत आपृष्टौ युवामिममात्मानं विमुञ्चत । अयमा. त्माऽद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिरात्मानमेवात्मनोऽनादिजनकमुपसर्पति । तथा अहो मदीयशरीरबन्धुजनवर्तिन आत्मानः अयं मदात्मा न किञ्चनापि युष्माकं भवतीति निश्चयेन यूयं जानीथ तत आपुष्टा यूयं, शेषं पूर्ववत् । न वरं जनकमित्यस्य स्थाने बंधुमिति पठनीयं । अहो मदीयशरीरपुत्रस्यात्मन् मदात्मनो न त्वं जन्यो भवसीति निश्चयेन त्वं जानीहि तत आपृष्टस्त्व. मिममात्मानं विमुञ्च, शेषं प्राग्वत् । न वरं बंधुस्थाने जन्यं पठेत् ॥ अहो मदीयशरीररमण्या आत्मन् मदात्मा न त्वां रमयतीति निश्चयेन त्वं जानीहि तत आपृष्टस्त्वमिममात्मानं विमुञ्च । अयमात्माऽद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः स्वानुभूतिमेवात्मनोऽनादिरमणीमुपसर्पतीत्यादि ॥ ३४ ।। विनयादाचारस्य भेदं विस्तरेण प्रागुक्तमिदानीं सुखस्मृत्यर्थं संक्षिप्य पुनराह सहनिवृत्ततपसां मुमुक्षोनिर्मलीकृतौ । यत्नो विनय आचारो वीर्याच्छुद्धेषु तेषु तु ॥ ३५॥ टीका-भण्यते सूरिभिः । कोऽसौ, विनयः। किं, यत्नः प्रणिधानं । क्व, निर्मलीकृतौ मलापनयने । सनिवृत्ततपसां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसां । कस्य, मुमुक्षोः न बुभुक्षोः । आचारस्तु भण्यते । किं, यत्नः । केषु, तेषु सहगादिषु चतुर्पु । किविशिष्टेषु, शुद्धेषु निर्मलीकृतेषु । कस्मात्, वीर्यात् स्वशक्तिमनिगृह्य । एतेन पञ्चमो वीर्याचारः सूच्यते ॥ ३५ ॥ सम्प्रत्युपसंहरति इति चर्या गृहत्यागपर्यन्तां नैष्ठिकाग्रणीः । निष्ठाप्य साधकत्वाय पौरस्त्यपदमाश्रयेत् ॥ ३६ ॥ टीका-आश्रयेत् स्वीकुर्यात् । कोऽसौ, नैष्ठिकाग्रणीः नैष्टिकेषु दार्शनिकादिषु नवस्वग्रणीच्ख्योऽनुमतिविरतः । किं तत्, पदं स्थानं । किंविशिष्टं, Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते पौरस्त्यं एकादशमुद्दिष्टविरत्याख्यं । कस्मै, साधकत्वाय आत्मशोधनार्थं । किं कृत्वा, निष्ठाप्य परिसमाप्य । कां, चर्या संयमाचारं । किंविशिष्टां, गृहत्या. गपर्यन्तां गृहत्यागः पर्यन्ते अवसाने यस्याः तां । कथमित्येवम् ॥ ३६ ॥ अथोद्दिष्टविरतस्थानं त्रयोदशभिः श्लोकैाचष्टे तत्तव्रतास्त्रनिर्मिनश्वसन्मोहमहाभटः । उद्दिष्टं पिण्डमप्युज्झेदुत्कृष्टः श्रावकोऽन्तिमः ॥३७ ॥ टीका-उज्झेत् त्यजेत् । कोऽसौ, अन्तिमः श्रावकः । किंविशिष्टः, उत्कृष्टः अयमित्थंभूतनयादुत्कृष्टोऽनुमतिविरतस्तु नैगमनयादिति ज्ञापनार्थमुभी भिक्षू तौ प्रकृष्टौ चेति प्रागुक्तमपीदं विशेषणं पुनरुक्तं । किमुज्झेत्, पिण्डं भक्तं अपिशब्दादुपधिशयनासनादि । किंविशिष्टमुद्दिष्टं आत्मोद्देशेन कल्पितं । नवकोटिविशुद्धं स्वीकुर्यादित्यर्थः । किंविशिष्टः सन्, तदित्यादि-तानि पूर्वोक्तानि व्रतानि यथास्वं निवृत्तिप्रवृत्तिरूपाण्याचरणानि तत्तद्रतानि तान्येवास्त्राणि प्रहरणानि तैर्भिन्नो नितरां विदारितः स चासौ श्वसन् किञ्चिज्जीबन् जिनरूपताप्राप्तिं प्रतिबन्धन् मोह एव महाभटो दुर्निवारवीरो यस्य स तथोक्तः ॥ ३७॥ तद्भेदलक्षणार्थमाह स द्वेधा प्रथमः श्मश्रुमूर्धजानपनाययेत् । सितकौपीनसव्यानः कर्तर्या वा क्षुरेण वा ॥ ३८ ॥ टीका-स उत्कृष्टश्रावको द्वेधा द्विविधो भवति । तत्राद्यस्य प्रथम इत्यादिना प्रबन्धेन विधिमभिधत्ते-अपनाययेत् छेदयेत् । कोऽसौ, प्रथम आद्य उद्दिष्टविरतः । कान् , श्मश्रुमूर्धजान् कूर्चशिरःकेशान् । कया, कर्तर्या कर्तरिकया । वा धुरेण नापितोपकरणेन वा। अत्र कर्तर्याऽपनायनं श्लाध्यतरं शोभानाकांक्षणात् । तथा सितकौपीनसंव्यानो भवेत् श्वेतकक्षापटोत्तरीयपटचासौ स्यादित्यर्थः ॥ (२) स उत्कृष्ट उद्दिष्टविरतश्रावकः द्वेधा द्विविधो भवतीति सम्बन्धः । तत्र तावत् प्रथमः आद्यः । किंविशिष्टः ? सितकौपीनसंव्यानः कौपीनं गुह्य Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्यायः । 'श्रच्छादनवस्त्रं संव्यानं उत्तरीयवस्त्रं कौपीनं च संव्यानं च कौपीनसंव्यानं सिते वस्त्रे कौपीनसंव्याने यस्य स तथोक्तः । किं कुर्यात् ? अपनापयेत् अन्येनोत्सारयेत् । कान्, इमश्रुमूर्धजान् । श्मश्रूणि कूर्चान् केशान् मूर्धजान् शिरःकेशान् न तु कक्षादिस्थान् । कया, कर्तर्या कर्तरिकया वा अथवा क्षुरेण रामशास्त्रविशेषेण । अत्र द्वितीयो वाशब्दः समुच्चयेन ज्ञातव्यो यथासम्भवमिति ॥ ३८ ॥ स्थानादिषु प्रतिलिखेत् मृदूपकरणेन सः । कुर्यादेव चतुष्पमुपवासं चतुर्विधम् ॥ ३९ ॥ टीका - प्रतिलिखेत् भूतलादिषु प्रमृज्यात् । कोऽसौ स प्रथम उत्कृष्टः । केन, मृदूपकरणेन मृदुना सुकुमारेण जन्त्रबाधकेनोपकरणेन वस्त्रादिना । केषु कर्त्तव्येषु, स्थानादिषु ऊर्ध्वभावेोपवेशन संवेशनादिषु । तथा कुर्यादेव अवश्यं विदध्यादसौ । कमुपवासमनशनं । किंविशिष्टं चतुर्विधं चतस्रो विधा आहारास्त्याज्या यस्मिन्नसौ चतुर्विधस्तं । चतुष्प मासि मासि द्वयोरष्टम्योर्द्वयोश्चतुर्दश्योः ॥ ३९ ॥ १९५ स्वयं समुपविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने । स श्रावकगृहं गत्वा पात्रपाणिस्तदङ्गणे ॥ ४० ॥ स्थित्वा भिक्षां fमलाभं भणित्वा प्रार्थयेत वा । मौनेन दर्शयित्वाऽङ्गं लाभालाभे समोऽचिरात् ॥ ४१ ॥ निर्गत्याऽन्यगृहं गच्छेद्भिक्षोद्युक्तस्तु केनचित् । भोजनायार्थितोऽयात्तद्भुक्त्वा यद्भिक्षितं मनाक् ||४२ ॥ प्रार्थयेतान्यथा भिक्षां यावत्स्वोदरपूरणीम् । लभेत प्रासु यत्राम्भस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ॥ ४३ ॥ कलापकं टीका - स प्रथमोत्कृष्टोऽद्यात् भुञ्जीत । केन, स्वयमात्मना । किंविशिष्टः सन्, समुपविष्टः निश्चलनिविष्टः । क्व, पाणिपात्रे हस्तपुटे । अथवा भाजने स्थायादौ । इतः श्रावकेत्यादिना भिक्षणविधिमाह-प्रार्थयेत् भिक्षेत । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ सागारधर्मामृते कोऽसौ, सः । कां, भिक्षां । किं कृत्वा, भणित्वा । कं, धर्मलाभं धर्मलाभः शब्दमुच्चार्येत्यर्थः । किं कृत्वा, स्थित्वा उद्यो भूत्वा । क्व, तदङ्गणे श्रावकगृहाग्रभागे । किंविशिष्टः सन् पात्रपाणिः भिक्षापात्रहस्तः । किं कृत्वा, गत्वा प्राप्य । किं तत् श्रावकगृहं । वा अथवा । स प्रार्थयेत् भिक्षां । केन, मौनेन । किं कृत्वा, दर्शयित्वा दातृदृष्टिगोचरं कृत्वा । किं तत् अङ्गं स्वशरीरं । ततश्च गच्छेत् व्रजेत् । किं तत् गृहं । किंविशिष्टं, अन्यत् अयाचित - भिक्षं । किं कृत्वा, निर्गत्य याचितभिक्षागृहान्निष्क्रम्य । कथं, अचिरात् शीघ्रं । किंविशिष्टः, समः रागद्वेषरहितः । क्व, लाभालाभे भिक्षायाः प्राप्तावप्राप्तौ च । भिक्षोद्युक्तस्तु भिक्षां याचमानः पुनः केनचिच्छ्रावकेण । भोज. नाय भोजनं कर्तुमर्थितः उपरुद्धः सन् । अद्यात् तद्गृहे भुञ्जीत । किं कृत्वा, भुक्त्वा जेमित्वा । किं तत्तदन्नं । यत्किं यद्भिक्षितं गृहान्तरेषु याचितं ॥ किंयत् मनाक् स्तोकं । बहौ भिक्षिते सति नान्यस्यान्नं भुञ्जीतेति भावः । अन्यथा परोपरोधाभावे । प्रार्थयेत याचेत सः । कां, भिक्षां । कथं, यावन्मकृत्यं । कां स्वोदरपूरणीं भिक्षां । स्वस्यैवोदरं यावत्या पूर्यते तावतीमेव प्रार्थयेत अन्यथा असंयमप्रसङ्गः । अथवा यावत् स्वोदरपूरणी भिक्षा: भवति तावदेव प्रार्थयेतेति वाक्यभेदेन सम्बन्धः । ततश्च चरेत् गोवभुजीतेति भावः । कां तां भिक्षां । किं कृत्वा, संशोध्य सम्यक् शोधयित्वा h क्व, तत्र श्रावकगृहे । यत्र किं यत्र लभेत् प्राप्नुयात्सः । किं तदम्भः पानीयं । किंविशिष्टं, प्रासु प्रासुकं निर्जीवम् || ४०/४१।४२।४३ ॥ > , आकांक्षन्संयमं भिक्षापात्रप्रक्षालनादिषु । स्वयं यतेत चादर्पः परथाऽसंयमो महान् ॥ ४४ ॥ टीका - स चादपों विद्यातिशयाद्यनाहितमदः सन् । स्वयं यतेतात्मना यत्नं कुर्यात् । क, भिक्षेत्यादि भिक्षापात्रस्य प्रक्षालनं धावनमादौ येषामासनस्थापनोच्छिष्टत्यजनादीनां तानि भिक्षापात्रप्रक्षालनादीनि कर्माणि तेषु । किं कुर्वन्, आकांक्षन् अभिलषन् । कं, संयमं प्राणिरक्षणं । परथा अन्यथा शिध्यादिना तद्विधाने भवत्यसंयमः । कीदृशो महान् भूयान् ॥ ४४ ॥ ततो गत्वा गुरूपान्तं प्रत्याख्यानं चतुर्विधम् । गृहीयाद्विधिवत्सर्वं गुरोश्चालोचयेत्पुरः ॥ ४५ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्यायः । टीका-ततः प्रकृतकर्मकरणानन्तरं । गुरोर्धर्माचार्यस्योपान्तं समीपं गत्वा । गृह्णीयात्स्वीकुर्यात् सः । किं तत्, चतुर्विधं चतुर्विधाहारविषयं । प्रत्याख्यानं नियमं । कथं, विधिवत् यथाविधि । तथा आलोचयेत् निवेदयेत्सः । किं तत्, सर्व गमनात्प्रभृति स्वचेष्टितं । क्व, पुरोऽग्रे । कस्य, गुरोः। चशब्दाद्गोचरी प्रतिक्रमणां कुर्यात् ॥ ४५ ॥ एवमनेकभिक्षानियमस्य प्रथमोत्कृष्टस्य भोजनविधिमुक्त्वा सम्प्रति तस्यैवैकभिक्षानियमस्य तदुपदिशति यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाऽयादनुमुन्यसौ । भुक्त्यभावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्यकम् ॥ ४६ ॥ टीका--यस्तु प्रथमोत्कृष्टो भवति । कीदृशः, एकस्यामेकगृहसंबधिन्यां भिक्षायां नियमः प्रतिज्ञा यस्य स एकभिक्षानियमः । असावद्यात् भोजनं कुर्यात् । किं कृत्वा, गत्वा दातृगृहं व्रजित्वा । कथमनमुनि संयतस्य पश्चात् । एतेन प्रथमोत्कृष्टो द्वेधा स्यादनेकभिक्षानियम एकभिक्षानियमश्चेत्युक्तं प्रतिपत्तव्यं । स पुनः कुर्यात् । कमुपवासं । कथमवश्यं नियमेन । क सति, भुक्त्यलाभे सति तथाभोजनस्याप्राप्तौ ॥ ४६ ॥ तद्विधिविशेषमाह-- बसेन्मुनिवने नित्यं शुश्रूषेत गुरूँश्चरेत् । तपो द्विधाऽपि दशधा वैयाकृत्यं विशेषतः ॥ ४७ ॥ टीका–स नित्यं सर्वदा । मुनिवने सँयताश्रमे । वसेन्निवासं कुर्यात् । तथा शुश्रूषेत पर्युपासीत । कान् , गुरून् धर्माचार्यादीन् । तथा चरेदनुतिष्ठेत् । किं तत्तपः । कथम्भूतं, द्विधाऽपि बाह्यमाभ्यन्तरं च । तथा स चरेत् । किं तत्, वैय्यावृत्यं संयमिनामापत्प्रतीकारं । कतिधा, दशधा आचार्या. दिगोचरत्वेन दशप्रकारं । केन, विशेषतोऽतिशयेन अन्तरङ्गतपस्यस्य संगृ. हीतस्यापि पृथगुपदेश इतरतपस्त इदमतिशयेनासौ श्रावकश्चरेदितिज्ञापनाथम् ॥ ४७ ॥ अथ द्वितीयमुद्दिष्टविरतं लक्षयति Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सागारधर्मामृते-- तद्वितीयः किन्त्वार्यसञो लुञ्जत्यसौ कचान् । - कौपीनमात्रयुग्धत्ते यतिवत्पतिलेखनम् ॥ ४८ ॥ टीका-भवति । कोऽसौ, द्वितीय उत्कृष्टः । किंवत् , तद्वत् प्रथमेन तुल्यक्रियः । किंतु विशेषेण लुञ्जति हस्तेनोत्पाटयत्यसौ। कान्, कचान् कूर्चशिरःकेशान् । किं नामा, आर्यसञ्ज्ञः आर्य इति सञ्ज्ञा नाम बस्यासौ। तथा धत्ते धारयत्यसौ । किं तत्प्रतिलेखनं पिच्छिकाख्यं संयमोपकरणं । किंवत् , यतिवत् संयतेन तुल्यं । किंविशिष्टः सन्, कौपीनमात्रयुक कौपीन. मात्रं गुह्यप्रच्छादनचेलखण्डमात्रं युनक्त्यात्मना योजयति नोत्तरीयादिकं यः स तथोक्तः॥४८॥ स्वपाणिपात्र एवात्ति संशोध्यान्येन योजितम् । इच्छाकारं समाचारं मिथः सर्वे तु कुवेते ॥ ४९ ॥ टीका तथा अत्ति जेमत्यसावाहारं । किंविशिष्टं, योजितं समर्पितं । क, स्वपाणिपात्र एव निजहस्तपुटे न स्थाल्यादौ । केन, अन्येन गृहस्थादिना । किं कृत्वा, संशोध्य । एवमसाधारणमाचारमुक्त्वा साधारणं तमाह-इच्छेत्यादि । कुर्वते विदधते । के, सर्वे एकादशापि श्रावकाः । कं, समाचारं । किंविशिष्टमिच्छाकारं इच्छामीत्येवंविधोच्चारणलक्षणं । कथं, मिथः परस्परं । तुर्विशेषे ॥ ४९ ।। इदानी दशभिः पद्यैः शेषं संगृह्णन्नाह श्रावको वीरचाहःप्रतिमातापनादिषु । स्यानाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेपि च ॥५०॥ टीका-न स्यात्कोऽसौ, श्रावकः । किंविशिष्टोऽधिकारी योग्यः । क्व, वीरेत्यादि वीरचर्या स्वयं भ्रामर्या भोजनं,अहःप्रतिमा दिनप्रतिमा,आतापनादयस्त्रिकालयोगाः ग्रीष्मे सूर्याभिमुखं गिरिशिखरेऽवस्थानं, वर्षासु वृक्षमूले, शीतकाले रजन्यां चतुष्पथे, इत्येवंलक्षणास्त्रयः कायक्लेशविशेषाः । तथा सिद्धान्तस्य परमागमस्य सूत्ररूपस्य रहस्यस्य च प्रायश्चित्तशास्त्रस्याध्ययने पाठे श्रावको नाधिकारी स्यादिति सम्बन्धः ॥ ५० । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्यायः। दानशीलोपवासार्चाभेदादपि चतुर्विधः । स्वधर्मः श्रावकैः कृत्यो भवोच्छित्त्यै यथायथम् ॥५२॥ टीका-कृत्योऽनुष्ठेयः । कोऽसौ, स्वधर्मः आत्मन आचारः। कैः, श्रावकैः देशसंयतैः । किंविशिष्टश्चतुर्विधोऽपि । कस्माद्दानशीलोपवासा भेदात् दानं च शीलं चोपवासश्चार्चा च जिनादिपूजा ताभिर्भेदस्तस्मादपिशब्दान्न केवलं दर्शनव्रतादिभेदादेकादशधेति ग्राह्यं । कथं, यथायथं स्वप्रतिमाचरणाविरो. धेन । किमर्थ, भवोच्छित्त्यै संसारनिरासार्थं ॥ ५१ ॥ इत उत्तरं व्रतरक्षायां यत्नविधानार्थ प्रबन्धेनाभिधत्ते-- प्राणान्तेऽपि न भक्तव्यं गुरुसाक्षिश्रितं व्रतम् । प्राणान्तस्तत्क्षणे दुःखं व्रतभङ्गो भवे भवे ।। ५२॥ टीका-न भक्तव्यं न खण्डनीयं श्रावकैः । किं तद्रतं । किंविशिष्टं, श्रितं प्रतिपन्नं । कथं, गुरुसाक्षि गुरवोऽत्र परमेष्टिनो दीक्षागुरवः साधर्मिकमुख्याः स्थानवास्तुदेवताश्च गृह्यन्ते । गुरवः साक्षिणः साक्षाद्रष्टारो यत्र तद्गुरुसाक्षिकमित्यर्थः । क, प्राणान्ते । व्रतभंगाकरणे प्राणनाशे सम्भवत्यपि किं पुनरितरापदि । व्रतभङ्गकरणे दुःखभूयस्त्वं दर्शयति-भवति । कोऽसौ, प्राणान्तः। किं, दुःखं । क्व,तत्क्षणे तस्मिन्नेव समये नोत्तरत्र । व्रतभंगः पुनदुःखं भवति । क्क, भवे भवे जन्मनि जन्मनि । बुद्धिपूर्वकव्रतभंगकरणेन सम्यक्त्वस्यापि विराधनादनन्तसंसारित्वस्यागमे प्रतिपादनात् ॥ ५२ ॥ . शीलवान् महतां मान्यो जगतामेकमण्डनम् । स सिद्धः सर्वशीलेषु यःसन्तोषमधिीष्ठतः ॥ ५३ ॥ टीका-भवति । कोऽसौ, शीलवान् शुचिचरित्रः श्रावको यतिर्वा । किंविशिष्टो, मान्यः सत्कृत्यः । केषां, महतामिंद्रादीनां । पुनः किंविशिष्टो, जगतां लोकानामेकमुत्कृष्टं मण्डनमलंकरणं। शीलसिध्धुपायमाह-स भवति । किंविशिष्टः, सिद्धो निष्पन्नः प्रतीतो वा । केषु, सर्वशीलेषु सकलसदाचारेषु । यः किं, योऽधिष्ठितोऽध्यासितः । कं, सन्तोष शर्ति विषयवैतृष्ण्यमित्यर्थः॥५३॥ तत्र न्यञ्चति नो विवेकतपनो नाञ्चत्यविद्यातमी नाप्नोति स्खलितं कृपामृतसरिन्नोदेति दैन्यज्वरः। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० सागारधर्मामृते wwwwwwwwwwwwwwwwwwwn विस्निह्यन्ति न सम्पदो न दृशमप्यासूत्रयन्त्यापदः सेव्यं साधुमनस्विनां भजति यः सन्तोषमंहोमुषम् ।।