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कालार्य विभाजन धित தேர்வாகத்தினர் भाषादिहानिक अध्ययन
P
(
डॉ. शिवमूर्ति शर्मा प्राध्यापक हिन्दी विभाग यूइङ्ग क्रिश्चियन कॉलेज,
इलाहाबाद
देवनागर प्रकाशन, जयपुर
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: आचार्य हेमचन्द्र रचित
देशीनाममाला का गापा वैज्ञानिक अध्ययन : सॉ0 शिवमूर्ति पार्मा
कृतिकार सस्करण मुल्य
प्रकापाक
देवनागर प्रकाशन, घोडा रास्ता, जयपुर एलोरा प्रिन्टर्स , जयपुर
मुद्रक
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A LINGUISTIC STUDY OF DESHINAMAMALA ACHARYA
HEMCHANDRA'S by Dr SHIVMURTI SHARMA
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प्राक्कथन
एक ग्रामीण अंचल का निवासी होने के कारण, प्रारभ से ही मुझे ग्रामीण भाषा और उसमे व्यवहृत होने वाली शब्दावली से लगाव रहा है। स स्कृत के अध्ययन ने इस रुचि मे और भी परिष्कार किया। संस्कृत की स्नातकोत्तर कक्षा मे वैदिक साहित्य के विशिष्ट अध्ययन से यह रुचि और भी परिष्कृत हुई। वेदो मे व्यवहत भाषा कितने जन-भापा के तत्वो से मण्डित है। इन तत्वो की खोज करने की प्रेरणा और भी बलवती हो उठी। इसी बीच मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषामो के अध्ययन के बीच 'देशी' शब्दो पर ध्यान गया । स्वाभाविक रुचि होने के कारण मैंने इस विषय को शोध-कार्य के रूप मे ग्रहण करना चाहा । परमपूज्य गुरु डा० लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय ( अध्यक्ष-हिन्दी-विभाग ) एव डा० माता बदल ( जायसवाल ) की कृपामयी अनुकम्पा से मुझे इस विषय पर कार्य करने का प्रोत्साहन भी मिल गया। प्रारम्भ मे समवेत रूप से 'देशी' शब्दो के पालोडन की भावना से अध्ययन प्रारम्भ किया । अध्ययन की इसी परम्परा मे प्राचार्य हेमचन्द्र की 'देशीनाममाला' पर दृष्टि गयी । इस ग्रन्थ की क्लिष्टता और परम्परा
के कारण विद्वानो द्वारा की गयी उपेक्षा ने पहले तो हतोत्साहित किया, पर गुरुयो ___ की प्रेरणा ने कार्य को इसी ग्रन्थ तक सीमित कर आगे बढाने का साहस दिया।
प्राचार्य हेमचन्द्र की देशीनाममाला भारतीय कोश साहित्य मे तो अद्भुत है ही, समस्त विश्व के कोशो मे भी विलक्षण है । आचार्य हेमचन्द्र ने इसकी रचना अपने व्याकरण ग्रन्थ 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' के पूरक ग्रन्थ के रूप मे की थी। वे अपने शब्दानुशासन को पूर्णता तक पहुचाना चाहते थे, अत उन्होने तत्सम और तद्भव शब्दो का आख्यान कर लेने के बाद युग-युगो से जनभाषानो मे व्यवहत होते आये, एव समय-समय पर साहित्य मे स्थान पाने वाले असदर्य 'देशी शब्दो'
का प्रत्याख्यान 'देशीनाममाला' मे किया। समवेत रूप से देशीनाममाला के __ महत्व-निदर्शन का यह प्रथम प्रयास है। इस पर कार्य करने के बीच जितनी
कठिनाइया सामने आयी हैं, सभी का उल्लेख कर पाना कठिन है , प्राकत तथा
अप्रभ्र श के मर्मज्ञविद्वान् डा० माताबदल जायसवाल तथा प्रो. महावीरप्रसाद लखेडा __ जी ने पग-पग पर पाने वाली कठिनाइयो का निवारण अत्यन्त उदारतापूर्वक
किया है।
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1
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इस शोध-प्रबन्ध मे निहित अध्ययन को दो खण्डो मे वाट दिया गया है प्रथम खण्ड मे चार अध्याय हैं । प्रथम अध्याय-प्राचार्य हेमचन्द्र के व्यक्तित्व और उनके कृतित्व का निदर्शन है । द्वितीय अध्याय-देशीनाममाला के स्वरूप पर प्रकाश डालता है । ततीय अध्याय-देशीनाममाला मे आयी हुई उदाहरगा की गाथाग्रो के साहित्यिक सौन्दर्य पर प्रकाश डालता है । चतुर्थ अध्याय-देशीनाम्माला के सास्कृतिक महत्व का निदर्शन है ।
प्रस्तुत शोध-प्रवन्ध का द्वितीय खण्ड देशीनाममाला के भापविज्ञानिक महत्व पर प्रकाश डालने वाला है। इस खण्ड मे कुल तीन अध्याय हैं । पचम अध्याय देणी' शब्दो के स्वरूप विवेचन तथा उनके उद्भत्र एव विकास की सैद्धान्तिक चर्चाप्रो से सवधित हैं । पप्ठ अध्याय मे देशीनाममाला के 168 देशी शब्दो को हिन्दी तथा उसकी प्रमुख वोलियो मे स्वला परिवर्तन के साथ ज्यो का त्यो व्यवहृत होते दिखाया गया है । सातवा अध्याय 'देशी शब्दो के भापाशास्त्रीय अध्ययन से सबद्ध है । इस अध्याय का पूरा अध्ययन ध्वनिग्रामिक, पदात्मक एव अर्थ गत तीन खण्डो में विभाजित है । इस प्रकार प्ररतुत शोध-प्रवन्ध का सारा अध्ययन कुल दो खण्डो और सात अध्यायो मे विभाजित है, जिनमे देशीनाममाला के विविध पक्षो का सुष्ठुप्रकाशन एव उमके महत्व-निदर्शन का प्रयास किया गया है ।
प्रस्तुत शोधकार्य को सम्पन्न करने की बलवती प्रेरणा मुझे अपने पूज्य गुरु डा० माताबदल जायसगल जी से मिनी । समय समय पर श्रद्धेय गुरु डा. लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय की कृपा-प्रेरणा ने भी मुझे पागे बनने मे प्रोत्साहित किया है । सच पूछा जाये तो डा० वार्ष्णेयजी की स्नेहमयी प्रेरणा ने ही मुझे यह गुरुतर कार्य-मार उठाने की शक्ति दी थी। सस्कृत विभाग के प्रो० महावीरप्रसाद लखेडा जी ने नित्य मुझे विपय से सम्बन्धित नवीन सूचनाए देकर अनुग्रहीत किया है। अत इन सभी का मैं हृदय से प्राभारी ह । अन्य विभागीय गुम्यो से भी मुझे समय-समय पर प्रेरणा एव सहायता मिलती रही है, प्रत इन सभी का मैं हृदय से प्रभारी हू । परम आदरणीय श्री राजकिशोर सिंह (वरिष्ठ प्रवक्ता हिन्दीविभाग यूइ ग क्रिश्चियन कालेज-इलाहावाद) ने भी इस शोधकार्य मे पर्याप्त सहायता की है, अत में उनका भी हृदय से आभारी हू । मेरे परमहितपी मित्र श्री सूर्यनारायण मिश्र डा० हरिशंकर तिवारी तथा डा० पद्माकर मिश्र ने भी पर्याप्त सहयोग दिया है अत मैं इनके प्रति भी अपना प्राभार व्यक्त करता है। इस शोधप्रबंध के टङ्कण का कार्य मेरे प्रिय मित्र श्री मेवालाल देखेकधी ने रुचि' लगन एव योग्यता के साथ किया है, अतः मैं इनका भी आभारी हू सहायक ग्रन्थो की सूची अन्त मे परिशिष्ट के रूप मे दे दी गयी है ।
-डॉ० शिवमूर्ति शर्मा
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अनुक्रमणिका
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श्रामुख
1-8 9-42
16
24
27
20
प्रध्याय 1 नाचार्य हेमचन्द्र का व्यक्तित्व और कृतित्त्व
हेमचन्द्र का जीवन चरित्र विद्याध्ययन और व्यक्तित्व निर्माण हेमचन्द्र और सिद्धराज जयसिंह हेमचन्द्र और कुमारपाल कुमारपाल हेमचन्द्र और कुमारपाल की प्रथम भेट हेमचन्द्र का कुमारपाल पर प्रभाव प्राचार्य हेमचन्द्र और उस युग के ख्याति प्राप्त
व्यक्तित्त्व प्राचार्य हेमचन्द्र की रचनाएँ सिद्धहेमशब्दानुशासन, उसका स्वरूप प्राचार्य हेमचन्द्र के कोष ग्रन्थ-अभिधानचिन्ता ___ मणि, देशीनामाला, निघण्टु द्वयाश्रयकाव्य काव्यानुशासन छन्दोऽनुशासन प्रमारणमीमांसा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित
योगशास्त्र एव स्तोत्र प्राचार्य हेमचन्द्र की रचनाओ का तिथि-क्रम
32
34
37
38
40
40
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1v
]
अध्याय 2 देशोनाममाला
43-74
43
44
47
4G
54
देशीनाममाला-स्वरूप-विवेचन नामकरण की समस्या देशीनाममाला का रचनाकाल देशीनाममाला की मूलप्रतियाँ देशीनाममाला का स्वरूप और उसकी विषयवस्तु देशीनाममाला की गाथाएँ वृत्ति या टीकाभाग देशीनाममाला मे आयी हुई उदाहरण की गाथाएँ गाथाम्रो का वर्गीकरण देशीनाममाला का महत्त्व भाषावैज्ञानिक महत्त्व, साहित्यिक महत्त्व
57
59
66
70
72
73
अध्याय 3 रयणावली (देशीनाममाला) का साहित्यिक
अध्ययन
75-102
76
76
77
80
82
84
रयणावली की गाथानो की विषयवस्तु बौकिक प्रेम और शृगार से सम्बन्धित पद्य
सयोग-वर्णन विविध नायिकाएं और उनके अभिसार-चित्र रयणावली का मादक सौन्दर्य चित्र रयणावली का वियोग-चित्रण मान
प्रवास और विरहताप कुमारपाल की प्रशस्ति से सम्बन्धित पद्य रयणावली के विविध विपयात्मक पद्य रयणावली का कला-पक्ष
छन्द भापा
अलङ्कार निष्कर्ष
85 85
90
94
99
99
100
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अध्याय 4 रयणावलो (देशीनाममाला) का सांस्कृतिक
अध्ययन
103-128
104
105
106 117
117
देशीनाममाला का सामाजिक वातावरण
सामाजिक एव पारिवारिक सम्बन्ध रहन-सहन, रीति-रिवाज तथा वेश-भूषा व
खान-पान यू तक्रीडा घरेलवस्तुएँ
सामाजिक उत्सव एवं खेल-कूद धार्मिक आचार-विचार और देवी-देवता साहित्य और कला ग्रामीण कृषक-जीवन से सम्बन्धित शब्दावली राजनीति और शासन-व्यवस्था निष्कर्ष
119
121
124
126
127
128
अध्याय 5 देशी शब्दों का विवेचन
129-168
131
134
140
145
देशी शब्दो का स्वरूप-विभिन्न मत प्राकृत तथा देशी अपभ्रश और देशी निष्कर्ष देशी शब्दो के प्रति हेमचन्द्र के पूर्व के प्राचार्यो
का हष्टिकोण प्राचार्य हेमचन्द्र का मत प्राधुनिक भाषा वैज्ञानिको का मत देशी शब्दो का उद्भव और विकास
भाषा वैज्ञानिक कारण ___ देशी शब्दो का विभिन्न प्रान्तीय बोलियो - से उद्भव
देशी शब्दो का आर्येतर भाषामो से उद्भव देशी शब्दो के उदभव और विकास का
सास्कृतिक आधार
146 149 151 158 158
158
162
166
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vi
]
अध्याय 6 मानक हिन्दी तथा उसकी प्रमुख बोलियो मे
विकसित देश्य शब्द
169-203
निष्कर्ष
202
अध्याय 7 देशीनाममाला का भाषाशास्त्रीय अध्ययन '
ध्वनिग्रामिक विवेचन
204-303
205
206
206-211
211
213
खण्डीयध्वनि ग्राम स्वर ध्वनिग्राम-प्राप्य स्वर ध्वनिग्रामो की
प्रकृति श्र, पा, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, ऋ,
ल का प्रयोग, ऐ और श्री की स्थितिस्वर ध्वनि नामो का वितरण खण्डेतर स्वर ध्वनिग्राम
अनुम्वार तथा अनुनासिक विसर्ग का प्रयोग सन्धि और स्वर-सयोग य श्रुति पौर व श्रुति
स्वराघात देशीनाममाला के व्यजन ध्वनिग्राम
कण्ठ्य -क, ख, ग, घ, तालव्य - च, छ, ज, झ, मूर्धन्य-ट, ठ, ड, ढ, ण, ह ध्वनिग्राम की
स्थिति दन्त्य या वय॑-त, थ, द, ध, न श्रोष्ट्य-प, फ, ब, म, म, म्ह की स्थिति अन्त स्थ व्यजन-य, र, ल, व, ल्ह की स्थिति स और ह
213 214 215 216 223 225
226
229
233
240
245
250
255
निष्कर्ष
257
257
व्यजन परिवर्तन 1. लोप-(क) आदिव्यजन-लोप
(ख) मध्यव्यजनलोप
258
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(
VII
258
258
258
2 पागम-(क) प्रादिव्यजनागम,
(ख) मध्यव्यजनागम,
(ग) अन्त्यव्य जनागम 3 वर्णविपर्यय 4 समीकरण 5 धोषीकरण
6 महाप्राणीकरण व्यजन-सयोग-(क) प्रबल मयुक्तव्यजन
(ख) क्षीण सयुक्तव्यजन
(ग) मिश्रसयुक्तव्य जन सयुक्ताक्षर
259 259
259
260
260
260
पदग्रामिक अध्ययन
261
पदग्राम
261
261
262
266
शब्दो का स्वरूप प्रत्यय प्रक्रिया 1. विभक्ति प्रत्यय-(क) प्रो, पा, ई,
शून्य विभक्ति-ई, अ
(ख) निविभक्तिक शून्य प्रयोग 2 व्युत्पादकपूर्व प्रत्यय
(क) व्युत्पादक पूर्व प्रत्यय या उपसर्ग
(ख) व्युत्पादक परप्रत्यय ताद्धतान्त शब्द-कर्तृवाचक प्रत्यय, सवधार्थक
प्रत्यय, स्त्री प्रत्यय व कृदन्तीप्रयोग
267
270 274
275
291
अर्थगत अध्ययन (अर्थ-विज्ञान)
(देशीनाममाला की शब्दावली का वर्गीकरण) अनादि प्रवृत्तप्राकृत भाषा के शब्द सस्कृतामिधान मे अप्रसिद्ध भारोपीय भाषा से
सम्बद्ध शब्द द्राविड परिवार की आपाप्रो के शब्द विदेशीशब्द ध्वन्यनुकरणात्मक शब्द
लोकोद्भूत ध्वन्यनुकरणात्मक शब्द ।
292
292
296
299
299
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viin
1
300
300 300
चेष्टानुकरण से सम्बद्ध ध्वन्यनुकरणात्मक शब्द ध्वनिविधायक नाम
शैशवक्रीडा मे गृहीत सम्बन्धवाची शब्द देशीनाममाला के अर्थप्रतिपत्तिनिमित्तक तत्सम
एव तद्भव शब्द (क) तत्समशब्द-(ख) धातुप्रो के अर्था
तिशययोगसे युक्त देशी शब्द या तथाकथित तद्भव शब्द निष्कर्ष
300
300 300 302
304-311
सहायक ग्रन्थ सूची
कोशग्रन्थ
309
जर्नल्स
310
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आमख
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प्राचार्य हेमचन्द्र का 'देशीनाममाला' नामक कोशग्रन्थ भारतीय कोशग्रन्थ परम्परा मे तो अद्भुत है ही, समस्त विश्व के कोषो मे भी अद्भुत एव विलक्षण है । मध्यकालीन भारतीय प्रार्यभाषामो पालि, प्राकृत अपभ्र श आदि की प्रकृति को भलीभाति समझने मे इस कोश ग्रन्थ का सूक्ष्म अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 'देशीनाममाल' 'देशी' शब्दो का एक कोश ग्रन्थ है। इसमे लगभग 4,000 देशी शब्दो का संकलन है । आचार्य हेमचन्द्र ने इस कोश मे देशी शब्दो का अर्थ देने के साथ ही उनके प्रयोग निदर्शन के लिए अत्यन्त सुन्दर एव उच्चकोटि के साहित्यिक पद्यो की रचना भी की है । इसी कोष ग्रन्थ के साहित्यिक एव भाषावैज्ञानिक महत्व का प्रतिपादन प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का विषय रहा है । भारतीय साहित्य परम्परा मे प्राचार्य हेमचन्द्र बहुमुखी प्रतिभा से युक्त विद्वान रहे हैं । उन्होने धर्म, दर्शन, व्याकरण और साहित्य-लगभग सभी विपयो से सम्बन्धित ग्रन्थो की रचना की थी। देशीनाममाला उनके प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ सिद्ध हैमशब्दानुशासन का पूरक ग्रन्थ है । प्राचार्य हेमचन्द्र ही अकेले ऐसे विद्वान् हैं, जिन्होने, सस्कृत प्राकृत और अपभ्र श- सभी परम्परा प्रचलित साहित्यिक-भाषामो का व्याकरण लिखा । एक ही ग्रन्थ सिद्ध हैमशब्दानुशासन मे उन्होंने तत्सम और तद्भव दोनो ही शब्दो का प्रत्याख्यान किया। तत्पश्चात् व्युत्पत्ति की दृष्टि से गूढ एव असदर्घ्य देशी शब्दो का परिगणन देशीनाममाला मे कर, अपने शब्दानुशासन को सभी दृष्टियो से पूर्ण बनाया ।
प्राचार्य हेमचन्द्र के लगभग सभी ग्रन्थो पर अधिकारी विद्वानो ने कार्य किया है, पर देशीनाममाला लगभग उपेक्षित ही रहा है। 1874 ई के पहले तो सभवत. लोग इस ग्रन्थ के बारे मे जानते भी नही रहे होगे। बुल्हर ने पर्याप्त परिश्रम के बाद पिशेल के साथ मिलकर 1880 ई मे इस ग्रन्थ को प्रकाशित कराया पर ये लोग प्रकाशन कार्य तक ही सीमित रहे, इस ग्रन्थ की महत्ता का
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2 ] प्रतिपादन न कर सके । इस क्षेत्र में रामानुजस्वामी ने पहला कदम रखा, पर वे भी देशीनाममाला की ग्लासरी तैयार करने और इसके शब्दो की सस्कृत से कुछ भ्रामक व्युत्पत्तिया देने के अतिरिक्त कुछ न कर सके । इसके बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रो० मुरलीधर वेनर्जी ने इस दिशा मे स्तुत्य प्रयास किया । उन्होने विस्तृत भूमिका
और आलोचनात्मक टिप्पणिया तथा अग्रेजी अनुवाद के साथ इसे दो भागो मे विभक्त करके प्रकाशित कराया। परन्तु इसका प्रथम भाग (भूमिका तथा मूलपाठ) ही अाज प्राप्त है । द्वितीय भाग सम्भवत वे पूरा नहीं कर सके । मुरलीधर वेनर्जी के बाद अनेको ग्रन्थो मे छिट पुट उल्लेखो के रूप मे ही देशीनाममाला का नाम प्राता है । देशी शब्दो का एकमात्र ग्रन्थ होने के कारण अधिकारी विद्वान इसका उल्लेख तो करते रहे है, पर गहराई मे उतरकर किसी ने भी इसके महत्व-प्रतिपादन का प्रयास नही किया। इस दिशा मे इस शोव प्रवन्ध को प्रथम प्रयास कहा जा सकता है । देशीनाममाला पर कार्य करते-करते, परम्परा प्रसिद्ध विद्वानो की अनेको भ्रान्तिया भी सामने आ गयी हैं, जिन्हे विना किसी लाग-लपेट के साफ-साफ स्पष्ट कर दिया गया है । पूरे शोधकार्य के बीच शोधकर्ता का अपना एक निश्चित दृष्टिकोण रहा है सर्वत्र ग्रन्थकार के साथ चलकर ही समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है। देशीनाममाला को लेकर प्राचार्य हेमचन्द्र की तरह-तरह की पालोचनाएं हुई हैं। बुल्हर ने तो इसे 'देशी' शब्दो का कम तद्भव शब्दो का अधिक कोष माना। परन्तु मैंने सर्वत्र हेमचन्द्र के दृष्टिकोण की रक्षा करने का प्रयास किया है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने जिस दृष्टि से इस ग्रन्थ का सकलन किया है, उनकी उमी दृष्टि को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
एक बात यहा और भी स्पष्ट कर देने की है- जहा तक देशी शब्दो के स्वरूप, उनके उद्भव और विकास का प्रश्न है, परम्परा के विद्वानो ने तरह-तरह का वितण्डा खडा किया है। कोई इन्हे प्रार्येतर शव्द वताता है तो कोई सस्कृत का ही विकार । परन्तु इन सभी विवादो से परे मैंने देशी शब्दो को युग युगो से चली आयी सामान्य जन-भापा से सम्बन्धित माना है। प्राचार्य हेमचन्द्र का भी लगभग यही मत है । सामान्य जनजीवन में प्रचलित बोल चाल के शब्द ही, देशीनाममाला के सकलन के प्रमुख प्राधार रहे हैं हेमचन्द्र ने लोक में व्यवहृत और साहित्य मे अव्यवहत शब्दो की ही गणना इस कोपग्रन्थ मे की है। ये तो हुए कुछ पूर्वनिश्चित दृष्टिकोण, जो अध्ययन की दिशा का निर्धारण करते हैं; शोध प्रवाध की विविध दिशायो का सक्षिप्त उल्लेख नीचे किया जा रहा है।
पूरा शोध-कार्य दो खण्डो और सात अध्यायो मे वाट कर सम्पन्न किया गया है। प्रथम खण्ड पालोचनात्मक है-जिसमे लगातार चार अध्याय है। इन अध्यायों
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मे हेमचन्द्र के व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व, देशीनाममाला के स्वरूप एव उसके साहित्यिक तथा सास्कृतिक महत्त्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। द्वितीय खण्ड देशीनाममाला के भाषावैज्ञानिक महत्त्व पर प्रकाश डालता है। इसमे निहित तीन अध्यायो (5,6,7) मे क्रमश देशी शब्दो का स्वरूप-विवेचन उनका उद्भव तथा विकास, देशी शब्दो का हि दो तथा उसकी वोलियो मे विकास एवं देशी शब्दो का भाषाशास्त्रीय विवेचन प्रस्तुत किया गया है। एक एक अध्याय मे निहित अध्ययन की दिशाम्रो का उल्लेस इस प्रकार है।
अध्याय 1- इस अध्याय मे प्राचार्य हेमचन्द्र के व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। प्राचार्य हेम चन्द्र का विलक्षण व्यक्तित्व और उनके द्वारा की गयी रचनायो का विस्तत कलेवर पाश्चर्य मे डाल देने वाला है। अकेले हेमचन्द्र इतने विशाल कार्य को पूर्ण कैसे कर सके ? इसका रहस्य उनके जीवन-चरित्र से अवगत हुए विना नही जाना जा सकता । हेमचन्द्र को दो महान् हिन्दू राजाओ सिद्धराज जयसिंह और कमारपाल का सहयोग प्राप्त हुअा था। वे इन दोनो राजापो के पूज्यगुरु थे, अन हेमचन्द्र को उनसे समय-समय पर बहुत अधिक महायता मिलती रही । इन राजापो के प्राश्रय मे रहने वालो विद्वन्मण्डली ने भी हेमचन्द्र की पर्याप्त सहायता की होगी। ये ही कुछ स्थितियां थी जिन्होने हेमचन्द्र को एक ही जाम मे इतने विशाल ग्रथो की रचना मे सक्षम बनाया। इस अध्याय मे आचार्य हेमच द्र की जीवनगत परिस्थितियो को केन्द्र मे रखकर उनके कृतित्व पर विस्तार से विचार किया गया है । संक्षेप मे परे अध्याय का अध्ययन त्रम इस प्रकार है-हेमचन्द्र का जीवन चरित विद्याध्ययन और व्यक्तित्व निर्माण, सिद्धराज जयसिंह से सम्पर्क तथा सिद्ध हैमशब्दानुशासन की रचना की प्रेरणा प्राप्त करना, कुमारपाल से सपर्क तथा प्राकृत याश्रय काव्य की रचना, कुमारपाल तथा उस युग के ख्याति प्राप्त विद्वानो से हेमचन्द्र का सम्पर्क और अन्त मे प्राचार्य हेमचन्द्र की सभी रचनायो का सक्षिप्त विवरण एव तिथिक्रम निर्धारण । संक्षेप में प्रथम अध्याय के अध्ययन की यही सीमा है। इस अध्याय मे निहित प्रयास लगभग पारस्परिक है। हेमचन्द्र के व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व से सम्बन्धित पव विद्वानो के प्रयास ही यहा निहित अध्ययन के मूल प्राधार है।
अध्याय 2- यह अध्याय देशीनाममाला के स्वरूप विवेचन से सम्बन्धित है । इस अध्याय में निहित अध्ययनक्रम इस प्रकार है देशीनाममाला का स्वरूप तथा इसके नामकरण की समस्या एव उमका निराकरण, देशीनाममाला का रचवा काल (वि स 1214-15 या 1150ई ) इसकी मूल प्रतियो का सक्षिप्त उल्लेख, इसकी विषयवस्तु तथा इसके स्वरूप पर विस्तार से विचार, देशीनाममाला की मूलगाथागो तथा उदाहरण की गाथाओ का महत्त्व प्रकाशन, वृत्ति या टीका भाग पर विस्तृत विचार, उदाहरण की गाथाओ का वर्गीकरण, उनकी संख्या एव विपयवस्तु के विस्तृत प्रत्याख्यान के साथ-और अन्त मे देशीनाममाला के साहित्यिक एव भाषावैज्ञानिक महत्व का निदर्शन । सक्षेप मे यही द्वितीय अध्याय का प्रतिपाद्य है। इस अध्याय के कुछ तथ्य पूर्व विद्वानो द्वारा प्रतिपादित हैं जिन्हे ज्यो का त्यो मान लिया गया है। गाथाम्रो का वर्गीकरण और उनकी संख्या का निर्धारण प्रो. मुरलीघर वेनर्जी का उल्लेख मात्र है । अध्याय के अन्य प्रयास मेरे अपने है। स्वरूप
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विवेचन के बीच पिशेल द्वारा सम्पादित देशीनाममाला के द्वितीय संस्करण की प्राधार बनाया गया है।
अध्याय 3-तीसरा अध्याय देशीनाममाला के साहित्यिक अध्ययन से सम्बन्धित है । देशी शब्दो का प्रयोग दिखाने की दृष्टि से प्राचार्य हेमचन्द्र ने पूरे कोश मे 634 गाथाश्रो की रचना की है। ये गाथाए साहित्यिक सौन्दर्य की दृष्टि से अत्यन्त उच्चकोटि की है । इनकी भावतरलता, सरसता एव काव्यात्मक प्रभावात्मकता अत्यन्त सराहनीय है। इन पद्यो को देखते हुए, प्राचार्य द्वारा इम ग्रन्थ का, दिया गया रयणावली नाम भी सार्थक लगने लगता है। उदाहरण की इन गाथाश्रो मे ऐहिकतापरक ” गार, रति-भावना, नख-शिख-चित्रण, रणाङ्गगतवीरता, प्रकृति के सुन्दर मनमोहक चित्र तथा विविध लोकव्यवहारो एव उत्सवो का चित्रण हुया है। मचन्द्र की इन गाथाश्रो की तुलना सभी दृष्टिग्रो से 'हाल' की गाहासत्तमई' से की जा सकती है । गाथाश्रो की संख्या भी ‘रयणाबली' की सतसई ग्रन्थ परम्परा मे ला वैठाती है । विषयवस्तु की दृष्टि से 'रयणावली' (देशीनाममाला) की उदाहरण की गाथानो को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है
(1) लौकिक प्रेम और शृगार से सम्बन्धित पद्य । (2) कुमारपाल की प्रशस्ति से सम्बन्धित वीर-भावना के उद्-भावक पद्य । (3) विविध लोकाचारो, सामाजिक एव नैतिक नियमो, देवी-देवतामो
तथा भिन्न-भिन्न प्रादेशिक रीति-रिवाजो व अघ विश्वासो से सम्ब
धित पद्य । इन तीन वर्गों में बाँटकर देशीनाममाला के साहित्यिक महत्व का प्रतिपादन करने का प्रयास किया गया है । विषय को भलीभाति स्पष्ट करने के बाद शास्त्रीय दृष्टि से रयणावली के छन्दो उसकी भाषा तथा अलकार योजना प्रादि पर भी विचार किया गया है । साहित्यिक दृष्टि से 'देशीनाममाला' के अध्ययन का यह प्रथम प्रयास है । सभवत: इसकी गाथाम्रो की क्लिष्टता ने विद्वानो को इसके साहित्यिक सो दर्य से अवगत होने से दूर ही रखा है। देशीनाममाला के पद्यो का अनुवाद सचमुच एक दुसाध्य कार्य है। इस अध्याय में लगभग 100 पद्यो का अनुवाद दिया गया है । अध्ययन के एक निश्चित दायरे मे बधे होने के कारण, रयणावली के कितने ही सुन्दर पद्यो का समावेश नही किया जा सका । यह भविष्य के अनुसधित्सुप्रो के लिए एक सराहनीय कार्य हो सकता हैं। शोधकर्ता इस कार्य मे सलग्न भी है । यदि रयणावली के सभी पद्यो का अनुवाद कर दिया जाये तो यह निश्चित ही 'गाहासतसई' और 'वज्जालग्ग' जैसे श्रेष्ठ काव्य-ग्रन्थो की कोटि मे रखा जा सकता है। इस अध्याय मे निहित अध्ययन का यही निष्कर्ष हैं।
अध्याय 4 - इस अध्याय मे देशीनाममाला की शब्दावली का सास्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। देशीनाममाला की शब्दावली का सम्बन्ध युग-युगो से व्यवहृत होती प्रायी जन-भापात्रो से है। इन शब्दो मे पता नही कितने प्राचीन सास्कृतिक प्रतीक छिपे पड़े है। इन्हीं प्रतीको का स्पष्टीकरण इस अध्याय का प्रमुख विषय रहा है । इस अध्याय का अध्ययन क्रम प्रकार है
(1) वेशीनाममाला का सामाजिक वातावरण-इसके अन्तर्गत सामाजिक एव पारिवारिक सम्बन्धो, रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेश-भूषा व खान-पान, धूत
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क्रीडा, घरेल वस्तुओं, सामाजिक उत्सवो एव खेलों से सम्बन्धित शब्दो का उल्लेख किया गया है । इस वर्ग के शब्दो के माध्यम से जो सास्कृतिक चित्र बनता है, वह प्राय युग-युगो से चली आयी निम्नवर्गीय सस्कृति का चित्र है। स्पष्ट रूप से इसे किसी युग विशेष के समाज से नही सदभित किया जा सकता ।
(2) धामिक आचार-विचार एव देवी-देवता-देशीनाममाला मे अनेको ऐसे शब्द है जो युग-युगो से चले आये धार्मिक प्राचार-विचारो, देवी-देवीतायो एव अधविश्वासो से सम्बन्धित है, इन्ही शब्दो का विवरणात्मक अध्ययन करने का प्रयास किया गया है।
(3) साहित्य-कला-इसके अन्तर्गत विविध ज्ञान-विज्ञान एव कला से सम्बधित शब्दावली का उल्लेख किया गया है।
(4) ग्रामीण कृषक जीवन से सम्बन्धित शब्दावली- देशीनाममाला के अधिकाश शब्द ग्रामीण कृपक जीवन से सम्बन्धित है, इन सभी का उल्लेख स्पष्ट रूप से किया गया है।
(5) राजनीति – इस सन्दर्भ मे राजनीति और शासन व्यवस्था से सम्बन्धित शब्दो का विवरण दिया गया है। ऐसे शब्दो के माध्यम से जिस शासन व्यवस्था का चित्र सामने आता है वह प्राचीन भारतीय शासन व्यवस्था है । इसका सबध 11 वी और 12 वी सदी के गुजरात से भी जोडा जा सकता है।
अन्त मे इस अध्ययन का निष्कर्ष यह दिया गया है कि देशीनाममाला के ये शब्द किसी एक युग विशेष की सस्कृति से सम्बद्ध न होकर, युगयुगो से चली आयी ग्रामीण निम्नवर्गीय सस्कृति से सम्बद्ध हैं ।
अध्याय 5-इस अध्याय से देशीनाममाला के अध्ययन का दूसरा पक्ष प्रारम होता है । यह अध्याय 'देशी' शब्दो के सैद्धान्तिक विवेचन से सम्बन्धित हैं। सबसे पहले 'देशी' शब्दो के स्वरूप को लेकर विभिन्न विद्वानो द्वारा व्यक्त किये गये मतो का उल्लेख किया गया है । निष्कर्ष रूप मे-सभी विद्वानो ने किसी न किसी रूप मे 'देशी' शब्दो को युग युगो से चली आयी जन-भाषाओ की सम्पत्ति स्वीकार किया हैं । ये ही जनभाषाए प्राकृत (प्राथमिक प्राकृत या लोक भाषाए) नाम से भी अभिहित की जा सकती हैं । देशी शब्दो और प्राकृतो की निकटस्थ स्थिति पर विचार करने की दृष्टि से प्राकृत और देशी शब्दो के सम्बन्ध पर विस्तार से विचार किया गया है । इसी सदर्भ मे, प्राकृत को छान्दस (वैदिक) भाषा के मूल मे स्वीकार किया गया है । प्राकृत का तात्पर्य यहा प्रकृत (स्वाभाविक रूप से उदभूत होने वाली जनभाषा से है । इसके बाद अपम्र श और देशी शब्दो के सम्बन्ध पर विचार कर, यह निष्कर्ष निकाला गया है कि देशी शब्द सामान्य जनभापा और लोकव्यवहार से सम्बन्धित हैं । जो भाषाए लोक जीवन से प्रेरणा लेकर आगे बढी, उनमे तो 'देशी' शब्दो की भरमार है-जैसे - प्राकृत और अपम्र श-इसके विपरीत सस्कृत जैसी परिष्कृत साहित्यिक भाषा मे लोक अभिरुचि को प्रश्रय न मिलने के कारण 'देशी' शब्दो का व्यवहार विल्कुल है ही नही, जो है भी, उसे परिष्कृत कर लिया गया है।
देशीशब्दो के स्वरूप का स्पष्टीकरण कर देने के बाद इन शब्दो को लेकर प्राचार्य हेमचन्द्र के पूर्व के प्राचार्यों स्वय हेमचन्द्र तथा उनके बाद के प्राचार्यों या भाषा वैज्ञानिको का अभिमत प्रदर्शित किया गया है । निष्कर्ष रूप मे सभी ने देशी
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6 ] शब्दो को प्रान्तीय जनमापामो की शब्द सम्पत्ति स्वीकार किया है। इसके बाद देणी शब्दों के उद्भव और उनके विकास के कारणों का निरूपण किया गया है। देशी शब्दो के उदभव एव विक्राम के दो प्रमुख कारणो (भापावनाविक एव सास्कृतिक) का विस्तृत उल्लेख किया गया है, और अन्त में फिर यही निष्कर्ष दिया गया है कि देशी शब्द युग युगो से व्यवहृत होती पायी भारतीय जन मापायो से सम्बन्धित है। इनका जान लोकव्यवहार पर आधारित है। इन्हे व्याकरण गत सम्कारो के बन्धन में नही वाघा जा सकता।
अण्याय 6-इस अध्याय में देशीनाममाला के लगभग 168 शब्दो का हिन्दी तथा उमकी प्रमुख वोलियो में विकास प्रशित किया गया है। इन सभी शब्दो को प्राचार्य हेमचन्द्र ने देगी कहा है यहा भी इन्हें देशी ही माना गया है। इमका एक कारण है, शब्दो की प्रकृति और उनकी स्थिति का निर्धारण उनके प्रयोग के वातावरण को देखकर किया जाना चाहिए । उनकी ध्वनिगत और पदगत विशेपतायो को देखकर नही । इम अध्याय में जितने शब्द आये हैं, उनमें अधिकांश विद्वानो की दृष्टि मे तद्भव हो सकते हैं । इस बात का संकेत भी कर दिया गया है परन्तु वातावरण की दृष्टि से ये नमी शब्द देशी लगते हैं । इनका व्यवहार माहित्यिक भापानी मे न होकर प्राय लोकमापाप्रो में होता दवा जा रहा है । हेमचन्द्र ने भी इन शब्दो का सकलन लोक मापापो की ही सम्पत्ति मानकर किया था, इसी मान्यता के अनुम्प इस अध्याय मे कुछ शब्दो का प्रयोग हिन्दी तथा उसकी प्रमुख बोलियो, अवधी ब्रज, भोजपुरी प्रादि में दिखाया गया है। शब्दो का यह विकास निीरूपण यद्यपि पारम्परिक नहीं है, फिर भी गोव की पारम्परिक लीक को तोडकर जो निष्कर्ष निकाले गये है वे भविष्य के अनुसवानो को दिशा निर्देश करने में सहायक हो सकते हैं । इमी रीति से देणीनाममाला के सभी मन्द किसी न किसी प्रान्त वी लोकभाषा मे सभित किये जा सकते है । देशीशब्दो की व्युत्पति ढ ढने के चक्कर मे न पडकर यदि इनके विकास का ज्ञान प्राप्त कर, इनकी प्रकृति का निर्धारण किया जाये तो अत्यन्त महत्वपूर्ण परिणाम सामने आ सकता है।
अध्याय 7-इम अध्याय में देशी शब्दो का भाषाशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तत किया गया है। पूरे अध्ययन को तीन खण्डो मे वाटा गया है--(1) व्वनिग्रामिक अध्ययन (2) पदनामिक अध्ययन (3) अर्थगत अध्ययन । देशीनाममाला के शव्द या तो निविभक्तिक है, या फिर प्रथमान्त है, अतः इनका रुप-ग्रामिक अध्ययन समव नही था, यही कारण है कि अध्ययन को तीन ही खण्डो तक सीमित रखा गया है प्रत्येक खण्ड का अध्ययन क्रम इस प्रकार है
(1) ध्वनिग्रामिक अध्ययन - एमके अन्तर्गत देणीनाममाला के शब्दो मे व्यवहृत स्वर एव व्यजन ध्वनिग्रामो का ऐतिहासिक एव वर्णनात्मक विवेचन किया गया है । देणीनाममाला में व्यवहृत स्वर व्वनिग्राम एव व्यजन व्वनिग्राम इस प्रकार हैं
स्वर ध्वनिग्राम-(खण्डीय)-अ, पा, ड, ई, र, ऊ, ए, ऐ, ओ, पी। ऋ और लू का प्रयोग विरकुल नहीं है । ऐ और श्री का प्रयोग भी अह और अउ स्वरसयोंगो के ही रूप में मिलता हैं । प्राप्त म्वर व्वनिग्रामो का प्रादि मध्य और अन्त्य स्थितियों में वितरण भी दिखा दिया गया है।
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खण्डे तर स्वर ध्वनिग्राम-इसके अन्तर्गत अनुस्वार का प्रयोग, विसर्ग का प्रभाव, सधि का अभाव, स्वर सयोगो की भरमार य श्रति और व श्र ति का बहुतायत से प्रयोग, स्वराघात या बलाघात का निरूपण प्रादि बाते प्रमुखतया प्रदर्शित है - व्य जन ध्वनिनाम-देशीनाममाला के शब्दो मे व्यवहृत व्यंजन ध्वनिग्राम ये है
क, ख, ग, घ, (ड० का सर्वथा प्रभाव है) च, छ, ज, झ, (ज का भी अभाव है ) ट, ठ, ड, ढ, ण तथा व्ह त, थ, द, ध, (न का प्रयोग नहीं है )। प, फ, ब, भ, म तथा म्ह य, र, ल, व तथा ल्ह
देशीनाममाला के ये व्यजन ध्वनिग्राम देशी शब्दो मे व्यवहत होते हए भी पर्णतया मध्यकालीन भारतीय आर्यभापा के ध्वनिग्रामो का ही अनुकरण करते है। इन सभी के प्रादि, मध्य और अन्त्य तीनो ही स्थितियो मे प्रयोग का देशीनाममाला से उदाहरण भी दे दिया गया है।
व्यजन ध्वनिग्रामो का ऐतिहासिक एव वर्णनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने के बाद व्य जन-परिवर्तन की विविध दशाप्रो लोप, पागम, वर्णविपर्यय, समीकरण घोषीकरण महाप्राणीकरण आदि के भी उदाहरण दे दिये गये है। अन्त मे व्यजनसयोगो और सयुक्ताक्षरो की भी विस्तृत चर्चा कर दी गयी है ।
(2) पदग्रामिक अध्ययन-देशीनाममाला के शब्दो का पदग्रामिक अध्ययन एक अत्यन्त दुरूह कार्य है। इसके अधिकतर शब्द प्रकृति-प्रत्यय निर्धारण प्रक्रिया की पहच के वाहर हैं फिर भी ज्ञात व्युत्पत्तिक शव्दो की प्रकृति और उनमे लगने वाले प्रत्ययो का प्रत्याख्यान करने का सभव प्रयास किया गया है । पदग्रामिक अध्ययन की दृष्टि से देशीनाममाला की पदावली तीन वर्गों मे बांटी गयी है सज्ञा,विशेषण तथा क्रियाविशेषण । पूरा पदनामिक अध्ययन क्रम इस प्रकार है
शब्दो का स्वरूप-विवेचन, प्रत्यय-प्रक्रिया, विभक्ति प्रत्यय, निविमक्तिक शून्य प्रयोग व्युत्पादक प्रत्यय-व्युत्पादकपूर्वप्रत्यय या उपसर्गों का निरूपण, व्युत्पादक पर प्रत्यय-तद्वित पीर कदन्ती प्रयोग । पदग्रामिक विवेचन के इस प्रयास मे देशीनाममाला के सभी शब्द नही पा सके हैं । सभी शब्दो का विवेचन प्रस्तुत करने मे व्याकरणिक अपवादो की भरमार हो जाने की सम्भावना थी । व्युत्पादक प्रत्ययो के बीच लगभग सभी देशी प्रत्ययो का परिगणन कर दिया गया है। देशीनाममाला मे अनेको शब्द ऐसे है जिनमे न तो प्रकृति-अश का पता चलता है और न ही प्रत्यय अश का, ऐसे शब्दो का अर्थगत अध्ययन ही, सभव है, ये शब्द विशुद्ध 'देशी' हैं, इनका ज्ञान 'लोकात्' अर्थावधारण मात्र से ही हो सकता है।
(3) अर्थगत अध्ययन - देशीनाममाला की शब्दावली का अध्ययन पूर्णतया अर्थविज्ञान का विषय है। इसका ध्वन्यात्मक एव पदात्मक अध्ययन किसी भी महत्व का नही है । प्राचार्य हेमचन्द्र स्वय ही इतने समर्थ थे कि, यदि चाहते तो इन शब्दो का प्रकृति-प्रत्यय निर्धारण कर सकते थे, पर उन्होने इन शब्दो की व्युत्पत्ति पर बल न देकर, मात्र इनके अर्थावधारण पर बल दिया है । देशोनामलाला के शब्दो को
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8 ] लेकर विद्वानों ने तरह-तरह की म्रान्त घारणए फैलायी हैं । बुल्हर महोदय ने तो वहाँ तक वल दिया था कि देशीनाममाला के सारे शब्दो को सस्कत से सर्दा मत किया जा सकता है । इन्ही की परम्परा का पालन श्री रामानुजस्वामी ने अपने द्वारा बनायी गयी देणीनाममाला की ग्लासरी मे किया है। उन्होने देशीनाममाला के अनेको शब्दो की व्युत्पत्तिया दी हैं, जो पूर्णतया ध्वनि साम्य पर आधारित हैं। किसी भी शब्द का उसके अर्थ से शाश्वत सम्बन्ध होता है, ध्वनियो से नहीं। रामानुजस्वामी ने ब्वनि साम्य के आधार पर व्युत्पत्तिया दे तो दी, पर अर्थ की ओर ध्यान नहीं दिया । इस प्रकार की भ्रामक व्युत्पत्ति वाले लगभग 200 शब्दो का उदाहरण इम अव्याय में दिया गया है और यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया गया है कि देणीनाममाला के शब्दो की व्युत्पत्तिया द ढना व्यर्थ है, अर्थ की दृष्टि से इनका अत्र्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण हो सकता है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन का सकलन भी इमी दृष्टिकोण से किया था।
पुन देशीनाममाला के कुछ शब्दो को प्रार्येतर भापायो की सम्पत्ति बताया गया है । इस मत का भी खण्डन इसी अध्याय में किया गया है। जिन शब्दो को मुधी विद्वानो ने दक्षिणी भापायो तमिल, तेलगु, कन्नड आदि की सम्पत्ति बताया है, इन भापानी के व्याकरणकार भी इन्हें देशी ही मानते हैं। ऐसी स्थिति मे हेमचन्द्र की मान्यता गलत कहा हुई ? इसी प्रकार देशीनाममाला के अरवी फारसी शब्दग्रहण की मान्यता का भी खन्टन किया गया है ।
अन्त मे देशीनाममाला के शब्दो की प्रकृति का निर्धारण करते हुए पुन यही निष्कर्ष निकाला गया है कि ये शब्द युग युगो से प्रचलित जनमापा से सम्बन्धित है। इनका अध्ययन किसी भापा विशेष मे ध्वन्यात्मक या पदात्मक तुलना के प्राधार पर न किया जाकर अर्थ के आधार पर किया जाना चाहिए । देशीनाममाला का अध्ययन पूर्णतया अर्थ-विज्ञान का विपय है ।
अस्तु । मक्ष प मे, प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के अध्ययन की ये कुछ दिशाए है। इनके अन्तर्गत देशीनाममाला से सम्बन्धित अध्ययन के जितने भी पक्ष हो सकते हैं, लगभग सभी को समाहित कर लिया गया है। देशीनाममाला पर समवेत रूप से कोई कार्य न होने के कारण, इसकी शोध दिशाम्रो का निर्धारण कही-कही सर्वथा स्वच्छन्द रीति से किया गया है। इस प्रयत्न के वीच अनेको विद्वनो की वारणायो का खण्डन करना पड़ा है, आशा है वे मुझे क्षमा करेंगे । देशीनाममाला पर किये जाने वाले शोधकार्य का यह प्रारम्भ मात्र है । यह तो ऐसा ग्रन्थ है, जिसकी जितनी ही गहराई में उतरा जाये, उतनी ही नयी नयी दिशाए खुलती जाती हैं।
-शिवमूर्ति शर्मा
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आचार्य हेमचन्द्र : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भारत प्राचीन काल से स्वनामधन्य एव स्वसाधनापूत ऋषियो तथा महापुरुषो का देश रहा है । इन महामानवो ने अपनी सतत साधना द्वारा देश की साहित्यिक, सामाजिक और सास्कृतिक उन्नति मे अभूतपूर्व योग दिया। 12वी शताब्दी मे एक ऐसे ही महापुरुष का जन्म हुआ जिन्होने अपने युगान्तकारी और युग सस्थापक व्यक्तित्व के आधार पर तत्कालीन गुजरात के सामाजिक, साहित्यिक एव राजनीतिक इतिहास के निर्माण मे अद्भुत योग दिया । इनकी अप्रतिम प्रतिभा का सम्पर्क प्राप्त कर सम्पन्न परम्पराअो से युक्त गुर्जर धारित्री साहित्य और कला के नवविकसित सुमनो से प्रफुल्लित हो उठी। पाटलिपुत्र कान्यकुब्ज, वलभी, उज्जयिनी आदि की परम्परा मे गुजरात का अरणहिलपुर भी साहित्य-कला और संगीत के साथ ही विविध विद्यापो का केन्द्र बना । गुजरात के दो पराक्रमशील राजाप्रो सिद्धराज जयसिंह और कुमार पाल के सरक्षण मे अणहिलपुर भोज की धारान गरी के वैभव को पहुचने लग गया । अरण हिलपुर के इस उत्कर्ष मे इन दो राजाओ के अतिरिक्त वहां के विद्वानो का भी बहुत बडा हाथ रहा । आचार्य हेमचन्द्र जिन्हे कलिकाल सर्वज्ञ की उपाधि से विभूषित किया गया है, अरणहिलपुर के विद्वत्रत्नो मे सर्वश्रेष्ठ थे । हेमचन्द्र का जीवन-चरित .
स्वर्गीय डा बूलर ने अपने "Life of Hemchandra"1 नामक ग्रन्थ मे प्राचार्य हेमचन्द्र के जीवन का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है। हेमचन्द्र के
1. सिंघी जैन ग्रन्थमाला मे 1889 मे प्रकाशित ।
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जीवन का विशद विवेचन करने मे डा वूलर ने निम्नलिखित चार ग्रन्यो की सहायता ली है :--
(1) प्रभाचन्द्र सूरि का प्रभावकचरित-समय 1278 ई० । (2) मैरुतुङ्ग कृत प्रवन्धचिन्तामरिण । (3) राजशेखर का प्रवन्ध कोश । (4) जिनमण्डल उपाध्याय का कुमारपाल प्रतिबोध ।
इन विभिन्न ग्रन्यो से सहायता लेने के अतिरिक्त स्वय हेमचन्द्र द्वारा रचित द्वयाश्रय काव्य, सिद्धहैमव्याकरण की प्रशस्ति, विषष्टिशलाका पुरुप-चरितान्तर्गत 'महावीरचरित' आदि से भी डा वूलर ने हेमचन्द्र के जीवन के प्रामाण्य एकत्र किये।
आधुनिक खोजो के आधार पर कुछ और भी ग्रन्य सामने आये हैं, जिनसे हेमचद्र के जीवन पर प्रकाश पडता है । इनमे दो ग्रन्थ तो हेमचन्द्र के समकालीन है
(1) सोमप्रभ सूरि कृत कुमारपाल प्रतिबोध । (2) यशपाल कृत मोहराज पराजय । (3) पुरातनप्रवन्ध सग्रह ।
उपर्युक्त तीन ग्रन्थो मे प्रथम दो हेमचन्द्र के समकालीन ग्रन्थ हैं अन्तिम पुरातन प्रवन्धसग्रह अनेको विवरणो का एकत्र सलग्न मात्र है।
ऊपर गिनाये गये ग्रन्यो मे सोमप्रभसूरि कृत कुमारपाल प्रनिबोध हेमचन्द्र की समसामयिक रचना होने के कारण उनकी जीवन विपयक प्रामाणिक सामग्री दे सकती थी, परन्तु लेखक स्वय ही इस बात को स्वीकार करता है कि ' मैंने दोनो (हेमचन्द्र और कुमारपाल) के जीवन से सम्बन्धित वही घटनाएँ ली हैं जिनका सम्बन्ध उनके जनधर्म स्वीकार करने के बाद के जीवन से है । इस प्रकार यह ग्रन्थ हेमचन्द्र और कुमारपाल के मिलने तथा कुमारपाल के जैनधर्म स्वीकार करने के बाद की ही घटनाप्रो का उल्लेख करता है। यदि इस ग्रन्थ को आधार बनाकर हेमचन्द्र के जीवन का विवेचन किया जाये तो उनके जीवन की अनेको महत्त्वपूर्ण घटनायें अन्धकार मे रह जायेंगी। इसकी तुलना में प्रभावकचरित इस दृष्टि से अत्यधिक उपयोगी है।' कुमार पाल प्रतिबोध हेमचन्द्र के जीवन की जितनी घटनाओ का उल्लेख करता भी है सीधे नही घुमा फिरा कर करता है। इसके लिये लेखक एक नाटकीय स्थिति की प्रायोजना करता है-ब्राह्मण धर्म मे यज्ञो इत्यादि के वीच भयानक रक्तपात देखकर उसको वास्तविक धर्म न मानते हुए कुमारपाल का वास्तविक धर्म के ज्ञान की जिज्ञासा होती है। यह जिज्ञासा चिन्ता का रूप धारण कर लेती है । जब उसके मत्री वाहडदेव (वाग्भटदेव) को इस बात का पता चलता है तब वह
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[ 11 राजा के सामने पहुचकर विनम्रतापूर्वक अपने द्वारा कही जाने वाली कथा को सुनने का आग्रह करता है। उसकी यह कथा हेमचन्द्र के कुमारपाल के सम्पर्क में आने के पहले के जीवन की कथा है । परन्तु यह घटना ऐतिहासिक नही प्रतीत होती । हो सकता है कुमारपाल प्रतिबोधकार ने अपनी रचना को कवितापूर्ण बनाने के लिए इस प्रसग की उद्भावना की हो ।
पूणतल्लगच्छ' जिससे कि हेमचन्द्र का सम्बन्ध था तक की कथा बताने के वाद मत्री वाहड आगे की कथा कहता है - 'एक समय देवाचन्द्राचार्य तीर्थयात्रा हेतु अणहिलपट्टन से घधूका गाव पहुचे और वहा मौढवशियो के वसही जैन मन्दिर मे देवदर्शन के लिये पधारे । धार्मिक उपदेशो की समाप्ति के बाद उनके पास एक आठ वर्ष का बालक आया और उसने देवचन्द्राचार्य से प्रार्थना की कि इस ससार-सागर के सतरण हेतु मुझे सुचरित रूपी नाव प्रदान कीजिये । अर्थात् मुझे भी साधु बनने की प्रेरणा दीजिये । देवचद्राचार्य बालक की चपलता और उसकी वैराग्यवृत्ति से बहुत अधिक प्रभावित हुए। उन्होने बच्चे का और उसके पिता का नाम पूछा। इस पर साथ आये हये बच्चे के मामा नेमि ने बच्चे के बारे मे बताना प्रारम्भ किया
“यहा (घधूका मे) चाचा (चाचिग) नाम का प्रसिद्ध व्यापारी रहता है । अपने पूर्वजो के धर्म और अपने कुल देवतानो का उपासक है। 'चाहिणी' नाम की उसकी पत्नी है जो मेरी बहिन भी है । यह लडका उसी का पुत्र है । इसके बाद नेमि चाहिणी द्वारा देखे गये स्वप्न का विवरण देते हुए बालक को उसी सत्स्वप्न का परिणाम बताता है। आगे नेमि कहता है-इन दिनो धर्म की बातो के अतिरिक्त बालक का मन और किसी बात मे नही लगता ।
इस पर गुरु देवचन्द्र बोले - 'यदि बालक को उचित दीक्षा दी जाये तो बहुत अच्छा होगा । हम उसे ले जाकर सभी शास्त्रो के धर्म का ज्ञान कराते हैं । यह तीर्थङ्करो के समान लोक कल्याण करेगा। अत तुम इसके पिता चाचा (चाचिग) से कहो कि वे इसकी नियमित दीक्षा की प्राज्ञा दें।
पिता ने अत्यधिक प्रेम के कारण पुत्र को दीक्षा लेकर घर छोड़ने की प्राज्ञा नही दी परन्तु लडके ने साधु बनने का निश्चय कर लिया था। मामा के द्वारा प्रोत्साहन मिलने पर उसने घर छोड दिया । अपने के गुरु के साथ वह खम्भतीर्थ (स्कम्भतीर्थ, खम्भात) आया और वहा जैनधर्मानुकूल जीवन प्रारम्भ करने की दीक्षा
1
आचार्य हेमचन्द्र की माता पाहिणीया चाहिणी देवी ने एक अद्भुत स्वप्न देखा था । बालक चङ्गदेव उसी स्वप्न का परिणाम था । इसके आगे की कथा वाहड मनी बताता है। कु प्र. बो. पृ. 21
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12 ] ली। दीक्षा के बाद उसका 'सोमचन्द' नाम पडा । जैनागमो में बनाये गये गाधनो द्वारा कठिन तप करके बहुत शीन ही उमने ममग्न विद्या समुद्रमा प्रवगाहन यर लिया । गुरुदेवचन्द्र ने जब गोमचन्द्र में कुछ ऐगे गुण देगे जो दग घोर निताल मे सभी के लिये सम्भव नही ये, तो उन्होंने उसे गणधर (प्राचार्य) पदवी देकर पई भिक्षुग्रो का अगुवा बना दिया। सोमचन्द्र के शरीर का रंग सोने का था अतः उसा नाम हेमचन्द्र पडा।"
हेमचन्द्र विभिन्न प्रान्तो मे घूमते रहे । परन्तु उपास्य देवी के गुजर-विषय (गुजरात प्रान्त) छोटकर न जाने, तथा यह कहने पर कि 'गुजगत मे रहकर तुम इमका वहत हित करोगे' हेमचन्द्र ने अन्य प्रान्तों में माना जाना बन्द कर दिया और गुजरात में ही रहकर लोगो के बीच ज्ञान का प्रकाण फैलाते रहे।'
___ कुमारपाल के मत्री बाहट (वाग्भट) ने अपनी कथा जागे रपची - 'विश्वप्रसिद्ध विद्वान् शिरोमणि गुजरात का पराक्रमी राजा मिद्धगज जयसिंह इन्ही प्राचार्य हेमचन्द्र से अपनी ममस्त शकायो का निवारण करवाता था। इसके बाद वह हेमचन्द्र के सकेत पर बनवाये गये अणहिलपुर के 'राजविहार' और मिद्धपुर के "मिद्धविहार' की चर्चा करता है। यही वह यह भी बताता है कि मिद्धराज की ही प्रार्थना पर प्राचार्य ने मिद्धहम जैसे महान् व्याकरण ग्रन्थ की रचना की थी। वह कहता है सिद्धराज मदेव इन प्राचार्य की स्वर्गिक वाणी सुनने के लिए लालायित रहता था।
'अत यदि श्राप (कुमारपाल) धर्मों का रहम्य जानना चाहते हैं तो मुनियो मे श्रेष्ठ हेमचन्द्र की परित वाणी का श्रवण भक्तिपूर्वक कीजिए।''
'कुमारपाल प्रतिबोध' द्वारा दिया गया हेमचन्द्र विषयक यह विवरण यद्यपि सक्षिप्त है फिर भी उनके जीवन की प्रसिद्ध घटनाग्रो का द्योतन करने में समर्थ है। ग्रन्थ का रचयिता हेमचन्द्र का समसामयिक है अत उसके द्वारा दी गयी घटनाए प्रामाणिक भी हो सकती है ।
प्राचार्य हेमचन्द्र के जीवन की प्रमुख घटनाग्रो की तिथिया प्रमावक चरित में मिल जाती हैं । वे तिथिया इस प्रकार है
(1) हेमचन्द्र का जन्म - वि स 1145 (1089 ई ) कार्तिक पूर्णिमा । (2) दीक्षा ग्रहण-वि स 1150 (1094 ई ) (3) सूरि या प्राचार्यपद ग्रहण-वि स 1166 (1110 ई ) (प्र. च
पृ 347, 848,849)
1. कु. प्र. वो. पृ 22
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जहा तक हेमचन्द्र के जन्म का प्रश्न है, प्रत्येक ग्रन्थ मे तिथिया लगभग समान ही हैं । दीक्षा के सम्बन्ध मे दी गयी तिथियो मे मतभेद है । जैनशास्त्रो मे यह निर्देश है कि बिना 8 वर्ष की अवस्था पूर्ण किये कोई भी जैन धर्म मे दीक्षित नही हो सकता। प्रभावकचरित, पुरातनप्रवन्ध सग्रह तथा प्रबन्ध कोश के अनुसार दीक्षा के समय हेमचन्द्र लगभग 8 वर्ष के थे। परन्तु कुमारपाल प्रतिबोध के अनुसार इनकी दीक्षा वि स 1154 (1098) ' में हुई। यह तिथि ठीक भी लगती है । गुरु देवचन्द्र सूरि का धन्धू का आगमन वि स 1150 (1194 ई ) मे हुआ था । अव मे लेकर हेमचन्द्र के पिता से आजा प्राप्त करने के बीच कुछ समय अवश्य लगा होगा। प्रभावकचरित के अनुसार घर से निकलने के वाद हेमचन्द्र का पालन पोषण खम्भात के एक अधिकारी उदयन के यहा हुआ था। इसी उदयन ने हेमचन्द्र के पिता को तीन लाख रुपये देकर खुश भी करना चाहा था। हेमचन्द्र के पिता के रुपया न स्वीकार करने तथा पुत्र की दीक्षा के लिए आज्ञा दे देने की घटना वि. स 1154 (सन् 1098) मे हुई थी । अत हेमचन्द्र का यही दीक्षा काल प्रामाणिक है ।
जहा तक 'सूरिपद' प्राप्त करने का प्रश्न है, सभी ग्रन्थ एक मत हैं । प्रभावक चरित मे यह तिथि वि. स 1166 (सन् 1 110 दी गयी है यही तिथि कुमारपाल-प्रबन्ध की भी है। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने 8 वर्ष की अवस्था मे जैन धर्म की दीक्षा ली और 21 वर्ष की अवस्था मे 'सूरिपद' प्राप्त किया।
विद्याध्ययन और व्यक्तित्व निर्माण
आचार्य हेमचन्द्र के जीवन से सम्बन्धित प्रमुख घटनामो की तिथियो के अतिरिक्त उनके व्यक्तित्व निर्माण और शिक्षा दीक्षा सम्बन्धी बातो का विवरण भी विभिन्न ग्रन्थो मे प्राप्त हो जाता है । कुमारपाल प्रतिबोध के अनुसार गुरुदेवचन्द्रसूरि ने बालक चड् गदेव के मामा 'नेमि' से कहा कि दीक्षा प्राप्त करने के बाद वालक बहुत थोडे ही समय मे शास्त्रो के तथ्य से अवगत हो जायेगा । हुप्रा भी कुछ इसी प्रकार । चड् गदेव ने बहुत शीघ्र ही सभी विद्यामो के समुद्र को पार कर लिया। प्राचार्य-पद प्राप्त करने के बाद वे विभिन्न प्रान्तो मे घूमते रहे परन्तु बाद मे वे गुजरात से कभी बाहर नही गये । 'हेमचन्द्र के विद्याध्ययन के बारे मे केवल इतना ही उल्लेख कुमारपाल प्रतिवोध मे मिलता है।
अपने विद्याध्ययन का सारा श्रेय हेमचन्द अपने गुरु देवचन्द्र सूरि को देते
1. कु प्र बो पृ. 12 2. वही, पृ 13
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14 ] हैं । 'विपष्टिशलाका पुरुपचरित' की प्रशस्ति मे वे इस बात को म्वीकार भी करते हैं
___ 'तत्प्रसादादधिगतज्ञान सम्पन्न महोदयः ।। परन्तु उन्होंने किग प्रकार गुरु में विद्या सीखी इसका कोई उल्लेख नहीं किया प्रत इन सन्दन म उनकी यह स्वीकारोक्ति कोई महत्त्व नहीं रखती।
प्राचार्य हेमचन्द्र के ज्ञानार्जन और व्यनित्व निर्माण का कुछ विस्तृत उल्लेग्य प्रभावकचरित मे प्राप्त होता है-'सोमचन्द्र ने शीघ्र ही तक-लक्षगण पोर माहित्य में अधिकार प्राप्त कर लिया। परन्तु कुछ हजार पदो को कण्ठस्थ माय कर लेने में सोमचन्द्र को मतोप नही मिला अत अपने गुरु से विद्या प्राप्ति के निा काश्मीरदेशवासिनी' देवी को जाकर प्रसन्न करने की प्राना मागी । वे ताम्रलिप्ति (खम्भात) से चले और रात विताने के लिए 'श्रीरैवतावतार' नामक एक जैन मन्दिर में के। अर्धरात्रि के समय जब वे ध्यानावस्था मे बैठे थे, ब्राह्मी देवी प्रकट हुई और उन्हे काश्मीर जाने का कष्ट उठाने मे रोक दिया क्योकि सोमचन्द्र की माधना में वे अत्यन्त प्रसन्न थी । ब्राह्मी देवी ने उन्हें इच्छित फल प्रदान करने का वचन दिया । सारी रात ब्राह्मी देवी की प्रशसात्मक स्तुति में विताकर सोमचन्द्र वह अपने स्थान को वापस लौट आये । 'इसके बाद से ही वे' मिद्ध सारस्वत (अनायाम मिद्धमारस्वत भी) कहे जाने लगे । 2 'इसके बाद ही उन्होने सूरि पद प्राप्त किया ।3
___'कुमारपालप्रवन्ध' के रचयिता जिनमण्डल उपर्युक्त घटना से ही मिलतीजुलती एक अत्यन्त रहस्यात्मक घटना का उल्लेख करते हैं।
अब देखना यह है कि इन कथानो मे वास्तविक तथ्य कहा है । सोमचन्द्र के गुरु देवचन्द्र सूरि निश्चित रूप से एक उद्भट विद्वान् थे परन्तु प्रश्न यह है कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने अध्ययन की जिन विभिन्न शाखाग्रो का पाडित्यपूर्ण प्रदर्शन अपनी रचनाओ मे किया है क्या इतना सारा ज्ञान अकेले देवचन्द्र उन्हें दे सके थे? इस
का का समाधान अत्यन्त सरल है। यदि हम हेमचन्द्र के जीवन काल के गुजरात के इतिहास को देखें तो वात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है। हेमचन्द्र खम्भात मे रहते थे । उस समय खम्भात एक सुन्दर बन्दरगाह होने के कारण व्यापार का केन्द्र तो था ही साथ ही समृद्ध होने के कारण-साहित्य और कला के क्षेत्र मे भी अद्वितीय था । वहा अनेको उद्भट विद्धान् अध्ययन और अध्यापन मे रत थे । प्राचाय हेमचन्द्र
1 नि पु च एलोक सख्या 15 2 प्रभाकचरित-श्लोक सख्या, 37-46 3 वही, श्लोक सख्या, 48-59
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[ 15 ने इन सभी से प्रेरणा ग्रहण की। अणहिलपुर आने पर तो निश्चित ही वे बहुत बडे-बडे विद्वानो के सम्पर्क मे पाये ।
'प्रभावकचरित' का हेमचन्द्र से सम्बन्धित काश्मीर यात्रा प्रसग भी उनकी अध्ययनशीलता और जिज्ञासा का परिचायक है। उन दिनो काश्मीर विद्याध्ययन का बहुत वडा केन्द्र था अत हेमचन्द्र वहा अध्ययन करने के लिए जाना चाहते थे । परन्तु यात्रा मे अनेको कठिनाइया होने के कारण वे काश्मीर जाने से रोक दिये गये। उनके काश्मीर जाने का एकमात्र उद्देश्य अध्ययन ही था इस बात की पुष्टि काश्मीर देशवामिनी देवी (सरस्वती) के उल्लेख से ही हो जाती है। काश्मीर स्थित सरस्वती का मदिर उस समय विविध दिशामो से आये हुए विद्वान् पण्डितो का केन्द्र था। इन्ही पण्डितो के सम्पर्क मे रहकर ज्ञानवृद्धि करना हेमचन्द्र का प्रमुख उद्देश्य था । जब इन पण्डितो के सम्पर्क मे जाकर अध्ययन करना सम्भव न हुआ तो गुजरात मे ही स्थित काश्मीरी पण्डितो से हेमचन्द्र ने बहुत कुछ सीखा होगा । ऐतिहासिक प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि सिद्धराज जयसिंह के दरबार मे उस समय अनेको उद्भट विद्वान् रहते थे। बिल्हण के एक उल्लेख से विदित होता है कि उस समय जयसिंह के दरबार मे अनेको काश्मीरी पण्डित भी थे। उनमे 'उत्साह' नाम के पण्डित सर्वप्रसिद्ध थे । ये वैय्याकरण थे। सिद्धहैम शब्दानुशासन की रचना के पहले इन्ही 'उत्साह' पण्डित के हाथ ही काश्मीर के विभिन्न पुस्तकालयो से व्याकरण के आठ प्रसिद्ध ग्रन्थ हेमचन्द्र को प्राप्त हुए थे।
प्राचार्य हेमचन्द्र सिद्धराज जयसिंह के समकालीन हैं सिद्धराज जयसिंह विद्वानो का बहुत अधिक आदर करने वाला राजा था। धारानगरी के शासक भोज के दरबार की विद्वता की कहानिया आज भी चलती हैं । ऐसे ही विद्धानो का जमघट जयसिंह के दरबार मे भी था । उस समय विद्या की कोई ऐसी शाखा नही थी जिसका प्रचार गुजरात मे न रहा हो । आचार्य हेमचन्द्र ने इन विद्धानो के सम्पर्क मे रह कर बहुत कुछ सीखा था।
सिद्धराज जयसिंह के विद्वतापूर्ण दरवार का उल्लेख रसिकलाल सी पारिख ने 'काव्यानुशासन' की भुमिका मे किया है ।'
1.
' Tarka Sahitya and lakshana logic and the art of dilectics, literature and poeties Grammar and the philosophy of language were the subjects practiced by the cultured citizens of Aphillapura and proficiency in these subjects was a pass post to the Royal Courts and the assemblies of the learned the
(Contd)
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पारिसजी के विवेचन मे रपष्ट हो जाता है कि प्राचार्य हेमचन्द्र के चारों तरफ उद्भट विद्धानी की एक श्रृंखला थी। उन्होंने ऐसे वातावरण के प्रभाव के कारण ही व्याकरण, साहित्य,-प्रमाण-शारत्र, काव्य, छन्द शाग्य प्रादि लगभग काव्य तथा भापा सम्बन्धी साहित्य के सभी अगो पर कार्य किया । यदि उन्हें स्वस्थ साहित्यिक परम्परा का वातावरण न मिला होता तो शायद वे इतने विपुल प्रीर विविधात्मक ज्ञान-विज्ञान पूर्ण ग्रन्यो का निर्माण न कर पाते ।
हेमचन्द्रसूरि और सिद्धराज जयसिंह ।
पिता का घर छोड कर बालक चट्ट गदेव गुरु के प्रादेणानुमार सम्मान के एक अधिकारी उदयन मन्त्री के यहा रहने लगा था। वही मन्त्री पुत्र वाड (वाग्भट) के साथ ही उसके अध्ययन अध्यापन का प्रबन्ध हुआ। यह बात पहले ही बतायी जा चुकी है । 'सूरि' पद प्राप्त करने के बाद हेमचन्द्र अहिल्लपुर गये ।' यहा दो प्रश्न अपने आप ही उठ ग्वडे होते है-क्या हेमचन्द्र पहली बार प्रणहिलपुर गये या पहले गये थे ? दूसरी बात वे सरिपद प्राप्त करने के कितने दिन बाद अणहिल्लपुर गये ? इन दोनो ही प्रश्नो का कोई ममाधान प्राप्त नहीं होता।
प्राचार्य हेमचन्द्र और सिदराज जयसिंह से प्रथम भेट की कथा प्रभावक चरित मे इस प्रकार वरिणत है-'एक दिन सिद्धराज जयसिंह अपने हाथी पर बैठ कर नगर भ्रमण के लिए निकले । जाते समय एक दुकान के सामने उन्हे हेमचन्द्र दिपायी पडे । उन्होने हाथी रोककर उनसे कुछ कहने का आग्रह किया। इस पर हेमचन्द्र ने एक श्लोक पढा
chaityas and the Mathas of the different sects in fact were the academics and the colleges where these subjects were discussed and taught We reffered to the great dialectician Santisuri who had thirty two students studying under him Pramanasastra which included the Buddhist logic, whose cotegories were difficult to grasp This atmosphere of learding of public debates and of literary cuticism as also of literary compositions was a significant feature of the times which became more and more marked with the spread of political power of Anahillapura......It was in this entelectual milien that Hemchandra the greatest intelectual of the age lived and did his work. He must have received immence benefit and impetus from such an environment but he must have also found it very difficult to shine out amongst such a glaxy of learned
men." 1. प्र0 च0 श्लो0 64
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'कारय प्रसर सिद्धहस्तिराजमशड कितम् ।
त्रस्यन्तु दिग्गजा किं तैर्भू स्त्वयवोद्धता यत । 'हे सिद्धराज ! अपने गजराज को नि शक होकर आगे बढने दो। इसके भय से दिशाप्रो के दिग्गज भयभीत होकर कापते हैं तो कापे-पृथ्वी की कोई हानि नही होगी क्योकि उसका भार तुम्हारे कन्धो पर है (दिग्गजो के नही ) । बुद्धिमान राजा हेमचन्द्र की इस प्रशस्ति से बहुत अधिक प्रभावित हुआ और उसने दोपहर के वाद मिलने के लिए हेमचन्द्र को आमन्त्रित किया।''
इस प्रकार प्रभावकचरित के अनुसार युग के दो महान् व्यक्तित्व-एक राजा दूसरा सूरिपद प्राप्त अद्भुत विद्धान् साधु, दोनो आपस मे मिले और दोनो मे शीघ्र घनिष्टता भी हो गयी। इन दो महान व्यक्तियो के मिलन का बहुत ही अच्छा परिणाम हुआ।
प्रभावकचरित के अनुसार हेमचन्द्र और सिद्धराज की दूसरी भेट तब हुई जव मालवा विजय के उपलक्ष्य मे भिन्न-भिन्न मतावलम्बी सभी लोग राजा को साधुवाद देने गये । हेमचन्द्र जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप मे गये और उन्होने सिद्धराज की प्रशस्ति मे निम्न पक्तिया पढी
भूमि कामगवि | स्वगोमयर सैरासिञ्च रत्नाकरा । मुक्तास्वस्तिकमातनुध्वमुडुप | त्व पूर्ण कुम्भीभव । धृत्वाकल्पतरोदलानि सरलैदिग्वारणस्तोरणान्याधत्तस्वकरविजित्य जगती नन्वेति सिद्धाधिप ।
इन पक्तियो ने राजा को और भी अधिक प्रभावित किया और उसने दोबारा प्राचार्य को, मिलने के लिए अपने महल मे बुलाया ।
सिद्धराज जयसिंह से हेमचन्द्र की यह भेट वि स 1191 के अन्तिम माह या 1292 के प्रथम माह (1136 ई.) मे हुई होगी।
आचार्य हेमचन्द्र और सिद्धराज जयसिंह की मित्रता का प्रथम साहित्यिक परिणाम 'सिद्ध हैमशब्दानुशासन' के रूप मे प्रकट हुमा । यह व्याकरण का अद्भुत ग्रन्थरत्न है । इस ग्रन्थ की समाप्ति पर हेमचन्द्र ने स्वय ही इसको रचना का कारणसिद्धराज के द्वारा बार-बार की गयी प्रार्थना बताया हैं । परम्परा मे प्राप्त अन्य व्याकरण ग्रन्थ बहुत विस्तृत, समझने मे कठिन तथा अधूरे हैं । इन सभी कमियो
1 2
प्र. च. वो , 65-69 वही, 70-73
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को ध्यान में रखते हए "गिद्धगशब्दानुभागन" नी रचना मग्न गोर याकरता ग्रन्थ के रूप में की गयी है। इस ग्रन्य की प्रशस्ति को देखने में पता चलता है कि हमकी रचना सिद्धराज की मालवा विजय के बाद हुई थी। यह नो मनाना है कि मालवा विजय के लिए प्रस्थान करने के पहले ही गिद्धगज ने हेमचन्द्र मेन ग्रन्य की रचना करने की प्रार्थना की हो और उमो लौटने तक ग्रन्य तैयार हो गया हो।
प्रभावकचरित मे इस ग्रन्थ की रचना में सम्बन्धित एक अत्यन्त विस्तृत विवरण दिया गया है जो सम्भवत ठीक ही लगता है क्योंकि यह विवरण स्वय हेमचन्द्र के द्वारा दिये गये कारणो का पूरक माना जा सकता है। इसका हेमचन्द्र से कोई विरोध नहीं है।
प्रभावक चरित का विवरण इस प्रकार है
'एक बार सिद्धराज के राज्यकर्मचारी उसे 'अवन्ति' के पुस्तकालय मे लायी गयी पुस्तकें दिखा रहे थे । सिद्धराज की दृष्टि एक 'लक्षण पुस्तक' (व्याकरण ग्रन्य) पर पडी । सिद्धराज के पूछने पर कि यह क्या है ? हेमचन्द्र ने बताया कि महाराज यह राजाभोज द्वारा लिखा गया व्याकरण ग्रन्य है । यह इस समय का सबसे अधिक पढा जाने वाला व्याकरण ग्रन्य है। इसके रचयिता भोज विद्वानो के शिगेभूपण थे । उनका दरवार देश के श्रेष्ठ विद्वानो से मुशोभित था। स्वय उन्होंने शब्दशास्त्र, अलकारशास्त्र, देवज्ञशास्त्र (ज्योतिप) और तर्कशाम्य तथा अन्यानक ग्रन्यो की रचना की थी। इस प्रकार हेमचन्द्र ने भोज के द्वारा रचित अनेको ग्रन्यो का उल्लेख जारी रखा।।
राजा भोज की साहित्यिक समृद्वि से मिद्धराज को स्वाभाविक ईर्ष्या हुई । उन्होंने प्राचार्य हेमचन्द्र से पूछा, क्या इस प्रकार हमारे यहा ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थ नही लिखे जा सकते ? क्या इसी तरह के विद्वान सारे गुजरात देश मे नही बनाये जा सकते ? सभा के सारे श्रादमियो ने एक साथ हेमचन्द्र की अोर देखा । इसके बाद स्वय राजा ने भी हेमचन्द्र से प्रार्थना की, हे महपि । मेरी अभिलापा पूर्ण कीजिए। ऐसे वैज्ञानिक ग्रन्थ का निर्माण कीजिये जिससे भापा सूकरता से मीखी जा सके। इस समय व्यवहार मे आने वाला 'कलापक' व्याकरण भाषाज्ञान कराने में समर्थ नही है । पाणिनि का व्याकरण भी वैदिक होने तथा अनेको अपवादो एव सीमित भापायो का ज्ञापक होने से सर्वजन लभ्य नही है ।
1
प्र च , श्लोक 74-78
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[ 19 अत हे मुनियो मे श्रेष्ठ मुनि आप एक ऐसे व्याकरण ग्रन्थ की रचना कीजिए जो सभी प्रकार के लोगो को लाभ पहुचा सके ।
1
प्रभावकचरित द्वारा वरित यह 'अभ्यर्थना' यद्यपि कवित्वपूर्ण है फिर भी तथ्यों से दूर नही कही जा सकती । श्राचार्य हेमचन्द्र का शब्दानुशासन निश्चित ही परम्परा मे लिखे गये एकागी व्याकरणो मे श्रद्वितीय है । संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश तीनो भाषा के व्याकरण का एकत्र समाहार सिद्धराज की अभ्यर्थना का फल भले ही न माना जाय परन्तु इस अवसर की ऐतिहासिकता मे सन्देह करना बिल्कुल गलत होगा | उज्जयिनी की विद्वत्परम्परा का प्रतिस्पद्ध सिद्धराज जयसिंह यदि इस प्रकार के ग्रन्थ का निर्माण करवाकर भोज के समान या उससे भी वढ कर यशःकीर्ति पाना चाहे तो यह भी असंभव नही । अस्तु प्रभावकचरित द्वारा दिया गया यह विवरण ऐतिहासिक माना जाना चाहिए ।
सिद्धराज की इस अभ्यर्थना को सुनकर आचार्य बोले 'आपके द्वारा इच्छित कार्य की पूर्ति हमारा अपना कर्त्तव्य भी है । काशमीर देश मे स्थित 'श्री भारतीदेवी' के पुस्तकालय मे आठ व्याकरण के ग्रन्थ हैं । उन्हे अपने आदमियो द्वारा मगवा लीजिये | इनकी सहायता से भाषा का व्याकरण वैज्ञानिक रीति से तथा सुकरतापूर्वक लिखा जा सकेगा ।" 1
उपर्युक्त विवरण कुछ नवीन तथ्यो पर प्रकाश डालता है । एक तो इससे हेमचन्द्र की काश्मीर यात्रा का कारण मालूम हो जाता है, दूसरे यह भी ध्वनित होता है कि आचार्य हेमचन्द्र की व्याकरण के ग्रन्थनिर्माण मे पहले ही से रुचि थी परन्तु उसके लिये अध्ययन की आवश्यक सामग्री न होने से वे इस कार्य को न कर सके होगे । सिद्धराज जयसिंह के सहयोग से उन्हें पूर्व वैयाकरणो की आठो पुस्तकें मिली और उन्होने इन ग्रन्थो की कमियो को ध्यान मे रखते हुए एक सर्वथा नवीन व्याकरण ग्रन्थ का निर्माण कर दिया । सिद्ध हैमशब्दानुशासन का संस्कृत व्याकरण से सम्वन्धित भाग सराहनीय होते हुए भी पूर्ववैय्याकरणो का अनुसरण कहा जा सकता है । परन्तु इसका प्राकृत व्याकरण से सम्बन्धित भाग, अपभ्रंश व्याकरण, लिंगानुशासन आदि सर्वथा नवीन और प्रशसनीय हैं । भाषाशास्त्र के विभिन्न अ गो का जितना साङ्गोपाङ्ग विवेचन आचार्य हेमचन्द्र ने इस एक ही ग्रन्थ और उसके परिशिष्टो ( लिंगानुशासन) श्रादि को मिलाकर कर दिया, इसके पहले कोई भी वैय्याकरण ऐसा करने का साहस न कर सका था ।
1
प्रच, श्लोक 25, 26, 27
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कश्मीर प्रदेश के पाठ व्याकरणो के मगाने की बात को लेकर पिणेल जैसे कुछ पाश्चात्य विद्वानो ने प्राचार्य हेमचन्द्र की मौलिकता पर आक्षेप करना चाहा है। उनका यह आक्षेप हेमचन्द्र द्वारा लिखे गये मस्कृत व्याकरण पर भले ही लागू हो, परन्तु इसी व्याकरण के अगभूत प्राकृत-व्याकरण, अपभ्र श-व्याकरण, धातुपाठ, गणपाठ, उणादि सूत्र, लिंगानुशासन देशीशब्दसग्रह, पर्यायवाची शब्दो का संग्रह (अभिवान चिन्तामणि) आदि इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि प्राचार्य हेमचन्द्र व्याकरण शास्त्र के अद्वितीय नाता थे । भापा के विभिन्न अगों का इस भाति एकत्र विवेचन परम्परा मे किसी प्राचार्य ने नहीं किया है।
प्रभावक चरित मे आगे की घटनायें भी उल्लिखित हैं ।
'हेमचन्द्र ने काश्मीर देश से लाये गये पाठो व्याकरण के ग्रन्यो का भलीभाति अध्ययन कर एक आश्चर्यजनक एव सर्वथा नवीन व्याकरण ग्रथ की रचना कर दी, जिसका नाम 'सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासन'' रखा गया। सभी व्याकरण के ग्रन्यो में इसे श्रेष्ठ माना गया । उस युग के पण्डितो ने भी इसे व्याकरण का अधिकारी ग्रथ स्वीकार किया ।
इस व्याकरण के प्रत्येक पद के अन्त मे उन्होंने चालुक्यवगीय नरेशो की प्रशसा में एक-एक श्लोक लिखा । पूरे ग्रन्य की कई प्रतिया बनाकर भारत के प्रत्येक प्रदेश मे भेजी गयी। वीस प्रतिया काश्मीर देश भी भेजी गयी जिन्हे 'वाग्देवी' (मरस्वती) ने बड़े सम्मान के साथ अपने पुस्तकालय मे रखा । काश्मीर से लाये गये आठ व्याकरण ग्रन्यो का मुष्ठ ज्ञान रखवे वाले एक कायस्थ विद्वान को हैमणब्दानुशासन के अध्यापन का भार राज्य की ओर से सौंपा गया । प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की पचमी को इससे सम्बन्धित परीक्षाये ली जाती थी। इन परीक्षामो में सफल होने वाले विद्यार्थी राजा की ओर से सम्मानित किये जाते थे।
अपने व्याकरण की इस प्रशस्ति ने हेमचन्द्र को बहुत अधिक उत्माहित किया और उन्होने और भी कई ग्रन्थ लिखे । इनमे कोणग्रन्य काव्य के अगो के विवेचकग्रन्थ तथा छन्द आदि से सम्बन्धित ग्रन्य सम्मिलित किये जा सकते है। इनका विस्तृत विवेचन हेमचन्द्र की रचनाओं के विवेचन के सन्दर्भ मे किया जायेगा।
1 प्रच., श्लोक 96 2 वही, 98-100 3 वही, 101-111 4. वही, 112-115
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प्रभावकचरित का उपर्युक्त विवेचन जयसिंह और हेमचन्द्र के माहित्यिक सम्बन्धो को स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त है । सक्षेप मे यह कहा जा सकता है कि हेमचन्द्र का भाषाविद् व्यक्तित्व बहुत कुछ जयसिंह के सम्पर्क और सहयोग से निर्मित है। प्राच र्य हेमचन्द्र केवल बौद्धिक ही नही एक उच्चकोटि के नीतिज्ञ एव धार्मिक भी थे। नीति और धर्म के क्षेत्र मे भी जयसिंह प्राचार्य हेमचन्द्र से बहुत अधिक प्रभावित थे । इस आशय के विवरण प्रभावक चरित, कुमारपाल प्रबध तथा हेमचन्द्र और जयसिंह से सम्बन्धित अन्य प्रवन्धो मे प्राप्त हो जाते हैं । यहा सभी का उल्लेख न कर ऐसी ही एक घटना का उल्लेख समीचीन होगा
मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा से एक बार जयसिंह ने विभिन्न धर्मो के ज्ञातायो से ईश्वर, धर्म और मुक्ति का पात्र कौन हो सकता है आदि प्रश्न अपनी शका के रूप मे सामने रखे । प्रत्येक धर्म के पण्डितो ने अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इन तत्त्वो की व्याख्या की । जयसिंह किसी भी की व्याख्या से संतुष्ट न हो सके। उन्होने हार-थक कर आचार्य हेमचन्द्र की शरण ली । आचार्य ने उन्हे एक पौराणिक कथा सुनायी
"शेखपुर मे शाम्ब नामक एक सेठ और यशोमति नाम की उसकी स्त्री रहती थी। पति ने अपनी पत्नी से अप्रसन्न होकर एक दूसरी स्त्री से विवाह कर लिया। अब वह नवोढा के वश मे होकर बेचारी यशोमति को फूटी आखो से देखना भी बुरा समझने लगा । यशोमति को अपने पति के इस व्यवहार से बडा कष्ट हुआ और वह प्रतिकार का उपाय सोचने लगी।
एक बार कोई कलाकार गौड देश से आया। यशोमति ने पूर्ण श्रद्धा भक्ति मे उसकी सेवा की, और उससे एक ऐसी औषधि ले ली, जिसके द्वारा पुरुष पशु वन सकता था । यशोमति ने आवेशवश एक दिन भोजन मे मिलाकर उक्त औषधि को अपने पति को खिला दिया, जिससे वह तत्काल बैल बन गया। अब उसे अपने इस अधूरे ज्ञान पर बडा दुख हया और वह सोचने लगी कि बैल को पुरुष किस प्रकार बनावे । लज्जित और दुखित वह जगल मे पास वाली भूमि मे एक वृक्ष के नीचे बैल रूपी पति को घास चराया करती थी और बैठी-बैठी विलाप करती रहती थी। दैवयोग से एक दिन शिव और पार्वती विमान पर बैठे हुए आकाश मार्ग से जा रहे थे । पार्वती ने उसका करुण विलाप सुनकर शकर भगवान से पूछा स्वामिन । इसके दु ख का कारण क्या है ? शकर ने पार्वती का समाधान किया और कहा कि इस वृक्ष की छाया मे ही इस प्रकार की औषधि विद्यमान है जिसके सेवन से यह पुन पुरुप बन सकता है। इस सवाद को यशोमति ने भी सुन लिया । उसने तत्काल ही
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उस छाया को रेसाकित कर लिया और उसके मध्मवर्ती तमाम घाम के प्र पुरी को तोड-तोड कर वैल के मुख में डाल दिया । घास के साथ श्रीपधि के चले जाने पर वैल पुन पुरुप बन गया।
इस प्रकार प्राचार्य ने प्रास्यान का उपसहार करते हा कहा- "गजन,' । जिस प्रकार नाना प्रकार की घासो के मिल जाने में प्रोपधि की पहिचान नहीं हो सकी, उसी प्रकार इस युग मे कई धर्मों के प्रचलन से सत्य धर्म निरोभून हो रहा है । परन्तु समस्त धर्मों के सेवन से उम दिव्य प्रोपधि की प्राप्ति के ममान पुष्प को कभी न कभी शुद्ध धर्म की प्राप्ति हो ही जाती है । जीव-दया, सत्य-अचीय प्रहाचयं पीर अपरिग्रह के सेवन से, बिना किसी विरोध के, ममम्त धर्मों का पागधन हो जाता है।"
इस कथा के अाधार पर प्राचार्य हेमचन्द्र का एक सर्वथा नवीन धार्मिक दृष्टिकोण सामने आता है । जैन धर्म के अनुयायी होते हुए भी उन्हे विमी धर्म में विद्वेष नही था । प्राणिमात्र को वे धर्म की सीमा से ऊपर मानते थे। मानवहित सम्बन्धी सभी बातें उन्हे मान्य हैं, भले उनका उल्लेख जैन धर्म में न हो । इम प्रकार सर्वधर्म समन्वय की भावना ने प्राचार्य हेमचन्द्र को और भी उच्चामन पर बैठा दिया था । धर्म के प्रति उनका यह उदारतापूर्ण दृष्टिकोण कई स्थलो पर स्पष्ट हुना है। सोमनाथ पट्टन में उनके द्वारा की गयी शिव की प्रार्थना उनके इसी दृष्टिकोण का परिणाम कही जा सकती है। उन्होने अपने "याश्रय काव्य"2 में भी कहा है कि "जिन" का दर्शन अहत, शिव, विष्णु और ब्रह्मा सभी में किया जा सकता है। प्राचार्य हेमचन्द्र के ही समान उनके पूर्व के कुछ जैनाचार्यों का भी धर्म के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण है । चालुक्यवशी भीम प्रथम के समकालीन कवि ज्ञानदेव "शिव ही जिन हैं" ऐसा कहकर अपना उदार दृष्टिकोण प्रकट करते हैं । उनके अनुसार शिव और जैन मे भेद करना मिथ्यामति मात्र है। इसी प्रकार सोमेश्वर नाम के जैन विद्वान् भी ऐसी ही दृष्टि रखते हैं। प्राचार्य हेमचन्द्र का यह विलक्षण धार्मिक दृष्टिकोण उनकी रचनायो मे भी देखा जा सकता है । सस्कृत द्वयाश्रय काव्य का समस्त वातावरण सनातनी है तथा प्राकृत द्वयाश्रय काव्य जैन धर्म का गुणगान करता है । इसी प्रकार अन्य कृतियो मे भी उनके उदार धार्मिक दृष्टिकोण को परिलक्षित किया जा सकता है । प्राचाय का सम्पूर्ण जीवनकाल भी धार्मिक समन्वय ही
1 2 3
प्रभावक चरित 70
या का, प्रथम अध्याय, श्लोक 79 सुरथोत्सव के रचयिता तथा भवी वस्तुपाल के मिन्न ।
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कहा जाना चाहिए। वे जिस परिवार के सदस्य थे उस परिवार मे भी भिन्न-भिन्न धर्मो को मानने वाले लोग सौहार्द से रहते थे । उनके पिता शैव थे, माता तथा मातुल जैन थे । वे जैन धर्म मे दीक्षित होने के बाद भी जयसिंह जैसे कट्टर शैव नृपति के सम्माननीय उपदेशक रहे । हेमचन्द्र के साहित्यिक जीवन का उत्तरार्द्ध भाग कुमारपाल के आश्रय मे बीता । कुमारपाल भी शैव था । प्राचार्य के उदार दृष्टिकोण ने ही उसे जैन धर्म की सेवा मे रत किया। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र का बौद्धिक जीवन ही नही उनका व्यावहारिक एव भावात्मक जीवन भी विभिन्न धर्मों की समन्वयात्मक दृढ नीव पर स्थित है।
अस्तु प्राचार्य हेमचन्द्र के प्रादर्श उदारतावादी धार्मिक दृष्टिकोण ने जयसिंह को बहुत अधिक प्रभावित किया । प्राकृत द्वयाथयकाव्य से हमे इस प्राशय की सूचना मिल जाती है कि जयसिंह ने "रुद्रमहालय" का पुननिर्माण (सिद्धपुर मे) करवाने के बाद एक जैन मन्दिर का भी निर्माण कराया श्रीर इसकी देखभाल के लिए बहुत से ब्राह्मणो की नियुक्ति भी की। इस घटना की पुष्टि सोमप्रभाचार्य के "कुमारपाल प्रतिबोध" से भी हो जाती है । अरव के एक भूगोलवेत्ता "अलइदरीसी" के अनुसार जीवन के अन्तिम दिनो मे जयसिंह जैन धर्म की ओर आकृष्ट हो रहा था । उसी से सूचना मिलती है कि वह बुद्ध की मूर्ति की भी पूजा करता था । परन्तु इन विवरणो से यह निष्कर्प नही निकाला जा सकता कि जयसिंह किसी धर्मविशेष की ओर आकृष्ट था । जयसिंह एक प्रजापालक राजा था । प्रजा द्वारा माने जाने वाले भिन्न-भिन्न धर्मों का यथोचित सम्मान उसका राजोचित धर्म था । यदि जीवन के अन्तिम दिनो मे उसका विशेष झुकाव जैन धर्म की ओर था तो इसका कारण आचार्य हेमचन्द्र और इन्ही के समान विद्वान् वीराचार्य तथा मालाघारी हेमचन्द्र (एक अन्य हेमचन्द्र)
आदि से सम्पर्क रहा होगा । वीराचार्य बचपन से ही जयसिंह के मित्र थे । मालाधारी हेमचन्द्र ने भी जयसिंह को प्रभावित कर लिया था । जयसिंह ने उन्हे धर्मध्वज फहराने तथा जैन मन्दिरो पर अण्डाकार सुनहरे गोलक रखने की प्राज्ञा दी थी। मालाधारी हेमचन्द्र ने जयसिंह से एक ताम्रपत्र भी प्राप्त किया था जिस पर वर्ष के 80 दिनो मे जीवो की हत्या न करने का राज्यादेश अकित था ।
इस प्रकार जयसिंह जैसे योग्य राजा के दरबार मे रहकर आचार्य हेमचन्द्र ने अपने साहित्यिक जीवन का अत्यधिक माग यापन करते हुए अपने महान् व्यक्तित्व का निर्माण किया । इन दो महान् व्यक्तियो के एकत्र सहयोग ने "अणहिल्लपुर" की
1. डा. वूलर-लाइफ माफ हेमचन्द्र, 484-84 नोट न 53
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माहित्य और कला साधना को उज्जयिनी ग्रादि प्रसिद्ध माम्गतिक नगरो मे भी अधिक ऊ चाई पर पहु चा दिया ।
प्राचार्य हेमचन्द्र और कुमारपाल
प्राचार्य हेमचन्द्र की साहित्य साधना दो महान् राजाम्रो की छाया गे परिवद्धित एव विकसित हुई । प्रथम राजा मिद्धराज जयसिंह (वि० स० 1151-1199) तथा दूसरा राजा कुमार पाल जो कि सिद्धगज के बाद अगहिरलपुर के सिंहासन का अधिकारी हुया । इन दोनो राजाप्रो की छत्रछाया मे रहकर हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ रत्नो का निर्माण किया । मिद्धराज और हेमचन्द्र के सम्बन्धो की चर्चा ऊपर की जा चुकी है यहा कुमारपाल और हेमचन्द्र के सम्बन्धो पर विस्तार से विचार कर लेना समीचीन होगा।
सिद्धराज जयसिंह के पश्चात् अणहिल्लपुर की गद्दी का उत्तराधिकारी कोई नही था क्योकि जयसिंह की अपनी कोई भी सन्तान नहीं थी। पुरातन प्रवन्ध सग्रह के अनुसार जयसिंह की मृत्यु के बाद 18 दिनो तक राज्य सिंहासन पर उसकी पादुका रखी गयी। 19 वें दिन कुमार पाल ने अपने बहनोई कान्हडदेव की सहायता से उस पर अधिकार प्राप्त किया । कुमार पाल प्राप्त प्रमाणो के आधार पर जयसिंह का भतीजा था परन्तु जयसिंह उसका कट्टर शत्रु था। अपने जीवन के अन्तिम दिनो मे वह वरावर कुमारपाल को मरवा डालने का प्रयत्न करता रहा था । जयमिह की इस शत्रुता का क्या कारण था इसे जानने के लिए कुमार पाल के जीवन चरित पर सक्षिप्त दृष्टि डाल लेना अनुचित न होगा । प्राचार्य हेमचन्द्र के साथ उसके प्रथम साक्षात्कार की समस्या भी इसी मन्दर्भ मे हल हो जायेगी।
कुमारपाल
कुमारपाल के शासनकाल तथा उसके जीवन का विस्तृत परिचय देने वाले अब तक 21 अभिलेख गुजरात से प्राप्त हो चुके है । इनमे दो ताम्रपत्रो पर तथा शेप शिलानो पर अकित है। इनमे 1151 तथा 1125 ई० के दो प्रस्तर लेख तया 1156 ई० का एक ताम्रपत्र कुमार पाल के जीवन से सवधित विवरण प्रस्तुत करने वाले है । शेप उसके शासन काल का विवेचन प्रस्तुत करते हैं ।
कुमार पाल से जीवन का विस्तृत परिचय साहित्यिक कृतियो द्वारा प्राप्त होता है । इनमे तीन ग्रन्थ स्वय कुमार पाल के समकालीन हैं
(१) प्राचार्य हेमचन्द्र का प्राकृत-द्वयाश्रयकाव्य या कुमारपाल चरित ।
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[ 25 (2) सोमप्रभाचार्य का कुमारपाल-प्रतिबोध तथा मोहराजपराजय नामक नाटक ।।
(3) स्वय हेमचन्द्र के अन्य ग्रन्थो मे प्राप्त विवरण । आचार्य के छन्दोऽनुशासन के 20 श्लोक, देशी नाममाला या रमणावली के 105 पद त्रिषष्टिश्लाकापुस्षचरित की कुछ पक्तिया इसी ग्रन्थ का प्रशस्तिपर्व आदि सभी कुमारपाल के जीवन पर प्रकाश डालते हैं ।
दयाश्रयकाव्य के अनुसार भीम प्रथम के बडे पुत्र का नाम क्षेमराज था। छोटे पुत्र का नाम कर्ण था । क्षेमराज ने अपनी धार्मिक वृत्ति के कारण राज्य शासन स्वीकार न कर कर्ण को सौप दिया और मरम्वती के किनारे दधिस्थली मे तपस्या करने लगे । क्षेमराज को देवप्रसाद नाम का एक पुत्र था । जब कर्ण ने अपनी गद्दी मिद्धराज को सौपी तो उसने उसे यह निर्देश किया कि वह देव प्रसाद पर दयादृष्टि रखते हुए उसकी देखभाल करता रहे । परन्तु देवप्रसाद कर्ण के साथ ही परलोकगामी हपा । मरने के पहले उसने अपने पुत्र त्रिभुवनपाल को जयसिंह की रक्षा मे छोड दिया था । कुमारपाल इसी त्रिभुवनपाल का पुत्र था । इसी प्रकार का विवरण चित्तौडगढ मे प्राप्त एक अप्रकाशित अभिलेख तथा कुमारपाल प्रतिबोध मे मिलता है ।
उपर्युक्त घटना को एक ऐतिहासिक तथ्य मानने में कुछ आपत्तिया अवश्य हैं । यदि कुमारपाल जयसिंह के ही परिवार का था तो फिर जयसिंह ने स्वेच्छा से उसे अधिकार क्यो नही दे दिया। वह उसको मरवा डालने के लिए क्यो प्रयत्नशील रहा ? प्रभावक चरित मे दिये गये कुमारपाल से सम्बन्धित विवरण से इस समस्या पर थोडा प्रकाश पडता है अत उसका विवेचन समीचीन होगा
___ "महाराज भीम ने अपनी एक अत्यन्त स्वामिभक्त दासी बकुला देवी या चौला देवी से विवाह कर लिया। इस दासी से हरिपाल नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । हरिपाल के पुत्र का नाम त्रिभुवनपाल था । कुमारपाल इसी त्रिभुवनपाल का पुत्र था। माता की ओर से निम्न वर्ग का होने के कारण ही कुमारपाल जयसिंह की घृणा का पात्र बन गया था ।
1 यशपाल कृत।
प्राकृमद्व याश्रय काव्य-श्लोक सख्या 70-771 3 इस अभिलेख का उद्धरण डा0 गौरीशकर हीराचन्द्र ओझा ने अपने ग्रन्थ "राजपूताने का
इतिहास (भाग 1, पृ0 318-19) मे दिया है । 4. प्रभावक चरित पृ0 77।
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प्राकृतद्व याश्रयकाव्य और प्रभावक-चरित के इस विवरण में बहुन बढा अन्तर है। रसिकलाल सी० पारिस के अनुसार
"This account of Prabhavakcharita gives a cradıblc explanation of Jaisingha's hostile attitude to Kumarpal, but differs in its geneology from contemporary accounts? and Flatly contradicts D.K (Dvyashraya Kavya) according to which Kshamraj was fully legible for the throne. We don't know what was the authority of the PC (Prabhavak-Charit) for such a humiliating origin 10 a king who according to the Jaina sources was a Paramarhat (97HET) a great Jain King As it is we can not accept it in face of contemporary authorities "2
प्रभावक चरित्र से ही मिलता-जुलता और कुछ आगे बढा हुग्रा विवरण जिनमण्डल कृत कुमारपाल प्रवन्ध मे भी मिलता है। कुमारपाल के समस्त परिवार का विवेचन इस ग्रन्थ का अतिरिक्त विवरण हैं । शेप प्रभावक चरित का ही अनुसरण है।
समसामयिक साक्ष्यो के आधार पर कुमारपाल राज परिवार से ही सम्बन्धित था । दयाश्रय काव्य मे कई स्थलो पर उसे 'मैमी" कहकर सम्बोधित किया गया है जिसका अर्थ है भीम का उत्तराधिकारी । इस शका का समाधान तो हो जाता है परन्तु जयसिंह और कुमारपाल की शत्रुता के कारण की समस्या ज्यो की त्यो बनी रहती है । यह भी विवरण मिलता है कि 20 वर्ष की अवस्था तक कुमारपाल जयसिंह के ही पाश्रय मे रहा । परन्तु इसी बीच जयसिंह उसका शत्रु हो गया और उसको मरवा डालने की चेप्टा करने लगा। इस शत्रुता का एक मात्र कारण प्रतिद्वन्दिता की भावना थी। प्रभावक चरित के अनुसार कुमारपाल जिस समय (1199 वि० स०) मे गद्दी पर बैठा उसकी अवस्था 50 वर्ष की थी अर्थात् उसका जन्म 1149 वि० स० मे हुया था। 1149 वि० स० मे ही सिद्धराज जयसिंह सिंहासनारूढ हुना, उस समय उमकी अवस्था केवल ८ वर्ष की थी । इस तरह चाचा जयसिंह और भतीजे कुमारपाल की अवस्था मे बहुत कम अन्तर था । जयसिंह को
1. हेमचन्द्रकृत प्राकृत याश्रयकाव्य यशपाल कृत 'मोहराजपराजय', सोमप्रभाचार्य कृत 'कुमार
पालप्रतिवोघ' तथा आ0 हे0 च0 द्वारा अन्य ग्रन्थो मे दिये गये विवरण, समकालीन होने के
कारण अधिक विश्वसनीय है। 2 काव्यानुशासन भूमिका पृष्ठ 9/9 ।
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कुमारपाल द्वारा सिंहासन छीन लिये जाने का डर लगा रहता रहा होगा अत वह उसको मरवा डालने मे ही अपना कल्याण समझता था। "पुरातन प्रबन्ध सग्रह" के अनुसार कुमारपाल ने मार डाले जाने के भय से २० वर्ष की अवस्था मे ही प्रणहिल्लपुर छोड दिया था । वह भारत के विभिन्न भागो मे घूमता रहा । सात बार केदारनाथ की यात्रा की। इस प्रकार वह ३० वर्ष तक छिपकर अपनी रक्षा करता रहा । उज्जयिनी मे एक मोची की दुकान पर जयसिंह की मृत्यु की चर्चा सुनकर वह पुन अहिल्लपुर वापस आया ।'
हेमचन्द्र और कुमारपाल की प्रथम भेट
"सिद्धराज-जयसिंह से डर कर प्राण बचाकर भागता हुआ कुमारपाल स्तम्भतीर्थ पहुँचा । यहा पर वह उदयन मत्री और प्राचाय हेमचन्द्र से मिला । दुखी कुमारपाल ने प्राचार्य से पूछा-'प्रभो | क्या मेरे भाग्य मे इसी तरह कष्ट भोगना लिखा है कि और कुछ भी है ? आचार्य ने कहा-भवता कियतापि त्व कालेन क्षितिनायक ।।
-जयसिंह सूरि कृत कुमारपालचरित प्राचार्य के इस कथन पर उसे विश्वास नहीं हुआ। सूरीश्वर ने थोडी देर विचार कर कहा--"मार्गशीर्ष कृष्ण १४ वि०स० १११६ मे आप राज्याधिकारी होगे । मेरा यह कथन कभी असत्य नही हो सकता।" यह तिथि उन्होंने एक पत्रक पर लिखकर कुमारपाल तथा उदयन मत्री दोनो को दे दी। इस पर कुमारपाल बोला-"प्रभो । यदि आपका वचन सत्य हा तो आप ही पृथ्वीनाथ होगे । मैं तो आपके पाद पद्मो का सेवक बनू गा । "हंसते हए सूरीश्वर बोले "हमे राज्य से क्या काम ? यदि आप राजा होकर जैन धर्म की सेवा करेगे तो हमे प्रसन्नता होगी।"
पुरातन प्रवन्ध सग्रह, पृष्ठ 38 । जिनमण्डन कृत कुमार पाल प्रबन्ध मे (पृ0 18-22), इसके पहले भी एक बार हेमचन्द्र और कुमारपाल की भेंट वर्णित है-"एक बार कुमारपाल जयसिंह से मिलने गया था। उसने मुनि हेमचन्द्र को वहा सिंहासन पर बैठे देखा । वह उनके व्यक्तित्व से बहुत अधिक प्रभावित हुआ
और उनके भापण कक्ष मे जाकर भाषण सुनने लगा । उसने आचाय से पूछा-मनुष्य का सबसे वडा गण क्या है ? आचार्य ने कहा-'दूसरो की स्त्रियो में मा बहिन की भावना रखना सबसे बडा गुण है।" यदि इस घटना को ऐतिहासिक माना जाये तो यह स0 1169 के पहले र्की होगी या लगभग इसी समय की होगी। क्योंकि इस समय तक कमारपाल निश्चित होकर जयसिंह के राज्य मे रह रहा था । ऊपर की कथा का इस कथा से कोई विरोध भी नहीं है। कुमारपाल का एकाएक हेमचन्द्र से अपनी समस्या का समाधान पूछने का ढग भी बताता है कि वह उनसे पूर्व परिचित था।
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विमृश्याभिदघे सूरिनवाड्केश्वरवत्सरे । चतुझं मार्गशीर्पस्य श्यामाया पुप्यगे तिथौ ।। 184 ।। अपराले तवैश्वर्य यदि नोर्जस्वि जायते, निमित्तालोक सन्त्यास (?) स्तात . परमस्तुमे ।। 185 ।। प्रतिज्ञायेति सूरीन्द्रस्तदा तद्दिन परकम् । लेखित्वा प्रददौ तस्मै सचिवोदयनाय च ।। 186 ।। तेन तस्य सुरस्येव ज्ञानेनातिचमत्कृत ।। चौलुक्यस्तमुवाचेव घटिताजलि मजुल ॥ 187 ।। यद्यतत्त्वद्वच सत्य त्वमेव क्षितिपस्तदा । अह तु त्वत्पदाम्भोज सेविष्ये राज हसवत् ।। 188 ॥ वदन्तमिति त सूरिर्जगी राज्येन किं मम । भानुनेव त्वयोभास्य शश्वज्जैन मताम्बुजम् ॥ 189 ।।
-"कुमारपाल चरित" इसके ठीक बाद ही जयसिंह के आदमी कुमारपाल को ढूढते हुए पहुंचे। प्राचार्य ने वसति के भूमिगृह (तहखाने) मे कुमारपाल को छिपा दिया और उसके द्वार को पुस्तको से वन्द कर दिया । तत्पश्चात् जब जयसिंह की मृत्यु हुई प्राचार्य की भविष्यवाणी के अनुसार कुमारपाल सिंहासनारूढ हुआ । यह घटना वि स 1199 की है । इस समय कुमारपाल की अवस्था 50 वर्ष थी।
कुमारपाल के राजा हो जाने के बाद हेमचन्द्र कर्णावती से अहिल्लपुर आये । मत्री उदयन ने उनका प्रवेशोत्मव किया। उनके यह पूछने पर कि कुमारपाल उन्हे याद करता है या नही ? मत्री ने बताया कि वह प्राचार्य को भूल चूका है। इस पर हेमचन्द्र ने कहा कि "अाज आप जाकर राजा से कहे कि वह अपनी नयी रानी के महल मे न जाये वहा आज दैवी उत्पात होगा ।" उन्होने मत्री को इस बात के लिए समझा दिया कि वह बहुत पूछने पर ही राजा से यह वतायें कि मेरे द्वारा यह वात वताई गई है । मत्री ने जाकर राजा से कहा । रात्रि को महल पर बिजली गिरी और रानी की मृत्यु हो गयी। चमत्कृत कुमारपाल को जब आचार्य द्वारा बताई गई इस चमत्कारपूर्ण वात का पता चला, वह अतीव प्रमुदित हुआ और उन्हे वुलाकर महल मे ले आया-उसने अपनी प्रतीज्ञा के अनुसार सूरीश्वर को राज्य देने की इच्छा की । सूरि ने कहा-"राजन् अगर आप कृतज्ञता स्मरण कर प्रत्युपकार करना चाहते हैं तो जैन धर्म स्वीकार कर उसका प्रसार करें। राजा ने धीरे-धीरे यह धर्म स्वीकार किया । उसने अपने राज्य मे प्राणिवघ, मासाहार, असत्य भाषण, धूत
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व्यमन, वेश्यागमन, परधनहरण आदि का निषेध कर दिया । इस तरह अपने जीवन के अन्तिम समय मे कुमारपाल ने हेमचन्द्र के प्रभाव से जैन धर्म स्वीकार कर लिया ।
डा० बूलर' की मान्यता है कि हेमचन्द्र कुमारपाल से तब मिले जब उसने राज्य प्राप्त कर लिया था । इस मत की पुष्टि मे वे "महावीर चरित” के 53 वे श्लोक का महारा लेते हैं । इसी ग्रन्थ मे ही यह उल्लेख मिलता है जब राज्य का विस्तार हो गया और सारी विजये भी प्राप्त हो गयी इसके बाद ही कुमारपाल और आचार्य हेमचन्द्र सम्पर्क मे आये । डा० वूलर प्रबन्ध सग्रहो द्वारा दिया गया विवरण ऐतिहासिक नही मानते ।
डा० वूलर के इस मत की आलोचना डा० रसिकलाल पारिख ने की है । उनका कथन है कि अपने मत की स्थापना मे डा० वूलर ने महावीर चरित' केजिन श्लोको का आधार लेकर निष्कर्ष निकालना चाहा है वह सर्वथा विवादास्पद है । इसके 45-51 तक के श्लोक स्वय कुमारपाल और उसके सुन्दर शासन का विवरण देते हैं श्लोक 52 मे उसके राज्य विस्तार का वर्णन प्रस्तुत किया गया है । 53-58 तक के श्लोक आचार्य हेमचन्द्र और कुमारपाल के बीच प्रत्येक दिन होने वाली वार्ता का विवरण प्रस्तुत करते हैं डा० बूलर ने भ्रम से यह समझ लिया कि दोनो के बीच हुई यह वार्ता प्रथम वार्ता है, परन्तु यह उनकी भ्राति मात्र है । इस तथ्य से केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस तरह की नित्य होने वाली वार्ता अवश्य ही कुमारपाल की महत्त्वपूर्ण विजयो के बाद ही शुरू हुई होगी । पहले अपनी व्यस्तता के कारण कुमारपाल को इस तरह प्राचार्य के उपाश्रय मे बैठकर शिक्षा ग्रहण करने का अवसर न मिलता रहा होगा ।
प्राप्त उल्लेखो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हेमचन्द्र से पूर्व परिचित होते हुए भी अर्णोराज पर आक्रमण करने के बाद ही कुमारपाल प्राचार्य तथा उनके माध्यम से जैन धर्म से घनिष्टतम रूप से सम्बन्धित होने लगा था । अर्णोराज पर किये गये अाक्रमण मे असफलता मिलने पर कुमारपाल ने अपने मत्री बाहड की सलाह से अजितनाथ स्वामी की प्रतिमा का स्थापन समारोह कराया। इसकी सारी विधि प्राचार्य ने ही सम्पन्न कराई लगभग वि स 1207 तक कुमारपाल जयसिंह के पुराने अधिकारियो द्वारा किये जाने वाले षडयन्त्रो से निश्चित होकर तथा युद्धो से भी छुटकारा पाकर धीरे-धीरे आध्यात्मिकता की ओर झुकने
1 डा0 बलर लाइफ आफ हेमचन्द्र, पृ0 83-84 । 2 महावीरचरित, पृ0 34 । 3 काव्यानुशासन, भूमिका, पृष्ठ मी0 सी0 एल0 33 ।
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लगा था और उसके इस परिवर्तन में प्राचार्य मनन्त का वहन गाय गा निष्कर्ष रूप मे यह कहा जा सकता है कि हेमचन्द्र का गम्पक मापार में बात पहले ही हो चुका था और राजा होने के लगभग 16 वर्ष बाद उस जंग गमं स्वीकार किया, यही कारण है कि "मिटिलाणकारपर्धान्त' और "भियान. चिन्तामणि" मे हेमचन्द्र ने कुमारपाल की प्रगम्नि दी है।
जिम प्रकार सिद्धराज जयसिंह को प्रचना पर मचन्द्र में "गिद्ध 2. शब्दानुशासन" की रचना की थी उसी प्रकार कुमारपान के प्रार्थना करने पर कोने "योगशास्त्र", "वीतराग स्तुति" "विपष्टिनाशकारपरिन" तथा "मानचिन्ना मरिण" यादि ग्रन्थो की रचना की । हेमचन्द्र का फुमारपाल पर प्रभाव
जयसिंह के प्रसग में इस बात का उरलेस किया जा चुका है कि हेमचन्द्र जैन प्राचार्य होते हुए भी सभी धर्मों का समान रूप से प्रादर करते थे। उनकी उन भावना का प्रभाव कुमारपाल पर भी पहा । सम्भात मे कुमारपाल ने प्राचार्य में समक्ष यह शर्त मान ली थी कि यदि वह भविष्यवाणी के अनुमार निश्चित समय पर राजा हो गया तो जैन धर्म की सेवा करेगा। इसके अतिरिक्त 20 वर्ष की अवस्था से ही उस पर प्राचार्य की विद्वत्ता का प्रभाव पड़ चुका था। राज्य प्राप्त करने के वाद हेमेचन्द्र की इच्छानुसार उमने जैन धर्म स्वीकार भी कर लिया ।
कुमारपाल ने जैन धम स्वीकार दिया था या नही इस बात को लेकर छ विवाद भी है । शिलालेखो मे कुमारपाल को "महेश्वरनुपाग्रणी" कहा गया है। इन प्रमाणो के आधार पर यह कहा जा मकता है कि यद्यपि कुमारपाल की चिलन धारा में परिवर्तन आया फिर भी उसने अपनी पारम्परिक पूजा पद्धति को पूरी तरह नही छोड दिया । यज्ञो प्रादि के अवसर पर उभने पशुबलि भले ही बन्द करा दी हो लेकिन अपने कलदेव शिव का सदैव भक्त बना रहा । कुमारपाल प्राचार्य हेमचन्द्र को अपना गुरु मानता था। जैन धर्म की अच्छाइयो को देखकर उसका सम्मान भी करता था । कई अवसरो पर उसने जैन मन्दिरो में पूजा भी अपित की । परन्तु उसने पूर्णत जैन धर्म स्वीकार कर लिया था इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण विरोध करते हैं। प्रत्येक राजा का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने राज्य के सभी
1 निपष्टिशलाका पुरुपचरित मे हेमचन्द्र ने कुमारपाल को 'परमाहत' कहकर सम्बोधित
किया है। 2. कुमारपाल के शासनकाल में लिखा गया भाववृहस्पति का शिलालेप। इसका उल्लेख रसिक
लाल सी पारिख ने काव्यानुशासन को भूमिका पृ0 287 पर किया है।
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धर्मों की समृद्धि मे योग देने के साथ ही उनका सम्मान भी करे । राजा होने के बाद कुमारपाल ने भी इसी परम्परा का पालन किया।
इन ऐतिहासिक प्रमाणो से अलग कुछ साहित्यिक प्रमाण और स्वय प्राचार्य हेमचन्द्र की उक्तिया हैं जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि कुमारपाल ने अपने जीवन के अन्तिम दिनो मे जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। यशपाल द्वारा रचित "मोहराज पराजय" नामक नाटक मे कुमारपाल के सात्विक और आध्यात्मिक जीवन की पूर्ण झाकी मिलती है । अत कुमारपाल ने जैव धर्म स्वीकार कर लिया था, इसमे आशका नही रहती । राजा कुमारपाल ने अनेक मन्दिर बनवाये । भिन्न-भिन्न स्थानो पर 1440 विहार बनवा कर धर्म प्रचार के लिए बहुत बडा प्रयास किया ।
यदि इन दोनो मतो को एकत्र समन्वित कर देखा जाये तो यह कहा जा सकता है कि कुमारपाल यद्यपि जीवन भर शैव था फिर भी हेमचन्द्र के प्रभाव से उसने अपने जीवन के अन्तिम दिनो मे जैन धर्म मे आस्था दिखायी होगी । कुमारपाल
के जीवन मे आचार्य हेमचन्द्र का बहत बडा स्थान था। वे उसके पूज्य धर्म गुरु ही __ नही, रक्षक भी थे । अत उनका सम्मान करने के लिए कुमारपाल द्वारा जैन धर्म का स्वीकार किया जाना न तो असभव ही लगता है और न असगत ही ।
"त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित" की प्रशस्ति से उपयुक्त तथ्य और भी स्पष्ट हो जाता है_ "चेदि दशार्ण, मालवा, कुरु, सिन्धु इत्यादि दुर्गम प्रदेशो का विजेता चालुक्यराजा कुमारपाल जो मूलराज का उत्तराधिकारी तथा परमार्हत था एक दिन आचार्य के समक्ष विनम्रतापूर्वक झुककर कहने लगा
मुनिश्रेष्ठ | आपके द्वारा आज्ञा पाकर मैंने अपने राज्य मे उन सभी कार्यो को बन्द करा दिया है जो नरक की अोर ले जाने वाले है जैसे जुआ खेलना, मदिरा पीना, नि सतान मतव्यक्ति की सम्पत्ति का हडप लेना आदि । मैंने पृथ्वी को अर्हत (जैन) मन्दिरो से भर दिया है प्रादि ।'
___ इन सभी प्रमाणो को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि कुमारपाल के जीवन पर हेमचन्द्र का बहुत बड़ा प्रभाव था। "प्रबन्ध कोश" के अनुसार कुमारपाल राजनैतिक मामलो मे भी हेमचन्द्र की सलाह लेता था, यहा तक कि राज्य शासन के उत्तराधिकार से सम्बन्धित समस्याए भी वह प्राचार्य के सामने रखता था ।
1 त्रिष्टिशलाकापुरुषचरित-श्लोक पृष्ठ 16-18 ।
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दूसरी अन्य बातें जिनका सम्बन्ध प्रजा के कल्याण से रहता था, वे भी प्राचार्य की । आज्ञा लेकर की जाती थी। प्राचार्य हेमचन्द्र और उस युग के अन्य स्याति प्राप्त व्यक्तित्व
सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल से दो पराक्रमी राजानो से घनिष्टतम रूप से सम्बन्धित होने के अतिरिक्त हेमचन्द्र उस युग के अन्य प्रसिद्ध लोगो से भी अच्छी तरह परिचित थे । ऐसे लोगो मे बुद्धिमान मत्री उदयन और उमके पुत्र वाहड तथा पाभड आदि इनसे निकटतम रूप से सम्बन्धित थे। जैन धर्म के विद्वानो के अतिरिक्त वे अन्य धर्म के मानने वाले विद्वानो से भी अच्छी तरह परिचित थे। भागवत धर्म के प्रसिद्ध विद्वान् देववोध के वे बहुत बडे प्रशसक थे । देवबोध और श्रीपाल मे मैत्री कराने मे इन्होने बहुत बडी महायता की । हम पहले इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि प्राचार्य हेमचन्द्र के समय का गुजरात विद्वानो से भरा हुग्रा था। आये दिन विद्वानो मे विवाद होते रहते थे। प्राचार्य हेमचन्द्र भी इन विवादो मे सम्मिलित होते थे परन्तु अपने प्रभाव के कारण इनकी कभी किसी से कटुता नही हुई । केवल "श्रामिग" नाम के विद्वान्, एक ऐसे व्यक्ति थे जिनसे हेमचन्द्र के सम्बन्ध अच्छे नही बताये जाते । इनके कई शिष्य' भी थे।
प्रभावक चरित के अनुसार प्राचार्य हेमचन्द्र की मृत्यु 84 वर्ष की परिपक्व अवस्था मे वि स 1229 (1173) मे हुई थी । कुमारपाल की मृत्यु इनकी मृत्यु के छ महीने बाद 1174 ई मे हुई थी। प्राचार्य की मृत्यु से कुमारपाल को बहुत वहा धक्का लगा । प्राचार्य हेमचन्द्र की रचनाएं
"प्राचार्य हेमचन्द्र का व्यक्तित्व बहुमुखी था । ये एक साथ ही महान् सन्त, शास्त्रीय विद्वान्, वैयाकरण, दार्शनिक, काव्यकार, योग्य लेखक और लोक चरित्र के अमर सूधारक थे । जैन धर्म परम्परा इन्हे एक अवतारी पुरुष के रूप मे मानकर
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Hemchandra had a group of Disciple who were very learned and who helped him in his work of these Ramchandra (रामचन्द्र) deserves special mention He is reputed to be the author of hundred Prabandhas that is composition Some of his plays are published, they are good as literature and show considerable skill 10 the technique af play writing His Natya Darpana (नाट्यदर्पण) a work of Dramaturgy has been published .. His kumarviharsatak (कुमारविहारशतक) is a fine description."
-Introduction to Kavyanusasan. pp CCXIC & CCXC
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इनके द्वारा प्रणीत असख्य ग्रन्थो का उल्लेख करती है । कही-कही तो इन्हे लगभग साढे तीन करोड एलोको का निर्माता बताया गया है । परन्तु हेमचन्द्र के नाम से मिलने वाली ऐसी रचनाओ मे अनेको सदिग्ध है । अब तक की खोजो के आधार पर उनके जितने प्रामाणिक ग्रन्थ सामने आये हैं उन्हे देखकर यह कहना पडता है कि सचमुच वे "कलिकाल सर्वज्ञ" थे । उनकी विविध ज्ञान-विज्ञान तथा साहित्य और कला आदि से सम्बन्धित रचनायो को देखकर आश्चर्य चकित रह जाना पडता है । एक ही व्यक्ति द्वारा इतने सारे ग्रन्थो का निर्माण वह भी अत्यधिक विस्तार से भारतीय साहित्य परम्परा के लिए एक नयी बात थी।
"त्रिषष्टिशलाका पुरुपचरित" की प्रशस्ति मे प्राचार्य हेमचन्द्र अपनी प्रमुख रचनाओ का उल्लेख स्वय करते हैं । वहा कुमारपाल हेमचन्द्र के द्वारा दी गई आज्ञायो का पालन करने के बाद आकर आचार्य को उनका आदेश पूरा हो जाने की सूचना देने के बाद उनके द्वारा सिद्धराज जयसिंह के राज्यकाल मे तथा स्वय अपने राज्यकाल मे रचे गये ग्रन्थो की सूचना देने के बाद आचार्य से जैन तीर्थडुरो के जीवन से सम्बन्धित एक लोकहितकारी ग्रन्थ के निर्माण की प्रार्थना करता है । उसकी प्रार्थना के अनुसार हेमचन्द्र ने 63 महापुरुषो की जीवन कथाओ का समाहार त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित मे किया । इस विवरण के आधार पर हेमचन्द्र के सात ग्रन्थो का उल्लेख इस प्रकार है -
(1) सिद्धहैमशब्दानुशासन-उसकी वृनि तथा व्याख्या भी। (2) योग शास्त्र । (3) दयाश्रय काव्य । (4) छन्दोऽनुशासन । (5) काव्यानुशासन । (6) नाम सग्रह-इनमे अभिधानचिन्तामणि-देशीनाममाला इत्यादि कोष
ग्रन्थ आते हैं। (7) त्रिषष्टिशलाका पुरुपचरित । ये रचनाए कालक्रम से वरिणत नही हैं ।
"कुमारपालप्रतिबोध" के रचयिता सोमप्रभसूरि और "मोहराजपराजय" नाटक के रचयिता यशपाल की सूचनाओ के आधार पर हेमचन्द्र की तीन अन्य कृतिया भी प्राप्त होती हैं
(8) वीतराग स्तुति । (9) द्वात्रिंशिका । (स्तोत्र) (10) प्रमाण मीमासा।
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इन महत्त्वपूर्ण रचनायो के अतिरिक्त अनेको छोटी-छोटी रचनायो का उरलेस भी प्राप्त हो जाता है। विपय की दृष्टि मे प्राचार्य की रचनाए अत्यन्त विस्तृत और विविधता लिये हुए हैं। सिद्धहैमशब्दानुशासन
___ "सिद्धहेमशब्दानुशासन' की रचना के कारणो पर विस्तार से प्रकाश डाला जा चुका है। अब तक प्राप्त प्रमाणो के आधार पर यह प्राचार्य हेमचन्द्र की प्रथम रचना है । इस ग्रन्थ की रचना एक वर्ष के अन्दर हुई थी । ऐसा उल्लेख प्रभावक चरित में आता है । परन्तु यह मर्वधा असम्भव मा लगता । हा इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इसकी रचना सिद्धराज की मृत्यु अर्थात् वि स 1199 या 1143 ई के पहले हो चुकी थी। सिद्धहमशब्दानुसान का स्वरूप
सिद्धहेमशब्दानुशासन के कुल पाच भाग हैं
(1) सूत्र, (2) गण पाठ (3) धातु पाठ (4) उणादि सूत्र (5) लिंगानुशासन । परम्परा मे जितने भी व्याकरण ग्रन्थ लिखे गये थे, उनमे सूत्र किसी के द्वारा लिखा गया, तो वृत्ति किसी अन्य ने लिखी । गण पाठ, उणादि सूत्र, लिङ्गानुशासन आदि भी भिन्न-भिन्न व्यक्तियो द्वारा प्रणीत हुए, परन्तु सिद्धहेम व्याकरण के ये सारे भाग एक व्यक्ति की रचना है । यह एक विशेष उल्लेखनीय बात है। इतना ही नही प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने द्वारा रचे गये सूत्रो पर लघु तथा वृहद्वृत्तिया भी स्वय ही लिखी । इस प्रकार संस्कृत के विभिन्न वैयाकरणो, पाणिनि, मट्टोजिदीक्षित और भट्टि का कार्य अकेले ही हेमचन्द्र ने सम्पादित किया । इस शब्दानुशासन की महत्ता एक बात मे और भी है कि इसमे सस्कृत व्याकरण के साथ ही प्राकृत का भी व्याकरण समाहित है । इसके प्रारम्भ के सात अध्याय सस्कृत व्याकरण से सम्बन्धित हैं । अन्तिम पाठवा अध्याय प्राकृत व्याकरण का आख्यान करता है । इस ग्रन्य के पूरक रूप मे धातु पाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र और लिङ्गानुशासन का आख्यान कर देने के बाद भी प्राचार्य को सतोष नही हुा । उन्होने तत्कालीन राजामो जयसिंह और कुमारपाल के चरित को लेकर एक अद्भुत ग्रन्थ " याश्रय काव्य' की भी रचना की । जिसके शुरू के अध्याय चालुक्य वशीय राजाओ की कीर्ति का ख्यापन करने के साथ ही सस्कृत शब्दानुशासन के सूत्रो की व्याख्या
1. देखें प्रस्तुत प्रवध के इसी अध्याय का सिद्धराज जयसिंह आचार्य हेमचन्द्र" प्रसग । 2. आचार्य हेमचन्द्र की रचनाओ का तिथिक्रम निर्धारण आगे किया जायेगा।
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[ 35 भी प्रस्तुत करते है । अन्तिम जिसे "प्राकृत ह याश्रय काव्य" कहा जाता है-कुमारपाल से सम्बन्धित है । इसमे प्राकृत व्याकरण से सम्बन्धित सूत्रो की व्याख्या प्रस्तुत करने के साथ ही कुमारपाल का यश भी वणित है । सस्कृत और प्राकृत व्याकरण की रचना के बाद प्राचार्य ने अपभ्र श व्याकरण की भी रचना की। अपभ्र श भापा की दुरूहताग्रो को समझाने के लिए प्राचार्य ने जो अपभ्र श की गाथाए' सयोजित की हैं । वे उनकी अद्भुत प्रतिभा का दिग्दर्शन कराने के लिए काफी हैं । इस प्रकार प्राचार्य हेमचन्द्र ने व्याकरण सम्बन्धी कमियो को दूर करते हुए एक ही अन्य मे सव कुछ देकर सस्कृत और उससे नि सृत भाषामो के व्याख्यान मे अभूतपूर्व योग दिया ।
सिद्धहैमशब्दानुशासन मे कुल पाठ अध्याय हैं । प्रत्येक अध्याय चार चार पादो मे विभाजित है । इसमे कुल 4685 सूत्र है । इनमे 3 566 सूत्र सस्कृत व्याकरण से तथा 1119 सूत्र प्राकृत भापा के व्याकरण से सम्बन्धित हैं। इन सूत्रो पर प्राचार्य ने लधुवृत्ति और वृहद्वृत्ति नाम की दो वृत्तिया (व्याख्याए या टीकाए) भी लिखी है । घातुपारायण उणादि तथा लिङ्गानुशासन (वृहट्टीका सहित) वृत्तियो सहित इस ग्रन्थ के पूरक भाग है ।
डा० पारिख ने उसी ग्रन्थ पर लिखे गये एक "वृहत्र्यास" नामक ग्रन्थ की भी सूचना दी है जिसका थोडा सा भाग प भगवानदास दोषी द्वारा खोज कर सम्पादित भी किया गया है । परम्परा मे चलने वाली चर्चाओ के आधार पर यह ग्रन्थ 84000 श्लोक प्रमाण था। इसके प्राप्त भाग को देखकर यह बात सत्य भी प्रतीत होती है । इस ग्रन्थ का निर्माण बहुत कुछ पतजलि के महाभाष्य के अनुरूप किया गया लगता है।
सिद्धहैमशब्दानुशासन के अत्यन्त विस्तत बाह्यरूप का विवेचन हो जाने के बाद इसके प्रान्तरिक रूप का प्रतिपादन भी असगत न होगा । यदि हम इस व्याकरण के निर्माण के उद्देश्य की ओर देखे तो हमे पता चलता है कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने पठनीय व्याकरण की दुरूहताओ से बचने के लिए इस ,व्याकरण की रचना की है। इस वात को उन्होने सिद्धहैम के प्रथम अध्याय मे प्रथम पाद के तृतीय सूत्र "लोकात"3 मे स्पष्ट की। उन्हे व्याकरण शास्त्र के लिए लौकिक व्यवहार की उपयोगिता अभीष्ट है । इसी प्रकार सधिप्रकरण-समास प्रकरण तथा सज्ञानो आदि के प्रकरणो मे उनकी कुछ निजी उपलब्धिया हैं । पाणिनि द्वारा प्रणीत अष्टाध्यायी
1 अपभ्र श व्याकरण मे उदाहरण के के रूप मे आये हुए दोहे आचार्य कृत नही हैं।
ऐसा विद्वानो का मत है। 2 काव्यानुशासन-भूमिका, 40 सी0 सी0 एक्स0 सी0 3 3 सि0 है0-11113
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___36 ] तथा अन्य पारम्परिक जैनेन्द्र आदि व्याकरणो की दुल्हताओ को दूर करना ही उनका प्रमुख उद्देश्य था । पाणिनि ने दीर्घ सघि का आख्यान "अक सवर्णे दीर्घ" कह कर किया था। यह सूत्र सामान्य पाठक की समझ मे तव तक नहीं पा सकता जब तक कि वह "माहेश्वर-प्रत्याहार सूत्र"1 का भली भाति पारायण न कर ले । प्राचार्य ने इसी बात को अत्यन्त सरल शब्दो मे प्रतिपादित कर दिया- समानाना तेन दीर्य 11211 ।
इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र का यह व्याकरण ग्रन्य उनके गहन एव विस्तृत अध्ययन का परिणाम होने के साथ ही विभिन्न स्तर के व्याकरण पढने वालो के लिए अत्यन्त सरल भी है । परम्परा मे चली ग्राती हुई अनेको कमियो की पूर्ति इस एक ही ग्रन्य ने कर दी। इस ग्रन्य को लेकर कुछ लोगो ने यह भी कहने का प्रयत्न किया है कि इसमे विषयगत मौलिकता नहीं है । आचार्य हेमचन्द्र ने पाणिनि तथा अन्य सम्कृत और प्राकृत वैयाकरणो द्वारा कही गयी वातो का पुनरास्थान मात्र कर दिया है । परन्तु यदि ध्यान से देखा जाये तो यह तर्क हेमचन्द्र के पक्ष मे ही पाता है । हेमचन्द्र का उद्देश्य यह नहीं था कि वे सर्वया नवीन व्याकरण शास्त्र की रचना करें वे तो चाहते थे कि परम्परा मे प्रचलित व्याकरण ग्रन्थो की दुल्हतायो को दूर कर उन्हे मर्वजन मवैद्य बनाया जाये । व्याकरणगत दुरुहताप्रो के ज्ञान के लिए ही उन्होने काश्मीर पुस्तकालय से पाठ व्याकरण के ग्रन्य मगाये थे। उनका गम्भीर अध्ययन कर उन्होंने व्याकरणिक मिद्धान्तो का प्रतिपादन सरलतम रूप मे किया । उनमे विषयगत नवीनता भले ही न हो परन्तु उनकी प्रतिपादन शैली तो मौलिक है ही। इसके अतिरिक्त प्राकृत और अपभ्र श भाषाम्रो के व्याकरण का एक समाहार भी उनकी । मौलिकता ही कही जायेगी । अपभ्र श भाषा का सर्वप्रथम हेमचन्द्र ने हा विवेचन किया। इम प्रकार 'हैमणब्दानुशामन' प्राचार्य हेमचन्द्र की एक अभूतपूर्व व्याकरणिक कृति है जिमका जोट न तो परम्परा में कही प्राप्त और न मम्भवतः प्राप्त ही होगा।
प्राचार्य हेमचन्द्र के कोप ग्रन्थ .