५४ ।। टीका-योऽहोमुर्ष पापापहं सन्तोषं भजति सेवते । किंविशिष्टं,सेव्यं । केषां, साधूनां सिद्धिसाधकानां मनस्विनां चाभिमानिनां । तत्र सन्तोषसेवके पुंसि । नो न्यञ्चति नीचैन भवति आरूढारूढ एव भवतीत्यर्थः कोऽसौ,विवेकतपनः युक्तायुक्तविचारभास्करः । तथा न अञ्चति न प्रचरति । काऽसावविद्यातमी अज्ञानरात्रिः । तथा नामोति न लभते । काऽसौ, कृपामृतसरित् अनुकम्पापीयूषनदी । किं, स्खालतं प्रवृत्तिप्रतिबन्धं । तथा नोदेति नोद्भवति । कोऽसौ, दैन्यज्वरः दैन्यं विषादो ज्वर इव देहमनस्तापहेतुत्वात् । तथा न विस्निह्यन्ति न विरज्यन्ति । काः, सम्पदः श्रियः । तथा नासूत्रयन्ति नारचयन्ति । का, आपदो विपदः । कां, दृशमपि किं पुनरालिंगनादिकम् ॥ ५४॥ स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यादनुप्रेक्षाश्च भावयेत् ।। यस्तु मन्दायते तत्र स्वकृत्ये स प्रमाद्यति ॥ ५५ ॥ टीका-कुर्याच्छ्रावकः । कं, स्वाध्यायं । किंविशिष्टमुत्तमं अध्यात्मादिवि. द्याविषयं प्रकृष्टशक्तिपर्यंतं च । तथा भावयेत् अभ्यस्येत् । काः , अनुप्रेक्षाः अनित्यत्वादिभावना द्वादश । चशब्दाद्दर्शनविशुध्द्यादिभावनाश्च षोडश । यस्तु यः पुनस्तत्र स्वाध्यायादौ । मन्दायते अलसो भवति । स प्रमाद्यति नावधत्ते नोत्सहत इत्यर्थः । क्व, स्वकृत्ये आत्मकार्य ॥ ५५ ॥ धर्मान्नान्यः सुहृत्पापानान्यः शत्रुः शरीरिणाम् । इति नित्यं स्मरेन स्यानरः संक्लेशगोचरः ॥५६॥ टीका-नरः पुमान् । संक्लेशगोचरो रागद्वेषमोहविषयः न स्यात् रागादिभिनभिभूयत इत्यर्थः । किं कुर्वन्नित्येवं । नित्यं सन्ततं । स्मरन् ध्यायन् । कथमित्याह-नास्ति । कोऽसौ, सुहृत् । किंविशिष्टोऽन्यः । कस्मात् , धर्मात् धर्म एवोपकर्तेत्यर्थः । तथा पापादन्यो नास्ति शत्रुरधर्म एवापकतेंत्यर्थः । केषां, शरीरिणां देहिनां ॥ ५६ ॥ सल्लेखनां करिष्येऽहं विधिना मारणान्तिकीम्।। • अवश्यमित्यदः शीलं सन्निदध्यात्सदा हृदि ।। ५७॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोध्यायः। २०१ ...................................on. टीका-सन्निदध्यात् संयोजयेत् । श्रावकः । किं तत्, एतत्सल्लेखनाख्यं शीलं । क, हृदि चित्ते । कथं, सदा पश्चिमसल्लेखनां नित्यं भावयेदित्यर्थः । कथमिति । किमिति, अवश्यं नियमेन । करिष्ये विधास्येऽहं । कां, सल्लेखनां बाह्याभ्यन्तरतपोभिः सम्यकायकषायकृशीकरणमाचारं । किंधिशिष्टां, मारणांतिकी मरणमेवान्तो मरणान्तः तद्भवमरणमित्यर्थः तत्र भवां । केन, विधिना शास्त्रोक्तविधानेन ॥ ५७ ॥ सहगामीकृतं तेन धर्मसर्वस्वमात्मनः । समाधिमरणं येन भवविश्वासि साधितम् ॥ ५८ ॥ टीका--तेन पुंसा कृतं । किं तदात्मनः स्वस्य । धर्मसर्वस्वं व्यवहारनि. धयरत्नत्रयं । किंविशिष्टं, सहगामि आत्मना सह भवान्तरगन्तृ । येन किं, येन साधितं निर्वर्तितं । किं तत्समाधिमरणं रत्नत्रयैकाग्रतया प्राणत्यागः । किंविशिष्टं, भवविध्वंसि संसारनिर्मूलनशीलं ॥ ५८ ॥ यत्प्रागुक्तं मुनीन्द्राणां वृत्तं तदपि सेव्यताम् । सम्य निरूप्य पदवीं शक्तिं च स्वामुपासकैः ॥५९॥ टीका--प्राक् चतुर्थाद्यध्यायषट्के । मुनींद्राणां महामुनीनां । यद् वृत्तं समितिगुप्त्याद्याचरणमुक्तं तदपि न केवलं संसेव्यतामनुष्टीयतां । कैरुपासकैः श्रावकैः । किं कृत्वा, सम्यङ् निरूप्य अविपतिं पर्यालोच्य । कां, स्वामात्मीयां । पदवीं संयमभूमिकां । शक्तिं च वीर्य ॥ ५९ ॥ प्रकृतमुपसंहरन्नौत्सर्गिकहिंसादिवृत्तिं प्रति देशयतिं प्रयुक्ते-- इत्यापवादिकी चित्रां स्वभ्यस्यन्विरतिं सुधीः। कालादिलब्धौ क्रमतां नवधौत्सर्गिकी प्रति ॥ ६०॥ टीका-क्रमतामुत्सहतां । कोऽसौ, सुधीः तत्त्वज्ञानसम्पन्नः श्रावकः । कथं, प्रति उद्दिश्य । कां, विरतिं । किंविशिष्टामौत्सर्गिकी उत्कृष्टं सर्जनमुत्सर्गः सर्वसंगत्यागः तत्र भवामौत्सर्गिकी । कतिधा, नवधा मनोवाकायैः प्रत्येकं कृतकारितानुमतानां त्यागेन नवप्रकारां। कस्या, कालादिलब्धौ कालदेशबलवीर्यसहायसाधनादिसामय्यां सत्यां । किं कुर्वन् , स्वभ्यस्यन सम्यग्भावयन् । कां, विरतिं हिंसाविनिवृत्तिं । किंविशिष्टामापवादिकी यती. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ सागारधर्मामृते~~~mommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm नामपवादहेतुत्वादपवादो ग्रन्थस्तत्र भवं । पुनः किंविशिष्टां, चित्रां नानाप्रकारां । कथमित्येवमुक्तप्रकारेण ॥ ६० ॥ साधकत्वं व्याकर्तुकामस्तत्स्वामिनं निर्दिशति इत्येकादशधाऽऽम्नातो नैष्ठिकः श्रावकोऽधुना। सूत्रानुसारतोऽन्त्यस्य साधकत्वं प्रवक्ष्यते ॥ ६१ ॥ टीका-इत्येवं नैष्ठिकश्रावक एकादशधाऽस्माभिराम्नातः पारम्पर्योपदेशेन वर्णितः । अधुना साम्प्रतमित अवं प्रवक्ष्यते प्रकर्षेण वर्णयिष्यते अस्माभिः । किं तत्साधकत्वं तृतीयं साधनाख्यं पदं । अंत्यस्योद्दिष्टविरतस्य श्रावकस्य । कस्मात्सूत्रानुसारतः परमागममनुसृत्येति भद्रम् ॥ ६१ ॥ इत्याशाधरविरचितायां स्वोपज्ञधर्मामृतसागारधर्मटीकायां भव्यकुमुदचन्द्रिकासज्ञायामादितः षोडशः प्रक्रमाच्च सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥ अथाष्टमोऽध्यायः। अथ सल्लेखनाविधिमभिधातुकामस्तत्प्रयोक्तारं लक्षयन्नाह देहाहारेहितत्यागात् ध्यानशुध्याऽऽत्मशोधनम् ! __ यो जीवितान्ते सम्प्रीतः साधयत्येष साधकः ॥ १॥ टीका-भवत्येष साधकः । यः किं, यः साधयति निर्वतयति । किं तत्, आत्मशोधनं आत्मनोऽन्तस्तत्त्वस्य शोधनं शुद्धिं मोहरागद्वेषापगमं रत्नत्रयपरिणतिमित्यर्थः । क्व, जीवितान्ते प्राणनाशे प्राणेषु नश्यस्वित्यर्थः । किंविशिष्टः सन् , सम्प्रीतः सर्वाङ्गीणध्यानसमुत्थानन्दयुक्तः । कया तत्साधयति ? ध्यानशुध्या ध्यानस्यैकाग्रचिन्तानिरोधस्य शुद्धिरातरौद्रपरित्यागेन स्वात्मन्यवस्थानं निर्विकल्पसमाधिरित्यर्थः । कस्मात् , देहाहारहितत्यागात् देहत्यागः शरीरममत्ववर्जनमाहारत्यागश्चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानमीहितत्यागो मनोवाक्कायव्यापारव्यावर्तनं देहश्चाहारश्च ईहितं च देहाहारेहितानि तेषां त्यागस्तस्मात् ॥ १ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । २०३ कस्य श्रावकत्वेन कस्य च यतित्वेन मोक्षमार्गप्रवृत्तिः कर्तव्येति पृच्छन्तं प्रत्याह सामग्रीविधुरस्यैव श्रावकस्यायमिष्यते । विधिः सत्यां तु सामग्र्यां श्रेयसी जिनरूपता ॥ २॥ टीका-इष्यते अभिमन्यते पूर्वाचायः । कोऽसावयवमुक्तो वक्ष्यमाणश्च विधिः क्रियाकल्पः । कस्य, श्रावकस्य । किंविशिष्टस्य, सामग्रीविधुरस्यैव जिनलिङ्गग्रहणायोग्यत्रिस्थानकदोषादियुक्तस्य नान्यस्य । सामय्यां तु सत्यां भवति । काऽसौ, जिनरूपता जिनलिङ्गग्रहणं । किंविशिष्टा, श्रेयसी प्रशस्यतरा ॥ २ ॥ जिनलिङ्गस्वीकारकारणमाह किञ्चित्कारणमासाद्य विरक्ताः कामभोगतः। त्यक्त्वा सर्वोपधिं धीराः श्रयन्ति जिनरूपताम् ।। ३ ।। टीका-श्रयन्ति स्वीकुर्वन्ति । के ते, धीराः श्रावकाः परीषहोपसर्गसहने बद्धकक्षाः । कां, जिनरूपतां । किं कृत्वा, त्यक्त्वा व्युत्सृज्य । कं, सर्वोपाधि बाह्याभ्यन्तरसङ्गं । किंविशिष्टाः सन्तः, विरक्ताः व्यावृत्तचेतसः । काभ्यां, कामभोगतः कामः स्पर्शनरसनविषयानुभवः भोगो घ्राणचक्षुःश्रवणविषयानुभवः कामश्च भोगश्च कामभोगौ ताभ्यां । किं कृत्वा, आसाद्य प्राप्य । किं, कारणं । किंविशिष्टं, किञ्चित् तत्त्वज्ञानेष्ववियोगशत्रुपराजयादीनामन्यतमम् ॥३॥ जिनरूपतास्वीकारमाहात्म्यमाह-- अनादिमिथ्यागपि श्रित्वाऽर्हद्रूपतां पुमान् । साम्यं प्रपन्नः स्वं ध्यायन् मुच्यतेऽन्तमुहूर्ततः ॥ ४ ॥ टीका--मुच्यते द्रव्यभावकमभिः स्वयमेव विश्लिप्यते । कोऽसौ, पुमान् द्रव्यतः पुल्लिंग एव । कस्मात् , अन्तमुहूर्तत: किञ्चिदूननाडीद्वयमात्रात् । किं कुर्वन् , ध्यायन् समादधानः । कं, स्वमात्मानं । किंविशिष्टः सन् , प्रपन्नः प्रातः । किं तत् , साम्यं माध्यस्थ्यं । किं कृत्वा, श्रित्वा । कामह Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारधर्मामृते ----^^AAAAAAAN/NAA .... v vvvvvvvvvvvvvvvv~ दूपतां निर्ग्रन्थलिङ्गं । किंविशिष्टोऽपि, अनादिमिथ्यागपि न केवल सादिमिथ्यादृष्टिरविरतसम्यग्दृष्टिः श्रावको वेत्यपिशब्दार्थः । उक्तं च--" आराध्य चरणमनुपममनादिमिथ्यादृशोऽपि यत्क्षणतः । दृष्टा विमुक्तिभाजस्ततोऽपि चारित्रमबेष्टम् " ॥ ४ ॥ शरीरस्य स्थायिनः पातने पातोन्मुखस्य च शोचने निषेधमुपपादयति न धर्मसाधनमिति स्थास्नु नाश्यं वपुर्बुधैः । न च केनापि नो रक्ष्यमिति शोच्यं विनश्वरम् ॥५॥ टीका-न नाश्यं विश्लेष्यं । किं तद्वपुः शरीरं । कैर्बुधः तत्त्वज्ञैः । किंविशिष्टं, स्थास्नु साधुत्वेन रत्नत्रयानुष्टानसाधकत्वलक्षणेन तिष्टत् । कथं कृत्वा, धर्मसाधनमिति रत्नत्रयसिद्धयुपायो यतः । न च नापि शोच्यं शोचनीयं वपुर्बुधैः । किंविशिष्टं, विनश्वरं विशेषेण नश्यत् तद्भवमरणं प्राप्नुवदित्यर्थः । कथं कृत्वा, केनापि नो रक्ष्यमिति योगीन्द्रदेवेन्द्रदानवेन्द्रादिनाऽपि रक्षयितुमशक्यं यतः । उक्तं च-“ गहनं न शरीरस्य हि विसर्जनं किं तु गहनमिह वृत्तम् । तन्न स्थास्नु विनाश्यं न नश्वरं शोच्यमिदमाहुः" ॥ ५॥ कायस्यानुवर्तनोपचरणपरिहरणयोग्यतोपदेशार्थमाह-- कायः स्वस्थोऽनुवयं स्यात् प्रतीकार्यश्च रोगितः। उपकारं विपर्यस्यं-स्त्याज्यः सद्भिः खलो यथा ॥ ६ ॥ टीका-स्यात् । कोऽसौ, काय। किंविशिष्टोऽनुवयः पथ्याहारविहाराभ्यां स्वास्थ्य एव स्थापनीयः । कैः, सद्भिः साधुभिः । किंविशिष्टः सन् , स्वस्थोऽ विकृतः । तथा प्रतीकार्यो योग्यौषधादिनोपचरणीयः । कोऽसौ, कायः । कैः, सद्भिः । किंविशिष्टः सन् , रोगितः सजातरोगः । तथा त्याज्यः। कोऽसौ, कायः सद्भिः । किं कुर्वन् , विपर्यस्यन् अन्यथा कुर्वन् । कमुपकारं स्वास्थ्यायारोग्याय चेक्रीयमाणमुपक्रम अधर्मसाधनं व्याधि तवृद्धिं च गच्छन्नित्यर्थः । क इव, खलो दुर्जनः पिण्याको वा यथा ॥६॥ शरीरार्थं धर्मोपघातस्यात्यन्तनिषेधमाह-- Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः। २०५. नावश्यं नाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः । देहो नष्टः पुनलेभ्यो धर्मस्त्वत्यन्त दुर्लभः ॥ ७ ॥ टीका--न हिंस्यो नोपहन्तव्यः सद्भिः । कोऽसौ, धर्मः । कस्मै, देहाय । किंविशिष्टाय, अवश्यं नाशिने निश्चितनाशाय । किंविशिष्टः, कामदः समीहि. तार्थप्रदो यतः । किञ्च । लभ्योऽवश्यप्राप्यः । कोऽसौ, देहः । कथं, पुनः । किंविशिष्टो, नष्टो नाशं गतः । देहमात्रापेक्षयेदमुच्यते, धर्मस्तु प्रक्रमात्समा-. धिमरणोऽत्यन्तदुर्लभो भवति । यत्नशतेनापि लब्धुमशक्य इत्यर्थः ॥ ७ ॥ विधिवत्प्राणांस्त्यजत आत्मघातशङ्कामपनुदति न चात्मघातोऽस्ति वृषक्षतौ वपुरुपेक्षितुः। कषायावेशतः प्राणान् विषायेहिंसतः स हि ॥ ८ ॥ टीका---न चास्ति । कोऽसावात्मघातः स्ववधलक्षणो दोषः । कस्य, उपेक्षितुः यथाविधि भक्तप्रत्याख्यानादिना साधुत्वेन त्यजतः साधोः । किं तद्वपुः शरीरम् । कस्यां सत्यां वृषक्षतौ प्रतिपन्नव्रतविनाशहेतौ उपस्थिते सतीत्यर्थः । हि यस्माद्भवति । कोऽसौ, सः आत्मघातः । कस्य, पुंसः । किं कुर्वतो, हिंसतो व्यपरोपयतः । कान्, प्राणान् । कैः, विषायैः गरलशस्त्रश्वासनिरोधजलाग्निप्रवेशलंघनादिभिः । कस्मात्, कषायावेशतः क्रोधादिपरिणामवशात् ॥ ८ ॥ एवं संयमविनाशहेतुसन्निधाने कायत्यागं समयंदानी कालोपसर्गमरणनिर्णयपूर्वकप्रायोपवेशनेन तत्तनिष्ठासाफल्यविधापनार्थमाह कालेन वोपसर्गेण निश्चित्यायुः क्षयोन्मुखम् । कृत्वा यथाविधि प्रायं तास्ताः सफलयेत् क्रियाः।।९।। टीका-सफलयेत् फलवतीः कुर्यात् साधुः । काः, क्रियाश्चेष्टाः । किंविशिष्टाः, तास्ताः दर्शनिकादिप्रतिमाविषयाः नित्यनैमित्तिकीश्च । किं कृत्वा, यथाविधि विधिना । प्रायं संन्यासयुक्तानशनं कृत्वा । किं कृत्वा, निश्चित्य सम्यक् निर्णाय । किं तदायुर्जीवितं । किंविशिष्टं, क्षयोन्मुखं प्रत्यासन्नविनाशं । केन, कालेन स्थितिबन्धच्छेदहेतुना समयेन । वा अथवा उपसर्गेण दुनिचाराधकारिरोगशत्रुप्रहारादिलक्षणेन कृच्छेण सुनिश्चिते मरणे ॥ ९॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ सागारधर्मामृतेस्वाराधनापरिणत्या कायत्यागे मुक्तिः करस्थेत्युपदेशार्थमाह देहादिवैकृतैः सम्यङ् निमित्तैस्तु सुनिश्चिते । मृत्यावाराधनामनमतेदूरे न तत्पदम् ॥ १० ॥ टीका-नास्ति । किं, तदशरीरताप्राप्तिलक्षणं पदं । क, दूरे विप्रकर्षे । कतिपयभवलभ्यं निर्वाणमित्यर्थः । कस्य, आराधनामग्नमतेः निश्चयाराधनापरिणतमनसः पुंसः । क सति, मृत्यौ । किंविशिष्टे, सुनिश्चिते । कैः, देहादिवैकृतैः शरीरसंशीलादिविकृतिभिः स्वस्थातुररिष्टैरित्यर्थः । न केवलं तै: सम्यङ् निमित्तैश्च समीचीनभाविशुभाशुभज्ञानोपायैश्च कर्णपिशाचिकादिविद्याज्योतिषोपश्रुतिशकुनादिभिः ॥ १० ॥ उपसर्गमरणोपनिपाते प्रायविधिमाह-- भृशापर्वतकवशात् कदलीघातवत्सकृत् । विरमत्यायुषि प्रायमविचारं समाचरेत् ॥११॥ टीका--समाचरेत्सम्यक्कुर्यान्मुमुक्षुः । किं, प्रायं । किंविशिष्टमविचार विचरणं नानागमनमादिनानाप्रकारप्रवृत्तिपरिणमनं विचारस्तेन रहितं प्रायं भक्तप्रत्याख्यानं सार्वकालिकसंन्यासं शुद्धस्वात्मध्यानपरत्वमित्यर्थः। क सत्यायुषि भवधारणकारणे कर्मणि । किं कुर्वति, सकृदक्रमेण विरमत्यपवर्तमाने नश्यति । कस्मात्, भृशापवर्तकवशात् आगाढापमृत्युकारणसामर्थ्यात् । किंवत्कदलीघातवत् छिद्यमानकदलीकाण्डे यथा ॥ ११ ॥ स्वपाकच्युत्या स्वयं पातोन्मुखे देहे सल्लेखना विधेयेत्युपदिशति क्रमेण पक्त्वा फलवत् स्वयमेव पतिष्यति । देहे प्रीत्या महासत्वः कुर्यात्सल्लेखनाविधिम् ॥ १२ ॥ टीका--कुर्यात्कोऽसौ, महासत्त्वः अनिवार्यधैर्यवीर्यः । कं, सल्लेखनाविधि । कया, प्रत्यिा प्रमोदेन । क सति, देहे । किं करिष्यति, पतिष्यति विनाशमेष्यति सति । केन, स्वयमेव कारणान्तरमन्तरेणैव । किं कृत्वा, पक्रवा ५. परिणम्य पतनयोग्यतामासाद्य । केन, क्रमेण कालानुपूर्व्या ! किंवत्फलवत् Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । २०७ वृक्षफलेन तुल्यं । पातोन्मुखकायलिंगं यथा-"प्रतिदिवसं विजहवलमुझद् भुक्तिं त्यजत्प्रतीकारं । वपुरेव नृणां निगदति चरमचरित्रोदयं समयम्"॥१२॥ कायनिर्ममत्वभावनाविधिमाह जन्ममृत्युजरातङ्काः कायस्यैव न जातु मे। न च कोऽपि भवत्येष ममेत्यङ्गेऽस्तु निर्ममः ॥ १३ ॥ टीका-अस्तु समाधिमरणार्थी भवतु । किंविशिष्टो, निर्ममो ममेदमिति सङ्कल्परहितः । क्व, अङ्गे । कथमित्येवं । भवन्ति । के, जन्ममृत्युजरातङ्काः जन्म च मृत्युश्च जरा च आतङ्कश्च ज्वरादिव्याधिस्ते रोगपुद्गलविवतकत्वात्कायस्यैव पुद्गलस्तूपस्य । न जातु कदाचिदपि । मे शुद्धचिद्पमात्रस्यात्मनः । न च नापि भवति । कोऽसावेष कायः । किंविशिष्टः, कोऽपि कश्चिदुपकर्ता अपकर्ता वा । कस्य, मम शुद्धचिदानन्दमयस्य ॥ १३ ॥ आहारहापनसमयमाह-- पिण्डो जात्याऽपि नाम्नाऽपि समो युक्त्याऽपि योजितः। पिण्डोऽस्ति स्वार्थनाशार्थो यद। तं हापयेत्तदा ॥ १४ ॥ टीका-हापयेत्परिचारकादिभिस्त्याजयेत् समाधिमरणोद्यतः । कं, तं पिण्डमाहारं । कदा, तदा तस्मिन्काले । यदा किं, यदा पिण्ड आहारोऽस्ति भवति । किंविशिष्टः, स्वार्थनाशार्थः आहारस्य हि स्वार्थो बलोपचयौजोलक्षणं देहकार्य, देहस्य च धर्मसिद्धिलक्षणमात्मकार्य स्वार्थस्य नाशो विना'शोऽर्थः प्रयोजनं फलं यस्य स तथोक्तः । किंविशिष्टः, समस्तुल्यः। कया, जात्या पुद्गलवलक्षणया । अपिर्विस्मये आश्चर्य । यत्सजातीयोऽपि स्वार्थ नाशयति । तथा नाम्ना सज्ञयाऽपि समः आहारदेहयोरुभयोरपि पिण्डशब्दाभिधेयत्वात् । जातिनामभ्यां साम्येऽपि सति विधिव्यतिक्रमे प्रयुक्तः स्वार्थनाशाय स्यादित्यत्राह-युक्त्या शास्त्रोक्तविधिना। योजितोऽपि प्रयुक्तोऽपि । क, पिण्डे शरीरे ॥ १४ ॥ सल्लेखनाविधिपूर्वकं समाधिमरणोद्योगविधिमाह-- उपवासादिभिः कायं कषायं च श्रुतामृतैः । संलिख्य गणमध्ये स्यात् समाधिमरणोद्यमी ॥१५॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ सागारधर्मामृते __टीका--समाधिमरणोद्यमी साधकः गणमध्ये चतुर्विधसङ्घसमक्षे स्यात् । किं कृत्वा, संलिख्य सम्यकृशीकृत्य । कं, कायं । कैरुपवासादिभिरनशनादिबाह्यतपोविशेषैः । कषायं च क्रोधादिकं संलिख्य ! कैः, श्रुतामृतैः श्रुतज्ञानसुधाभिः ॥ १५ ॥ मृत्युकाले धर्मविराधनाराधनयोः फलविशेषमाह-- आराद्धोऽपि चिरं धर्मो विराद्धो मरणे मुधा। सत्वाराद्धस्तत्क्षणेऽहः क्षिपत्यपि चिरार्जितम् ॥ १६॥ टीका-भवति। कोऽसौ,धर्मः । किंविशिष्टो,मुधा निष्फलः । किविशिष्टः सन्, विराद्धः अतिवर्तितः ! क्व, मरणे मत्युसमये । किंविशिष्टोऽपि, आराद्धोऽपि आराधितोपि । कियच्चिर दर्घिकालं । स तु धर्मस्तत्क्षणे मरणसमये । आरा. धितो भावितः । क्षिपति निराकरोति । किं तदहः पापं । किंविशिष्टं, चिरा. र्जितमपि असंख्यातभवकोटयुपार्जितमपि ॥ १६ ॥ चिरकालभावितश्रामण्यस्यापि विराध्य म्रियमाणस्याकीर्तिदुष्परिपाका स्वार्थक्षतिं दर्शयति नृपस्येव यतेधर्मो चिरमभ्यस्तिनोऽस्त्रवत् । युधीव स्खलितो मृत्यो स्वार्थभ्रंशोऽयश कटुः ॥१७॥ टीका--भवति । कोऽसौ, स्वार्थभ्रंशः स्वाभिमतार्थनाशः । कस्य, यतेः । कस्येव, नृपस्येव राज्ञो यथा । किंविशिष्टोऽयशःकटुः अकीर्तिदुःखदः । किं कुर्वतः, स्खलतः प्रमाद्यतः । कस्मिन्धमै । क, मत्यौ मरणक्षणे । कस्यामिव, युधीव युद्धसमये यथा । किंविशिष्टस्य, चिरं दीर्घकालं धर्मे अस्त्रवत् शस्त्रे यथा अभ्यस्तिनः कृताभ्यासस्य । अभ्यस्तपूर्वमनेनेति विगृह्य श्राद्धं भुक्तं ठोऽनेनं वेत्यनेन इन्प्रत्ययः ॥ १७ ॥ ननु सुभावितमार्गस्यापि कस्यचित्समाधिमरणं न दृश्यते, कस्यचित्पुनरभावितमार्गस्यापि तदुपलभ्यते, तदनातीयमिति वदन्तं प्रति श्लोकद्वयमाह सम्यग्भावितमार्गोऽन्ते स्यादेवाराधको यदि । प्रतिरोधि सुदुवारं किश्चिन्नोदेति दुष्कृतम् ॥ १८ ॥ ____ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । २०९ टीका--स्यादेव अवश्यं भवेत् । कोऽसै, सम्यग्भावितमार्गः सम्यक् सम्पूर्ण चिरं भावितोऽभ्यस्तो मार्गो रत्नत्रयं येन स तथोक्तः । किंविशिष्टः स्यात्, अन्ते जन्मप्रान्ते आराधकस्तदा । यदि चेन्नोदेति नोद्भवति । किं तत्, दुष्कृतं पुराकृतमशुभं कर्म । किंविशिष्टं, प्रतिरोधि समाधिप्रतिखण्डकं । पुनः किंविशिष्टं, सुदुर्वारं यत्नशतेनापि प्रतिषेध्दुमशक्यं । पुनरपि किंविशिष्टं, किञ्चिदनिर्दिष्टनामकं । उक्तं च-मृतिकाले नरा हन्त सन्तोऽपि चिरभाविताः। पतन्ति दर्शनादिभ्यः प्राक्कृताशुभगौरवात् ॥ या त्वभावितमार्गस्य कस्याप्याराधना मृतौ । आराधना रत्नत्रयैकाग्रता स्यात् । अयमन्धनिधिलाभो भाक्तिकेऽनिर्वचनाराधनपरे न विष्टम्भ्यो नाभिनिवेष्टव्योऽत्र दुराग्रहो न कर्तव्यो जिनवचनं प्रमाणीकृत्य समाधिमरणाय प्रयतितव्यमित्यर्थः । उक्तं च-पूर्वमभावितयोगो यद्यप्याराधयन्मृतौ कश्चित् । स्थाणी निधानलाभो निदर्शनं नैव सर्वत्र ॥१८॥ ननु दूरभव्यस्य व्रतं चरतोऽपि न मुक्तिः स्यात्तदलं तद्दवीयस्त्वे व्रतयनेनेत्यारेकायां समाधत्ते--- कार्यो मुक्तो वीयस्यामपि यत्नः सदा व्रते । वरं स्वः समयाकारो व्रतान्न नरकेऽव्रतात् ॥ १९ ॥ टीका--कार्यः सदा जिनभाक्तिकैः कर्तव्यः । कोऽसौ, यत्नस्तात्पर्य । क्क, व्रते । कस्यां सत्यां, मुक्ती निवृतौ। किंविशिष्टायां, दवीयस्यां दूरतरायां चिरभाविन्यामपि । किं पुनरितरस्यां । अत्रोपपत्तिमाह वरं भद्रं भवतु । कोऽसौ, स्वः स्वर्गे समयाकारः मुक्ताकालयापना।कस्मात्, व्रतात् व्रतानुष्ठा. नार्जितपुण्यविपाकात् । न वरं । कोऽसौ,समयाकारः । क्व, नरके नरकादिदुर्गतौ। कस्मादत्तात् हिंसाद्याचरणार्जितपापविपाकात् ॥ १९ ॥ भक्तप्रत्याख्यानयोग्यतामाह धर्माय व्याधिदुर्भिक्षजरादौ निष्प्रतिक्रिये । त्यक्तुं वपुः स्वपाकेन तच्च्युतौ वाऽशनं त्यजेत् ॥२०॥ टीका- त्यजेत् प्रत्याख्यायात् श्रावको यमी वा । किं सदशनं भक्तं भक्त. प्रत्याख्यानं कुर्यादित्यर्थः । किं कर्तुं, त्यक्तुं मोक्तुं । किं तद्वपुः शरीरं । कस्मै, Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० सागारधर्मामृते धर्माय आत्मना सह धर्म भवान्तरं नेतुं । क सति, व्याधिदुर्भिक्षज्वरोपस. ईदौ धर्मध्वंसहेतावुपस्थिते । किंविशिष्टे, निष्प्रतिक्रिये प्रतीकाररहिते । तथा स्वरान स्वयं कालक्रमेण परिणम्यायुःक्षये । तच्च्युतौ तस्य वपुषश्यवने । व. शब्दात् घोरोपसर्गादिना च्याव्यमाने च सत्यशनं त्यजेत् । एतेन शरीरत्यजनच्यवनच्यावनविषयं त्रिविधं भक्तप्रत्याख्यानं:मरणमन्वाख्यातं बोद्धव्यम्।२०। समाधिमरणार्थं शरीरोपस्कारविधिमाह अनः पुष्टो मलैर्दुष्टो देहो नान्ते समाधये । तत्कयो विधिना साधोः शोध्यश्चायं तदीप्सया॥२१॥ टीका-न भवति । कोऽसौ, देहः । कस्मै, समाधये समाध्यर्थं । क्व, अन्ते मरणसमये । किंविशिष्टो, अन्नैराहारैः पुष्ट उपचितो मलैश्च वातपित्तकफैर्दुष्टोऽविकृतः । यत एवं तत्तस्मात् । कर्यः कृशीकर्तव्योऽयं देहः । कस्य, साधोः सिद्धिसाधकेनेत्यर्थः । केन, विधिना सल्लेखनाविधानेन । शोध्यश्च योग्यविरेचनबस्तिकर्मादिना निष्काशितजठरमल: कर्त्तव्यः । कया, तदीप्सया समाधिवान्च्छया ॥ २१ ॥ कषायकर्शनं विना कायकर्शनस्य नैष्फल्यं समर्थयते---- सल्लेखनाऽसंलिखतः कषायानिष्फला तनोः । कायोऽजडैदण्डयितुं कषायानेव दण्ड्यते ॥ २२ ॥ टीका-भवति । काऽसौ, सल्लेखना कृशीकरणं । कस्यास्तनोः शरीरस्य । किंविशिष्टा, निष्फला । किं कुर्वतः, असंलिखतः कृशानकुर्वतः साधोः । कान्, कषायान् क्रोधादीन् । यतो दंड्यते परिकृश्यते । कोऽसौ, कायः कैरजडैः बुधैः । किं कर्तुं, दण्डयितुं निगृहीतुं । कान्, कषायानेव न रसरक्तादिधातून् ॥ २२ ॥ आहारदृप्तमनसां कषायदुर्जयत्वं प्रकाश्य भेदज्ञानबलाज्जेतृणां जयवादमाहअन्धोमदान्धैः प्रायेण कषायाः सन्ति दुर्जयाः । ये तु खानान्तरज्ञानात्तान् जयन्ति जयन्ति ते ॥ २३ ॥ ___ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः। टीका-सन्ति भवंति । के, कषायाः । किंविशिष्टा, दुर्जयाः जेतुमशक्याः । कैरन्धोमदांधैः अन्धस आहारस्य मदः क्षीवता आहारकृतो मनोदर्प इत्यर्थः । अन्धोमदेन अन्धाः स्वपरतत्त्वज्ञानविकलाः अन्धोमदान्धास्तैः । केन, प्रायण बाहुल्येन । कदाचिदैवदुर्योगात्तैरपि कषाया जीयन्ते इत्येवमर्थमेतत् । ये तु ये पुरुषाः पुनस्तान् कषायान् जयन्ति । कस्मात्स्वानान्तरज्ञानात् स्व आत्मा अङ्गं देहः स स्वाङ्गं स्वाङ्गे स्वाङ्गयोरन्तरं भेदः स्वागान्तरं तस्य ज्ञानमहमन्यो देहोऽन्य इति बोधस्तस्मात् ते पुरुषा जयन्ति सर्वोत्कर्षण वर्तन्ते । जगदुपरि स्फुरन्तीत्यर्थः ॥ २३ ॥ एवं देहाहारत्यागं विधाप्येदानीमीहितत्यागेन स्वात्मसमाधये क्षपकं प्रेरयन्नाह गहनं न तनोनिं पुंसः किन्त्वत्र संयमः । योगानुत्तेयावर्त्य तदात्माऽऽत्मनि युज्यताम् ॥२४॥ टीका--न भवति । किं तत्, हानं त्यजनं । कस्यास्तनोः शरीरस्य । किंविशिष्टं, गहनं कष्टं दुष्करमित्यर्थः । कस्य, पुंसः पुरुषस्य । काभिश्चि. स्त्रीभिरपि प्रियविप्रयोगादौ क्रियमाणस्य शरीरत्यजनस्य दृश्यमानत्वात् । किं तु भवति । कोऽसौ, संयमः । किंविशिष्टो, गहनः । क्व, अत्र तनुहाने क्रियमाणे । यत एवं तत्तस्माद्युज्यतां समाधीयतां क्षपकेण । कोऽसावात्मा कस्मिन्नात्मनि । किं कृत्वा, व्यावर्त्य निवर्त्य । कस्या, योगानुवृत्तेः मनोवाक्कायव्यापारानुगमात् । भावतो निजनिजव्यापारेषु मनोवाकायान प्रवत्र्येत्यर्थः ॥ २४ ॥ यतिद्वयस्य समाधिमरणफलविशेषमभिधत्तेश्रावकः श्रमणो वाऽन्ते कृत्वा योग्यां स्थिराशयः । शुद्धस्वात्मरतः प्राणान् मुक्त्वा स्यादुदितोदितः ॥ २५॥ टीका-श्रावकः श्रमणो वा स्यात् । किंविशिष्टः, उदितोदितः विविधाद्युताभ्युदयानुभवपूर्वकनिःश्रेयसभाग्भवेत् । किं कृत्वा, मुक्त्वा त्यक्त्वा । कान्, प्राणान् । कथम्भूतः सन्, शुद्धस्वात्मरत: निर्मलनिजाचद्रूपलीनः । कथम्भूतो भूत्वा, स्थिराशयः निश्चलचित्त: । क्व, अन्ते प्रत्यासन्ने मरणे । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२. सागारधर्मामृते wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww किं कृत्वा, कृत्वा । कां, योग्यां प्रायार्थीत्यादिना प्रबन्धेन वक्ष्यमाणं परिकर्म ॥ २५॥ निर्यापकबलाद्भावितात्मनः समाधिमरणेऽन्तरायाभावं दर्शयति समाधिसाधनचणे गणेशे च गणे च न । दुर्दैवेनापि सुकरः प्रत्य॒हो भावितात्मनः ॥ २६ ॥ टीका-न भवति । कोऽसौ, प्रत्यूहो विनः। किंविशिष्टः, सुकरः सुखेन कर्तुं शक्यः । केन, दुर्दैवेन प्राकृताशुभकर्मणा । किं पुनः प्रतिपक्षादिनेत्यपिशब्दार्थः । कस्य, भावितात्मनः भावितात्मानं समाधेश्चालयितुं दुर्दैवमपि न शकोतीत्यर्थः । क सति, गणेशे निर्यापकाचार्ये च । गणे च सधे । किंवि. शिष्टे, समाधिसाधनचणे समाधे रत्नत्रयैकाग्रतायाः साधनं सम्पादनं तेन वित्ते अनेकशः क्षपकाणां समाधिसाधनेन प्रसिद्ध इत्यर्थः ॥ २६ ॥ श्लोकद्वयेन समाधिमरणमाहात्म्यं स्तुवन्नाह प्रारजन्तुनाऽमुनाऽनन्ताः प्राप्तास्तद्भवमृत्यवः । समाधिपुण्यो न परं परमश्वरमक्षणः ॥ २७ ॥ टीका--प्राप्ताः । के, तद्भवमृत्यवः भवान्तरप्राप्तेरनन्तरोपश्लिष्टपूर्वभवविगमनं तद्भवमरणमाख्यायते । कियन्तोऽनन्ताः । केन, अमुना संसारिणा । जन्तुना जीवेन । कथं, प्राक् इतः पूर्व । परं केवलं न प्राप्तः । कोऽसौ, चरमक्षण: भवपर्यायविगमान्त्यसमयः । किंविशिष्टः, समाधिपुण्यः रत्नत्रयैकाग्रतया पवित्रः। संसारकारणकर्मनिर्मूलनसमर्थत्वात्परमः इतरसर्वक्षणेभ्य उत्कृष्टश्च ॥ २७॥ परं शंसन्ति माहात्म्यं सर्वज्ञाश्चरमक्षणे । यस्मिन्समाहिता भव्या भञ्जन्ति भवपञ्जरम् ॥ २८ ॥ टीका-परमुत्कृष्टं । माहात्म्यं महिमा । सर्वज्ञाः शंसन्ति स्तुवन्ति । क्व, चरमक्षणे । यस्मिन् यत्र चरमक्षणे । समाहिताः समाधिं गता भव्याः । भान्ति विघटयन्ति । किं तत्, भवपञ्जरं भवः संसारः पञ्जरमिव शुकादिः पक्षिण इव जीवस्य पारतंत्र्यनिमित्तत्वात् ॥ २८ ।। ___ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । संन्यासार्थं क्षेत्रविशेषस्वीकार माह प्रायार्थी जिनजन्मादि स्थानं परमपावनम् । आश्रयेत्तदलाभे तु योग्य महादिकम् ॥ २९ ॥ टीका-- आश्रयेदुपसर्पेत । कोऽसौ प्रायार्थी संन्यासानशनकामः । किं तत्, जिनजन्मादि स्थानं । किंविशिष्टं, परमपावनं परं पवित्रीकरणं । तत्र जन्मस्थानं वृषभनाथस्यायोद्ध्या । निष्क्रमणस्थानं सिद्धार्थवनं । ज्ञानस्थानं शकटमुखोद्यानं । निर्वाणस्थानं कैलासः । एवमन्येषामपि जन्मादिस्थानानि यथागममधिगम्यानि । तदलाभे तु तस्याप्राप्तौ पुनराश्रयेदसौ । किं तत्, आर्हद्गृहादिकं जिनचैत्यालयसंयताश्रमादिकं । किंविशिष्टं, योग्यं समाधिसाधनसमर्थम् ॥ २९ ॥ २१३ तीर्थम्प्रति चलितस्यावान्तरमार्गेऽपि मृतस्याराधकत्वं दर्शयतिप्रस्थितो यदि तीर्थाय म्रियतेऽवान्तरे तदा । अस्त्येवाराधको यस्माद्भावना भवनाशिनी ॥ ३० ॥ टीका - यदि म्रियते संमाध्यर्थी । क्क, अवान्तरे स्वस्थानतीर्थस्थानयोरन्तराले । उपलक्षणमेतत् । तेन निर्यापकाचार्यमरणमप्याराधकं स्यादेव । किंविशिष्टः सन्, प्रस्थितः गन्तुमारब्धः । कस्मै, तीर्थाय जिनजन्मादिस्थानाय निर्यापकाचार्याय वा । तदा अस्त्येव अवश्यं भवत्यसौ । किंविशिष्टः, आराधकः यस्मात्कारणाद्भवति । काऽसौ भावना समाधिसाधनप्रणिधानं । किंविशिष्टा, भवनाशिनी संसारनिरसनी ॥ ३० ॥ तीर्थं गमिष्यन् क्षमापनं क्षमणं च कुर्यादित्युपदिशति - रागात् द्वेषान्ममत्वाद्वा यो विराद्धो विराधकः । यश्च तं क्षमयेत्तस्मै क्षाम्येच्च त्रिविधेन सः || ३१ ॥ टीका - क्षमयेत् क्षमां कारयेत्सः तीर्थं जिगमिषुः । कं, तं । यः किं, यो विराद्धो दुःखे स्थापितः । कस्मात् रागात् स्नेहात् द्वेषात् क्रोधात् ममत्वात् -ममकाराद्वा । यश्च रागादेर्विराधकः स्वस्य वैमनस्योत्पादकः सम्पन्नस्तस्मै । क्षाम्येच्च क्षमां कुर्यात्सः । केन त्रिविधेन मनोवाक्कायेन ॥ ३१ ॥ • Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ सागारधर्मामृते क्षमणकरणाकरणयोः फलमाह - तीर्णो भवार्णवस्तैर्ये क्षाम्यन्ति समयन्ति च । क्षाम्यन्ति न क्षमयतां ये ते दीर्घाजवजवाः ॥ ३२ ।। टीका-तैः पुम्भिः । ती! लघितः । कोऽसौ, भवार्णवः संसाराब्धिः । ये किं, ये क्षाम्यन्ति विराधकाय क्षमां कुर्वन्ति । ये च क्षमयन्ति विराद्धं क्षमां कारयन्ति । ये पुनः न क्षाम्यन्ति । केषां क्षमयतां क्षमां कारयतां ! ते भवन्ति । किंविशिष्टा, दीर्घाजवञ्जवाः चिरसंसाराः ॥३२॥ क्षपकस्यालोचनाविधिमाह योग्यायां वसतो काले स्वागः सर्व स मृरये। निवेद्य शोधितस्तेन निःशल्यो विहरेत्पथि ॥ ३३ ॥ टीका-विहरेत् प्रवर्तेत । कोऽसौ, सः क्षपकः । क्व, पथि रत्नत्रये । किंविशिष्टः सन् , निःशल्यो मायादिशल्यरहितः । कथम्भूतो भूत्वा, शोधितः प्रतिक्रमणेन प्रायश्चित्तादिविधिना निष्कासितदोषः । केन, तेन का। किं कृत्वा, निवेद्य आलोच्य । किं तत्स्वागः आत्मनो व्रतादावतीचारं। किंविशिष्टं, सर्व। कस्मै, सूरये निर्यापकाचार्याय । क्व, वसतौ स्थाने। किंविशिष्टायां, योग्यायां आलोचनोचितायां । तथा कालेऽपि योग्ये ॥ ३३ ॥ संस्तरारोहणविधिमाह विशुद्धिसुधया सिक्तः स यथोक्तं समाधये । प्रांगुदग्वा शिरः कृत्वा स्वस्थः संस्तरमाश्रयेत् ॥३४॥ टीका-आश्रयेत् आरोहयेत्सः । कं, संस्तरं। किंविशिष्टं, यथोक्तं येन प्रकारेणागमे कथितं । कस्मै, समाधये समाधिनिमित्तं । किंविशिष्टः सन्, स्वस्थः निाक्षेपः । किं कृत्वा, कृत्वा । किं तच्छिरः शीर्ष । क, प्राक् पूर्वस्यां दिशि । उदग्वा उत्तरस्यां । कथम्भूतो भूत्वा, सिक्तो निर्वापितः ।। कया, विशुद्धिसुधया विशुद्धिर्मनःशरीरनैर्मल्यं प्रायश्चित्तविधानं वा सैक सुधा अमृतं तया ॥ ३४ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । महाव्रतमर्थयमानस्यार्यस्याचेलक्यलिङ्गविधानार्थमाह संस्तरारोहणकाले त्रिस्थान दोषयुक्तायाप्यापवादिकलिङ्गिने । महाव्रतार्थिने दद्यालिङ्गमौत्सर्गिकं तदा ॥ ३५ ॥ २१५ टीका - दद्याद्वितरेत् निर्यापकाचार्यः । किं तल्लिंगं अचेलक्यादि चतुर्विधं । किंविशिष्ट मौत्सर्गिकं उत्सर्गे सकलपरिग्रहत्यागे भवं नाग्न्यमित्यर्थः । क्क, तदा संस्तरारोहणकाले । कस्मै, आपवादिकलिङ्गिने सग्रन्थलिङ्गाय आर्यायेत्यर्थः । किंविशिष्टाय, त्रिस्थानदोषयुक्तायापि त्रिस्थानेषु दोषो वृषणयोः कुरण्डलीतिलम्बमानत्वादिर्मेहने च चर्मरहितत्वातिदीर्घत्वासकृदुत्थानशीलत्वादिस्तेन सहितायापि । पुनः किंविशिष्टाय, महाव्रतार्थिने महाव्रतं याचमानाय ॥ ३५ ॥ उत्कृष्टस्यापि श्रावकस्योपचरितायापि महाव्रतायाप्रभुत्वमाह कौपीनेऽपि समृच्छत्वान्नाहित्यार्यो महाव्रतम् । अपि भाक्तममूच्र्छत्वात् साटकेऽप्यार्यिकाऽर्हति ॥ ३६ ॥ टीका - नार्हति न गृहीतुमुचितो भवति । कोऽसावार्यः परमोत्कृष्टश्रावकः । किं तन्महाव्रतं । किंविशिष्टमपि, भाक्तमुपचरितमपि । कुतः समूच्छेत्व:न्ममेदमितिग्रहाविष्टत्वात् । क्क, कौपी गुह्यप्रच्छादनवस्त्रखण्डमात्रे । अि विस्मये । आर्यिका पुनरर्हति । भाक्तमेव महाव्रतं । कस्मादमूर्च्छत्वात् । क साकेऽपि । संस्तरारोहणकालादन्यदातनमेतद्विधानं प्रसङ्गादन्वाख्यातम् ॥३६॥ प्रशस्तमुष्कमेहनस्य सर्वस्य सर्वत्र प्रशस्तमौत्सर्गिकमपवदन्नाह— # ही मान्महर्द्धिको यो वा मिथ्यात्वप्रायबान्धवः । सोऽविविक्ते पढ़े नाग्न्यं शस्तलिङ्गोऽपि नार्हति ॥ ३७ ॥ टीका - स श्रावको नार्हति । किं तन्नाग्न्यं नग्नत्वं । क, पदे स्थाने किंविशिष्टे, अविविक्ते बहुजने । एकान्तस्थाने सोऽप्यर्हतीत्यर्थः । किंविशिष्टोsपि, शस्तलिङ्गोऽपि लिङ्गं पुंस्त्वचिह्नं मुष्कमेहनमित्यर्थः शस्तं प्रशस्तं प्रागुक्तदोषवियुक्तं लिंग यस्य स शस्तलिंगः । यः किं, यो व्हीमान् । लज्जावान् । महर्द्धिकः श्रीमान् । मिथ्यात्वप्रायबान्धवो वा भवति । मिथ्यात्वं प्रायेण बाहुल्येन येषां ते मिथ्यात्वप्राया बान्धवा ज्ञातयो यस्य स तथोक्तः ॥ ३७ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ सागारधर्मामृतेसंस्तरारोहणसमये स्त्रिया लिङ्गविकल्पमतिदिशन्नाह यदौत्सर्गिकमन्यद्वा लिङ्गमुक्तं जिनैः स्त्रियाः। पुंवत्तदिष्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोपधेः ।। ३८ ॥ टीका-यल्लिङ्गमौत्सर्गिकमन्यद्वा पदादिकं स्त्रिया जिनरुक्तं तन्मृत्युकाले तस्याः स्वल्पीकृतोपधेः विविक्तवसत्यादिसम्पत्तौ सत्यां वस्त्रमात्रमपि त्यक्तवत्याः श्रुतरिष्यते अभिमन्यते । कस्येव, पुंवत् । अयमर्थः । पुँसो यदौत्सर्गिकलिंगस्य मृत्यावौत्सर्गिकमेव लिंगमिष्यते आपवादिकलिंगस्य चानंतरमेव व्याख्यातप्रकारं, तदा योषितोऽपि ॥ ३८ ॥ मुमुक्षोर्लिंगग्रहत्यागेन स्वद्रव्यग्रहपरत्वमुपदिशति-- देह एव भवो जन्तोयल्लिङ्गं च तदाश्रितम् । जातिवत्तद्ग्रहं तत्र त्यक्त्वा स्वात्मग्रहं विशेत् ।। ३९ ॥ टीका--यद्यस्माजन्तोजीवस्य भवः संसारो भवति । कोऽसौ, देह एव न क्षेत्रादिकं । यच्च लिंगं नाग्न्यादिकं भवति । किंविशिष्टं, तदाश्रितं देहसंबंधि । किंवत्, जातिवत् ब्राह्मणत्वादिजातियथा । तत्तस्मात्तत्र लिंगे। जाताविव ग्रहमभिनिवेशं त्यक्त्वा विशेत् प्रविशेत् क्षपकः । कं, स्वात्मग्रहं स्वशुद्धचिद्रूपनिबन्धं ॥ ३९ ॥ परद्रव्यग्रहस्य बन्धहेतुत्वात्तत्प्रतिपक्षभावनामुपदिशति परद्रव्यग्रहेणैव यद्बद्धोऽनादिचेतनः । तत्स्वद्रव्यग्रहेणैव मोक्ष्यतेऽतस्तमावहेत् ।। ४० ।। टीका--यद्यस्मात् । आत्मा परद्रव्यस्य शरीरादेर्प्रहेण निर्बन्धेनैवानादिबद्धो ज्ञानावरणादिकर्मपारतन्त्र्यमापन्नः । तत्तस्मात्स्वद्रव्यग्रहेणैव शुद्धस्वात्माभिनिवेशेनैव । मोक्ष्यते मुक्तो भविष्यति । यत एवं तत एतस्मात्कारणात् । तं स्वदेहग्रहमावहेत्कुर्यान्मुमुक्षुः ॥ ४० ॥ शुद्धिविवेकप्राप्तिपूर्वकं समाधिमरणं प्रणौति-- अलब्धपूर्व किं तेन न लब्धं येन जीवितम् । त्यतं समाधिना शुद्धिं विवेकं चाप्य पञ्चधा ॥ ४१ । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः। २१७ टीका--तेन महाभव्येन । किमलब्धपूर्वमनादिकालमप्राप्तं सम्यक्त्वसह - चारि महाभ्युदयादिकं न लब्धं ? तत्सर्वं प्राप्तमित्यर्थः । येन जीवितं समा. धिना रत्नत्रयैकाग्रतया त्यक्तं । किं कृत्वा, पञ्चधा पञ्चप्रकारां शुद्धिं पञ्चप्रकारं च विवेकमाप्य प्राप्य ॥ ११ ॥ बहिरंगान्तरंगविषयभेदात्पञ्चविधां शुद्धिमाह शय्योपध्यालोचनान्नवैयावत्येषु पञ्चधा । शुद्धिः स्यात् दृष्टिधीवृत्तविनयावश्यकेषु वा ॥ ४२ ॥ टीका-स्यादसौ शुद्धिः । कतिधा, पञ्चधा । केषु, शय्यादिषु विषयेषु । तत्र शय्या वसतिसंस्तरौ । उपधिः संयमसाधनं । आलोचना गुरवे दोषनिवेदनं । अन्नं चतुर्विधाहाराः । वैय्यावृत्यं परिचारकैः क्रियमाणं पादमर्दना. दिकं । तेषु पञ्चसु शुद्धिः प्राणेन्द्रियसंयमेन प्रवृत्तिरेषा बाह्या । इयं त्वन्तरङ्गा पञ्चधा शुद्धिः स्यात् । याऽसौ दृष्टयादिषु पंचसु । दृष्टौ दर्शने धियां ज्ञाने, वृत्ते चारित्रे, विनये प्रश्रये, आवश्यक सामयिकादिषट्काचरणे च निरतिचार • तया प्रवृत्तिः ॥ ४२ ॥ शुद्धिवन्मतद्वयेन पञ्चधा विवेकमाह-- विवेकोऽक्षकषायाङ्गभक्तोपधिषु पञ्चधा । स्याच्छय्योपधिकायान्नवैयावृत्यकरेषु वा ।। ४३ ॥ टीका--विवेकः आत्मनः पृथग्भावः साध्यवसायः पञ्चधा स्यात् । केषु, अक्षादिषु विषयेषु । तत्रेन्द्रियेभ्यः कषायेभ्यश्चात्मनः पृथक्चिन्तनं द्विविधो भावविवेकः । द्रव्यविवेकस्तु शरीराहारसंयमोपकरणेभ्यः स्वस्य पृथचिन्तनेन त्रिविधः । तमेव मतान्तरेणाह-शय्येत्यादि शय्यादयः प्रारुपाख्याताः तेभ्यः पृथचिन्तनेन कैश्चिद्विवेकः पञ्चधोक्तः ॥ ४३ ॥ निश्चलसचेलयोर्महाव्रतभावनाविशेषमाह निर्यापके समर्य स्वं भक्त्यारोप्य महाव्रतम् । निश्चलो भावयेदन्यस्त्वनारोपितमेव तत् ।। ४४ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सागारधर्मामृते टीका - भावयेद्भूयो भूयो मनसि प्रणिदध्यात् । कोऽसौ निश्चेलस्त्यक्तसमस्तवस्त्रादिपरिग्रहः । किं तन्महाव्रतं । किं कृत्वा, आरोग्य निर्यापकाचार्यवचनेनात्मनि स्थापयित्वा । कया, भक्त्या पंचतय्या हिंसादिविरत्या, पंचतय्या समित्या, त्रितय्या च गुहया, व्रतसमितिगुप्तिभिस्त्रयोदशप्रकारं चारिमात्मनि ब्यवस्थाप्य । किं कृत्वा, समर्प्य आयत्तं कृत्वा । कं, स्वमात्मानं । कस्मिन्, निर्यापके संसारान्निर्यान्तं क्षपकं प्रयोजयतीति निर्यापकः षट्त्रिंशगुणोपेतो धर्माचार्यस्तस्मिन् । कया, भक्त्या शुभवृत्त्या | भक्त्येत्यस्य संन्दशकन्यायेनोभयत्र संबंधः । अन्यस्तु सचेलः पुनस्तन्महाव्रतं भावयेत् ! किंविशिष्टमनारोपितमेव सग्रन्थस्य तदारोपणेऽनधिकारात् ॥ ४४ ॥ अतिचारपञ्चकपरिहारेण सल्लेखनाविधिना संस्तरस्थस्य प्रवृत्तिमुपदिशतिजीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागं सुखानुबन्धमजन् । स निधानं सँस्तरगश्वरेच्च सल्लेखनाविधिना ।। ४५ ।। टीका- न केवलमारोपितमनारोपितं वा महाव्रतं संस्तरगो भावयेच्चरेच्च चेष्टेत । केन, सल्लेखनाविधिना जन्ममृत्युजरातङ्का इत्यादिना प्रबन्धेन प्रागुतेन । किं कुर्वन्, अजन् क्षिपन् निराकुर्वन्नित्यर्थः । के, जीवितमरणाशंसे जीविताकांक्षा मरणाकांक्षा च । तथा सुहृदनुरागं मित्रानुरागं । तथा सुखानुबन्धं । किंविशिष्टं सनिदानं निदानेन सह । पंचमं निदानमप्यजन्नित्यर्थः । इतो विशेषेणैषामर्थः प्रकाश्यते । तत्र जीविताशंसा शरीरमिदमवश्य हेयं जलबुद्बुदवदनित्यमित्यादिकमस्मरतोऽस्यावस्थानं कथं स्यादित्यादरः । पूजाविशेषदर्शनात्प्रभूतपरिचारावलोकनात्सर्वलोक श्लाघाश्रवणाच्चैवं हि मन्यते प्रत्याख्यातचतुर्विधाहारस्यापि मे जीवितमेव श्रेयः । यत एवंविधा मदुद्देशेनेयं विभूतिर्वर्तत इत्याकांक्षेति यावत् । मरणाशंसा रोगोपद्रवाकुलतया प्राप्तजीवनसंक्लेशस्य मरणं प्रति चित्तप्रणिधानं । यदा न कश्चित्तं प्रतिपन्नाशनं प्रति सपर्यया आद्वियते, न च कश्चित् श्लाघते तदा तस्य यदि शीघ्रं श्रीयेय तदा भद्रकं स्यादित्येवं विविधपरिणामोत्पत्तिर्वा । सुहृदनुरागो बाल्ये सहपां - शुक्रीडनादि व्यसने सहायत्वमुत्सवे सम्भ्रम इत्येवमादेश्व मित्रसुकृतस्यानुस्मरणं । बाल्याद्यवस्थासहक्रीडितमिवानुस्मरणं वा । सुखानुबन्ध एवं मया भुक्तमेवं शयितमेवं क्रीडितमित्येवमादि प्रीतिविशेषं प्रति स्मृतिसमन्वाहारः । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । निदानमस्मात्तपसः सुदुश्चराजन्मान्तरे इन्द्रश्चक्रवर्ती धरणेन्द्रो वा स्यामहमित्येवमाद्यनागताभ्युदयाकांक्षा ॥ ४५ ॥ एवं संस्तरारूढस्य क्षपकस्य निर्यापकाचार्य एतत्कृत्वेदं कुर्यादित्याह यतीनियुज्य तत्कृत्ये यथा गुणवत्तमान् । मूरिस्तं भूरि सँस्कुर्यात् स ह्यार्याणां महाक्रतुः ॥४६॥' टीका-संस्कुर्यात् रत्नत्रयसंस्कारयुतं कुर्यात् । कोऽसौ, सूरिः । कं, तं क्षपकं । कथं, भूरि बहु । किं कृत्वा, नियुज्य अधिकृत्य । कान् , यतीन् साधून् । क, तत्कृत्ये आराधकस्यामर्शनादिशरीरकार्ये विकथानिवारणे धर्मकथायां भक्तपानतल्पशोधनमलोत्सर्जनादौ च । कथं, यथार्ह यथायोग्यं । किंविशिष्टान्, गुणवत्तमान् मोक्षकारणगुणातिशयशालिनः । हि यस्मात् क्षपकसमाधिसाधनविधिरार्याणां यतीनां महाक्रतुः परमयज्ञः स्यात् ॥ ४६ । क्षपकस्याहारविशेषप्रकाशनात् भोजनासक्तिनिषेधार्थमाह योग्यं विचित्रमाहारं प्रकाश्येष्टं तमाशयेत् ।। तत्रासजन्तमज्ञानाज्ज्ञानाख्यानैर्निवतयेत् ॥ ४७ ॥ टीका-आशयेोजयेत्सूरिः । कं, क्षपकं । कं, इष्टं किंचित्सर्वं वा क्षपके. णाकांक्ष्यमाणमाहारं । किं कृत्वा, प्रकाश्य दर्शयित्वा कमाहारं । किंविशिष्टं, योग्यं कल्प्यं । पुनः किंविशिष्टं, विचित्रं नानाप्रकारं कश्चिद्धि भोज्यविशेषान् दृष्ट्वा तीरं प्राप्तस्य किं ममैभिरिति प्राप्तवैराग्यः संवेगपरो भवति । कश्चिञ्च किमपि भुक्त्वा अपरश्च सर्व भक्त्वा तथा भवति । कश्चित्तु तानास्वाद्य तद्रसासक्तिपरो भवति, चित्रत्वान्मोहनीयकर्मविलासानां । तत्र चेष्टतया भोज्यमाने भोजने अज्ञानात्तत्त्वानवबोधादासजन्तमासक्तिं कुर्वन्तं । क्षपकं निवर्तयेत् ततो विरमयेत्सूरिः । कैानाख्यानैर्बोधप्रचोदकप्रसिद्धोपाख्यानैः॥ ४७ ॥ नवभिः श्लोकैराहारावशेषगृद्धिप्रतिषेधपुरःसरं तत्परिहारक्रममाह भो निर्जिताक्ष विज्ञातपरमार्थ महायशः । किमद्य प्रतिभान्तीमे पुद्गलाः स्वहितास्तव ॥४८॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सागारधर्मामृते टीका-भो अहो । निर्जिताक्ष निःशेषवशीकृतहृषीक । भो विज्ञातपरमार्थ अनन्यसाधारणतया निश्चितनिश्चेतव्यवस्तुतत्त्व । भो महायशः सकल. दिक्चक्रविसृत्वरकीर्ते आराधकराज । अद्य सम्प्रति । इमे भाजनशयनाद्युपकल्पिताः पुद्गला मूर्तपदार्थाः । किं तव प्रतिभान्ति प्रतिभासन्ते । किंवि. शिष्टाः, स्वहिता आत्मन उपकारकाः । किंशब्दः प्रश्ने वितर्के आक्षेपे वा .॥४८॥ किं कोऽपि पुदलः सोऽस्ति यो भुक्त्वा नोज्झितस्त्वया । न चैष मूर्तोऽमूर्तेस्ते कथमप्युपयुज्यते ॥ ४९ ॥ टीका-किमस्ति । कोऽसौ, सः कोऽपि कश्चित्पुद्गलो यो नोज्झितो न त्यक्तस्त्वया । किं कृत्वा, भुक्त्वा अनादिकाले इंद्रियप्रणालिकाभिरुपभुज्य न च नैव । एष पुद्गलो भूतॊ रूपादिमानमूर्ते रूपादिरहितस्य ते तव कथमपि केनापि प्रकारेणोपयुज्यते उपकरोति । गगनस्येव तवैतत्कृतोपकारागोचरत्वात् ॥ ४९ ॥ केवलं करणैरेनमलं ह्यनुभवन्भवान् । स्वभावमेवेष्टमिदं भुजेऽहमिति मन्यते ॥ ५० ॥ टीका-केवलं परं मन्यते प्रतिपद्यते । कोऽसौ, भवान् । किं इष्टमभिरुचितमिदं पुरोवर्ति वस्त्वहं भुझे अनुभवामीत्येतत् । किं कुर्वन्ननुभवन् भुञ्जानः। कं, स्वभावमेव आत्मपरिणाममेव वस्तुतस्तस्यैवात्मना भोग्यत्वात्। किं कृत्वा, अलं विषयीकृत्य । कमेनं पुद्गलं। कैः, करणैः चक्षुरादीन्द्रियैः ॥५०॥ तदिदानीमिमां भ्रान्तिमभ्याजोन्मिषती हृदि । स एष समयो यत्र जाग्रति स्वहिते बुधाः ॥ ५१ ॥ टीका-तत्तस्मात्कारणात् । अभ्याज निवारय त्वं । कामिमां प्रतीयमानां भ्रांतिं अभोग्ये पुद्गले भोग्यबुद्धिं । किं कुर्वतीमुन्मिषतीमुदयोन्मुखीभवन्तीं। क, हृदि हृदये अन्तश्चेतसि । कदा, इदानीमद्य । यतो वर्तते । कोऽसावेषोऽ यं । स समयः कालः । यत्र किं, यत्र यस्मिनाग्रति सावधाना भवन्ति । के, बुधाः दृष्टतत्वाः । क, स्वहिते ॥ ५ ॥ ___ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । २२१ अन्योऽहं पुद्गलश्चान्य इत्येकान्तेन चिन्तय । येनापास्य परद्रव्यग्रहवेशं स्वमाविशेः ॥ ५२ ।। टीका-अहमस्मि । किंविशिष्टोऽन्यः पुद्गलाद्भिन्नः । पुद्गलश्वास्ति । किंविशिष्टो ऽन्यो मत्तो भिन्न इत्येतदेकान्तेन सर्वथा चिंतय भावय त्वं । येनात्मपुद्लयोः पृथक्त्वचिन्तनेन परद्रव्यग्रहवेशमनात्मद्रव्यनिर्बन्धोपयोगमपास्य त्यक्त्वा । स्वमात्मद्रव्यं त्वमाविशेरुपयुञ्जीथाः ॥ ५२ ॥ कापि चेत्पुद्गले सक्तो म्रियेथास्तदुवं चरेः। तं क्रमीभूय सुस्वादुचिभेटासक्तभिक्षुवत् !! ५३ ।। टीका-क्वापि क्वचिद्भोजनाधुपयोगिनि पुद्गले । सक्त आसक्तः सन् नियेथाः प्राणॉस्त्यजेस्त्वं चेत्तत्ततो ध्रुवं निश्चितं चरेर्भक्षयेर्भक्षयिष्यसि त्वं । कं, तं पुद्गलं । किं कृत्वा, कृमीभूय तत्रैव क्षुद्रजन्तुर्भूत्वा त्वमासाद्य । किंवत् , सुस्वाद्वित्यादि । सुस्वादुनि रसनेन्द्रियातिगृद्विकारिणि चिर्भटे फलविशेष आसक्तो भिक्षु: संन्यासोन्मुखः संयतो यथा ॥ ५३ ॥ किं चाङ्गस्योपकार्य न न चैतत्तत्प्रतीच्छति । तच्छिन्धि तृष्णां भिन्धि स्वं देहामुन्धि दुराश्रवम् ॥५४॥ टीका-किं च अत्यधिकं चोच्यते त्वां प्रति। भवति । किं तदन्नं भोज्यद्रव्यं । किंविशिष्टमुपकारि उपकारकं । कस्याङ्गस्य शरीरस्य । मूर्तेन मूर्तस्यैवोपकार्यत्वदर्शनात् । न च नैव । एतदंङ्गं । तदन्नं प्रतीच्छति उपकारकत्वेन गृह्णाति । तत्तस्माच्छिन्धि नाशय त्वं । कां, तृष्णां अन्ने वाञ्छानुबन्धं । तथा भिन्धि भेदेन भावय त्वं । कं, स्वमात्मानं । करमादेहात् । तथा रुन्धि प्रतिबधान त्वं । कं, दुरास्रवं पापकर्मास्रवणकारणम् ॥ ५४॥ . इत्थं पथ्यप्रथासारैर्वितृष्णीकृत्य तं क्रमात् । त्याजयित्वाऽशनं मूरिः स्निग्धपानं विवर्धयेत् ॥ ५५ ॥ टीका-विवर्धयेत्परिपूर्ण दद्यात् सूरिः । किं तत्, स्निग्धपानं दुग्धादि । किं कृत्वा, त्याजयित्वा परिहार्य । किं तदशनं कवलाहारं । कस्मात्क्रमात् Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ सागारधर्मामृतेक्रमेण शनैः शनैः । किं कृत्वा, वितृष्णाकृत्य अन्ने निवृत्तेच्छं कृत्वा। कं, तं क्षपकं । पथ्यप्रथासारैर्हितप्रकाशधारासम्पातैः । कथमित्थमनेन प्रकारेण ॥५५॥ पानं पोढा घनं लेपि ससिक्थं सविपर्ययम् । प्रयोज्य हापयित्वा तत् खरपानं च पूरयेत् ॥ ५६ ॥ टीका-पूरयेद्विवर्धयेत्सूरिः । किं तत्खरपानं प्रथमं शुद्धकाञ्जिकादिरूपं पश्चाच्च शुद्धपानीयरूपं । किं कृत्वा, प्रयोज्य परिचारकैर्दापयित्वा। हापयित्वा च त्याजयित्वा क्षपकेण । किं तत्पानं पेयद्रव्यं । कतिधा,षोढा षट्प्रकारं । तदेवाहवनमित्यादिना । धनं बहुलं दध्यादि । सविपर्ययमितिवचनादच्छं तिंत्रिकादि. फलरससौवीरकोष्णजलादि । लेपि यद्धस्ततलं लिम्पति तद्विपरीतमलेपि । ससिक्थं सिक्थसहितं पयादि तद्विपरीतमसिक्थं मण्णकादि ॥ ५६ । इत्थं च निर्यापकाचार्यः क्षपकं शिक्षयेदिति षभिः श्लोकैराहशिक्षयेच्चेति तं सेयमन्त्या सल्लेखनेयते । अतीचारपिशाचेभ्यो रझेनामतिदुलेभाम् ॥ ५७ ॥ टीका-शिक्षयेच सूरिरनुशिष्यात्तं क्षपकं । इति वक्ष्यमाणेन प्रकारेण अयं पूर्वोक्तश्च । द्वौ चशब्दौ तुल्यकक्षतां द्योतयतः । खरपानं पूरयेच्च तमिति शिक्षयेच्चेति सम्बन्धः । तदेव शिक्षणमाह-सेयमित्यादि । हे आर्य गुणैर्गुणवद्भिश्चाश्रीयमाणा सा परमागमे प्रसिद्धा इयं वर्तते । काऽसौ, सल्लेखना। किंविशिष्टा, अन्या मरणान्तिकी । कस्य, ते तव । तद्वद्रक्ष पालय त्वमेनां । केभ्यः, अतीचारपिशाचेभ्यः अतीचारा जीविताशंसादयः प्रागुक्तास्त एव पिशाचाश्छिद्रं प्राप्य प्रभविष्णुत्वात् । किंविशिष्टामेनामतिदुर्लभां आसंसारमप्राप्तपूर्वत्वादत्यन्तं प्राप्तुमशक्यां ॥ ५७ ॥ क्रमेणातिचारपञ्चकपरिहारं शिक्षयन्नाह प्रतिपत्ती सजन्नस्यां मा शंस स्थास्नु जीवितम् । भ्रान्त्या रम्यं बहिर्वस्तु हास्यः को नाऽऽयुराशिषा।।५८॥ टीका- मा शंस मा वान्छस्व त्वं । किं तजीवितं । किंविशिष्टं, स्थास्नु स्थिरतरं । किं कुर्वन्, सजन आसत्तो भवन् । कस्यामस्यां दृश्यमानायां Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । २२३ प्रतिपत्तौ आचार्यादिभिः क्रियमाणे परिचर्यादिविधौ, महर्द्धिकैः पुरुषैश्च गौरवादरादिके। अत्रोपपत्तिमाह-यतो भवति। किं तद्वहिर्वस्तु बाह्यविषयजातं। किंविशिष्टं, रम्यमात्मनः प्रीणनं । कया, भ्रान्त्या भ्रमेण । कश्च हास्यो हसनीयो लौकिकपरीक्षकाणां न भवति । कया, आयुराशिषा जीवितं मे भूयादित्याशंसया । स एष जीविताशंसाख्योऽतीचारः पुनरनूद्योपपत्तिविशेषेण त्याज्यतयोपदिष्टः । एवमुत्तरेऽपि ॥ ५८ ॥ परिहासभयादाशु मरणे मा मतिं कृथाः । दुःखं सोढा निहन्त्यँहो ब्रह्म हन्ति मुमूर्षकः ॥ ५९ ॥ टीका-मा कृथाः मा कुरु त्वं । कां, मतिं इच्छां । क, आशु मरणे शीघ्र जीवितच्छेदे । कस्मात्पषिहभयात् दुःसहक्षुधादिवेदनाभीत्या । यतो निहन्ति निरुद्धास्रवं क्षपयति, विपाकान्तत्वात्कर्मणां । कोऽसौ, दुःखं बाधां सोढा साधुत्वेन संक्लेशपरिणामलक्षणेन सहमानः । किं तदंहः पुरार्जितपापं । तथा हंति हिनस्ति । कोऽसौ, मुमूर्षुकः कुत्सितविधिना मर्तुमिच्छन् । किं तद्ब्रह्म ज्ञानं मोक्षं वा । आत्मघाततो दीर्घसंसारो भवतीत्यर्थः ॥ ५९ ॥ सहपांसुक्रीडितेन स्वं सख्या माऽनुरञ्जय । ईदृशैर्बहुशो मुक्तैर्मोहदुर्ललितैरलम् ।। ६० ॥ टीका-माऽनुरञ्जय मा स्नेहय मा प्रीणय वा त्वं । कं, स्वमात्मानं । केन, सख्या मित्रेण । किंविशिष्टेन, सहपांसुक्रीडितेन बालावस्थायां सह मिलित्वा पांसुना रजसा क्रीडितं क्रीडनं येन स तथोक्तः । अतो व्यावर्तनार्थमाह-अलं पर्याप्तं । तव परलोकोद्यतस्य । कैरीदृशैरेवंविधैर्मित्रानुरागस्मर. णप्रायैः परिणामैः । किंविशिष्टंबहुशोऽनेको भुक्तैरनुभूतपूर्वैः । पुनः किंविशिष्टौहदुर्ललितर्मोहनीयकर्मविपाकजन्यदुरध्यवसायैः ।। ६०॥ मा समन्वाहर प्रीतिविशिष्टे कुत्रचित्स्मृतिम् । वासितोऽक्षसुखैरेव बम्भ्रमीति भवे भवी ॥ ६१ ॥ टीका-मा समन्वाहर माऽनुबन्धिनी कुरु त्वमुत्पद्यमानामेव निवारयेत्यर्थः । कां, स्मृतिं चेतोवृत्तिं । क्व, कुत्रचित् चक्षुरादीनामन्यतमेनानुभूय Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सागारधर्मामृते माने विषये पूर्व प्रवृत्ते प्रीतिविशिष्ट प्रमोदातिशये, इत्थं मया रम्यकामिन्यादिकमीक्षितमित्थमालिंगितमित्यादिरूपेण मा स्मतिसमन्वाहारं कुरुष्वेत्यर्थः । यतो बम्भ्रमीति कुटिलं पर्यटति कष्टं परिवर्तते । कोऽसौ, भवी जीवः । क्व, भवे आजीवञ्जीविभावे । किंविशिष्टः सन्, वासितो दृढाहितसंस्कारः । कैरक्षसुखैरिन्द्रियसुखैरेव नात्मज्ञानसंस्कारैः ॥ ६ ॥ मा कांक्षी विभोगादीन् रोगादीनिव दुःखदान् । वृणीते कालकूट हि कः प्रसाद्येष्टदेवताम् ॥ ६२ ॥ टीका-मा कांक्षीस्तपोमाहात्म्यादिना ममैते भूयासुरिति नाऽभिलष त्वं । कान्, भाविभोगादीन् भाविनो भोगानिष्टविषयान् । आदिशब्देन चाज्ञैश्व. र्यादीन् । किंविशिष्टान् , दुःखदान् दुरन्तदुःखदायकान् । कानिव, रोगादीनिव ज्वरादिव्याधीष्टवियोगप्रभृतीन् यथा। हि यस्मात् कः कश्चित् वृणीते प्रार्थयते । किं तत्कालकूटं सद्यःप्राणहरं विषं । किं कृत्वा, प्रसाद्य वरदानोन्मुखी कृत्वा । कामिष्टदेवतामभिमतार्थप्रसादनसमर्थां देवी देवं वा ॥ ६२॥ क्षपकस्य चतुर्विधाहारसन्न्यासविधि श्लोकद्वयेनाहइति व्रतशिरोरत्नं कृतसंस्कारमुद्वहन् | खरपानक्रमत्यागात् प्रायेऽयमुपवेक्ष्यति ।। ६३ ॥ एवं निवेद्य संघाय मूरिणा निपुणेक्षिणा । सोऽनुज्ञातोऽखिलाहारं यावज्जीवं त्यजेत् त्रिधा॥६४॥ युग्मं । टीका--त्यजेत् कोऽसौ, क्षपकः । कमखिलाहारं चतुर्विधमपि भोजनं । कथं, त्रिधा मनोवाक्कायैः। कियत्कालं, यावजीवं। किं कुर्वन्, उद्वहन उत्कृष्टं धारयन्। किं तद्, व्रतशिरोरत्नं सल्लेखनां। तस्या एव सर्वव्रतानां साफल्यसंपादकत्वेनोपरि भ्राजमानत्वाच्चूडामणिरिवाभरणानां। किंविशिष्टं, कृतसंस्कारं आहितातिशयं । कथमित्यनेन प्रतिपत्तौ सजन्नस्यामित्याद्विग्रन्थोक्तप्रकारेण । किंविशिष्टः सन्निखिलाहारं स त्यजेत्, अनुज्ञातोऽनुमतः । केन, सूरिणा निर्यापकाचार्येण । किविशिष्टेन, निपुणेक्षिणा निपुणं सूक्ष्म व्याधिदेशादितत्त्वमक्षिते पशत्यभीक्ष्णमिति निपुणेक्षी तेन, व्याधिदेशकालसत्त्वसात्म्यबलप Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । २२५ रीषहक्षमत्वसंवेगवैराग्यादीनां सूक्ष्मेक्षिकया विचारकेणेत्यर्थः । किं कृत्वा, निवेद्य ज्ञापयित्वा । कस्मै, संघाय चातुर्वर्ण्यश्रमणगणाय । कथमेवं । अयं क्षपक उपवेश्यति निश्चलं स्थास्यति दृढप्रतिज्ञो भविष्यतीत्यर्थः । क, प्राये चतुर्विधाहारसंन्यासे । कस्मात्खरपानक्रमत्यागात् खरपानस्य शुद्धोदकमात्रो. पयोगस्य क्रमेण शनैः शनैस्त्यागः प्रत्याख्यानं तस्मात् । अत्रायं विधिरार्याद्वयेन--" त्यक्ष्यति सर्वाहारं । यावज्जीवं निरम्बरस्त्रिविधम् । निर्यापकसूरिपरः सङ्घाय निवेदयेदेवम् ॥ १ ॥क्षपयति यः क्षपकोऽसौ पिण्डं तस्येति संयमधनस्य । दर्शयितव्यं नीत्वा सङ्घावसथेषु सर्वेषु" ॥ ६३।६४ ।। एवमतिशयेन परिषहबाधाक्षम प्रति चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानमुपदिश्यदानीमतथाभूतस्य क्षपकस्य पानीयमानविकल्पनपूर्वकं त्रिविधप्रत्याख्यानमुपदिशश्चतुर्विधप्रत्याख्यानावसरनिरूपणार्थमाह-- व्याध्याद्यपेक्षयाऽम्भो वा समाध्यर्थ विकल्पयेत् । भृशं शक्तिक्षये जह्यात्तदप्यासन्नमृत्युकः ॥ ६५ ।। टीका--वा अथवा विकल्पयेत् गुरुनियोगेन पेयतया प्रतिजानीत क्षपकः । किं तदभ्भः पानीयं । किमर्थ, समाध्यर्थे । कया, व्याध्याद्यपेक्षया यदि पैत्तिको व्याधिर्वा ग्रीष्मादिः कालो वा मरुत्स्थलादिदेशो वा पैत्तिकी प्रकृ. तिर्वा अन्यदप्येवंविधं तृष्णापरिषहोद्रेकासहनकारणं वा भवेत् तदा गुर्वनु. ज्ञया पानीयमुपयोक्ष्येऽहमिति प्रत्याख्यानं प्रतिपद्यतेत्यर्थः । भृशमत्यर्थ शक्तिक्षये बलनाशे पुनरासन्नमृत्युकः प्रत्यासन्नमरणः क्षपकस्तदप्यम्भोऽपि जह्यात् प्रत्याख्यायात् ॥ ६५ ॥ तत्कालोचितं क्षपकोपकारि सङ्घस्यावश्यकरणीयमाह तदाखिलो वर्णिमुखग्राहितक्षमणो गणः । तस्याविघ्नसमाधानसिध्यै तद्यात्तनूत्सृतिम् ॥ ६६ ॥ टीका-तदा तस्मिन्काले तद्यात्कुर्यात् । कोऽसावखिलः सर्वो गणः सङ्घः । का, तनूत्सृतिं कायोत्सर्ग । कस्यै, अविघ्नसमाधानसिध्यै । कस्य, तस्य प्रत्याख्यातचतुर्विधभक्तस्य क्षपकस्य, क्षपकस्योपसर्गा मा भूवन् सिध्द्यतु चाराधनेत्येवमर्थं । किंविशिष्टः सन्, वर्णिमुखग्राहितक्षमणः वर्णिनो Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सागारधर्मामृते ब्रह्मचारिणो मुखेन ग्राहितो लापितो यथाकथञ्चित्कृतानपराधान् मम यूयं क्षमध्वमहं च भवत्कृतास्तान् क्षम्ये इति क्षमणं यः स तथोक्तः । एतच्च एवं निवेद्य संधायेति प्रागुक्तमेव विशेष्य पुनरुक्तम् ॥ ६६ ॥ एवमाराधनापताकाग्रहणोद्यतस्य क्षपकस्य निर्यापकाः किं कुर्युरित्याहततो निर्यापकः कर्णे जपं प्रायोपवेशिनः । दद्युः संसारभयदं प्रीणयन्तो वचोऽमृतैः ॥ ६७ ॥ टीका - ततो यथोक्तकरणीयकारणानन्तरं । दद्युः सम्पादयेयुः । के, निर्यापकाः समाधिविधायिनो मुनयः । कं, जपं । किंविशिष्टं, संसारभयदं संसारभयं संवेगमुपलक्षणान्निर्वेदं च ददानं । क्क, कर्णे श्रुतिमार्गे । कस्य, प्रायोपवेशिनः संन्यासिनः । किं कुर्वन्तः, प्रीणयन्तः सन्तर्पयन्तः । कैर्वचोऽमृतैः पीयूषसमैर्वाक्यैः ॥ ६७ ॥ अथातो निर्यापकाचार्यकार्यां क्षपकस्य महतीमनुशिष्टिमुत्तरत्र प्रबन्धेनोपदिशति मिथ्यात्वं वम सम्यक्त्वं भजोर्जय जिनादिषु । भक्ति भावनमस्कारे रमस्व ज्ञानमाविश ॥ ६८ ॥ टीका- भो आराधकराज वम निःशेषय त्वं । किं तन्मिथ्यात्वं विपरीसाभिनिवेशं । तथा भज भावय स्वं । किं तत्सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानं । तथा ऊर्जय बलवतीं जीवन्तीं वा कुरु त्वं । कां, भक्ति । केषु, जिनादिषु अर्हदादिषु परमेष्ठिषु तच्चैत्येषु व्यवहारनिश्चयरत्नत्रये च । तथा रमस्व रतिं कुरु त्वं भावनमस्कारे अर्हदादिगुणानां सानुरागानुध्याने । तथा आविश उपयुंक्ष्व त्वं । किं तत् ज्ञानं बाह्यमाध्यात्मिकं च तत्त्वबोधम् ॥ ६५ ॥ > महाव्रतानि रक्षोच्चैः कषायान् जय यन्त्रय । अक्षाणि पश्य चात्मानमात्मनाऽऽत्मनि मुक्तये ॥ ६९ ॥ टीका—तथा रक्ष पालय त्वं । कानि, महाव्रतानि । तथा जय निगृहाण त्वं । कानू, कषायान् क्रोधादीन् । कथमुचैरत्यर्थ, तज्जये सुतरां यत्नं कुरु'वेत्यर्थः पैः । तथा यन्त्रय निजनिजविषयेषु प्रवर्तमानानि त्वं निरुन्धि । कानि, Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । . २२७ अक्षाणि स्पर्शनादीनि । तथा पश्य अवलोकय त्वं । कमात्मानं । केन, आत्मना स्वयं । क, आत्मनि स्वस्मिन् । कस्यै, मुक्तये मोक्षाय न संसारसुखाय ॥ ६९॥ मिथ्यात्वस्यापायहेतुत्वं श्लोकद्वयेन स्पष्टयति अधोमध्यावलोकेषु नाभूनास्ति न भावि वा। तदुःखं यन्न दीयेत मिथ्यात्वेन महारिणा ।। ७० ॥ टीका--तत् दुःखमधोलोके मेरोरधः सप्तसु भूमिषु, मध्यलोके जम्बूद्वी. पादिस्वयम्भूरमणसमुद्रान्ते तिर्यग्लोके, ऊर्ध्वलोके मेरुचूलिकान्ततःप्रभृति तनुवातवलयपर्यन्ते । नाभूत् न भूतं । नास्ति न भवति । न भावि वा न वा भविष्यति । यन्न दीयेत न सम्पाद्येत जीवस्य । केन, मिथ्यात्वेन । किंविशिष्टेन, महारिणा परमशत्रुणा, तस्मिन् सत्येव बाह्याभ्यन्तरशत्रूणामपकारकत्वोपपत्तेः ॥ ७० ॥ सङ्घश्रीर्भावयन्भूयो मिथ्यात्वं वन्दकाहितम् । धनदत्तसभायां द्राक्स्फुटिताक्षोऽभ्रमद्भवम् ।। ७१ ॥ टीका---अभ्रमत् पर्यटति स्म । कोऽसौ, सङ्घश्रीधनदत्तनृपतिमन्त्री । कं, भवं संसारं । दीर्घसंसारोऽभूदित्यर्थः । कथम्भूतो भूत्वा, द्राक् स्फुटिताक्षः झटिति स्फुटितचक्षुः । कस्यां, धनदत्तसभायां धनदत्तस्य स्वस्वामिनः परिपदि । किं कुर्वन्, भावयन् अध्यात्ममभ्यस्यन् । किं तन्मिथ्यात्वं । किंवि. शिष्टं, भूयो वन्दकेन पुनरारोपितं । इयमन्याश्च सर्वाः कथाः कथाकोशादिशास्त्रेषु द्रष्टव्याः ग्रंथगौरवभयादिह नोक्ताः ॥ ७१ ॥ सम्यक्त्वस्योपकारकत्वं श्लोकद्वयेनाह-- अधोमध्यो लोकेषु नाभून्नास्ति न भावि वा । तत्सुखं यन्न दीयेत सम्यक्त्वेन सुबन्धुना ॥ २ ॥ टीका--अस्यापि पूर्ववढ्याख्या सुबन्धुत्वं पुनः सम्यक्त्वस्य सर्वत्र सर्वदा सर्वेषामुपकारकत्वात्समस्तविनिपातप्रतिबन्धकत्वाच्च निश्चयम् ॥ ७२ ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ सागारधर्मामृते प्रहासितकुदृग्बद्धश्वभ्रायुःस्थितिरेकया। दृग्विशुध्धाऽपि भविता श्रेणिकः किल तीर्थकृत् ॥७३॥ टीका-किल एवं ह्यागमे श्रूयते श्रेणिको नाम मगधमहामंडलेश्वरों भविता भविष्यति । किंविशिष्टः, तीर्थकृत् धर्मतीर्थकरः । कया, दृग्विशुध्द्या। किंविशिष्टया, एकया असहायया विनयसम्पन्नतादितीर्थकरत्वकारणान्तररहि. तया । अपिर्विस्मये । किंविशिष्टः सन् , प्रेत्यादि श्वभ्रे सप्तमनरकभूमावायुषो भवधारणकारणकर्मणः स्थितिः काल्मवधारणेन बन्धः श्वभ्रायुःस्थितिः कुदृशा तीवमिथ्यात्वपरिणामेन बद्धा आत्मसात्कृता श्वभ्रायुःस्थितिः कुदृग्बद्धश्वभ्रायुःस्थितिः प्रहासिता त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमपरिमाणादपकृष्य रत्नप्रभायां चतुरशीतिवर्षसहस्रपरिमाणा कृता कुदृम्बद्धा श्वभ्रायुःस्थितिर्यस्य । एकयाऽपि दृग्विशुध्द्या स तथोक्तः ॥ ७३ ॥ अर्हदक्तेर्माहात्म्यं द्वाभ्यामाह एकैवास्तु जिने भक्तिः किमन्यैः स्वेष्टसाधनैः। या दोन्धि कामानुच्छिद्य सद्योऽपायानशेषतः ॥ ७४|| टीका-भोः सुविहित साधो । अस्तु भवतु । काऽसौ, भक्तिर्भावविशुद्ध आन्तरोऽनुरागः । क, जिने भगवदर्हद्देवे। किंविशिष्टा, एकैव असहायैव । किं कार्य । कैः, स्वेष्टसाधनैः स्वाभिमतार्थसिध्युपायैः। किंविशिष्टैरन्यैर्जिनभक्तिव्यतिरिक्तैः । सर्वपुरुषार्थसाधनानां तया विना तदाभासत्वनिश्चयात् । या किं, या दोग्धि प्रपूरयति । कान्, कामान् मनोरथान् । किं कृत्वा, उच्छिद्य निरस्य । कानपायान्, अभ्युदयनिःश्रेयसभ्रंशिनोऽपायान् । कथमशेषतः सर्वतः सर्वान्वा । कथं, सद्यः स्वाविर्भावनानन्तरमेव ॥ ७४ ॥ वासुपूज्याय नम इत्युक्त्वा तत्संसदं गतः । द्विदेवारब्धविघ्नोऽभूत् पद्मः शक्रार्चितो गणी ॥७५॥ टीका-अभूत्सम्पन्नः । कोऽसौ, पद्मः पद्मरथो नाम मिथिलाधिपतिः । किंविशिष्टो, गणी गणधरदेवः । किंविशिष्टः सन् , शक्रार्चितः इन्द्रकृतप्रातिहार्यः । पुनः किंविशिष्टः सन्, द्विदेवारब्धविघ्नः द्वाभ्यां देवाभ्यां धन्वतारविश्वानुलोमचराभ्यामारब्धाः कर्तुमुपक्रान्ता विघ्नाः काकळकारककृष्णसर्पमा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः। २२९ गखण्डप्रभृतयोऽपशकुनाः समवसरणगमनान्तराया यस्य स तथोक्तः । कथम्भूतो भूत्वा, गतः प्राप्तः । कां, तत्संसदं वासुपूज्यसमवसरणं । किं कृत्वा, उक्त्वा उच्चार्य ॥ ७५॥ एकोऽप्यहन्नमस्कारश्चेद्विशेन्मरणे मनः । सम्पाद्याभ्युदयं मुक्तिश्रियमुत्कयति द्रुतम् ॥ ७६॥ टीका--चेद्यदि । विशेत् भावरूपतया व्याप्नुयात् । कोऽसावेकोऽपि केवलोऽपि अर्हतो भगवतो नमस्कारः प्रणामः । किंतन्मनश्चित्तं । क, मरणे प्राणत्यागलक्षणे । तदा द्रुतं शीघ्रमुत्कयत्युत्कंठयति । कां, मुक्तिश्रियं मोक्षलक्ष्मी । अनन्तरभवेषु द्वित्रिभवेषु वा परमपदं सम्पादयतीत्यर्थः। किं कृत्वा, सम्पाद्य सम्पूर्ण प्रापय्य । कमभ्युदयं महर्द्धिम् ॥ ७६ ॥ स णमो अरहंताणमित्युच्चारणतत्परः । गोपः सुदर्शनीभूय सुभगाह्वः शिवं गतः ॥ ७७ ॥ टीका--गतः । कोऽसौ, आगमे प्रसिद्धः सुभगाह्वः सुभगो नाम गोपो गोपालः । किं तच्छिवं परममुक्तिं । किं कृत्वा, सुदर्शनीभूय वृषभदासश्रेष्टिपुत्रः सुदर्शनाख्यः सुरूपः सुसम्यक्त्वश्च भूत्वा । किंविशिष्टः सन्, णमो अरहताणमित्येतस्याहन्नमस्कारस्योच्चारणे संशब्दे तत्परस्तनिष्ठस्तदेकाग्रमना इत्यर्थः ॥ ७७ ॥ ज्ञानोपयोगमाहात्म्यं त्रिभि श्लोकैराह स्वाध्यायादि यथाशक्ति भक्तिपीतमनाश्वरन् । तत्कालिकाद्भुतफलादुदर्के तर्कमस्यति ॥ ७८ ॥ टीका-अस्यति क्षिपति निवारयतीत्यर्थः । कोऽसौ, पुरुषः । कं, तर्क विकल्पं संशयरूपं विमर्शमित्यर्थः । कस्मिन्विषये, उदर्के उत्तरफले स्वाध्यायाद्यनुष्ठानसाध्यमागमे यदद्भुतं फलमुक्तं तन्मे भविष्यति न वेति सन्देहं । कस्मात्तत्तत्कालिकाद्भुतफलात् क्रियमाणस्वाध्यायाद्याचरणसमयभवासम्भाब्येष्टसाध्यात् दृष्टेनादृष्टस्यासम्भाव्यस्यापि निश्चेतुं शक्यत्वात् । किं कुर्वन्, चरन् अनुतिष्ठन् । किं तत्स्वाध्यायादि स्वाध्यायं वन्दनां प्रतिक्रमणादिकमपि Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० सागारधर्मामृतेram मुनीनां नित्यमाचरणं । कथं, यथाशक्ति अनिगृहितबलवीर्य यथा भवति । किंविशिष्टः सन्, भक्तिपीतमनाः भक्त्या पीतं स्वान्तं पीतमनुरंजितं वा मनश्चित्तं यस्य स तथोक्तः ॥ ७८ ॥ शूले प्रोतो महामन्त्रं धनदत्तार्पितं स्मरन् । दृढशूर्पो मृतोऽभ्येत्य सौधर्मात्तमुपाकरोत् ॥ ७९ ॥ टीका--अतिनिर्भयमुपाकरोत् स्वस्वामिनृपतिकार्यमाणोपसर्गनिराकरणपूर्वकसत्कारकरणेनोपाकृतवान् । कोऽसौ, दृढशूर्पो नाम चोरः । कं, तं धनदत्तश्रेष्ठिनं । किं कृत्वा, अभ्येत्य आगत्य । कस्मात्सौधर्मात् सौधर्मकल्पविमानात् । सौधर्मे महर्द्धिकदेवत्वं प्राप्त इत्यर्थादापन्नमत्र बोध्यं । कथम्भूतः सन् , मतः । किं कुर्वन्, स्मरन् चिन्तयन् । कं, महामन्त्रं पञ्चनमस्कारं तदनुचिन्तनस्योत्कृष्टस्वाध्यायत्वात् । किंविशिष्ट, धनदत्तार्पितं धनदत्ताख्येन श्रेष्टिना ढौकितं । किंविशिष्टः स्थितः, शूले प्रोतः शूलिकायामारोपितः ॥७९॥ खण्ड श्लोकैस्त्रिभिः कुर्वन् स्वाध्यायादि स्वयंकृतैः। मुनिनिन्दाप्तमौग्ध्योऽपि यमः सप्तर्द्धिभूरभूत् ॥ ८० ।। टीका--अभूत् । कोऽसौ, यमः यमो नाम राजा, राज्यं त्यक्त्वा प्रव्रजितः । किंविशिष्टः, सप्तर्द्धिभूः । बुद्धि तवो वि य रिद्धी विडउणरिद्धी तहेव ओसहिया। रसबलअक्खीणा वि य रिद्धीओ सत्त पण्णत्ता ॥ इत्यासां सप्तानामृद्धीनां भूः स्थानं सप्तर्धिप्राप्तोऽभूदित्यर्थः । किंविशिष्टोऽपि, मुनिनिन्दाप्तमौग्ध्योऽपि मुनिनिन्दया प्राप्तमूढभावोऽपि । किं कुर्वन् स तथा अभूत्, कुर्वन् । किं नत्, खाध्यायादि। कैः, खण्डश्लोकैः। किंविशिष्टैः, स्वयंकृतैः स्वयमात्मना निर्मितैः । कतिभिस्त्रिभिः । तद्यथा-" कंडसि पुणुणं स्वेवसि रेगदहा । जवं पत्थोसि खादिदं ॥ १ ॥ अंणत्थ किं फलो वहा तुह्मी इत्थ बुधिया छिदे। अंके च्छेद इको णिया ॥२॥ अह्मा दोणं दि भयं दिहादोदिसराभयं तुह्म” ॥८॥ अहिंसाहिंसयोर्माहात्म्यं द्वाभ्यामाह-- अहिंसापत्यपि दृढं भजनो जायते रुजि । यस्त्वध्यहिंसासर्वस्वे स सर्वाः क्षिपते रुजः ॥ ८१ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । २३१ www.rever टीका-ओजायते ओजस्वीवाचरति दुःखेन नाभिभूयत इत्यर्थः । कोऽ. सौ, पुरुषः । कस्यां, रुजि उपसर्गादिपीडायामुपस्थितायां । किं कुर्वन् , दृढं भजन गाढं सेवमानः । किं तत्, अहिंसाप्रत्यपि अहिंसाया: स्तोकमहिंसाप्रति । स्तोके प्रतिनेत्यनेनाव्ययीभावः ॥ स्तोकामप्यहिंसामित्यर्थः। यस्तु भवति । कथमधि अधीश्वरः । क, अहिंसासर्वस्वे अहिंसायाः सर्वस्वं साकल्यमहिंसासर्वस्वं तस्मिन् । ईश्वरेऽधीत्यनेन सप्तमी । सकलाऽहिंसाया अधीश्वरो भवतीत्यर्थः । सः क्षिपते निराकरोति । काः, सर्वाः समस्ताः रुजो दुःखानि ॥ १ ॥ यमपालो ह्रदेऽहिंसन्नेकाहं पूजितोऽप्सुरैः। धर्मस्तत्रैव मेण्दन्नः शिशुमारैस्तु भक्षितः ॥ ८२ ॥ टीका-पूजितः । कोऽसौ, यमपाल: वाराणस्यां मातङ्गः । कैः, अप्सुरैः जलदेवताभिः । क्व, हृदे शिशुमारहूदे । किं कुर्वन् , एकाहमेकदिनमहिंसन् चतुर्दशीदिने हिंसामकुर्वन्नित्यर्थः । धर्मस्तु श्रेष्टिपुत्रो भक्षितः। कैः, शिशुमारैः । क, तत्रैव तस्मिन्नेव हूदे । किंविशिष्टः सन् ? मेण्ढघ्नः कृतराजमेण्ढ़कबधः ॥ ८२ ॥ असत्यकृतापायं द्वाभ्यामाह मा गां कामदुधां मिथ्यावादव्याघ्रोन्मुखी कृथाः । अल्पोऽपि हि मृषावादः श्वभ्रदुःखाय कल्पते ॥८॥ टीका-हे क्षपक मा कृथाः मा कुरु त्वं । कां, गां वाचं । पक्षे अनड्वाही। किंविशिष्टां, कामदुधां कामं प्रार्थ्यमानमर्थं दोग्धि क्षरत्याविर्भावयतीत्येवम्भूतां सत्यवाचं कामधेनुं चेत्यर्थः । किंविशिष्टां मा कृथाः, मिथ्यावादव्याघ्रोन्मुखीं मिथ्यावादोऽसत्यजल्पः स एव व्याघ्रः कामधेनोरिव सत्यवाच : संहरणशीलत्वात् , मिथ्यावादव्याघ्रस्य उन्मुखी संमुखीं मिथ्यावादं कर्तुमुद्युक्तां व्याघ्रं च प्रतिवर्तमानां । हि यस्मादल्पोऽपि स्तोकोऽपि किं पुनर्भूयान् । मृषावादो वितथव्याहारः श्वभ्रदुःखाय कल्पते सम्पद्यते, नरकदुःखं सम्पाद. यतीत्यर्थः ॥ ८३ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सागारधर्मामृते अजैर्यष्टव्यमित्यत्र धान्यैत्रैवार्षिकैरिति । व्याख्यां छागैरिति परावर्त्यागान्नरकं वसुः ॥ ८४ ॥ टीका -- अगात् गतः । कोऽसौ वसुर्नाम राजा । किं तन्नरकं । किं कृत्वा, परावर्त्य अन्यथा कृत्वा । कां, धान्यैस्त्रैवार्षिकैरिति व्याख्यां । कथं, परावर्त्य च्छागैरिति । क्व, अजैर्यष्टव्यमित्यत्र परमागमे वाक्ये । अयमर्थः । न जायंत इत्यजा वर्षत्रवृत्तयो व्रीहयस्तैर्यष्टव्यं शान्तिकपौष्टिकार्था क्रिया कार्येति क्षीरकदंबाचार्यैरिदं व्याख्यानं परावर्त्य अजैरजात्मजैर्यष्टव्यं हव्यकव्यार्थो विधिर्विधातव्य इत्यन्यथा कृत्वा पर्वतनारदविसंवादे वसुराजः श्वभ्रमगमदित्यर्थः : ॥ अजैहतव्यमिति क्वचित्पाठः ॥ ८४ ॥ स्तेयानुभावं द्वाभ्यामाह- आस्तां स्तेयमभिध्याऽपि विध्याप्याऽग्निरिव त्वया । हरन् परस्वं तदसून् जिहीर्षन् स्वं हिनस्ति हि ।। ८१ ॥ 1 टीका -- भोः समाधिमरणार्थिन् । आस्तां तिष्ठतु । किं तत्कथनेनेत्यर्थः । किं तत्, स्तेयं परधनापहरणं । विध्याप्या रामयितव्या त्वया । काऽसावभिध्याऽपि परधनेच्छाऽपि । क इवाग्निरिव वन्हिर्यथा तापहेतुत्वात् । हि यस्मात् हिनस्ति हन्ति । कोऽसौ पुरुषः । कं, स्वमात्मानं । किं चिकीर्षन्, जिहीर्षन् हर्तुमिच्छन् । कान्, तदसून परप्राणान् । किं कुर्वन्, हरन् अदत्तं गृहन् । किं तत्, परस्वं परद्रव्यं । अयमन्त्राभिप्रायः- परधनं मुष्णतः परप्राणोपघातेच्छा अवश्यं भाविनी, परजिघांसाच आत्मनो हिंसा परमार्थतस्तस्या एव हिंसात्वात् । भावहिंसायामेव हि सत्यां द्रव्यहिंसा दुरन्तसंसा दुःखलक्षणं स्वफलं प्रयच्छतीति ॥ ८५ ॥ रात्री मुषित्वा कौशाम्बीं दिवा पञ्चतपश्चरन् । शिक्यस्थस्तापसोऽघोऽगात् तलारकृतदुर्मृतिः ॥ ८६ ॥ टीका—अधोऽगान्नरकं गतः । कोऽसौ, तापसो भौतिकः । किंविशिष्टः सन्, तलारकृतदुर्मृतिः तलवरेण प्रवर्तितप्रकृष्टरौद्रध्यानाविष्टमरणः । किं कुर्वन्, शिक्यस्थः परभूमिं न स्पृशामीति लम्बमाने शिक्ये स्थितः । पञ्चत Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । २३३ पश्चरन् पञ्चाग्निसाधनं कुर्वन् । क्व, दिवा दिने । किं कृत्वा, मुषित्वा मुषितं. धनां कृत्वा । कां, कौशाम्बी कौशाम्बीसज्ञनगरी तन्नगरीवास्तव्यलोकं । क्व, रात्रौ ॥ ८६ ॥ ब्रह्मचर्यदायविधापनार्थमाह पूर्वेऽपि बहवो यत्र स्खलित्वा नोद्गताः पुनः। तत्परं ब्रह्म चरितुं ब्रह्मचर्य परं चरेत् ।। ८७ ॥ टीका-वहवः प्रभूताः पूर्वे रुद्रादयः किं पुनरद्यतना मुनय इत्यपिशब्दार्थः । यत्र यस्मिन् ब्रह्मचर्याख्ये व्रते, स्खलित्वा अतिचारं प्राप्य, न पुनरुद्दता न तत्रात्मानमुपस्थापितवन्तोऽनाचारं चरितवन्त इत्यर्थः । तद्ब्रह्मचर्य चतुर्थव्रतं परमुत्कृष्टं मनागप्यतीचाररहितं कृत्वा चर धारय त्वं । किं कर्तुं, चरितुमनुभवितुं । किं तत्परमुत्कृष्टं निर्विकल्पं प्रत्यग्ज्योतिराख्यं, ब्रह्मा ज्ञानं, शुद्धस्वात्मानं स्वात्मना संवेदयितुमित्यर्थः ॥ ८७ ॥ नैग्रंथ्यव्रतं द्रढयितुमाह मिथ्येष्टस्य स्मरन् श्मश्रुनवनीतस्य दुमृतेः । मोपेक्षिष्ठाः क्वचिद् ग्रन्थे मनो मृर्छन्मनागपि ।। ८८ ॥ टीका--भोः सुविहितसाधो मा उपेक्षिष्ठाः माऽवधीरय त्वं । किं तन्मनः। किं कुर्वत्, मूर्च्छत् मुह्यत् ममेदमिति संकल्पं गच्छत् । क्व, क्वचित् क्वापि अन्थे परिग्रहे । कथं,मनागपि सर्वस्मिन् संगे चित्तं व्यासजदभ्याज त्वमित्यर्थः। किं कुर्वन् , स्मरन् । कस्य, इमश्रनवनीतस्य कस्यचिच्छेष्ठिपुत्रस्य । किंविशिष्टस्य, मिथ्येष्टस्य वितथमनोरथस्य । पुनः किंविशिष्टस्य, दुर्मतेः रौद्रध्यानमतस्य ॥ ८॥ निश्चयनयेन नैग्रन्थ्यप्रतिपत्त्यर्थमाह बाह्यो ग्रन्थोऽङ्गमक्षाणामान्तरो विषयैषिता। निर्मोहस्तत्र निग्रन्थः पान्थः शिवपुरेऽर्थतः ॥ ८९ ॥ टीका--भवति। कोऽसौ, बाह्यो बहिरङ्गो, ग्रन्थः परिग्रहः । किमङ्गं शरीरं । तथा आंतरोऽन्तरङ्गः सङ्गो भवति ।: किं, अक्षाणां स्पर्शनादीनां ___ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ सागारधर्मामृतेविषयैषिता स्पर्शादिविषयेष्वभिलाषः । तत्र द्वयोरपि ग्रन्थयोर्निर्मोहो निर्मूर्छः साधरर्थतः परमार्थेन निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहो भवति । तथा शिवपुरे निर्वाणनगरे पान्थो नित्यं प्रस्थायी स्यात् निर्ग्रन्थस्यैव मोक्षमार्गेऽविच्छिन्नं प्रस्थातुं समर्थत्वात् ॥ ८९ ॥ कषायेन्द्रियकृतापायाननुस्मारयन्नाह-- कषायेन्द्रियतन्त्राणां तत्तादृग्दुःखभागिताम् । परामृशन्मास्म भवः शंसितव्रत तद्वशः ॥९॥ टीका--भोः शंसितानि महद्भिरपि स्तुतानि व्रतानि यस्य स शंसितव्रत मा स्म भवः मा भूस्त्वं । किं विशिष्टस्तद्वशः कषायेन्द्रियपरतन्त्रः । किं. कुर्वन्, परमृशन् चिन्तयन् । कां, तत्तादृग्दुःखभागितां सा षष्टाध्याये निर्दिष्टा तादृगनन्यसाधारणी दुःखभागिता क्लेशानुभूतिस्तां। केषां, कषायेन्द्रियेषु आयत्तानां तदभिभूतानामित्यर्थः ॥ ९० ॥ एवं व्यवहाराराधनानिष्टतां विधाप्य निश्चयाराधनामुपदिशति श्रुतस्कन्धस्य वाक्यं वा पदं वाऽक्षरमेव वा । यत्किश्चिद्रोचते तत्रालम्ब्य चित्तलयं नय ॥ ९१ ॥ टीका-अहो व्यवहाराराधनापरिणत आराधकराज । यत्किंचिद्यत्किमपि रोचते तुभ्यं रुचिमुत्पादयति च । किं तद्वाक्यं वा बाह्यमाध्यात्मिकं वा, णमो अरहंताणमित्यादिकं पदं वा, अर्हमित्यादिकमक्षरमेव वा अ सि आ उ सा इत्यादीनामेकतम। कस्य सम्बन्धि, श्रतस्कन्धस्य श्रुतस्याङ्गप्रविष्टस्य आचाराङ्गादिद्वादशविकल्पस्य अङ्गबाह्यस्य च सामायिकादिभेदस्य प्रकीर्णका. ख्यस्य स्कन्धः सङ्घातस्तस्य मध्ये यत्किंचिद्वाक्यादिकमिदानी क्षीणशक्तेस्तवानुरागं जनयति । तत्र इष्टे वाक्यादीनामन्यतमे आलम्ब्य आसज्य चिरत्र भवतः प्रमाणं श्रुतस्कन्धवाक्यादीनां त्रयाणामपि भक्त्या भाव्यमा. नानां परमार्थाराधनासाधनसामर्थ्यनिर्णयात् । अक्षरमेवेत्यत्र एव शब्दश्च स्वयोग्यव्यवस्थापकः ॥ ९१ ॥ शुद्धं श्रुतेन स्वात्मानं गृहीत्वार्य स्वसंविदा । भावयंस्तल्लयापास्तचिन्तो मृत्वैहि निर्वृतिम् ॥ ९२ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । २३५ ___टीका-हे आर्य आराधनातत्पर । एहि गच्छ त्वं । कां, निर्वृति मुक्ति। किं कृत्वा, मृत्वा प्राणान् विसृज्य । कथम्भूतो भूत्वा, तल्लयापास्तचिन्तः तत्र शुद्धस्वात्मनि लयः श्लेषस्तल्लयस्तन्मयीभावस्तेन अपास्ता निराकृता चिन्ता संकल्पश्चित्तं वा मनो यस्य स तथोक्तः । किं कुर्वन् , भावयन् । कं, शुद्धं रागद्वेषमोहरहितं स्वात्मानं निजचिद्गपं । कया,स्वसंविदा स्वसंवेदनेन । किं कृत्वा, गृहीत्वा निश्चित्य । केन, श्रुतेन 'एगो मे संसदो आदा' इत्यादिश्रुतज्ञानेन । मत्वेहीत्यत्र ओमाङोरित्यनेन परस्वरूपं । उक्तं च क्षेत्रपात्रे द्वे ज्ञातव्ये । "आराधनोपयुक्तः सन् सम्यक्कालं विधाय च । उत्कर्षात्रिभवान् गत्वा प्रयाति परिनिर्वृतिम् " ॥ ९२ ॥ उक्तमेवार्थ परमार्थसंन्यासोपंदेशद्वारेण समर्थयत संन्यासो निश्चयेनोक्तः स हि निश्चयवादिभिः ।। यः स्वस्वभावे विन्यासो निर्विकल्पस्य योगिनः।।९३॥ टीका-हि यस्मान्निश्चयवादिभिर्व्यवहारनयसापेक्षनिश्चयनयप्रयोगचतुरैः सूरिभिनिश्चयेन परमार्थेन स संन्यास उक्तः मुमुक्षूणामग्रे प्ररूपितः । यः किं, यो विन्यासः विधिपूर्वकमात्मनः स्थापनं। क, स्वस्वभावे शुद्धचिदानन्दमये स्वात्मनि । कस्य, योगिनः समाधिमतः । किंविशिष्टस्य, निर्विकल्पस्य अन्तर्जल्पसंपृक्तोत्प्रेक्षाजालनिष्क्रान्तस्य ॥ ९३ ॥ परीषहादिना विक्षिप्यमाणचित्तस्य क्षपकस्य निर्यापकाचार्यः किं कुर्यादित्याह परीषहोऽथवा कश्चिदुपसर्गो यदा मनः । क्षपकस्य क्षिपेज्ज्ञानसारैः प्रत्याहरेत्तदा ॥ ९४ ॥ टीका--यदा यस्मिन्काले क्षिपेद्यत्र तत्र भ्रमयेत् । कोऽसौ, कश्चित् कोऽपि क्षुधादीनामन्यतमः परिषहोऽथवा कश्चिदचेतनकृतादीनामन्यतम उपसर्गो वा । किं तन्मनः । कस्य, आराधकस्य । तदा प्रत्याहरेत् व्यावर्तयेत् शुद्धस्वारमोन्मुखं तत्कुर्यादाचार्यः । कैः, ज्ञानसारैः श्रुतज्ञानरहम्योपदेशैः ॥९४॥ ज्ञानसाररित्येतत् प्रपंचयितुमुत्तरप्रबन्धमाहं - ___ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARNAAKAALAnan...RAN २३६ सागारधर्मामृतेदुःखाग्निकीलैराभीलैनरकादिगतिष्वहो । तप्तस्त्वमङ्गसंयोगात् ज्ञानामृतसरोऽविशन् ॥ ९५ ॥ टीका-अहो भावकप्रवेक तप्तः सन्तप्तस्त्वं । कैदुःखानिकीलैः शारीरमानसाशान्तदहनज्वालाभिः । किंविशिष्टैः, आभीलैः कष्टैः प्रतिकर्तुमशक्यैरित्यर्थ : । कासु, नरकादिगतिषु नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवभवग्रहणेषु । कस्मादंगसंयोगात् शरीरसंश्लेषात्, शरीरमात्मबुध्द्याध्यवस्यन्नित्यर्थः । किं कुर्वन्, अविशन् अप्रविशन् अनवगाहमानः । किं तत्, ज्ञानामृतसरः अन्यच्छरीरमन्योऽहमित्यादिभेदोपलम्भपीयूषतडागम् ॥ १५ ॥ इदानीमुपलब्धात्मदेहभेदाय साधुभिः । सदाऽनुगृह्यमाणाय दुःखं ते प्रभवेत्कथम् ।। ९६ ॥ टीका-इदानी सम्प्रति । कथं प्रभवेत् । किं तत्, दुःखं । कस्मै, ते तुभ्यं । केनाऽपि प्रकारेण त्वामभिभवितुं परिषहादिदुःखं न शक्नुयादित्यर्थः। किंविशिष्टाय ते, उपलब्धात्मदेहभेदाय निश्चितस्वात्मशरीरव्यतिरेकाय । पुनः किंविशिष्टाय, अनुगृह्यमाणाय उपक्रियमाणाम । कैः, साधुभिः संयतैः। कथं, सदा नित्यम् ॥ ९६ ॥ दुःखं सकल्पयन्ते ते समारोप्य वपुर्जडाः । स्वतो वपुः पृथक्कृत्य भेदज्ञाः सुखमासते ॥९७ ॥ टीका-संकल्पयन्ति ममेदमिति व्यवस्यन्ति। के, ते जडाः बहिरात्मानः। किं तत्, दुःखं अहं दुःखवानस्मीति प्रतिपद्यन्त इत्यर्थः । किं कृत्वा, समारोप्य सन्मुखं योजयित्वा । किं तद्वपुः शरीरं । क्क, स्वे आत्मनि स्वदेहं स्वात्मतयां निश्चित्येत्यर्थः । भेदज्ञा आत्मशरीरविवेकविदः । पुनरासते तिष्टंति । कथं, सुखं स्वात्मदर्शनोत्थमानन्दमनुभवन्तीत्यर्थः । किं कृत्वा, पृथक्कृत्य भेदेनाध्यवसाय्य । किं तद्वपुः । कस्मात्स्वतः शरीरमात्मनो भिन्नं निश्चित्य । तद्भेदभावना यथा-न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो न्यथा । नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले ॥ जीवोऽन्यः पुद्गलश्वान्य इत्यादि ॥ ९७ ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः। २३७. vn avar ... परायत्तेन दुःखानि बाढं सोढानि संसृतौ ।। त्वयाऽद्य स्ववशः किंञ्चित् सहेच्छनिर्जरां पराम्।।९८॥ टीका-त्वया समाधिसाधनोद्यतेन भवता बाढमत्यर्थं सोढानि अनुभूतानि। कानि, दुःखानि । क्क, संसृतौ अनादिसंसारे। किंविशिष्टेन सता, परायत्तेन परवशेन । अद्य सम्प्रति प्रत्यासन्नमत्युसमये सह साम्यभावनयाऽनुभव । कानि, दुःखानि । कथं, किंचित् स्तोकं अल्पकालं । किंविशिष्टः सन्, स्ववशः स्वाधीनः । किं कुर्वनिच्छन् वांछन् निर्जरामशुभकर्मक्षयं । किंविशिष्टां,परां. उत्कृष्टांमन्त्यां वा अलब्धपूर्वां संवरसहभाविनीम् ॥ ९८ ॥ यावद् गृहीतसंन्यासःस्वं ध्यायन् संस्तरे वसेः। तावनिहन्या कर्माणि प्रचुराणि क्षणे क्षणे ॥ ९९ ॥ टीका-यावत् यावन्तं कालं, गृहीतसंन्यासः प्रतिपन्नभक्तप्रत्याख्यानस्त्वं स्वमात्मानं ध्यायन्नेकाग्रतया चिन्तयन् संस्तरे प्रस्तरे वसेस्तिष्ठेस्तावत् तावन्तं कालं क्षणे क्षणे प्रचुराणि कर्माणि निहन्या नियतमवश्यं क्षपयेः॥९९॥ पुरुषायान् बुभुक्षादिपरीषहजये स्मर । घोरोपसर्गसहने शिवभूतिपुरःसरान् ॥ १०० ॥ टीका--किं च बुभुक्षादिपरीषहजये कर्तव्ये स्मर चिन्तय त्वं । कान्, पुरुषायान् वृषभदेवादीन् । तथा घोरोपसर्गसहने कर्तव्ये शिवभूतिप्रभृतीन् स्मर ॥ १० ॥ अचेतनकृतोपसर्गसहने दृष्टान्तः तृणपूलबृहत्पुञ्जे संक्षोभ्योपरि पातिते । वायुभिः शिवभूतिः स्वं ध्यात्वाऽभूदाशु केवली॥१०१॥ टीका-अभूत्सम्पन्नः । कोऽसौ, शिवभूतिः शिवभूतिसंज्ञो मुनिः । किंविशिष्टः, केवली केवलज्ञानी । कथमाशु सद्यः । किं कृत्वा, ध्यात्वा प्रणिधाय । कं, स्वमात्मानं । क्व सति, तृणपूलबृहत्पुझे लोके गंजी इति प्रासिद्धे । किंवि Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ सागारधर्मामृतेशिष्टे, पातिते । कैर्वायुभिः । व, उपरि उपरिष्टात् । किं कृत्वा, संक्षोभ्य समन्तादितस्ततः क्षोभयित्वा संचाल्य ॥१०॥ मनुष्यकृतोपसर्गसहनोपाख्यानमिदम्न्यस्य भूषाधियाऽङ्गेषु सन्तप्ता लोहशृङ्खलाः। द्विदपक्ष्यैः कीलितपदाः सिद्धा ध्यानेन पाण्डवाः ॥१०२॥ टीका--सिद्धाः परममुक्तिं गताः । के, ते पाण्डवाः साक्षाद्युधिष्टिरभीमसेनार्जुनास्त्रयः सिद्धाः। नकुलसहदेवौ त्वसाक्षात् सर्वार्थसिध्द्यादिजन्मनः व्यवधानात् । केन, ध्यानेन शुद्धस्वात्मप्रसंख्यानेन । किंविशिष्टाः संतः, कीलितपदाः लोहकीलकैर्भूम्या सह यंत्रितपादाः । कैः, द्विट्पक्ष्यैः द्विषां कौरवाणां पक्षे भवैः तदागिनेयादिभिः । किं कृत्वा, न्यस्य निक्षिप्य । काः, लोहशृङलाः । किंविशिष्टाः, तप्ता: ज्वलज्ज्वालीकृताः । केषु, अङ्गेषु पाण्डवानां कण्ठादिप्रदेशेषु । कया, भुषाधिया भूषणकल्पनया । युष्मान् हेमाभरणानीमानि परिदापयाम इति कथयित्वेत्यर्थः ॥ १०२ ।। तिर्यकृतोपसर्गसहनोदाहरणमिदम्शिरीषसुकमाराङ्गः खाद्यमानोऽतिनिदेयम् । मृगाल्या सुकुमारोऽमून् विससर्ज न सत्पथम् ।।१०३।। टीका--विससर्ज त्यक्तवान् । कोऽसौ, सुकुमारः सुकुमारस्वामी । कान्, असून् प्राणान् न पुनः सत्पथं शुद्धस्वात्मध्यानरूपं सिध्धुपायं विससर्ज । किं क्रियमाणः, खाद्यमानः भक्ष्यमाणः । कया, सगाल्या जम्बुकस्त्रिया। कथमतिनिर्दयं प्रकामनिष्कृपं । किंविशिष्टः सन्, शिरीषसुकुमाराङ्गः शिरीपकुसुमसमानकोमलकायः ॥ १० ॥ सुरकृतोपसर्गसहने निदर्शनमिदम् तीव्रदुःखैरतिद्धभूतारब्धैरितस्ततः। भग्नेषु मुनिषु प्राणानौज्झद्विधुच्चरः स्वयुक् ॥ १०४ ॥ टीका-औज्झत्त्यजति स्म । कोऽसौ, विद्युच्चरः । कान्, प्राणान् । किविशिष्टः सन्, स्वयुक् आत्मानं समादधानः । केषु सत्सु, मुनिषु तपोधनेषु । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । किंविशिष्टेषु, भग्नेषु प्रपलायितेषु । व, इतस्ततः यत्र तत्र । कैः, तीव्रदुःखैः नितान्तासाबाधाभिः । किंविशिष्टैरतिक्रुद्धभूतारब्धैः अत्यन्तकुपिताधमव्यन्तरोपक्रान्तैः ॥ १०४ ॥ अचेन्नृतियग्देवोपसृष्टसंक्लिष्टमानसाः ।। सुसत्त्वा बहवोऽन्येऽपि किल स्वार्थमसाधयन् ॥१०५॥ टीका-किल आगमे ह्येवं श्रूयते । सुसत्त्वा महासात्त्विका अन्येऽपि शिव. भूत्यादिभ्योऽपरेऽपि, बहवो भूयांसः, स्वार्थ पुरुषार्थ प्रकरणान्मोक्षलक्षणमसाधयन् निष्पादितवन्तः । कथम्भूता भूत्वा, अचेदित्यादि । अचेतोऽचेतनाः पृथिव्यादयः, नरो मनुष्याः तिर्यञ्चो तैर्यग्योना देवाः सुराः अचेतश्च नरश्च तिर्यञ्चश्व देवाश्च अचेन्नृतिर्यग्देवास्तैरुपसृष्टा कृतोपसर्गास्ते च ते असंक्लिष्टमानसाश्च रागद्वेषमोहानाविष्टचेतसः शुद्धस्वात्मध्यानपरिणताः अचेन्नृतिर्यग्देवोपटसंक्लिष्टमानसाः ॥ १०५ ॥ तत्त्वमप्यङ्ग सङ्गत्य निःसङ्गेन निजात्मना । त्यजाङ्गमन्यथा भूरिभवक्लेशैर्लपिष्यसे ॥ १०६ ॥ टीका-अंग अहो महात्मन् । यत एवं महानुभावैर्मुमुक्षुभिर्भगवच्छिवभूतिप्रभृतिभिः अत्यन्तविनिगरातोपनिपातेऽपि स्वार्थः साधितस्तत्तस्मात्त्वमपि भवानपि त्यज मुञ्च । किं तदङ्गं देहं । किं कृत्वा, सङ्गत्य संयुज्य । केन सह, निजात्मना आत्मीयेन तेन वा चिद्रूपेण । किंविशिष्टेन, निःसङ्गेन कर्मविविक्तेन । अन्यथा अन्येन संक्लेशावेशप्रकारेण अङ्गत्यागे ग्लपिष्यसे विक्लवीकरिष्यसे त्वं । कैः कर्तृभिर्भूरिभवक्लेशैः प्रचुरसंसारदुःखैः । उक्तंच" विराद्धे मरणे देव दुर्गतिर्दूरचोदिता। अनन्तश्चापि संसारः पुनरप्यागमिष्यति ॥ १०६ ॥ श्रद्धा स्वात्मैव शुद्धःप्रमदवपुरुपादेय इत्याजसीहक् तस्यैव स्वानुभूत्या पृथगनुभवनं विग्रहादेश्व संवित् । तत्रौत्यन्ततृप्त्या मनसि लयमितेऽवस्थितिः स्वस्य चर्या स्वात्मानं भेदरत्नत्रयपरपरंम तन्मयं विद्धि शुद्धम् ॥१०७॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सागारधर्मामृते टीका -- किं च उपदिश्यते सद्गुरुभिरसौ । दृक् दृष्टिः । किंविशिष्टा, ओजसी पारमार्थिकी । किं, श्रद्धा अभिनिवेशः । कथं भवति । कोऽसौ, स्वात्मैव न परात्मा । किंविशिष्टः, शुद्धो द्रव्यभावकर्मरहितः । पुनः किंविशिष्टः प्रमदवपुरानन्दरूपः । किंविशिष्टो भवत्युपादयो मुमुक्षूणामुपेयः । इत्येवंरूपा श्रद्धैव निश्वयसम्यक्त्वमाख्यायते । तथा संविदांजसी निश्चयज्ञानं सद्गुरुभिरुपदिश्यते । किमनुभवनमनुभूतिः । कस्य, तस्यैव शुद्धप्रमदवपुस्त्वेनोपादीयमानस्य स्वात्मन एव । कथं पृथक् भेदेन । कस्माद्विग्रहादेः कायवाङ्मनस्त्रयात् । कया, स्वानुभूत्त्या स्वसंवित्त्या । तथा सद्गुरुभिराञ्जसी चर्या निश्चयचारित्रं चोपदिश्यते । किमवस्थितिरवस्थानं । कस्य, स्वस्थात्मनः । क्व, तत्रैव तथाप्रतीयमानेऽनुभूयमाने स्वात्मन्येव । व सति, मनस्यन्तःकरणे । किंविशिष्टे, इते गते प्राप्ते । कं, लयं तन्मयीभावं 1 क तत्रैव कया, अत्यन्ततृप्त्या अतिमानवैतृष्ण्येन । उक्तं च- - दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥ १ ॥ तन्मयं तेन निश्चयरतत्रयेण निर्वृतं तदात्मकं स्वात्मानं, परमं शुद्धं परमप्रकर्षशुद्धिप्राप्तं । हे भेदरत्नत्रयपर व्यवहाररत्रत्रयप्रधान आराधकोत्तम विद्धि जानीहि संवेदय त्वं ॥ १०७ ॥ 1 मुहुरिच्छामणुशोऽपि प्राणिहत्य श्रुतपरां श्रुतद्रव्ये । स्वात्मनि यदि निर्विघ्नं प्रतपसि तदास धुवं तपसि ॥ १०८ ॥ टीका - तथा यदि चेत् प्रतपसि दीप्यसे त्वं । क्क, स्वात्मनि । कथं, निर्विघ्नं निष्प्रत्यूहं । किं कृत्वा, प्रणिहत्य प्रकर्षेण नियतं हत्वा । कां, इच्छां कांक्षां | क, परद्रव्ये पुद्गलादौ । किंविशिष्टाणुशोऽपि स्वल्पामपि । किंविशिष्टः सन्, मुहुरसकृत् श्रुतपरः श्रुतज्ञानभावनापरिणतो भनन्नित्यर्थः । तदा ध्रुवं निश्चितं तपसि अव्याहतं स्फुरसि त्वं । क्व तपसि तपः सज्ञे साक्षान्मोक्षोपाये । आभ्यां निश्चयाराधनाचातुर्विध्यमुपदिष्टं प्रतिपत्तव्यं ॥ १०८ ॥ इदानीं व्यवहारेतराराधनासाध्यमानपरमानन्दलाभाविष्करणलक्षणेनाशीर्वाददानेन क्षपकं निर्यापकाचार्य: प्रोल्लासयन्नाहनैराश्यारब्धनैः संग्यसिद्धसाम्यपरिग्रहः । निरुपाधिसमाधिस्थः पिवानन्दसुधारसम् ॥ १०९ ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोध्यायः । २४१ टीका-भोः सुविहित शिरोरत्न । पिब उपर्युक्ष्व त्वं । कमानन्दसुधारसं प्रमोदपीयूषनिर्यासं । किं विशिष्टः सन् , निरुपाधिसमाधिस्थः निरुपाधिनिर्विशेषो ध्यातृध्यानध्येयविकल्पशून्यः समाधिोगो निरुपाधिसमाधिस्तत्र स्थितः । कथम्भूतो भूत्वा, नैराश्येत्यादि । नैराश्येन जीवितधनाद्याकांक्षानिग्रहेणारब्धमुपक्रान्तं नैस्संग्यं बहिरङ्गान्तरङ्गपरिग्रहनिष्क्रान्तत्वं तेन सिद्धो निष्पन्नः साम्यपरिग्रहः परमसामायिकस्वीकारो यस्य स तथोक्तः ॥ १०९ ॥ साम्प्रतमध्यायार्थमशेषमुपसंगृह्णन्नाराधकस्याराधनासहितमरणफलवि. शेषमुपदिशतिसंलिख्येति वपुः कषायवदलङ्कर्मीणनिर्यापकन्यस्तात्मा श्रमणस्तदेव कलयं ल्लिंग तदीयं परः । सदनत्रयभावनापरिणतः प्राणान् शिवाशाधरस्त्यक्त्वा पश्चनमस्क्रियास्मृति शिवी स्यादष्टजन्मान्तरे॥११०॥ टीका-शिवी स्यादशिवः शिवः सम्पद्यते परममुक्तो भवेदित्यर्थः । कोsसौ, शिवाशाधरः मोक्षायाभिलाषभृन्मुमुक्षुरित्यर्थः । किं कृत्वा, त्यक्त्वा । कान् , प्राणान् । किं विशिष्टः सन् , सदित्यादि। सत्या यथागुणस्थानं सम्भवत्या रत्नत्रयभावनया निश्चयरत्नत्रयाभ्यासेन परिणतो योगी चरमसमयवर्ती समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपातिशुल्कध्यानारूढः । किं कुर्वन् , कलयन् धारयन् । किं तल्लिंङ्गं जिनरूपतां । किं, तदेव पूर्वगृहीतमौत्सर्गिकमेव । किमाख्योऽसौ, श्रमणः श्रवण इति व्यपदेशभाक् । कथंभूतो भूत्वा; अलंकरुणानिर्यापकन्यस्तात्मा कर्मणे प्रकृतत्वात्संसारार्णवनिस्तारणलक्षणाय अलं समर्थोऽलंकर्मीणः निर्यापको व्यवहारेण सुस्थिताचार्यो निश्चयेन तु शुद्धस्वात्मानुभूतिपरिणामोन्मुख आत्मैव तस्यैव दुःखहेतोवा आत्मनो निष्कासकत्वोपपत्तेः । यदाह-स्वस्मिन्सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः । स्वय हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः ॥ १ ॥ अलंअरुणश्चासौ निर्यापकश्च अलंकर्मीणनिर्या'पकस्तत्र न्यस्तो निक्षिप्तः समर्पित आत्मा येन स तथोक्तः । किं कृत्वा, संलिख्य सम्यक् कृशीकृत्य । किं तद्वपुः,शरीरं । किंवत्,कषायवत् कषायान् शरीरं च बाह्याभ्यंतरतपोभिस्तनूकृत्य कथमित्येवमुक्तप्रकारेण । तदुत्कृष्टाराधनापक्षे व्याख्यानं ॥ मध्यमाराधनापक्षे संप्रति व्याख्यायते-श्रमणोऽनगारः शिवा Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सागारधर्मामृत शाधरो मुमुक्षुः सन् तदेव लिङ्गमाचेलक्यादिचतुर्विकल्पं कलयन् सत्यां समीचीनायां संवरसहभाविपापकर्मनिर्जरासमर्थायां रत्नत्रय भावनायां सम्यग्दर्श नादिरत्नत्रयाभ्यासे परिणत उपयुक्तः सन् प्राणांस्त्यक्त्वा शिवी स्यात् शिवमनेंद्रादिपदप्राप्तिलक्षणोऽभ्युदयः । शिवमस्यास्तीति शिवो अर्श आदेरित्यनेन मत्वर्थीयो अः प्रत्ययः । शेषं पूर्ववन्द्याख्येयं ॥ ऐदंयुगीनापेक्षया जघन्याराधनापक्षे तदेवेत्थं व्याख्येयं श्रमणः प्राख्याख्यातार्थवेशेषणविशिष्टः पंचनमस्क्रियायां पंचनमस्कारे स्मृतिः चिंता उच्चारणं यत्र तत्पंचनमस्क्रियास्मृतिः यथा भवत्येवं प्राणांस्त्यक्त्वा शिवी स्यात् । क्व, अष्टजन्मांतरे अष्टानां भवानां मध्ये उत्कृष्टमध्यमजघन्याराधनानुभवादन विभागः कर्तव्यः । तथा त्यागमः । कालाई अहिऊण च्छित्तूणं अट्ठकम्मसंखलयं । केवलणाणपहाणा केई सिज्यंति तंमि भवे ॥ १ ॥ आराहिऊण केई चउव्विहाराहणायि जं सारं । उवरियसेसपुंण सव्वट्टणिवासिणो होंति || २ || जेसिं होज्ज जहंणा चउविहाराहणा हु भवियाणं । सत्तठुभवे गंतुं ते चिय पावंति णिव्वाणं ॥ ३ ॥ अपि च- येsपि जघन्या तेजोलेश्यामाराधनामुपनयंति । तेऽपि च सौधर्मादिषु भवंति देवाः सुकल्पस्थाः ॥ १ ॥ अथवा — ध्यानाभ्यासप्रकर्षेण त्रुटयमोहस्य योगिनः । चरमांगस्य मुक्तिः स्यात्तदेवान्यस्य च क्रमात् ॥ १ ॥ तथाह्यंचर मांगस्य ध्यानमभ्यस्यतः सदा । निर्जरा संवरश्च स्यात्सकलाशुभकर्मणां ॥ २ ॥ आस्रवंति च पुण्यानि प्रचुराणि प्रतिक्षणं । यैर्महद्भिर्भवत्येषत्रिदशः कल्पवासिषु ॥ ३ ॥ तत्र सर्वेन्द्रियाह्लादि मनसः प्रीणनं परं ॥ सुखामृतं पिवन्नास्ते सुचिरं सुरसेवितः ॥ ४ ॥ ततोऽवतीय मत्येऽपि चक्रवयदि संपदः । चिरं भुक्त्वा स्वयं मुक्त्वा दीक्षां दैगंबरीं श्रितः ॥ ५ ॥ वज्रकायः स हि ध्यात्वा शुक्लध्यानं चतुर्विधं । विधूयाष्ट च कर्माणि श्रयते मोक्षसंपदम् ॥ ६ ॥ तदेतच्छ्मणधर्मधारिणः प्रति फलमुपदिष्टं, तदितरान् प्रति पुनरिदमुपदिश्यते । तदीयं पर इत्यस्य व्याख्यानन - परः श्रावकोऽन्यो वा सद्दृष्टिस्तदीयं श्रमणसंबंधी लिंगं कलयन् पंचनमस्क्रियास्मृतिः प्राणांस्त्यक्त्वा शिवी स्यादिति संबंधः । शेषं पूर्ववत् यथास्वं विकल्प्य व्याख्येयं ॥ यत स्वामी - खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पंचनमस्कारम नास्तनुं त्यजेत्सवयत्नेन ।। इति भद्रम् ॥ ११० ॥ इत्याशाधरविरचितायां स्वोपज्ञधर्मामृतसागारधर्मटीकायां भव्यकुमुदचन्द्रिका सञ्ज्ञायामादित; सप्तदशः प्रक्रमाच्चाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ amarrma →-0६ - ग्रन्थकर्तुः प्रशस्तिः । प्रन्थकर्तुः प्रशस्तिः । श्रीमानस्ति सपादलक्षविषयः शाकंभरीभूषणस्तत्र श्रीरतिधाम मण्डलकरं नामास्ति दुर्ग महत् । श्रीरल्यामुदपादि तत्र विमलव्याघेरवालान्वया च्छ्रीसल्लक्षणतो जिनेन्द्रसमयश्रद्धालुराशाधरः ॥१॥ श्रीमान् त्रिवर्गसंपत्तियुक्तः । शाकंभरी लवणाकरविशेषः। श्रीरतिधाम लक्ष्मीक्रीडागृहं श्रीरन्यां रत्नीति कविमातुः संज्ञा उदपादि उत्पन्नः ॥१॥ सरस्वत्यामिवात्मानं सरस्वत्यामजीजनत् । यः पुत्रं छाहडं गुण्यं रन्जितार्जुनभूपतिम् ॥ २ ॥ व्यारवालवरवंशसरोजहंसः काव्यामृतौघरसपानसुतृप्तगात्रः। सल्लक्षणस्य तनयो नयविश्वचक्षु. राशाधरो विजयंतां कलिकालिदासः ॥ ३ ॥ इत्युदयसेनमुनिना कविसुहृदा योऽभिनन्दितः प्रीत्या प्रज्ञापुजोऽसीति च योऽभिमतो मदनकीर्तियति पतिना ॥४॥ (युग्मम् ) म्लेच्छेशन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षतित्रासाद्विन्ध्यनरेन्द्रदो परिमलस्फूर्जस्त्रिवर्गोऽजसि ! प्राप्तो मालवमण्डले बहुपरीवारः पुरीमावसन् यो धारामपठन्जिनप्रमितिवाक्शास्त्रे महावीरतः ॥५॥ म्लेच्छेशेन साहिवुदीनतुरुष्कराजेन । सुवृत्तक्षतिः सदाचारनाशः । दो:परिमलः परिमलो लक्षणावृत्त्या बलं बाहुबलातिशय इत्यर्थः । ओजः उत्साहोऽन्तःसारो वा । जिनप्रमितिवाक्शास्त्रे जैनेंद्रप्रमाणशास्त्रं जैनेंद्रव्याकरणं च । महावीरतः वादिराजपण्डितश्रीमद्धरसेनशिष्यात्पण्डितमहावीरात् ॥५॥ ___ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VAAAAAA २४४ सागारधर्मामृतेआशाधरत्वं मयि विद्धि सिद्धं निसर्गसौन्दर्यमजयमार्य। सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाच्यमयः प्रपञ्चः ॥ ६॥ अजयं मैत्री सरस्वतीपुत्रतया निसर्गसौंदर्य प्रकृत्या सहोदरत्वं ॥ ६ ॥ इत्युपश्लोकितो विद्वन्दिल्हणेन कवीशिना । श्रीविन्ध्यभूपतिमहासन्धिविग्रहिकेण यः ॥ ७॥ इति उपश्लोकितः श्लोकेनोपस्तुतः । श्रीविंध्यभूपतिः विजयवर्मा नाम मालवाधिपतिः ॥ ७ ॥ श्रीमदर्जुनभूपालराज्ये श्रावकसंकुले । जिनधर्मोदयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत् ॥ ८ ॥ यो द्राग्व्याकरणाब्धिपारमनयच्छुश्रूषमाणान्न कान् सत्तर्के परमास्त्रमाप्य न यतः प्रत्यर्थिनः केक्षिपन् । चेरुः केस्खलितं न येन जिनवाग्दीपं पथि ग्राहिताः पीत्वा काव्यसुधां यतश्च रसिकेष्वापुः प्रतिष्ठान के ॥९॥ कान् , पंडितदेवचंद्रार्दन प्रत्यर्थिनः प्रतिवादिनः । के, वादीद्रविशाल. कीर्त्यादयः अक्षिपन् जयंति स्म । चेरुः प्रवृत्ताः। के, भट्टारकदेवविनयभद्रादयः । अस्खलितं निरतिचारं । जिनवाक् अर्हत्प्रवचनं । पथि मोक्षमार्गे ग्राहिताः स्वीकारिताः । रसिकेषु सहृदयविदग्धेषु मध्ये । आपुः प्राप्ताः । के, बालसरस्वतीमहाकविमदनादयः ॥ ९ ॥ स्याद्वादविद्याविशदपसादः प्रमेयरत्नाकरनामधेयः । तर्कप्रबन्धो निरवद्यविद्यापीयूषपूरो वहति स्म यस्मात् ॥१०॥ सिध्यङ्क भरतेश्वराभ्युदयसत्काव्यं निबन्धोज्ज्वलं यस्त्रविद्यकवीन्द्रमोहनमयं स्वश्रेयसेऽरीरचत् । योऽर्हद्वाक्यरसं निबन्धरुचिरं शास्त्रं च धर्मामृतं निर्माय न्यदधान्मुमुक्षुविदुषामानन्दसान्द्रे हृदि ॥११॥ सिध्द्यङ्क सिद्धिः सिद्धशब्दोऽङ्कश्चिन्हं सर्गप्रांतवृत्तेषु यस्य तत्। निबंधोज्ज्वलं स्वयंकृतनिबंधनेन स्फुटप्रतिभासं । अरीरच रचयति स्म । अर्हद्वाक्य Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्तुः प्रशस्तिः । २४५ रसं जिनागमनिर्यासभूतं निबंधरुचिरं । स्वयंकृतज्ञानदीपिकाख्यपंजिकया रमणीयं धर्मामृतं धर्मामृताख्यं न्यदधात् स्थापयति स्म ॥ ११ ॥ आयुर्वेदविदामिष्टां व्यक्तं वाग्भटसंहिताम् । अष्टाङ्गहृदयोद्योतं निबन्धमसृजच्च यः ॥ १२ ॥ व्यक्तुं प्रकटीकर्तुं । वाग्भटसंहितां अष्टांगहृदयनाम्नीं ॥ १२ ॥ यो मूलाराधनेष्टोपदेशादिषु निबन्धनम् । व्यधत्तामरकोशे च क्रियाकलापमुजगौ ॥ १३ ॥ आदिः आराधनासारभूपालचतुर्विंशतिस्तवनाद्यर्थः । उज्जगो उत्कृष्टं कृतवान् ॥ १३॥ रौद्रटस्य व्यधात्काव्यालङ्कारस्य निबन्धनम् । सहस्रनामस्तवनं सनिबन्धं च योऽहेताम् ॥ १४ ॥ रौद्रटस्य रुद्रटाचार्यकृतस्य । अर्हतां अनंतजिनानां ॥ १४ ॥ सनिबन्धं यश्च जिनयज्ञकल्पमरीरचत् । त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्रं यो निबंन्धालंकृतं व्यधात् ॥ १५ ॥ सनिबन्धं स्वयंकृतेन जिनयज्ञकल्पदीपकारटोननिबन्धेन सहितं जिनयज्ञकल्पं जिनयज्ञकल्पाख्यं जिनप्रतिष्ठाशास्त्रं अरीरचत् निर्मितवान् । त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्रं आर्षमहापुराणशास्त्रोद्धृतत्रिषष्टिशलाकापुरुषवृत्तगोचरं त्रिषष्टिस्मृतिसंशं संक्षिप्तशास्त्रं । निबन्धालङ्कृतं स्वयंकृतनिबन्धेन भूषितं ॥ १५ ॥ अहन्महाभिषेकाचर्चाविधिं मोहतमोरविम् । चक्रे नित्यमहोद्योतं स्नानशास्त्रं जिनेशिनाम् ॥ १६ ॥ नित्यमहोद्योतं नित्यमहोद्योताख्यं ॥ १६ ॥ रत्नत्रयविधानस्य पूजामाहात्म्यवर्णनम् । रत्नत्रयविधानाख्यं शास्त्रं वितनुते स्म यः ॥ १७ ॥ सोऽहमाशाधरो रम्यामेतां टीकां व्यरीरचम् । धर्मामृतोक्तसागारधर्माष्टाध्यायगोचराम् ॥ १८ ॥ धर्मामृतोक्ताः स्वकृतधर्मामृताख्यशास्त्रे निगदिताः ॥ १८ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ सागारधर्मामृते MyIN प्रमारवंशवाधीन्दुदेवपालनृपात्मजे । श्रीमज्जैतुगिदेवेऽसिस्थेम्नाऽवन्तीमवत्यलम् ॥ १९ ॥ असिस्थेम्ना खड्गजलेन अवति रक्षति सति ॥ १९ ॥ नलकच्छपुरे श्रीमन्नैमिचैत्यालयेऽसिधत् । टीकेय भव्यकुमुदचन्द्रिकेत्युदिता बुधैः ॥ २० ॥ असिधत् सिद्धा ॥ २०॥ षण्णवव्येकसंख्यानविक्रमाङ्कसमात्यये । सप्तम्यामसिते पौषे सिद्धेयं नन्दताचिरम् ॥ २१ ॥ समः संवत्सराः १२९६ वर्षे पौषे सप्तमीदिने शुक्रदिने इत्यर्थः ॥ २१ ॥ श्रीमान् श्रेष्ठिसमुद्धरस्य तनयः श्रीपौरपाटान्वयव्योमेन्दुः सुकृतेन नन्दतु महिचन्द्रोयदभ्यर्थनात् । चक्रे श्रावकधर्मदीपकमिमं गन्थं बुधाशाधरो ग्रन्थस्यास्य च लेखतोऽपि विदधे येनादिमः पुस्तकः ॥२२॥ अलमतिप्रसङ्गेन ॥ २२ ॥ यावत्तिष्ठति शासनं जिनपतेश्छिन्दानमन्तस्तमो यावच्चानिशाकरौ अकुरुतः पुंसां दृशामुत्सवम् । तावत्तिष्ठतु धर्ममूरिभिरियं व्याख्यायमानानिशं भव्यानां पुरतोऽत्र देशविरताचारप्रचारोद्धरा ॥१३॥ ग्रंथसंख्या। अनुष्ठपच्छन्दसां पञ्चशताग्राणि सतां मता। सहस्राण्यस्य चत्वारि ग्रन्थस्य प्रमितिः किल ॥ २४॥ अङ्काग्रतो ग्रन्थप्रमाणं ४,५०० शुभं भवतु लेखकपाठकयोः ॥ २४ ॥ समाप्तोऽयं ग्रंथः Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द हीराचन्दजी जे. पी. के स्मारक फंडमें। चन्दा देनेवालोंकी सूची। [जिन नामोंके साथ * चिन्ह लगा है, उनका चन्दा वसूल नहीं हुआ है। २००१) श्रीमान् सेठ हुकमचन्दजी दानवीर ५०१) गुरमुखराय सुखानन्दजी २५१) गुरमुखराय निहालचन्दजी २५१) नाथारंगजी गांधी. २०१) अनूपचन्द माणिकचन्दजी १०१) खेमचन्द मोतीचन्दजी १०१) हीराचन्द नेमचन्दजी, शोलापुर १०१) रेवचन्द धनजी, गुंजोटीवाला, शोलापुर १०१) *कीकाभाई किशनदास १०१) सूरजमल लल्लूभाई जवेरी ५१) चुन्नीलाल हेमचन्द जरीवाला ५१) प्रेमानन्ददास नारायणदास, बोरसदवाला ५१) ठाकुरदास भगवानदास जौहरी ५१) रेवाशंकर जगजीवनदास जौहरी ५१) लल्लूभाई लखमीचन्द चौकसी ५१) *भागमलजी प्रभुदयाल जी ५१) पदमचन्दजी भूरामल ५१) डाह्याभाई प्रेमचन्द जवेरी ५१) देवजी रायसी ५१) दोसी जयचन्द मानचन्द पूनावाला २५) छगनलाल धनजी, भावनगरवाला Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५) *माणिकचन्द लाभचन्द चौकसी २५) ताराचन्द दामोदरदास २५) मुकतागिरि नारायण पेन्टर २५) अमथालाल खीमचन्द, पाडनाकुवा २१) छगनलाल वेचरदास, मालावाडा २१) चुनीलाल कालीदास, उजेडिया २१) मिस्त्री लल्लू खुशाल, वीसनगर १५) माणिकलाल जकसी जवेरी १५) जसकरन मयाचन्द मेहता १५) वैद्य भरमन्ना वमन्ना उपाध्याय १५) हीरालाल निहालचन्द मोदी १५) जैसिंहभाई हरजीवनदास, अहमदाबाद १५) *उगरचन्द रेवाचन्द शीववाला १५) नगीनदास माणिकलाल १५) हीराचन्द उगरचन्द, फतेपुर १५) रिखबदास मन्नालाल, १५) उगरचन्द रायचन्द, पाटनाकुवा १५) मास्टर मगनलाल दामोदरदास ही. गु. जैन. बो. सुपरिन्टेन्ड ११) *उत्तमचन्द रिखवचन्द, अंकलेश्वरवाला ११) त्रिभुवनदास रणछोड़दास ११) चिरंजीलाल मथुरावाला ११) अमीचन्द दलीचन्द सीववाला ११) अमृतलाल गुलाबचन्द परताबगढ़वाल ११) *कस्तूरचन्द छावड़ा इन्दोरवाला ११) घासीराम लखमीचन्द, सनावद ११) कालीदास अमरसी, सेर दलाल Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ११) केशवलाल वच्छराज जवेरी ११) कस्तूरचन्द अमूलक नरोड़ावाला ११) रामचन्द मोतीचन्द, कडेगांव. ११) जीवनलाल जेठालाल, सोनासणवाला ११) नारायणदास रणछोड़दास, मालवाडावाल ११) जैसिंगभाई मंछाचंद जवेरी १०) जसकरण गोदर ११) पंडित लालन ११) तलकचन्द सखाराम जवेरी ५) भाऊ रामचन्द कवाल ५) दुलीचन्दजी सिंघई, क्लार्क तीर्थक्षेत्रकमेटी ५) अमृतलाल विठ्ठलदास धामी ५) माणिकचन्द रायचन्द ओराणवाला ५) चुन्नीलाल जयचन्द वदराडवाला ५) चुन्नीलाल माणिकचन्द, फतेपुरवाला ५) जगमोहन चुन्नीलाल ५) हेमचन्द हरखचन्द ईडरवाला ३) *नारायणराव इन्स्पेक्टर, तीर्थक्षेत्रकमेटी २) कस्तूरचन्द बेचरदास १) सेठ बापू पूनाजी ५) घेलाभाई नरपत दानावाला, हीराबाग १५) कालीदास जैसिंगभाई ५१) चुन्नीलाल जवेरचन्द जवेरी ६) शा जीवराज वनमालीदास, नरोडा ५) शिवलाल धर्मचन्द, नरोडावाला ५) छगनलाल गंगादास Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५) दूदू हरीचन्द रेखाजी, फलटन १) कचरादास कालीदास, देलवाडवाला १५) बाई जीवकोर, स्वर्गीय प्राणलाल हलोचन्दकी विधवा । ११) रामचन्द्र त्रिभुवन, घोघा २) वखरिया जमुनादास कुवेरदास ४) हीरालाल किशनदास, बरोडाघाला १) भाई घासीरामजी, मैनेजर राजगिरिक्षेत्र १५) सुदासनके समस्त हूमड़ जैनपंच १५) जोधपुरके समस्त जैनपंच ५) मोतीलाल दशरथसा, बड़वाहा ५) सेठ मूलचन्दजी सराफ, बरवासागर १०) धनकुमारसिंह बकसर २२।।)बारसीके समस्त पंच २) हीराचन्द गांगा भावनगर ५१) कीलाचन्द छगनलाल, इन्होरवाला ५८/-)वड़वानीके समस्त दिगम्बर जैन पंच . १२) अमथालाल नारायणजी, नरसीपुर ११) नथूभाई अमथाजाल नाराणयजी, नरसीपुर १०) लल्लूभाई नारायणजी ८) हरगोविंददास नारायणजी ४) अबुलेख नारायणजी ५) बावचन्द गुलाबचन्द , २०) पीताम्बरदास देवचन्द, ॥) मलूकचन्द रघुनाथ ५०१) I बालचंद उगरचंद बम्बई । I ५०१) सेठजीकी मूर्ति बनवाने के लिए और १००) माणिकचन्दग्रन्थमालाके लिए। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्ददिगम्बर - जैनग्रन्थमालाकी नियमावली | १. इस ग्रन्थमाला में केवल दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के संस्कृत और प्राकृत भाषाके प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशित होंगे । यदि कमेटी उचित समझेगी तो कभी कोई देशभाषाका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी प्रकाशित कर सकेगी । २. इसमें जितने ग्रन्थ प्रकाशित होंगे उनका मूल्य लागत मात्र रख्खा जायगा । लगतमें ग्रन्थ सम्पादन कराई, संशोधन कराई, छपाई, बँधवाई आदिके सिवाय आफिस खर्च, व्याज और कमीशन भी शामिल समझा जायगा । ३. यदि कोई धर्मात्मा किसी ग्रन्थकी तैयार कराईमें जो खर्च पड़ा है वह, अथवा उसका तीन चतुर्थांश, सहायता में देंगे तो उनके नामका स्मरणपत्र और यदि वे चाहेंगे तो उनका फोटू भी उस ग्रन्थकी तमाम प्रतियोंमें लगा दिया जायगा जो महाशय इससे कम सहायता करेंगे उनका भी नाम आदि यथायोग्य छपवा दिया जायगा | 1 ४. यदि सहायता करनेवाले महाशय चाहेंगे तो उनकी इच्छानुसार कुछ प्रतियाँ जिनकी संख्या सहायताके मूल्यसे अधिक न होगी मुफ्त में वितरण करने के लिए दे दी जायंगी । ५. इसमें ग्रन्थमालाकी कमेटीद्वारा चुने हुए ग्रन्थ ही प्रकाशित होंगे । पत्रव्यवहार करने का पता नाथूराम प्रेमी, हीराबाग, पो० गिरगांव बम्बई | Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्द - दिगम्बर जैनग्रन्थमाला समिति । ( प्रबन्धकारिणी सभा के सभ्य ) १. रायबहादुर सेठ स्वरूपचन्द हुकुमचन्द | तिलोकचन्द कल्याणमल । २. ओंकारजी कस्तूरचन्द । 35 55 ३. "" 55 ४. सेठ गुरमुखरायजी सुखानन्द । ५. हीराचन्द नेमीचन्द आ० मॅजिस्ट्रेट | ६. मि. लल्लूभाई प्रेमानन्द परीख एल. सी. ई. ७. सेठ ठाकुरदास भगवानदास जौहरी । ८. ब्रह्मचारी शीतलप्रशादजी । ९. पं० धन्नालालजी कासलीवाल | १०. पं० खूबचन्दजी शास्त्री । ११. नाथूराम प्रेमी ( मंत्री ) । "" "" Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education internet For F P se on tainelibrary.org