मम्मत और प्राकन शब्दानुगामन की ममाप्ति के बाद प्राचार्य हेम्चन्द्र ने मम्पन तथा देणी गन्दो का प्रारपान करने के लिये कोप ग्रन्थो की रचना की । "अभिमानचिन्लामरिण के प्रारम्भ में उन्होने बय ही कहा--" अपने प्रशो सहित मयानुगामन का निर्माण करने के बाद मै नाममाला (समा शब्दो के ममूह) का मान्धान परता है । इनमे कुछ नामपद ऐसे हैं जिनको व्युत्पत्ति नहीं दी जा सकती,
1. नाग न जादि ।
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कुछ को शुभत्ति व्याकरण नम्मत है । कुछ की व्याकरण मम्मत है भी और नही भी है।" नाम पदो के इस मगह उन्य का नाम हेमचन्द्र "अभिधान चिन्तामणि" देते है । इन परिपाटी पर लिचे गरे उनके अधोलिखित ग्रन्य प्राप्त होते है
(2) अभिवाननिन्तामगि यह मस्कृत के अमर-कोप की भाति एक शब्द का मनेको पर्याय द्योतित करने वाला कोष है । हेमचन्द्र का यह कोष-ग्रन्थ अमर-कोष के समान ही प्रमिद हुपा । मस्कृत माहित्य परम्परा मे “हेमचन्द्रश्चरुद्रश्चामरोऽय मनानन" कहकर इनके उम ग्रन्थ की महत्ता स्वीकार की गयी है । हेमचन्द्र ने "तत्वबोध विधायिनी" नाम की एक टीका भी स्वय ही इस ग्रन्य पर लिखी ।
(3) अनेकार्थमाह - एक शब्द के प्रनेको पर्यायवाची शब्दो का अभिधान कर चुकाने के बाद प्राचार्य ने एक ही गद के कई प्रों से सम्बन्वित कोप ग्रन्थ का भी निर्माण किया। यह कोप छ, प्रच्यायो मे विभाजित है । इस काप की टीका हेमचन्द्र के निप्प महेन्द्रमूरि ने स्वय हेमचन्द्र के नाम से लिखी है ।
(4) देशी नाममाला जिस प्रकार "शब्दानुशासन" मे प्राकृत व्याकरण से मम्बन्नित एक अध्याय जोडकर हेमचन्द्र ने उस व्याकरण ग्रन्थ को अद्भुत और सर्वथा नवीन बना दिया था उसी प्रकार कोप-शास्त्र को पूर्ण और नवीन बनाने के लिये उन्होने देती शब्दो का एकत्र मकलन कर एक नवीन ग्रन्थ निर्मित कर दिया । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम "रमणावली" भी है । इसकी टीका भी इन्होने स्वय ही लिखी। गन्दो का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले दोहे भी इन्ही द्वारा रचे गये बताये जाते है।
(5) निघण्टु-प्राचार्य हेमचन्द्र ने वनस्पतियो के नामो को लेकर एक सर्वथा नवीन कोप का निर्माण भी दिया । इसे ही उन्होने निघण्टु नाम दिया। हेमचन्द्र के निघण्टु पर अब तक कोई टीका प्राप्त नहीं हुई है।
इस प्रकार समस्त अशो और उनकी वृत्तियो सहित हैमव्याकरण तथा चार उपर्युक्त कोपो का निर्माण कर प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपना शब्दानुशासन या शब्द विनान शास्त्र सम्पूर्ण किया । इतने विस्तृत एव महत्त्वपूर्ण कार्य को पूर्ण कर हेमचन्द्र ने गुजरात के विद्यागौरव को ऊ चा उठाया और साथ ही वहाँ के अध्येतायो के लिए मापा के सरल एव सुबोध मार्ग का निर्माण कार्य भी सम्पन्न किया। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन महान् ग्रन्यो की रचना कर सिद्धराज जयसिंह की अभ्यर्थना पूर्ण कर
1 अनेकार्थ मग्रह, प0 86 एडिटेड बाई द Th. Tachriac 2 विस्तृत परिचय के लिये प्रस्तुत प्रवन्ध का 'द्वितीय अध्याय' देखें। 3 इस विषय पर विभिन्न विद्वान् एक मत नहीं हैं-विस्तृत चर्चा द्वितीय अध्याय में की गई है।
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38 ] दी । प्रकारान्तर से यह कहा जा सकता है कि प्राचार्य हेमचन्द्र की सफलता का बहुत कुछ श्रेय सिद्धराज की “अभ्यर्थना" और उसके द्वारा दी गई सुविधाप्रो को है । गुजरात के प्रो रामनारायण पाठक नामक एक कवि ने अपनी "रणकदेवी" नामक कविता में कहा है
हमप्रदीपप्रगटावी सरस्वतीनो मार्थक्यकी निज नामनु सिद्धराजे ।। सरस्वती का हेम रूपी प्रदीप जलाकर सिद्धराज ने अपने नाम को सार्थक कर दिया। (6) हयाश्रयकाव्य ।
हेमचन्द्र कृत द्यायय काय 20 मगों में विभाजित है । इसके अन्तिम पाच सर्ग "प्राकृत याश्रय काव्य" या कुमारपाल का विवरण प्रस्तुत करने के कारण "कुमारपाल चरित" के नाम से अभिहित किये जाते हैं। पूरा ग्रन्थ एक महाकाव्य होने के साथ ही हेमशब्दानुशासन मे अ.ये हुए व्याकरणिक सूत्रो की व्याख्या भी प्रस्तुत करता है । इस काव्य की रचना शब्दानुशासन की रचना समाप्त हो जाने के बाद शुरू हुई होगी । काव्य के तेरह मन कुमारपाल के शासन के पहले के है । 34वा सर्ग कुमारपाल के राज्यकाल के प्रारम्भिक भाग में लिखा गया लगता है । शेप सर्ग तो निश्चित रूप से कुमारपाल के ही राज्यकाल में लिखे गये ।
___ यह काव्य अपहिल्लपुर के चालुक्यवशी राजापो का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है । इसका विवरण ऐतिहासिक तथ्यो पर निर्धारित होने के कारण मा य भी है । जिन प्रकार अन्त के पात्र मों में कुमारपाल का वर्णन होने के कारण उन्हे "कुमारपाल चरित" सना दी गयी है उसी प्रकार पूरे काव्य को चालुक्यवशी राजामो का विवरण प्रस्तुत करने के कारण 'चालुक्यवशोत्कीर्तन" नाम भी दिया गया है। (7) पाटयानुशासन :
यह काव्यागो का विवेचन प्रन्दन करने वाला मम्मट के काव्य प्रकाश की परम्पग मे लिया गया अलकार शास्त्र का ग्रन्थ है। हेमचन्द्र ने न्वय ही सूत्र, अलकार चूटामगि नाम की वृत्ति और विवेक नाम की टीका भी लिखी है । इसमे मम्मट की अपेक्षा काव्य के प्रयोजन हेतु अर्यालकार गुण, दोप ध्वनि आदि सिद्धान्तो का हेमचन्द्र ने विस्तार से विवेचन क्यिा है।
काव्यानुशानन मे कुल पाठ अध्याय और 208 सूत्र हैं । अध्याय क्रम से मूरों को संन्या इस प्रकार है
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प्रथम अध्याय मे 25 सूत्र, द्वितीय मे 59, तृतीय में 10, चतुर्थ मे 9, पचम में 9, पष्ठ मे 31, सप्तम मे 52 और अष्टम मे 13 सूत्र हैं । इन सीमित 208 सूत्रो मे ही प्राचार्य हेमचन्द्र ने समस्त सस्कृत काव्यशास्त्र का सुस्पष्ट विवेचन प्रस्तुत कर दिया है । इन छोटे छोटे सूत्रो का विस्त' र अलकार चूडामरिण नामक वृत्ति मे भलीभाति प्राप्त हो जाता है । इस अलकार "चूडामणि" नामक वृत्ति का भी विस्तार ग्रन्थकार ने "विवेक" नामक टीका के रूप से किया है । हेमचन्द्र स्वय ही वृत्ति को "प्रतन्नयते" (Extended) और ट का (विवेक) को “प्रवितन्यते" (Extended in detail) कहकर स्पष्ट कर देते है । विवेक टीका की रचना उन्होने दुरूह स्थलो की व्याख्या और नवीन तथ्यो के सकेत के लिए की और इस कार्य मे वे बहुत कुछ सफल भी है । समस्त काव्यानुशासन मे दिये गये उद्धरणो की सख्या 16321 है ।
सस्कृत का व्यशास्त्र के इतिहास की दृष्टि से भी यह कृति बहुत महत्त्वपूर्ण है। पूरे ग्रन्थ मे हेमचन्द्र ने 50 के लगभग ग्रन्थकारो और लगभग 81 ग्रन्थो की सूचना दी है ।इसके अतिरिक्त कुछ उद्धरण ऐसे भी हैं जिनके मूल ग्रन्थ और ग्रन्थकार का नाम नहीं प्राप्त होता । इन ग्रन्थो और ग्रन्थकारो तथा विभिन्न उद्धरणो से सम्बन्धित सूचनाए डा पारिख ने काव्यानुशासन पृ 521-526 से दे दी हैं ।
विषय वस्तु-प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र मे मागलिक नमस्कार के बाद द्वितीय सूत्र मे हेमचन्द्र अपने इस ग्रन्थ का प्रयोजन बताते हैं । तृतीय सूत्र कविता के उद्देश्य का आख्यान प्रस्तुत करता है-काव्य का उद्देश्य है आनन्द, यश, और कान्तातुल्य उपदेश । चौथे सूत्र मे काव्य का कारण प्रतिभा बताया गया है। 5वे और छठे सूत्र मे "प्रतिभा" की जैन धर्म सम्मत व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। 11वा सूत्र काव्य-प्रकृति का निर्णायक है ।
काव्यानुशासन का द्वितीय अध्याय रम, भाव, रसाभास और भावाभास तथा काव्य कोटियो के निर्धारण से सम्बन्धित है । तृतीय अध्याय के दस सूत्रो मे काव्यदोपो का विवेचन है । चतुर्थ अध्याय काव्य-गुणो का पाख्यान प्रस्तुत करता है । पाचवा अध्याय छ शब्दालकारो से सम्बन्धित है । छठे अध्याय मे इक्कीस अर्थालकारो का विवेचन है। इसमे कुछ अलकारो की परिभाषा अत्यन्त मनोरम एव विशिष्ट है । जैसे उपमा की "हृद्यम् साधर्म्यम् उपमा ।"
सातवा अध्याय काव्यगत चरित्रो का विवेचन प्रस्तुत करता है-जैसे नायक प्रतिनायक, नायिका आदि । आठवा अध्याय प्रवन्धात्मक काव्य भेदो का उपस्थापन
1 काव्यानुशासन-भूमिका, पृ0 सी0 सी0 सी0 15 (315)
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करता है । इसके अन्तर्गत श्रव्य और दृश्य काव्य का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है । इस प्रकार "काव्यानुशासन" सस्कृत काव्यशास्त्र की सरल, सुवोध व्याख्या प्रस्तुत करने मे अत्यन्त सफल है । (8) छन्दोऽनुशासन
इस अन्य मे सस्कृत प्राकृत एव अपभ्र श साहित्य के छन्दो का सुष्ठ निरूपण किया गया है । मूल ग्रन्थ सूत्रो मे है । हेमचन्द्र ने स्वय ही इसकी व्याख्या भी लिखी है । छन्दो का उदाहरण इन्होंने अपनी मौलिक रचनायो द्वारा दिया है। (9) प्रमारणमीमासा
यह प्रमेय और प्रमाण का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करने वाला न्यायशास्त्र का ग्रन्य है । अनेकान्तवाद, पारमार्थिक प्रत्यक्ष की तात्विकता, इन्द्रियज्ञान का व्यापारक्रम, परोक्ष के प्रकार, निग्रह स्यान या जय-पराजय-व्यवस्था, प्रमेय प्रमाता का स्वरूप एव मर्वज्ञत्व का समर्थन आदि विषयो पर विचार किया गया है । (10) विष्टि शलाका पुरुप चरित
यह ग्रन्थ पुराण और काव्य-कला का एकत्र समन्वय है । इममे जैन धर्म के 24 तीर्थ करो 12 चक्रवर्ती, 9 नारायगा, 9 प्रतिनारायण तथा 9 वलदेव कुल 63 व्यक्तियो के चरित का वर्णन है । यह ग्रन्य प्राचीन भारतीय इतिहास की गवेपणा मे अत्यन्त महायक ग्रन्थ है। (11) योगशास्त्र एवं स्तोत्र
यह पातजन्नयोगभाष्य के समान जैन शब्दावली में लिखा गया उच्चकोटि का योगशास्त्रीय ग्रन्य है । शैली में पतजलि का अनुकरण होते हुए भी विषय गौर उसके वर्णन क्रम में मौलिकता है । चीतराग, महावीर स्तोत्र और स्तोत्र द्वात्रिशिका हेमचद्र के उच्चकोटि के स्तोत्र-ग्रन्य हैं । प्राचार्य हेमचन्द्र की रचनाप्रो का तियिफ्रम
प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपनी रचनायो के प्रम का निर्देश करते हुए भी किसी भी रचना की कोई निश्चित तिथि नही दी। प्राचार्य हेमचन्द्र के जीवन से सवधित पटनाग्रो का उल्लेख करने वाले किमी उनके अन्य समकालीन ग्रन्थ मे भी उनकी रचनायो में तिथि निर्णय पर विचार नहीं किया गया। डा० वूलर ने हेमचन्द्र को
] मा वामनद, 401
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रचनायो के तिथिक्रम का निर्धारण करने का प्रयास किया और वे बहुत कुछ इस प्रयास मे सफल भी हैं।
'सिद्धहेमशब्दानुशासन' की प्रशस्ति मे एक तीर्थयात्रा का उल्लेख देखकर डा० बूलर ने यह निष्कर्ष निकाला कि इस तीर्थ यात्रा के बाद कभी भी इस व्याकरण की रचना पूर्ण हई होगी। वे इसका रचनाकाल इस तीर्थ यात्रा और मालवा विजय के बीच रखते हैं । इन दोनो के बीच उन्होने दो वर्ष का समय दिया है। डा० बूलर जयसिंह के मालवा से लौटने का समय वि. स 1194 या 1138 ई बताते है । इस प्रकार इस व्याकरण ग्रन्थ की रचना लगभग वि. स 1197 या 1141 ई के लगभग हुई होगी।' डा० पारिख मालवाविजय वि स 1191-1192 ई के लगभग सिद्ध करते है। उनकी यह मान्यता समसामयिक प्रमाणो के आधार पर है । ये प्रमाण डा वूलर को उपलब्ध नही थे। इस तरह डा० पारिख का मत है कि यदि हम मालवा विजय के दो या तीन वर्षों के बीच इस ग्रन्थ की रचना का समय मानें तो यह वि. स 1195 (1139) पडेगा ।
डा वूलर हेमचन्द्र के कोष ग्रन्यो की रचना जयसिंह की मृत्यु के पहले मानते हैं । सस्कृत द्याश्रय काव्य के 14 सर्गों की रचना भी वे जयसिंह की मृत्यु के पहले मानते हैं । डा वूलर के अनुसार पूरे दयाश्रय काव्य की रचना वि स 1220 (1164) ई के पहले हो चुकी होगी । “काव्यानुशासन और छन्दोऽनुशासन की रचना वे कुमारपाल के शासन मे हुई मानते है । परन्तु डा पारिख का कथन है कि छन्दोनुशासन जयसिंह और कुमारपाल दोनो का उल्लेख करने के अतिरिक्त चार अन्य चालुक्य राजानो का भी उल्लेख करता है । अत इससे कोई निष्कर्ष नही निकाला जा सकता।
हेमचन्द्र के सस्कृत कोष-ग्रन्थो के पूरक रूप मे लिखी गयी “रयणावली" या देशीनाममाला का रचना काल डा वूलर कुमारपाल के राज्यकाल के प्रारम्भ मे मानते है । लेकिन उनका कहना है कि समस्त, व्याख्या एव उदाहरणो सहित “रयणावली" की रचना विस 1214-15 (1159 ई ) के लगभग हुई होगी।
1. लाइफ आफ हेमचन्द्र, पृ0 18
काव्यानुशासन-भूमिका 40 328 3. लाइफ आफ हेमचन्द्र, पृ0 18 4 वही, पृ0 19 5. वही, पृ0 19 6 वही, प0 19 से 36 7. वही, पृ0 37
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कुमारपाल के प्रारभिक शासनकाल मे केवल "रयणावली" की कारिकायो का निर्माण हुआ रहा होगा। व्याख्या और उदाहरण वाद के होगे । योग शास्त्र और वीतराग स्तोत्र के मूल पाठ की रचना डा वूलर वि स 1216 (1160 ईसवी) मे मानते हैं । इसकी व्याख्या कुछ वर्षों वाद लिखी गयी होगी ।।
त्रिपप्टिशलाकापुरुपचरित की रचना वि स 1216-1229 (1160-1173) मे हुई होगी। द्वयाश्रय काव्य के अन्तिम पाच सर्गों प्राकृत द्वयाश्रय काव्य या "कुमारपाल चरित" की रचना का भी यही समय रहा होगा। प्रमाण मीमासा की रचना भी इसी समय के बीच हुई होगी।
सक्षेप में प्राचार्य हेमचन्द्र की रचनायो को तिथिक्रम की दृष्टि मे दो भागो मे वाटा जा सकता है। (1) सिद्धराज जयसिंह के शासनकाल में की गयी रचनाए इसके अन्तर्गत शब्दानुशासन, उनके प्रसिद्ध दो सस्कृत के कोष-ग्रन्थ तथा दयाश्रयकाव्य के तेरह सर्ग रखे जा सकते हैं । (2) कुमारपाल के शासनकाल में की गयी रचनाए-इसके अन्तर्गत देशीनाममाला, निघण्टुकोश, प्राकृत दयाश्रयकाव्य, त्रिषष्टिशलाकापुम्पचरित, प्रमाण मीमासा, योगशास्त्र, वीतराग स्तुनि आदि रखे जा सकते हैं।
___ प्राचार्य हेमचन्द्र एक मिद्ध पुरुप थे। अपने जीवन काल मे उन्होने जितने विपुल वाट् मय की रचना की वह भारतीय साहित्य परम्परा के लिए अनूठा उदाहरण है । इन्होंने जिम किसी विषय को उठाया समस्त अगो सहित उसका अच्छी तरह प्रतिपादन किया। उनकी इस अद्भुत प्रतिभा एव दुर्लभ मनोयोग को देसकर उनकी कलिकालसर्वज की उपाधि सर्वथा उचित दिखायी देती है। भारतीय माहित्य परम्परा प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि की चिर ऋणी रहेगी।
1. मार माफमाः , १0 40
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देशीनासमाला : स्वरूप-विवेचन
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प्राचार्य हेमचन्द्र एक महान् भापाविद् थे । उन्होने भापा विवेचन से सम्बन्धित कोई भी समस्या अधूरी नहीं छोड़ी । सस्कृत भाषा का व्याकरण लिखने के बाद उन्होने प्राकृत तथा अपभ्रश का व्याकरण लिखकर इस क्षेत्र मे स्ववैशिष्ट्य का प्रतिपादन किया। उन्होने इस व्याकरण की पूर्ति के लिए बाद मे धातुपाठ, उणादि प्रकरण, लिङ्गानुशासन आदि भी जोड़ा। इतना कर लेने पर भी वे रुके नही । उन्होने भाषा मे प्रयुक्त होने वाले शब्दो का अनुशासन पूर्ण करने के लिए कुछ कोश भी लिखे । । "देशीनाममाला" एक ऐसा ही कोशग्रन्थ है जिसकी रचना आचार्य ने अपने व्याकरण ग्रन्थ "सिद्ध हेमशब्दानुशासन" के अष्टम अध्याय की पूर्ति के लिए की। इस बात का उल्लेख वे "देशीनाममाला" के अष्टमवर्ग की अन्तिम कारिका और उसकी व्याख्या मे स्पष्ट रूप मे कर देते है
इग्र रयणावलिणामो देशीसद्दाण सगहो एसो । वायरणसेसलेसो रइनो सिरि हेमचन्द्र मुनिबइणा ॥
___ दे०ना० 8177, पृ 77 इत्येप देशी शब्द सग्रह स्वोपज्ञशब्दानुशासनाष्टमाध्यायशेषलेशो रत्नावलीनामाचार्य श्री हेमचन्द्रेण विरचित इतिभद्रम् ।"
प्राचार्य कृत प्रस्तुत देशीकोश ही इस अध्याय की चर्चा का प्रमुख विषय है ।
1. अभिधानचिन्तामणि 2 अनेकार्थ संग्रह, 3 निघण्टशेष 4 "रयणायली' 2 जो प्राकृत और अपने श भापाओ के व्याकरण का आख्यान करता है।
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44 ] देशीनाममाला-नामकरण की समस्याः
देशीनाममाला के स्वरूप एव उसकी विपय-वस्तु का विवेचन प्रस्तुत करने के पहले इसके नामकरण की समस्या सुलझा लेना समीचीन होगा । जहा तक प्राचार्य हेमचन्द्र का सम्बन्ध है उन्होंने इस ग्रन्थ के दो नाम दिये है- (1) देसीसहसगहो (देमी शब्द सग्रह) (2) रयणावली (रत्नावली) ।
प्रस्तुत कोश के प्रथम मर्ग की दूसरी ही कारिका मे प्राचार्य कहते हैरणीसेनदेमिपरिमल पल्लवि अकुऊहलाउलत्तण । विग्इज्जइ देसीसदृसगहो वण्णकमसुहयो ।
--देना० 11 21 पृ० 2 इन कारिका मे वे ग्रन्य का नाम "देसी सद्दसगहो" लिखते हैं । इसी प्रकार ग्रन्थ की ममाप्ति के ममय अन्तिम कारिका से दोनो ही नामो का उल्लेख मिलता है
इन रयणावलिणामो देसी सद्दारण सगहो एसो ।
परन्तु इन दो नामो के अतिरिक्त प्रत्येक अध्याय की समाप्ति के बाद लिखी गयी पुटिनकायों में "देशीनाममाला" नाम भी मिलता है । प्रथमवर्ग की पुष्पिका को छोडकर लगभग सभी पुप्पिकाए एक समान है। इस वर्ग की पुष्पिका मे "स्वोपज्ञ' शब्द अधिक जुड़ गया है
__ "त्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचिताया स्वोपन देशीनाममालाया प्रथमोवर्ग ।" अन्य वर्गों की समाप्ति पर दी गयी पुप्पिकाए इस प्रकार हैं
न्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचिताया देशीनाममालाया .... वर्ग ।" प्रन्नु । हम देखते है कि इस ग्रन्थ के तीनो ही नामो का उल्लेस ग्रन्थ के अन्तर्गत ही हना है । परन्तु प्रश्न यह उठना है कि एक ही ग्रन्य के तीन नाम क्यो दिये गये ? क्या ये तीनो नाम सार्थक हैं ? इन प्रश्नो का उत्तर अत्यन्त सरल होते हए भी कुछ गुन्थियो गे भग हुआ है । जहा तक 'देशीशब्दसग्रह" नाम का प्रश्न है, यह निर्विवाद
प से या उचित नामकरण है। "ग्यगावली" नाम भी गन्थ में निबद्ध कारिकानो की माता एवं उदाहरण के रूप में प्रायी हुई अार्यानो के माहित्यिक मौन्दर्य को देखते हा, लाक्षणिक होते हुए भी सर्वथा उपयुक्त है । परन्तु पुष्पिकानो मे पाया
प्रा "देशीनाममाला" नाम मर्वया भ्रामय है । प्रथम तो यह स्वय प्राचार्य द्वारा दिया गया नाम नहीं है क्योंकि ग्रन्यो पो पुष्पिकाए प्रतिलिपिकारो द्वारा लिखी होने 1. 1938 मारे गम्यत मांगेर में प्रपाणिन सपा आर पिणेल द्वारा प्रमाणित 'दंगीनाम
गदिनीय माता
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। 45
की अधिक सम्भावना रहती है । प्रत पुष्पिका मे पाया हुआ यह नाम हो सकता है प्रतिलिपिकारो के द्वारा लिखा गया हो। दुसरे प्राचार्य हेमचन्द्र जैसा प्रसिद्ध भाषाविद् उस प्रकार के विवादास्पद नामो से सावधान भी रहेगा । अब इस नाम से उत्पन्न होने वाले भ्रमो का विवेचन कर लेना भी समीचन होगा।
___ व्याकरण शास्त्र के अन्तर्गन भाषा में प्रयुक्त होने वाले शब्दो के चार विभाग किये गये हैं (1) नाम (सना), (2) प्रात्यात (क्रिया), (3) निपात (4) अव्यय । इस विभाजन को ध्यान में रखकर यदि हम उपर्युक्त ग्रन्थ के नामकरण पर विचार करें तो उसे केवल नाम (संज्ञा) पदो का ही कोश होना चाहिए । परन्तु ग्रन्थ मे विवेचित शब्दो को देखने से पता चलता है कि इसमे अनेको पाख्यात पद भी आये हैं । अत सिद्धान्तत यह नामकरण भ्रम पैदा करने वाला है। प्राचार्य हेमचन्द्र इन आपत्तियो मे परिचित थे श्रत उन्होने पूरे ग्रन्थ मे कही भी यह नाम नहीं दिया । उनके द्वारा दिये गये दोनो नाम ग्रन्थ का म्वरूप स्पष्ट रूप से सकेतित करते हैं ।
अव देखना यह है कि "पूप्पिका" मे ग्रन्थ कार से अलग हटकर नया नाम क्यो दिया गया ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमे हेमचन्द्र के पहले के कोश साहित्य की पोर दृष्टिपात करना होगा । प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने इस कोश ग्रन्थ मे कई देशी कोश के निर्मातायो का उल्लेख किया है । इन्ही मे धनपाल भी एक हैं। इनका एक अन्य पाइग्रलच्छी" या "पाइपलच्छीनाममाला" के नाम से प्रसिद्ध है । इस ग्रन्थ की रचना विस० 1029 (972 ई ) मे धारा नगरी मे हुई। प्रारम्भ मे ही ग्रन्थकार बताता है कि उसने इस ग्रन्य की रचना अपनी छोटी "बहिन" "अवन्ति सुन्दरी' को शब्द ज्ञान कराने के लिए की है । ग्रन्थ के प्रथम श्लोक मे ही उसने इसे 'नाममाला' कहकर सम्बोधित किया है । 278वे श्लोक मे वह इसे 'देसी' भी बताता है परन्तु इममे केवल एक चौथाई ही देशी शब्द है । धनपाल की इस 'पाइअलच्छी नाममाला' से हेमचन्द्र की 'रयणावली' के प्रतिलिपिकार अवश्य ही परिचित रहे होगे । जिस प्रकार धनपाल ने अपने प्राकृत शब्दो के सकलन ग्रन्थ को 'नाममाला' कहा उसी प्रकार मम्भवत 'रयणावली' के प्रतिलिपिकारो ने भी देशी शब्दो के इस सकलन ग्रन्थ को 'देशीनाममाला' नाम दे दिया होगा । उनका ध्यान परम्परा मे प्रचलित शव्द पर अधिक गया होगा । इस शब्द (नाम) के व्याकरणलम्य अर्थ को उन्होने व्यान में न रखा होगा। इस प्रकार 'देशीनाममाला' नामकरण में प्रयुक्त 'नाम'
आरम्भ मे यह पुस्तक वेर्गर्स वाइ चेने त्सूर कण्डे डेर इण्डोगर्मानिशन् स्प्राखन 4,20 से 166 ए तक मे प्रकाशित हुई थी। इसके बाद गोएटिंगन से 1878 मे पुस्तक रूप में छपी। बाद मे गिओर्ग वूलर ने आलोचनात्मक टिप्पणी सहित प्रकाशित किया।
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46 ] शब्द 'सजापद' मात्र का वाचक न होकर 'शब्द' मात्र के वाचक नामकरण मे भी ग्रहण किया गया है । यह बात परवर्ती कोशो के नामकरण मे भी देखी जा सकती है । 'नाममाला' पद आगे चलकर 'शब्दकोश' का वाचक भी बन गया।
इस नामकरण के समर्थन मे दूसरा तर्क यह भी दिया जाता है कि कोश- . ग्रन्यो मे चू कि सनापद अधिक सकलित होते हैं अत उनकी प्रधानता के आधार पर यह नामकरण किया गया होगा-'प्राधान्येनन्यपदेशा भवन्ति ।'
डा० पिशेल' और मुरलीवर वनर्जी प्रस्तुत ग्रन्य का 'देशीनाममाला' नाम अधिक उचित मानते हैं । अत इन दोनो विद्वानो ने अपने द्वारा सम्पादित अन्य का नाम 'देशीनाममाला' ही रखना उचित समझा है । इन विद्वानो का मत है कि यह नाम अत्यधिक स्पष्ट और क्षेत्र विस्तार मे 'देशीशब्दसग्रह' से कही अधिक है । 'देशीशब्दमग्रह' में आया हुया 'शब्द' पद 'नाम' और 'धातु' दोनो का समाहार कर लेता है जवकि प्राचार्य हेमचन्द्र ‘घातु' पदो को इस कोश के अन्तर्गत नही ग्रहण करते । प्रथम वर्ग की तृतीय गाथा (कारिका) की सस्कृन व्याख्या मे वे लिखते हैं' .... . .। ये तु वज्जर-पज्जर-उप्काल पिसुण-सघ-बोल्लः चव जप-सीसमाहादय कय्यादीनामादेशत्वेन साबितास् (सिद्ध हेमचन्द्र 4,2) तेऽन्येर्देशीपु परिगृहीताप्रप्यस्माभिर्न निबद्धा ।
उपर्युक्त मतो का यदि एकत्र समाहार किया जाये तो अद्भुत विरोधाभास दिखायी पडता है। यदि हेमचन्द्र को इन ग्रन्य ने 'पाख्यात' पदो को बाहर ही रखना या तो उन्होंने इसके नाम में 'शब्द' पद का प्रयोग क्यो किया? दूसरी ओर यदि 'देशीनाममाला' नामकरण सार्यक है तो इसके अन्तर्गत आये हए 'पाण्यातपद' कहा जायेगे ? दोनो ही मितियां अपनी जगह महत्त्वपूर्ण है । ऐमी दशा मे किमी मध्यम मार्ग का ही महारा लेना उत्रित होगा। प्राचार्य द्वारा किया गया नामकरण विवाद ग्रस्त होते हुए भी पार्षप्रयोग' वी ग्राड में छिपाया जा सकता है। दूसरी ओर 'देशीनाममाला' नामकरण की प्रमिद्धि और कई मूलप्रतियो पर मका पाया जाना पना प्रौचित्य को निद करता है । परन्तु यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो प्राचार्य
1. द्विारा मयादित और बायेमात मी गे प्रशनित दगीनामाला। 2 सनीपुर चनजींदारामपानिनादनिमिटी प्रेमप्रमाणिन देगीनाममाता। 3. जीन माना-दाग मपादित पिगेन | 3 स्यामा प03।। 4 "I have called the work देशोनाममाता properly it ought to have
been called 77ir7 as this is the name given to the work by Hemchundra himself (VII 77) 777777' It is tcrined in best MISS of the AE and in the maigin of the single plios of H
(Contd)
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[ 47 हेमचन्द्र जैसा प्रकाण्ड भाषाविद् जिस बात की प्रतिज्ञा करता है उसका निर्वाह भी करता है । पिगेल प्रगति विद्वानो ने प्राचार्य पर यह प्राक्षेप किया है कि उन्होने अनेको देशी प्रात्यात पदो का आल्यान करते हुए भी स्वीकार नही किया । इस विवाद को दूर करने के लिए मेरी विनम्र सहमति हे कि प्राचार्य ने यदि कही 'प्रान्यात पदो' का प्रयोग किया भी है तो वे मल प्रारयात पद न होकर 'कृदन्ती' पद है । उनका प्रात्यान सना या विशेषण पद के रूप मे है न कि 'याख्यात पद' के रूप मे, एक उदाहरण द्रष्टव्य है
मोरे प्रल्लरलो कुक्कुडे अलपो प्रयालि दुद्दिणये
विण्णहम्मि अअसो अज्झस्म सविनमारलए अणह ।। 1 13 इस कारिका मे 'अज्झम्स' पद यद्यपि धात्वादेश है-श्राचार्य इसे स्वीकार भी करते हैं- ... अज्झन्स प्राकृस्टम् । अय धात्वादेश । अझसइ । अज्झस्सिन । इत्यादि प्रयोगादर्शनात् । पूर्वाचार्यानुरोधात्त्विह निबद्ध ... . . 1 13 व्याख्या । परन्तु प्रस्तुत कारिका मे इसका प्रयोग एक विशेपण पद के रूप मे हुआ है। इसी प्रकार अन्य 'पाल्यात पदो' की भी स्थिति है यदि इस दृष्टि से देखा जाये तो प्रतिलिपिकारो द्वारा लिखा गया (सम्भावित) तथा डा० पिशेल और मुरलीधर बनर्जी द्वारा स्वीकार किया गया 'देशीनाममाला' नाम सर्वथा सार्थक और विस्तृत अर्थ देने वाला है।' देशीनाममाला का रचनाकाल
अन्त साक्ष्य --'देशीनाममाला' की रचना प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत शब्दानुशासन (हेमशब्दानुशासन का 8वा अध्याय) के पूरक ग्रन्थ के रूप में किया है । इमे वे 'देशीनाममाला' के अष्टम सर्ग की अन्तिम कारिका की व्याख्या मे स्पष्ट कर देते है
"इत्येप देशीशब्द सग्रह स्वोपज्ञशब्दानुशासनाष्टमाध्यायशेषलेशो रत्नावली नामाचार्य श्री हेमचन्द्र विरचित इति भद्रम् ।"
इसी प्राशय की वात वे ग्रन्थ के प्रारम्भ मे प्रथम वर्ग की प्रारम्भिक आर्या की व्याख्या में करते हैं---
In I-2 and VIII-77 It is stvled देणीशब्दस ग्रह a name which Is also intimated by the MSS BDCFGI as they call the Vritti देशीशब्दसग्रहवृत्ति, रत्नावली being too unexpressive a name and देशीनामFIT the usual appelation of works of the kind. I have followed the best Mss
-R Pishel Deshinammala Introduction P 9.
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समत्रशब्दानामनुशासने चिकीपिते सस्कृतादि भाषाणा पण्णा शब्दानुशासने सिद्ध हेमचन्द्र नाम्नि सिद्धि उपनिवद्धा । इदानी लोपागमवर्ण विकारादिना क्रमेण पूर्वे आराधितपूर्वा देश्या शब्दा अवशिष्यन्ते । तत्सग्रहार्थमयमारम्भ । इन उल्लेखो के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि देशीनाममाला की रचना अपने विभागो महित सिद्ध हेमशब्दानुशासन तथा संस्कृत के कोशो अभिधान चिन्तामणि, अनेकार्थ मग्रह आदि के हो जाने के बाद हुई। मिद्ध हेमशब्दानुशासन की रचना सिद्धराज की मृत्यु के पहले हो चुकी थी । सिद्धराज की मृत्यु वि स0 1199 मे हुई थी इसके बाद ही कुमारपाल के प्रारम्भिक शासनकाल में हेमचन्द्र के अन्य कोश ग्रन्थो का ममय रखा जा सकता है। जहा तक देशीनाममाला की रचना का सम्बन्ध है यह अवश्य ही कुमारपाल के शासनकाल मे लिखी गयी होगी। पूरे ग्रन्थ मे पायी हुई उदाहरण की प्रार्यानो मे 105 आर्याए कुमारपाल के यश और शौर्य वर्णन से सवचित हैं। अत यह निश्चित हो जाता है कि "देशीनाममाला" की रचना अभिधान चिन्तामरिण के वाद और काव्यानुशासन के पहले हुई होगी।
वहिर्साक्ष्य-डा० वूलर ने अपने ग्रन्थ "लाइफ आफ हेमचन्द्र" मे प्राचार्य हेमचन्द्र की रचनायो के तिथि निर्धारण पर विस्तारपूर्वक विचार किया है। डा० वूलर हेमचन्द्र के दोनो कोशो अभिवानचिन्तामणि और अनेकार्थ सग्रह को सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु (वि० स० 1190) के पहले रचित बताते हैं ।' सिद्धराज की मृत्यु के बाद और कुमाग्पाल के शासन काल मे वे इन दोनो कोश ग्रन्यो के विभिन्न पृरक ग्रन्थो का निर्माण बताते है। उनके अनुसार "शेपाख्यानाममाला जो कि अभिधान चिन्तामणि का पूरक गन्य है 3 और परम्परा मे प्रसिद्ध हेमचन्द्र द्वारा लिये गये तीन निघण्टु कोश तथा रयणावली (देशीनाममाला) की मूल गाथाए-ये ममी कुमारपाल के शासन काल के प्रारम्भिक काल मे लिखे गये होगे । डा० वनर की यह दृढ मान्यता है कि नन्कत धान्या और उदाहरण की प्रार्यानो सहित 'ग्यणावनी' या देगीनाममाला की रचना वि न 1214-154 (1159 ई०) मे हुई होगी। टा वूलर का यह मत बहुत कुछ मान्य भी है । 'रयगावली मे कुमार पान से सम्बन्धिन उदाहरण की अाए उसके शौर्य और पराक्रम का वर्णन जिम प्रना के माय करती हैं, उन प्रगमा के योग्य बनने मे मिहामन प्राप्त करने के बाद पुमापान को अवश्य ही कुछ दिन लगे होगे । अत माक्ष्य मे मिलाने पर भी बूलर
1 मार आप हमा, गनिम दागनेशन, १0 18 2 वी. 3036 3 मा याये हुए पापा 17 पृन जमनी में किये गये हैं। + गमनार TE.गरिन दात, पृ0 37
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का यह बहुत कुछ उचित लगता है । 'शब्दानुशासन' सम्बन्धी ग्रन्थो से सम्बन्धित प्राचार्य हेमचद्र की ग्रन्यमाला की अन्तिम कडी के रूप मे इस ग्रन्थ की रचना हुई है । ग्राचार्य स्वय ही उस तथ्य को यत्र-तत्र उल्लिखित करते चलते हैं। 'रयणावली' की रचना तक प्राचार्य हेमचद्र का भ'पाविद् का व्यक्तित्व स्थिर हो जाता है । इसके बाद उनका प्राचार्य का व्यक्तित्व प्रमुख रूप धारण करने लगता है । जहा तक प्राचार्य का कुमारपाल के जीवन से सम्बन्ध है । वे वि स 12161 के वाद से उसके निकट नम्पर्क में आने लगे थे। श्रत इसी के पास पास इस ग्रन्थ की सम्पूर्ण रचना का समय निर्धारित किया जाना उचित है ।
परवर्ती व्याकरणकारो का उल्लेख
जहा तक बहिक्ष्यि से सम्बन्धित हेमचन्द्र के समकालीन या उनके परवर्ती ग्रन्यो का सम्बन्ध है ये मभी उनकी रचनायो की क्रमिक चर्चा करते हुए भी उनका कोई निश्चित ममय नहीं देते । स्वय प्राचार्य हेमचन्द्र भी अपने ग्रन्थो का क्रम तो उल्लिखित कर देते हैं परन्तु कही भी उन्होने निश्चित तिथि देने का प्रयास नहीं किया । केवल डा० वूलर ने ही इस दिशा मे प्रयास किया है जो स्तुत्य भी है । डा० वूलर के मतो को लेकर काव्यानुशासन की भूमिका मे डा० पारिख ने कुछ पालोचनायें अवश्य की है परन्तु उनकी नवीन उपलब्धि कुछ भी नहीं है।
देशीनाममाला की मूलप्रतिया
प्राचार्य हेमचद्र के इस कोश ग्रन्थ की सर्वप्रथम सूचना डा० बूल्हर ने 1874 मे इण्डियन एक्टीविवरी भाग 2, पृ० 17 पर दी। उनकी यह सूचना अपने द्वारा प्राप्त की गयी 'सी' (C) मूलप्रति के आधार पर थी। अपनी अथक खोजो के आधार पर उन्होने 1877 ई० मे डा. पिशेल के सहयोग से इस ग्रन्थ का प्रकाशन कार्य प्रारम्भ किया । इन दोनो विद्वानो के सतत प्रयत्न के परिणामस्वरूप 1880 ई मे 'वाम्बे एजूकेशन सोसायटी प्रेस से देशीनाममाला का प्रकाशन हुआ। बाद मे 1938 मे इसका द्वितीय सस्करण महाराजा सस्कृत कालेज विजयानगरम् के प्रधानाचार्य प्रवस्तुवेड कटरामानुजस्वामी एम ए. द्वारा लिखी गई विस्तृत भूमिका,
1 डा0 वूलर ने द्वयाश्रय काव्य के उत्तरार्द्ध भाग 'या' कुमारपालचरित' की रचना का काल
1216 वि. स. के बाद बताया है। इस ग्रन्थ से विदित होता है कि कुमारपाल और हेमचन्द्र का निकट का सम्वन्ध था।
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पालोचनात्मक टिप्पणियो तथा शब्दकोश के साथ प्रकाशित हुआ ।'
डा० बुल्हर और पार. पिशेल के सम्मिलित सहयोग से प्रकाशित 'देणीनाममाला' के प्रथम सस्करण के तैयार करने में निम्नलिखित मूल प्रति गो की महायता ली गयी है। इनका उल्लेख प्रार. पिशेल ने स्वय ही अन्य के भूमिका भाग मे कर दिया है।
(1) ए (A) हस्तलिखित प्रति-यह मूल प्रति बीकानेर मे प्राप्त हुई थी। इसकी सख्या 271 है । केवल 17 पृष्ठ हैं । इसका समय सोमवत् 1549 उल्लिखित है । इसमे केवल मूलपाठ है और उपयोगिता की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रति कही जा सकती है।
(2) बी (B) हस्तलिखित प्रति-इस प्रति पर 724 सख्या दी हुई है। यह सुस्पष्ट अक्षरो मे लिखी गयी है और 'वाढवान' (Vadhavan) नामक स्थान से प्राप्त हुई है। इसमे कुल पृष्ठ संख्या 90 दी गयी है । परन्तु 53 के दो बार लिखे होने से इसकी सही पृष्ठ सख्या 91 हो जाती है । इसमे मूल पाठ के साथ ही टीका भाग भी है । परी प्रति मे तिथि का कोई निर्देश नहीं है। कुल मिलाकर यह अत्यन्त शुद्ध होते हुए भी 'च' और 'व', 'थ' और 'घ' 'ज्झ' और 'म', 'च्छ' पीर त्य, द, ध, ठ, ट्ठ, ड्ढ मे लगातार परिवर्तन होते रहने के कारण अधिक विश्वास योग्य नही है ।
(3) सी (C) प्रति-इसकी एक नवीन प्रति डा बुल्हर के लिए अहमदाबाद मे तैयारी की गयी थी। डा० बुल्हर ने इसी के आधार पर इण्डियन एण्टिक्विरी भाग-2, पृष्ठ 17 पर प्रथम वार इस ग्रन्थ का परिचय दिया था। इस पर लिखी गयी सख्या 184 है । ग्रन्थाकार (पोथी के समान) 315 पृष्ठ है ।।
- इसमे टीका और मूलपाठ दोनो ही है । इसका समय सख्या 1857 है । यह यद्यपि बहुत सावधानी से तैयार की गयी है फिर भी ऐसा लगता है जैसे प्रतिलिपिकार जैन पाण्डुलिपि पढने का अभ्यस्त न हो क्योकि जैन लिपि मे लिखे गये वर्ण प्राय गलत पढे गये हैं । किसी दूसरे व्यक्ति ने यद्यपि इन भूलो के सुधारने की कोशिश की है परन्तु वह कुछ ही भूलो को सुधारने में सफल हो सका है।
आर0 पिशेल के प्रथम संस्करण में निहित असावधानियो और भूलप्रतियो की जैनलिपि को गलत पढ जाने के कारण उत्पन्न हुई कमियो को ध्यान में रखते हुए कलकत्ता के डा0 मुरलीघर वनों ने 1931 में 'देशीनाममाला' का अपने सपादकत्व मे प्रकाशन कराया। डा0 बनर्जी का यह संस्करण पिशेल के सस्करण से कही अधिक परिशोधित एन परिमार्जित है। इसका प्रकाशन कलकत्ता युनिवसिटी प्रस से हुआ था ।
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। 51 (4) डी (D) प्रति-यह प्रति मारवाड मे जोधपुर के निकट पाली स्थान मे प्राप्त हुई थी। इसकी सन्या 270 है। कुल 32 पृष्ठ है । मूल पाठ और टीका दोनो ही हैं । परन्तु यह प्रति पूर्ण नहीं है,। इसकी लिखावट बहुत ही खराब और प्रमुद्धियो से भरी हुई है।
(5) ई (E) प्रति-यह प्रति डा बुल्हर की अपनी है और उन्हे अहमदाबाद मे मिली थी । इनमे केवल मूलपाठ है । पृष्ठो की सस्या 20 है । इसकी पुष्पिका मे निर्माण काल 1575 दिया गया है जो मम्भवतः सम्बत् ही होगा। इसमे मूलपाठ और टीका दोनो ही है। यह सभी प्रतियो में अच्छी और शुद्ध है परन्तु इसके 1-19 तक के पृष्ठ गायब है। इस तरह यह भी अपर्ण प्रति है । पार पिशेल के अपने द्वारा सम्पादित 'देगीनाममाला' के मूलपाठ निर्माण मे इसके शेप भाग से बहुत अधिक सहायता ली है।
(6) एफ (F) प्रति- यह प्रति लिमडी' नामक स्थान से प्राप्त हुई थी। डा बुल्हर के सहायक पण्डितो ने इसका परिशोधन भी किया था । थोडे से अन्तर के साथ यह 'वाढवान' मे प्राप्त 'ब'-प्रति से बहुत कुछ मिलती-जुलती प्रति है।
(7) जी (G) प्रति- यह बीकानेर से प्राप्त प्रति है। इसकी सख्या भी 271 है । 'ए' प्रति की ही सत्या होने के कारण पहले इसे लोगो ने 'ए' की टीका समझ लिया था । परन्तु यह उससे अलग प्रति है । मूलपाठ और टीका सहित इसमे कुल 46 पृष्ठ है। इसका टीका भाग अत्यन्त शुद्ध और उच्चकोटि का है । परन्तु इसके अधिकतर पृष्ठ चूहो के द्वारा खा डाले गये हैं। बीच-बीच मे क्षत पृष्ठो (15,24,42) के अतिरिक्त अष्टम वर्ग की 21वी गाथा के 'डमुहो' शब्द के बाद का भाग पूर्ण रूप से गायव है । इसके क्षत-विक्षत पत्रो को जोडकर रिचर्ड-पिशेल ने लगभग सभी वर्गों को ठीक-ठाक पढ लिया था।
इन सात मूल प्रतियो के अतिरिक्त डा वुल्हर ने दो और भी प्रतिया प्राप्त की थी
(8) एच (H) प्रति-यह प्रति 1879 मे भारत सरकार के लिए अहमदावाद से खरीदी गयी थी। इसमे कुल 62 पृष्ठ हैं। समय सम्वत् 1628 दिया गया है। इसमे मूलपाठ और टीका दोनो ही हैं । रिचर्ड पिशेल इसे बहुत असावधानी से लिखी होने के कारण महत्त्वहीन बताते हैं ।
(9) आई (I) प्रति—यह प्रति भगवानलाल इन्द्राजी की अपनी प्रति है। मूलपाठ और टीका सहित इसकी पृष्ठ सख्या 86 है। बीच के 8-27 और अन्त मे
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अष्टम वर्ग की 72 गाथा के 'यदाह भरत '-वाक्य के बाद के पृष्ठ गायव हैं। पिशेल ने इस प्रति को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना है । परन्तु यह उन्हे 'देणीनाममाला' के प्रथम सस्करण के प्रकाशन के बाद प्राप्त हुई थी।
पिशेल द्वारा उल्लिसित ये मभी मूलप्रतिया जैन लिपि में लिखी गयी हैं । इसलिये उन्हें च, व, व, त्य और च्छ, थ और घ ठम तथा ज्झ, ६, द, ढ, ट्ठ, ढ़
आदि जहा भी आये हैं, इन्हे शुद्ध शुद्ध पढने मे बहुत अधिक कठिनाई का मामना करना पड़ा है।
पिशेल द्वारा उल्लिसित उपर्युक्त मूल प्रतियो के अतिरिक्त 'देशीनाममाला' के द्वितीय सस्करण की भूमिका मे प्रवस्तु वेट्वटरामानुजस्वामी ने 'सात' और प्रतियो का उल्लेख किया है। ये प्रतिया उन्हे पोरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना के अधिकारियो से मिली थी । इनमे एक 'देशीनाममाला' के शब्दो की वर्णक्रम मे बनायी गयी सूची थी। इसमे पहले दो अक्षर वाले और फिर तीन अक्षरो वाले और फिर इसी तरह क्रम से 8 अक्षरो (केवल 4 शब्द) तक के शब्द उमी क्रम से सकलित हैं जिस क्रम से मूल पाठ मे उनका उल्लेख हया है । इसका प्रारम्भ इस प्रकार होता है
116011 श्री वीतरागायनम । अर्ह ॥ श्री हेमचन्द्र सूर्युक्त देश्य शब्द समुच्चयात् । अकाराद्यादय शव्दा लिख्यते द्विस्वरादिका ||| श्रीदीदूदेदनुस्वाराद्य यत्रस्यादियोगत शब्दनामक्षराधिक्यमपिकपत्वयादिह ।।2।। अथ द्विस्वरा । अज्जो जिन । गौरीति प्रा .... • ... इसके अन्त मे
श्रीहेमसूरेरभिधानकोशाद्दे श्यात्पदान्यर्थ समन्वितानि । उद्धृत्य वर्णक्रमतोऽखिलानि लिलेप सूरिविमलाभिधान ।।।।। वाव जाड्यतमश्छन्नान् ग्रन्थान्तर गृहस्थितान् । अनेन देश्य दीपेन पश्यत्वर्थान् जना स्फुटान् ।।2।। ग्रन्याग्र 1200 ।। इस सूची मे केवल 18 पृष्ठ हैं । सख्या 857 तथा समय 1886-92 हैं । प्राप्त मूल प्रति अधिक प्राचीन न होने के कारण विश्वसनीय एव उपयोगी नही है ।
दूसरी प्रतिया (सख्या 724, 1875-76 और सख्या 281, 1880-81) लगभग प्रथम संस्करण के प्रकाशन मे पिशेल द्वारा प्रयुक्त वी (B) ई (E) प्रतियो के समान ही हैं। एक तीसरी प्रति (सख्या 159, 1881-82) प्रथम सकरण तथा डा० बुल्हर द्वारा प्रयुक्त सी (C) प्रति का मूल रूप मात्र है। इन चार प्रतियो के अतिरिक्त प्रवस्तु रामानुजस्वामी ने क्रमश एक्स (x) वाई (५) और जेड (2) इन तीन अन्य प्रतियो का भी उल्लेख किया है उनका विवरण इस प्रकार है -
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53 एक्स (X) प्रति
मूल पाठ और टीका सहित सुस्पष्ट अक्षरो मे लिखी हुई यह एक अपूर्ण मूल प्रति है। इसमे दी गई सख्या 856 (1886-92) है। पत्रो की उल्लिखित सख्या 45 है परन्तु 14 और 15 एक ही पृष्ठ पर लिख जाने के कारण इसकी वास्तविक पृष्ठ सख्या 44 ही ठहरती है। इसका प्रतिलिपि कार जैन लिपि का अभ्यस्त नही मालूम पडता प्रत उसने भूलें तो की ही है साथ ही विना कुछ लिखे ही खाली स्थान छोड दिया है। इसमे कोई तिथि नही दी गयी है। कुछ ऐसी गिनतिया लिखी गयी है जो अत्यन्त अस्पष्ट और सर्वथा अबोध्य है - जैसे अन्त मे-भा 1, पृ 19 (यह लिखकर काट दिया गया है फिर प्र० 19 (?) लिख दिया गया है । यह प्रति प्रथम सस्करण की सी (C) प्रति से निकटतम रूप से सम्बन्धित है । वाई (Y) प्रति
यह सम्पूर्ण मूलपाठ से युक्त है । टीका नही है । इसमे दी गयी सख्या 397, (1895-98) है • पृष्ठो की सख्या 21 है । यह बहुत सावधानी से लिखी गयी है, अत. भूलें कम हैं । कही-कही प्रतिलिपिकार च, व और व, उ और प्रो, च्छ तथा त्थ के पढने मे प्रमाद अवश्य कर गया है फिर भी सामान्य रूप से शब्दो का पाख्यान शुद्ध रूप से किया गया है । इसके हासिये मे कुछ टिप्पणिया दी हुई है जो प्राय देशी शब्दो का सस्कृत मे अर्थ द्योतित करती है। इसमे दी गयी तिथि सस्वत् 1636 शुक्र, फाल्गुन शुक्लपक्ष 5 मी है । यह प्रति जिनचन्द्र सूरि के शिष्य पडितरत्न निधान गरिण के द्वारा लिखी गयी थी। इस मूल प्रति का सम्बन्ध प्रथम सस्करण में प्रयुक्त वी (B) और एफ (F) प्रतियो से है । जेड (Z) प्रति
यह एक मूलपाठ और टीका सहित प्रति है। इस पर दी गयी सख्या 438, __ 1882-83 है। इसकी पृष्ठ सख्या साठ (60) है। परन्तु यह अपूर्ण प्रति है।
अष्टम वर्ग की 12वी गाथा के 'साउलिन' शब्द के बाद यह समाप्त हो जाती है। __40वे पृष्ठ से लेकर प्रत्येक पन्ने का दाहिना भाग चूहो द्वारा खा डाला गया है।
यह एक सुस्पष्ट वर्णो मे लिखी गयी प्रति है और बहुत कुछ प्रथम सस्करण मे उल्लिखित जी (G) प्रति से मिलती जुलती प्रति है । अन्तिम पृष्ठो के खो जाने से इसकी तिथि का कुछ भी पता नही चलता । यह प्रति लगभग दो सौ वर्ष पुरानी है । इसका लिपिकार भी जैनलिपियो के पढने मे अभ्यस्त नही लगता क्योकि इस प्रति मे भी जैनलिपियो के पढने मे वही अशुद्धिया की गयी हैं जिनका पहले उल्लेख किया जा चुका है।
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उपर्युक्त मूल प्रतियो के आधार पर देशीनाममाला के अब तक दो मस्करण निकल चुके हैं । इन दोनो सस्करणो की भूलो और भ्रान्तियो को ध्यान में रखते हुए कलकत्ता विश्वविद्यालय के श्रेष्ठ विद्वान् श्री मुरलीधर बनर्जी ने 1931 मे कलकत्ता यूनिवर्सिटी प्रेस से अपने सम्पादकत्व में इसका पुन प्रकाशन कराया । उन्होंने इसका प्रकाशन दो भागो मे कराया । प्रथम भाग एक विस्तृत भूमिका महित मूल पाठ और व्याख्या तथा अालोचनात्मक टिप्परिणयो से युक्त है । इसके द्वितीय भाग में उन्होंने प्रथम भाग का अ ग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया है । मुरलीधर बनर्जी द्वारा सम्पादित 'देशीनाममाला' का प्रस्तुत सस्करण अत्यन्त परिणुद्ध और पिणेल के मम्करण से कही अधिक महत्त्वपूर्ण है । इस सस्करण की महत्ता इस बात में और भी है कि हेमचन्द्र द्वारा देशी शब्दो के उदाहरण के रूप मे लिखे गये जिन उदाहरणो को पिणेल ने निरर्थक और महत्त्वहीन कहकर छोड दिया था उनमे श्री वनर्जी ने पिशेल की भ्रान्तियो को सुधारते हुए अद्भुत काव्य सौन्दर्य देखने का प्रयाम किया है । इस मस्करगा की भूमिका तो अत्यन्त विस्तृत और विद्वतापूर्ण है । प्रथम भाग के परिशिष्ट के रूप मे अकारादि क्रम से दी गयी शब्दो की सूची अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।'
'देशीनाममाला' का एक सस्करण गुजराती मभा, वम्बई द्वारा वि स 2003 (1946 ई ) में प्रकाशित किया गया है । यह सस्करण मुझे देखने को नहीं मिला। पिशेल के संस्करण के प्रभाव के कारण सम्भवत इसका अधिक प्रचार नहीं हो पाया।
देशीनाममाला का स्वरूप और उसकी विषयवस्तु
प्राचार्य हेमचन्द्र का देशी शब्दो का यह कोश भारतीय आर्य भाषाओं के शब्दो की सागोमाग ग्रात्मकया प्रस्तुत करता है। मध्यकालीन भा० प्रा० भा० का शब्द भण्डार तीन प्रकार के शब्दो से युक्त है-तत्सम तद्भव और देशी । तत्सम शब्द वे हैं जिनकी ध्वनिया सस्कृत शब्दो के ही समान रहती है। उनमे कोई विकार नही होता जैसे नीर, कक, कठ ताल, तीर, देवी आदि । इसके विपरीत सस्कृत के वे शब्द जो वर्णागम वर्णलोप और वर्णविकार के कारण अपना स्वरुप परिवर्तित कर लेते हैं-"तद्भव" कहलाते हैं, जैसे अग्ग अग्र, इट्ठL इष्ट, धम्म Lधर्म, गय /गज, धारण Lध्यान प्रादि । ऐसे प्राकृत शब्द जिनमे प्रकृति प्रत्यय का निर्धारण न हो सके तथा जिनकी कोई व्युत्पत्ति सम्भव न हो, बल्कि
1 इस संस्करण के द्वितीय भाग (अनुवाद भाग) के दुलंभ होने के कारण उसका विस्तृत विवेचन
प्रस्तुत करना असभव है। 2 'प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' डा0 नेमिचन्द्र शास्त्री, पृ0 539
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[ 55 परम्परा में प्रचलित अर्थ ही उन्हें व्यारयायित कर सके, ऐसे रूढ शब्दो को "देशी" कहा गया, जसे अगय =दैत्य, पाकामिम=पर्याप्त, इराव हस्ति, पलविल =धनाढ्य, चो= बिल्व यादि । "देशीनाममाला" ऐसे ही देशी शब्दो का सकलन ग्रन्थ है । प्राचार्य हेमचन्द्र ने परम्परा में प्रचलित एव प्रसिद्ध 3978 शब्दो का समाहार इस आय में किया है।' उनमे सकलित शब्दो का स्वरूप निर्धारण करते हुए स्वय ही प्राचार्य निमते हैं
जे नकवणे ण सिद्वा पगिद्धा साकयाहिहाणेसु ।
ण य गउण लक्षणा सत्तिमभवा ते इह णिवद्धा ।।1.3.2 जो पब्द न व्याकरण से व्युत्पन्न हैं और न सस्कृत कोशो मे निबद्ध है तथा लक्षणागति के द्वारा भी जिनका प्रर्य मम्भव नही है, ऐसे शब्द इस कोश मे निबद्ध किये गए है । वे प्रागे और भी स्पष्ट करते हए कहते है कि देशी शब्दो से विभिन्न प्रान्तो मे बोले जाने वाले (नाहित्येतर या ग्रामीण) शब्दो का अर्थ नही लगा लेना चाहिए।
देस विसे मपसिद्धीइ भण्ण माणा अरगन्तया हुन्ति ।
तम्हा अगाइपाइअपयट्ट भामाविमेमग्रो देसी 11 4 3. देशी शब्दो से यहा महाराष्ट्र विदर्भ, पाभीर प्रादि देशो मे प्रचलित शब्दो का मंकलन भी नहीं समझ लेना चाहिए । क्योकि देण विशेप मे प्रसिद्ध शब्द अनन्न हैं । श्रत उनका सकलन सम्भव नहीं है । ग्रनादिकाल से प्रचलित भापा ही देशी है ।
इस प्रकार प्राचार्य हेमचन्द्र ने स्वय ही अपने द्वारा सकलित तथा देशी कहे जाने वाले शब्दो की व्यात्या स्पष्ट रूप से कर दी है । परन्तु यदि व्यान से देखा जाये तो इस
कोश के सभी शब्द देशी नही है। देशी शब्दो के भ्रम मे या फिर पूर्व प्राचार्यों की ___ मान्यता के कारण उन्होने देशी शब्दो के साथ ही अनेको तत्सम और तद्भव शब्दो का
सकलन भी कर दिया है । यद्यपि उन्होने जगह-जगह "पूर्वाचार्यानुरोधात्" और "अप्रमिद्वत्वात्" जैसे वाक्यो का सहारा लिया है फिर भी कही-कही वे ऐसी भूले कर जाते हैं जो स्वय ही उनकी पूर्वमान्यतानो का खण्डन करती है । अनेको ५,ब्द ऐसे पाये है जिन्हे उन्होने अपने शब्दानुशासन (व्याकरण ग्रन्थ) मे तत्सम और तद्भव बताते हुए भी इम कोश मे "देशी शब्द के रूप मे सकलित कर दिया है । अब तक हुई सोजो के आधार पर 'देशीनाममाला' मे सकलित तत्सम तद्भव और देशी शब्दो की सख्या निम्न प्रकार से दी जा सकती है ।
1. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' डा0 नेमिचन्द्र शास्त्री, पृ0 539 2 'अपघ्र श' प्राकृतो की ही अन्तिम कडी है 3 पिशेल, वनर्जी रामानुजस्वामी आदि का यही मन्तव्य है।
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561
"तत्सम शब्द-100 संशययुक्त तशव-528 1 गर्भित तद्भव 18501 अव्युत्पादित शब्द (देणी) 1500 1 ... ... ........... ..... ... ... .. कुल शब्दो की संख्या 3978
इन 1500 देशी शब्दो मे केवल 800 शब्द अाधुनिक भारतीय प्रार्य भाषाओं में प्राप्त होते है ! 700 शब्द प्रार्येतर भापानी से सम्बन्धित वताये जाते है । यद्यपि इनकी पूरी खोज अत्यन्त दुस्ह कार्य है । इस प्रकार प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा म्वय दी गयी परिभाषा के अनुसार इसमे केवल 1500 देशी शब्द है । शेष शब्द इस परिभाषा की सीमा के बाहर जा पडते है ।। इन "देणी" शब्दो के उद्भव और विकास तथा इनके स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत प्रबन्ध के एक अलग अध्याय मे प्रस्तुत किया जायेगा इस ग्रन्थ मे सकलित शब्दो की विशेषताए मक्षेप मे इस प्रकार दी जा सकती है।
(1) इस कोश में सकलित शब्द का प्रावुनिक भारतीय आर्य भाष'यो के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध दिखाया जा सकता है।
(2) 'देशीनाममाला' दु मभित शब्दो का अद्भुत सकलन ग्रन्थ है । इस बात को प्राचार्य ने ग्रन्य के प्रारम्भ मे स्पष्ट भी कर दिया है
देशी दुसदर्भा. प्राय सदभिता अपि दुर्वोचा ।
प्राचार्य हेमचन्द्रस्तत्ता सहभतिविभजति च ।। (3) 'देशीनाममाला' एक ऐसा सकलन ग्रन्थ है जिसके समान समस्त भारतीय साहित्य-परम्परा मे कोई भी ग्रन्य नहीं प्राप्त होता । 'पाइयलच्छीनाममाला' जैसे अन्य यद्यपि उपलब्ध हैं फिर भी उनमे प्रचलित शब्दो का पाख्यान हुया है । यह ऐसे शब्दो का सकलन ग्रन्थ है जो अन्यत्र कही उपलब्ध नहीं होते।
(4) इस सग्रह मे सकलित शब्द तत्कालीन रहन-सहन और रीति-रिवाजो का सुप्ठ परिज्ञान कराने में समर्थ हैं। ग्राम्य जीवन से सम्बन्धित शब्दावली तो भारतीय ग्राम्य जीवन के स्वरूप एन उसके विश्वासो तथा परम्परित मान्यतायो का परित. दिग्दर्शन कराने मे अत्यन्त समर्थ हैं ।
(5) इस कोश मे अनेको ऐसे शब्द सकलित हैं जिनका आज तक की विकसित आर्य भापानो मे हुआ अर्थ परिवर्तन सास्कृतिक इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
1. परन्तु इस मान्यता में कोई बल नही । इमका खण्डन 'अर्थगत अध्ययन' के अन्तर्गत किया
गया है।
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[ 57 सिद्ध हो सकता है । अनादिकाल से प्रचलित लौकिक रीति-रिवाजो को प्रदर्शित करने वाले कितने ही शब्द यत्र-तत्र इम कोश मे बिखरे पडे हैं । ये शब्द केवल आर्यों की ही प्राचीन परम्परा का द्योतन करने वाले न होकर प्रार्येतर, कोल, सथाल, मुण्डा तथा द्रविड जाति के लोक व्यवहार को प्रदर्शित करने में समर्थ है । अाजकल सामान्य जन-जीवन के बीच कितने ही ऐसे शब्द विखरे पडे है जिन्हे इस कोश मे सचित शब्दो से मदर्भिन किया जा सकता है । इस विषय की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत प्रवन्ध के एक अलग अध्याय मे विस्तार में की जायेगी। स्वरूप
'देशीनाममाला' का मूलपाठ अपभ्र श के गाथा छन्द मे लिखा गया है। इन गाथागो मे हेमचन्द्र ने 'देशी' शब्दो की गणना कराने के साथ ही उनका पर्यायवाची 'तद्भव' शब्द भी दे दिया है। इन गाथानो पर उन्होने टीका भी लिखी है। यह मस्कृत मे है । इसके अन्तर्गत उन्होने प्रत्येक 'देशी' शब्द का समानार्थी सस्कृत शब्द देने के साथ ही उस शब्द को 'देशी' मानने के पक्ष मे तर्क भी दिया है । सस्कृत टीका मे वे अपने और अपने से पहले के प्राचार्यों के मतो का उल्लेख करते हुए शब्द के रूप और उसकी देसी सज्ञा के प्रौचित्य को विस्तारपूर्वक स्पष्ट कर देते हैं। मूलगाथाम्रो की सस्कृत टीका लिखने के अतिरिक्त प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'देशी' शब्दो को और भी स्पष्ट करने के लिये, इन्ही शब्दो को लेकर, उदाहरण की गाथाम्रो की रचना की । प्रत्येक गाथा के बाद उसकी सस्कृत टीका और टीका के बाद इन शब्दो के उदाहरण के रूप मे गाथाए यही देशीनाममाला का मूल स्वरूप है । इनमे एक-एक को लेकर उनका विस्तृत विवेचन करना समीचन होगा। देशीनाममाला की गाथाएं
'देशीनाममाला' कुल 8 वर्गों मे विभाजित है । इन आठ वर्गों मे कुल 783 गाथाए हैं। इसका वर्ग विभाजन स्वरादि क्रम से है अर्थात् प्रथम वर्ग मे ऐसे शब्दो का सकलन है जो स्वरो अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ से शुरू होते हैं । वर्ग के प्रारम्भ मे द्व यक्षर शब्द उसके वादत्र्यक्षर, चतुरक्षर, पचाक्षर और इसी तरह क्रम से कही कही पाठ अक्षरो तक के शव्द सकलित है । इनका निर्देश हेमचन्द्र स्वय ही 'अथ' द यक्षरा - त्र्यक्षरा इत्यादि कहकर कर देते है । एकार्थक और अनेकार्थक शब्दो का निर्देश भी वे करते चलते हैं ।
स्वरूप की दृष्टि से देशीनाममाला' के तीन विभाग किये जा सकते हैं-(1) मूलपाठ, इसमे गाथाए आती हैं जो देशी शब्दो और उनके पर्याय तद्भव शब्दो का प्रत्याख्यान करती है। (2) टोका भाग यह सस्कृत मे है । (3) उदाहरण ।
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58 ]
द्वितीय वर्ग कण्ठ्यव्यजनवर्ग कहलाता है इसके अन्तर्गत क्रमश क, ख, ग, घ व्यजनो से प्रारम्भ होने वाले 'देशी' शब्दो का सकलन किया गया है । तृतीय वर्ग में तालव्य व्यजनो च, छ, ज, झ से प्रारम्भ होने वाले शब्दो का समाहार किया गया है । चतुर्थ वर्ग मूर्धन्य वर्णो ट, ठ, ड, ढ, ण से प्रारम्भ होने वाले शब्दो से युक्त है । पचमवर्ण दन्त्य त, थ, द, ध, न मे प्रारम्भ होने वाले शब्दो का समूह है पप्ठ वर्ग प्रोष्ट्य प, फ, ब, भ, म वर्णों से प्रारम्भ होने वाले शब्दो का मकलित स्प है। सप्तम वर्ग अन्त स्थ व्यजनो य, र, ल, व तथा दन्त्य स मे प्रारम्भ होने वाले शब्दो का सकलन है । अष्टम वर्ग में केवल ऊमवणं-ह से प्रारम्भ होने वाले शब्दो का सकलन हुआ है।
इम ऊपर गिनाये व्यजन वर्गों मे शब्दो का पाख्यान व्यजनो में निहित स्वरो के क्रम से किया गया है-जैसे कण्ठ्यवर्ग के क् से प्रारम्भ होने वाले शब्दो का पाख्यान करते समय प्राचार्य सर्वप्रथम प्रकारान्त क् से प्रारम्भ होने वाले शब्दो का पाख्यान करते हैं जैसे
कल्ला कविस मज्जे कलिकल्लोला विवक्सम्मि । कच्च कोडुम्ब कज्जे कस्सोकच्छरो अ पड कम्मि ।। 211
इस गाथा मे कल्ला, कविस, कली तथा कल्लोल, कच्च, कच्छर प्रादि शब्दो का आदिभूत व्यजन क् अ स्वरसयुक्त है। इसी प्रकार अन्य स्वरो से युक्त शब्दो का पाख्यान करते समय वे गाथा के पहले की एक पक्ति मे 'अथ' इकारादय , उकारादय एकारादय आदि कहकर निर्दिष्ट कर देते हैं । ' एकार्थक और अनेकार्थक शब्दो का प्रत्याख्यान करने के पहले भी वे 'इत्येकार्या' अथ अनेकार्था आदि कहकर निर्दिष्ट करते चलते हैं । स्वर वर्ग की भाति ही व्यजन वर्गों मे भी पहले ह यक्षर फिर व्यक्षर, चतुरक्षर आदि शब्द क्रम से प्रत्याख्यायित किये गये हैं । इस प्रकार 'देशी' शब्दो और उनके पर्यायवाची 'तद्भव' शब्दो का प्रत्याख्यान करने वाली 'देशीनाममाला' की मुलपाठ से सम्बन्धित गाथाए स्वरूप की दृष्टि से कहीं भी दुरुह नही हैं । कदमकदम पर आचार्य दुरूहतायो को मिटाने के लिए सकेत देते चलते हैं । गाथाओ के स्वरूप का निर्धारण हो जाने के बाद प्रत्येक वर्ग में निहित गाथारो की संख्या का उल्लेख कर देना भी समीचीन होगा। इसे अग्र प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है
वर्णो मे निहित स्वरो का निर्देश करने के अतिरिक्त कोशकार नये व्यजन से प्रारम्भ होने वाले शब्दो का निर्देश करने में भी नहीं चूकते। च से प्रारम्भ होने वाले शब्दो का प्रत्याख्यान हो जाने पर छ से प्रारम्भ होने वाले वर्णों की शुरुआत करने के पहले वे लिख देते हैं-'अथद्वादय' यही परिपाटी उन्होंने पूरे ग्रन्य मे अपनायी है।
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[ 59
वर्ग गरमा
गाथारो की सख्या
174
112
प्रथम द्वितीय तृतीय चतुर्य पनम
62
वर्ग जिनमे प्रारम्भ होने वाले शब्दवर्ग में प्रात्यायित है।
स्वर वर्ण कठ्य वर्ण तालव्य वर्ण मद्वंन्यवर्ण दन्त्यवर्ण प्रीव्य वर्ण अन्त म्य वर्ण ऊपम वर्ण
51
63
148
सप्तम
96
पाटम
77
कुल
783
ऊपर की तालिका मे दिमाये गये 8 वर्गों की 783 कारिकानो मे कुल 3978 देशी शब्दो का प्रत्याख्यान किया गया है । शब्दो की संख्या की दृष्टि से प्रथम वर्ग मे लगभग 787, द्वितीय मे लगभग 570, तृतीय मे लगभग 327, चतुर्थ मे लगभग 265 पचम मे लगभग 312, पष्ठ मे लगभग 800 सप्तम मे लगभग 825 और अष्टम मे केवल 92 देशी शब्दो का उल्लेख किया गया है । वृत्ति या टीका भाग
सिद्धहेम शब्दानुशासन' की भाति हेपचन्द्र ने अपने इस कोश ग्रन्थ को भी टीका स्वय ही लिखी है । 'देशीनाममाला' की मूल गायाए प्राकृत मे है । इन गाथानो मे निहित शब्दो के भाव को समझाने तथा ग्रन्थ को प्रामाणिक एन महत्त्वपूर्ण सिद्ध करने के लिये इन्होने इसकी टीका सस्कृत भापा मे लिखी। यह बात तो विल्कुल सच ही है कि यदि हेमचन्द्र अपने इस ग्रन्थ की मूल गाथानो पर टीका न लिखते तो इम कोश का समझना सामान्य लोगो के लिए अत्यन्त दुरूह होता । देशीनाममाला मे निहित विपय अत्यन्त विवादास्पद हैं । भाषामो के अथाह सागर मे बून्द के समान देशी शब्दो को अलग कर उनका पास्यान करना और विभिन्न विवादो से बच निकलना एक कठिन काम था। इसके लिए एक विस्तृत तर्क पूर्ण पृष्ठभूमि की आवश्यकता थी। हेमचन्द्र ने इसी भावना से सस्कृत टीका लिखी होगी। टीका को देखने से पता चलता है कि उन्होने जितने भी शब्दो को देशी कहा है उनका कोई न कोई कारण है । और इन्ही कारणो का स्पष्टीकरण वे अपनी सस्कृत टीका मे करते चलते हैं । वे स्वय ही बताते हैं कि परम्परा मे कई ‘देशीकार' हुए हैं परन्तु इनमे से
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601 अधिकतर अनेकों भूलें करने वाले है। हेमचन्द्र उनकी कमियो की प्रोर मकेत करते हैं। यह सारा कार्य वे मूल गाथा ग्रो की छोटी मी मीमा के भीतर नहीं कर सकते थे । एक जगह प्राचीन देशीकारो की सराहना करते हुए तथा प्रावुनिक (अपने समकालीन) देशीकारो और उनके व्यारयातायो की अवमानना करते हुए लिखते हैंअधुनातन देशी काराणा तद्व्यात्यातृरणाच कियन्त समोहा परिगण्यन्ते ।।
प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने इम कोश मे लगभग 4000 शब्द मालित किये है। इनमे केवल 1500 शब्द ही ऐसे हैं जिन्हे 'देशी' कहा जा सकता है।' शेष कुछ तो तत्सम हैं, कुछ तद्भव और कुछ अर्द्ध तत्सम । परन्तु प्राचार्य सभी शब्दो को 'देगी' ही कहते हैं। इसके लिए वे कही परम्परा का महारा लेते हैं तो कही किमी विद्वान का । "देशीनाममाला" मे मकलित कोई भी ऐमा तत्मम या तद्भव शब्द "देणी" के रूप मे संग्रहीत न मिलेगा, जिसके लिए हेमचन्द्र ने टटकर तर्क न दिया हो । इन तत्सम या तद्भव शब्दो का ग्रहण कहीं वे पूर्वाचार्यानुरोधात् "कही अप्रसिद्धत्त्वात्" तो कही (मेरी राय मे) प्रमादत्वात् (यद्यपि कही वृत्ति मे यह पाया नहीं फिर भी कई जगह हेमचन्द्र प्रमाद कर गये हैं) करते है। इन सभी बातो का प्रतिपादन उन्होने ग्रन्थ की स्नोपज्ञवृत्ति (टीका) मे ही किया है।
हेमचन्द्र के इस ग्रन्य के वृत्ति भाग की विशिष्ट महत्ता परम्परा मे हुए देशीकारो के उल्लेख के कारण भी है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने द्वारा सकलित शब्दो को देशी सिद्ध करने तथा अन्य प्राचार्यों द्वारा "देशी" कहे गये शब्दो को कही-कही न मानने के सदर्भ मे, पूरे ग्रन्थ के वीच कुल 12 देशीकारो का नामोल्लेख किया है । जहा-जहा और जिन-जिन कोशकारी का नाम लिया है उमका विवरण इस प्रकार है। 1. अभिमान चिह्न
इन्होने सूत्र रूप मे एक "देशीकोश" की रचना की थी। इसके साथ शब्दार्थ सूची और उदाहरण भी दिये गये थे। इनकी व्यास्या उद्खल नामक विद्वान् ने की थी यद्यपि इन्होने कई जगह उनके सूत्रो को न समझ कर भूलें की हैं हेमचन्द्र ने अपने इम ग्रन्थ मे इनका उल्लेख-1-144, 6-93, 7-1, 8-12,17 मे किया है। 2 अवन्तिसुन्दरी :
इस नाम की विदुपी का उल्लेख हेमचन्द्र ने "देशीनाममाला" मे तीन स्थानो
1. अब तक दे ना. पर कार्य करने वाले रामानुजस्वामी प्रभूति विद्वानो का यही मन्तव्य
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[ 61
पर किया है-प्रथम वर्ग की 81 वी, 144 वी, और 157वी गाथा की वृत्ति मे । अवन्तिसुन्दरी नाम काफी भ्रामक है। कुछ लोग इसे धनपाल की बहिन "सुन्दरी" बताते हैं जिसके शब्दज्ञान के लिए धनपाल ने "पाइअलच्छीनाममाला" की रचना की थी। परन्तु वहा (पाइअलच्छीनाममाला) मे प्राप्त उल्लेख को देखते हुए सुन्दरी इतनी विदुपी नहीं हो सकती कि आचार्य हेमचन्द्र जैसा विद्वान् अपने कोश मे उसकी चर्चा करे । कुछ विद्वान् “अवन्तिसुन्दरी" को राजशेखर (कश्मीरी कवि) की पत्नी बताते हैं । “कपूर-मजरी" मे एक अवन्ति सुन्दरी की चर्चा पाती भी है जिसकी आज्ञा से इसका अभिनय किया गया था। यह सम्भावना सत्य के अधिक निकट है। 3 गोपाल
इन्होने श्लोको मे एक देशीकोश की रचना की थी और सस्कृत मे इनका अर्थ भी दे दिया था । देशीनाममाला मे हेमचन्द्र इनका उल्लेख 1-25, 31, 45, 2-82, 3-47, 6-26, 45,72,7-2,76, 8-1,16, तथा 67 में करते हैं। अन्य देशीकारो ने भी इनका उल्लेख किया है । 4 देवराज :
इन्होने एक छन्दबद्ध देशीकोश की रचना की थी। हेमचन्द्र की ही भाति इन्होने भी देशी शब्दो के प्राकृतपर्यायवाची दिये हैं। हेमचन्द्र इनका उल्लेख तीन जगह 6-58, 72 तथा 8-17 मे करते है। प्रथम दो स्थानो पर हेमचन्द्र इनके मत का समर्थन करते है परन्तु अन्तिम 8-17 मे उन्हे देवराज का मत मान्य नही है । देवराज द्वारा लिखा गया कोश प्रकरणो मे शब्द की प्रकृति के आधार पर विभाजित है। 5 द्रोण
___ ये भी एक देशी कोश के रचयिता के रूप मे उल्लिखित है परन्तु इनके अन्य के बारे मे अब तक कुछ पता नहीं चला है । हेमचन्द्र इनका उल्लेख एक जगह (8/17) मे अपने मत का समर्थन करने के लिए करते है 1-18,50 तथा 6-7 मे हेमचन्द्र इन्हे अपने मत का समर्थन न करने वाले प्राचार्य के रूप मे उल्लिखित करते है। 6. धनपाल:
धनपाल ने एक शब्दकोश की रचना की थी। इसके अतिरिक्त उनके
1. पाइअलच्छीनाममाला।
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62 ] अन्य किसी कोश ग्रन्य का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। हेमचन्द्र ने इनका उल्लेख 1-141, 3-22, 4-30, 6-101, 8-17 में किया है ।परन्तु हेमचन्द्र ने धनपाल के नाम से जितने भी उद्धरण दिये हैं वे "पाइग्रलच्छीनाममाला" मे नही मिलते । इसके अतिरिक्त "पाइअलच्छीनाममाला" मे मकलित शब्दो की चर्चा करते हुए भी वे इस सदर्भ मे धनपाल का नाम नही लेते । वहा "इत्यन्ये" कहकर आगे बढ जाते हैं । अब यहा दो ही सम्भावनाए हो सकती है । एक तो यह कि धनपाल ने "पाडग्रलच्छीनाममाला" के अतिरिक्त कोई दूसरा भी कोश लिखा था और उसी से हेमचन्द्र ने ये उद्धरण लिये । दूसरे धनपाल नाम का कोई दूमरा कोशकार रहा हो जिसने महत्त्वपूर्ण देशीकोश की रचना की हो । प्रार० पिशेल' की यह मान्यता है कि "देशीनाममाला" मे उल्लिखित "घनपाल" पाइग्रलच्छी नाममाला" के रचयिता धनपाल मे अलग विद्वान रहा होगा। इस बात के समर्थन में वे दो तर्क देते हैं - एक तो यह कि “पाइअलच्छीनाममाला" जिसे कि धनपाल ने स्वय ही देशीकोण कहा है, रचने के बाद, उन्हें उसी प्रकार का दूसरा देशीकोश लिखने की अावश्यकता क्यों पडी । एक ही विद्वान् द्वारा एक ही समय मे एक ही विषय पर दो अन्य परम्परा मे देखने को नहीं मिलते । दूसरी बात यदि देशी कोश से उद्धरण देते समय हेमचन्द्र ने धनपाल का नाम लिया तो "पाइप्रलच्छी नाममाला" के उद्धरणो मे उन्होंने धनपाल का नाम ग्रहण न करके "इत्यन्ये" या "इतिकेचित्" क्यो लिखा ? क्या इससे ध्वनित नहीं होता कि हेमचन्द्र की दृष्टि मे धनपाल का कोई मूल्य नहीं था। इन तकों के आधार पर उन्होने यह सिद्ध करने का प्रयाम किया कि हेमचन्द्र द्वारा उल्लिखित धनपाल कोई अन्य विद्वान् रहे होंगे जिन्होंने एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण देशीकोश की रचना की थी। 7. पाठोटूखल :
इनका उल्लेख आचार्य ने केवल एक बार (8-12) मे किया है। ये सभवतः
"] vedture to suggest that Dhanpal quoted by Hemchandra is quite different from the author of Paiya lacbhidammala If They are identical it would be impossible to conceive how one person could teach one and the same word in two different works and that too in different forms, as it would be necessary to suppose from VI 101 Again I do not see any reason why he should compose two Kosas of the same kind instead of one comprehensive one The Paiyalacbhi is a very meagre production and the number of Desi words taught in it is very small The Kosa of the other Dhanpal must have been a work of considerable merit to deserve to be quoted by Hemchandra by the name of author."
Desi Nammala-Introduction I P-13
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वही उदूखल होगे जिनका उल्लेख अभिमान चिह्न द्वारा लिखे गये कोश के व्याख्याकार के रूप में किया जा चुका है। 8. पादलिप्ताचार्य
प्राचार्य हेमचन्द्र ने इनका एक स्थान (1-2) पर नामोल्लेख मात्र किया है। इनके मत का उल्लेख पूरे ग्रन्य मे कही भी नही हुआ है । हेमचन्द्र (1-2) मे इतना ही बताते हैं कि इन्होने एक देशीकोश की रचना की थी। ऐसा लगता है जैसे इनकी और हेमचन्द्र की मान्यता एक ही थी। हेमचन्द्र ने अवश्य ही इनके ग्रन्थ से प्रेरणा ली होगी । कोई मतविरोध न होने के कारण ही इनका कही उल्लेख नही किया होगा। 9 राहुलक .
___ इनका उल्लेख केवल एक स्थान (4-4) पर हुअा है। इन्होने किसी देशी कोश की रचना की थी या नही यह स्पष्ट नही। इनका नामोल्लेख भी सीधे नही हुया है। वहा "टोल" शब्द के अर्थ पर विवाद है। अन्य लोगो के द्वारा दिये गये अर्थ को न स्वीकार कर हेमचन्द्र ने "राहलक" के अर्थ को स्वीकार किया है। यह स्थल द्रष्टव्य है -"टोलो शलभ । टोलो पिशाच इत्यन्ये । यदाह ।। टोल पिशाचमाहु सर्वे शलम तु राहुलक । . . . . . ." ॥414, पृ० 158 10 शाम्ब
इनका भी उल्लेख हेमचन्द्र ने केवल एक ही स्थान (2-48) पर किया है । यहा "कोमुई" शब्द पर विवाद उठ खडे होने पर वे शाम्ब का मत उद्धृत करते हैं।
"को मुई सर्वापूर्णिमा । शरद्य व पौर्णमासी कौमुदी रूढा । इह तु या काचिपूर्णिमा सा कोमुई। अतएव च देसी । यदाह ।।
कोमुईमाह च शाम्बो या काचित्पोर्णमासी स्यात् ॥ 2/48, पृ० 101 "कौमुई" शब्द को "तद्भव" न मानकर "देशज" मानते हुए हेमचन्द्र शाम्ब का उल्लेख करते हैं। इससे लगता है शाम्ब ने किसी कोण की रचना अवश्य की होगी परन्तु उसके बारे मे अन्य कोई भी उल्लेख नहीं मिलता। 11. शीलाडक :
इन्होने भी देशीकोश को रचना की थी। पर इनसे सबधित विशेष उल्लेख कही नही मिलता। हेमचन्द्र ने इनका उल्लेख तीन जगहो (2-20, 6-96) तथा (7-40) पर किया है। 2-20 मे "कडभुया" शब्द मे हेमचन्द्र उनसे मतभेद प्रकट करते हैं 6-96 और 8-40 शब्दो के रूप पर अपना मत भेद प्रदर्शित करते हैं ।
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64 ]
12. सातवाहन :
इनका उल्लेख हेमचन्द्र ने 3-41, 5-11,6-15,18,19, 112, 125 में किया है। उल्लेख के आधार पर इन्हें "गाहा सतसई" का सकलनकर्ता "हाल मातवाहन" कहा जा सकता है हेमचन्द्र सात बार इनका उरलेप करते हैं वे यह दिवाना चाहते हैं कि हाल ने (वहा चचित) शब्दो का श्रयं उनसे अलग हट कर लगाते हुए अपने सग्रह अन्य (गाहासतसई) में प्रयोग किया है। परन्तु जिन शब्दो के सदर्भ मे हेमचन्द्र सातवाहन की चर्चा करते हैं वे शब्द "गाहासतमई" मे कही नही मिलते । हो सकता है ये कोई अन्य सातवाहन हो।
ऊपर गिनाये गये विद्वानो मे अभिमान चिह्न, देवराज, पादलिप्त और सातवाहन "गाहासतमई" के कवि के रूप में भी प्राप्त होते हैं । इन विद्वान कवियो के अतिरिक्त हेमचन्द्र ने कुछ प्रसिद्ध ग्रन्यकारो का उल्लेग भी स्पष्ट रूप में किया है । इनमे कालापा (1-6), भरत (8-72) भामह (8-39) श्रीर विना नामोल्लेख किये हलायुध से मी (1-5 और 2-8) मे उद्धरण दिया है । विद्वानो के नामोल्लेख के अतिरिक्त हेमचन्द्र ने इस ग्रन्य मे कई ग्रन्यो का भी उल्लेग किया है। इनमे कुछ "देशीकोश" उल्लेखनीय है । जैसे सारतरदेशी, अभिमानचिह्न सूत्रपाठ; 'देशीप्रकाश' देशीमार (इमका उल्लेख क्रमदीश्वरी ने अपने 'सक्षिप्तसार' नामक ग्रंथ मे 8वें अध्याय के पृष्ठ 47 पर भी किया है) इत्यादि ।
विद्वानो और ग्रन्थो का नामोल्लेग्व करने के अतिरिक्त हेमचन्द्र ने अनेकों विद्वानो का मत विना नाम लिये ही उद्धृत किया है। उनका विवरण इस प्रकार हैअन्ये (1-3, 20, 22, 35, 47, 52, 62, 63, 65, 66, 70, 72, 75,
78, 87, 89, 99, 100, 102, 107, 112, 151, 160 और
163, 2-11, 12, 18, 24, 26, 29, 36, 45, 47, 50, 51, 66, 67,
77,79, 89 और 98, 3-3, 6, 8, 28, 40, 41, 58 तथा 59, 4-3, 4, 5, 6, 7, 18, 22, 23, 26, 33 तथा 44 पीर 47, 5-~9, 30, 33, 36, 40, 45, 50 तथा 61,
1. चेवर द्वारा सम्मादित । 2 लाला दीक्षित ने अपनी मृच्छकटिक की टीका में इसका उद्धरण दिया है।
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[ 65 6-14, 15, 16, 21, 24, 25, 26, 28, 42, 48, 53, 54, 61,
.63, 75, 81, 86, 88, 91, 93, 94, 97, 99, 105, 106,
116, 121, 132, 134, 140 तथा 145, 7-2, 16, 17, 18, 21, 31, 33, 37, 44, 45, 48, 62, 68, 69,
74, 75, 76, 88 तथा 91, ___8--10, 15, 18, 22, 27, 35, 36, 38, 44, 45, 59 तथा 67)। एके (2-89, 4-5 और 12, 6-11, 7-35, 8-7), कश्चित् (1-43, 2-18, 3-51, 5-13, 8-75) 7 केचित्-(1-5, 26, 34,
37, 41, 46, 47, 67 79, 103, 105, 117, 120, 129, 131 तथा 153, 2-13, 15, 16, 17, 20, 29, 33, 38, 58, 59, 87 तथा 89, 3--10, 12, 22, 23, 33, 34, 35, 36, 44 और 55, 4-4, 10, 15 तथा 45 5-12, 21, 44 और 58 6-4, 55, 80, 90, 92, 93, 95, 96, 110 तथा 111 7--2, 3, 6, 47, 58, 65, 75, 81 तथा 93,
8-4, 51, 69 तथा 70, पूर्वाचार्या (1--11 और 13), यदाह (1-4 और 5) हलायुध (1-37,75, 121,
171, 2-33, 48, 98, 3-23, 54, 4-4, 10, 21, 24 तथा 45, 5-1
और 63, 6-15, 42, 78, 81, 93, 140 और 140, 7-7146, 58 तथा 84, 8-1, 13, 43 तथा 68), यदाह (1-5, 3-6 तथा 4-15), इसी प्रकार के अन्य सर्वनामो के साथ 1-18, 94, 144 तथा 174, 3-33, 4-37, 6-8, 58 तथा 93, 8-12, 17 और 28 ।
इतनी अधिक सख्या मे विद्वानो का नाम देखकर कोई भी व्यक्ति हेमचन्द्र के अध्यवसाय और उनकी ईमानदारी की सराहना किये बिना नहीं रह सकता। हेरचन्द्र कही धोखे से भी यह बात नही कहते कि यह उनका मौलिक ग्रन्थ है । स्थानस्थान पर उन्होंने यह स्वीकार किया है कि 'देशीनाममाला' का संग्रह इसी प्रकार के पुराने ग्रन्थो के आधार पर किया गया है। जिस किसी स्थल पर प्राचीन प्राचार्यों मे मतभेद दिखायी पडता है और वे स्वय भी अपनी कोई स्पष्ट राय नहीं दे पाते, वहा अत्यन्त विनम्रता पूर्वक, 'तदैव ग्रन्थकृद्विप्रतिपत्तो वहुज्ञा प्रमाणम् ।' ऐसा कहते देखे जाते हैं । जहा कही वे पूर्वाचार्यों से अलग हटकर अपने मत का प्रतिपादन करना
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66 ] चाहते हैं वहां स्पष्ट रूप से सकारण अपने मत का पाख्यान करते है। 1 47 में उन्होने 'अवडाक्किय' और अवडक्किय' इन दो शब्दो को अलग-अलग किया है। पहले के कोशकारो ने इन दोनो शब्दो को समानार्थी बताया था, पर हेमचन्द्र ने उन शब्दो के विपय मे उत्तम ग्रन्यो की छानबीन करके अपना निर्णय दिया-अम्माभिस्तु सारदेशी निरीक्षणेन विवेकः कृत.। इसी प्रकार कही-कही विवाद पटा हो जाते पर वे अत्यन्त सीधे-सादे ढग से 'केवलम् सहृदया प्रमाणम्' कहकर विवाद की समाप्ति कर देते हैं । प्राचार्य हेमचन्द्र की इन्ही विशेषतायो को ध्यान में रखते हुए 'जीगफीड गोल्डश्मित्त ने कहा था-'देशीनाममाला' उत्तग-श्रेणी की मामग्री देने वाला ग्रन्थ है ।' और यह उत्तम सामग्री 'देशीनाममाला' की वृत्ति (टीका) मे निहित है।
___ इस प्रकार 'देशीनाममाला' की भाषा वैज्ञानिक महत्ता इस बात मे तो है कि यह 'देशी' शब्दो का प्रत्यास्यान करने वाला एक मात्र ग्रन्य है, परन्तु वृत्ति को अलग कर देने से वह मूल्यहीन सा हो जायेगा। इस ग्रन्थ की वृत्ति इसकी प्रागरूपा है । इस वृत्ति के माध्यम से हेमचन्द्र ने लम्बी परम्परा मे हुए शब्दो से सम्बन्धित अध्ययन को एक ही स्थान पर स्पष्ट कर दिया है । 'देशीनाममाला' मे पायी हुई उदाहरण की गाथाए
प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'देशीनामाला' की मूलगाथानो पर वृत्ति (टीका) लिखने के के बाद उन शब्दो का प्रयोग बताने के लिए कुछ उदाहरण भी दे दिये है । उदाहरण की ये गाथाए ‘एकार्थ' शब्दो की टीका के बाद दी गयी हैं । 'अनेकार्थ' शब्दो के प्रत्याख्यान मे प्राचार्य ने कोई भी उदाहरण की गाथाए नहीं लिखी है । उदाहरण की ये गाथाए अत्यन्त कवित्वपूर्ण और तत्कालीन युगजीवन को प्रत्यक्ष कराने वाली हैं । उदाहरण की ये गाथाए स्वय हेमचन्द्र द्वारा रचित हैं या बाद मे इनके शिष्यो ने लिखा, इस विषय पर थोडा विवाद अवश्य है पर अधिकतर विद्वान् इन्हें प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा ही रचित मानते है । इन पद्यो का स्वरूप भी यही द्योतित करता है कि प्राचार्य ने देशी शब्दो को आसानी से कण्ठस्थ किये जाने की सुविधा के लिए इन पद्यो की रचना की होगी।
रिचर्ड पिशेल ने देशीनाममाला की भूमिका मे हेमचन्द्र के इन पद्यो की बडी कडी आलोचना की है। उनका विचार है कि ये पद्य अधिकतर निरर्थक और केवल शब्दो का उदाहरण मात्र दे देने के लिए लिखे गये है। उनकी दृष्टि मे ये 1 जीगक्रीड गोल्डश्मित्त-होयत्शे लिटेराट्ररत्साइट ग 2, 1109 । 2. Pinchel-Introduction to Desinammala P 29-30 II Edition
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[ 67
अर्थ की दृष्टि से अत्यन्त क्लिष्ट और साहित्यिक दृष्टि से सर्वथा महत्त्वहीन हैं । पिशेल अपनी कठिनाई व्यक्त करते हुए कहते है कहीं-कहीं तो ये पद्य इतने क्लिष्ट है कि मुझे अाज नक भी समझ मे नही पा सके । इन पद्यो मे आये हुए शब्दो का सही-सही अर्थ लग जाने पर भी इनका प्राशय समझना अत्यन्त दुरूह कार्य है।
पिशेल की इस कदु पालोचना को उनकी अपनी कमी बताते हुए प्रो० मुरलीवर बनर्जी ने अपने द्वारा सम्पादित 'देशीनाममाला" की भूमिका मे यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि यदि इन उदाहरणो को शुद्ध करके पढा जाये तो इनसे अत्यन्त रमणीय अर्थ ध्वनित होता है । ' पिशेल की सबसे बडी कमी यही है कि उन्हें पद्यो के पाठ के बारे में अनेको भ्रान्तिया है। इन्ही भ्रान्तियो के कारण पद्यो का अर्थ भी स्पष्ट नहीं हो पाता । उन्होने कई उदाहरण देकर पिशेल के द्वारा की गयी भूलो की ओर सकेत भी किया है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है
प्रथम वर्ग की 22 वी गाथा का 20 वा उदाहरण पिशेल के द्वारा निम्न प्रकार पढा गया है
अम्माइग्राइ दिण्णावहेन तुहरे अवत्थरारिहइ ।
णावलिअ ज जाव य रसेण त किसलियो असोउ हव ।। प्रो० मुरलीधर बनर्जी द्वारा शुद्ध किया गया पाठ इस प्रकार है
अम्माइसाइ दिस्मावहेन तुहरे अवत्यरारिहइ ।
नावलिय ज जावयरसेण त किसलियो असोउव्व ॥ छाया-अनुमार्ग गामिन्या दत्तोनुकम्पा तवरे पादाघातम् नूनम् ।
नासत्य यत् यावक रसेण त किसलितो-अशोक इव ॥ पिशेल ने इस पद्य मे "याव" और "य" अलग करके पढा था । अत उसकी छाया "यावच्च" करने पर अर्थगत कठिनाई स्वय ही उत्पन्न हो जायेगी। यदि इन दोनो को मिलाकर पढा जाये तो "या वक" शब्द बनेगा। ऐसा कर देने पर यहा एक रमणीय अर्थ की व्यजना होती है।
___ नायक और नायिक आगे पीछे चले आ रहे हैं। नायक अत्यन्त प्रसन्न वदन दिखायी दे रहा है। नायक की इस प्रसन्नता का कारण कोई अन्य व्यक्ति वताता है
1
Introduction to Desinammala by MD Banerjee I Part.
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"हे युवक । अवश्य ही तेरे पीछे पीछे पाने वाली युवती ने तुझे अपने महावर भरे पैरो से ठोकर मारी है जिसके कारण तू अशोक वृक्ष के समान प्रफुल्लित हा उठा है।"
उपर्युक्त अर्थ को देखकर कौन ऐमा सहृदय साहित्यिक व्यक्ति होगा जो हेमचन्द्र के उच्चकोटि के कवित्व में अविश्वास करेगा। उसी प्रकार अनेकी स्थती पर पिशेल को भ्रान्तिया हुई । उन्होने शुद्ध पाठ न होने के कारण ही इस प्रकार अर्थगत दुरूहता अनुभव की थी। उपर्युक्त कारिका में "यावच्च" का अर्थ और नव तक निश्चित ही अर्थगत दुस्हता का जनक है । दोनो पदो को मिलाकर पढा हुया “यावक" पद “महावर" का अर्थ देता है । यह अर्थ पाते ही पद्य मे एक उच्चकोटि का कवित्त्वपूर्ण प्राशय व्यजित होने लगता है। यह वात तो माहित्य में सर्वथा प्रसिद्ध ही है कि अशोक मे पुष्प तभी पाते है जब कोई मदमिक्तनवयौवना अपने पालक्तक लगे चरणो से उस पर प्रहार करती है। युवक की प्रसन्नता का कितना व्यजनापूर्ण कारण इन पक्तियो में बताया गया है। इसी प्रकार का एक उदाहरण और भी द्रष्टव्य हैपिशेल द्वारा दिया गया पाठ
प्रोहकरि पोहढ़ च य प्रोलु कि च सारवेसुधर । श्रोचुल्ले प्रोलिम दट्ट, प्रोलिप्पिही तुह गनन्दा ।।
1-121-153, पृ० 70 सस्कृतछाया
हसनशीले हास्य च च छन्न रमण क्रीडाच समारचय गृहम् ।
चुल्ल्येकदेश उपदेहिका दृष्ट्वा हसिष्यति तव ननन्दा ।। प्रो० वनर्जी द्वारा परिशुद्ध पाठ
अोहकरि प्रौहट ढ चय अोलु कि सारवेसुघर ।
श्रोचुल्ले प्रोलिम दठ्ठ अोलिप्पिही तुह नन्दा ।। छाया
हसनशीले हास्य त्यज छन्मरण क्रीडाच समारचय गृहम् ।
चुल्ल्येकदेश उपदेहिका दृष्ट्वा हसिष्यति तव ननन्दा ।।
"हास्य रत वाले । अपनी हसी और छन्नरमण क्रीडा को त्याग घर को साफ सुथरा करो नही तो तुम्हारे रसोई घर के चूल्हे के आस-पास सफेद चीटियो को रेंगते देखकर तुम्हारी ननँद हँसी करेगी।"
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इस पद्य में "च य" को अलग-अलग पढने से अर्थ तो कोई निकला ही नही। पता नही पिशेल को यह बात क्यो नही सूझी कि वाक्य के बीच "च" जैसा व्यजन जैसा का तैसा नही बना रह सकता । दोनो को मिलाकर "चय" बनता है जो सस्कृत "त्यज" का तद्भव है।
इसी प्रकार पिशेल ने कई जगह आशुद्ध पढ जाने की भ्रान्तिया की हैं । प्रो० मुरलीधर बनर्जी ने अपने द्वारा सम्पादित देशीनाममाला की भूमिका मे इस प्रकार के कई उदाहरण दिये है। वहा उन्होने ऊपर दिये गये दो उदाहरणो के अतिरिक्त 1-147-115, 2-30-27, 2-81-66, 3-25-21, 6-131-114, 7-20-17 तथा 7-40-34 मे भी इसी प्रकार का पाठगत प्रमाद बताया है साथ ही शुद्ध पाठ भी दे दिया है। उनका कथन है कि इस प्रकार यदि गाथाओ के पाठ को शुद्ध करके देखा जाय तो इनसे निश्चित ही एक सुन्दर माहित्यिक अर्थ की व्यजना होती है । "रयणावली" की ये गाथाए तो कही-कही" "गाहोसत्तसई" मे निहित गाथागो के काव्य सौन्दर्य से भी वढकर दिखायी पडती है। यदि ये ग्रार्याएँ आचार्य हेमचन्द्र के द्वारा विरचित है तो निश्चित ही उनमे अद्भुत कवित्वशक्ति थी । अन्त मे वे इस निष्कर्ष पर पहंचते हैं कि यदि गाथाम्रो को शुद्ध करके पढा जाये तो निश्चित ही ये काव्य-प्रेमियो के लिए अद्भुत रस सयुक्त होगी। पिशेल और उनके शिष्य इनसे रसग्रहण भले ही न कर सके ।
"देशीनाममाला" से प्राचार्य हेमचन्द्र ने उदाहरण के रूप मे 634 गाथाए लिखी हैं। ये गाथाए विषयवस्तु और वातावरण-दोनो ही दृष्टियो से गाथा सप्तशती" के समीप रखी जा सकती हैं। भारतीय साहित्य परम्परा मे “सतसई" नरन्थो की परम्परा बहुत प्राचीन है। हो सकता है प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी इसी
1
Introduction II PP XLIII to LI Banerjee "If the illustrative Geathos of Hemahandra which have appeared to pichel as examples of extreme absurdity or nonsense' are read correcting the errors made by the copyists in the manner explained above, they will yield very good sense"
Banarjee, Introduction II PLI "As the Gathas read in this way (correcting errors) give a good sense, they can no looger be regarded as examples of “incredible stupidity.” They will be appreciated, it is hoped by every lover of poetry as a remarkable feot of ingenuity worth of Hemchandra and for beyond the capacity of his (Pichel's) disciples to whom Pichel is inclined to ascribe them"
Banerjee-Introduction II PLI
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70 ] परिपाटी पर अपने ये उदाहरण लिये हो। इस दृष्टि से यदि "देशीनाममाला" मे उदाहरण के रूप मे आयी हुई गाथाग्रो का अध्ययन किया जाये तो उसका "ग्यणावली" नाम भी सर्वथा सार्यक मिट्ट हो जाता है। इस दिशा मे विचार करने के लिए यह उपयुक्त स्थान नहीं है। इसका साहित्यिक मूल्याकन प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के एक अलग प्रध्याय मे किया जायेगा । गायापो का वर्गीकरण
"देशीनाममाला" की उदाहरण की गाथायो को तीन प्रमुख वगों में विभाजित किया जा सकता है। एक तो लौकिक प्रेम और 7 गार मे सम्बन्धित गाथाए । इनमे प्रेम का विविधात्मक स्वरूप तथा तरह तरह के नायक-नायिकायो का विवरण दिया गया है । दूसरे कुमारपाल की प्रशस्ति से सम्बन्धित गायाए-इनमे कुमारपाल
का परात्रम, उसकी दानशीलता, युद्ध मे दिखायी गयी वीरता तथा शौय ग्रादि का वर्णन किया गया है। तीसरा कोटि मे आने वाली गाथाए विविध लोकाचागे सामाजिक देवी देवताओं, भिन्न-भिन्न प्रादेशिक रीति-रिवाजो तथा सामाजिक अधविश्वामों आदि का विवेचन प्रस्तुत करती है। सास्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से इन गाथाओं का बहुत वडा महत्व है। इन तीन विषयो के अतिरिक्त कुछ ऐसी भी गाथाए हैं जिनकी रचना मात्र शब्दो को कण्ठम्य करने की सुविधा के लिए की गयी है। इनमें किसी विशेष अर्थ का समावेश न होकर नामो की गणना मात्र करा दी गयी है । इन गाथायो को भी तीमरी ही कोटि के अन्तर्गत रखा जा सकता है। प्रो० मुरलीवर वनर्जी ने "देशीनाममाला" की भूमिका के दूसरे भाग मे इनका वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। उन्होने प्रत्येक वर्ग की गाथायो को वर्गीकृत करने के साथ ही इनकी सख्याए भी दे दी हैं। वह वर्गीकरण इस प्रकार है ।
उदाहरण की गाथाएं वर्ग लौकिक शृगार से
कुमारपाल की अन्य कुल सस्या सबवित
प्रशस्ति प्रथम वर्ग 762
383 194
133
1, तृतीय कोटि की गाथायो में नीति और उपदेश ही मवंतप्रधान है। दुजन निदा, सज्जन
प्रशमा मदाचार का गुणगान आदि विषयो को देखते हुए प्रो. मुरलीधर बनर्जी इनकी तुलना
"भूत हरि" के नीतिशतक के पन्नोको से करते हैं। 2 5-7, 10-15, 17-20, 23-26, 28, 32,34 36-39,42, 46-49,51, 52, 55,
56, 58 60, 63 67-73, 75 76,79 81,86, 87, 89, 91,92, 94,96, 98,99, 101-104, 108-110, 112-115, 120, 123-126 131-1331 9, 22, 24, 25,29,31, 40, 41, 43, 45, 50, 53, 54, 57, 62, 65, 66, 74, 78, 80, 83.85, 88, 90, 95, 97, 100, 105, 107, 116 119 127
1301 4. 1, 4, 16, 21, 27, 30, 35, 61, 64, 77, 82, 93, 106, 111, 121, 1221
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[
71
वर्ग
कुमारपाल की प्रशस्ति
अन्य।
लौकिक शृगार से सम्बन्वित 661
कुल सख्या
133
75
86
द्वितीय तृतीय चतुर्थ पचम पष्ठ
364 257
118
109
46
3410
711
912
50
2615
123
सप्तम
8313 4916 4119
1414 817 920
1918
76
प्रष्टम
1521
65
1. 1, 6, 8, 9, 11, 12, 17.22, 24-29, 31-36, 38, 40-47, 49 53, 55-59,
62-68,70,72,81,8386,881 2 4, 5, 7, 30, 37, 39, 48, 54,61, 89, 90 । 3 2, 3, 10, 13-16, 23, 60, 69, 71, 82, 87 । 4 2, 4, 6-10, 13-24, 26.30, 32-39, 45, 48, 49, 511 5 3, 11, 12, 40, 41, 46 47 । 6 15, 25.31, 42-44, 50 । 7. 3, 4, 6, 9, 12-15, 18, 21, 25-27, 31-36, 39-41 43,45, 46 । 8. 7, 8, 10. 11, 16, 19, 20, 24, 29, 30, 42 । 9 1, 2, 5, 17, 22, 23, 28, 37, 38,441 10 1-11, 13-16, 18, 20, 22, 26, 28, 30, 31, 32, 35-38, 40, 41, 43 46,
591 11 12, 21, 23, 25, 42, 47, 48 । 12 7, 19, 24, 27, 29, 33, 34, 39, 491 13 1,4 9 11-14, 16 18, 20, 23-25, 27, 29-31, 33, 34, 36-43, 46
48-53.55,56,58, 61 67, 69-76,79 80, 82-84,88,89,92-95
97-100, 102-109, 113-117, 119-120, 123 । 14 2, 5, 7, 10, 15, 17, 19, 22, 26, 32, 54, 57, 111, 1181 15 3, 6, 8, 21, 28, 35, 45, 47, 59, 60, 68, 77, 78, 81, 85-87, 90, 91,
96, 101, 103, 110, 112, 122 । 16 1-4, 6, 8 9, 12, 14, 15 17, 19 21, 22, 24 27, 28, 30, 36, 39,41,
43, 44, 46, 50, 52, 56-58,60, 64,66, 67, 69, 70-71, 73, 751 17. 7, 13, 29, 40, 53, 55, 651 18 5, 10, 16, 18, 20, 23, 25, 26, 37,38 42, 45, 51, 59, 68,72, 74, 76 । 19. 1, 7, 9-14, 17-19, 22 30, 34-36, 38, 40, 42-48, 50, 51, 59, 68, 72,
74 761 20. 8, 33, 35, 37, 39, 41, 51, 57, 611 21 2 6, 15, 16, 20, 21, 31, 32, 49, 52, 56, 65 ।
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___72 1
इस प्रकार "देशीनाममाला" एक श्रेष्ठ भाषावैज्ञानिक कोश होने के साथ ही उच्चकोटि की साहित्यिक भावभूमि मे भी युक्त है । उपयुंक्त तालिका उदाहरण की गाथाओ मे निहित विपय वस्तु का सकेत दे देने के लिए पर्याप्त है। ये उदाहरण भारतीय साहित्य परम्परा में लिखे गये किसी मी "सनमई" ग्रन्य में प्राये पद्यो में कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं यदि 'रयणाबली" को भी एक मतमई ग्रन्य ही कहा जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी । इसके एक एक उदाहरण सचमुच श्रेष्ठ साहित्यिक रत्न हैं । जिस प्रकार हेमचन्द्र ने अपने अपभ्रश भाषा के व्याकरण से सम्बन्धित सूत्रो व्याख्या करते समय उदाहरण के रूप में उच्च स्तरीय माहित्यिक सौन्दयं मे युक्त दोहे सकलित किये, उसी प्रकार 'रयणावली" में उन्होने अपनी म्वय की कवित्वशक्ति के प्रदर्शन एव श्रेष्ठ माहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए गायाए लिखी। अपनश व्याकरण में निहित दोहे हेमचन्द्र के अपने नहीं है परन्तु "रयगावली" की गाथाए उनकी कवित्वप्रतिभा की सम्यग्द्योतिका हैं। ये गाथाए मापाभाव तथा अलकार प्रादि सभी काव्यदृष्टियो मे उच्चकोटि की है।
इतना सब होते हुए भी पिशेल जैसे मनीपी ने इन गाथागों के अर्थ मौन्दर्य को देखने की चेप्टा न कर इन्हें अत्यन्त भीडी और प्राणयहीन बताया, आविर इसका क्या कारण हो सकता है। यदि हम इम ओर दृष्टिपात करें तो पिशेल को भ्राति मे डालने वाली कठिनाई बडी ग्रामानी से खोजी जा सकती है। पिशेल एक विदेशी विद्वान् थे उन्होंने सस्कृत अवश्य पढी थी परन्तु उन्हे लौकिक परम्परानो और छोटी छोटी अन्य बातो का ज्ञान नहीं था-जितना कि किमी अन्य भारतीय को बिना प्रयास ही होता है । उन्हे जो भी मूलप्रतिया मिली उनकी तुलना करके अविकतर प्रतियो में मिलने वाले पाठ को ही उन्होंने ने मान्यता दी। उन्होंने सम्भवत अपनी पोर मे गम्भीरतापूर्वक विचार विर्मश नही किया । अर्द्ध शिक्षित पेशेवर लेखको के द्वारा लिखी गयी मूल प्रतिया ही उनके विवेचन का आधार थी। अतएव प्रमादो का हो जाना सर्वथा मम्भव था। अपनी इस कठिनाई को पिणेल ने स्वय भी व्यक्त किया है। दूसरी वात "देशीनाममाला" मे आये हुए "देशीशब्दो" का वातावरण अधिकाशत ग्रामीण है और ग्रामीण जीवन के दैनन्दिन की बातें पिणेल के लिए जितनी कठिन थी उतनी ही "देशीनाममाला” की गाथाए भी।
देशीनाममाला का महत्त्व
प्राचार्य हेमचन्द्र का देशी शब्दो का यह सग्रह ग्रन्य भाषा वैज्ञानिक एव साहित्य दोनो ही दृप्टियो से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार हेमचन्द्र का
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[ 73
"सिद्धहमशब्दानुशासन" परम्परा मे लिखे गये सभी व्याकरणो से पूर्ण एव महत्त्वशाली है उसी प्रकार यह कोश भी अन्य कोशो मे विलक्षण है। यदि यह कहा जाये कि सम्पूर्ण भारतीय क्या विश्व के साहित्य में इसके समान विलक्षण ग्रन्थ नही है तो कोई अत्युक्ति नही होगी । भाषा विवेचन के साथ ही उच्चकोटि के साहित्यिक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति ही इसकी अपनी विलक्षणता है । भाषा वैज्ञानिक महत्त्व ।
हेमचन्द्र के इस कोश के आधार पर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ के विकास की सागोपाङ्ग कथा लिखी जा सकती है । आज की प्रचलित साहित्यिक भाषामो मे कितने ही ऐसे शब्द बिखरे पडे हैं जिनके बारे मे हम कुछ नही जानते । ये शब्द-सदियो से जन-मानस में अपना स्थान बनाये हुए हैं। इनका प्रत्याख्यान अत्यन्त कठिन है। ऐसे ही शब्दो को परम्परा के सभी विद्वानो ने "देसी" कहकर इनके बारे मे कुछ भी कहने से चुप्पी साध ली है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन्ही कठिन एव दुसभित शब्दो का प्रत्याख्यान अपने इस देशी कोश मे किया है । वे इस बात को कोश के प्रारम्भ मे कह देते हैं
___ देशी दु सदर्भा प्राय समिता अपि दुर्बोधा ।
अनादिकाल से चलते आये देशी शब्दो का सदर्भ देना अत्यन्त कठिन कार्य है। सदर्भ मिल जाने पर भी इनका समझाना अत्यन्त कठिन है। "देशीनाममाला" मे अनेको "देशी" शब्द आये हैं, इसमे आये कुल शब्द 4 हजार के लगभग हैं, परन्तु इसके सभी शब्द देशी नही हैं। इन शब्दो का उद्भव और इनका विकास एक सर्वथा नवीन तथ्य का उद्घाटन करता है। आर्य भाषा मे प्रचलित देशी कहे जाने वाले इन शब्दो मे 700 से भी अधिक शब्द कौल, सथाल, मुण्डा, द्रविड प्रादि जातियो की भाषा से सर्भित किये जा सकते हैं । ये शब्द पार्यों और प्रार्येतर जातियो के आपसी सम्बन्ध और वैचारिक आदान-प्रदान की एक अत्यन्त रोचक कहानी प्रस्तुत करते हैं । इस प्रकार तुलनात्मक एव ऐतिहासिक दोनो ही दृष्टियो से इन शब्दो का बहुत महत्त्व है । आधुनिक भाषा विज्ञान प्राचार्य हेमचन्द्र के इस पथ प्रदर्शक कोश का चिर ऋणी रहेगा। कितने ही भाषा वैज्ञानिको ने इन शब्दो के सहारे अनेको नवीन तथ्यो का उद्घाटन किया है । साहित्यिक महत्त्व :
प्रथम शदी मे आन्ध्र के हाल सातवाहन द्वारा सकलित प्राकृत के अद्भुत काव्य ग्रन्थ "गाथासप्तशती" के समान ही आचार्य हेमचन्द्र की "देशीनाममाला"
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74 ]
भी उच्चकोटि के साहित्यिक सौन्दर्य मे मण्डित है । इसकी उदाहृत गाथाए मरमता भावतरलता एव कलागत सौन्दर्य की दृष्टि मे "गाथासप्तशती" के समान ही साहित्यिक मूल्य रखती है । इसमें 7 गार, रति भावना, नख मिस-चित्रण, निको के विलासभाव, रणागरण की वीरता, सयोग, वियोग, कृपणो की कृपणता, विभिन्न प्राकृतिक रूप और दृश्य नारी की मामल एव ममृण भावनाए तथा नाना प्रकार के रमणीय दृश्य अकित हैं। इन गाथायो मे स्थान-स्थान पर नीति, उपदेश, सामाजिक-रीतिरिवाज, राजपराक्रम तथा प्रेमी-प्रेमिकायो की विलास लीला वरिणत मिल जायेगी । विश्व की किसी भी भाषा के कोश मे इसके ममान मरम पद्य उदाहरण के रूप मे नही मिलते । कोषा मे आये हुए कठिन देशी शब्दो को समझाने का जो सरल मार्ग हेमचन्द्र ने अपनाया है वह सर्वथा नवीन और हेमचन्द्र को मौलिक प्रतिमा का दिग्दर्शक है।
इस प्रकार प्राचार्य हेमचन्द्र की "देशीनाममाला" या "रयणावली" यदि मापा विज्ञान की दृष्टि से मूल्यवान् शब्दो की खान है तो साहित्य की दृष्टि से एकत्र बहुमूल्य पद्यरत्नो की निधि है ।
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रयणावली (देशीनाममाला) का
साहित्यिक अध्ययन
प्राचार्ग हेगचन्द्र कृत रयणावली (देशीनाममाला) भारतीय आर्य भाषा की एक अमुल्य भाषा वैज्ञानिक कृति होने के माथ ही इस परम्परा की प्राकृत भाषाम्रो की एक बहुमूल्य साहित्यिक निधि भी है । इस कोशग्रन्थ मे सकलित 'दृश्य' शब्दो को कण्ठन्य करने तथा उनके प्रयोग को दिसाने की दृष्टि से प्राचार्य ने पूरे ग्रन्थ मे कुल 6341 गायानो की रचना की है। ये गाथाए सरसता, भावतरलता एव काव्यगत नौन्दर्य की दृष्टि मे अत्यन्त उच्चकोटि को हैं । साहित्यिक सौन्दर्य और ऐहिपतापरक अभिव्यक्ति की दृष्टि ने इन गाथाम्रो की समता 'गाहासत्तसई' तथा परम्परा की अन्य कृतियो से की जा सकती है। ग्रन्थ मे गाथाम्रो की सख्या भी उन मान्यता को दृढ बनाती है । हो सकता है प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन गाथानो की की रचना गाहामत्तमई जमे ग्रन्यो को ध्यान में रखकर किया हो । जहा तक विषय वस्तु और उमके वातावरण का प्रश्न है, यह बात सर्वथा उपयुक्त है । स्वय प्राचार्य द्वारा दिया गया इस कोशग्रन्य का 'रयणावली' (रत्नो की माला) नाम भी इसी तथ्य की ओर सकेत करता है । सचमुच 'रयणावली' की अनेको गाथाए गाहासत्तसई और गोवर्द्धन कृत 'आर्यामप्सती' के पद्यो के समान ही भावप्रवणता और उच्चकोटि की साहित्यिकता से युक्त हैं। सारे विश्व के किसी भी कोशग्रन्थ मे इतने
1.
उदाहरण को मभी गायाए हेमचन्द्र फत नही हैं। कुछ गाथाए उन्होंने अपने पूर्ववर्ती देशीकारो की रचनामो से लिया है। इस दष्टि से छठे वर्ग की 78वी गाथा तथा 8वें वर्ग की 14वी गाथा विशेष उल्लेखनीय हैं।
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76 ] उच्च कोटि के साहित्यिक उदाहरण देखने को नहीं मिलते । इन गाथाम्रो को देखकर प्राचार्य हेगचन्द्र के लोकज्ञान और उनकी गम्भीर कवित्त्व प्रतिभा मे चकित रह जाना पड़ता है। प्राचार्य हेमचन्द्र की यह माहित्यिक अभिरुचि उनके अपघ्र ण व्याकरण मे भी देखी जा सकती है । परन्तु वहा पाये हुए मग्म पद्य उन्होंने अनेको कवियो की रचनायो से लिये ये । 'रयगावली' के उदाहरणो में उनकी उच्च कोटि की मौलिकता सम्पन्न प्रतिभा उभर कर आयी है। उदाहरण की इन गाथायो में ऐहिकता परक शृगार, रतिभावना, नस-णिय चित्रण, रणागणगत वीरता, प्रकृति के सुन्दर मनमोहक चित्र तया विविध लोकव्यवहारी एव उत्सवी का चित्रण हुमा है। इन गाथानो में निहित एक-एक चित्र अपने पाप में अत्यन्त भाव तरल एव प्रभावकारी है। 'रयणावली' को गायानो की विषय वस्तु
विषय वस्तु की दृष्टि से 'रयणावली' के पद्यो को तीन कौटियो मे रम्बा । जा सकता है
(1) लौकिक प्रेम और शृगार से सम्बन्धित पद्य । (2) कुमारपाल की प्रशस्ति से सम्बन्वित वीर भावना के उद्भावक पद्य । (3) विविध लोकाचारो, सामाजिक एव नैतिक नियमो, देवी-दवतानो
तथा भिन्न-भिन्न प्रादेशिक रीति-रिवाजो व अन्धविश्वासों से सम्बन्धित
पद्य । (1) लौकिक प्रेम और शृगार से सम्बन्धित पद्य
'रयणावली' का कवि लौकिक प्रेम और शृ गार-भावना का पटु उद्भावक है। पूरे ग्रन्य में इस कोटि के पद्यो की मव्या ही अधिक है ।। इन पद्यो मे निहित ” गार, सयोग, वियोग, विपरीतरति तथा हालिक युवक युवतियो की उन्मुक्त प्रेमक्रीडा अत्यन्त विशद एव कलात्मकता से युक्त है । गाहासत्तसई के पद्यो की भाति इसके पद्य भी ग्रामीण जीवन की तरल गारिक अनुभूतियो को प्रश्रय देने वाले हैं। रात-दिन परिश्रम में रत रहने वाले कृपक युवक युवतियाँ, वनी वर्ग के विलासी पुरुप-स्त्रियाँ तथा वेश्यानो और नगरवधुप्रो की उन्मुक्त कामक्रीडायो का स्पष्ट अकन स्थान-स्थान पर हुआ है । 'रयणावलीकार' स्त्रियो और पुष्पो की स्वच्छन्द काम-क्रीडात्रो को चित्रित करने मे कही भी हिचकते नही । उन्मुक्त काम-मोग और
1 विशेष विवरण के लिए प्रस्तुत प्रवन्ध का द्वितीय अध्याय द्रष्टव्य है।
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[ 77 विपरीत रति प्रादि के चित्रण मे कवि अत्यन्त यथार्थवादी है । अव यहा एक-एक का अनग-अलग विवेचन समोचन होगा। सयोग वगन
___ यणावली' के मगोग-चिग अत्यन्त मागल, स्पष्ट पीर उभरे हुए हैं । स्थानस्थान पर नभोग प्रिया में रत नायक और नायिवानो की चर्चा हुई है । इन चित्रो मेनामीग जीवन की समस्त काम-भावना नाकार हो उठी है । कुलटायो, निम्न वर्ग की स्त्रियो और वयानो के पाट व उगरे हुए मभोग चित्र तो सर्वथा दर्शनीय है । भयोग के अधिकतर चिम विपत अन्य पानीय थन और दूतीवचनो के रूप में सिविन किये गये है। स्यगावली के गुछ सयोग चित्रो का उदाहरण नीचे दिया जा रहा है
नायक धोर नायिका प्रागे-पीछे चले पा रहे है । नायक प्रसन्न और (कामावैग के कारण) ग्रारत्त मुग दिसाई दे रहा है। नायक की इस प्रसन्नावस्था का चित्रण कितना व्यजनापूर्ण हैं
'अम्मामा दिपणवहेन तुह रे प्रवत्यरा रिहइ । गावन्निय जं जावय रसेण त किसलिग्रो असोउव्व ।। 1-22-20 ॥
'युवक । अवश्य ही तेरे पीछे-पीछे पाने वाली युवती ने तुझे अपने महावर मरे पैरो मे ठोकर मारी है जिसके कारण तू अशोक वृक्ष के समान प्रफुल्लित हो उठा है।'
नायक की प्रसन्नता का कितना व्यजनापूर्ण कारण बताया गया है । मान की अवस्था में नायक निश्चित ही नायिका के चरणो पर लोटा है तत्पश्चात् उसके प्रनाद से प्राहादित पीर हरा-भरा तथा आरक्त मुख दिखायी पड रहा है । यह तो एक अत्यन्त प्रमिद्ध माहित्यिक रूढि है कि अशोक मे पुष्प तभी पाते हैं जब कोई मदसिक्त नवयौवना अपने पालक्तक भरे चरणो से उस पर प्रहार करती है। इसी रूटि का सहारा लेकर नायक की प्रसन्नता और उसके तमतमाए हुए मुख के रग का वर्णन कितना व्यजनापूर्ण है ।
___ जगल मे नायक-नायिका क्रीडारत हैं । क्रीडा के बीच नायिका के गले मे पहना हुया ग्रेवेयक टूट कर गिर पडा, कचुकी फट गयी । यह देखते ही रति तृषित नायक ग्रेवेयक को उठाकर छिपा लेता है। कितना मासल और उत्तेजक सयोगचित्र है।
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दे० ना0 मा0, 2194179
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खेत की रखवाली करती हुई गोपवाला का एक उमपा हुया सभोगचित्र द्रष्टव्य है
उम्हाविन उलुहालिग्रय वयम माणेमु तत्य गन्तूण ।
उच्छुरणेमोजिग्गिग्योच्छुप्ररण गोविग्राइ उवललय ॥ 1-117-101 ।। ममोग कर लेने के बाद भी अतृप्त रहता हुया समवयस्क पुग्प, अत्यन्त अस्त हुई ईस को रखवाली करने वाली गोपिका के माय, ईस के खेत में प्रनिद्रित मैथुन क्रिया मे ग्त है।"
इमी प्रकार के अभिसार के अनेको मादक चित्र 'रयगावली' की अपनी निधिया हैं । कुलटा स्त्रियों का अभिसार चित्र द्रष्टव्य है
ग्वुपा खुण्ण तणो खर खुवयप्फाडिअन्त खलुहायो । वामारते कुलदाउ खुट्टिनत्य प्रह्मिरन्ति ।। 2-75-63 ।।
वृष्टि के निवारणार्थ तृण के प्रावरण मे वेष्टित, अत्यन्त तीण एव कटीले तृणादि से विवे हुए शरीर वाली कुनटाए गत-दिन मैथुन करती हुई अभिमार कर रही हैं ।' एक अन्य कुलटा मच्छर क्षादि से युक्त सूबे वृक्ष के नीचे पलकें बन्द किये एक अधम स्वर्णकार के माथ अमिसार रत है। इसी प्रकार कुलटागों के अभिमार के अनेकों सजीव चित्र 'रयगावली' में देखे जा मरते है । ऐसे चित्रो मे प्राय निम्नवर्ग के नायक और नायिकामो की ही प्रधानता है .
नायक गोप की छेड़-छाड से घबराई हुई गोपवाला खीझकर कहती हैमा कड्ड बजर मह ववहिप्रवच्छीव स्ववेटुल्ल प्रोपेच्छह कुडिलच्ची बहुणिया म महत्तवत्तारा ॥ 7141135
'रूपगवित मत्तगोप मेरी नीवी मत खीच । स्वरूपविता मेरी ज्येष्ठमार्या कुटिल प्रावो मे देख रही हैं।'
प्रिय मिलन के लिए प्राकुल एक ग्रामीण नववधू का चित्र तो मर्वथा सराहनीय है
रणववत्यउद्रय वक्वारयम्मि वल्लादयल्ल पल्लह के । लुढिया रिणएइ वढ्ढाविअण्णकज्जा वहू दइअमग्ग ।।
"घर का सारा कार्य समाप्त कर-नवीन वस्त्रो से युक्त होकर, सुन्दर-पौया से युक्त रति-गृह मे ववू पति का मार्ग देखते हुए उलट पुलट कर रही है।"
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दे० ना0 मा0 3150-42
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[ 79 एक म्यान' पर नवविवाहिता बबधू की मगिया उसे प्रयम मिलन के समय प्रिय को यष्टि में देखने को शिक्षा देती।
किन निनो प्रतिरिक्त सयोगा गार के अन्तर्गत प्राने वाली अन्य बानीवनन. गनिमार तया विविध ग्रीडायो प्रादि का वर्णन भी 'रयणावली'
गारपरक पीया है। नायका और नायिका को मकेत स्थल तक ले जाने का पुनीत गा निया ही पारती पायी है। इस दृष्टि में भी कुछ उदाहरण देखने गोगा। एकीका स्थान पर नायक के उपस्थित होने की बात प्रेमिका को बतानी पानी
पानमा प्रालागमन बाहिगिरिगरिन । पाणिगाजाशि तह मारणे प्रविमा गो गुणगी ।।1161149
"प्रो गौर बिन्यो प्रादि से यन भाडियो, जल रहित नदियो और पर्वतीय शून जगल में या तिथंक गुरति का ज्ञाता नायक तेरे लिए घूम रहा है।" एक प्रन्य दती सामाधिपति के पुत्र की योर ने नायिका को सकेत स्थल पर जाने के लिए तमा उसने प्रेम करने के लिए समझाती ह कहती है
गुटियानो फुच्या गुट गए भमर तुम अणुरत्तो । कु दयपट्टान पिच णेच्चमि ज कुफ्फुडा सि त पुत्ति ।।2140137
"क्क पर अनुरक्त ग्रामाधिपति का पुन एक लता गृह से दूसरे लतागृह मे घूम रहा है। प्रत्यन्त कृश उमे चर्मकार की भाति मानती हई जो नही देख रही हो तो हे पुत्री | क्या उन्मत्त हो गई हो।' इसी प्रकार प्रिय मिलन के हेतु धार्मिक अनुष्ठान मारती हुई एक नायिका को सकेत स्थल का सकेत देती हुई दूती वताती है कि वह नायक भी उससे मिलन हेतु सप्तच्छदपुष्प के नीचे मृगचर्म डाल कर अनुप्ठान कर रहा है। अर्थात् नायिका को मप्तच्छदपुप्प के वृक्ष के पास जाना चाहिए।
एक दूती नायक के प्रति नायिका के प्रगाढ प्रेम का चित्रण करती हुई उससे (नायक से) कहती है
हिस्सक कामसरणिक्खया इमा सिविरिणए तुम दठ्ठ । रिणम्मसुअ-रिणव्वित्ता णिन्मुग्ग मणोरहा होइ ।। 3133132
1. 2.
दे० ना० मा० ।। 8165158 वही, 3121125
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'हे तरुण निश्चय ही स्वप्न मे तुम्हे देखते हुए वह कामवाणो से पाहत होती रहती है (परन्तु) मोकर उठने पर भग्न मनोरथा हो जाती है ।'
___ इन कुछ प्रमुख एव उल्लेखनीय पद्यो के अतिरिक्त और भी अनेको पद्यो में दूतियो और उनके माध्यम से नायक-नायिकायो के सयोग के सुन्दर चित्र मिलते हैं । रयणावली के दूतीवचनो और एतदर्थ चियित प्रेम प्रसगो में प्राय अभिवेयता का ही बोलवाला है । 'गाहासत्तसई' 'ग्रामिप्तसती' 'अमरुणतक तथा रीतिकालीन ग्रन्यो की भाति इसके पद्यो मे प्राय प्रतीयमानता नहीं है । 'रयणावती' का शृगार-चित्रगा सामान्य वर्ग के नायक-नायिकानी से सम्बन्धित है, अत उमम भगिमा नहीं है। यद्यपि इममे हेमचन्द्र के कवित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है फिर भी देशी शब्दो का उदाहरण प्रस्तुत करने के चक्कर मे दे अधिक रहे हैं । भावो की अतिशयता के द्योतन मे कम ।
विविध नायिकाएं और उनके अभिसार चित्र
‘रयणावली' के शृगारिक पद्यो में अभिमार के ही चित्र अधिक है । इममे चित्रित नायिकायो को शास्त्रीयता के प्राधार पर व्यास्यायित करना भी कठिन होगा । क्योकि यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि हेमचन्द्र का उद्देश्य मावगभित पद्यो की रचना करना न होकर देशी शब्दो का उदाहरण देना रहा है । इन उदाहरणो के सयोजन मे कवि ने उच्च कोटि के भावात्मक पद्यो की रचना की है। यह वहुत कुछ अप्रयतित ही लगता है। 'रयणावली' की नायिकाए गाव की मावारण कृपक एव गोप बालाए हैं । इनके अतिरिक्त कई जगह कुलटायो और वेश्याओ की भी चर्चा हैं । गोपवन्बू का एक अत्यन्त मादक-चित्र द्रष्टव्य है -
उग्रचित्तारण उपहारीण मग्गोमिल्लरायणाण । उरुसोस्ल ऊरवसणो तरुणाण कुणइ उवउज्ज || 11921108
'दोहन कार्य से निवृत्त, मार्ग की ओर दत्त दृष्टि, दुध दुहने वाली स्त्री के । जघन वस्त्र को प्रेरित कर वायु तरुणो पर बहुत बडा उपकार कर रहा है।' कुलटा स्त्री का एक चित्र देखने योग्य है
ताडिअयपर वाल कुलडा तालाइ भोलविन जाइ । तारत्तरेण तामरतामरसे सरिज तूहम्मि ।। 5110110
'रोते हुए वच्चो को लाजा (लावा) आदि से फुसलाकर कुलटा स्त्री सूर्य के । डूब जाने पर नदी के किनारे (अभिसार हेतु) जाती है ।
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[ 81 इसी प्रकार वेन्यानो' नागरब्राह्मणो की वधुरो तथा हालिक (कृपक) गुवनियो के अनेको मादक चित्र देखे जा सकते हैं । नायको मे सबसे अधिक चर्चित ग्रामाधिपति तथा नामाधिपति का पुत्र, यही दोनो रहे हैं।
अन्य नायतो में नाई, माली, कृपक तथा गोप आदि की चर्चा हुई है। भारतीय दृष्टि मे, कृष्णाभिमारिकाप्रो और शुक्लाभिमारिकाप्रो के चित्र भी दुर्लभ नही हैं । अन्धेरी रात में छिपकर देवमन्दिर मे उगपति के माथ अभिसार के लिए जाने वाली नायिका या निनदनीय है
तिमिरोभरगणिसाए उम्मर उछिल्लखला उत्भन्ता । उच्छुपग्यउज्मायनो उग्र प्रगई विसइ पण्ड देवउल ।।1179195
'तिमिरावगुण्टिन निणा मे, गृह की देहलीज पर ही भेद खुल जाने से उझान्त, भयपूर्वक चोरकर्मरत की भाति वह अमती मन्दिर मे प्रवेश करती है ।'
सफेअमागए उववइम्मि दुईइ झत्ति सलविया ।
प्रह्मिरइ णायरवहू गेड्डुरियादमरण मिसेण 14146145 'सकेत स्थल पर उपपति के या जाने पर दूती द्वारा शीघ्र बनायी गयी नागरबधू भाद्र शुक्लपक्ष की दशमी को मनाये जाने वाले उत्सव विशेप को देखने के बहाने अभिसार के लिए जाती है ।'
एक हलवाई की पत्नी दिन मे ही कुसम्भी वस्त्र धारण कर 'पोई' (लता विशेप) के वन मे उपपति के साथ रमण करने जाती है
पोइन चुण्टण मिसयो पोइन वरणम्मि पोइन घरिल्ली। पोलच्छेय कण्टे सुपोमरा पेच्छ अभिसरइ ।।
'निद्रा करि लता पोई को तोड़ने के बहाने पोई के वन मे जोते हुए खेत के किनारे, कुसुम्भी लालरग का वस्त्र धारण किये हुए हलवाई की पत्नी अभिसार कर रही है ।'
शुक्लाभिसारिका का एक अन्य रमणीय चित्र द्रष्टव्य हैभल्लूसरिच्छवे से पइम्मि अलसे सयालए भभी ।
चन्दणरमभग्गतरण उववइमहिसरइ जुण्हीए ।।6184199 भालू के सदृश विखरे वाल वाले, अलसमान पति के सो जाने पर, चन्दन के रस से लिप्त शरीर वाली असती चादनी रात मे उपपति के साथ अभिसार करती है।'
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दे० ना0 मा0 114113113 वही 114146145
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इन सबके अतिरिक्त दिन के उजाले में ही छिप-छिप कर उपनायको के माथ सम्भोग करने वाली नायिकानो के अनेको चिय देने जा सकते हैं । एक नायिका नदी के किनारे धूप मे ही उपपति के साथ सम्भोग मे रत है। ईय क पेन, गोप्ठ तथा कु ज श्रादि मे होने वाली उन्मुक्त अभिसार लीलामो का तो कहना ही क्या । यहा एक बात स्पष्ट कह देना आवश्यक है, रयणावली के शृ गारिक पदों का अधिक भाग सम्भोग चित्रो को ही व्यक्त करने वाला है । 7 गारिक हाव-भाव त या अन्य कामोत्ते - जक चेप्टाप्रो पर अधिक बल न देकर कवि सीधे-सीधे अत्यन्त स्यूल और मामल समोग चित्रो के ही अकन मे दत्तचित्त रहा है। अधिकतर नायक नायिकानो के ग्रामीण अपटु और प्रशिक्षित होने के कारण उनकी चेप्टाए भी इमी के अनुकूल है । कुल मिल कर यह कहा जा सकता है कि 'रयणावली' के 7 गार चित्र इस परम्परा की अन्य कृतियो के जोड मे अत्यन्त म्यूल और कामोत्तेजक है। किन्ही-किन्ही पद्यो मे तो रतिक्रिया भी साकार हो उठी है । सुरतगता नवोढा वधू का एक स्पष्ट चित्र स्टव्य है--
प्रायासतलोवरि वल्लहम्यचग्यि वयसि रिगण्वम् ।
प्राणदवडो आयासलवग्रिमारिया य त कहइ ॥ 1-60-72 ॥ 'घर के हर्म्य पृष्ठ मे बैठी हुई नववधू सखियो से अपने वल्लभ (पति) के चरित का गोपन कर रही है । किन्तु हयं पृष्ठ पर फैले हुए रुधिर-रजित वस्त्र स्वय ही सब कुछ कह देते हैं।
___ऊपर दिये गये कुछ उदाहरणो से 'ग्यणावली' में निहित शृगार के पद्यो की मूलभावधारा स्पष्ट हो जाती है । जहा तक इसके शृगार-चित्रण के तुलनात्मक अध्ययन का प्रश्न है, इसकी तुलना लोकभापा में रची गयी शृगारिक कृनियो से की जा सकती है । परन्तु कम से कम इन परम्परा की अन्य कृतियो से भावग्रहण की प्रवृत्ति इस रचना के कवि में नहीं दिखायी पडती । इस विवाद की चर्चा आगे समुचित प्रसग मे की जायेगी। मादक सौन्दर्य-चित्र
___ऊपर 'रयणावली' के कुछ सम्भोग चित्रो को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । इसके सम्भोग चित्रो की भाति इसके सौन्दर्य-चित्र भी प्रतिस्थूल मामल एव कामोत्तेजक हैं । सौन्दर्य वर्णन के प्रसगो मे कवि जितने भी चित्र खीचता है।
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दे० ना0 मा0 4127127 वही 1144145
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. [ 83 वे अत्यन्त उभरी हुई रेनायो पौर चटकीले रगो से युक्त हैं । कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं -
एक नग मुन्दरी ललना का वर्णन करते हुए हेमचन्द्र कहते हैंघणिप्रथमल बनकलस धुत्तग्गिप्रम्ब धरन्गसिग्र हसिन ।
घरिणय लहित जुगारगो मइ घण्णाउमत्तण सहल ।। 5146158 'प्रत्यन्त पुष्ट और विम्तीर्ण कलश के ममान स्तनो, अतिविस्तृत नितम्ब, कपास के ममान स्वच्छ हगी वाली प्रिया को दे चकर युवक स्वय को आशीर्वाद युक्त एवं सफल मानते हैं।'
उच्चनाभिनन वाली गौरागी नायिका मनुष्य रूपी मृगो को प्राकर्पित करने के लिए गोधूम की कृषि के समान है -
कुन्त न उड्डयोण जाणवणमिगारण उबवाय व । मयणेग उरे रइय तुह उच्च उ बि गोरगि ।।1168186
'केशराशि तृणो का घोखा है । नयन मनुष्य रूपी मृगो के बन्धन के लिए जाल हैं। प्रारम्भ मे ही कामदेव द्वारा रचित है उच्चनाभितल वाली गौरागि । तुम पके हए गोघूम की (फसल की) भाति हो। स्त्री-सौन्दर्य का कितना पालकारिक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। गौरागी नायिका को कामदेव की कृषि वताना अपने ग्राप मे अत्यन्त मौलिक एवं दुर्लभ कल्पना है । एक अन्य स्थान पर हेमचन्द्र सुन्दरी रमणी को कामदेव की जीवक मृगी बताते हैं । जिस प्रकार बहेलिया मृगो को आकृष्ट करने के लिए जगल मे अपनी पालतू मृगी को बाघ देता है और जब मृग उससे प्राकृप्ट होकर उसके पास आता है तव बहेलिया उसका शिकार कर लेता है । उमी प्रकार सुन्दरी रमणी भी कामदेव रूपी व्याध की जीवक मृगी है, जिसे उसने युवक रूपी मृगो को आकृष्ट करने के लिए छोड रखा है
जाल पडिपाइ जात ण णिअसि जीवयमइ व मयणस्स । ता मम हरिणोन्ब तुम कुलडाजिण्णोव्भवाउ जिग्यन्तो ।।
'कामदेव की जीवकमृगी के समान चन्द्रशाला मे स्थित उसे (नायिका को) नही देख रह हो तो जानो तुम हरिण के समान कुलटा रूपी दूर्वानो को सू धते हुए घूमो ।' 'रयणावली' के समस्त नख-शिख वर्णनो मे नितम्ब, कटि, नाभि, स्तन, मुख, नयन और केशो का ही वर्णन प्रमुख है। कमल के समान आखो वाली सिंह कटि एक रमणी रात मे पति के सो जाने पर अभिसार के लिए जा रही है।।
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एक सकेत प्राप्ता पीन पयोधरा बाला गोदावरी हृद की ओर अभिगार के लिए जाती है। कुछ स्थलो पर हेमचन्द्र ने नायिकानो के स्तनो की उपमा चकवाय पक्षियो मे भी दिया है । एक स्थान पर वेश्याग्रो के मौन्दयं की भर्त्सना करते हुए हेमचन्द्र तरुणो को उनसे बचने की सलाह देते हैं
मूरिप्रसूरणासणमूलाए लिहिन मूइगण्डाए । मयरदय सूरगे मा त मलहोव्व रे पडमु ।।
'यन्त्र की पीडा नथा सूरन के भोजन के समान पूर्वानात मन्जरी महश कपोलो वाली तथा कामदेव के दीपक के समान प्रज्वलित वेश्या (के जाल) मे (हे तमण 1 ) पतिगे के समान न पड।' इसी प्रकार गुजरात के कच्छ नामक स्थान की कुलटायो या वेश्याग्रो के कटाक्ष का वर्णन करते हुए हेमचन्द्र उपदेशात्मक स्प मे कहते हैं
कूसारखलन्तपनो के उकए पहिन मा भमर कच्छे ।
ज केलीए कूणिय पेच्छिपके पाए पउसि पामेमु ।। 2147144 ।। 'पथिक तू गढ्ढो से युक्त एव किचडेले कच्छ के मार्गों पर भ्रमण मत कर, वरना कुलटारो की ईपन्मुकुलित दृप्टि द्वारा किये गये कटाक्षो के जाल में जा पडेगा।'
__ मादक सौन्दर्य चित्रो से युक्त, उपर्युक्त प्रसगो को देखते हुए यह कहा जा मकता है कि रयणावली का सौन्दर्य वर्णन तथा नख शिख चिया अत्यन्त भावतग्ल एव रमणीय है । कवि की मौलिक कल्पनामों को देखते हुए यह सहज ही कहा जा सकता है कि यदि उसने स्वतत्र रूप से पद्य-बद्ध नख-शिव चित्रा-प्रस्तुत किया होता तो निश्चित ही अत्यन्त मफल रहता । हेमचन्द्र के सौन्दर्य वर्णन की यह पद्धति परवर्ती अपभ्रश मे लिखे गये काव्यो के सौन्दर्य चित्रो मे स्पष्ट ही देखी जा सकती है। बू कि 'रवणावली' का सारा वातावरण ही ग्रामीण है अत उसकी उपमाए भी नागर न होकर ग्रामीण ही हैं । मौन्दर्य वर्णन की किमी परिपाटी विणेप को स्वीकार कर न चलने के अन्तराल मे भी यही तथ्य निहित है । 'रयणावली' का वियोग-चित्रण -
_ 'रयणावली के मयोग चित्रो की भाति इसके वियोग-चित्र भी उच्चकोटि की साहित्यिकता एव कलात्मकता से युक्त है । साहित्यिक दृष्टि से वियोग के दो प्रमुख विभागो मान और प्रवास दोनो ही का विशद वर्णन हुआ है । 'रयणावली' के कुछ वियोग-वर्णन तो इतने उच्च कोटि के हैं कि उनकी समता के अन्य चित्र दुर्लभ हैं ।
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दे0 ना0 मा0 8-17-14
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[ 85.
विरहताप का वर्णन तो अपने आप मे अत्यन्त कलात्मक है । अव वियोग की दोनो स्थितियो का विवरण अलग-अलग दे देना समीचीन होगा ।
मान
परकीयानुरक्त नायक से क्रुद्ध होकर स्वकीया मान करती है । उमकी सखी ममझाते हुए कहती है
पसिय सहि किमिह जुत्त चिर अवपुसिए पियम्मि अवच्छुरण । फायब्वमच्छिवडण अण्णोनरियावराहस्स ।। 1138139 ।।
"हे नसि । प्रसन्न होयो । चिरकाल से सयुक्त होकर रहने वाले प्रिय के प्रति तुम्हागे कोपपूर्ण भगिमा उचित नही है । अपराध की सीमा को अतिक्रान्त कर जाने पर मी (तुम्हें उपके अपराध की प्रोर से) पारा मू द लेना चाहिए ।" स्वकीया के मान का एक अन्य रमणीय वर्णन देखने योग्य है । पति अन्य मे प्रासक्त है इस वात को जानकर कृष्णमारमृग के समान सुन्दर पाखो वाली नायिका, ताम्बूल भाजन मे रखे हुए बीडे को उठाने के बहाने परामुखी हो जाती है ।' नायक के दुष्कर्मो से दु वी स्वकीया उमे फटकारते हुए पाहती है-दुष्ट । मूर्ख | उस कलहशीला के केशवन्ध मे पुष्पो का पामेल (चूडा) पहनाने वाले । श्रव मै तेरे योग्य नही ह 12 इस प्रकार मान के और भी कई प्रसग इस ग्रन्थ के पद्यो मे ढूढे जा सकते है। जितने भी मान के प्रसग हैं प्राय सभी स्वकीया से ही सम्बन्धित है । कुछ प्रसग दूतियो के माध्यम से मान के चित्रण के भी हैं, परन्तु उनका कोई विशिष्ट साहित्यिक महत्त्व नहीं है। प्रवास और विरहताप
___'रयणावली' के वियोग चित्रणो मे प्रवासजन्य विरहताप का वर्णन अत्यन्त विशद और व्यजनापूर्ण है । विरह के इन प्रसगो की छाया परवर्ती हिन्दी रीतिकाव्य पर स्पष्ट ही देखी जा सकती है। विरह के इन पद्यो मे ऊहाप्रो की भी कमी नही है । प्रवासजन्य विरहताप से सम्बद्ध कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं ।
वियोग की अवस्था मे विरहनाप से तापित नायिका का वर्णन करती हुई दूती नायक को बताती है कि वह स्त्री पान और कमल के पुष्पो पर कुपित हो जाती
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दे0 ना0 मा0 4112112 वही 5140147 वही 1137 38
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86 ] है । इम अवस्था मे उसके लिये तुम्ही मबमे मुसद बन्नु हो ।' बहुत दिनो के प्रवास के वाद नायक घर लौटा । उसे नायिका की सबी रोती हुई मिली । गेने का कारगा पूछने पर वह बताती है कि दुराशय । मैं इनलिए रोती हूँ कि तू विवाह करके प्रवास को चला गया और उस बाला ने विरह रोग सह न पाने के कारगा, म्बन्ध होते हुए भी कुए मे कूदकर आत्महत्या कर ली। एक दूती नायक को बनाती है कि तुम्हारे गुणो द्वारा चुराये गये मन वाली नया विन्ह के कारण अति कृशकाय, काम द्वारा प्राक्रान्त, वह तन्वङ्गी तुम्हारी अनुपस्थिति मे उद्विग्न होकर सभी मखियो को तिरस्कृत करती है ।३ नष्ट जीवनेच्यावाली कम्बुग्रीवा एक नायिका विरह मे इतनी तापित हैं कि उसे शिशिर ऋतु के ठण्डे दिन भी खोलने बाले लग रहे हैं। प्रवामी नायक के विरह मे हमी छोडकर उभयपक्षाघात से अस्थिर रुदन के कारण अवरुद्ध गले वाली नायिका ने मखियो का भी रुलाते-रलाने कण्ठावरोध कग दिया है।
विरहज्वर से पीडित नायिका शीतदायक वस्तुओं को भी नहीं मह्न कर पाती । वह गत मे भोजन को मू घती भी नहीं
गाह प्रोग्रग्बड कमल पोलइय ण सहए जलद्द पि ।
प्रोवट्टिएहि प्रोग्रायवे वि प्रोसिंहए ण मा असणं ।।1-130-162 ।। 'क्मलो को नही सू घनी, अगो मे लगे हुए कपूर को भी नहीं सहन कर पाती । खुशामद करने पर भी मायकाल वह भोजन को मू पती तक नहीं ।' इतना ही नहीं केले की छाल एव क्मल पुप्पो की गैया भी उसके लिये केवाच के समान दुखदायक है. विम्नर पर वह विजली की तरह अस्थिर होकर तडपती रहती है
कयनी छल्लि छकुइमम्बुजद्दि पि यु छुइ मुगइ।
लिएरण छदटल पिया तेरा विणा छटचलण छप्पण्णा 113/20124
'विजली के समान तडपती हुई अस्थिर गतिवाली एव विदग्ध प्रिय के द्वारा चली गयी प्रिया, उसके विना केले की छाल एवं कमल की शैया को भी केवाच के समान दुखदायी मानती है ।'
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दे० ना0 मा0 1134136 वही 1146147 वही 11961112 वही 11891105 वही 111101142
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[ 87 गधर्व विवाह के समय ही नायक द्वारा उपमुक्त वर्तु लाकार स्तन वाली विरहिणी नायिका की प्रासो से नित्य प्रासू की पनारिया बहती रहती है ।। 'रयणाबली' के कुछ वियोग वर्णन प्रत्यन्त मार्मिक और प्रतीयमान अर्थ से युक्त है । एक स्थल द्रष्टव्य है -
दूनी विरह मे रस्त कृशकाय नायिका की दशा का चित्रण करती हुई नायक गे कहती है
यस्तलमारिय पेम्मय तह विन्हे तीइ इत्य तडफडिन । तबकुगुमम्म मूले प्रोपडिया मुद्दिया काहइ 1151919॥
'निर्दयप्रेमतरुण । तेरे विरह में वह वाला कितना छटपटाई थी, यह कुरवक वृक्ष के मूल में पड़ी हुई उनकी अंगूठी बताती है ।' विरहजन्य छटपटाहट के बीच प्रतिकश हो गयी नायिका के हाथ की अगूठी का गिर जाना स्वाभाविक ही है । यहा विरह के अतिरेक और तज्जन्य कृशता का कितना कलात्मक उल्लेख है। प्रिय के विरह मे गडी हुई लकडी की भाति बडी रहकर नायिका ने जैसे तैसे रात बितायी। उमको ससी चिन्ता करती है। रात तो बीती सुवह क्या होगा? प्रिय के अग्नि के सहश प्रस्फुरित विरह मे, पल्लव की शैय्या पर लेटी हुई तथा प्रासुग्रो से भीगे हुए स्तनो वाली नायिका, रात-दिन जलती रहती है ।३ कितना विरोधाभाम सा लगता है, पर बात तो सच ही है. विरहाग्नि एक ऐसी अग्नि है जो तन को जलाती है, पर उसकी लपटें नहीं दिखायी पडती । फिर कृत्रिम साधनो से उसे शमित ही कैसे किया जा सकता है, फिर भी विरहाग्नि मे जलती हुई नायिका की शान्ति के लिए उसकी शुभचिन्तक सखिया कुछ न कुछ उपचार तो करना ही चाहती है, यद्यपि ये उपचार भी विरहिणी के लिए शामक कम उत्तापक अधिक होते हैं । हेमचन्द्र की ऐसी ही एक नियोगिनी नायिका, नौकरानी को कृत्रिम उपचारो के करने से मना करती हुई कहती है
कि परिहण जलोल्लसि मयणे किं करसि कमलपडिवेस ।
कुणसि पचत्तरणिउणे पडिच्छिए हिप्रयसल्लपरिहदि ।।6124121।। "परिधान को क्यों जलाकर रही है, शैय्या पर कमल पुष्प क्यो डाल रही है, चाटुकारिता में निपुण प्रतिहारी तू हृदय की पीडा के आकर्षण (की वस्तुए ) जुटा रही है।" हेमचन्द्र के इस पद्य की तुलना विहारी सतसई के अनलिखित दोहे से की जा सकती है
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अरे परे न करे हियो खरें जरे पर जार । लावति घोरि गुलाब सो मिले, मिले घनसार ॥1
यहा यद्यपि उपचार की वस्तुए भिन्न हैं परन्तु दोनो विरहरिण यो की मनो. वृत्ति मे पर्याप्त समानता है । इसी प्रकार हेमचन्द्र ने एक अन्य पद की भी तुलना विहारी के एक दोहे की जा सकती है । नायिका की ससी नायक से उसके (नायिका के) विपम विरहताप का वर्णन करती हुई बताती है -
सपत्तिाइ सण्णत्तिमम्मि तुज्झ विरहग्गिणा हिअए ।
सच्चेविग्राउ माला सदजलद्दया य सुक्कन्ति ।।8:23118।। "तुम्हारे विरह की अग्नि से परितापित, उस बाला के हृदय पर रखी गयी पुष्प की मालाए और जल से भीगी हुई वस्तुए भी सूख जाती हैं।" इमी प्रकार बिहारी की भी एक नायिका विषम विरह ताप से तापित है। उसके ताप को शमित करने के लिए मखिया पूरी गुलाब जल की सीसी ही आँवा देती है, परन्तु वह सबका सब बीच मे विरहताप से सूख जाता है । एक छोटा भी उनके शरीर पर नहीं पड़ता।' वात दोनो एक ही हैं, पर स्तर का अन्तर होने के कारण दोनो मे भेद आ गया है । प्राचार्य हेमचन्द्र की नायिकाए जिस वर्ग से सम्बन्धित हैं, वह वर्ग इत्र, तेल, फुलेल अादि की बातें नहीं जानता वह तो सहज प्राप्य वस्तुप्रो का ही प्रयोग करता है । विरह शमन के लिए फूल की मालाए और जल मे भिगोयी हुई वस्तुए उसके लिए सुलभ हैं । बिहारी की नायिकाए विलासी मुगल दरवारो की नागरी नायिकाए हैं । इसीलिए उनका उपचार भी उसी स्तर का मिलता है | जहा तक मूल भावना और कार्य का सम्बन्ध है, दोनो मे पर्या त समानता है । अन्तर इतना ही है कि हेमचन्द्र का वियोग चित्रण प्राय यथार्य और अभिधात्मक है। बिहारी की भाति ऊहात्मक उक्तिया उनमे कम ही हैं। हेमचन्द्र की एक अन्य वियोगिनी नायिका प्रिय वियोग मे अन्यन्त उदासीन और विरहाग्नि से सतप्त है। उसकी दशा देखकर चिन्तित हुई सखी नायक के पास जाकर उससे बताती है -
सेज्जारिअ ण इच्छइ सेवालजयक्ख सोमहिड्डे अ।
मरिही सेहरथरिणा कइवयसेवाह एहि तुह विरहे ।।8148143 "झूले मे झूलने की इच्छा नहीं करती, कमलो और किचडेली (गीली, ठडी) जगहो मे रहने की इच्छा नहीं करती। वह चक्रवाकस्तनी तुम्हारे वियोग मे कुछ ही
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विहारी रत्नाकर, दो0 स0 529, पृष्ठ 218 विहारा रत्नाकर, दो स. 217, १० 91
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चुटकियो (पलो) मे मर जायेगी ।" नायिका को विरहताप से छुटकारा दिलाने मे किसी प्रकार का भेषज्य (उपचार) कार्य नही करता उसके लिए तो बस एक नायक ही अद्वितीय उपचार है -
लगीरमलसमकलसुग्रपमुहहिं किं इमाइ भेसज्ज ।
लल्लक्कलस: सोच्चिन तरुणो तया लइग्रहारो ।।7115118.।
"लना ग्रो का रस, वक्षो का दध, तैलादि भपज्यो से क्या लाभ । इस भयानक कामरोग मे तो इनके गले का हार वह युवक ही (अद्वितीय भेषज्य है)।" विरह ताप के कारण रात-दिन विरहिणी को नीद नही त्राती। सखिया उसे निद्राकारी-लता के पत्ते पीसकर पिलाती है परन्तु किसी भी प्रकार वह काम-सर-हता रमणी निद्रा नही प्राप्त कर पाती।
__इस प्रकार वियोग दुविता नायिका को न रात मे चैन है न दिन मे । "कृत्तिका नक्षत्र के समाप्त हो जाने के बाद दिन के छोटे हो जाने पर प्रिय विरह से तापित रमणियो की रातें एक युग के समान हो जाती हैं 12 सखी कहती है "कामवधिक तम अत्यन्त मलिन कर्मा हो जो बादलो की गर्जना से विनष्ट विरहिणी का हनन कर रहे हो ।"3 वर्षा ऋतु सामान्य जनो को प्रिय होती है परन्तु नायिका के लिए वह भी परम उत्तापक है । नायिका की सखी नायक से कहती है-"खुले हुए केशो वाली वह वाला, तुम्हारे विरह की अग्नि से बभणी नामक कीडे की भाति सतप्त (छटपटा रही) है । चातक के वोलने तथा "घने वादलो की गर्जना से उसे और भी आराम नही मिलता ।"4
इस प्रकार सयोग और वियोग के अनेको कलात्मक प्रसग 'रयणावली' की अमर निधिया हैं। मूल रूप से व्याकरण और भाषाशास्त्र का ग्रन्थ होते हुए भी यह कोश अपने शृ गारिक पद्यो के अाधार पर किसी भी साहित्यिक ग्रन्थ के जोड मे रखा जा सकता है। 'रयणावली' के शृगारिक पद्य तत्कालीन गुजरात के सुललित ऐहिकता परक जीवन को व्यक्त करने मे अत्यन्त सफल है। इन पद्यो मे प्राचार्य हेमचन्द्र का कवित्व भी निखर कर सामने आता है। इस दृष्टि से 'रयणावली' का अध्ययन विल्कुल ही नहीं हुआ है, इस दिशा मे चलकर यदि विचार किया जाये तो 'रयणावली' सचमुच रयणावली (रत्नावली) अर्थात् अमूल्य एव साहित्यिक सौन्दर्य
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दे० ना0 मा0 7128134 वही 5150162 वही 716172 वही 6174190
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मे युक्त पद्यो की निधि सिद्ध होगी । कम से कम इसमे शृंगारिक पद्य तो सतमई परम्परा की किसी भी कृति के पद्यों के जोड़ मे कम मूत्यवान नही हैं ।
कुमारपाल की प्रशस्ति से सम्वन्धित पद्य
लोक-जीवन की श्रृंगारपरक ललित भावनाओं की अभिव्यक्ति करने वाले शृंगारिक पद्य के प्रतिरिक्त 'रयरणावती' के लगभग 105 पद्यो मे ग्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने त्राश्रयदाता राजा कुमारपाल के यश और शौर्य का प्रशस्तिपरक वर्णन प्रस्तुत किया है । इन पद्यो मे कही कुमारपाल की वीरता, कही दानशीलता तो कही-कही धर्मशीलता की प्रशंसा की गयी है। अधिकतर पद्यो मे कुमारपाल के पराक्रम, उसकी युद्धवीरता तथा स्वय की भोग्ता से डरे हुए उसके शत्रुओ का ही वन किया गया है । कुमारपाल के पराक्रम से त्रस्तु उसके शत्रु अपना घर बार तथा हासविलास छोड़कर जगलो, गिरि, गहू वरो यादि मे छिपते हुए प्रारण वचा रहे हैं, बस इसी प्रकार की भावना लगभग सारे पद्यो मे विद्यमान है । कुमारपाल के गुग्गो और उसकी समृद्धि का भी वर्णन कुछ पद्यो मे हुग्रा है । कुछ एक पद्य उसकी विजयो से भो सम्वन्धित हैं । इन सभी प्रसगो ने मम्वन्वित कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं ।
कुमारपाल के पराक्रम से त्रस्त होकर रणक्षेत्र से भागते हुए शत्रुग्रो की दशा का वर्णन करते हुए प्राचार्य कहते हैं
श्रग्गक्खन्त्रपलावरण श्रहिरीया कुमरवान तुह रिउणो ।
प्रोवीहन्ति अलीसयगिउन ग्रवखलिन अप्प मद्देवि 11112512711
"कुमारपाल 1 रणमुख मे नागे हुए कान्तिहीन, तुम्हारे शत्रु शाकवृक्ष के निकुज मे अपने ही शब्द की प्रतिध्वनि से त्रस्त हो रहे हैं ।" कुछ शत्रु तो "अपकीर्ति की गणना न करते हुए अगुलीयक श्रादि ग्राभरणो को त्यागकर ररण से भागकर कापालिक के वेश मे घूम रहे हैं । "
कुमारपाल के डर मे उसके शत्रु अपने घरो में भी छिपने का स्थान बनाकर रहते हैं
खड्डाघरेमु खत्त वप्पे वण्ण च वासभवणम्मि ।
खलिभोग्रणाण सल्लम्बरा तुह वेरिमाण वी खड्ड 112154166
“श्राञ्चर्य है, खली का भोजन करते हुए, चर्मधारी, दाढी मू छ aढाये शत्रु अपने घर तथा निवास के कमरो मे ( भी ) गड्ढे बनाकर रहते हैं ।"
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हुए तुम्हारे
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[ 91 कुमारपाल के प्राक्रमण से भयभीत उसके कुछ शत्रु घर छोडकर भाग रहे हैं
गिरिगडहरे उत्तरिय डग्गला डडएण तुह रिउणा । डड्ढाडिडम्बरिल्ले जन्ति वणे डभिनव्व जखसणा ।। 418181।
"अपने भवनो से उतरकर बच्चो को लिये हुए-धूप मे तपती हुई सडक से जीरगंशीणं वस्त्रधारी तुम्हारे शत्रु वन की ओर जा रहे है ।" वन मे शुको द्वारा प्राधा खाकर जोड दिये गये फलो से वे गुजारा करते है। इसी प्राशय का एक अन्य पद्य भी द्रप्टव्य है
तुह बाणवक्कडे बद्दलेव हमो रिऊ चइन सभर ।
वकिय सुग्र वलि ग्रफलो सुमरइ वयड गयो वायवणे ।।712913511
"तुम्हारे द्वारा की गयी निरन्तर बाणवृष्टि रूपी दुर्दिन के कारण हस रूपी शत्र समर छोडकर व्याधाकुल वन मे सुक-भक्षित फलो का पाहार करते हुए वाटिका (?) का स्मरण कर रहे हैं।"
युद्ध से भयभीत शो की तो ये दशाएं हैं। उनकी पत्नियो के त्रास का वर्णन भी हेमचन्द्र ने कई स्थलो पर किया है। कुमारपाल के शत्रुओ की वे ही पलिया जो कभी तरह-तरह के विलास के प्रसाधनो का प्रयोग करती थी, सभी कुछ छोड जगलो मे भटक रही हैं
घुसिणाहिवण्णिग्रामो अज्झोल्लिअ भूसिआउ जाउ पुरा ।
तुह रिउवहूउतानो भमन्ति चइग्र अर्द्ध जघिपाउ वणे ।।2131133॥
"पहले जो पीले और काल रग के केशर से लिप्त रहती थी तथा जिनके वक्ष - स्थल के आभूपण मोतियो की रचना से युक्त रहते थे-तुम्हारे शत्रुप्रो की वे ही वधुए पदत्राण को भी छोडकर (नगे पाव ही) वन मे घूम रही हैं ।" प्राचार्य हेमचन्द्र की ये पक्तिया हिन्दी के प्रसिद्ध कवि भूपण के प्रसिद्ध कवित्त की याद दिलाती हैं । भूपण ने भी शिवाजी के शौर्यवर्णन के बीच उनकी शत्रु-पलियो की दशा का वर्णन लगभग इसी प्रकार किया है । द्रष्टव्य है, भूषण का निम्न कवित्त
ऊ चे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी,
ऊचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं
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दे० ना0 मा05121126
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भूषण को उस कोटि की प्रशस्तिपरक कविता पर हेमचन्द्र जैसे प्रसिद्ध पूर्व कवियो का प्रभाव स्पष्ट ही परिलक्षित किया जा सकता है। एक स्थल पर हेमचन्द्र कुमारपाल के पगक्रम में प्रस्त, जगत मे लुकती छिपती गाग्रो की पत्नियो की तुलना छिपकली जमे टरपोक और निकृष्ट जीव से करते हैं
ग्वाइअलघणग्वारयमुहिप्राविविग्यरिकग तुहारिवह । ग्वाटइअरिणयरवेमुडरिया वारफिदिव्य लुक्केड ।। 2161173।।
"बाई प्रादि के लायने मे मुरमाए हुए मुबवाली, हाय में (अम्पृश्यता द्योतक) फटा बाम का इडा लिये, अपने ही गब्द की प्रतिध्वनि से डरी हुई रिपु बथुए छिपकली के समान लुक छिप रही हैं।" एक अन्य पद मे जगत मे भटकती हुई एव भयग्रस्त गा-गलियो का अत्यन्त मुन्दर वर्णन किया गया है--
रिमिणत्तरित्रक्रयच्छीउरकग्लिोलिमज्झरिरियायो।
मुच्छन्तिरिच्छमल्लयभीग्रा तुह कुमरबालरिटबहुप्रा 11171717॥
"रोदनशील मूजी हुई अांबी वाली-वृक्षो को पक्ति के मध्यलीन तुम्हारे शत्रुयो को वधुए गेछो और भानुग्रो के मय में मूछित हो जाती है।"
इसी प्रकार और अनेको चाटुकारिता मरे प्रशस्ति के पद "रयणावनी" मे निवद्ध हैं । यो की पतनोन्मुम्ब दशा के वर्णन के माध्यम से किमी राजा के प्रभाव
और उमके पराक्रम को व्यक्त करता भारतीय परम्पग मे पाये जाने वाले ममन्त प्रशस्तिपरक काचों की एक विशेषता रही है। हिन्दी साहित्य के ग्रादिकालीन चारणकाव्यो तथा रीतिकान में लिखे गये भूषणा ग्रादि कवियो की काव्य-रचनायो में पत्रुग्रो के अपकर्ष वर्णन के माध्यम में यात्रयदाता गजा की चाटुकारिता मरी प्रशमा की परिपाटी अति मामान्य रूप में देखी जा सकती है।
शत्रुओं के अपकर्ष-वर्णन के अतिरिक्त कुछ पद्यो मे कुमारपाल की युद्ध मे दिखायी गई वीरता तथा उनकी वीरवाहिनी आदि का वर्णन है। ऐसे वर्णन भी प्राय अतिशयोक्तियो से भरे पडे हैं । इस कोटि के कुछ पद्य द्रष्टव्य हैं - एक पद्य मे कुमारपाल के भीषण शम्य-प्रहार का वर्णन करते हुए हेमचन्द्र कहते हैं
तुह मिन कटारीफुटकटलो बब्बरा कयलतुन्दो ।
कसरी ब्व मिद्धणबड तुट्टेड कटालिसकुलाईए 11214-411 मिदनरपति 1 तुम्हारी श्वेत (चमकती) बारवाली कटारी के प्रहार से फूट हुए कपारवाला, घटोदर, अधम वलीवर्ट के समान वर्वर (असभ्य) भटकटैया से युक्त
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[ 93 नदी नट पर नुट रहा है ।" एक पद्य मे कुमारपाल की टिड्डियो के समान असख्य बुडसवार सेना का अत्यन्त पालकारिक वर्णन किया गया है
निरिकुमारवालणखइ तुहतुरयाघोरिणोव्व अगणिज्जा।
फवलन्ति वेरिपत्थिय वलाइ घोमालिया दलाइ व ।। 2 1 90 1111 ।
"नरपति कुमारपाल । तुम्हारे शलभ (टिड्डियो) के समान अगणित घोडे वैगे राजाओ के बल (सेन्य) को शरद मे उगने वाली लता के कोमल पत्तो की माति गनिन कर लेते है।" कुमारपाल शय रूपी पक्षियो के लिए वाज के समान है। 1 उसने कोषित होते ही शय वर्ग भागकर समुद्र के किनारे आश्रय लेता है। उसके प्रोधित होते ही तथा धनुष की टकार मान से ही शत्रु, भाग जाते है ।
इन पराक्रमपरक प्रशस्तियो के अतिरिक्त कुमारपाल की धवल कीर्ति और उसकी नमद्धि का मो अत्यन्त पालकारिक वर्णन कई पद्यो मे मिलता है । कुछ उदाहरण यहा दिये जा रहे हैं
रिणवमउडोप्पिअपयणह कित्ती तुज्झ धवलेड प्रोज्झ पि ।
ससिकुलमवाण अहवा पोलिसहावो अय कुमरवाल ।। 111161148।। 'धूलि मे मलिनमणि के समान कुमारपाल की कीति मलिन होते हुए भी प्रवल है तो या तो यह उसके चन्द्रकुल में उत्पन्न होने के कारण है या फिर कुलपरिपाटी केकारगा।' अस्थिर गति लक्ष्मी को भी कुमारपाल ने इस प्रकार धारण किया है कि वे अत्यधिक लम्पटा होते हुए भी, उसे छोडकर जा नही पाती
"उल्ललिग्रदोसतुम तह उग्गहिया कुमरवाल तइ लच्छी ।
उल्लेहडा वि जह सा ण मण्णाए अण्णमुवसेर ।। 5188110411 "कुमारपाल । तुमने शिथिल स्थिति वाली और दोपो से युक्त लक्ष्मी को भी इतनी निपुणता मे ग्रहण किया है कि अतिलम्पटा होते हुए भी वह किसी अन्य को रति योग्य नही मानती।" कुमारपाल की राज्यश्री का एक अन्य वर्णन भी उल्लेखनीय है
जयसिरिणिवासजेमण भुन तुह गुणवण्णम्मि का जोग्गा ।
जोर जसेण चालुक्क जोक्खमवहरसि जोअस्स ।। 3140148॥ "दक्षिण भुजा पर लक्ष्मी को धारण करने वाले (कुमारपाल) तुम्हारे गुणवर्णन मे चाटुकारिता क्या ? हे चालुक्य नरेश | निश्चय ही तुम्हारे यश की धवलता
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मलिन चन्द्रमा को भी प्रतिक्रान्त करने वाली है।" अर्थात् तुम्हारे यश की बदलता की समानता मलिन चन्द्रमा कैसे कर सकता है ?
कुमारपाल के यश का गुणगान उमकी प्रजा और वन्दीजन तो करते ही हैं, आकाशचारी विद्यावर भी नित्य किया करते हैं।
गुणमरिणणायहर चुलुक्क तुझ मायदक जमाडिय ए।
गाएइ पुलयमाई खयरिजणो माहमालधवल जस ।। 61111112811 "गुण रूपी मणियो के समुद्र, चालुक्य नरेण! तुम्हारे अाम्रकु जगृह मे पुलक्ति रोम वाले खेचर (विद्याधर) तुम्हारे कुन्द एव ज्योत्स्ना के समान धवल यश का गान करते हैं।"
उपर्युक्त कुछ उदाहरण यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं कि प्राचार्य हेमचन्द्र बहुमुखी प्रतिभा के कवि थे । शृंगारिक पद्यो के समान ही उनके कुमारपाल की प्रशस्ति में सम्बधित पद्य भी हिन्दी के आदिकालीन चारणकाव्यो तथा रीतिकाल के भूपण प्रादि के प्रशस्तिपरक कवित्तो की पृष्ठभूमि के रूप मे, अपनी विशिष्ट महत्ता रखते है। प्राचार्य हेमचन्द्र के ये प्रशस्ति पद्य तत्कालीन रासक परम्परा की कृतियो तथा उसके पूर्व सस्कृत के दरबारी कविपो की प्रशस्तियो को जोडने वाली कडी के रूप मे देखे जा सकते हैं। हिन्दी साहित्य की प्रादिकालीन चारणो और भाटो की प्रशस्तियो पर हेमचन्द्र के इन पद्यो का प्रभाव स्पष्ट ही परिलक्षित किया जा सकता है। प्राश्रयदाता राजा की प्रशसा मे उसके शत्रु प्रो के अपकर्ष का वर्णन स्वय उमकी राज्यश्री और वीरता एव दानशीलता का वढा चढाकर किया गया वर्णन हिन्दी के दरबारी कवियो मे सुलभ वस्तु है। केशव और भूपण जसे रीतिकालीन हिन्दी कवियो मे तो इस प्रकार की कविता की प्रवृत्ति बहुल मात्रा मे है । (3) "रयारणावली" के विविध विषयात्मक पद्य :
प्राचार्य हेमचन्द्र एक उच्चकोटि के व्याकरणकार, भापाविद एव महृदय कवि होने के साथ ही एक उच्च कोटि के युगद्रष्टा, लोकव्यवहारज्ञ एव नीतिज्ञ भी थे। इनकी "रयणावली" मे लगभग 120 पद्य ऐसे है जिनमे लोकव्यवहार की शिक्षा, नैतिक उपदेश, देवी देवताओ की चर्चा तथा अन्य सामान्य विपयो को निवद्ध किया गया है। इनमे अनेको पद्य ऐसे हैं जिनमे मानवजीवन के निर्माण मे सहायक तथा जनजीवन को प्रेरणा प्रदान करने वाले सुन्दर उपदेश निबद्ध हैं। धर्मोपदेशक जैन श्राचार्यों मे हेमचन्द्र का नाम बडे पादर के साथ लिया जाता है। "रयणावली" के इस कोटि के पद्यो को मुनि रामसिंह की 'पाहुडदोहा' तथा अन्य जैन मुनियो की उपदेशात्मक कृतियो के पद्यो की तुलना मे रखा जा सकता है। प्रो० मुरलीधर बनर्जी
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[ 95 ने हेमचन्द्र के इन पद्यो की तुलना भर्तृहरि के नीतिशतक के पद्यो तथा सस्कृत के विविध कवियो द्वारा लिखे गये सुमापित सग्रहो से की है। यह बहुत कुछ ठीक भी है । 'रयगावली' के इन पयो में सस्कृत के नीतिपरक पद्यो के समान ही लोकजीवन को बहुमूल्य एव लाभप्रद उक्तिया निवद्ध है। अति प्राचीन प्राकृत काव्यसग्रह 'बज्जालग' मे भी इस प्रकार के पद्यो की कमी नहीं है। 'रयणावली' के इस कोटि के कुछ पद्यो का विवरण प्रागे दिया जा रहा है ।
एक पद्य में कवि लोक-जीवन के सुचारु रूप से चलने में बाधा उत्पन्न करने वाले तत्त्वो का उरलेख करते हुए कहता है
सरिमाण अग्गवेप्रो प्रदसणातहय अप्पगुत्ता य । - दूमन्ति झत्ति लोत्र अहिप्रारविरोहिणो हि खला ।।
"नदियो की वाढ, चोर तथा केवाच, लोगो को शीघ्र ही परितापित करते है। (सच है) खल (नीच लोग) लोक यात्रा-विरोधी होते ही है।"
इन्भाणमिरिणमिक्क्स मिद्दण्डाण गयाण इ गाली ।
इग्गाण य माभेसीसदी हरिस समुबहइ ।। 1161179।। "वणिक के लिए मोना, भ्रमर के लिए कमल, गज के लिए ईख, डरे हुए के लिए 'मत डरो' का शब्द हर्ष का उद्वहन करने वाले होते है।" एक पद्य मे हेमचन्द्र सामाजिक रूढियो का उल्लेख करते हैं कि परम्परा प्रिय भारतीय समाज निकृष्ट से निकृष्ट जीवो को भी मान्यता दे सकता है, परन्तु कुमारी स्त्री से उत्पन्न हुए अवैध पुत्र को नही ।
कुछ पद्यो मे कवि ने एक साथ ही कई-कई सामाजिक तथ्यो का उद्घाटन किया है। जैसे-~
जयणेहि हया गामा जगाहि कणा-य जभभावेण ।
महिलामो जोहलीहि सहन्ति गेहा जरड जच्चेहि ।। 3131140।। 'लगाम से घोडे, गोचर भूमि से गाव, तुष से अनाज, नीवी से महिलाए तथा बूढो और बच्चो से घर शोभा पाते हैं। ऐसे ही एक अन्य पद्य मे वे बताते है किमलाई से दही, मूठ से तलवार, गहरे पानी से कुग्रा, वीरो से विषम अवसर तथा पशुओ से ग्राम-समूह सुशोभित होते हैं ।'3
1 2 3
प्रो मुरलीधर बनर्जी-दे. ना मा की भूमिका, तृतीय खण्ड । दे ना मा 1164181 दे ना मा ,5119124
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एक सामाजिक सत्य का उद्घाटन करते हुए हेमचन्द्र कहते हैं-~-- ठाणो ण ठल्लयाण ठाणिज्जत ण यावि ठइमाण ।
ण ठिक्क सण्ढाण अठविग्रउवलाण ण य पूरा ।। 4151511
'निर्घन का मान नही, अवकाश रहित को गौरव नही, पण्ढ (नपुंसक) को शिश्न नही तथा प्रस्थापित प्रतिमा की पूजा नहीं होती।'
निर्वलो और विनम्र लोगो को पाश्रय देना प्रत्येक व्यक्ति का पुनीत कर्तव्य है। जो समृद्ध हैं उनका तो यह विशिष्ट कर्तव्य है। समृद्धि पाते हुए भी विनत लोगो की रक्षा न करने वाले दुष्ट पुरुष की भर्त्सना करते हुए हेमचन्द्र कहते हैं
किं ते रिद्धि पत्ता पिसुरणा जे पण इणो वि ताविन्ति ।
कवयकलवूउ वर कमि अकरोडीण दिन्ति जे चाहिं 11 2131311 "जो विनम्र जनो को भी तापित करता है ऐसे दुष्ट के समृद्धि प्राप्त करने से क्या ? (उससे तो) कुकुरमुत्ता और नालिका नामक लता श्रेष्ठ हैं जो समीप आयी कीटिका को भी छाह देते हैं।"
आचार्य हेमचन्द्र मे धर्मान्धता नाम मात्र को भी नहीं थी। एक जैन प्राचार्य होते हुए भी अन्य जैन प्राचार्यो की भाति उन्होंने सनातन धर्म की कटु आलोचनाएं नहीं की परन्तु समय-समय उन्होने सदैव इसके ढकोसलों तथा दिखावेपन का विरोध किया है । एक पद्य मे उन्होने मूर्तिपूजा के खोखलेपन की चर्चा की है।
पडिरजिअ पडिमाए कि रे पडिएल्लियाइ होइ फल । पडिग्रतय किं दिटो पिडिअ पज्जुणसराउ उच्छुरसो ।। 6-35-3211
“भग्नप्रतिमा से क्या कृतकृत्य करने वाला फल मिलता है ? रे कर्मकर । ईख केसदृश घास पेरने से क्या ईख का मीठा रस प्राप्त होता है ।" इसी प्रकार एक पद्य मे प्राचार्य यज्ञ मे वलि देने के रूप मे हत्या करने वाले ब्राह्मण को मूर्ख और अन्त मे बुरा परिणाम भुगतने वताते हैं । अपने पाण्डित्य का मिथ्या गर्व करने वाले तथा परम्परा की लीक पीटने वाले विद्वानो की तुलना प्राचार्य जुगाली करने वाले पशु से करते हैं -
उप्पाइउमसमत्था जे चन्विन चव्वण कुणन्ति कई । वोभीपणाफुड ते वोकिल्लिअकारिणो पसुणो 171761821
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दे. ना मा 7168
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[ 97 " भी (17) उमादित पाने में असमर्थ जो चवित-चर्वणमात्र करते हैं । सष्टको बनाने जगाली करने वाले पशु है।"
का गुप पो ने अतिरिकम कोणग्रन्थ में नीति, उपदेश,
- मम्वन्धित पोर भी प्रकोप है जो कवि की व्यावहारिकता प्रोगामामाजिर भानो स्पष्ट करने में प्रान्त ममर्थ है। हेमचन्द्र के इन पजी में घनमीत्री घोर गरल शैली में लोक व्यवहार, धार्मिक प्रास्थानो ग्व
माजमनापोकापा । शिनी भी पद्य में प्राचार्य के कट्टर जैन पारी नानी मिना । नामाजिक कुरीतियो और घमंगत ढकोमनीती करने भी प्रत्यन्त विनम्रतापूर्ण शैली में करते है । बन पनी गलनाशिक पोरगदानोती दृष्टियो से मुनि रामसिंह के प्रमिद नार पाहा" की जा सकती। पग्यी हिन्दी मतसई परम्परा में पानी नन्दा गावर मुबर देखा जा सकता है । इन पद्यो ना कधिएक नया महामा, समाजहितचिन्तक, जटिल धार्मिक मान्यतायो से रहित दृष्टिकोण वाला युगद्रष्टा, व्यगिन है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि "रयानी" के नामान्य विषयों में सम्बन्धित पद्य भी अपना विशिष्ट मारित्विक महत्व रयते है। ग्यणायलो फा फलापक्ष छन्द
"रयणावली" के उदाहरगो में प्राकृत के "गाहा" (गाथा) छन्द का प्रयोग हमा है । मम्मान तथा प्राशन के प्राचायां ने "गाहा" और सस्कृत के "पार्या" छन्द को एक ही बनाया है । "गाथा" शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य से लेकर सस्कृत नक में भिन्न-भिन्न प्रयों में किया गया है । छन्द शास्त्र के प्रणेता पिंगलाचार्य ने "अयानुक्त गाया" कह कार छोड दिया है । हलायुध" अत्रशास्त्रे नामोद्देश्येन-यन्त्रोक्त चन्द प्रयोगे च दृश्यते. तद्गानि मन्तव्यम्" कहते है। रत्नशेखर सूरि "गाहा" का नक्षग इस प्रकार देते हैं
'ममान्नेण वारस अठारम बार पनर मत्तायो। कमसो पाय चउपके, गाहाएइ हुति नियमेण ।। गाहाइदले चउचउमत्त सासत्त, अट्ठोभदुकलो।
एयवीय दले विदु नवर छुट्टोइ एक गलो ॥" रत्नशेसर सूरि के अनुसार-गाहा चार पदो का छन्द होता है । इसके विपम पादो (प्रथम, तृतीय) मे 12 तथा समपादो (द्वितीय, चतुर्थ) मे 18 मात्राए होती हैं ।
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यह तो हुप्रा प्राकृत के अपने छद "गाहा" का लक्षण । कोलबुक महोदय “गाहा" को सस्कृत से पाया छद बताते हैं ।' डा० गोरे ने "वज्जालग्ग" की प्रस्तावना के सातवें पृष्ठ पर गाथा का लक्षण दिया है । ऊपर दिये गये 'गाथा" लक्षण के अतिरिक्त एक अन्य लक्षण भी मिलता है
पढम बारहमत्ता, वीए अठारएहिसजुता ।
जहपढम तह तीन, दसपच विहूसिया गाहा ।।" इस परिभाषा के अनुसार जिसके प्रथम तथा तृतीय पाद मे क्रमश 12 मायाए , द्वितीय पाद मे 18 मात्राए तथा चतुर्थपाद मे 15 मात्रायें हो, वह छद 'गाथा' कहलाता है । सस्कृत के 'आर्या' छन्द का भी यही लक्षण है--
यस्या पादे प्रथमे द्वादशमात्रास्तथातृतीयेऽपि । अष्टादश द्वितीये चतुर्थ के पचदश मार्या ।।
"जिस छद का प्रयम चरण 12 मात्रा का (स्वर की लघुना एव गुरुता के परिमारण से) द्वितीय 18 का, तृतीय वारह और चतुर्थ 15 का होता है उसका नाम प्रार्या है ।" को नाक महोदय ने इसी के अाधार पर यह स्थापित किया था कि प्राकृत का 'गाहा' छद सस्कृत की प्रार्या से निकला है। परन्तु यह न कह कर यदि कहा जाये कि सस्कृत की प्रार्या ही 'गाहा' के आधार पर विकसित है तो अधिक उपयुक्त होगा। क्योकि प्राकृत का 'गाहा' छन्द अपने अनेको भेद प्रभेदो के माथ सम्कृत के छदो से अलग है। गाह, विगाथ, उद्गाथ, गाथिनी, सिंहनी आदि इसके उपभेद हैं । प्राकृत का 'गाहू' छन्द ही सम्कन ही प्रार्या है । 60 मात्रानो ( 12 + 18 +12 +18) वाली गाथा, जिसकी परिभाषा पहले दी गई है, गाथा का ही एक अन्य प्रभेद उद्गाथा है।
___ 'रयणावली' मे निबद्ध उदाहरण की गाथाएँ दो प्रकार की हैं । कुछ गाथाए 60 मात्रामो (12-1-18+12+18) वाली है और कुछ 57 मात्रायो ( 12 + 18+ 12+15) वाली सस्कृत की प्रार्यानो के लक्षण की हैं । 60 मात्रायो वाली गाथा का एक उदाहरण द्रप्टव्य है
12 'विप्रलिम उइ ततणाए सुण्ण उभालण कुणन्तीए । तह पुलइअमुच्छवि जह काउ सक्किमो ण उज्झमण || 1187110311
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18
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1. सस्कृत एण्ड प्राकृत पोयट्री-एशियाटिक रिसचेंज 10वी जिल्द, पृ0 400
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[ 99 57 मात्रायो वाली गाथा
18 टोलोव्व मा पड तुम उज्जाणे वाणिणीउ ज पुरग्रो । 12
15 टोतववणे टोक्करण हत्या मयण ग्गि जालाग्रो ।। 41414।।
ये ही दो प्रकार की गाथाए सम्पूर्ण 'रयणावली' के उदाहरण के पद्यो मे व्यवहृत हुई है। जहा तक इसके छदो मे दोप का प्रश्न है, वे स्वाभाविक ही हैं । इसकी अनेको गायायो मे किसी न किसी पाद मे एक मात्रा कम देखी गयी है। ऐसा विगेपत द्वितीय और चतुर्थ पाद मे हुआ है । परन्तु यह दोप लिपिकारो की असावधानी के कारण पाया होगा। 'रयणावली' की इन आर्यायो का सकलन विविध हस्तलिखित प्रतियो के अाधार पर हुप्रा है । इन प्रतियो के लिपिकारो की अनज्ञितावश ये भूलें रह गयी होगी । साहित्यिक या छन्द शास्त्रीय दृष्टि से 'रयणावली' का संकलन भी नही हपा था अत यह प्रमाद रह जाना स्वाभाविक है। जितने स्थलो पर ऐसे दोप आये हैं वहा एक मात्रा या फिर अनुस्वार मात्र बढा देने से छन्दो दोष दूर भी हो जाता है । इस एक दोप के अतिरिक्त 'रयाणावली' की गाथाए शास्त्रीय दृष्टि से अत्यन्त शुद्ध है। इनमे यति तथा मात्रामो का लघु-गुरु विधान भी नियम साध्य है । इस प्रकार छन्द की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ उच्च कोटि की साहित्यिकता से युक्त है।
भापा
'रयगावली' की भाषा निर्विवाद रूप से 'प्राकृत' है। इस ग्रन्थ की रचना भी हेमचन्द्र ने सिद्धहेमशब्दानुशासन' के पूरक ग्रन्थ के रूप मे किया था । उदाहरण की गाथाओ की भापा यदि देशी शब्दो को छोड़ दिया जाये तो, साहित्यिक प्राकृत है । साहित्यिक प्राकृत के सभी व्याकरणिक-विकार इन पद्यो की भाषा मे निरूपित किये जा सकते हैं । प्राकृत के पद्यो मे 'देश्य' शब्दो का प्रयोग, प्राकृतकाल मे 'देश्य' शब्दो के प्रयोग-वाहल्य की मान्यता को पुष्ट करता है। देश्य शब्दो के प्रयोग के ही कारण, इसकी भाषा अत्यन्त क्लिष्ट हो गयी है। इसके अनेको पद्यो का साहित्यिक सौन्दर्य भी इसी क्लिष्टता के कारण मन्द पड़ गया है।
अलकार
_ 'रयणावली' के पद्यो की पालकारिक योजना भी उच्चकोटि की है। लगभग सभी प्रसिद्ध अलङ्कारो उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, अर्थान्तरन्यास, अन्योक्ति आदि का प्रयोग इसके पद्यो मे परलक्षित किया जा सकता है। इन
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__100 ] अलकारो की प्रायोजना, यद्यपि मायास नही है, फिर भी इनके सौन्दर्य में कोई कमी नही ग्राने पायी है । उदाहरण की इन 'गायायो की रचना हेमचन्द्र ने केवल शब्दो को कण्ठस्थ करने के लिए किया था। परन्तु लोकजीवन मे सम्बन्ध रखने के कारण देशीशब्दावली से युक्त कविता उच्चकोटि की साहित्यिकता अनायास ही आ गयी है। अलकारो की दृष्टि से 'रयणावली' के मयोग और वियोग वर्णन से सम्बन्धित पद्य विशिष्ट हैं, इनमे, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अर्यालकारो का बहुत सुन्दर प्रयोग हुया है । रूपक और उपमा अलकारो का एक मिला-जुला प्रयोग द्रष्टव्य है
कुन्तल उडुछण्णण जणणयण उंबखाय व ।
मयणेण उरे रइअ तुह उच्च उ बगोरङ्गि ।। 1 68186 11 'केशराशि तृणो को परिवारण (घोखा) है, नयन मनुष्यरूपी मृगो को बाधने के लिए जाल है। प्रारम्भ मे ही कामदेव द्वारा रचित गोराङ्गि । तुम पके हुए गोवूम की (कृपि की) भाति हो।'
कुमार पाल की प्रशस्ति से सम्बन्वित पद्यो में अतिशयोक्ति अलकार का प्रयोग बहतायत से हया है। नीति और उपदेश के पद्यो मे अन्योक्ति, स्वभावोक्ति, अर्थान्तरन्यास आदि अलकारो का प्रयोग प्राय हुअा है । प्रकृति चित्रण से सम्बन्वित एक सुन्दर पद्य मे 'मानवीकरण' अलकार का प्रयोग दर्शनीय है
मरणमणुवेण हरन्तो अणुदविफुल्लारविन्दमयरन्द ।
परिमलपारणग्वाणोव्व अगिल्लसमीरणी खिवइ ।। 1116119 'मन को बरबम हरण करता हुग्रा, श्रत काल के प्रफुल्लित कमलो के मकरन्दपान से तृप्त मा, प्रात समीर (धीरे-धीरे) बह रहा है।'
अर्यालकारो मे नवमे अधिक प्रयोग उपमा, रूपक और अतिशयोक्ति का हुग्रा है । अन्य अलकारो मे स्त्रभावोक्ति का प्रयोग भी अधिक मात्रा में है । कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अलङ्कार प्रयोग की दृष्टि से भी रयणावली एक उच्च कोटि की माहित्यिक कृति है । अलकार इनके पद्यो में निबद्ध कोमल अनुभूतियो के सहज अनुचर है। निष्कर्ण
ऊपर 'रयणावकी' के उदाहरण की प्रार्यानो मे निहित विषयवस्तु का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया । इसकी विषयवस्तु को देखते हुए यह बिना किसी सन्देह के कहा जा सकता है कि 'रयणावली' प्राकृत काव्य परम्परा की एक श्रेष्ठ काव्य कृति है और हेमचन्द्र एक श्रेष्ठ कवि । जहाँ तक 'पिशेल' जैसे विद्वानों को
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[ 101 इसकी साहित्यिकता मे सन्देह होने की बात है यह स्वाभाविक भी था। यह तो एक तथ्य है कि 'रयणावली' के पद्य कठिनता की दृष्टि से सम्पूर्ण प्राकृत साहित्य मे बेजोड हैं । सभी पद्यो का ठीक अर्थ कर पाना उनमे निहित साहित्यिक सौन्दर्य को देख पाना कम से कग असम्भव नही तो कठिन अवश्य है। मेरे समक्ष स्वय इस पक्ष को लेकर अनेको कठिनायां रही हैं। पद्यो मे देशी शब्दो का प्रयोग होने के कारण कही कही उनका प्राशय समझ पाने में कठिनाई अवश्य हुई है, परन्तु अधिकतर पद्यो मे ऐसी कोई भी बात नही है । 'रयणावली' के साहित्यिक दृष्टि से उपेक्षित होने का एक कारण और भी रहा है यह एक भाषा शास्त्रीय कोशकृति है, पिशेल महश विदेशी विद्वानो ने इसका अध्ययन भी इसी दृष्टि से किया था, इसके साहित्यिक मूल्याकन का प्रयत्न कम ही हुया है । प्रो० मुरलीधर बनर्जी ने इस ओर प्रयास अवश्य किया था पर वे मकेतमात्र ही कर सके थे, उनका अधिकतर प्रयास 'पिशेल' की असावधानिया टू ढने की ओर ही रहा है । यहा प्रस्तुत किया गया अध्ययन इस दिशा मे किया गया प्रथम प्रयास है। इस प्रयाम मे भी 'रयणावली' का समस्त काव्य सौन्दर्य सामने नही पा सका है क्योकि यह किसी एक प्रबन्ध के छोटे से अध्याय मे समाप्त होने वाला विषय भी नही है । गाहासत्तसई, वज्जालग्ग तथा अन्य प्राकृत के लोकिकता परक काव्यो की भाति इसका भी स्वतत्र अध्ययन अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण कार्य होगा । निष्कर्ष रूप मे इतना ही कहना पर्याप्त है कि 'रयणावली' अन्य सतसई परम्परा की कृतियो की भाति ही विषयवस्तु की दृष्टि से एक महान कृति है । भाव, भापा, छद, अलकार प्रयोग, अर्थगत प्रतीयमानता, प्रकृति चित्रण सभी दृष्टियो से यह एक श्रेष्ठ माहित्यिक कृति कही जा सकती है ।
'गाहासत्तसई' की भाति 'रयणावली' भी कृषिजीवी भारतीय जीवन का चित्र अकित करने वाली कृति है। इसमे तत्कालीन गुजरात के ग्रामीण जीवन की रीति नीति, प्राचार-व्यवहार आदि का स्पष्ट अकन हमा है । इसमे निहित कुलटाओ-वेश्या
ओ, हालिक-हालिक पत्नी, गोप-गोपी, गृहिणी-गृहपति और प्रेमी-प्रेमिका के बीच की ग्रामीण उक्तिया एव उनकी मनोहारी लीलाए चित्ताकर्षक होने के साथ तत्कालीन भारतीय ग्रामो और उनके समाज की कसोटी भी हैं। इसके पद्यो मे स्वभावोक्ति' की बहुलता है । इमी स्वभावोक्ति को शिष्ट समाज 'अश्लील उक्ति' के नाम से भी सम्बोधित करता है, पर इन अश्लील उक्तियो के अन्तराल से व्यक्ति का स्वच्छ, छल कपट रहित हृदय झाकता दिखायी देता है । इनमे निहित निम्नवर्गीय लोगो की भावनाए परिमार्जित न होकर अपने प्राकृत रूप मे पायी हैं। इनके भीतर और बाहर दोनो मे समानता है । कुल मिलाकर 'रयणावली' को भी ‘गाहासत्तसई' की भाति 'लोक साहित्य' के ग्रन्थो की तालिका मे एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के रूप मे स्वी
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कार किया जाना चाहिए । विषयवस्तु को देखते हुए तो यह कोशग्रन्य 'बज्जालग्ग' से भी समानता रखता है। 'वज्जालग्ग' की भाति इसमे भी विषयगत विविधता का दर्शन किया जा सकता है। यदि कुछ शब्दो मे हेर फेर दिया जाये तो 'वज्जालग्ग' की निम्न उक्ति देश्यवहुल 'रयणावली' के पद्यो पर घटित हो सकती है
देसिय सद्दपलोट महुरक्खरछदसठिय ललिय ।
फुड वियडपायडत्य पाइअकव्व अग्रव्वम् ।। प्राकृत-काव्य की इस प्रशस्ति मे यदि देश्य शब्दो की प्रचुरता का ममावेश कर दिया जाये तो निश्चित ही 'रयणावली' की गाथाए भी इसके अन्तर्गत आ जायेंगी।
अस्तु ! सक्षेप में यह कहा जा सकता है कि 'रयणावली' भाषाशास्त्र की हो। दृष्टि से नही साहित्यिक दृष्टि से भी एक उच्चकोटि का कोश ग्रन्य है।
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देशीनाममाला का सांस्कृतिक अध्ययन
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ग्राचार्य हेमचन्द्र की 'देशीनाममाला' केवल भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण नही है अपितु सास्कृतिक एव साहित्यिक दृष्टि से भी इसका बहुत बड़ा महत्त्व है। इसमे संकलित शब्द सम्पत्ति ने अपने अन्तराल मे सदियो से चली आयी जन साधारण की सस्कृति को सजो रखा है। इन शब्दो का सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा धार्मिक अनेको दृष्टियो से बहुत बड़ा महत्त्व है। लौकिक जीवन में अनेको ऐसे रीति-रिवाजो का प्रचलन आज भी है जो युग-युगो से परम्परा मे प्रचलित चले आये हैं परन्तु उनका सन्दर्भ ढूढना अत्यन्त दुरूह कार्य है। इस प्रकार के अनेको असन्दर्भ रीति-रिवाजो और सामाजिक मान्यताप्रो का परिचय हमे इस शब्द कोश मे सकलित शब्दो के माध्यम से प्राप्त होता है । 'देशी' शब्द बहुत प्राचीन काल से साधारण या प्रशिक्षित समाज की वोलचाल की भाषा के शब्द हैं । उस युग तथा तयुगीन समाज की मान्यताप्रो का स्पष्ट चित्र इन शब्दो के माध्यम से खीचा जा सकता है। इन शब्दो के माध्यम से हमे अनेको ऐसे सम्बन्धो और सामाजिक नियमो तथा धार्मिक अनुष्ठानो का पता चलता है जिनके बारे मे सामान्यतया लोग आज भी अन्धकार मे हैं ।
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है 'देशीनाममाला' के सभी शब्द तथाकथित प्राथमिक प्राकृत के ही नही हैं । इसके अनेको शब्द साहित्यिक प्राकृतो की देन है । इन शब्दो का भी अपना विशिष्ट सास्कृतिक महत्व है। ऐसे शब्द स्वय हेमचन्द्र के समय की साधारण जनवर्ग की सस्कृति का सुष्ठ द्योतन करने मे अत्यन्त समर्थ है। इन शब्दो के माध्यम से तत्कालीन गुजरात के सामाजिक चाल-चलन, पहनावे, कृषि
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द्रष्टव्य-अध्याय 5-देशी शब्दो का विवेचन ।
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104 ] सामग्री शासन व्यवस्था प्रादि पर अच्छा प्रकाश पडता है । इस प्रकार 'देशीनाममाला' के 'तद्भव' और 'देशी' दोनो ही शब्द म्वय मे एक सास्कृतिक स्वरूप छिपाये हुए हैं जिनका विवेचन अलग-अलग शीर्पको के अन्तर्गत कर लेना समीचीन होगा। देशीनाममाला का सामाजिक वातावरण
'देशीनाममाला' मे ग्रामीण जीवन में सहायक अनेको श्रमजीवियों का उल्लेख हना है । इनमे माली, दर्जी, धोबी, कहार, सोनार आदि अनेको श्रमजीवियो के लिये शब्द मिलते है। माली के लिये दो शब्द प्रारम्भिनो 1-71 तथा वड्डहुली 7-42 आये हैं। इस कोश के शब्दो से पता चलता है कि गुजरात के ग्रामीण जीवन में पुष्पमालानो से केश सज्जा अादि का बहुत बडा महत्त्व था। इन मालाओं का निर्माण करने वाला व्यक्ति अपने 'कर्म' के आधार पर 'माली' या 'मालाकार' कहलाता है।
धोवी-घोवी या घोविन के लिए इस कोश मे कई शब्द हैं-घोत्रा 5-32 घोबी । उप्फु किया 1-114 घोविन तथा हिक्का 8-66 और फुक्की 6-84 ।
नाई चन्दिलो 3-2 | छुरभड्डी 3-31 । छुरहत्थो 3-31 1 वारियो 7-47 । मज्जियो 8-47 । मज्झयो 6-115 । रत्तीयो 7-2 । उच्छीउत्तो 7-471
दर्जी -श्रासीवो 1-69 | घरो मे पानी भर कर देने वाले वर्ग के लोग 'कहार' कहलाते हैं । इसके लिए काहार 2-27 शब्द पाया है । लोहे का काम करने वाली जाति के लिए फूअ 6-85 | स्वर्णकार के लिए झरो 3-54 तथा केवल कगन बनाने वाली जाति के लिए वाणो 7-54 शब्द आये है । इसी प्रकार अन्यानेक पेशेवर जातियो से सम्बन्धित शब्द हैं जैसे इत्र वेचने के लिये गधपिसापो 2-87, वनिये के लिये इन्भो 1-79, दूध का व्यापार करने वाले ग्वाले के लिए काहिलो 2-28, कपडा बुनने वाले के लिये कोलियो 2-65, कसाई के लिए खट्टिक्को 2.70, घर मे काम करने वाली दासी के लिये खोट्टी 2-77 तथा तालप्फली 4-11, दास के लिये छोइनो 3-33, गुलाम दासी के लिये दुल्लसिया 5-46, घर मे पानी भरने वाली नौकरानी के लिये दोहणहारी 5-56 पुराने अस्त्र-शस्त्रो को माज कर साफ करने वाले को तोमरियो 5-18, ईख की पेराई करने वाले मजदूर को तूमो 5-16, साधारण श्रमिक को पडिअ तो 6-32, हल चलाने वाले को भाइल्लो 6-104, हाथी चालक पीलवान को मेठी 6-131, जुअाघर चलाने वाले को पाउग्गियो 6-42, पाउग्गो 6-31, डभिनो 4-8, पठन-पाठन का कार्य करने वाले व्यक्ति को पडिज्मयो 6-31, विवाह इत्यादि की गणना करने वाले ज्योतिषी को मती 6111, शरीर का व्यापार करने तथा गाने वाली स्त्री या वेश्या को वेल्लरी, गावजाकर पेट पालने वाली स्त्री को गत्ताडी 2-82, शिकार करके जीविका चलाने
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[ 105 वाले व्यक्ति को जोडियो 3-49, झोडियो 3-60, ताम्बूल पेटिका का वहन करने वाली दामी को डोगिली 4-12 श्रादि ।
इन पेशेवर जातियो के उल्लेख के अतिरिक्त कुछ निम्न वर्ग की जाति के लोगो का उल्लेख भी प्राप्त हो जाता है। सबसे निम्न वर्ग की जाति चाण्डाल की बतायी गयी है इसके लिए डुबो 4-11, शब्द आया है । इस जाति के लोग सम्भवत अपनी अस्पृश्यता का सकेत करने के लिए अपने हाथ मे एक बाम की छडी लिये रहते थे। इस वास की छडी के लिए झज्झारी 3-54, खिखिरी 2-73 शब्द आये हैं । गदगो 2-48 तथा मोरत्तो 6-140 से एक अत्यन्त निम्न कोटि की जाति का भी उत्लेख मिलता है।
__ जातियो का निर्देश करने वाले इन शब्दो के अतिरिक्त कुछ ऐसे वर्ग के स्त्री पुरुपो का उल्लेख भी मिलता है जिन्हे समाज मे हेय दृष्टि से देखा जाता रहा होगा। 'देशीनाममाला' मे कुलटा स्त्रियो के लिये कई शब्द आये हैं जैसे केली 2-44, खडई 2-67, झडुली 3-61, झडली 3-54, पुण्णाली 6-53, भभी 6-99 आदि । दुश्चरित्रा स्त्रियो के लिए अज्झा 1-50, अडयणा तथा अडया 1-18, दुश्चरित्र पुरुषो के लिए अणड 1-18, उल्लेहडो 1-104, इत्यादि । इन शब्दो को देखकर ऐसा लगता है जैसे समाज अत्यन्त मर्यादावादी रहा हो । पुरुष वर्ग मे ठग के लिए कालो 2 28, चोर के लिए अदसणो 1-1 29, इक्को 1-80, उड़डहणो 1-101, कलमो 2-10. चोरो के समूह के लिए पडीरो 6-8, जेबकट या पाकिटमार के लिए चारणग्रो 3-9 अादि विशेष उल्लेखनीय है ।
सामान्य स्त्री वर्ग-गुण और अवस्था के आधार पर स्त्रियो से सम्बन्धित अनेको शब्दो का उल्लेख इस कोश मे हुश्रा है जैसे-अोलइणी (1-160)-प्रिय स्त्री, कुट्टयरी कुमारी (2-35), गणणाइया (2-87) - कुद्व स्त्री या चण्डी, गहणी (2-84) हरण करके लायी गयी स्त्री गहिया (2-85) इच्छित स्त्री, दुदुमिणी (5-45) सुन्दरी स्त्री दुम्म इणी (5-47) - कलह शीला स्त्री तथा अहिविण्णा (1-25) ऐसी स्त्री जिसके पति ने दूसरी पत्नी कर ली हो ।
इन शब्दो को देखकर जिम समाज का कल्पना चित्र मस्तिष्क मे उठता है वह भारत जैसे ग्राम प्रधान देश के लिए दुर्लभ बात नही है । भारत के विभिन्न प्रान्तो मे फैले हुए सुविस्तृत ग्रामीण अचलो की सस्कृति के बीच इन शब्दो की सार्थकता आज भी खोजी जा सकती है। सामाजिक एवं पारिवारिक सम्बन्ध
सामाजिक एव पारिवारिक सम्बन्धो को द्योतित करने वाले अनेको शब्द इस
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कोश मे दू हे जा सकते हैं । माता-पिता, भाई-बहिन, पति पत्नी, पुत्र-पुत्री, प्रपौत्र, नववबू इत्यादि शब्द पारिवारिक धारणा कोपुष्ट करने वाले हैं। इस कोश मे माता के लिये अत्ता (1-51) अल्ला, अब्बा (1-5) भादलिया (6-131), पिना के लिए अप्प (1-6), वहिन के लिए अक्का, भाभी के लिए माउज्जा (6-103) तथा वहुण्णी (7-41) पत्नी के लिए वणिया (5-58) वणी (5-62), धार्मिक गृहणी के लिए भावइया (6-104) पिता की बहिन अर्यात् बुप्रा के लिए पुप्फा (6-52), मा की बहिन या मौसी के लिए मालिया (6-131), ज्येष्ठ वहिन के पति (जीजा) के लिए भायो (6-102), मामी के लिए फेलाया (6-85), मम्मी (6-112), मल्लारणी (6-112) तथा माम (6-112), साली के लिए मेहुरिणग्रा (6-148)। देवर के लिए अण्णय (1-55), एक्कघरिल (1-146), दुइमो (5-44) । देवरानी के लिए अण्णी (1-55) | नववधू के लिए अविनज्मा (1-77), कोला (2-33), कुकुला (2-33)। पौत्र के लिए खरहिन (2-72) ।
इन पारिवारिक सम्बन्यो को द्योतित करने वाले शब्दो के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी शब्द आये हैं जिनसे पारिवारिक रीति-रिवाजो पर भी प्रकाश पडता है। वहुमासो 7-46 ऐमा ही शब्द है । इस शब्द का आशय उस कालावधि से है जिसमे विवाह के वाद वर और वधू को मिलकर कही एकान्त मे रहने का अवसर दिया जाता है । अग्रेजी के हनमून' शव्द से इसकी तुलना की जा सकती है। यह कालावधि पूरी की पूरी, वर के द्वारा, वधू की इच्छा पर वितायी जाती थी । वर या दुल्हे के लिये इसमे वरडत्त, 7-44 शब्द मिलता है। विवाह के पहले कुमार युवक के लिए ठ (7-83) पाया है। विवाह के समय वधू रूप में मजी हुई कन्या अइरजुवड (1-48) अोलपणी (1-160) कही जाती थी। श्वसुर के घर ने अपने पिता के घर लौटकर गयी व पथुच्छ्हणी (6-35) कही जाती थी। वव को दोबारा पिता के घर से श्वसुर के घर ले जाने वाला व्यक्ति पाडिअज्झ (6.43) कहा जाता था। वधू की छोटी सास के लिए वहुवा (7-40) तथा ऋतुमती स्त्री के लिए परिहारइत्तिया (6-37) शब्द आया है। पूरे परिवार के लिए पहरण (6-5) शब्द व्यवहत है । एक जगह कुमारी कन्या से उत्पन्न होने वाले अवैध पुत्र को भी चर्चा है उसके लिए ड दमहो' (1-81) शब्द आया है । रहन-सहन रीति-रिवाज तथा वेष-भूषा व खानपान रहन-सहन
'देशीनाममाला' के शब्द एक ऐमे ममाज का चित्र प्रस्तुत करते हैं जो रहनसहन में काफी ऊचा और सम्पन्न मालूम पडता है । इसके शब्द एक ओर यदि
1.
अवन्तिसुन्दरी ने इस शब्द का अर्थ 'कुमारी' क्यिा है न कि कोमार (कमारी से उत्पन्न पुन्न) हेमचन्द्र स्वयं ही वृत्ति (1-81) मे इसका उल्लेख करते हैं।
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[ 107 विलासितापूर्ण रहन-सहन के स्तर को व्यक्त करते है तो दूसरी ओर झोपडियो के दुखी जीवन तथा निम्नवर्ग के अघ पतन युक्त रहन-सहन का भी चित्र उपस्थित करते है । सबसे पहले उच्च रहन-सहन से सम्बन्धित शब्दो का विवेचन उपयुक्त होगा।
उच्च रहन-सहन के लोगो के घरो को आसवरण 1-66 कहा जाता था जो पाराडी 1-75 चित्रो से सजे हुए होते थे। इन वासगृहो मे शयन कक्ष अलग होते थे। इनके लिए ग्रालयण -1-66, पासगो 1-71, सोवरण 8-58 शब्द आये हैं । इन वासगृहो मे सुण्ठप्रकाश व्यवस्था रहती थी, इस बात का सकेत आलीवर्ण 1-71प्रकाशकारक ( पदार्थ विशेष) से स्पष्ट है । इन विलास गृहो के सबसे ऊपरी भाग का कमरा चन्द्रशाला कहलाता था-इसके लिए जालघडिआ 3146 शब्द पाया है। घरो मे खिडकिया होने का सकेत चुप्पाल ग्र 3-17 से मिलता है, पारावारो 6-43 गवाक्ष के अर्थ मे आया है। इन घगे के सामने विस्तृत द्वार होते थे इसका सकेत मित्त 6-110 और भित्तर 6-105-द्वार, शब्दो से मिलता है। इन घरो की सीमा मे फूलो से युक्त छोटे-छोटे उद्यान भी होते थे। इसका सकेत मयड (6-115) तथा वयड 7-35- (बगीचा) से मिल जाता है। इन वासगृहो मे रहने वाले लोग विला. सितापूर्ण जीवन विताते थे। इस बात की पुष्टि विलास सामग्रियो के लिए आये हुए शब्दो से हो जाती है । इन विलास सामग्रियो का उल्लेख इन शब्दो मे देखा जा सकता है
ग्रामलय-67- सज्जागृह, जच्चदरण 3-52- अगरु (एक सुगन्धि द्रव्य-विशेप) मलाकु कु म 6-132- प्रधान कुकुम, लावज 7-21 उशीर या खस, बहू 7-31- एक सुगन्धित द्रव्य, गुप्पत 2-102- बिस्तर या पलग, विभण 7-69- ताकिया, थुड्डहीर 5129- चामर, डोगी 4-13- शरीर को सुगन्धित करने वाला एक द्रव्य, फसल 6-87- शरीर मे लेप करने का सुगन्धित चूर्ण, आदि। इन सभी विलासिता की वस्तुओ के अतिरिक्त इस वर्ग के लोगो मे मद्यपान का भी बहुत अधिक प्रचलन रहा होगा क्योकि मद्य और उससे सम्बन्धित पात्रो तथा व्यापारियो का उल्लेख इस कोश के अनेको शब्दो मे हुआ है । भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्रो और आभूषणो के लिए पाये हुए शब्द भी नागरिको की विलासिता और उनकी समृद्धि का द्योतन करते हैं । इनका उल्लेख आगे एक अलग शीर्षक के अन्तर्गत किया जायेगा ।
__ इन सुसज्जित और विलासितापूर्ण प्रावासो से अलग साधारण जन-वर्ग के रहन-सहन को सूचित करने वाले शब्द भी आये हैं । साधारण रूप से बने हुए घर के लिए घघ 2-105 तथा कुटी के लिए इरिआ'1-80 व चिरिया 3-11 खुल्ल) 2-74 शब्द आये है । एक जगह तम्बू के लिए उल्लोचो 1-98 शब्द भी आया है ।
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घर की देहरी के लिए उम्मरो 1-95, छन के लिए डग्गल 4-8, झोपडियो मे लगने वाले पर्दे को टट्टइमा • टटिया या पर्दा कहा गया है। प्रागन के लिए चउक्क 3-2 पाया है । ये सभी शब्द साधारण लोगो के जीवन क्रम को व्यक्त करने वाले हैं। वेषभूषा और आभूषण
'देशीनाममाला' के शब्द समाज में प्रचलित विभिन्न प्रकार के वस्त्राभूपणो भी उल्लेख करते हैं। इन उल्लेखो को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि तत्कालीन नागरिक जीवन अत्यन्त सम्पन्न और विलसितापूर्ण था। नागरिक जीवन के अतिरिक्त ग्रामीण जीवन भी इस क्षेत्र मे बहुत आगे बढा चढा था। उदाहरण के लिए केश रचना को लीजिए । इसके लिए इस कोश मे कई शब्द प्रयुक्त हुए हैं । इन शब्दो को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उस समय केश विन्यास के कई तरीके प्रचलित थे । सामान्य केश रचना के लिए बब्बरी (6-90). रूखे केशवध के लिए फुटा (6-84), केशो का जूडा वाघने के लिए प्रोअग्गिन (1-172), सीमात पर सुन्दर ढग से सजाये गये केश को कु मी (2-34), रूखे को साधारण ढग से लपेटने के अर्थ मे ढुमतो (5-47), सिर पर रगीन कपडा लपेटने के अर्थ मे अणराहो (1-24), एवं किसी लसदार पदार्थ को लगाकर सिर के अवगु ठन के अर्थ मे रणीरगी (5-31) शब्द पाया है । ऐठ कर वावे गये वालो के जूडे के लिए मउडी (6-117), स्वाभाविक रीति से खुले वालो के लिए लम्बा (7-26), वालो को लपेटकर वावे गये कलात्मक जूड के लिए पामेल (1-62), प्रोडल (1-150) छोटे घु घराले वालो के लिए झटी (3-53) अादि शब्द आये है। इन शब्दो को देखकर उस युग मे प्रचलित रहन-सहन का स्वय ही आभास हो जाता है । केश-रचना मे फूल की मालाओ का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। कई शब्द इस आशय को प्रकट करते हैं । सिर मे बाधी जाने वाली माला के लिए इस कोश मे आये हुए शब्द इस प्रकार हैं – चु चुअ , चु भल (3-16), रसरो? (4-1), माई (6-115), बसी (7-30), वुप्फ (6-74) आदि। इन शब्दो को देखते हुए ऐसा लगता है जैसे समाज रहन-सहन की दृष्टि से अत्यत उच्च स्तरीय रहा हो । आज भी मद्रास मे केशो मे पुष्पमालाए वाधना माघारण रिवाज है । उत्तर भारत मे भी इसके उदाहरण दुर्लभ नही हैं।
वस्त्र-वस्त्रो मे मोटे और पतले दोनो ही प्रकार के वस्त्रो का उल्लेख हुआ है। साधारण रहन-सहन के लोग मोटे वस्त्र तण उच्च रहन-सहन के लोग पतले और 1 'खजुराहो आर्ट' उमिला अग्रवाल, इस पुस्तक मे दिये गये चित्रो मे केश-विन्यास के उपयुक्त
रूपो को खोजा जा सकता है।
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सुन्दर वस्त्र धारण करते रहे होगे । मोटे कपडे के लिए करयरी (2-16) पतले और सुन्दर कपडो के लिए कासिन पोर किण्ह (2-59) शब्द आये है । सिल्क के वस्त्र के लिए किमिहरवसण (2-33) प्रयुक्त हुग्रा है । कई जगह लाख इत्यादि पदार्थो से रगे गये वस्त्रो का भी उल्लेख हुआ है। किमिराय (2-32)-लाख से रगा हुआ वस्त्र, घट्टो (2-11)- लाल कुमुम्भीवस्त्र, पोमर (6-63) - कुसु भी रग का वस्त्र । इसके अतिरिक्त कई प्रकार के वस्त्रो का उल्लेख मिलता है जिनके बारे में स्पष्ट कह पाना बहुत ही कठिन कार्य है ऐसे शब्दो मे औहसिन (1-173), असगय (1-34) टिडिल्लिन (4-10), रिणअसण तथा रिणअषण (4-39), दुल्ल (5-41), माहारयण (6-132), साहुली (8-52), होरण (8-72) आदि । ये सभी वस्त्रो के प्रकार के रूप में उल्लिलित है । इनका स्पष्ट विवेचन अन्य मे कही भी उपलब्ध नहीं है। एक स्थान पर एक शब्द के द्वारा वस्त्रादि को सुगन्वित बनाने वाली किसी मशीन का उल्लेख हया है। उसके लिए सीहलय (8-34) शब्द प्रयुक्त हुआ है । इस तरह की वस्तुए बहुत प्रगतिशील और समृद्ध समाज का चित्र उपस्थित करती हैं । इन विलासिता के द्योतक शब्दो के अतिरिक्त कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनसे तत्कालीन निम्नस्तरीय रहन सहन के लोगो का परिचय मिलता है । इस कोश मे अत्यन्त गरीब जनता द्वारा पहने जाने वाले फटे चीथडे व चिन्दियो लगे वस्त्र का भी उल्लेख है । इसके लिए "डड (4-7)- सुई से सिया गया चीथडा तथा रिंडी (7-5) - चीथडा वस्त्र दो शब्द आये है।"
इन विशिष्ट और सामान्य वस्त्र सम्बन्धी उल्लेखो के अतिरिक्त रित्रयो द्वारा धारण किये जाने वाली विविध वेप-भूपायो का उल्लेख भी मिलता है। पहनावे के वस्त्रो से सम्बन्धित उल्लेखो को देखते हुए ऐसा लगता है जैसे स्त्रिया प्राय. साडी पहना करती थी। साडी की गाठ जिसे "नीवी" कहा जाता है, से सम्बन्धित कई शब्द इस कोश ग्रन्थ मे सकलित है जैसे - उच्चोलो 1-131, अोवड्डी 1-51, जण्हली 3-40, कुऊल 2-38, वजर - 741 ये सभी शव्द स्त्रियो द्वारा पहिने जाने वाले अधोवस्त्र की गाठ के वाचक है। इससे यह सकेत मिलता है कि स्त्रिया प्राय साडी जैसा वस्त्र ही पहनती थी । साडी के नीचे "पेटीकोट' कहे जाने वाले वस्त्र का पहिनना आजकल सामान्य है। इसके भी कई वाचक शब्द इस कोश मे सकलित है। अन्तर केवल इतना है कि शब्दो के माध्यम से जिस पेटीकोट का प्राशय निकलता है वह आकार मे छोटा लगता है और लगभग घुटने तक रहता रहा होगा । पेटीकोट से सम्बन्धित ये शब्द हैं- अवनच्छ 1-12, चिफुल्लणी 3-13, जहणसव 3.45, कूवल 2 43, दुण्णिप्रत्थ 5-43 आदि ।
इन अधोवस्त्रो के विवरण को देखकर ऐसा लगता है जैसे स्त्रिया बिना सिले
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हुए वस्त्रो को ही साटियो के नीचे पह्नती रही होगी । आज भी गांवो की। स्त्रियो के पहनावे मे इन अधोवस्त्री का प्रयाग देखा जा सकता है। वहा-स्त्रिया प्राय: मोटे कपड़े पहनती हैं । जब कभी उन्हें पतले या झीने वस्त्र पहनने पढते हैं वे आज भी नीचे पर्दे के लिए बिना सिले हुए वस्त्रो का प्रयोग "टीकोट" के स्थान पर करती हैं । यह पहले ही बताया जा चुका है कि देशीनाममाला के शब्दो का वातावरण प्रायः ग्रामीण है। ऐसी स्थिति मे बहा उल्लिखित पहनावे का अाज भी ग्रामीण वातावरण में प्रचलित होना श्राश्चर्यजनक नहीं है।
आज भी ग्रामीण स्त्रिया माढी प्रादि अधोवस्त्री को कमर में टिकाए रखने या खोसने लिए तागे की करधनी (मेग्वला) धारण करती है । इस कोश में कई शब्द इम करबनी के वाचक हैं जैसे - प्रतरिज्ज 1-35, दागे 5-38, सपा 8-2 इत्यादि । माही और पेटीकोट के अतिरिक्त स्त्रिया घाघरा और दुपट्टा भी वारण करती थी । इसका सकेत कोश मे सकलित इन दोनो के वाचक शब्दो से मिलता है । घाघरे के लिए घग्घर 2-107 शब्द प्रयुक्त हुआ है । उत्तरीय या दुपट्टा के लिए अहोरण 1-257 शब्द प्रयुक्त हुअा है । उत्तरीय या दुपट्टे के लिए उट तरण 1-1037 श्रोड्ढण' 1-1557 आदि पादो का भी व्यवहार हुग्रा है। स्त्रियों में पर्दा की भी प्रया थी यह “घृघट" के अर्थ में आये हुए कण्णोढिया 2-20 शब्द मे स्पष्ट है । इनके अतिरिक्त स्त्रियो द्वारा घारा किये जाने वाले वस्त्रो मे कठकु ची 2-18 एक ऐसा वस्त्र था जिसे गले में लपेट कर गाटे दे दी जाती थी। यह शब्द उम बम्ब की गाठ के अर्थ मे ही प्रयुक्त हुग्रा है । यह वस्त्र सम्भवत पुरुप भी धारण करते रहे होंगे, परन्तु इसका स्पाट मकेत अन्य मे कहीं भी नही मिलता है । रमाल के अर्थ मे दत्यरो 5-34 गब्द देखकर ऐना प्रतीत होता है जैसे रूमाल का प्रयोग स्त्री और पुष्प समान रूप से करते रहे हो । आज भी माधारण लोग इसे "दस्ती" के रूप में जानते हैं परन्तु यह नाम तो स्पप्ट ही फारसी से लिया गया है।
__ जहां तक पुरुपो के पहनने के वस्त्रो का सम्बन्ध है कोई विशेष उल्लेखनीय शब्द नहीं पाये हैं । पुरुप दाडी मूछ सफाचट रखते तथा मस्तक पर तिलक लगाते ये । इस बात का मकेत शब्दो के माध्यम से मिल जाता है। अवनक्विन 1-40 दाढी मृ छ से सफांचट चेहरा, खड्ड 2-77 तथा मासुरी 7-130 इस बात का सक्त देने वाले शब्द हैं । दाढी मूछे तथा लम्बे-लम्वे वालो के रखने का सकेत भी प्रयुक्त शब्दो के माध्यम से मिल जाता है । मस्तक पर लगायी जाने वाले तिलक के वाचक
1. यवधी तथा हिन्दी की लगभग सभी प्रसिद्ध बोलियो मे यह शब्द आज भी 'योढनी' के रूप में
विद्यमान है।
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6 शर जोटिकरु, टिणी 4-30, हककय - 4-14 इत्यादि । इन सभी शब्दो के प्रतिग्निा पति विशेष या उसकी जाति के परिचय के लिए कुछ विशिष्ट वेए प्रनलिन । गिने देते ही उस व्यक्ति की जाति में परिचय मिल जाता था। पुलिन्द नाम की निमातम कही जाने वाली जानि से सम्बन्धिन व्यक्ति अपने सिर पर हो पनो का पोना पाहिन कर बनता था। इस पत्ते के बने दोनो के लिए कई शब्द प्रना -नी, पनामारमा तथा पत्तपिनालग 6-2 यादि ।
भानूपरा.-गकोण ने प्रगुप्त प्राभूपरणवाची शब्दो को देखते हुए जिस समाज । निरनना वा अत्यन्त पनी पोर उच्च रहन सहन वाला रहा होगा । कोश में प्राये हुए प्राभूपण वाची पद गोर के पनो के प्राचार पर इस प्रकार विवेचित फिले पा सरते हैं।
सिर के प्रारूपए -चकन -3.20, मालयामो 3-5 ये शब्द मिर पर धारण किये जाने याने प्राभूषणो के अर्थ में पाये है। मस्तक पर धारण किये जाने वाले प्राभूपगो के लिए नीमन्तय 8-35 पद पाया है। इसका प्राशय मस्तक पर धारण की जाने वानी वेदी मे है । यह सोने और चाटी दोनो ही की बनती रही होगी । प्राज भी या उन्ही दो घातयो की बनती है । गोठाली - 4-43 आन्द भी सिर पर धारण किये जाने वाले भूपमा केही प्रर्य में प्रयुक हग्रा है परन्तु कोश में प्राप्त विवरण के प्राचार पर इनके स्वस्प और किस धातु से बनता है इस बात का निर्देश प्राप्त नहीं होना । वानवालो 7-59 भी इमी लार्थ में प्रयुक्त हुग्रा है ।
फानो का प्रानुपरण
कानो मे पहने जाने वाले विविध प्राभूषणो से सम्बन्धित कई शब्द इस कोण मे प्राप्त होते हैं जैसे उपआली 1-90 इस भूपण की तुलना आधुनिक हिन्दी की यामीण बोलियो मे कान के प्राभूपण के अर्थ में प्रचलित वाली शब्द से की जा सकती है । दोनो मे मिलने वाला ध्वन्यात्मक साम्य भी इस बात का द्योतन करता है । उग्घट्टी 1-90 शब्द भी इमी अर्थ में आया है। इन दोनो शब्दो का सस्कृत पर्यायवाची शब्द अवतस है। कण्णवाल, कण्णाइन्वण और कण्णग्रास 2-23 शब्द कान मे धारण किये जाने वाले कुण्डल के अर्थ मे पाये हैं। उदाहरण के रूप मे दी गयी कारिका से स्पष्ट है कि इन्हें प्राय पुरुपवर्ग धारण क्यिा करता था । इसी प्रकार और भी कई शब्द कान के प्राभूपण के अर्थ मे आये है- जैसे तलवत्तो 5-21, बद्धयो 6-89 अपुट्ट नामक कर्णाभरण विशेष, वीलयो 6-93 - ताटङ्क नामक कान का पाभूपण, वक्कडवध 7-51 । इन शब्दो के अतिरिक्त शख के बने हुए एक कान के आभूषण का उल्लेख है । इसके लिए सखली 8-7 शब्द प्रयुक्त हुग्रा है।
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गले और वक्षस्थल पर धारण किये जाने वाले प्राभूपण'
"देशीनाममाला" मे सकलित प्राभूपणवाची शब्दो मे इस कोटि के ग्रामूपणो का उल्लेख अत्यन्त स्पष्ट रूप मे हुअा है। गले मे इस कोटि के श्राभूषण पहने जाने के निर्माण में प्रयुक्त होने वाली धातुप्रो का सकेत भी लगभग मिल जाता है । इस कोटि के शव्द इस प्रकार हैं
अझोलिया 1-33-- यह मोती का बना हुआ एक प्रकार का हार होता था जो गले से पहिना जाकर वक्षस्थल तक झूलता रहता था। इसे आजकल बनने वाले मुक्ताहारो के समान ही समझा जाना चाहिए । इसी प्रकार के मोती के हार के लिए एक दूसरा शब्द गेण्हिन 2-94 भी पाया है। मोने की जजीर मे वीव कर व गले मे धारण किये जाने वाले एक प्राभूषण विशेप का उत्लेख चड्डुलातिलय 3-8 शब्द मे हुआ है। पिशेल के अनुसार यह एक रत्न होता था जिसे सोने की जजीर मे बोधकर गले में धारण किया जाता रहा होगा। दण्डी 5-33 से एक ऐसे प्राभूपण का सकेत मिलता है जो सोने के तागों या तारो से बनता रहा होगा परन्तु इस अर्थ से अलग इसे दण्डाकार - दो वस्त्रो को जोडकर सिये गये वस्त्र का वाचक भी माना गया है अत इमे आभूपण की कोटि मे रखते हुए भी हेमचन्द्र सदेह प्रकट कर देते हैं । एक जगह हिंडोल 8-76 शब्द मे कोणकार विविध रत्लो से युक्त माला का उल्लेख करता है जो सम्भवत धनी वर्ग के लोग धारण करते रहे होंगे। एक अन्य शब्द नेज्जल 2-94 भी गले में धारण किये जाने वाले प्राभूपण के अर्थ मे पाया है।
इन प्राभूपणो के अतिरिक्त सामान्य वर्ग के लोग कोडियो तथा साधारण पुष्पो से बनी हुई मालाए भी गले मे पहिनते थे । कोडी से बने आभूषण के लिए इस कोश मे उल्लरय 1-110 शब्द प्राया है। सीमान्त-प्रदेश के वासियो तथा आदिवासियों में इस तरह के प्राभूपणो का आज भी प्रचलन देखा सकता है । पुष्प मालानी के लिए खेली 3-31, परिहच्छी 6-42 दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
इन शब्दो के अतिरिक्त कुछ ऐसे शब्द भी सकलित हैं जो पुस्पो द्वारा धारण किये जाने वाले विशिष्ट प्राभूपणो का उल्लेख करते हैं। ऐसा ही एक अद्भुत प्रामपण मक्कडबध 6-127 है। यह एक प्रकार का मोने का बना हमा जनेऊ होता था जिसे पुष्प वर्ग के लोग (विशेषतया ब्राह्मण) वाये कन्धे के ऊपर
आज भी ग्रामीण जीवन मे विवाह के अवसर धनीवर्ग के लोग वर को सोने का जनेक उपहार में देते हैं । यह उपहार या तो 'वरिच्छा' के अवसर पर दिया जाता है या वर को कन्या के पिता के घर, प्रथम आगमन पर गणेश पूजा (द्वारपूजा) के समय कन्या के भाई और पिता द्वारा वर को धारण कराया जाता है। परन्तु यह प्रथा प्राय मिटती जा रही है।
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[ 113 और दाहिने गन्ने के नीचे धारण करते थे । यह ग्रामपण सभवत अवसर विशेप पर ही धारण लिया जाता रहा होगा। मामान्य दिनो मे ब्राह्मण पुरुष वर्ग कच्चे सुत का बना हमा जनेऊ धारण कर रहा होगा। इस तथ्य का समर्थन तग्ग 5-1 शब्द होता है। कटि पर धारा किये जाने वाले प्राभूषणो मे मणिग्इया 6-126, नपा 8.2, दो शब्द उल्लेखनीय है। इनमे प्रथम विविध मरिण माणिक्यो से सनित मेगना होती होगी जिसे उच्च वर्ग की स्त्रिया या वेश्याए तथा राजनक्रिया घारगा करती रही होगी । सपा साधारण चादी या अन्य धातुप्रो की बनी मेहता कही जा सकती है। सम्भवत इसका प्रयोग साधारण रहन-सहन के लोग कन्ते रहे होगे । हेमनन्द्र द्वारा दिये गये उदाहरण से इसी प्रकार का प्राशय ध्वनित होता है।
हायों को अंगुलियो में धारण किये जाने वाले प्राभूपणो मे अगूठी के लिए कई शब्द प्राये हैं जमे अगुत्यल 1-31, तणय मुद्धिप्रा 4-9 आदि । स्त्रिया कलाइयो मे चूडिया धारण करती थी। इसका सकेत चूडो 3-18 मे मिल जाता है । पावो मे पहने जाने वाले घुघुरुयो के लिए सद्दाल 8-10 तथा सिखल 8-10 दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं ।
प्रामपणो से सम्बन्धित "देशीनाममाला" की उपर्युक्त विस्तृत शब्दावली किसी युग पोर वर्ग विशेष की सस्कृति की ओर सफेत नही करती। इन शब्दो की स्थिति को देखते हुए इन्हे किसी युग या वर्ग विशेष की सस्कृति का परिचायक मानना ठीक नहीं। इनना अवश्य है कि इन्ही शब्दो को आधार बनाकर यदि तुलनात्मक विवेचन के आधार पर अन्य सास्कृतिक शब्दो के साथ मिलाकार देखा जाये तो एक अत्यन्त रुचिकर परिणाम समक्ष आ सकता है। परन्तु प्रमाण के अभाव मे इस क्षेत्र मे कुछ कहना कम से कम इन पक्तियो के लेखक के लिए तो एक असभव कार्य है । यही कारण है कि इन शब्दो का वर्णनात्मक विवेचन मात्र प्रस्तुत करके सतोप कर लिया गया है। सान-पान तथा घरेलू वस्तुएं -
किसी भी समाज के रहन-सहन का स्तर एव उसकी सास्कृतिक ऊ चाई बहुत कुछ उस समाज मे रहने वाले व्यक्तियो के खान पान और घरेलू जीवन मे दैनिक प्रयोग की वस्तुग्रो से ज्ञात हो जाती हैं । यह पहले ही कहा जा चुका है कि "दैशीनाममाला" मे निहित तद्भव तथा देशज शब्दो का वातावरण ग्रामीण है। यहा दैनिक जीवन के प्रयोग योग्य वस्तुप्रो की दी गयी सूची मे से कितने ऐसे शब्द है जो आज भी स्वल्प ध्वनि परिवर्तन के साथ ग्रामीण जीवन मे जैसे के तैसे
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प्रचलित देखे जा सकते है । इस कोश मे निहित इस वर्ग के शब्द हमारे समक्ष जो मास्कृतिक चित्र उपस्थित करते हैं वह आधुनिक समाज के निम्नवर्ग या निम्न मध्यम वर्ग का सास्कृतिक चित्र है । एक बात का निवेदन यहा फिर कर देना उत्रिन समझता हू कि इन शब्दों के प्रावार पर निर्धारित की गयी सस्कृति को किमी युग विशेष से जोडने का प्रयास सर्वथा असभव कार्य है। अब इनका अलग-अलग विवेचन देना उपयुक्त होगा।
खानपान-कोश मे मकलित खाने की वस्तुयो के वाचक शब्द इस प्रकार हैंउहिया 1-88-खीर, यह चावल और दूध के मिश्रण से पका हुआ मीठा भोज्य पदार्थ होता था। आज भी गोवो तथा शहरो में इसका प्रचलन जैसा का तमा है । उहपुल्लो 1-13 यह एक प्रकार की मीठी रोटी होती है जिसे गेहू के आटे मे गुड मिलाकर या महुए का रस मिलाकर तैयार किया जाता है । हिन्दी की बोलियो में इसके लिए "पुया" शब्द प्रचलित है।
प्रोल्लणी-1-54-चीनी और मसाले से युक्त दही । यह एक प्रिय खाद्य पदार्थ था । कक्वसारो तथा कक्वसो 1-14 - पके हुए चावल मे दही और तरह-तरह के मनाले मिलाकर तैयार किया गया खाद्य पदार्थ इन दोनो नामो से पुकारा जाता था ।
कम्घायलो तथा करघायलो -2-22 - फटा हुआ दूध या छाछ-आजकल जिमे "छना" भी कहते हैं । इसे सामान्य वर्ग के लोग मीठे के साथ खाया करते हैं। इससे विने विविध मिष्ठान्न ग्राज भी प्रचलित हैं।
तोतडी या तंतडी-5-4-कढी यह दही और घाटा दोनो को मिलाकर बनाया जाता है। नमकीन खाद्य पदार्थ है। इनका प्रयोग आज भी ग्रामीण जीवन मे विवाह आदि शुभ माने जाने वाले अवसरो पर होता है।
पेंडलो 6-58-यह एक प्रकार का पेय रस होता था। हेमचन्द्र द्वारा दिये गये उदाहरण मे इसका प्रयोग दुग्ध के साथ हुआ है अत. यह पेय मीठा होता रहा होगा।
मंडिल्ली 61117-पाटे की बनी 'ई छोटी और गोल रोटी । इस शब्द का प्रयोग सम्भवतः "भौरी" (अवधी) कही जाने वाली तथा कण्डे की अग पर पकायी जाने वाली मोटी गोल तथा ठोटी रोटी से होगा। कंडे की प्राग का उल्लेख भी एक शब्द कोउया 2-48 मे हुआ है।
मल्लयं 6-145 - एक प्रकार की गोल रोटी जो मभवत. वडी और मोटी होती रही होगी । ग्रामीण जीवन में आज भी ऐसी रोटी के लिए "मलीदा" शब्द प्रचलित है
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[ 115 मेअज्ज- 6-138 - यह शब्द सामान्य रूप से खाद्यान्नो का वाचक है ।
रोह ---7-11 -- यह शब्द चावल के आटे के अर्थ में प्रयुक्त है । "रोटी" माद इसी से विकनित हसा प्रतीत होता है।
लाहण 7-21 - एक भोज्य पदार्थ - यह कोई मृदु भोज्य पदार्थ होता रहा होगा।
वायएं 7151 - उपहार मे दिया गया भोज्य पदार्थ । ग्रामीण जीवन मे आज भी मिली गुभ अवसर के बाद "वायना" वाटा जाता है । इस शब्द का विकास उपर्युका शब्द मे देखा जा सकता है ।
ििलजरा- 7.69 – पश्चान्न विगेप ।
प्रवक्करस ---1-46 - सिरका - यह ईस या जामुन अथवा गुड के रस को मडा कर बनाया हया रम होता है जिसमे, तैयार हो जाने पर ग्राम-कटहल तथा अन्य कच्चे फनो को डालकर भोजन की सहायक सामग्री (तरकारी या चटनी) की तरह प्रयोग किया जाता है ।
पायानो मे चावल के लिए चाउला 3-8, तलप्फलो 5-7, अण 1-5, "चने" के लिए अणुभयो 1-21, ज्वार के लिए जोवारी 3-50, उडद के लिए उडिद 1-98, गेह के लिए उ वी 1-96, हरे “शाक" के लिए माहुर 6-130, "ककडीखीरा" के लिए सीलुट्टय - 8-35 शब्द प्रयुक्त हुए हैं । जगलो से प्राप्त होने वाले कदमून के लिए भी कदी 2-1 तथा ईस के खाने योग्य या चूसने योग्य छोटेछोटे टुकटो के लिए इ गाली 1-79 तथा गडीरी 2-82 शब्द आये हैं । गडीरी तो थोडे स्वर परिवर्तन के साथ "गडेरी" के रूप में आज भी हिन्दी की बोलियो मे प्रचलित है । ब्रजभाषा मे तो यह शब्द लगभग अपने प्राचीन रुप मे ही व्यवहृत होता है।
भोज पदार्थो से सम्बन्धित उपर्युक्त शब्दावली समाज के जिस स्तर का द्योतन करती है वह निम्नवर्ग से ही अधिकाशत सम्बन्धित है। इस तथ्य की पुष्टि "देशीनाममाला" मे पाये हुए “मदिरा" जैसे मादक पेय से सम्बन्धित शब्द भी कर देते हैं । मदिरा और उमसे सम्बन्धित विविध पात्रो का प्राप्त विवेचन, यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि इन शब्दो से सम्बन्धित समाज के लोग अशिक्षित तथा मभ्यता से कोसो दूर रहे होगे । “मदिरापान" और "यू तक्रीडा" दो कार्य ऐसे है जिन्हे समाज मे बडी हेय दृष्टि से देखा जाता है। इन्ही दो निम्न स्तरीय, यदि कहा जाये तो गर्हणीय, कार्यों से सम्बन्धित अनेको शब्द इस कोश मे यत्र-तत्र-सर्वत्र विखरे हुए देखे जा सकते है । अव इनका क्रमिक विवेचन कर देना उपयुक्त होगा ।
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मदिरा-इस कोश मे मदिरा के कई प्रकारो का उल्लेख हुआ है । उनका विवरण इस प्रकार है।
जगल-3-41 गन्दी शराव, कल्ला' तथा कविस 2-2-समवत महुए की शराव । तहरी2 5-2 शब्द भी गन्दी शराब के लिए व्यवहृत हुआ है। दअरी 5-34 तेज शराव । पच्चुच्छहणी - 6-35 – नयी शराव । पिटठखउरा 6-50 - रद्दी और सडी शराव । मइमोहिणी (मति मोहिनी) तथा मई 6-113 - अच्छी और तेज नशा करने वाली मादक सुरा । सविस 8-4 - सुरा।
मदिरा-पात्र-मदिरा वाटने वाले अनेको पात्रो से सम्बन्विन शब्दो का सकलन इस ओर सकेत करता है कि इन शब्दो से समाज मे, 'सुरापान' का विशेष प्रचलन था । इस कोश में उल्लिखित मदिरापात्र इस प्रकार हैं--
आबरेडया 1-71, उवएइमा 1-118, परिणमा 6-3 ये तीन शब्द सुरा वाटने के बर्तन के अर्थ मे प्रयुक्त हुए हैं। टोक्करण 4-4, पारक 6-41 तथा पारय 6-38 सुरा नापने के वर्तन बताये गये हैं । खड 2-78 तया वारो 7-54 सुरापान करने के पात्र के रूप में उल्लिखित हैं।
सुरापान से सम्बन्धित इन शब्दो के आधार पर एक ऐसे समाज का चित्र उपस्थित होता है, जहा के लोग सामाजिक सभ्यता से कोमो दूर रहकर आदिमवासियो का सा असभ्यतापूर्ण जीवन बिताते रहे होंगे। 'देशीनाममाला' का शाब्दिक वातावरण सम्पूर्ण रूप से ऐसे ही समाज का चित्र भी उपस्थिन करता है, जिसका निवामी अत्यन्त कामुक, लम्पट, जुपारी तथा प्रावरण भ्रष्ट रहा होगा। जब तक इन शब्दो की ऐतिहासिकता का पता नहीं चलता कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। परिणाम के रूप मे इतनी ही सम्भावना की जा सकती है कि आज की ही भाति प्रत्येक युग मे एक ऐसा वर्ग रहा है जो सामाजिक सभ्यता से कोसो दूर रहकर गन्दा जीवन विताने मे ही आनन्द प्राप्त कर रहा है। ये शब्द किसी सम्पूर्ण समाज का न सही उसके एक अश निम्नवर्गीय समान का चित्र उपस्थित करने मे तो समर्थ है ही।
1. महुए की शराव का व्यापार करने वाले आज भी 'कलार' या 'कलवार' कहे जाते है। इस
नवीन जातीय नाम का विकास सम्भवत 'कल्ला'- महुए को शराव का व्यापार करने के कारण ही हुना होगा । यह जाति नाजकल भी कहीं कही अपने व्यापार को प्रारम्भ किये हुए हैं। हिन्दु जाति व्यवस्था के अन्तर्गत इसे अस्पृश्य जाति माना गया है। 'तहरी' शब्द अवधि मे देर तक आग पर चढाये रहने वाले वर्तन के लिए माता है। इसका प्रयोग व्यंजना से देर तक पकने वाले और गन्दे भोजन के अर्थ मे होता है। शराब बनाने की प्रक्रिया भी काफी लम्बी होती है। इनके वर्तनो को दो दो तीन-तीन दिन तक बाग पर चढाये रखा जाता है।
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[ 117 यू त क्रीडा
नुरा से सम्बन्धित शब्दो की भाति इस प्राकृत कोश मे चू त-क्रीडा से सबधित पाव्दो की भी कमी नहीं है । इन शब्दो का क्रमिक उल्लेख समीचीन होगा। अबेट्टी 1-7, ग्राऊडिग्न 1-68, ग्राफरो 1 - 63, ऊया 1-139, प्रोक्काणी 1-59 ये शब्द धन कीडा के लिये व्यवहन है। तनोडा के अलग-अलग अड्डे होते थे। इसका मकेत टेंटा 4-3 (जूप्राघर) शब्द के प्रयोग से मिलता है । सकलित शब्दो को देखते हए ऐसा लगता है जैसे यह कोई निपिद्ध व्यापार न रहा हो । स्वतत्र जुया घरो और उनके मालिको' के उल्नेल इस तथ्य की पुष्टि करते है। एक जगह कत्ता (2-1) जुए मे पेली जाने वाली कोने का उल्लेख देसकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोडी से ही जुना खेलने का प्रचलन अधिक रहा हो । अाज भी ग्रामीण जीवन मे यह कोडी में खेला जाने वाला जुया - हजारो घरो को तबाह कर देता है । मद्यपान और यू त क्रीडा से सम्बन्धित उपर्युक्त शब्दावली, इन शब्दो का प्रयोग करने वाले वर्ग के लोगों के रहन-मन तथा प्राचार विचार को रपष्ट करने मे सर्वथा समर्थ है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि "देशीनाममाला" सकलित, खान-पान का द्योतन करने वाली शब्दावली प्राधुनिक ग्रामीण जीवन के स्तर से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। भारत जैसे विस्तृत राष्ट्र मे जहा अनेको सुसस्कृत जातिया रहती हैं, इनके बीज आज भी खोजे जा सकते है । भारत मे अनेको ऐसे रहन-सहन के लोग मिलते है जिनकी तुलना इस कोश मे सकलित शब्दो के वातावरण से अच्छी तरह की जा सकती है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि इन शब्दो का सम्बन्ध समाज मे युग-युगो से रहती पायी निग्नवर्ग और निम्न मध्यम वर्ग की जातियो से है। घरेलू वस्तुए
___ 'देशीनाममाला' की गृहस्थी से सम्बन्धित सामान्य शब्दावली अधिकाशत ग्रामीण जीवन से ही सम्बन्धित है। इसमे अनेको शब्द तो ऐसे हैं जिनका प्रचलन आज भी उसी रूप मे और उसी अर्थ मे होता चला आ रहा है। इन शब्दो की अपरिवर्तित विकासमान अवस्था को देखते हुए इन्हे भी किसी युग विशेष से सवद्ध कर पाना एक अत्यन्त दुरुह कार्य है। कोश मे आयी हुई घरेलू वस्तुओ से सम्बन्धित शब्द इस प्रकार है
- घरो मे प्रयुक्त होने वाली सूर्पादि सामान्य वस्तुप्रो के लिए यहा अवठ्ठस 1-30 शब्द व्यवहृत हुआ है । इसके अन्तर्गत धातुयो के बर्तन आदि भी आ जाते है।
1. डभिओ 4 8, पाउग्गिो 6-42 तथा पाउग्गो 6 41, शन्द जाधर के मालिक के अर्थ में
सकलित हैं । इनका उल्लेख इसी अध्याय के प्रारम्भिक अशो मे किया जा चुका है।
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1187 ग्रामीण जीवन के लोग श्रमजीवी होते हैं। बहुत प्राचीनकाल से ही वे अपनी गृहस्थी में प्रयोग योग्य वस्तुओं को स्वय ही तैयार करते रहे हैं। उनके जीवन मे मशीनो को बहुत कम स्थान मिला है। खाने-पीने की वस्तुप्रो को तैयार करने में वे तरह-तरह के उपकरण प्रयोग मे लाते हैं । ऐसे कुछ उल्लेखनीय उपकरण इन प्रकार हैं
प्रवहडं- 1-32- मूसल-यह लकडी का बनता है । इसके निचले किनारे पर लोहे की साम (कची-2-9) लगी होती है । यह ध्यान की कुटाई मे काम आता है, कुटाई में एक और भी उपकरण की आवश्यकता पडती है जिसे 'काडी' कहते हैं । यह पत्थर' या लकडी की बनती है । इस कोश मे लकडी की बनी हुई 'काडी' के लिए प्रायर -1-74 शब्द प्रयुक्त है। इन दो उपकरणों के अतिरिक्त कुटाई मे काम पाने वाला एक अन्य उपकरण 'रोखली' है। इसके लिए यहां उक्वली 1-88 शब्द पाया है । यह शब्द थोडे ब्वनिपरिवर्तन के साथ अाज भी प्रचलित है। इनी तरह गन्ने और तल की पेराई में काम आने वाला उपकरण कोल्हुमो 2-65- कोल्हू है । यह प्राय पत्थर का होता था। यह शब्द भी 'कोल्ह' के रूप मे थोडे ध्वन्यात्मक परिवर्तन के साथ ज्यो का त्यो उनी अर्थ मे प्रचलित है।
अन्य घरेलू वस्तुत्रो मे क्दारी 2-4- छुरी, कडच्छु 2-7- करछुल, कडतला2-19- हंसिया (अनाज की फसल आदि काटने मे काम आने वाला अर्द्धचन्द्र आकृति का लोहे का बना हुप्रा उपकरण विशेष), कडनर -2-16 पुराने भूप आदि उपकरण कडमग्र -2-20- एक वर्तन, कमढ 2-55- दही रखने का पात्र कमणी -2-8- मीढी करल -2-4- पानी का बर्तन, कलवू 1-12- लोकी का वर्तन, कोडिन -2-47- छोटा करवा ( इसे अववी में 'परई' भी कहते हैं -यह मिट्टी की बनायी जाती है ) गायरी, गोपा तथा गरगरी 2-99- गगरी (मिट्टी का बडा- जो आज भी गावो मे पीने का पानी रखने और अनाज इत्यादि भर कर सुरक्षित रखने के काम मे आता है) गोली 2-95- मथानी- यह लकडी की बनायी जाती है और छाछ विलोने के काम मे आती है, दुवो -4-11- नारियल का बना हुया पात्र-यह पात्र बड़े वर्तनो मे मे दही और मा प्रादि द्रव पदार्थों को निकालने के काम में आता है 'अवधी' में इसे 'नरियरी' कहा जाता है, वेंकी-4-15- ढंकी-यह लकडी के लम्बे ठोस पटरे से बनाया गया यत्र विशेप होता है। इसकी तुलना 'मो-मा' से की जा सकती है। इसे धान कूटने को काम में लाया जाता है। शब्द को देखकर ही पता चल जाता है कि इसमे किसी भी प्रकार का भाषा वैज्ञानिक परिवर्तन नहीं हुआ है। यह ज्यो का त्यो अपने प्राचीन स्वरूप और अर्थ मे आज भी व्यवहृत होता है । लिच्ची 4-44 पानी निकालने की
1. पत्यर फी बनी हुई काही के लिए नवो वया अवजण्णो 1-26, दो शब्द व्यवहृत हुए हैं।
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[ 119 ची -इमे रहर' भी कहते है। गावों में यह मिचाई का आमान और बहुप्रचलित उपकरण है।
दुपकुपरिणा-5-48- उगालदान, दुद्धिणिया - 5-54 तेलहडी (मिट्टी की बनी हुई तेल रखने की हाडी), पच्चूढ तथा परियली 6-12- थाली पोत्ती -7-70- शीशा या कार, बोहरी -6-97- झाडू, पूरण 6-56- सूप ।।
इन नित्य प्रति की प्रयोग योग्य घरेलू वस्तुप्रो के अतिरिक्त कुछ गृह उद्योगो से सम्बन्धित शब्द भी आये हैं । ऐसे उद्योगो मे कपडा बुनना और लोहे के छोटे-मोटे काम प्रादि है । कपडे की बुनाई से सबद्ध-पूरी 6-56- जुलाहे का यत्र, ततुक्खोड्डी 5-7- कपडा बुनने की मशीन का एक यंत्र विशेष, पलस 6-70- कपास का फल, पलही 6-4 सई इत्यादि शब्द कहे जा सकते है । एक जगह पूणी 6-56- पूनी (रूई की बनी हुई) का उल्लेख देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे हाथ से सूत कातने का कार्य भी लोग बहुत पहले ही से जानते रहे हो। इस शब्द का सबध तत्कालीन गुजरात के जीवन मे भी हो सकता है। गावी जी ने इस कला पर बहुत जोर दिया था इसका कारण, हो सकता है-गुजरात के जन-जीवन मे प्रचलित इस व्यवसाय की प्रसिद्धि ही रही हो। लोहे के धन्धे से सम्बन्धित पवद्ध 6-11- लोहे का धन शब्द पाया है। सामाजिक उत्सव एव खेलकूद
'देशीनाममाला' मे विभिन्न सामाजिक उत्सवो से सम्बन्धित कई शब्द आये है। ये उत्सव अपने आप मे बहुत वडी सास्कृतिक महत्ता छिपाये हुए हैं। आषाढ मास मे गौरी पूजा के अवसर पर होने वाले उत्सव को भाउ 6-103, श्रावणमास मे शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को होने वाले उत्सव को वोरल्ली 7-18, भादो मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाये जाने वाले उत्सव को डुरिया 4-45, कार्तिक के कृष्ण पक्ष मे सम्पादित होने वाले महोत्सव को महालक्खो 6-127, कातिकमास की शरत्पूर्णिमा पर होने वाले उत्सव को पोग्रालयो 6-18! कहा जाता था । इस उत्सव के अन्तर्गत पति-पत्नी के हाथ से मीठे 'पुयो' का भोजन करता था । माघ के महीने मे एक उत्सव मनाया जाता था जिसमे ईख की दातून की जाती थी। इसे अवयारो (1-32) कहा जाता था, वसतागमन पर होने वाले उत्सव को फग्ग (6-82) कहते थे। एक अन्य उत्सव पर नव दम्पत्ति एक दूसरे का नाम लेते थे इसे लय (7-16) कहा जाता था। एक ऐसे उत्सव का उल्लेख हुआ है जिममे तमाम स्त्रियां एकत्र होती थी। इनमे से प्रत्येक अपने पति का नामग्रहण करती थी, जो स्त्री अपने पति का नाम न ले पाती थी उसे सभी मिलकर पलाश की डाली से पीटती थी। इस
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उत्सव के लिए णवलया (4-21) शब्द पाया है ।।
इस कोश मे सकलित कुछ रीति-रिवाज सूचक शब्द भी उल्लेखनीय हैं। एमिणिया (1-145) शब्द ऐसी स्त्री का वाचक है, जो अपने शरीर को सूत से नाप कर उस सूत को चारो दिशामो मे फेंकती है। यह सम्भवत किमी प्रकार की अभिचार क्रिया रही होगी जिसे करने वाली स्त्री समाज मे अत्यत पतित समझी जाती रही होगी । आणदवडो (1-72) शब्द का अर्थ है जिसका विवाह छोटी अवस्था मे हो जाय, वह स्त्री जव प्रथम वार रजस्वला हो उसके रजोलिप्न वस्त्र को देख कर पति या पति के अन्य कुटुम्बी जो प्रानन्द प्राप्त करते हैं, वह आनन्द इम शब्द से व्यक्त होता है। खिखिरी और झज्झरी ( क्रमश: 2-73 और 3-34) शब्द ऐसी छडी के वाचक हैं, जिसे चाण्डाल कहे जाने वाले व्यक्ति अपनी अस्पृश्यता का सकेत करने के लिए, लिये रहते थे । इसी प्रकार 'शवर' जाति के लोग अपने सिर पर पत्ते का दोना (टोपी की भाति) रखकर चलते थे इसके लिए ईसिग्र (1-84) शब्द व्यवहृत हया है। पुलिन्द जाति के लोग भी इसी प्रकार का दोना सिर पर रखकर चलते थे । इनके सिर पर रखे हुए दोने के लिए पत्ती, पत्तपसाइपा, तथा पित्तपिसालस (6 -2) तीन शब्द आये हैं।
इस प्राकृत कोश मे कुछ खेलवाचक शब्द भी सकलित हैं। इन शब्दो से उस काल के खेल विपयक मनोरजन के साधनों पर पर्याप्त प्रकाश पडता है । श्राखो को थका देने वाले फिर भी अत्यत प्रिय लगने वाले खेल को गदीणी (2-83) कहा गया है । लुकाछिपी के खेल के लिए प्रोलु की (1-153) शब्द आया है। ऊना-पूरा या मुट्ठी मे पैसे लेकर अन्य व्यक्ति से उसकी सम या विषम संख्या के बारे मे पूछना अ वेट्टी (1-7) कहलाता था । एक पैर से चलने वाले खेल को हिचय तथा हिविन (6-68) कहा गया है।
इन विभिन्न उत्सवो और रीति-रिवाजो से सम्बन्वित शब्दो को देखकर जिस सास्कृतिक चित्र की कल्पना मस्तिष्क मे उभरती है- वह प्राचीनकाल से प्रचलित विभिन्न सस्कृतियो का मिश्रण मात्र है। आचार्य हेमचन्द्र ने इस कोश का सकलन
1. इमी उत्सव से मिलता जलता उत्सव भादो के महीने में कजरी तीज के अवसर पर अव भी
सम्पन्न होता है। उत्तर-प्रदेश के पूर्वी जिलों में इस दिन ससुराल से लौटकर आयी हई नवविवाहित कन्याए अपने पतियों का नाम लेती हैं। परन्तु इसमे मार-पीट जैसी कोई बात
निहित नहीं होती। 2. 'पुलिन्द' जाति अत्यत प्राचीन है। 'शुन शेप वाख्यान में (जो कि ब्राह्मण साहित्य का
प्रसिद्ध और प्राचीन आख्यान है) इन्हे विश्वामित्र के निष्कासित पुत्रो के रूप में उल्लिखित किया गया है । सास्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से यह शब्द इस कोश के शब्दो की प्राचीनता सिद्ध करने को पर्याप्त है।
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[ 121 12 वी सदी मे किया है । वे एक अद्भुत अध्ययनशील ऋषि थे । उन्होने इन शब्दो के सकलन मे अवश्य ही निम्न वर्गीय संस्कृतियो से सम्बन्धित ग्रन्थो का अध्ययन किया होगा । ऐसे ग्रन्थ आज उपलब्ध नही हैं। ऐसी स्थिति मे निष्कर्ष रूप में केवल यही कहा जा सकता है कि इन शब्दो मे 12 वी सदी की गुजरात के निवासियो की निम्नवर्गीय सस्कृति के साथ ही उनसे भी प्राचीन काल से प्रचलित एव परम्परा से प्राप्त सस्कृति के अनेको शब्द हैं। पीछे 'पुलिन्द' जाति के उल्लेख के साथ ही यह बताया जा चुका है कि यह जाति उत्तर वैदिक काल से, उल्लेखो मे मिलने लगती है । इसी तरह इससे भी प्राचीन जातियो की सास्कृतिक शब्दावली युग-युगो से जनभापामो मे मिलती रही है जिसका ऐतिहासिक क्रम से कही उल्लेख न प्राप्त होने के कारण कुछ निश्चयपूर्वक कहा भी नहीं जा सकता । ऐसे ही अनेको प्राचीन एव तत्कालीन गुजरात के निम्न वर्गीय रहन-सहन और रीति-रिवाजो से 'देशीनाममाला' के इन शब्दो को सवद्ध किया जा सकता है। इस कोश के शब्दो की बहुत बड़ी मात्रा समाज मे प्रचलित टोने टोटके, तथा विविध क्लिष्ट साधनामो से सबधित हैं। इसके अतिरिक्त अनेको शब्द समाज की उन्मुक्त कामुकता, विविध रत्यादि क्रियानो तथा दुराचारो को व्यक्त करने वाले हैं। इन सभी बातो को देखते हुए इन शब्दो के वातावरण की तुलना यदि अथर्ववेदीय शब्दो के वातावरण से की जाये तो दोनो मे बहुत कुछ समानता मिलती है । सक्षेप मे यह कहा जा सकता है कि ये शब्द बहुत प्राचीन काल से परम्परा मे विकासमान अधिकाशत निम्नवर्गीय संस्कृति के द्योतक है। इस कथन की पुष्टि प्रागे विवेचित धार्मिक शब्दावली से भी हो जायेगी। धार्मिक प्राचार-विचार और देवी-देवता :
'देशीनाममाला' के विशाल शब्द भण्डार के बीच कुछ शब्द धार्मिक रीतिरिवाजो और विभिन्न देवी-देवताओ के वाचक हैं। इस प्रकार के शब्द किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित नहीं है अतः इनके आधार पर किसी विशिष्ट समाज का प्रारूप नही खडा किया जा सकता । कही शैव धर्म के वाचक शब्द है तो कही जैन धर्म के । इसी प्रकार कही शाक्त देविया हैं, तो कही पुराणो मे अत्यन्त प्रसिद्ध विष्णु, ब्रह्मा, गणेश, काम' प्रादि देवता हैं। इस कोटि के शब्दो मे अधोलिखित देवता विशेषतया उल्लेखनीय हैं ।
प्रेम के देवता काम के लिए कई शब्द हैं जैसे - ईसरो 1-84 ऊसण1-139, कतू 2-1, कुरुकुरिन 2-42, मुरुमुरिन 6-135, मम्मणो-6-141,
1. 'देशीनाममाला' की देवताओ से सम्बन्धित शब्दावली मे 'काम' से सम्बन्धित शब्दो की
भरमार है। यह देवता निम्न चित्तवृत्ति वालो के लिए ही विशेष पूज्य होता है।
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_122 ] मयरिणवासो 6-126 ग्रादि । शैव कापालिक के लिए अगहण 1-82 तथा शिव भक्तो के लिए बंगच्छा 7-39 शब्द पाये हैं । ये दोनो शब्द इस तथ्य का उद्घाटन करते है कि समाज मे पौराणिक त्रिदेवो (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) मे सृष्टि का सृजन एव कल्याण करने वाले शिव तया शक्ति के अधिष्ठाता रुद्र रूपी शिव, इन दोनो ही रूपो की उपासना का प्रचलन था। शिव के रुद्र 1 रूप के लिए सिढत्यो 8-31 शब्द व्यवहृत हुया है । शिव पुत्र कार्तिकेय और गणेश के लिए क्रमश. च उक्करो 3-5 तथा हैरिवो 8-72 प्रयुक्त हुए हैं ।
ब्रह्मा के लिए थेरो 5-29 पसेवनो 6-22 तथा विसारी 7-62 तीन शब्द सकलित हैं। इनमे विसारी शब्द कमल पर ग्रामन लगाकर बैठे हुए ब्रह्मा का वाचक है । यह शब्द तद्भव है । विश का अर्थ कमलनाल होता है ।
विष्णु के लिए इस कोश मे एक्खत्तणोमि 4-22 भट्टियो 6-100 तथा सुवष्णविन्द 8-40 शब्द आये हैं ।
इन्द्र के लिए घणवाही 2-107 और इन्द्राणी के लिए धु धुमारा 5-60 तथा इन्द्र के पुत्र जयत के लिए पइहनो 6-19 शब्द प्रयुक्त हुया है। इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए एक उत्सव का भी उल्लेख है जो सम्भवत वर्षाकाल मे वृष्टि न होने के कारण किया जाता रहा होगा । इस उत्सव के लिए इ दड्ढलो 1-82 शब्द प्राया है।
प्रसिद्ध वैदिक देवता वरुण को जल के देवता के रूप मे उल्लिखित किया गया है । मिगो (8-31 ) तथा सुरजेठो और फेणववो फणडो 6-85 - ममुद्र और पश्चिम दिशा के देवता वरुण । कृष्ण के बड़े भाई बलराम का वाचक शब्द उसणसेणो - 1-118 है।
देवियो मे चामुण्डा के लिए रिणम्मसा 4-35, दिबासा 5-39, चण्डी या दुर्गा के लिए सूलत्यारी (शूलवारिणी या शूलधरी), चन्द्रमा की स्त्री के लिए माणमी 6-147 शब्द सकलित है । एक स्थान पर देवमाताओ के लिए छाइयो 3-26 शब्द व्यवहृत हुआ है ।
इन देवतापो से अलग मनुष्यो को विविध प्रकार की वावाएं पहुँचाने वाले राक्षसो तथा भूत प्रेतो एव पिशाचिनियो का भी उल्लेख कई शब्दो मे हुया है। इन वाधक राक्षसों मे राह के लिए कई शब्द आये हैं जैसे अन्भपिसानो 1-42 गहकल्लोलो 2-86, सिंधुग्रो 8-31 तया पिशाच के लिए ढढरो तथा ढयरो
1. रुद्र के लिए दूसरा व्यवहृत शब्द 'पहरगो' 6-23 है।
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[ 123 4.16. गिडो 4-25 परेप्रो 6-12, मरुनो 6-114 । असुर या राक्षस के लिए पुरिल्नदेवो 6-55, जग्गोहणो 3 43 । दानव के लिए अयक्को, प्रयगो 1-6 । प्रेतिनी के लिए उग्ररी 1-981 डाकिनी के लिए सेग्रणिया 7.12 तथा लामा 7-21 ।
"देशीनाममाला" का एक गन्द अत्यत चौका देने वाला है । धम्मो5-63 । ऐने पुरुष के वाचक शब्द के रूप मे यवहन हुआ है जिसे चामुण्डा को पनि दी जाने वाली है। यह शब्द भारत में बत प्राचीनकाल से प्रचलित नर बलि फा मकेत देने वाला है । प्रायनर जातियो द्वारा प्रतिपादित विशिष्ट धार्मिक प्रनु उपनो में नरबलि दी जाती थी, इसके अनेको प्रमाण ढू ढ जा सकते है । यह मन्द भी इस कृत्य की प्रामाणिकता को द्योतिन करने वाला है ।
ऊपर उल्लिवित बाधक दुप्टात्मानो तथा बुरे ग्रहो से सामान्य रूप से लोग भयभीत रहते थे- इसका नकेन अहिमिय 1-30 में मिलता है । इसका अर्थ प्रेत या ग्रह वाघालो ने उर कर रोना है ।
धार्मिक जीवन को अभिव्यक्ति देने वाले अन्य शब्द इस प्रकार हैं -ऐराणी 1-47 - भक्ति में लगी हुई स्त्री। कन्दल 2-4 - कपाल । करक - 2-17 भिक्षा पात्र । चोरली - 3-19 - श्रावण कृष्ण चतुदर्शी को किया जाने वाला व्रत विशेष । छिप्पती, छिप्पटी 3-37 - एक धार्मिक व्रत। दुक्कर - 5-42 - माय के महीने में बहत प्रात ही किया जाने वाला धार्मिक स्नान । भूअण्णो - 6-107 - जोते हए खेत मे किया जाने वाला यज्ञ। महालवक्खो -6-127 -क्वार का श्रादृपक्ष । जनवरत्ती (यक्षरानि), 3-43 - दीपावली का त्यौहार । मायदी 6-129 - श्वेतवस्ना सन्यासिनी ।। वत्यी 7-31 आश्रम । विडकिया - 7-67यज्ञ-वेदी । सण्णोज्झो 8-6 - एक यज्ञ विशेप इसका अर्थ धन के अधिपति कुबेर का नेवक भी है । हो सकता है यह यज्ञ भौतिक समृद्धि (धन-धान्यादि) के लिए किया जाता रहा हो । सारी - 8-22 - ऋषिपीठ - यह ऋपियो के रहने और अध्ययन अध्यापन तथा धार्मिक चिन्तन का स्थान रहा होगा । साइन - 8-25 - सस्कार या शिक्षा । अाज भी कोई शुभ कार्य करने के पहले या यात्रा पर जाने के पूर्व किसी ज्ञानी से लोग “साइत" पूछते है। इन दोनो शब्दो मे थोड ही अर्थ परिवर्तन के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है ।
1. इस शब्द का व्यवहार सम्गवत श्वेताम्बर सप्रदाय मे दीक्षित जैन धर्मावलविनी महिला के
लिए किया जाता रहा होगा।
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धर्म के क्षेत्र मे पूजागृहो और मन्दिरो का बहुत महत्त्व रहा है। इस कोश मे मन्दिरो के वाचक कई शब्द संकलित है। पीयारो 4-41 ~~ एक खुला हुआ देव गृह या मण्डप । अहिहर 1-57 ~~ मन्दिर, वयण 7-85 तथा साण र 8-24 शब्द भी मन्दिरवाची हैं। इन मन्दिरो मे प्रतिमा की पूजा होती थी। प्रतिमा के लिए ठविया - 4-5 शब्द मकलित है । हेमचन्द्र के समकालीन गुजरात के लिए देवमन्दिरो की स्थिति साधारण बात है। साहित्य और कला
साहित्य और कला किसी भी समाज या जाति की सस्कृति के श्रेष्ठ प्रतिमान हैं । प्राचार्य हेमचन्द्र गुजरात जैसी ममृद्ध विद्या-भूमि मे उत्पन्न हुए थे वहीं शिक्षा ग्रहण की और वही अपने सुदीर्घ कार्यकाल का यापन किया । हेमचन्द्र के समय का गुजरात साहित्य और कला की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध था । उसकी इस समृद्धि का द्योतन आचार्य हेमचन्द्र और उनके समकालीन प्राचार्यों ने अपने ग्रन्थो मे भली-भाति किया है। जहां तक देशीनाममाला मे सकलित इम कोटि के शब्दो का सम्बन्ध है एक बार फिर अत्यन्त खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि इनसे किसी युग विशेप के ममाज विशेष या जाति विशेप की मस्कृति का द्योतन नहीं होता अपितु ये समाज में रहने वाली शिष्ट तथा अशिष्ट-शिक्षित तथा अशिक्षित दोनो वर्गों की सस्कृति का द्योतन करते हैं ।
साहित्य और कला से सम्बन्वित "देशीनाममाला" के शब्दो मे ज्योतिष, गणित, काव, माहित्यिक चर्चा, जादू टोना, नृत्य, गीत, वाद्य आदि से सम्बन्वित शब्द उल्लेखनीय हैं। इनका ऋमिक उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है - एक स्थान पर पामोरयो (1-66) शब्द पाया है इसका तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो अपने विषय का विशेषज्ञ हो। पत्तट्ठो (6-69) शब्द भी बहुशिक्षित या विशेषज्ञ का ही अर्थ देता है। इस प्रावार पर कहा जा सकता है कि अगल-अलग विद्यायो के अलग-अलग विशेपन होते रहे होंगे। इन विशेपनो के बीच आपसी विमर्श करने के लिए की जाने वाली समा या गोष्ठी के लिए घडिअघडा और घडी (2-105) दो शब्द पाये हैं। समाज में प्रचलित भिन्न-भिन्न विद्याप्रो के बीच ज्योतिप का विशिष्ट महत्त्व रहा होगा। इसमे सम्बन्वित शब्दो मे गण्यमहो (2-86) - विवाह गणना करने वाला ज्योतिपी उल्लेखनीय है । एक स्थान पर ग्रहपरिवर्तन का उल्लेख हुया है इसके लिए हत्यिवनो - (8-63) शब्द प्रयुक्त हुया है। गणितशास्त्र से सम्बन्धित दो शब्द पत्रावाण्णा पण्णव (6-27) - 55 की गिनती तथा कोण (2-45) -8- एक रेखा के अर्थ मे प्रयुक्त हुआ है । जहिमा
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[ 125 (3-42) एक ऐने विदग्ध पुरुष का वाचक है जो गाथाए रचने मे (पद्य रचना मे) अत्यन्त पटु हो । गीत के लिए उन्बाउल (1-34) तथा उच्च स्वर मे किये जाने वाले गान के लिए प्रोहीरित्र (1-163) शब्द व्यवहृत हुए हैं रासनृत्य के लिए कुद्दणो' (2-38) नया गाधारण नृत्य के लिए तद्दियचय (5-8 ) शब्द आये हैं । घु घरू के लिए णिग्रन (4-28) म प्रयुक्त है।
"जीनाममाना" में वाद्य यनगो से सम्बन्धित शब्दो की भरमार है । ये वाद्ययन्म अलग-अलग नामाजिक अवसरो पर प्रयोग किये जाने वाले तथा भिन्न धातुरो बोर प्राकृतिक बनम्पतियो की महायता से बनाये जाते थे । इन वाद्य यत्रो मे निम्नलिखित विशेष रूप ने उल्लेखनीय है - ढोल के लिए भभा (6-100), झुख या काम के लिए झपो (3-58) तथा तुगाग्रो (5-15), एक विशेष प्रकार की चीणा के लिए टपरी (4.14), मुख मे बजाये जाने वाले तथा तृण (नरकुल श्रादि) ने बनने वाले वाद्य के लिए पिंगुती और पिहुल (6-47), दुर्दरक नामक वाद्य के लिए वाय उघडो (7-61) ग्रादि शब्द सकलित है। कुछ ऐसे भी वाद्य यत्रो के वाचक शब्द है, जिनके स्वरूप के बारे में कुछ भी निश्चय पूर्वक नही कहा जा मयता । ऐसे शब्दो मे पिहण्डो (6-79), लुरणी (7-24) आदि उल्लेखनीय है । बच्चे के जन्म अवसर पर वजाये जाने वाले वाद्य के लिए थेवरिन (5-29) शब्द सग्रहीत किया गया है।
इन शब्दो के अतिरिक्त इस प्राकृत-कोप में ज्ञान-विज्ञान से सम्बन्धित शब्दो का भी प्रभाव नहीं है । वोउप्क तथा वनोग्रत्थ (7-50 ) - विपवत रेखाभूगोल के शब्द है । गणित से सम्बन्धित शब्दो का उल्लेख पहले किया जा चुका है । इसी प्रकार प्राकृतिक वस्तुग्रो पशु-पक्षियो तथा अन्य सासारिक वस्तुप्रो के ज्ञान की सूचना इन शब्दो के माध्यम से मिलती है। एक स्थान पर सेमल की रूई से स्त्री प्राकृति (गुडिया) के निर्माण का सकेत एक्कसिवली (1-146) शब्द मे मिलता है। इसी प्रकार कीमती पत्थरो को शान पर चढाकर उन्हे तरासना और उनसे विविध मूल्यवान वस्तुप्रो के निर्माण का भी सकेत प्रोप्पा 1-148 शब्द मे देखा जा सकता है।
"देशीनाममाला" मे सकलित "साहित्य और कला" से सम्बन्धित शब्दा. वली यद्यपि अल्पमात्रा मे है । फिर भी जितने शब्द मिलते है उनकी अपनी विशिष्ट
1. हिन्दी 'कूदना' क्रिया का विकास इस शब्द मे देखा जा सकता है। रासनृत्य मे होने वाले
त्वरित अगसचालन और पावो के पटक ने तथा उछलने कूदने के कारण ही इस नृत्य का यह नाम पडा होगा । आज भी रासनृत्य मे यही क्रिया प्रधानतया देखी जाती है।
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126 ] सास्कृतिक महत्ता है । अाज भी यदि इन शब्दों का विकास विभिन्न प्रान्तीय संस्कृत तियो की शब्दावली मे खोजा जाय तो अवश्य ही कही न कहीं प्राप्त हो जायेंग । विपय विस्तार के कारण यहाँ इन मास्कृतिक शब्दो का विवरगा मात्र दे दिया गया है। इस के सभी पदो का तुलनात्मक और ऐतिहासिक विवेचन एक अत्यन्त दुरूह तथा अपने ग्राप में भविष्य के अनुमधित्सुयो के लिए एक स्वतंत्र कार्य है । ग्रामीण कृपक-जीवन से सम्बन्धित शब्दावली
____ "देशीनाममाला" के शब्दों से सूचित होने वाला समाज अधिकाश रूप मे एक खेतिहर समाज है। इस तथ्य का स्पष्टीकरण उदाहरण की गाथाग्री मे होता है । वहा पाये हुए हालिक युवक युवतियो के वर्णन मेतो के बीच उनकी उन्मुक्त काम कीडायो मे एक खेतिहर वर्ग का चित्र ही उभर कर सामने आता हे । जहा तक कृषि कला से सवचित्त शब्दावली का प्रश्न है, इसके लिए भी पर्याप्त शब्द इम कोश अन्य मे मिल जाते है । खेतो की सिंचाई के काम पाने वाली पानी की चर्बी के लिए कुल चार शब्द पाये हैं - पागती (1-63), उक्क्रती, उक्कद तथा उक्का (1-87) 1 सिंचाई के लिए विना जगत के (मुडे) का व्यवहार होता था, इसका मक्त उत्त हो ( 1-94)-विना जगत का कुग्रा में मिलता है । एक शन्द्र उच्छु,प्ररग (1117) मे दूर दूर तक फैले हुए ईख के खुनो का सकेत मिलता है । इसके अतिरिक्त ग्रामीण कृपक जीवन से सम्बन्धित और भी अनेको प्रकार के पशु पक्षियो और पेड पौवो से सम्बन्धित शब्द बहुतायत से मिलते हैं । इनका अलग-अलग उल्लेख कर देना उपयुक्त होगा। पेड़-पौधे और फल-फूल •
प्रापल्ली (1-61)- एक लता या झुरमुट, धारणाल (1-67) - कमल श्रावगो (1-62) तथा कचाडो (2-53) ~ बहेडे का वृक्ष, उम्मत्तो (1-89) धत्त र, ककल्ली (2 12) - अशोक वृन, ककोड (2-7) तथा कच्छुरी (3-11)कई नाम का एक वृक्ष विशेप, कटार (2-10) - नारियल, कराई (2-5), एकलता, कोट्ट-नीलकमल (2-9), करयदी (2-18) - मलिकापुप्प, कराडणी (2-18) शाल्मलितरु, कलयो (2-54) - अर्जुनवृक्ष कलको (2-8)- वास, कवयं (2-3) -- कुकुरमुत्ता, कसई (26 - जगलीफल, कालिंजणी (2-29) - तापि
चलता, काहेण 12-21 - गुजा नामक झाडी, कुंती (2-34) - मजरी, कुदीर (2-39) - कु दरू का फल, केपारवाणो (2-45) - पलाश, केऊ (244)-कद, गह (283) - श्वेतकमल, गुड (2.91) लत्रका नाम की घास, चक्कगणगय (3-7) - नारगी, चदोज्जं (3-4)- प्रवनकमलिनी, चौढो (3.19) बेल का पेड, जंबुग्रो (3-52) - वेतस वृक्ष, झडग्रो (2-53) - पीलु नामक वृक्ष, टक्कारी (4.2)~ एक बनेलाफूल टोलत्रो (4-4) - मधूक वृक्ष, डाऊ (4-12) ~ फल हमक नामक वृक्ष, गडमामय (4-23) - जल मे उत्पन्न होने वाला एक फल, गीलकठी (4-42) ~ वाण वृक्ष इस प्रकार के अनेको पेड पीयो एव फूलो-फूलो से सम्बन्धित शब्दावली इस कोश में पग-पग पर विखरी हुई है। पशु-पक्षी
देशीनाममाला की पशु-पक्षियो से सम्बन्वित शब्दावली भी प्राश्चर्य मे डाल देने वाली है। इनमें पाये हुए पशु-पक्षियो के नाम विचित्र है, यद्यपि पशु-पक्षी
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[ 127 सुपरिचित ही है । इन शब्दो के सचयन मे प्राचार्य हेमचन्द्र को पर्याप्त छान-बीन करनी पडी होगी। पशु-पक्षियो तथा विभिन्न जीव-जन्तुनो से सम्बन्धित कुछ उल्लेखनीय शब्द नीचे दिये जा रहे है--
पालई (1-64) - शकुनिपक्षी, पालत्यो (1-65) - मयूर, पालासो (1-61) -विच्छू यावि, (1-76) - इन्द्रगोप-एक लालरग का बरसाती कीडा, आसक्ख ग्रो (1-67) - श्रीवद् नामक पक्षी, पाहु (1-61) - उलूक इद्द डो, (1-79) - भ्रमर, इ दगाई (181) - झुड में चलने वाले कीडे, इदमहकामुमो (1-82) - कुत्ता, इरमदिरो (181) - युवा हाथी, इरावो (180) - गज, इल्ली (183) - सिंह, इसयो (1-82) - रोज्झ नामक मृग उड्डयो (1-23) - वैल, उड्डसो (1-96), खटमल, उररी (1-88) - एक पशु, उलुहतो (1-109) - कोप्रा, एणु वासियो (1-147) - मेढक आलेयो (1 160) - वाजपक्षी करणइल्लो (2-21), तोता, कठ (1-51) - सुअर, कणच्छुरी (2 19)- छिपकली, कद्दमियो (2-15). भैसा या भैस, कामकिसोरो (2-30) - गधा कायचुलो ( 2-29) - जल मे रहने वाला पक्षी, कायरिउच्छो (2-30) - कोकिला, किक्किडी (2-33) - सर्प, कु नो (2-29) - तोता, कुल्हो (2-34) - सियार, कोविया (2-48), - सियारिन, खच्चल्लो (2-69) - भाल, खिक्खिडो (2-74) - केकडा, गड्डरी (2-84)- वकरी, गहरो (2-34) - गीध, गामेणी (2-34) - भेड, गुत्थडी (2-92)- पानी में रहने वाला जीव, गाहुली (2-89) - एक क्रूर जलचर । इसी प्रकार के और अनेको शब्द देशीनाममाला मे पग-पग पर बिखरे देखे जा सकते हैं । प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन नामवाची शब्दो का सकलन देश के कोने-कोने से प्राप्त सूचनायो के आधार पर किया था। इस वर्ग के सन्दर्भगत ग्रन्थ अव अप्राप्त हैं । अत इनके प्रयोग स्थान को निर्धारित कर पाना भी एक दुव्ह कार्य है । शब्दो के स्वरूप को देखकर, मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि ये युग-युगो से अशिक्षित ग्रामीण जनता के वीच व्यवहृत होते आये शब्द है । राजनीति और शासन व्यवस्था :
__इस वर्ग के अन्तर्गत आने वाली शब्दावली प्राचीन भारत की शासनव्यवस्था से सम्बन्धित है । इसे तत्कालीन गुजरात की शासन व्यवस्था से भी सदभित किया जा सकता है । देशीनाममाला मे राजा के लिए उम्मल्लो (1-131) शब्द का व्यवहार हुया है। एक शब्द "प्रायासतल" (1-72) मे राजा के निवास स्थान "राजमहल" का भी सकेत किया गया है। महल के दरवाजे पर रहने वाले द्वार-रक्षक के लिए कडअल्लो (2 15) शब्द पाया है । राजा का राजमहल नगर के मध्य मे होता था। नगर प्रधान के लिए कउग्र (2-56)शब्द आया है। पूरे नगर मे छोटी और बडी सडको का निर्माण कर सचार व्यवस्था की जाती थी। देशीनाममाला मे नगर के लिए कोट (2-45) तथा सडक के लिए किलणी (2-31) और खु खुणी (2-76) शब्द पाये हैं। छोटी सडक के अर्थ मे छेडी (3-31) शब्द का व्यवहार हुआ है । चौराहे के लिए "जघाछेग्रो' शब्द पाया है। नगर के बाहर चारो ओर जल से भरी खाई का प्रचलन अतिप्राचीन है। इसके लिए "खाइमा (2-73) शब्द व्यवहृत हुया है । नगर के मध्य बाजार के लिए कव्वाल (2-52) शब्द आया है । राज्य की सीमा के लिए सदेवो (8-7) शब्द का प्रयोग हुआ है।
पूरे राज्य का शासन अलग-अलग ग्रामाधिपतियो के हाथ मे रहता था।
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126 ] सास्कृतिक महत्ता है । आज भी यदि इन शब्दो का विकास विभिन्न प्रान्तीय सरकतियो की शब्दावली मे खोजा जाय तो अवश्य ही कही न कही प्राप्त हो जायेंगे । विपय विस्तार के कारण यहाँ इन सास्कृतिक शब्दो का विवरण मात्र दे दिया गया है । इस के सभी शब्दो का तुलनात्मक और ऐतिहासिक विवेचन एक अत्यन्त दुरुह तथा अपने आप मे भविष्य के अनुमधित्सुग्रो के लिए एक म्वतत्र कार्य है । ग्रामीण कृषक-जीवन से सम्बन्धित शब्दावली
"देशीनाममाला" के शब्दो से सूचित होने वाला समाज अधिकाश रूप मे एक खेतिहर समाज है। इस तथ्य का स्पष्टीकरण उदाहरण की गाथाग्री से होता है । वहा आये हुए हालिक युवक युवतियो के वर्णन खेतो के बीच उनकी उन्मुक्त काम क्रीडायो मे एक खेतिहर वर्ग का चित्र ही उभर कर मामने पाता है । जहा तक कृषि कला से सवधित शब्दावली का प्रश्न है, इसके लिए भी पर्याप्त शब्द इस कोश. ग्रन्थ मे मिल जाते है । खेतो की सिंचाई के काम आने वाली पानी की चर्बी के लिए कुल चार शब्द पाये है - आगत्ती (1-63), उक्कती, उक्कद तथा उक्का (1.87) । मिचाई के लिए विना जगत के (मुडे) का व्यवहार होता था, इसका सकेत उत्त हो (1-94)-विना जगत का कुया-मे मिलता है । एक शब्द उच्छपरण (1117) से दूर दूर तक फैले हुए ईख के खेतो का सकेत मिलता है । इसके अतिरिक्त ग्रामीण कृपक जीवन से सम्बन्धित और भी अनेको प्रकार के पशु पक्षियो और पेड पौषो से सम्बन्धित शब्द बहुतायत से मिलते है। इनका अलग-अलग उल्लेख कर देना उपयुक्त होगा। पेड-पौधे और फल-फूल ·
प्रापल्ली (1-61) - एक लता या झुरमुट, पारणाल (1-67) - कमल श्रावगो (1-62) तथा करबाडो (2-53)- बहेडे का वृक्ष, उम्मत्तो (1-89) घत्त र, ककेल्ली (2 12) - अशोक वृक्ष, ककोड (2-7) तथा कच्छुरी (3-11)कई नाम का एक वृक्ष विप्रोप, कटार (2-10) - नारियल, कराई (2-5), एकलता, कदोट्ट-नीलकमल (2-9), करयदी (2.18) - मलिकापुप्प, कराइणी (2-18) शाल्मलितरु, कलयो (2-54)- अर्जुनवृक्ष कलको (2-8) - वास, कवय (2-3) - कुकुरमुत्ता, कसई (26 - जगलीफल, कालिजणी (2-29) -तापि च्छलता, काहेण 12.21 - गुजा नामक झाडी, कुती (2-34) - मजरी, कुदीर (2-39) - कु दरू का फल, केमारवाणो (2.45) - पलाश, केऊ (244)-कद, गद्दह (283) - श्वेतकमल, गुड (291) लचका नाम की घास, चक्कगणगय (3-7) - नारगी, चदोज्ज (3-4) - श्वेतकमलिनी, चोढो (319) वेल का पेड, जग्रो (3-52) - वैतस वृक्ष, झटुप्रो (2-53) - पीलु नामक वृक्ष, टक्कारी (4 2)- एक बनेलाफूल टोलबो (4-4) - मवूक वृक्ष, डाऊ (4-12)- फल हमक नामक वृक्ष, रगडमासय (4-23) - जल मे उत्पन्न होने वाला एक फल, गीलकठी (4.42)- वाण वृक्ष इस प्रकार के अनेको पेड पौवो एव फलो-फूलो से सम्बन्वित शब्दावली इस कोश मे पग-पग पर विखरी हुई है। पशु-पक्षी
देशीनाममाला की पशु-पक्षियो से सम्बन्वित शब्दावली भी पाश्चर्य मे डाल देने वाली है। इनमे आये हुए पशु-पक्षियो के नाम विचित्र है, यद्यपि पशु-पक्षी
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[ 127 सुपरिचित ही हैं । इन शब्दो के सचयन मे आचार्य हेमचन्द्र को पर्याप्त छान-बीन करनी पडी होगी। पशु-पक्षियो तथा विभिन्न जीव-जन्तुओ से सम्बन्धित कुछ उल्लेखनीय शब्द नीचे दिये जा रहे है
पालई (1-64) - शकुनिपक्षी, पालत्थो (1-65) - मयूर, पालासो (1-61) -विच्छू आविअ , (1-76) ~ इन्द्रगोप-एक लालरग का बरसाती कीडा, प्रासक्ख ग्रो (1-67) - श्रीवद् नामक पक्षी, प्राह (1-61) - उल्क इद्द डो, (1-79) - भ्रमर, इ दगाई (1-81) - झुड मे चलने वाले कीडे, इ दमहकामुग्रो (1-82) - कुत्ता, इरमदिरो (181) - युवा हाथी, इरावो (180) - गज, इल्ली (183) - सिंह, इसयो (1-82) - रोज्झ नामक मृग, उड्डयो (1-23) - बैल, उड्डसो (1-96), खटमल, उररी (1-88) - एक पशु, उलुहतो (1-109) - कोपा, एणु वासियो (1-147) - मेढक आलेयो (1 160)- बाजपक्षी करणइल्लो (2-21), तोता, कठ (1-51) - सुअर, कणच्छरी (2 19) - छिपकली, कद्दमित्रो (2-15), भैसा या भैस, कामकिसोरो (2-30) - गधा कायचुलो ( 2-29) - जल मे रहने वाला पक्षी, कायरिउच्छो (2-30) - कोकिला, किक्किडी (2-33) - सर्प, कु तो (2-29) - तोता, कुल्हो (2-34) - सियार, कोविया (2-48), - सियारिन, खच्चल्लो (2-69) - भालू, खिखिडो (2-74) - केकडा, गड्डरी (2-84)- बकरी, गहरो (2-34) - गीध, गामेणी (2-34) - भेड, गुत्थडी (2-92) - पानी में रहने वाला जीव, गाहुली (2-89) - एक क्रूर जलचर । इसी प्रकार के और अनेको शब्द देशीनाममाला मे पग-पग पर बिखरे देखे जा सकते हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने इन नामवाची शब्दो का सकलन देश के कोने-कोने से प्राप्त सूचना के आधार पर किया था। इस वर्ग के सन्दर्भगत ग्रन्थ अव अप्राप्त हैं । अत इनके प्रयोग स्थान को निर्धारित कर पाना भी एक दुरूह कार्य है । शब्दो के स्वरूप को देखकर, मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि ये युग-युगो से प्रशिक्षित ग्रामीण जनता के बीच व्यवहत होते आये शब्द है । राजनीति और शासन व्यवस्था :
इस वर्ग के अन्तर्गत आने वाली शब्दावली प्राचीन भारत की शासनव्यवस्था से सम्बन्धित है । इसे तत्कालीन गुजरात की शासन व्यवस्था से भी सर्भित किया जा सकता है । देशीनाममाला मे राजा के लिए उम्मल्लो (1-131) शब्द का व्यवहार हुआ है । एक शब्द "आयासतल" (1-72) मे राजा के निवास स्थान "राजमहल" का भी सकेत किया गया है। महल के दरवाजे पर रहने वाले द्वार-रक्षक के लिए कडअल्लो (2015) शब्द आया है । राजा का राजमहल नगर के मध्य मे होता था। नगर प्रधान के लिए कउग्र (2-56)शब्द आया है। पूरे नगर मे छोटी और बडी सडको का निर्माण कर सचार व्यवस्था की जाती थी। देशीनाममाला मे नगर के लिए कोट्ट (2-45) तथा सडक के लिए किलणी (2-31) और खु खुणी (2-76) शब्द आये हैं। छोटी सडक के अर्थ मे छेडी (3-31) शब्द का व्यवहार हुआ है । चौराहे के लिए "जघाछेग्रो' शब्द पाया है। नगर के बाहर चारो ओर जल से भरी खाई का प्रचलन अतिप्राचीन है। इसके लिए "खाइमा (2-73) शब्द व्यवहृत हुआ है । नगर के मध्य बाजार के लिए कव्वाल (2-52) शब्द पाया है । राज्य की सीमा के लिए सदेवो (8-7) शब्द का प्रयोग हुआ है।
पूरे राज्य का शासन अलग-अलग ग्रामाधिपतियो के हाथ मे रहता था।
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128 1 ग्रामाधिपति का अर्थ देने वाले, खरिंगग्रो (2-69) गामउटो, गामगोही, गामगी (2-89), गोहो (2-89), जणउत्ती (3-52), संग्रालो (8-58), मेट्टी (8-42) श्रादि कई शब्द पाये है। प्राचीन भारतीय शासन व्यवस्था में ग्रामग्रायुक्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है । देणीनाममाला के समाज और उसमे पायी शासन व्यवस्था में सर्वत्र ग्रामाधिपति या ग्राम प्रायुक्त का ही वाल-वाला है। एक स्थान पर छल से ग्रामाधिपति का पद धारण करने वाले व्यक्ति को "गामगेडी" ( 2-90) कहा गया है। राज्य-गासन की सुविधा के लिए कई ग्रामो का एक संघ बना दिया जाता था। इम ग्राम मय के लिए "करो (1-143) गब्द पाया है। ग्रामाधिपति इसी सघ का प्रमुख अधिकारी होता था। प्रत्येक गाव की मीमा एक सीमाकाप्ठ गाड कर अलग कर दी जाती थी, इसके लिए खोडो (2-80) शब्द पाया है। एक अलग गाव के लिए गामहरा (2-90) तथा गाव मे रहने वाले लोगो के लिए जग्लवियो (3-44) श द आये है । गाव के शामक को मुग्विया कहते थे । इसके लिए भी दो शब्द अइरः (1-16) और प्रोग्रामो (1-166) आये हैं। इन शब्दो के माध्यम में व्यक्त होने वाली ग्रामव्यवस्था या राज्य शासन व्यवस्था प्राचीन भारत की राज्य-व्यवस्था व ग्राम व्यवस्था से पर्याप्त साम्य रखती है। युद्ध या सुरक्षा सामग्री
प्राचीन भारत के लिए युद्ध आये दिन, होने वाली वस्तु थी । देणीनाममाला मे युद्ध के लिए ग्राउर (1-65) और खम्मक्खम्मो (2-79) शब्द पाये है । युद्ध में विपक्षी शत्रु के लिए कली और करलोलो (2-2) शव्द मिलते हैं । युद्ध मे सुरक्षा हेतु किले का निर्माण भी होता था । गढी (2-81) शब्द इमी किले का वाचक है । युद्ध में धनुप-बारा और तलवार का व्यवहार होता था। इस कोण मे धनुप के लिए गडीव (2-84) तथा तलवार के लिए टको (4-4) एव अप्पो (1-12) शब्द आये है युद्ध में पकडे गये कैदी मे लिए अवयढिय (1-46) पद व्यवहृत हुअा है । युद्ध में होने वानी पराजय के लिए अहिलिग्र (1-57) तथा पराजित व्यक्ति के लिए अक्कत (1-16) शब्द पाये है।
राजनीति एव शासन व्यवस्था से सम्बन्धित ऊपर दी गयी शब्दावली प्राचीन भारतीय शासन व्यवस्था से सवद्ध हैं । तत्कालीन गुजरात भी बहुत कुछ इसी व्यवस्था को प्रश्रय देने वाला था, अत इन शब्दो का सम्बन्ध तत्कालीन गुजरात की राजनीति एव जामन व्यवस्था से भी स्थापित किया जा सकता है। इस प्रकार की जब्दावली "प्राचीन इतिहाम" विषय के अनुसधित्सुग्रो के लिए पर्याप्त उपयोगी है। निफर्ण -
ऊपर "दणीनाममाला" की सास्कृतिक शब्द सपत्ति का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया जा चुका है। इन शब्दो के माध्यम से जिस सस्कृति का परिचय मिलता है, वह युग-युगो से चली आने वाली भारतीय निम्न तथा निम्न मध्यवर्गीय मस्कृति है। इसका किमी युग विशेप से सम्बन्ध स्थापित कर पाना एक असभव कार्य है । देशीनाममाला की सास्कृतिक शब्दावली इतनी विशाल है कि इसका अध्ययन एक अलग ही जोष प्रवन्ध का विपय हो सकता है।
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'देशी' शब्दों का विवेचन
'देशी' शब्द का सामान्य अर्थ ग्रास्य या 'प्रान्तीय' है। भाषा के अर्थ मे इसका प्रयोग प्राकृत व्याकरणकारो ने किया है। सस्कृत व्याकरणकारो ने किसी भाषा विशेष के अर्थ मे इसका प्रयोग न कर 'प्रान्त' के अर्थ मे किया था। पाणिनि की प्रष्टाध्यायी' मे यद्यपि कई स्थान पर 'देश' शब्द है परन्तु वहा यह प्रान्तवाचक ही है । पाणिनि के पहले भी निरुक्तकार यास्क ने2 'देश' शब्द का प्रयोग प्रान्त के ही अर्थ मे किया था । महाभारत मे सर्वप्रथम 'देश' शब्द का प्रयोग 'भाषा' के साथ किया गया प्राप्त होता है। इसके बाद भरत ने 'देश' शब्द का प्रयोग अपने नाट्यशास्त्र मे विभिन्न प्रान्तो मे वोली जाने वाली बोलियो के अर्थ मे किया
प्रत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि देशभाषाविकल्पनम् ।
अथवा अछन्त. कार्या देशभाषा प्रयोक्तृभि । नानादेशसमुत्थं हि काव्य भवति नाटके ॥ 17146
वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र (114150) विष्णुधर्मोत्तर तथा मृच्छकटिक (अ क 6, पृष्ठ 225) विशाखदत्त ने मुद्रारक्षस, वाणभट्ट ने कादम्बरी तथा धनजय ने अपने दशरूपक मे नाना देशो मे बोली जाने वाली भाषामो को देशभाषा कहा है--
1
No
एडप्राचा देशे 111175 तदस्मिन्नस्तीति देश तन्नाम्नि 412167 निरुक्त, अध्याय 2, पाद 1, दुर्गाचार्य एव मोहरचन्द पुष्करिणी टीका
चर्ममृगश्च्छिन्ना, नाना भाषाश्च भारत । कुशला देशभाषास्तु, जल्पतोऽन्योन्य ईश्वर.-महाभारत-शल्यपर्व, मध्याय 46
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देशभाषा क्रियावेश लक्षणाः स्यु प्रवृत्तयः । लोकावेदागम्येता यथोचित्य प्रयोजयेत् । यद्देशनीच पात्र यद् तद्देश तस्य भापितम् ॥ दशरूपक 2158161
धनजय स्पष्ट ही 'देशीभाषा' का प्रयोग निम्न श्रेणी के पात्रो की भाषा के लिये करते हैं।
उपर्युक्त कुछ उल्लेखो से यह विदित होता है कि भिन्न भिन्न प्रान्तो व स्थानो मे वोली जाने वाली भाषा देशभाषा कहलाती है तो क्या यह 'देशभापा' ही देशी है ? इसका निश्चय करने के लिये प्राकृत वैय्याकरणो द्वारा किये गये उल्लेखो का विवरण आवश्यक है।
प्राकृत व्याकरणकारो ने प्राकृत भाषा मे तीन प्रकार के शब्द बताये है। (1) तत्सम (2) तद्भव (3) देशज । (१) तत्सम.
ऐसे शब्द जो सीवे संस्कृत से विना किसी रूपपरिवर्तन के प्राकृत ग्रन्थो मे आ गये हैं, तत्सम कहलाते हैं । इन्हें मस्कृतसम (चण्ड 111 डे ग्रामिटिकिल प्राकृतिस पेज 80) तत्तुल्य (वाग्भट्टालकार 212) तथा समान (नाट्यशास्त्र 1712) आदि सज्ञाए भी दी गयी है। (2) तद्भव ·
ऐसे शब्द जो रूप और ध्वनि परिवर्तन के कारण विकृत हो जाते है परन्तु यह विकार व्याकरण की प्रक्रिया के आधार पर होता है । उन्हे 'तद्भव' कहा गया है । इसके भी विभिन्न नाम हैं जैसे-हेमचन्द्र (111) तथा चण्ड इसे 'सस्कृतयोनि कहते हैं । वारपट्ट ने ऐसे शब्दो को 'तज्ज' कहा है। भरत ने (नाट्यशास्त्र 1713) इसे विभ्रप्ट सज्ञा दी है। (3) देशी:
ऐसे शब्द जो बहुत अनादिकाल से वोलचाल मे व्यवहृत होते आये है और जिनकी व्युत्पत्ति व्याकरण लभ्य नही है-'देशी' शब्द कहलाते हैं । हेमचन्द्र त्रिविक्रम सिंहराज मार्कण्डेय तथा वाग्भट्ट ने ऐसे शब्दो को देश्य या देशी नाम दिया है । चण्ड (प्राकृत लक्षण) ने इसे देसी प्रसिद्ध तथा भरत ने 'देशीमत 2 नाम दिया है।
1. देशीनाममाला, पृ0 1, 2 दण्डिन और पनिक । 2 नाट्यशास्त्र 1713
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[ 131 शो के इन तीन प्रमुख विभाजनो के अतिरिक्त कुछ विदेशी विद्वानो ने इनके उपविभाग भी किये हैं। शब्दो की दूसरी कोटि 'तद्भवो' को दो भागो मे विभाजित किया गया । (1) सामान सस्कृतभवा (2) सिद्ध सस्कृत भवा । पहले वर्ग मे वे प्राकृत शब्द पाते हैं जो उन सस्कृत शब्दो का जिनसे वे प्राकृत शब्द निकले हैं, बिना उपमर्ग या प्रत्यय के मूल रूप बताते हैं । इनमे विशेषकर शब्द रूपावली पौर विभक्तिया प्राती है जिनमे वह शब्द व्याकरण के नियमो के अनुसार बनाया जाता है उसे ही 'माध्यमान तद्भव' कहते है। वीम्स' इसे ही श्रादि तद्भव (Early Tadbhava) कहते है । दूसरे वर्ग मे वे शब्द पाते है जो सस्कृत व्याकरण में सिद्ध मस्त रूपो से निकाले है । जैसे अर्घमागधी वन्दित्ता सस्कृत वन्दित्वा का विकृत रूप है।
प्राकृत व्याकरणकाने और अन्य ग्रन्थकारो द्वारा किया गया प्राकृत शब्दो का यह विभाजन बहुत कुछ उनके पारम्परिक रूढिवादी दृष्टिकोण पर आधारित है । इनकी उ मान्यता है कि 'प्राकृत' सस्कृत से निकली है । 'तत्' शब्द के प्रयोग द्वारा उन्होंने 'मस्कृत' को हो मूल में रखा है। सस्कृत और उससे लिये गये शब्द तत्सम पौर उममे नि मृत प्राकृत दोनो के प्याकरणिक नियमो से परे रहने वाले शब्द 'देश्य' या 'देगी' पाहे गये। परन्तु यह रूढिवादी दृष्टिकोण 'देशी' शाब्दो के वास्तविक स्वरूप उनके उद्भव और विकास का ज्ञान कराने के लिये पर्याप्त नहीं है । न तो प्रान्तीय मापाए शुद्ध रूप से वैज्ञानिक प्रर्य मे 'देशी' ही कही जा सकती है और न अन्य साहित्यिक भापाए 'देशी' शब्दो की सीमा के परे ही कही जा सकती है। अब हमे देखना यह है कि 'देशी' 'गन्द वास्तविक रूप मे है क्या ? और प्राकृतो मे इनका प्रचार कैसे हुया । देशी शब्दो का स्वरूप विभिन्न मत ।
'देशी' शब्दो के अन्तर्गत प्राय' विद्वानो ने ऐसे शब्द रखे है जिनका मूल सस्कृत मे नही मिलता और जो साहित्यिक भाषामो से परे सामान्य जनता के बीच युगयुगो से व्यवहृत होते पा रहे है । परन्तु इन शब्दो के विवेचन मे सभी विद्वान् अलग-अलग धारणाए रखते है । 'देशी' शब्दो का सबसे बडा कोश प्राचार्य हेमचन्द्र की 'देशीनाममाला' है यदि इसे ही ध्यान से देखा जाये तो देशी शब्दो के बारे मे एक भ्रान्त धारणा उठ खडी होती है । इसके अन्तर्गत अनेको ऐसे शब्द है जो तत्तम और तद्भव होते हुए भी देशी मान लिये गये हैं। सम्कृत भाषा का शब्द भडार प्रत्यन्त
1. फम्परेटिव ग्रामर 1137 2. पिशेल की हे0 च0 के सूत्र 111 पर टीका
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विस्तृत है यह एक व्यक्ति या छोटे-मोटे समूह के भी वश की बात नहीं है कि वह समस्त शब्दो का ज्ञान प्राप्त कर यह निर्णय दे सके कि अमुक अमुक शब्द सस्कृत मे नहीं है । यही कारण है कि देशी शब्दो के विवेचन के बीच ऐसे शब्द आ गये है जो विशेषत सस्कृत के मूल तक पहुँचते हैं। इस प्रकार परम्परा मे जितने भी 'देशी' शब्दो का पाख्यान किया गया है वे सभी विवाद मे भरे हए हैं। 'देशी' शब्दो के वास्तविक स्वरूप का विवेचन पूरी पार्य-भाषा के विकास का पालोड़न करने के बाद ही किया जा सकता है।
स्वरूप की दृष्टि से 'देशी' शब्द जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है प्रादेशिक शब्दों के वाचक रहे होगे । आगे चलकर धीरे-धीरे इन्हे साहित्यिक भापायो मे स्थान मिलने लगा होगा क्योकि माहित्यिक भाषाए सदैव से लोक जीवन से प्रारण और जीवनी शक्ति ग्रहण करती आयी है । इमी प्रक्रिया मे युग-युगो मे जनता के बीच प्रचलित शब्द पाक तो और अपभ्रं शो के रास्ते सस्क त कोशो और धातुपाठ आदि मे ले लिये गये होगे । इस प्रकार ग्रहण किये गये शब्दो को सस्कृत शब्दावली के बीच हूँढ पाना सर्वथा असम्भव है क्योकि इनमें सभव है कि कुछ अनार्य मापात्रो तथा मूल आर्यभापा के शब्द आ गये हो । रुद्रट के 'काव्यालकार' 2112 की टीका मे नमिसाधु ने प्राकृत की एक व्युत्पत्ति दी है, जिसमे उसने बताया है कि प्राकृत तथा सस्कृत दोनो ही की प्राचारभूत भापा प्राकृत अर्थात् मानव जाति की सहज बोलचाल की भाषा है जिसका व्याकरणिक नियमो से वहत कम सम्बन्ध है। प्रार० पिणेल नमि साव के इस मत को भ्रमपूर्ण वताते हुए इस सम्बन्ध मे सेनार द्वारा दिये गये मत का समर्थन करते हैं । 'प्राकृत भाषा की जड जनता की वोलियो के बीच जमी हुई है और इनके मूख्यतत्त्व प्रादि काल में जीती जागती और बोली जाने वाली भापा से लिये गये हैं, किन्तु बोलचाल की वे न पाए , जो वाद को साहित्यिक मापात्रो के पद पर चढ गयी सस्कृत की भाति ही बहुत ठोकी पीटी गयी, ताकि उनका एक सुगठित रूप बन जाये। पिशेल की यह महगति नमिमाधु की मान्यता से अधिक दूर नही दिखायी देती । यह वात तो सर्वथा सत्य ही है कि साहित्यिक भापाए लोकप्रचलित मापाग्रो
1. हेमचन्द्र जोगी-प्राकृत भापानी का व्याकरण हिन्दी अनुवाद, पृ0 13 2 मन अथवा आदि यायं भाषा वह है जिसके कुछ ल्प 'या' वताये जाने वाले वैदिक रूपो में
मिलने हैं और जिन्हें वास्तव में नादि आयं यपने मुलदेश में, वहा मे इधर-उधर बिखरने के पहले वोलने रहे होगे।
-हेमचन्द्र जोशी, वही, पृ0 14 3 हेमचन्द्र जोशी, वही पृ0 14 4. हेमचन्द्र लोगो प्राकृत भापायों का व्याकरण-हिन्दी अनुवाद, पृ0 14
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ने प्रगती । धीरे धीरे उन दो का 7 . For I T TAITR TT प परिवर्तन पाणिनि की Priffren - मे नियापदो की
! - aninी पोतो तुम जो सम्मान की घातग्रो
CHER REE मातागपनी निर्मित किया है । 27 . 7 पधानित नती। उसके विपरीत इन्ही
मानो मे माध्यम में चलती गई पाज की
गि FATोने वाली प्रागत और अपनश होगा' ::ो भाषामो के व्याकरण गन्यो मे नी देशी . .. गि गी | T] ना स्वरुप स्पष्ट ही T
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बना भाषा नी बात गुज नो मे प्रचलित शब्दावली irgi मोमेंनिए घोटर गोर याय, कुत्ते के लिए कुकुर और श्वान, दिगो लिए जिद पोर मागे, मात्र के लिए भल्लूगा और नाक्ष साथ-साथ पता: । न मदो मी पनि योर अन्यानेक प्रापंप्रयोग यह सिद्ध कर देते हैं कि कि नगी माता जी' तत्वों का प्रगलन हो चला था । उपर्युक्त उदाहरणों में पाया IET, विकास, र नया भन्नक शन गुनिश्चित ध्वन्यात्मक परिवनंगी गाय पानी लोग नापात्रो में प्रगति है । इनके पर्यायवाची नक्षादि सम्मको अपनी गम्मति तब भी थे और प्राज भी ज्यो के त्यो हैं। आगे चलकर लोनापानी नहारे किगित होने वाली पाति तथा प्राकृत (अपभ्रश भी) भारा कि भाषा से अधिक समीप है। इस प्रकार 'देशी' शब्दो का प्रादुर्भाव गामान्य जनता की बोलनान की भापायी से हुया होगा । इनका विकास प्रकृत
चानाविका । गुग मे युग-युगो में होना चला आया है। इस विपय मे नमिसाधु का कचन बल कुन मत्य भी प्रतीत होता है। 'देशी' शब्दो का प्राकृतो से घनिष्ठतम मम्बन्ध प्रतः 'प्रागन' शब्द पर विचार कर लेना अवसर लभ्य एव समीचीन होगा।
1. देगिये-प्राकृत मापानों का व्यापरण-हिंदी अनुवाद, हे0 जो0 फुटनोट, पृ. 65-661 2. गमिगाध-गाव्यालफार 2112 फी टीका
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प्राकृत तथा 'देशी'
भाषावाची 'प्राकृत' शब्द 'प्रकृति' में निर्मित है। इस 'प्रकृति' शब्द की व्यात्या मे विद्वानो मे बहुत बडा मतभेद है। कुछ विद्वान् इसका अर्थ 'मूलभाषा' करते हैं और कुछ 'मूल' अर्थात् सस्कृत के आधार पर विकसित भापा मानते हैं । भारतीय विद्वत्परम्परा इसी विश्वास को मानकर चली है कि मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाए (पालि, प्राकृत, अपभ्र श) सस्कृत मे ही विकसित हुई हैं। यही कारण था कि अधिकतर प्राकृत व्याकरणकारो जैसे हेमचन्द्र, मार्कण्डेय, वनिक, मिहदेव गणि आदि ने प्राकृत भापायो का मूल उद्गम संस्क त को माना । प्राकृत व्याकरणकारो मे सर्वप्रमुख हेमचन्द्र का कथन है -
___ प्रकृति सस्कृतम् । तत्रभव तत् प्रागतम् वा प्राकृतम् । संस्कृतानन्तर प्राकृतमविक्रियते । सस्कृतानन्तर च प्राकृतस्यानुशासन सिद्धसाध्यमान भेद सस्कृत योनेरेव तस्य लनण न देश्यस्य इति ज्ञापनार्थम् ।।1।।
'प्रकृति मस्कृत है। इम सस्कृत से आयी हुई भाषा प्राकृत है । संस्कृत के पञ्चात् प्राकृत का अधिकार प्रारम्भ होता है । प्राकृत मे जो शब्द संस्कृत से मिश्रित हैं उनको सस्कृत के समान ही जानना चाहिए । प्राकृत मे तद्भव दो प्रकार के हैंसाव्यमान सस्कृत भव, सिद्ध संस्कृत भव । यह प्राकृत का अनुशासन इन दोनो प्रकार के शब्दो का ही प्रतिपादक है । देश्य का नहीं।
हेमचन्द्र के इमी मत का समर्थन मार्कण्डेय दशल्पक के टीकाकार वनिक, कर्पूर मजूरी के टीकाकार- वासुदेव, पड्मापाचन्द्रिका के रचयिता लक्ष्मीवर, वाग्भट्टालकार के टीकाकार सिंहदेवगरिग, 'प्राकृत शब्द प्रदीपिका' के रचयिता नरसिंह, गीतागोविन्द की 'रसिकसर्वस्व' टीका के रचयिता नारायण एवं अभिज्ञानशाकु तल के टीकाकार शकर आदि ने भी किया है। वास्तव में इन विद्वानो का सारा प्रयास सस्कृत के माध्यम से प्राकृतो को समझाना था इसी कारण संस्कृत का प्रावार लेते-लेते वे स्वाभाविक रूप से विकसित प्राकृत भापात्रो को सस्कृत की विकृति बता गये ।
प्राकृत व्याकरणकारों और अलकारशास्त्रियो द्वारा किया गया यह विवेचन स्वाभाविकता से बहुत दूर जा पडता है। ऊपर दिये गये विद्वानो के मत का फलितार्य निकालते हुए डा० नमिचन्द्र लिखते हैं। --
सिद्धहेमन्दानगासन 8ilil--'ययप्राकतम् । प्रकृति नम्वत । तत्रभव प्राकमच्यते ।। प्राकृतमर्वस्व !! प्रकते. आगत प्राकृत । प्रकृति. संस्कृतम् । दरूपक परि0 2 श्लोक 60 की व्याख्या प्रकृतन्यन नर्वमेव सम्कत योनि 1912 नजीवनी टीका । प्रकृते सन्कृतवास्तु विकृतिः प्रकृतीमता । प0 च0, ₹ 4 श्लोक 25 प्रकृते सस्ताद मागतप्राकुतम् ॥ वाग्मटानकार-2121 पी टीका टा0 नेमिचन्द्र शास्त्री, प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, 13
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। प्रारत भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से नहीं हुई है, किन्तु' प्रकृति सस्कतम्' का य है कि पाकृत भाषा को सीखने के लिये संस्कृत शब्दो को मूलभूत रखकर उनके नाम उच्चारण भेद के कारण प्राकृत शब्दो का जो साम्य-वैपम्य है, उसको दिवाना पर्यात संम्फान भाषा के द्वारा प्राकृत भाषा को सीखने का यत्न करना । इसी प्राधार से हेमचन्द्र ने गत को प्राकृन की योनि कहा है ।
2 मान या प्राकृत भाषा के बीच किसी प्रकार का कार्य कारण या जन्यजना भाव है ही नहीं। ये दोनो भाषाए सहोदराए हैं । दोनो का विकास पिसी अन्य बोत में होता है, यह स्रोत घान्दग' ही है।
3 उच्चारमा भेद के कारण सम्कृत और प्राकृत मे अन्तर हो जाता है । पर जने अतर में इन दोनो भापानो को बिल्कुल भिन्न नही माना जा सकता। जननाधारण प्राकृत का उच्चारण करते हैं पर सस्कारापन्न नागरिक संस्कृत का । प्रत नस्तृत को प्राकृत की योनि इसी अर्थ मे कहा गया है कि शब्दानुशासन से पूर्णतया अनुशामिन सस्कृत भाषा के द्वारा ही प्राकृत के तद्भव शब्दो को सीखा जा सकता है । वन्तुन मस्कृत और प्राकृत एक ही भापा के दो रूप है।'
सारा यह है कि प्राकृत वययाकरणो तथा अन्य विद्वानो द्वारा विवेचित पौर सस्कृत को प्रकृति मानकर चलने वाली 'प्राकृत' भाषा की कल्पना बहुत वाद की वस्तु है । वास्तव में 'प्राकृत' तो वह भापा है जो बहुत अनादि काल से जनसामान्य की भापा रही है । यह वैदिककाल में भी थी। साहित्यिक संस्कृत के युग मे भी इसका प्राधान्य रहा और फिर एक समय वह भी पाया जब यह सस्कृत का सहारा लेकर साहित्यिक मापा भी बन गयी। हेमचन्द्र प्रति प्राकृत वैय्याकरणो ने इसी साहित्यिक प्राकन को सस्कृत से उद्भूत बताया है। यहा उनका प्राशय जन-सामान्य के बीच प्रचलित प्राकृत से नही है । वे अपने प्राकृत शब्दानुशासन मे कहते भी हैं"यहा सिद्ध और साध्यमान सस्कृत भव शब्दो का विवेचन है, देश्य का नही । देश्य से उनका अभीष्ट अर्थ जन सामान्य मे प्रचलित भाषा से ही होगा। इसी कारण उन्होंने प्रागे चलकर 'देशी शब्दो' का प्रात्यान एक अलग सग्रह न थ 'देशीनाममाला' के अन्तर्गत किया है। वास्तविक 'प्राकृत' तो वह थी जिसका विवेचन नमिसाधु ने रुद्रट के काव्यालकार के श्लोक की टीका मे किया था.
1 'छान्दस्' या आप या प्राचीन वैदिक कविता की भाषा, जो प्राचीनतम भारतीय-आर्यभाषा फा साहित्यिक रूप थी और जिसका ग्राहमण लोग पाठशालामो मे अध्ययन करते थे।
-भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी, पृ. 75 चटजी 2. प्राकृतसस्कृतमागधपिशाचभापाश्च शौरसेनी च । पप्ठोऽन्न भरि भेदो देश विशेपादपध्र शः।
-काव्यालकार 2112
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'प्राकृतेति सकल जगज्जन्तूना' व्याकरणादिभिरनाहित सस्कार सहजोवचन व्यापार. प्रकृति , नत्रभव सैव वा प्राकृतम् ।' प्रारिमवयणोसिद्ध देवाण अद्धमाग हा वाणी 'इत्यादिवचनाद् वा प्राक् पूर्व' कृत प्राक्कृत वालमहिलादि सुवोध सकलभापानिवन्धभूत वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूप तदैव च देशविशेपात् सस्कारणाच्च समासादित सस्कृताद्य त्तरविभेदानाप्नोति । अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्ट तदनु सस्कृतादीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदित शब्दलक्षणेन सम्करणात् सस्कृत्तमुच्यते।'
'प्राकृत शब्द का अर्थ है, लोगो का व्याकरण आदि के संस्कारो से रहित स्वाभाविक वचन व्यापार, उससे उत्पन्न अथवा वही प्राकृत है ।' प्राक् कृत' शब्द से प्राकृत वना है और इसका अर्थ है पहले किया गया। द्वादणाङ्गग ग्रन्यो मे ग्यारह अग न थ पहले किये गये हैं और इन ग्यारह श्रग न यो की भाषा 'सार्पवचन' सूत्र अर्धमागवी कही गयी है जो बालक, महिला आदि को सुबोव, सहजगम्य है और जो सकल मापापो का मूल है। यह अर्वमागवी भाषा ही प्राकृत है। यही प्राकृत मेघ युक्त जल की तरह पहले एक रूपवाली होते हुए भी देशभेद से सस्कार करने से भिन्नता को प्राप्त करती हुई अर्थात् अर्द्ध मागधी प्राकृत से सस्कृत और अन्यान्य प्राकृत भापायो की उत्पत्ति हुई है। इसी कारण से मूल ग्रन्यकार रुद्रट ने प्राकृत का पहले और सस्कृत आदि का वाद मे निर्देश किया है। यही पाणिन्यादि के व्याकरण ग्रन्यो मे मस्कार पाने के कारण सम्कृत कहलाती है।'
'प्रसिद्ध प्राकृत काव्य 'गउडवहो' के रचयिता वाक्पतिराज ने भी प्राकृत को ही ममस्त मापात्रो का उद्गम स्थान माना है -
सयलामो इम वाया विसति एत्तोय ऐतिवायायो ।
ए ति समुद्द चिय णेंति सायरायोच्चिय जलाइ ।। 'जिस प्रकार जल ममुद्र मे प्रवेश करता है और समुद्र से ही वाष्प रूप से बाहर निकलता है, इसी तरह प्राकृत भाषा मे मब भाषाए प्रवेश करती हैं और इस प्राकृत भापा से ही मर भापाए निकलती हैं।' 'इम का यही आशय है कि 'प्राकृत'
आदि भाषा थी। सस्कृतादि भापात्रों का विकास इन शकृतो का परिष्कार करके किया गया न कि ये मस्कृत से स्वयं विकृत हुई 1 नवम् शती के प्रसिद्ध कवि राजशेखर भी अपनी बाल रामायण मे कहते हैं - ये यद्योनि किल सस्कृतस्य सुदशा जिह वामुयन्मोदते ।' यहा इन्होंने प्राकृत को ही मस्कृत की योनि बताया है। इन्ही विद्वानो की परम्परा मे कुछ विदेशी विद्वान् भी प्राकृतो को उन्मुक्त रूप से युगयुगो
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वानरामायण 48, 491
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[ 137 मे स्वानुर र विकास प्राप्त करने वाली भापाए बताते है । एल्फ्रेड सी, बुलनर' प्राकृत भापात्रों को स्वाभाविक रूप में विकसित मानते हैं। उनका मन्तव्य है कि प्राकृते साधारण लागो के बोलनान की नापाए पी और सस्कृत पढे-लिखे शिक्षित वर्ग की भाषा वी । प्राकृत का सम्बन्ध नाहित्यिक सस्कृत की अपेक्षा 'छान्दस्' से अधिक है। वैदिक 'कान्छन्' भाषा की पति से प्रावतो की प्रकृति कुछ मिलती जुलती हुई है ।
डा० पिोन भी जनता को मापा को ही मूल प्राकृत के रूप मे मानते है । उनका कथन है "प्राकृत भापायो की जउँ" "जनता की बोलियो के भीतर जमी हुई हैं और न मुन्य तत्त्व प्राधिकाल में जीती जागती और बोली जाने वाली भाषा ने निये गये है, किन्तु बोल-चाल की वे भापाए जो बाद को साहित्यिक भाषानो के पद पर प्रतिष्ठित हुई सत्कृत की भाति ही बहुत ठोकी पीटी गयी, ताकि उनका एक मुगठित रूप वन जाये ।"
हिन्दी के प्रमिदृ भाषा वैज्ञानिक डा० हरदेव बाहरी भी प्राकृतो को वैदिक तथा साहित्यिक दोनो ही मस्क तो की जननी मानते हैं -
"प्राकृतो गे वेद की साहित्यिक भाषा का विकास हया, प्राकृतो से सस्कृत का विकास भी हवा और प्राकृतो से इनके अपने माहित्यिक स्प भी विकसित हुए।" सर जा ग्रियर्सन ने भी प्राकृातो को वैदिक संस्कृत के समानान्तर ही सामान्य लोगो के बीच बोली जाने वाली भाषा के स्प मे स्वीकार किया है । वे कहते है ।
"From the incription of Ashoka (Circ-250 BC) and from the writings of grammarian Patanjalı (Cire.150 BC.) we learn that by third century before our era an Aryan Speech (in several dilccis) was cmployed in the north of India and having gradually developed from the ancient vernaculars spoken during the period in which vcdic hymns were composed, was the ordinary language of mutual intercourse Parrell with it the so called classical Sanskrit had developed from one of these dilccts, under the influance of the Brahman's as the secondary language, and had achieved a
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एल्फेट मी बुलनर 'इण्ट्रोडक्सन टु प्राकृत' पजाब विश्वविद्यालय-लाहौर, द्वारा प्रकाशित द्वितीय सस्करण 1928. 3-4 । यार पिशेल द्वारा लिखित 'प्राकृत भाषामओ का व्याकरण', पृ 14-राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना। प्राकत पापा और उसका साहित्य डा हरदेव बाहरी, राजकमल, प्रका. प्र स प 13 'लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया' इन्द्रोडक्शन, I पी. 121
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position much the same as that of latio of the middle ages. For centuries the Aryan Vernacular langauge of India has been called Prakrit, Prakrit ie the natural, unartificial language as opposed to Sanskrit the polished, artificial language From this definition of the term 'Prakrit' it follows that the vernacular dilects of the period of the vedic hymos as compared with the comparatively artificial Sanskrit language of these hymns as they have been preserved by the Brahmans who complied them were essentially Prakrits and as such they may be called the 'Primary Prakrits' of India
इस प्रकार जार्ज ग्रियर्सन तीन प्रकार की प्राकृतो की कल्पना करते हैं । प्राथमिक प्राकृत द्वितीय प्राकृत और तृतीय प्राकृत । प्राथमिक प्राकृत की स्थिति वे पूर्व उल्लिखित "छान्दस्" के मूल मे मानते हैं । द्वितीय प्राकृत वे माहित्यिक प्राकृतो को बताते हैं जिन्हे हेमचन्द्रादि प्राकृत व्याकरणकार "प्रकृति सस्कृत । तत्रभव तत् आगतम्" आदि कहकर परिमापित करते हैं । तृतीय प्राकृत आधुनिक
आर्य भापानो के मूल मे देखी जा सकती है । यहा हमारा अभीष्ट केवल प्राथमिक प्राकृत से है। यह प्राकृत पार्यों के भारत मे वसने के पहले से जो भापा बोली जाती रही होगी उसमे भी सभित की जा सकती है। आगे विकसित होने वाली साहित्यिक भापायो मे पायी जाने वाली देश्य या देशी शब्दावली निश्चित ही इमी बोलचाल की प्रार्थामक प्राकृत से सम्बन्वित है। ये शब्द आर्य तथा अनार्य दोनो ही वर्ग की अशिक्षित जनता की भाषा मे व्यवहृत होते रहे होंगे। इस प्राशय का प्रमाण हमे वेदो की भापा से भी मिल जाता है । ऋग्वेद की भाषा अधिक साहित्यिक है इसके विपरीत अथर्ववेद की भापा' इन वोल-चाल की भाषा के तत्त्वो से भरी हुई है । वैदिक या छान्दम् भापा के समानान्तर लोक प्रचलित प्राकृत भापाए विकसित होती जा रही थी। अनेको वैदिक रूप जनभापा के तत्त्वो से प्रभावित देखे जा सकते हैं।
1. अथवेद की मष्टि ऋग्वेद से निगली है, रोज व रोज के रीतिरिवाज और जीवा व्यवहार
की बातें और मान्यताए उममे ठीक ठीक प्रतिवन्धित होती हैं। ममग्र दृष्टि में अथर्ववेद के पछ यश ऋग्वेद के समकालीन तो है ही, फिर भी मथववेद के शब्द और शब्दप्रयोग ऋग्वेद में काफी निराले हैं। जिन शब्दो को ऋग्वेद में स्थान नहीं, वे शब्द अववेद मे न्यवहत होते हैं।
~डा प्रबोध वैचारदाम पहित-प्राकृत भाषा, पृ 13 2 सुनीनिकमार घाटा द्वारा लिखित 'भारतीय यायं भापा और हिन्दी', द्वितीय स., ( 74,
471,72 पायो द्वारा लिखित 'भारतीय यामा
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ब्राह्मण साहित्य में तो स्पष्ट ही तीन "देश्य" भापानो या विभाषामो का उल्लेख हुमा है। (1) उदीच्या (2) मध्यदेशीया (3) प्राच्या। उदीच्या विमापा. उस काल की परिनिप्ठित भाषा थी । इसका केन्द्र सप्तसिन्धु प्रदेश था।
ली मे ब्राहाण आरण्यक तथा उपनिपदो प्रादि की रचना हुई । मध्यदेशीया विभाषा का रूप स्पष्ट नहीं है । "प्राच्या भापा आधुनिक अवध-पूर्वी उत्तर प्रदेश एव विहार प्रदेश में बोली जाती थी। यह असम्कृत एव विकृत भाषा थी इसमे द्रविड एव मृण्डा भाषा के तत्वो का पूर्ण मिश्रण विद्यमान था। इस भापा के बोलने वाले ऐने लोग थे जिनका विश्वाग यज्ञीय सस्कृति मे नही था । इसी कारण उन्हे नात्य कहा जाता था। इन बात्यो का सामाजिक एव राजनैतिक सगठन भी उदीच्य सायों की अपेक्षा भिन्न था । बुद्ध और महावीर इन्ही मार्यों मे से थे । उन दोनो ने सामाजिक क्रान्ति के साथ मातभापा को समुचित महत्त्व दिया ।"। ताट्य ब्राह्मण में ब्रात्यो का उल्लेख हुआ है वहा कहा गया है कि बात्य लोग उच्चारण मे सरल एक वाक्य को कठिनता से उच्चारणीय बताते हैं यद्यपि वे दीक्षित नहीं है फिर भी दीक्षा पाये हुओ की भापा वोलते है।
इन प्रकार बहुत प्रारम्भिक काल से ही आर्य भापायो (साहित्यिक) मे लोक या देण्य तत्व स्थान पाते आये है। महावीर तथा बुद्ध ने इन्ही जनभापात्रो का नहारा लेकर अपने धर्मों का प्रचार किया। इन दोनो क्रान्तिकारी महापुन्पो के कुछ समय बाद ही उदीच्य मे एक ऐमी शक्तिशालिनी प्रतिभा से युक्त व्यक्तित्व का उदय हुप्रा जिसने समस्त लौकिक तथा साहित्यिक भाषाप्रो के तत्त्वो का एकर समाहार कर एक सर्वथा नवीन भाषा का निर्माण कर दिया जो युगयुगो से देव मापा के पद पर विभूपित चली आ रही है। यह महान कार्य शालातुर निवामी महर्षि पाणिनि के हाथो सम्पन्न हया । उन्होने भाषा परिकार के उद्देश्य को सामने रख कर साहित्येतर अर्थात् जनभाषा मे प्रचलित शब्दो के रूपो का भी
2
टा नेमिच द्र भाम्बी 'प्राकृत भापा और माहित्य का इतिहास' ₹ 5, तारा पब्लिकेशन पामच्छा, वाराणसी से प्रकाशित । अदरक्तवाक्य दयातमाह अदीक्षिता दीक्षितवाचवदन्ति । ताण्ड्यद्रा0 17/41 'उपनयनादि से हीन मनप्य व्रात्य कहलाता है। ऐसे मनुष्यो को लोग वैदिक कत्यो के लिये बनाधिकारी बीर सामान्यत पतित मानते है। परन्तु यदि कोई व्रात्य ऐसा हो जो विद्वान् जोर तपस्वी हो तो ग्राहमण उमसे भले ही वैप करें, परन्तु वह सर्वपूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तल्य होगा।" -हा. सम्पूर्णानन्द द्वारा सम्पादित प्रात्यकाण्ट भूमिका, पृ 2 प्र सस्करण, डा नेमिचन्द्र शास्त्री 'प्राकृतभापा और साहित्य का इतिहास', 4 6 की पादटिप्पणी 2 से उद्धृत ।
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परिष्कार कर दिया । इतना हो जाने पर यद्यपि माहित्यिक संस्कृत अपने मुगठित रूप के कारण अत्यन्त प्रभावशालिनी बनी रही फिर भी जनभापानो का विकास अपनी स्वाभाविक रीति के होता रहा और समय-समय पर इनमे प्रचलित णब्द माहित्यिक भापानी की निधि बनते गये । शुद्धता पर अधिक वल देने वाली माहित्यिक सस्कृत मे ये तत्व कम पाये। लेकिन इसका महारा लेकर प्रागे माहित्यिक भापा के रूप में प्रतिष्ठित होने वाली प्राकृत और अपन श भापाए इन जनमापा के तत्वो या देशी शब्दो के वाहुल्य को बचा न मकी । प्रकृति, स्वल्प और मगठन सभी दृष्टियो से "छान्दस" भापा के समीप रहने वाली ये मध्यकालीन पार्यभापाए सस्कृत से मात्र विषय वस्तु ही ले सकी । इसके समस्त निर्माण मे जन भापायो का बहुत अधिक योग रहा । मध्यकालीन भारतीय आर्य भापायो मे पाये जाने वाले ये ही तत्त्व "देशी" कहे जाने चाहिए । युग-युगो से सामान्य लोगो के बीच मे प्रचलित होने के कारण इनकी व्युत्पत्ति देना भी अत्यन्त कठिन कार्य है। ऐसे तत्त्वो मे
आर्य और प्रार्यतर दोनो ही प्रकार के तत्त्व मम्मिलित हैं। अब तक हुए अध्ययनो से यह सिद्ध हो चुका है कि माहित्यिक भापायो मे पाये जाने वाले ऐसे तत्त्व निश्चित ही कोल, सबाल, निपाद, द्रविड आदि जातियो की भाषा से लिए गये होगे।
अस्तु । साराश रूप मे यह कहा जा सकता है कि देशी "शब्दो" का, सामान्य जन भापा, जो कि बहुत प्राचीन काल से व्यवहार मे चली आ रही है, अत्यन्त निकट का सम्बन्ध है। अशिक्षित जनता के बीच में व्यवहृत होते रहने के कारण इन्हे नियमित साहित्यिक भापायो (विशेषत सस्कृत) मे कम स्थान दिया गया । परन्तु जनभापा का प्रश्रय लेकर विकनित होने वाली साहित्यिक भापानो मे इन्हें बहुतायत से प्रयोग किया गया । प्राकृत एक ऐसी ही जनमापा थी जिमकी देशी शब्दो मे निकट का सम्बन्ध भी है अत "देशी" शब्दो को इसमे विशेष रूप मे प्रश्रय मिला। सस्कृत-विद्वानी के लोकभापायो से प्रति घृणापूर्ण दृष्टिकोण मे परे प्राकृत और इसी के अन्तिम विकमित रूप अपन शके कवियो तथा चिन्तको ने प्राय अपनी मापा को "देशी"2 ही बताया है। प्राकृतो से भी कहीं अधिक "देशी" शब्द अपभ्र णो मे पाये जाते हैं। प्रत इन दोनो के आपसी सम्बन्ध पर विचार कर लेना भी समीचीन होगा। "अपनग और देशी"
अपन श का "भापा" के रूप में सर्वप्रथम उल्लेख महाभाष्य मे प्राप्त होता
1 2
अधिकतर विद्वान् 'अपभ्र म' को प्राकृत का एक भेद ही मानते हैं। इन पक्तियों के लेखक की भी सम्मति इन्हीं विद्वानों के माय हैं। प्राकृत के कवि भी अपनी भाषा को प्राय 'देशी' ही कहते हैं।
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[ 141 है। वहां महोप पतंजलि बताते है कि -एक ही शब्द (संस्कृत) के अनेको अपभ्रश भी होते है जैसे संस्कृत गो का अपभ्र श गावी, गोणी, गोता, गोपोतालिका ग्रादि मिलता है - "एकस्यैवशब्दस्य बहवोऽपभ्र शा। तद्यथा गौरित्यस्य गावी, गोणी, गोता, गोपोतालिकेत्येवमादयोऽपभ्र शाः ।" पतजलि द्वारा गिनाये गये उन रूपो में से कुछ को वडा और हेमचन्द्र ने "प्राकृत" शब्दो के रूप मे स्वीकार किया है । यहा इस उल्लेख मे स्पष्ट हो जाता है कि पतजलि शुद्ध सस्कृत से अलग जितने भी शब्द है सभी को "अपभ्र श" कहते है । प्राकृत व्याकरण कार पतनलि के धारा गिनाये गये बहन से अनिल रूपों को 'प्राकृत" का मानते है । अतः स्पष्ट है प्राकृत व्याकरणकार "अपभ्र " फो प्राकृत से अलग नहीं मानते ।
प्रागे चलकर भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र के 17वें अध्याय मे प्राकृत व देशी भागाग्रो के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा है । वे मस्कृत से विकृत रूपो को प्राकृत कहते हैं और प्राकृत शब्दो से तीन भेद करते हैं - समान (तत्सम) विभ्रष्ट (तद्भव) और देशी । इसी सन्दर्भ मे वे म्लेच्छ प्रयोगो से युक्त भिन्न-भिन्न जाति भापायो का भी उल्लेख करते हैं। उन्होने मागवी, पावन्ती, प्राच्या सूरसेनी अर्धमागधी, वाल्हीका और दाक्षिणात्या सात भापायो तथा शवर, पामीर, चाण्डाल, सचर, द्रविड, उद्रज, हीन और वन चरो द्वारा बोली जाने वाली विमापापो का भी उल्लेख किया है।
भरत के इस विवरण की सक्षेप मे व्याख्या करते हुए हीरालाल जैन यह निष्कर्ष निकालते है कि-"भरत मुनि का मत है कि सस्कृत के अतिरिक्त दो प्रकार की भापाए हैं- एक प्राकृत-जिसमे संस्कृत के विकृत शब्द प्रयोग मे आते है और इसलिए जिन्हें वे "विभ्रष्ट' कहते है और दूसरी देशी - जिसमे सस्कृत प्राकृत के शब्द भी हैं तथा कुछ म्लेच्छ (अनार्य अर्थात् असस्कृत शब्द भी हैं। मुख्य देशी भाषाए (भाषा) मागधी भावन्ती ग्रादि सात है और गोण देशी भाषाए (विभापा) शवर आभीर चाण्डालादि की अनेक हैं ।' ।
हीरालाल जैन द्वारा निकाला गया यह निष्कर्ष सौद्देश्य है- वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि भरत ने भी अपभ्रश (आभीरो की भाषा) को देशी कहा है। परन्तु अपने मन्तव्य की सिद्धि मे वे भरत द्वारा कही गयी बात के सन्दर्भ को भूल गए । यहा भरत का मन्तव्य नाटको मे प्रयोग योग्य भाषाप्रो का हल्का विवेचन
1.
2
चण्ड 'प्राकृत लक्षण' 2,16 गोगावि । हेमचन्द्र प्रा व्या 2,174 गो गौणो, गावी, गाव, गावीओ। नाट्यशास्त्र 17, 1-4-49 तक पाहुड दोहा की भूमिका, पृ. 37
3 4
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142 ] मात्र है जिसे नाटककार विभिन्न पात्री से स्वच्छन्दतापूर्वक बोलवा सकता है । यदि हीरालालजी की तरह भरत के अनुसार आभीरो की भापा (विभाषा) अपभ्र श के रूप मे कल्पित कर ली जायेगी तो फिर द्रविड भापा (एक विभापा) को भी आर्य-भापा के अन्तर्गत लिया जा सकता है। कुछ भी हो इस विवाद ने परे हटकर भरत ने जिन प्राकृत की भापायो और विभाषायी की चर्चा की है उनमे 'देशी' तत्त्व विद्यमान हैं । हा इतना अवश्य है कि इस स्थल पर उरिलम्बित प्राकृते दो प्रकार की है- एक सस्कृत सम्मत, उमके विकृत रूप में, दूसरी विभिन्न प्रान्तीय और जातीय तथा स्थानीय वोलियो से सम्मत जिसे हम देशी बहुल प्राकृत कह सकते है ।
भरत मे आगे प्राकृत और अपभ्रण की अलग-अलग भापायो के रूप में गणना की गयी । परन्तु यह भरत की मान्यता के विपरीत बात नहीं थी। मस्कृत के विकृत रूपो की जिनमे प्रधानता रही वे काव्य प्राकृत के काव्य कहलाये । परन्तु ऐसे काव्य जिनमे प्रामीरादि देशी तत्त्वो की प्रवानता होती गयी एक अलग विभाग के अन्तर्गत रख दिये गये । यह विभाग ममवत साहित्यिक प्राकृत और देशी प्राकृत को अलग-अलग स्पष्ट करने के लिए रखा गया होगा । यही देशी तत्वो से युक्त प्राकृत (विमापा) अपभ्रंश कही जाने लगी होगी।
__वास्तव मे अपन । प्राकृत की ही अतिम अवस्था है जिसमे हिमालय के पार्वत्य प्रदेश, मिन्यु और मोवीर प्रदेश के निवामियो का उकार बहुल प्रयोग बढ़ गया था । भरत ने इसी उकार बहुला भापा को (विभाषा-प्राकृत) के रूप मे स्त्रीकार किया है । विनष्ट शब्द के प्रयोग से उनका तात्पर्य तद्भव शब्दो मे युक्त माहित्यिक प्राकृतो मे रहा होगा। इस प्रकार भरत द्वारा दिया गया। विवेचन' प्राकृतो से ही सम्बन्धित है।
विक्रम की प्रथम मदी मे ही प्राकृत साहित्यिक भापा का रूप धारगा करने लग गयी थी। धीरे-धीरे व्याकरणकारो के हाथो यह परिष्कृत होती गयी और परिनिष्ठित मापा बनकर जन भापा के स्वरूप से दूर होती गयी । परिणामत. इन परिनिप्ठित भाषा, प्राकृतो की जगह एक तृतीय युगीन' प्राकृत का विकास हुआ जिसे भाषाशास्त्रियो ने अपन्न ण कहा है। इस नाम के अनेको प्राकृत रूप प्रबहस -प्रवन्मस, अवहट्ट-अवहत्य आदि मिलते हैं। भरत ने इसी का उल्लेख उकार बहला प्राकृत (विभाषा) के रूप में किया है ।
1
नमानणब्द विघ्रप्ट देशीगतमयापि च । ना मा 171311 प्राकृत भापायों का विस्तृत वर्गीकरण डा नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपने 'प्राकृत भाषा और माहित्य का यानोचनात्मक इतिहाम' नामक ग्रन्य के पृ 17 पर दिया है। वहा इन्होंने भी वपन्नग को तृतीय युगीन प्राकृत के रूप में स्वीकार किया है।
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अपभ्र श कही जाने वाली इस तुतीय-युगीन-प्राकृत का प्रचलित जनभाषा से घनिष्ठ नग्बन्ध था यह दात भरत ने भी स्वीकार की है। इसी प्राकृत का विवेचन मर्तु हरि ने अपने वाक्यपदीय मे किया है -
शब्द सत्कार हीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षते ।
तमपत्र शमिच्छन्ति विशिष्टार्थ निवेशनम् ।। वाक्यपदीय, 1 का०, कारिका 148 यहा भर्तृहरि का सकेत ऐसे शब्दो की ओर है जो पाणिनीय व्याकरण से प्रसिद्ध है । पतजलि ने भी यही बात कही थी जो शब्द भ्रष्ट, च्युत, स्खलित विकृत और अगुद्र हैं उन्हें वे अपभ्र ग शब्द कह देते है। एक बात यहा स्पष्ट कर देने की है । पतजलि ने यहा अपभ्र श पद का प्रयोग शब्द के सदर्भ मे किया है, भाषा विशेष के नहीं । महाभाष्य के टीकाकार कैयट (10 म्शदी) इस गत को प्रोर भी स्पष्ट कर देते है -
अपशब्दो हि लोके प्रयुज्यते साधुशब्दसमानार्थञ्च 'अपभ्र श शन्द' साधु शब्दो के समान अर्थ मे लोक मे प्रयुक्त होते है ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि तृतीय युगीन प्राकृत जिसे कि अपभ्र श नाम दिया गया है, जन भापा के तत्त्वो से भरी हुई है। इसका विकास विभिन्न प्रदेशो में स्थानीय जनमापायो का सहारा लेकर होता रहा । धीरे-धीरे इसमे भी काव्यादि की रचना होने लगी। इमे अलग भाषा के रूप में भले ही मान लिया गया हो परन्तु इसका स्वरूप निर्माण और शब्दावली सभी कुछ देश्य तत्त्वो से युक्त है और सबसे अाश्चर्यचकित कर देने वाली बात तो यह है कि अपभ्र श के लगभग सभी कवियो ने अपनी काव्यभापा को 'देशी' कहा है । सस्कृत के प्राचार्यों ने तो इसे पूर्ण रूप से देशी भापा माना ही है । अब अपभ्र श के कवियो के विचारो का उल्लेख कर देना भी समीचीन होगा।
___'पउमचरिउ' के रचयिता स्वयभू अपने रामायण को 'देशीभापा' या ग्रामीण मापा मे विरचित बताते हैं 11 पुष्पदन्त2 ने भी अपनी भाषा को 'देशी' नाम से अभिहित किया है। पद्मदेव कृत 'पासणाहचरिउ' लखमेव (लक्ष्मणदेव) कृत
1 देसी-मापा उभय तडज्जल गामेल्ल भास परिहाणइ । पउमचरित 3/1 2. णउ हउ होमि देसिण वियाणमि ।
-महापुराण 1/18 3 वायरण देमि मद्दत्य गाढ
छदालकारविमाल पोढ । + + + पाहुड दोहा की भूमिका, पृ 44 से उद्धृत ण समाणमि छद न बधभेउ । ण होणाहिउ मत्ता समेउ । ण सक्क्रय पायउ देम-भास । णउ सद्द वण्णु जाणमि समास । इत्यादि पाहुइ दोहा भूमिका, पृ 45
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1441 'रणेमिणाह बरिउ', पादलिप्त' कृत 'तरंगवई कहा' (तरंगक्ती कथा) तथा विद्यापति सभी ने अपनी काव्य-मापा देशी बताया है ।
इस प्रकार सभी दृष्टियो से यह सत्य है कि अपभ्र स तृतीय युगीन प्राकृत थी। पिशेल ग्रियर्सन, भण्डारकर, चटर्जी, दुलनर जैसे विद्वानो ने अपभ्रश को देशीभाषा माना। पिशेल ने लिखा भी है “मोटे तौर पर देखने से पता चलता है कि प्रामाणिक सस्कृत से जो वोली घोडी बहुत भेद दिखाती है, वह अपभ्र श है । इसलिए भारत की जनता द्वारा बोली जाने वाली भापात्रो का नाम अपभ्र श पडा और बहुत वाद को प्राकृत भाणयो में से एक वोली का नाम भी अपन श रखा गया । यह भापा जनता के रात दिन के व्यवहार मे आने वाली बोलियो से उपजी और प्राकृत की अन्य भाषानो की तरह थोड़े बहुत फेर-फार के साथ साहित्यिक भाषा वन गयी।
पिशेल के इस कथन से यह स्पष्ट है कि एक प्रकार की अपभ्र शशब्द रचना और स्परचना मे प्राकृत के ही रास्ते पर चलती है। इसे ही दण्डी ने काव्यभापा के रूप मे स्वीकार किया है । दूमरी प्रकार की अपभ्रश वोलचाल की मापा रही है। विद्यापति आदि अपभ्र श कवियो ने इसी वोल-चाल से सम्मत भापा को देशी कहा होगा।
अपभ्र श के इन दोनो रूपी की सिद्धि सर जार्ज ग्रियर्सन के 'लग्वेज आफ इण्डिया' निबन्ध से भी होती है। इन्होंने प्राकृतो को प्रारम्भिक अपभ्रम कहा है। लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया' मे ग्रियर्सन ने अपभ्र शो को प्राकृत का स्थानीय अथवा प्रादेशिक विकार कहा है। इसी प्रकार' आन दि मार्डन इण्डो आर्यन वर्नाक्यूलर्स (इण्डियन एण्टीक्विरी, जिल्द-60) मे उन्होंने अपभ्रंश के अन्तर्गत बोलचाल की प्राकृतों को लेने से इन्कार करते हुए अपभ्रंश को साहित्यिक प्राकृतो के बाद की देशभापा माना है। स्पष्ट है कि अपन श मे देशीभाषा के तत्त्व अवश्य हैं। यह सम्भव है कि अपभ्रश बोलचाल की भाषा न भी रही हो, पर इतना तो मानना पडता है कि पूर्ववर्ती साहित्यिक प्राकृत ही देशीभापा के योग से अपभ्र श की अवस्था
1. पालित्तएण रइया वित्यणरो तह देसिवयहि
नामेण तरगवई यहा विचित्ता य विउला य ।। पाहुड दोहा-भूमिका, प 45 देमिल वअना मबजन मिट्ठा। त तैमन जम्पनो यवदा ।।
-पाहुह दोहा-भूमिका, पू 33 3 'प्राकृतभापायो का व्याकरण'
- हिन्दी अनुवाद-विहार राष्ट्रभाषा परि , 57 4 भाभीरादिगिर वाय्येप्वपन म इतिम्मृता । का. मा 1136 5 'लग्वैज याफ इण्डिया', जिल्द 1, पृ 123
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[ 145 मे विकसित हुई है। नमिसाधु ने काव्यालकार की टीका मे 'प्राकृतमेवापभ्रश:1 'द्वारा इस प्रावृत को अपभ्र श कहा है 12 निष्पर्ण .
उपर्युत विवेचन यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि 'देशी' शब्दो का प्रादुर्भाव बहन अनादिकाल से बोली जाने वाली जनभाषा से हुआ और समय-समय पर जन मापायो का सहारा लेकर विकसित होने वाली साहित्यिक भाषाए (पालिप्राकृत ग्रादि) इन्हे यात्ममात करती रही। ऐसे शब्द असख्य परिवर्तनो से होकर गुजरने के कारण युगयुगो से विकासमान भापायो का अत्यन्त ही रुचिकर इतिहास बताते है । उनमे अने को प्रातर शब्द भी पायीकृत रूप मे व्यवहृत होते आ रहे हैं। इनका अर्य और नन्दर्भ जानने के लिये हमे व्याकरण का सहारा छोड कर सामान्य लोगो के व्यवहार का महारा लेना पडता है । ये शब्द जिस सदर्भ और वातावरण में प्रादिकाल से व्यवहुत होते या रहे है पाय उसी सदर्भ और वातावरण मे आज भी प्रचलित हैं । जन-मापाग्रो से गृहीत इन शब्दो का हेमचन्द्र ने जैसा परिचय दिया है, प्राज की भाषा में भी वे उसी सन्दर्भ और वातावरण में प्रयुक्त दिखायी देते हैं । व्याकरण ग्रन्यो के बीच इनका सन्दर्भ खोज पाना अत्यन्त दुरूह कार्य है। साथ ही श्रार्यों के भारत प्रागमन के पहले तथा स्वय पार्यो की ही मूलभापा का कोई लिखित प्रमाण न मिलने के कारण इनके उद्भव का पता लगा पाना अत्यन्त कठिन काय है । इन शब्दो का उद्भव भारत मे युगयुगो से बसती चली आयी जातियो के सास्कृतिक इतिहास के मूल मे खोजा जा सकता है।' भारतवर्ष मे अनेक जातियो के लोग और उनकी भिन्न-भिन्न भापाए हैं। इन उपादानो के मिश्रण से ही भारतीय जन तथा भारतीय संस्कृति निर्मित हुई है । ... .. ... । अत्यन्त प्राचीनकाल से भिन्न-भिन्न विदेशी जातिया अपनी विभिन्न संस्कृतियो को साथ लेकर भारत मे यायी हैं और यहा बसती गयी हैं। उन्होने अपने वशानुगत सस्कारो विचारो एव सामर्थ्य के अनुसार यहा व्यवस्थित समाज और संस्कृति का निर्माण किया है और अपने ढग से जीवन बिताने की प्रणालिया और विचार विकसित किये हैं । .......... """। हमारे यहा के आदिवासी निग्रोवट या नेग्रिटो जातिया हैं ...... .. इन नेग्रिटो आदिवासियो के पश्चात् पश्चिमी एशिया की प्रास्ट्रिक जाति के मनुष्यो का आगमन हुआ और उनके पश्चात् द्रविड उसी पश्चिम दिशा से आये। आस्ट्रिक
1. रूद्रट काव्यालकार-1112 की टीका। 2. "प्राकृतभापा दौर साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास"-डा. नेमिचन्द्र, पु. 1001
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146 ] जाति के लोग भारत मे 'निषाद' कहलाते थे और द्रविड लोग पार्यों मे 'दस्यु' या 'दास' नामो से प्रसिद्ध थे। द्रविडो के बाद आर्य जातिया पायी और उत्तर तथा उत्तरपूर्व से तिब्बती चीनी लोग जो प्राचीन भारत मे किरात कहलाते थे, आये । भारतीय जातियो और भारतीय संस्कृति की प्राधार ये ही चार जातिया बी-निपाद, द्रविड, किरात और आर्य । परन्तु यह स्वय भी पाने के समय पूर्णरूप से विशुद्ध या अमिश्रित नही कही जा सकती। • • " .... . ... ...." " " परन्तु इन सब विभिन्न उपादानो का सम्पूर्ण एकीकरण आर्यों की उच्चकोटि की व्यवस्था शक्ति के फलस्वरूप ही हो सका । कही-कही यह एकीकरण रासायनिकपूर्णता को पहुंच गया, तो कही केवल परस्पर के सम्मिश्रण तक ही सीमित रहा। "
" . आस्ट्रिक और द्रविडो द्वारा भारतीय संस्कृति का शिलान्यास हुअा था, और पार्यों ने उस प्राधारशिला पर जिस मिश्रित सस्कृति का निर्माण किया उस सस्कृति का माध्यम, उमकी प्रकाशभूमि एव उसका प्रतीक यही आर्यभापा वनी, प्रारम्भ से संस्कृत, पालि, पश्चिमोत्तरीय प्राकृत (गान्वारी) अर्वमागवी अपभ्र श प्रादि रूपो मे तथा वाद मे हिन्दी, गुजराती, मराठी, उडिया, वगला और नेपाली आदि विभिन्न अर्वाचीन भारतीय भाषाओं के रूप मे, भिन्न भिन्न समयो एव प्रदेशो मे भारतीय संस्कृति के साय इस भापा का अविच्छेच सम्बन्ध बनता गया।'
चाटुया महोदय के इस विवेचन को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि पार्यों और आर्येत्तर जातियो के आपसी आदान-प्रदान के माध्यम से भारतीय आर्यभापायो का निर्माण सम्पन्न हुना। इस सारी प्रक्रिया के बीच पार्यों की भाषा का प्रमुख स्थान रहा । इसके इर्द-गिर्द अनेको आर्येत्तर भापायो के फैली होने के कारण समय-समय पर यह उनसे प्रभावित होती रही । आर्येतर भापात्रो से लिये गये कुछ उपादान तो आर्यों की साहित्यिक भाषा को अपनी वस्तु बन गये। एक तरह से । उनका आर्वीकरण हो गया परन्तु वहत मे ऐसे उपादान फिर भी समय पाकर साहित्यिक भापात्रो मे आते रहे जिनका कोई भी त्रोत आर्यभाषा के अन्तर्गत नही मिलता। इन्हीं अमर्मित तत्त्वो को देशी कहा गया है जो निश्चित ही प्रार्येतर जातियो और उनकी संस्कृति के प्रभाव स्वरूप देखे जा सकते हैं । मध्यकालीन आर्यभापामो मे ये उपादान स्पष्ट होकर ऊपर आ गये । देशी शब्दों के प्रति हेमचन्द्र के पूर्व के प्राचार्यों का दृष्टिकोण.
'देशी' शब्दो का प्रयोग वैदिक युग की भाषा से होता आ रहा है । आर्यों
1 सुनौतिकुमार चाळ—'भारतीय आर्यमापा और हिन्दी' पृ. 14-15
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[ 147 की मस्कृति प्रारम से ही यामीण संस्कृति रही है अत ग्रामीण या जनभाषा के शब्दो का प्रभाव इनकी साहित्यिक भाषा पर भी पडा ।।।
ब्राह्मणकाल मे प्रार्य-मापा के तीन रूपो का स्पष्टत अनुमान किया जा मकता है- (1) उदीच्य-उत्तरीय या पश्चिमोत्तरीय (2) मध्यदेशीय और (3) प्राच्य । उदीच्च परिनि प्ठिन भापा थी। 'कोपीतकि ब्राह्मण' मे एक जगह उल्लेख है कि 'उदीच्य प्रदेश मे भाषा बडी जानकारी से वोली जाती है, मापा सीखने के लिए लोग उदीच्यजनो के पास ही जाते है, जो भी वहा से लोटता है, उसे सुनने की लोग :च्छा करते है।'
'(तस्माद उदीच्या प्रजाततरा वाग् उद्यते, उदच एवयन्ति वाच शिक्षितम्' यो वा तत् प्रागच्छति, तस्य वा शुश्रूपन्त इति )2
_ -गाखायन या कौशीतकि ब्राह्मण 716 ॥ 'प्राच्या पूर्व मे रहने वाली बर्बर अटनशील और असुर वर्ग के लोगो की भापा के सम्पर्क से प्राप्त पार्य-मापा का रूप है। परिनिष्ठित भाषा-भाषी प्रार्य इन प्राच्य जनो को घृणा की दृष्टि से देखते थे। इस प्रकार यह प्राच्य भाषा स्थानीय वोलियो की ध्वन्यात्मक प्रवृत्तियो तथा समवत शब्दावली से भी युक्त थी। इसी श्राशय का उल्लेग्व पतजलि के महाभाप्य में एक ब्राह्मण मे आयी कथा के सदर्भ मे भी मिलता है । वहा बताया गया है कि असुरवर्ग के लोग सस्कृत के शब्दो का शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाते । वे 'अरयो' को 'ग्रलयो, कहते हैं। क्यों कि उनकी भाषा की प्रकृति परिनिप्ठित भापा से परे हटकर है। प्रार्य-भापा का मध्यदेशीय रूप उदीच्या और प्राच्या के बीच-विचाव के रूप सामजस्य से प्राप्त हुया । प्राचीन आर्य-मापा के इन तीनो रूमो के उदाहरणस्वरूप एक शब्द के तीन रूप लिये जा सकते हैं- श्रीर, श्रील तथा श्लील, पहले रूप में केवल र' है, जो उदीच्या का लक्षण है। तीसरे मे केवल 'ल' है, जो कि परिवर्ती मागधी को देखते हुये स्पष्टत प्राच्या का लक्षण है और दूसरा रूप 'श्रील' जिसमे 'र' तथा 'ल' दोनो विद्यमान हैं, 'मध्यदेशीया' का रूप है।
ब्राह्मणो के वाद पालि साहित्य के विकास के साथ ही जनभाषा का प्रभुत्व वढा । पालि मे 'देशी' तत्त्व बहुतायत से खोजे जा सकते हैं। अभी तक जनभाषा का प्राश्रय लेकर चलने वाली भाषामो मे किसी का व्याकरण नही लिखा गया था। जैन अागम के अन्तर्गत प्राचीनतम रचना 'पायारग' के अन्तर्गत 'अणुप्रोगदार सुत्त'
1 2
देखिये 'भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी' चाटा-, ' 74-751 भारतीय आर्य भापा और हिन्दी, द्वि स , 1 72 से उद्धृत ।
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168 ] है । इन ग्रन्य मे प्राकतो नी ममस्त शब्द राशि को पाच भागो मे विमन किया गया है । 1 यहा चीथे विभाग नेपातिक के अन्तर्गत देशी शब्दो को समाहित कर लिया गया है । वहा दिये गये उदाहरण-अक्कतो, जह, जहा आदि हैं ।
जन भाषाओं के साथ-साथ सदैव ही किसी न किसी अश मे मम्कृत अभिजात वर्ग की मापा के रूप में प्रतिष्ठित रही है । सस्कृत में अधिक से अधिक जनभापा के तत्त्वो को न रखने की प्रवृत्ति रही। फिर भी ये शब्द काफी मात्रा मे स्वय ही स्वाभाविक रूप से पा गये । मस्कृत में भी शब्दो के दो विभाग किये गये हैं (1) व्युत्पन्न शन्द (2) अव्युत्पन्न शब्द । व्याकरण के नियमो मे सिद्ध होने वाले शब्द व्युत्पन्न तथा जिनकी मिद्धि व्याकरण सम्मत न होकर लोक परम्परा या व्यवहार में हो वे अव्युत्पन्न गब्द कहलाये। इन्ही अव्युत्पन्न शब्दो के बारे मे पतजलि ने कहा है कि लोक मे शब्दो का भण्डार बहुत बड़ा है उन शब्दो मे कुछ ऐसे हैं जिन्हे व्याकरण से व्युत्पन्न नहीं किया जा सकता । ऐसे शब्द लोक मे स्वत उत्पन्न होते हैं और अर्थों के साथ उनका सम्बन्ध स्त्रय जुड़ जाता है और वे लोगो के कण्ठ मे रहकर व्यवहार मे आते हैं। उनके लिये लोक ही प्रमाण है। इसी प्रकार के दो को पाणिनि ने मना प्रमाण'2 कहा है। संस्कृत मे कुछ ऐसे भी शब्द थे जो विना व्याकरण के नियम के ही प्रयुक्त होते थे । पाणिनि ऐमे शब्दो को 'यथोपदिष्ट' मानकर प्रामाणिक मान लेते हैं- पृपोदरादीनि-ग्रादिप्टम् ।। सम्भवत इन्ही भावारो पर व्याकरण द्वारा अव्युत्पादित गन्द आचार्यों द्वारा देशी कह दिये गये हैं ।
इसके बाद प्राकृत के व्याकरणकारो ने 'प्राकृत-शब्द- सम्पत्ति' को तीन प्रमुख भागो में बाटा है (1) नत्सम (2) तद्भव (3) देश्य या देशी । प्राकृतो का सर्वप्रथम भाषा गत विवेचन करने वाले भरन हैं । इन्होने भी प्राकृत को तीन प्रकार के शब्दो ने युक्त माना- ममान, विभ्रष्ट तथा देशीमन । अन्य प्राकृत व्यारणकागे मे 'चण्ड' इने 'देशीप्रसिद्ध' कहते हैं त्रिविक्रम मार्कण्डेय सिंहराज वाग्भट्ट यादि देव या देशी कहते हैं।
___ इस प्रकार प्राचार्य हेमचन्द्र के पहले तया दाद के सभी प्राचार्यों नया विद्वानो ने प्रार्य भापामो में "देशी" शब्दो की स्थिति स्वीकार की है। अपने
पचणामे पचविह, पराणत्त त उहा-(1) नामिक (2) नेपातिक (3) आध्यानिक (41 योपगिक (5) मिश्र । अणदारमुत-प्राकृत मापा और माहित्य का आलोचनात्मक इनिहास, 810 नेमिचन्द्र पाद टिप्यागी, १058 नदगिय मनाप्रमागत्वात । 11153 हे० प्रा० व्या0 111 त्रिवियम का व्याग प्रारम्मिक्र 6 ठी कारिका-भाव्द चन्द्रिका करिका 49 प्रभचन्द्र काव्याणकरण 11116 इत्यादि ममान विघ्रट देशीमतमापिच । ना0 जा0 1713
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[ 149 पहले के याचार्यों की विचारधारा का पोपण स्वय हेमचन्द्र ने किया और आगे चलकर उनके बाद के व्याकरणकारो ने स्वय हेमचन्द्र की मान्यताप्रो का समर्थन किया । इतना अवश्य है कि प्राचार्य हेमचन्द्र की भाति किसी भी व्याकरणकार ने "देशी" पदो पर स्वतन्त्र ग्रन्य लिखकर अपने मतो का प्रतिपादन नही किया । पूरी भारतीय प्राय-भाषा परम्परा मे "देशी" शब्दो का परिज्ञान कराने वाला हेमनन्द्र का एकमात्र गन्य "देशीनाममाला" है । इसी से हमे यह भी पता चलता है कि इन तरह के गन्ध पहले भी लिये गये थे परन्तु अव वे उपलब्ध नही होते । हेमचन्द्र ने परम्परा के इन सभी देशीकारो के स्वीकार्य मतो को माना और अस्वीकार्य मनो मापन किया है। अब यहा "देशी" शब्दो के प्रति स्वय प्राचार्य हेमचन्द्र का क्या दृष्टिकोण है ? इसका विवेचन कर लेना समीचीन होगा। प्राचार्य हेमचन्द्र का मत
भारतीय व्याकरण अन्यो की परम्परा में प्राचार्य हेमचन्द्र के "सिद्धहेम शब्दानुगानन" का बहत बडा महत्त्व है। इस एक ही ग्रन्य मे उन्होने सस्कृत, प्राकृत, अपभ्र श तीनो का व्याकरण दे दिया है। तीनो भाषाओ मे व्याकरणसिद्ध शब्दो का पाख्यान कर चुकने के बाद उन्होने अपने ग्रन्थ के अष्टम अध्याय (प्राकृतव्याकरण) के पूरक ग्रन्थ के रूप मे व्याकरण से प्रसिद्ध "देशी" शब्दो का पाख्यान करने के लिये एक कोश का निर्माण किया। इसका नाम देशीनाम माला" रखा । भारत ही नहीं समस्त विश्व के भाषा सम्बन्धी ग्रन्थो मे यह एक अद्वितीय अन्य है।
प्राचार्य हेमचन्द्र "देशी" शब्द की परिभाषा देते हुए देशीनाममाला के प्रारम्भ मे ही कहते है
जे लक्खणे सिद्धाण प्रसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु ।
ण य गउणलक्खरणासत्तिसभवा ते इह रिणवद्धा ।।' "जो न लक्षण (व्याकरण) ग्रन्थो से सिद्ध होते हैं और न जो सस्कृत कोशो मे ही प्रसिद्ध है तथा जिन्हे लक्षणा आदि शब्द शक्तियो के आधार पर भी नहीं समझा जा सकता-ऐसे "देशी" कहलाने वाले शब्द इस कोश में निबद्ध किये गये हैं।"
इस बात को वे मूल गाथा की व्याख्या मे भली भाति स्पष्ट करते हैं। "लक्षणे शब्द शास्त्रे सिद्ध हेमचन्द्र नाम्नि ये न सिद्धा प्रकृति प्रत्यायादि विभागेन
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1
दे० ना0 मा0-पिशेल द्वि0 सं0 113040 2
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150 1 न निष्पन्नस्तेऽत्र निवडा ..." " ये च सत्यामपि प्रकृति प्रत्यय विभागेन मिट्टीसस्कृताभिवान कोशेषु न प्रसिद्धास्तेऽप्यत्र निवढा । " ये च मम्कृतानिवान कोणेपु अप्रसिद्धा अपि गौम्या लक्षणया वालवार वृधामणिप्रतिपादिलयाशक्त्या संभवन्ति "..." " ते डह न निवद्धा:।
"सिद्ध मगन्दानुशासन" प्रभृति व्याकरण ग्रन्थों से जो प्रकृति प्रत्यय आदि व्याकरणिक विभागो से सिद्ध नही होते ऐसे शब्द इम कोश मे रखे गये हैं। और जो व्याकरणिक प्रकृति-प्रत्यय आदि विभागो से सिद्ध होते हुए भी मस्कृत कोणो मे प्रसिद्ध नहीं हैं, उन्हे भी "देशी" मानकर निबद्ध कर लिया गया है । और जो सस्कृत कोमो मे अप्रसिद्ध होते हुए भी गौणी लक्षणा या अलकार चूडामणि पाटि ग्रन्यो मे प्रतिपादित शब्दशक्तियो के द्वारा भी दुर्वोव हैं, ऐसे शब्दो को वहा रत दिया गया है" - इसके बाद भरतादि शास्त्रकारों द्वारा निर्दिष्ट भिन्न-भिन्न प्रान्तीय भाषायो के शब्दो को कोई "देशी" न समझ ले इस बात की ओर संकेत करते हुए वे कहते है
•णाणा देम पसिद्धीइ भण्णमाणा अणन्त या हुन्ति ।
तम्हा अणाड पाइन पयट्टमाना विसेननो दे मी 112 देशविशेप (महाराष्ट्र विदर्भादि) मे वोली जाने वाली भापाएं अनेक हैं। अत. उनके शब्दो की सीमा भी नहीं है । इस कारण अनादिकाल से प्रचलित भाया के शब्दो को ही यहा देशी माना गया है।
इस प्रकार प्राचार्य हेमचन्द्र देशी शब्दो की कोटि मे प्रमुखतः चार प्रकार के शब्द रखते हैं (1) ऐसे शब्द जिन्हे व्याकरणगत नियमो से सिद्ध न किया जा सके । (2) ऐसे शब्द जो व्याकरण मे सिद्ध होते हुए भी सस्कृत के कोशो मे अप्रसिद्ध या अप्रचलित हो - जैसे - अमयणिग्गम.-अमृत निर्गम.- चन्द्रमा । यह शब्द चन्द्रमा के अर्थ मे संस्कृत के कोणो मे न प्राप्त होने के कारण "देशी" शब्दो को कोटि में रख दिया गया है। (3) ऐसे शब्द जो लक्षणा इत्यादि शब्द शक्तियों के आधार पर भी अपने अर्थ से न जोडे जा सकें। (4) ऐसे शब्द जो अनादि काल से स्वाभाविक रूप से प्रचलित चले आ रहे हो।
प्राचार्य हेमचन्द्र ने उपर्युक्त चार कोटि के शब्दो को "देशी" माना है। परन्तु इन आवारो पर उनके द्वारा संकलित किये गये शब्दो मे "वास्तविक रूप से 1. देगीनाममाला-पिगेल, द्वि0 10 11311, पृ0 3 2 वही, 114, पृ0 3
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[ 151 "देशी" कहे जाने वाले शब्दों की संख्या कम है। पिशेल आदि विद्वानो ने हेमचन्द्र की इस देशी विषयक मान्यता को ठीक नहीं बताया है। इनके द्वारा सकलित किये गये शब्दो मे शुद्ध रूप से लगभग 1500 शब्द ही देशी है। शेष तद्भव और तत्सम है जिनका संग्रह प्राचार्य ने कोशो मे उनकी अप्रसिद्धि तथा पूर्व प्राचायो की मान्यता के प्राधार पर किया होगा । पी० एल० वैद्य ने हेमचन्द्र की "देशीनाममाला" मे सकलित शब्दो को 8 भागो मे विभाजित किया है।
(1) ऐसे शब्द जो दिये गये अर्थ मे ही संस्कृत मे जा ढूढे सकते हैं। जैसे अहिविण्ण (प्रगिविण, दुखी निराश) अइहारा (अचिरामावर्ण व्यत्यय मात्र) 'प्रामि ग्रन (प्रायासिका) खुलह (गुल्क) प्रादि ।
(2) ऐसे शब्द जिनका मूल संस्कृत मे खोजा तो जा सकता है परन्तु उनका वह प्र नहीं है जो प्राकृत मे है। जैसे अरुण-कमल (प्राकत) लाल (सस्पत) गहवइ-गृहपति-(सस्कृत पति या स्वामी, प्राकृत, चन्द्रमा ।
(3) प्राकृतो का स्वरूप धारण किये हुए सस्कृत शब्द-जैसे एक्कघरिल्ल (4) प्राकृत शब्द या तद्भव शब्द ।
15) संस्कृत के उपसर्गों से युक्त प्राकृत शब्द - जैसे चिल्ला-उचिल्ला, फेसाउफे फसा, चल्लि-उचल्लिअ, वुक्का-उब्बुक्का ।
(6) संस्कृत के स्वरूप के प्राकृत शब्द-जैसे, अण्णा, अन्णी ।
(7) प्राकृत शब्दो का तोड़ा मरोडा गया रूप-जैसे खट्टा-खट्टिक्का, गोणा-गोणिस्का , घर-धरिल्ली ।
(8) प्राकृत और सस्कृत शब्दो के मिश्रण बने शब्य जैसे खोडपजल्ली, गयसाउल्ल आदि । प्राण निक भाषा वैज्ञानिकों का मत
प्राचीन व्याकरणकारी और भापाविदो की भांति आधुनिक भाषा-वैज्ञानिक भी प्राकृतो की शब्द सम्पत्ति को तीन भागो मे विभाजित करते है (1) तत्सम (2) तद्भव (3) देश्य या देशज । यहा केवल "देश्य" या "देशी" कहे जाने वाले शब्दो पर विचार करना अभीष्ट है । आधुनिक भाषा वैज्ञानिको मे जानबीम्स, हार्नले, जार्जग्रियर्सन, सुनीतिफुमार चाटुा, पी० डी० गुणे आदि ने देशी 1. पी0 एल0 वैद्य 'आब्जर्वेशन आन हेमचन्द्राज देशोनाममाला',-'एनेल्स आफ भण्डारकर
ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट' जिल्द 8 4067-68 2 “Prakrit words with Prakrit terminations" P L Vaidya
A.BOIR V8 P 68
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152 ] शब्दो पर अपने विचार दिये हैं। इनका एक-एक कर उल्लेख कर देना समीचीन होगा - जानवीम्स अपने "कम्पेरेटिव ग्रामर आफ माडन आर्यन लेग्वेज" नामक अन्य मे लिखते हैं-"देशी शब्द वे हैं जो किसी भी संस्कृत शब्द से व्युत्पन्न नही किये जा सकते इसलिए ये या तो पार्यों के पूर्व में रहने वाले आदिवासियो की मापा से लिये गये होंगे या फिर सस्कृत भाषा के विकसित होने के पहले ही स्वय प्रायों द्वारा प्राविकृप्त होगे।"
_ए एफ आर हार्नल अपने 'कम्परिटिव ग्रामर ग्रॉफ गौडियन लैंग्वेजेज' नामक ग्रन्थ मे "देशी" शब्दो को ग्रामीण अर्थात् प्रान्तीय या आदिवासियो की भाषा से ब्रहण किया गया बताते हैं ये ऐसे शब्द है जिन्हे सस्कृत के शब्दो से व्युत्पन्न नही किया जा सकता । इसका विचार है कि इन शब्दो को अशिक्षित ग्रामीण पार्यो ने यहा रहने वाली आदिवासी जातियो से सस्कृत (वैदिक) के विकास के पहले ही ग्रहण किया होगा या फिर इन ग्रामीण तथा अशिक्षित पार्यों ने अर्य शब्दो को ही ऐमा तोड मगेड और विगाड दिया होगा कि ये उनके परिनिष्ठित (साहित्य में प्रचलित) रुपो से बहुत दूर जा पडे होंगे और प्रागे चलकर इनका पहिचानना बहुत मुश्किल हो गया होगा । जहा तक इन शब्दो पर पड़े अनार्य तत्त्वो के प्रभाव का प्रश्न है, हानले का मत है जो भी अनार्य प्रभाव इन शब्दो पर पड़ा होगा वह अवश्य ही अत्यन्त प्राचीन काल का होगा जब कि यहा पाकर बनने वाले आर्य तथा पहले से ही रहने वाले आदिवासी सम्भवत "पेशाची" या प्राचीन अपभ्रंश बोलते रहे होंगे । हार्नले का विचार है कि उन आदिवासियो की भाषा जो सर्वप्रथम आर्यों के द्वारा अविकृत किये गये, "पेशाची" के समान रही होगी तथा आर्य, द्रविड और आदिवासियो के आपसी सम्बन्धो के कारण विकसित भापा "प्राचीन अपन श रही होगी । परन्तु हानले के इस मत को ग्रियर्सन नही स्वीकार करते । वे अपभ्र श को प्राकृतो की अन्तिम (तृतीय) विकामावस्था मानते हैं साथ ही पेशाची भी उनकी इष्टि मे बहन कुछ प्राकृतो से सम्बन्धित हैं । हार्नले का पेशाची और प्राचीन अपभ्र श को प्रार्यों के पूर्व आदिवामियो की भापा वताना-सर्वथा भ्रामक है।
श्री पार जी भण्डारकर का मन्तव्य है कि "देशज" वे शब्द हैं जो सम्कत से व्युत्पन्न नहीं किये जा सकते । इन्हें किन्ही अन्य स्रोतो से सदभित किया
1. John Beams "Comparative Grammar of Modern Aryan
Languages" VIP 12 AFR Hornle-A Comparative Grammar of Gaudian Langu
ages" PP XXXIX-XL (39-40) 3 Introducion to Deshinammala by M D Banarjee F N.
PP XXV 4 Bharkarkar "Wilson Philological lectures (1914)P 106.
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जा सकता है । एक अन्य स्थान पर वे इन शब्दो को निश्चित रूप से प्रार्यों से पूर्व भारत में रहने वाले ग्रादिवासियो की भाषा से सर्भित करते हैं । इनका कहना है कि "देशा" शब्द आर्यों द्वारा विजित की गयी जातियो की भाषा के शब्द रहे
होगे।
डा पी डी गुरणे. स्वीकार करते हैं कि तत्सम और तद्भव शब्दो से अलग प्राकृतो मे अनेको देश्य या देशी . ग्रामीण) शब्द भी पाये जाते है । हेमचन्द्र ने अपने "देशीनाममाला" नामक कोण मे ऐसे शब्दो का संग्रह किया है । ऐसे ही कुछ शब्दो का संग्रह धनपाल ने अपने प्राइग्रलक्षी नाममाला नामक कोश ग्रन्थ मे भी किया था । यद्यपि इन दानो कोण ग्रन्यो मे सकलित अनेको शब्द तद्भव हैं फिर भी इनमे अनेको शब्द ऐसे है जिन्हे सस्कृत से अलग स्रोतो से सदमित किया जा सकता है । प्रागे हेमचन्द्र द्वारा गलती से देशी मान लिये गये शब्दो की एक सूची देते हैं जो वास्तव मे तद्भव है । इसके बाद ही उनका कथन है कि धनपाल और हेमचन्द्र द्वारा सकलित कोशो मे पाये जाने वाले शब्द अाधुनिक आर्य-भाषाप्रो मे आर्येतर भापायो के प्रभाव का सुष्ठ द्योतन करते है । कुछ शब्द तो निश्चित रूप से द्रविड भापायो से सदभित किये जा सकते हैं ।
प्राकृत भापानो और उनमे प्राप्त होने वाले विभिन्न तत्त्वो पर जार्ज ग्रियर्सन ने अपने "लिग्विस्टिक सर्वे श्राफ इन्डिया" नामक ग्रन्थ की प्रथम जिल्द (भूमिका)4 मे विस्तारपूर्वक विचार किया है । वहा उन्होने प्राकृतो की तीन अवस्थाप्रो प्रथम, द्वितीय और तृतीय का विवेचन करने के वाद "देश्य" शब्दो के बारे मे लिखा है
"भारतीय व्याकरणकारो द्वारा बताया गया प्राकृत शब्दो का तीसरा प्रकार 'देश्य' कहलाता है । इसके अन्तर्गत ऐसे शब्द पाते हैं जिन्हे व्याकरण से सिद्ध नहीं किया जा सकता । परन्तु इन व्याकरणकारो द्वारा असदर्भित बताये जाने वाले तथा कथित अनेको "देश्य" शब्द आधुनिक भाषा वैज्ञानिको द्वारा तद्भव शब्द बताये गये हैं। इन शब्दो मे बहुत थोडे से शब्द ऐसे हैं जिन्हे मुण्डा तथा द्रविड भाषामो से समित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इन शब्दो मे से अधिकतर शब्द
1. Bharkarkar 'Wilson philological lectures (1914) P 106 2. Introduction to comparative philology III Ed. 1958 P. 275
276 277 3 वही, पृ 2761 4. Linguistic survey of India VI P. 127-28.
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154 ] "प्रथम प्राकृत"1 से व्युत्पन्न किये जा सकते हैं । उनका कथन है कि इन शब्दो का उम प्रायमिक प्राकृत जिसमे कि सस्कृत का विकास हुआ, मे अलग हटकर तत्कालीन जनमापा से घनिष्ठ सम्बन्ध है । ये वास्तविक "तद्भव" शब्द है तथापि यहा तद्भव का अर्थ वह नही है जो प्राकृत व्याकरणकारो ने लिया है । ये देश्य शब्द लोक मे बोली जाने वाली जनमापा के शव्द होगे क्योकि ऐसे शब्द प्रायः ‘गुजरात" यादि प्रदेशो मे लिखे गये साहित्य मे पाये गये हैं और गुजरात पार्यों के प्रमुख विद्यास्थान मध्यदेश से बहुत दूर भी पड़ जाता है ।"2
इस प्रकार जार्ज ग्रियर्सन “देशी" शब्दो का सम्बन्ध पार्यों द्वारा वैदिक काल के पहले ही बोली जाने वाली जनमापायो से बताते हैं। इन वोलियो मे से एक का विकास वैदिक और माहित्यिक सस्कृत के रूप मे हुया था। इसके अतिरिक्त वे देशी शब्दो का सम्बन्ध प्रान्तीय वोलियो से, बताते हैं-विशेपत गुजरात इत्यादि प्रदेशो की वोलियो से जो कि सस्कृत के उद्भव स्थान मध्यदेश से बहुत दूर पड़ जाती है । शुद्धता पर अधिक वल देने के कारण सस्कृत के विद्वानो ने इन शब्दो को प्रश्रय न दिया होगा परन्तु जनमापायो के आधार पर विकसित होने वाली साहित्यिक मापात्रो मे ये शब्द स्वय ही पाते गये । ग्रियर्सन की यह मान्यता बहुत कुछ उचित भी है। उनके द्वारा किये गये प्राकृतो के विमाजन प्रादि विषयो पर चाहे जो विवाद हो परन्तु 'देश्य' शब्दो के बारे मे दिये गये तथ्य कुछ हद तक मान्य हैं । उनका देशी, शब्दो का 'तद्भव' कहना भी व्याख्या की अपेक्षा रखता है । यहा 'तत्' का अर्थ सस्कृत से न होकर 'प्रथम प्राकृत' से है। प्रथम प्राकृत से उदभूत होने के कारण ही ग्रियर्सन 'देशी' शब्दो को 'तद्भव' कहते हैं । ये देशी शब्दो को पार्यो और प्रार्येतर जातियो के प्रापसी प्रादान-प्रदान से विकसित शब्द मानते हैं । परन्तु यह आदान-प्रदान मस्कृत के विकास के पूर्व ही हो चुका था । सस्कृत में ये तत्व पाणिनि जमे वैयाकरण के हाथ से छाटकर बाहर कर दिये गये और जो बचे भी उनका मंस्कृतीकरण कर लिया गया । पाणिनि की अष्टाध्यायी मे कितने ही ऐसे शब्द खोजे जा सकते हैं जो निश्चित रूप से सस्कृत की
1. जाज नियसन ने प्राकृतो के तीन विभाग किये हैं (1) प्रथस प्राकृत इमसे वैदिक और
माहित्यिक नस्कृत का विकास हुआ इसका मूल माहित्य न मिलने में यह ममाप्त प्राय, है (2) द्वितीय प्राकृत-इसके अन्तर्गत पालि, जैन बघमागधी, अशोक के लेख (प्राथमिक नवन्या) सम्कृत नाटकों की प्राकृत महाराष्ट्री ता साहित्यिक अपत्र श (द्वितीय अवस्था) बातो है (3) 10 वी सदी के बाद विकसित ग्रामीण अपनश सम्मत आ या भा को
उन्होंने तृतीय प्राकृत के अन्तगत रखा है। 2 मे पर रिपोर्ट याफ इण्डिया, 1901, प्रियमन, 159-60 तया निग्विस्टिक सर्वे बॉफ
डिया' जिल्द प्रथम, प 125-28
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प्रकृति के विपरीत हैं। इनका प्रयोग भी सस्कृत मे कम ही हुआ है। परन्तु वे ही शब्द प्रा० प्रा० भाषायो मे थोड रूप परिवर्तन के साथ उसी अर्थ मे चल रहे हैं। इस समस्या पर एक अन्य अध्याय मे विस्तारपूर्वक विचार किया जायेगा । ग्रियर्सन के वाद आधुनिक भाषा वैज्ञानिको मे उपाध्ये तथा पी० एल० वैद्य प्रभृति अनेको विद्वानो ने देशी शब्दो के आदि स्रोतो को ढूढने का प्रयत्ल किया है । उपाध्ये ने 'देशीनाममाला' मे आये हुए कई शब्दो को 'कन्नड' भापा से सम्बन्धित बताया है । इसी तरह के प्रयत्न और भी अनेको विद्वानो ने किये हैं परन्तु द्रविड भाषाओ या अन्य पार्येतर भाषामो मे इन शब्दो का पाया जाना यह विल्कुल नही सिद्ध कर पाता कि ये शब्द उन्ही से लिये गये हैं। हो सकता है भार्येतर जातियो ने ये शब्द आर्यों से ही ग्रहण किये हो । आधुनिक खोजो के आधार पर यह सिद्ध होता जा रहा है कि 'देशीनाममाला' मे आये हुए अनेको शब्द और हेमचन्द्र द्वारा धात्वादेश के रूप मे पठित देशी धातुए प्रा० भा० प्रा० भाषाओ की प्रान्तीय बोलियो मे अव भी प्रचलित हैं । पी एल वैद्य ने ऐसे ही अनेको शब्दो को 'मरहठी' भाषा मे प्रचलित बताया है। इसी प्रकार के तथ्य का उद्घाटन प्रस्तुत पक्तियो के लेखक ने अपनी विभागीय शोध संस्था के तत्वावधान मे पढे गये शोधपत्र मे भी किया है। लगभग 150 'देशी' शब्दो को 'अवधी' आदि हिन्दी की बोलियो मे उसी रूप और अर्थ मे प्रयुक्त होते दिखाया गया है जिस रूप और अर्थ मे वे 'देशीनाममाला' मे सकलित किये गये हैं ।
इन तथ्यो को देखते हुए जार्ज ग्रियर्सन का यह मत कि इन देशी शब्दो मे अधिकतर शब्द पार्यों की ही प्रारम्भिक बोलियो से लिये गये है ठीक लगता है। इनमे कुछ शब्द निश्चित रूप से मुण्डा और द्रविड भाषाओ के हैं जिन्हे प्रार्येतर प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है । परन्तु अधिकतर शब्द निश्चित ही प्रार्यो द्वारा अनादिकाल से व्यवहृत होती आयी जनभाषा से लिये गये होगे । श्रा मा आ. भापामो मे इनका विकास इसी तथ्य की ओर सकेत करता है । अन्त मे पाइअसहमण्णवो के उपोद्घात मे दिये गये देशी' शब्द के विवेचन को उद्धृत कर देना भी
1. ए एन उपाध्ये 'कन्नडीज वईज इन देशी लेक्सिकन्स'-एनेल्स आफ भण्डारकार ओरिएण्टल
रिसर्च इन्स्टीट्यूट जिल्द 12, 4 171-72 2 पी एल वैद्य 'आब्जर्वेशन्स आन हेमचन्द्राज देशीनाममाला' एनेल्स आफ भण्डारक मओरिएण्टल
रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जिल्द 8, पू 63-71 वही, पी एल वैद्य । 'शोध सस्थान' हिन्दी-विभाग प्रयाग विश्वविद्यालय के तत्वावधान मे 17 मार्च 1969 को
पढाया गया 'हिन्दी और उसकी बोलियो मे कुछ देशीशब्द 'शीर्षक शोध-पत्र । 5. 'पाइअसद्दमहण्णवो' उपोद्घात-प्रथम-सस्करण, पृ. 21-22 ।
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156 ]
उपयुक्त होगा।
." ..." वैदिक और लौकिक संस्कृत भापा पजाव और मध्यदेश मे प्रचलित वैदिक काल की प्राकृत भाषा में उत्पन्न हुई है। पजाब और मध्यदेश के वाहर के अन्य प्रदेशो में उस समय आर्य लोगो की जो प्रादेशिक मापाए प्रचलित थीं उन्हीं में ये 'देशी' शब्द गृहीत हुए है। यही कारण है कि वैदिक और सस्कृत माहित्य मे देशी शब्दों के अनुरूप कोई शब्द (प्रतिशब्द) नहीं पाया जाता है ।
प्राचीनकाल मे भिन्न-भिन्न प्राकृत भाषाए प्रख्या थी, इस बात का प्रमाण व्याम के महामान्त, भरत के नाट्य शास्त्र और वात्स्यायन के कामसूत्र प्रादि प्राचीन मन्कृत ग्रन्यो मे और जनो के ज्ञातावमकथा विपाकश्रुत-ौपपातिकमूत्र, तथा राजप्रश्नीय आदि प्राचीन प्राकृत ग्रन्यो मे मिलता है। इन ग्रन्यो मे "नाना भाषा, 'देशमापा' या 'देशी भाषा' शब्द का प्रयोग प्रादेशिक प्राकृत के ही अर्थ मे किया गया है । चड ने अपने प्राकृत व्याकरण में जहां देशी प्रसिद्ध प्राकृत का उन्लेन्च किया है वहा भी देशी शब्द का अर्थ 'देशीमापा ही है । ये सब देगी या प्रादेशिक भाषाएं भिन्न-भिन्न प्रदेशो के निवानी आर्य लोगो की कथ्य भापाए थीं। इन मापानी का पजाव और मध्यदेश की कथ्य भाषा के साथ अनेको अशो म जैसे माइश था वैमे विनी अग में भेद भी था। जिम-जिम अश मे इन भापायो का पजाब और मध्यदेश की प्राकृत भाषा के साथ मतभेद था उनमे से जिन भिन्नभिन्न नामो ने और वातुनो ने प्राकृत माहित्य में स्थान पाया है वे ही हैं प्राकृत के देशी रा देश्य शब्द ।
'नानावमिरान्छना नानामापाच मान कतारेगमायासु जन्यन्नोऽन्योन्चमीटर ·
- महामारत म प,46, 103 11 अनचं प्रवश्यामि देशमापा विपल्लनम्।' । अपवादन कार्या देवमाय प्रयोस्तमि ।'ना जा 17/24146 नाचत मम्मननेव नात्यत देगमापया । कला गोष्ठीय क्ययत्नाके बहुमती भवत् ।
कामन 114150) 'नगमे मंटे मारे बटारमविहिष्यगार देमीमाषा विमागए दीया।' 'तत्य ण उपाए नयनए देवदत्तानाम गणिया परिदमा बट्टा-गटठारम देमीमापा विजारमा।'
____॥ ज्ञानाधमक्यामूत्र-पत्र 38, 921 तुत्य न वाणिय गामे पायजयाणाय गणिया होत्या.....यटठारस दीमापा विमाग्या।'
-11 विपाक्य त पत्र 21-22 ॥ 'ताप दढपाने दागा अहवाग्मटेमीभाम विमाग्य ।' .-प्रोपपातिक मूत्र पेग 109 ।। 'ar 3 दटपही दारण वादाविदामपना भाषा दिमागा।'
गजनीय-पत्र, 1485 2 मिट प्रसिद्ध प्राइन बेधा विकाः भवति-सम्झनुयानि 'सम्वृतमम देणीप्रसिद्ध तच्चे
दपिद मिय (प्राकृत नक्ष)
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[ 157 प्राकृत-वैयाकरणो ने इन समस्त 'देश्य' शब्दो मे अनेक नाम और धातुयो को सस्कृत नामो और धातुओ के स्थान मे प्रादेश द्वारा सिद्ध करके तद्भव विभाग के अन्तर्गत किया है।' यही कारण है कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपनी “देशीनामामाला" मे केवल देशी नामो का ही सग्रह किया है और देशी धातुओ का अपने प्राकृत व्याकरण मे सस्कृत धातुप्रो के आदेश रूप मे उल्लेख किया है, यद्यपि प्राचार्य हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती कई नैयाकरणो ने इनकी गणना देशी धातुप्रो मे की है । ये सब नाम और धातु सस्कृत के नाम और धातुग्रो के आदेश रूप मे निष्पन्न करने पर भी तद्भव नही कहे जा सकते क्योकि सस्कृत के साथ इनका कुछ भी सादृश्य नहीं है । कोई-कोई पाश्चात्य भापा तत्वज्ञ का यह मत है कि उक्त देशी शब्द और धातु भिन्नभिन्न देशो की द्रविड मुण्डा आदि अनार्य भाषाम्रो से लिये गये है । यहा पर कहा जा सकता है कि यदि आधुनिक आर्य भापायो मे इन देशी शब्दो और धातुओ का प्रयोग उपलब्ध हो तो यह अनुमान करना असगत नहीं है। किन्तु जब तक यह प्रमाणित न हो कि ये देशी शब्द और धातु वर्तमान आर्य मापात्रो मे प्रचलित है, "तब तक ये शब्द और धातु प्रादेशिक आर्य मापात्रो से गृहीत हुए है" यह कहना ही अधिक सगत प्रतीत होता है । "इन आर्य भाषामो मे दो एक देश्य शब्द और धातु प्रचलित होने पर भी" वे अनार्य भापायो से प्राकृत मे लिये गये हैं" यह अनुमान न कर 'प्राकृत भाषाग्रो से ही वे देश्य शब्द और धातु अनार्य भाषामो मे गये हैं" यह अनुमान किया जा सकता है। हा जहा ऐसा अनुमान करना असम्भव हो वहा हम यह स्वीकार करने के लिये बाध्य होगे कि 'ये देश्य शब्द और धातु अनार्य भाषाप्रो से ही प्राकृत मे लिये गये हैं, क्योकि आर्य और अनार्य ये उभयजातिया जव एक स्थान मे मिश्रित हो गयी है तब कोई कोई अनार्य शब्द और धातु का आर्य भाषामो मे प्रवेश करना असभव नहीं है ।''
इस प्रकार आधुनिक भाषा वैज्ञानिको की दृष्टि मे मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओ मे प्रचलित 'देशी' शब्द अनादिकाल से सामान्य जन जीवन के बीच व्यवहृत होने वाले शब्द है । आधुनिक आर्य भाषामो की ग्रामीण बोलियो मे इनका बहुतायत से पाया जाना यह सिद्ध करता है कि ये भिन्न-भिन्न प्रान्तो की जनसाधारण
1.
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हेमचन्द्र कृत प्रा व्या के द्वि पा के 127, 129, 134, 136, 138, 141, 174 वगैरह सूत्र तथा चतुर्थपाद के 2, 3, 4 5, 10 11, 12 प्रभृति सूत्र ।' एते चान्येर्देशीषपठिता आपि अस्माधिर्धात्वादेशीकृता (हे प्रा 4, 2) अर्थात् अन्य विद्वानो ने वउजर, पजर उफाल प्रभति धातुओ का पाठ देशो में किया है तो भी हमने सस्कृति धातु के आदेश रूप से ही बताये हैं। -पाइअसहमहण्णवो उपोद्घात, पृ 21-22 की पादटि 'पाइअसद्दमहण्णवो' प्रथम सस्करण-उपोद्घात, प 21-22।
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158 ] के व्यवहार की भाषा के शब्द रहे होंगे । साहित्यिक भापा का यह स्वभाव होता है कि वह अपने से प्रायः 'ग्रामीण तत्त्वो" को दूर रखती है जैसा कि सस्कृत में देखा जा सकता है। परन्तु ऐसी भापा बहुत दिन तक नहीं चल पाती वह स्थिर होकर रह जाती है। उमी समय फिर कोई लोक नापा ऊपर उठकर साहित्यिक मापा का स्थान ग्रहण करनी है। ऐसी ही लोक सम्मत भाषायें प्राकृतें थीं जिनमे अधिकाशत. ग्रामीण तत्व पाये जाते हैं। प्रा० प्रा० नापायो मे इस शब्दो के प्रचलित रूप और वातावरण को देखकर यही निश्चित होता है कि ये अवश्य ही भिन्न-भिन्न प्रान्तो की स्थानीय जातियो के शब्द रहे होगे । जहा तक इनमे पायेंतर तत्त्वो के मिश्रण का प्रश्न है यह अत्यन्त विवादास्पद है। इसकी विस्तृत पर्चा एक अलग अध्याय मे की जायेगी। देशी पाब्दों का उद्भव और विकास :
'देशी' शब्दो के स्वरूप विवेचन को लेकर अनेक भारतीय और विदेशी विद्वानो के मतमतान्तरो की विस्तृत चर्चा की जा चुकी है । जहा तक इनके उद्भव और विकास का प्रश्न है इसे हम दो मोटे कारणों में विभाजित कर सकते हैं
(1) भाषा वैज्ञानिक कारण
(2) सास्कृतिक कारण (1) भाषावैज्ञानिक कारण : ___ इमे दो भागो में विकसित किया जा सकता है
(अ) देशी शब्दो का विभिन्न प्रान्तीय बोलिया से उद्भव
(व) देशी शब्दो का अार्येतर भाषामो से उद्भव । (अ) देशी शब्दों का विभिन्न प्रान्तीय बोलियों से उद्भव .
"देशी" शब्दो का प्राकृत भाषा से घनिष्ठतम सम्बन्ध है। यह ऊपर प्रतिपादित किया जा चुका है। निष्कर्ष रूप मे यह भी प्रतिपादित किया जा चुका है कि सस्कृत और नाहित्यिक प्राकृत दोनो ही एक अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित प्राकृत से निकली हैं । इसे ही ग्रियर्सन प्रभृति विद्वानो ने प्रथम प्राकृत कहा है । यह वेदो की भाषा के निर्माण के पहले से ही प्रचलित जन मापा रही होगी। इस सिद्धान्त की पुष्टि निम्नलिखित भाषा वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर भी हो जाती है
(1) माहित्यक भाषाएं मदेव ही किसी न किसी बोलचाल की भाषा से विकसित होती हैं और आगे चलकर जव उनका व्याकरण निमित हो जाता है
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नब ये स्ट हो जाती है और इनका विकास रुक जाता है । यहा बोलचाल की भाषा की तुलना किनी लगातार प्रवाहित होने वाली नदी की धारा से की जा सगती है जो निरन्तर अपने प्रवाह को परिवर्तित करती तथा अनेक धाराओ को अपने याग मे नमेटनी हुई मतन प्रवाहमान रहती है । दूसरी ओर साहित्यिक मापा की तुलना कूमत में की जा सकती है जो एक ही क्षेत्र मे स्थिर होकर रह जाता है । उन पर अन्य किमी प्रवाहमानधारा का प्रभाव नही पडता । इस प्रकार कुए के जल के नमान एक निलित सीमा क्षेत्र में बढ़ साहित्यिक भापायो रूपी जलवारा निरन्तर रद्ध गोर गाग्विनित होने के कारण ग्रागे नहीं बढ़ पाती। परन्तु उन्मुन नदी को जलपारा के रूप में बोलचाल की भापा निरन्तर विकास के पथ पर बनी रहती है। इस तरह एक के निश्चित स्थान पर अवरुद्ध रहने तथा दूसरे के सतन पिकाममान रहने के कारण दोनो की दूरी बढती जाती है और एक समय ऐगा या जाता है जबकि दोनो का आपस मे कोई सम्बन्ध ही नही दियायी पाता। नामान्य मापामापी साहित्यिक मापा को न समझ पाने के कारण किलो अन्य भाषा के निर्माण में रत हो जाता है और फिर कोई लोक भाषा आगे पाकर साहित्यिक मापा का रूप धारण कर लेती है पीर पहले की माहित्यिक मापा मनप्राय हो जाती है। भापा विकास के सिद्धान्त का यह चक्र निरन्तर चलता रहता है।
भारतीय प्रार्य भापायो सस्कृत, प्राकृत, अपभ्र श तथा आधुनिक प्रादेशिक भापायो के विकास में भी भापा विकास का यही सिद्धान्त कार्य करता है । भिन्नभिन्न युगो में विकसित होने वाली भारतीय प्रार्य भाषाए एक ही मूल स्रोत (प्रारम्भिक प्राकृत) से विकसित हुई हैं । साहित्यिक मापाए सस्कृत, पालि, अर्धमागधी, नाटको की प्राकृत, साहित्यिक अपभ्र श तथा प्रा. भा श्रा भाषाए सभी क्रम से अपने युगो मे विभिन्न प्रान्तो मे बोली जाने वाली प्राकृतो का प्रभाव ग्रहण कर विकसित हुई । भापायो के इस प्रकार के तुलनात्मक अध्ययन को देखते हुए वाक्पतिराज और नमिसाधु के सैकडो वर्ष पहले व्यक्त किये गये इस विचार की पुष्टि हो जाती है कि वोलचाल की प्राकृते ही साहित्यिक भापानो का मूल प्राधार है ।
2 वेदो में प्राकृत रूपो की प्राप्ति से भी इस बात की पुष्टि हो जाती है कि इनकी भापा किसी न किसी वोलचाल की भापा से विकसित हुई है । जनभापा
1 मयलाओ इम वाया विसति एत्तो य णेति वायाओ।
ए ति समुद्द चियणेति सायराओच्चिय जलाइ ।। वाक्पतिराज । गउडवहो 1930 2. काव्यालकार 2012 की टीका - 'प्राकृतेतिसकलजगजगज्जन्तूनाम् ... ||
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160 ] या प्राकृत के अनेको रूप वेदो में खोजे जा सकते हैं जो पागे साहित्यिक मस्कृत मे परिष्कृत कर दिये गये । कुछ उदाहरण लिये जा सकते हैं
(1) प्राकृत में संस्कृत म की जगह उ प्राप्त होता है। ऋग्वेद में भी प्राकृतो के अनुरूप ही शब्द मिलते हैं - जैसे कृत कुट (ऋ 1 4614)
(2) प्राकृत मे सयुक्त वर्ण वाले शब्दो में एक व्यजन का लोप होकर पूर्व का हम्ब स्वर दीर्घ हो जाता है जैसे दुर्लभ दूलभ, विश्राम वीमाम । इसी तरह के रूप वेदो मे भी देने जा सकते है
दुर्लभ-दूलभ (ऋ-9-8), दुर्णाश-दुणाम (शु य प्राति 3143)
(3) संस्कृत के व्यञ्जनान्त शब्दो का प्राकृतो मे अन्त्य व्यजन लोप हो गया है जैमे-तावत् - ताव, यशस्-जस । वैदिक साहित्य में भी यह प्रवृत्ति बहुतायत में देखी जा सकती है - पश्चात् पश्चा (अथ. 10-4-11) उच्चात्-उच्चा (तनि म 213114), नीचात्-नीचा (तैत्रि स 112 14)
14) प्राकृत मे सयुक्त य और र का लोप हो जाता है - जैसे प्रगल्मपगम ज्यामा-मामा । ये विशेषताए वैदिक शब्दों में भी देखी जा सकती हैं। यथा अ-प्रगल्मा-अपगत्म (ते स 4-5~61) त्र्यचत्रित्र (शत वा 11313 33)।
(5) प्राकृत में मयुक्त वर्ण के पूर्व का म्बर बम्ब होता है । पात्र पत्र, रात्रि-रनि वेद में भी-रोदमीप्रा-रोदमिप्रा (ऋ. 10-88-10), अमात्र-अमत्र (ऋ3136164)
(6) जहा मम्कृत मे 'द' ध्वनि होती है, वहा प्राकृतो में अनेको जगह 'ड' अनि पायी जाती है - दण्ड-इट, दोना-डोला । वेदो मे भी यह विशेषता खोजी जा सकती है -- यया - दुर्लम-दून (बाज. स 3-36) पुगेदाम पुरोटाश (यज. प्रति 3-44)
(7) प्राकृत में व का ह होता है बधिर-वहिर, व्याव-वाह । वैदिक मापा में भी यया प्रतिमहाय-प्रतिमचाय (गो ब्रा 2,4) ऐमा ही है।
(8) प्राकृत मे न्वरागम की प्रक्रिया अत्यन्त सामान्य है - क्लिष्ट-किलिट्ठ, न्य मुत्र । वैदिक मापा में भी ऐमा देखा जाता है - स्वर्ग-सुवर्ग (ते म 41213), नन्त्र - तनुवः (तैत्ति पार 712211 ) स्व -सुव (तैत्तिरीय प्रारण्यक-61257)
(9) प्राकृत की तरह वैदिक मापा मे भी चतुर्थी के स्थान पर पाठी विभक्ति होती है। 1 'चतुय्यं बकुलम् दन्दमि' (अष्टाध्यायी 213162
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[ 161 (10) प्राकृत पचमी ए. व मे देवा, वच्छा, जिरणा आदि रूप होते हैं । वेद मे भी इसी प्रकार उच्चा, नीचा, पश्चा आदि रूप होते हैं।
(11) प्राकृत मे द्वि. व के स्थान पर ब. ब होता है - वैदिक भापा मे इस तरह के प्रयोगो की भरमार है यथा इन्द्रावरुणी-इन्द्रावरुणा इसी तरह मित्रावरुणा 'यो सुरथी रथितमी दिविस्पृशावश्विनौ"-"या सुरथा रथीतमा दिविस्पृशा अश्विना। इन सारी समानतायो को देखते हुए यह निश्चित हो जाता है कि सस्कृत
और वैदिक संस्कृत दोनो के विकास के मूल मे प्राकृत थी। इस तरह सस्कृत व्याकरणकारो और पालकारिको द्वारा प्राकृत की परिभाषा मे आया हुआ 'तत्' शब्द अलग अर्थ मे लिया गया। यहा तत् का अर्थ सस्कृत न होकर यही 'प्राकृत' है जिससे वैदिक संस्कृत विकसित हुई थी। इस प्रकार प्राकृत (तद्भव) तथा सस्कृत दोनो ही शब्दो का मूल वैदिक कालीन बोलचाल की प्राकृत मे जा पडता है । 'ग्रियर्सन' ने 'देश्य' शब्दो को भी इसी आधार पर 'तद्भव' कहा है । इसका भी मूल स्रोत इन्ही प्राकृतो मे खोजा जा सकता है ।
3 प्राकृत की सस्कृत से उत्पत्ति मापातत्व के सिद्धान्त के आधार पर मो ठीक नहीं क्योकि वैदिक संस्कृत और लौकिक सस्कृत ये दोनो ही अच्छी तरह परिष्कृत और माजित साहित्यिक भाषाए हैं । यह भाषा अशिक्षितो, बालको तथा नारियो को वोधगम्य भी नही थी अत इन लोगो की एक अलग ही कथ्य भाषा प्रचलित रही होगी । शिक्षित वर्ग के लोग भी अशिक्षितो से बातचीत करने में . इसी भाषा का प्रयोग करते रहे होगे। इस प्राधार पर देखने से पता चलता है कि वैदिक काल मे भी एक या कई कथ्य भाषाए प्रचलित रही होगी। सस्कत के युग मे तो यह बात नाटको के पात्रो की भाषा देखकर और भी स्पष्ट हो जाती है ।
पाणिनि ने अपनी भाषा को लौकिक भाषा कहा है और पतजलि ने इसे शिष्ट भाषा कहा है अर्थात् यह उम समय शिक्षित लोगो की सम्पर्क भाषा थी और शिक्षितो से अलग अशिक्षितो की भी एक भापा थी - जो उनकी बोल चाल की भाषा रही होगी। इन प्रशिक्षितो के बीच अपने मन्तव्यो का प्रचार करने के लिए सस्कृत के पण्डित अवश्य ही इनके शब्दो का ग्रहण करते रहे होगे । कभी कभी इन बोल-चाल के शब्दो को साहित्य मे भी ग्रहण किया जाता रहा
पाणिनि द्वारा व्यवहृत 'लोक' शब्द से जनभाषा का भी ग्रहण किया जा सकता है । उनका 'लौकिका: वैदिकाश्च' कथन प्रचलित जन भाषा तथा शिष्ट वैदिक भाषा दोनो की ओर सकेत करता है। आगे चलकर पण्डितों ने 'लौकिक'का अर्थ साहित्यिक सस्कृत लगा लिया।
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162 ] होगा परन्तु वहा जाकर वे व्याकरण सम्मत बना लिये गये होंगे। इस कथन की पुष्टि पारिणनि के 'उणादि' प्रकरण के अनेको प्रत्ययो के स्वरूप तथा उनके वातुपाठ मे देशी घातुनो के सस्कृतीकरण को देखकर म्वय ही हो जाती है । इस प्रकार बहुत प्राचीन काल से ही साहित्यिक मापाए अनेको जनभाषा के शब्दो को ग्रहण करती चली प्रायी हैं ।। इनना ही नहीं यदि यह भी कहा जाये कि भिन्नमिन्न युगो मे माहित्यिक मापानी का स्वरूप निर्माण इन जन भाषायो के आधार पर होता आया है तो कोई अत्युक्ति न होगी। यह पहले ही प्रतिपादित किया जा चुका है कि देशी "शब्द और बातुएं इन्ही भिन्न-भिन्न कथ्य मापायो मे उद्भूत हुई हैं । निष्कर्प प में 'पाइअसहमहणणयो' की भूमिका मे पाया यह कथन उल्लेखनीय है
___"जिन प्रादेशिक देगी भापायो से ये सब देशी शब्द प्राकृत साहित्य मे गृहीत हुए हैं वे प्रथम स्तर की प्राकृत मापाग्रो के अन्तर्गत और उनकी समसामयिक हैं। विस्त-पूर्व पप्ठ शताब्दी के पहले ये मव देशीमापाए प्रचलित थी, इमसे ये 'देश्य' शब्द अर्वाचीन नहीं हैं किन्तु उतने ही प्राचीन है जितने वैदिक गन्न ।" ! इस निष्कर्ष में इतने सशोवन की आवश्यकता है कि अनेक देशी शब्द वैदिक भाषा के समकक्ष हो सकते हैं और तदनन्तर बाहर में आने वाली विभिन्न जातियों के साथ प्रागत भाषानो ने भी समय-समय पर इन शब्दों की मन्या बढाई है। (ब) 'देशी' शब्द का प्रार्यतर भाषाग्री से उद्भव ~~
अाधुनिक भापा वैज्ञानिको में अधिकतर यह मानते है कि "देशी" शब्दो का उद्भव प्रार्यतर जातियो की शब्दावली के ग्रहण के कारण हुआ होगा। यह लगभग सर्वमान्य मत है कि आर्यजाति भारत में प्राक्रामक जाति के रूप मे पायी । यहा पाकर इसका सम्पर्क पहले से रहने वाली जातियो से पड़ा होगा। इस सपर्क के बीच भाषा गत आदान-प्रदान होना मर्वया मभव है। अत टन 'देशी' शब्दो में अधिकतर शब्द कोल, मथाल, मुण्डा, निपाद, द्रविड आदि जातियो की भाषा में लिये गये होंगे। ये जातिया अायों के भारत पाने के पहले ही से यहा निवास कर रही थीं। अव हमे प्रायनिक प्राविद्याविशारदो के द्वारा व्यक्त किये गये विचारी को देखना है।
प्राकृत और देशी शब्दो के उद्व के विषय में ग्रार काल्डवेल ने विस्तार
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पास मह महायो' प्रयम मम्मरण-योदवात, प. 22 भारत का मापा मवेक्षण, मुण्ड ] नाग | हिन्दी अनुवाद, हा उदयनारायण तिवारी मूल नेमा मर जार्ग नियमन के पाठ 223 वी पाद टिप्पणी न पर ।। भार साल्टो' काम्पेटिव ग्रामर आप वीडियन रेग्वेजेज' (लांगमेन्म, लहन 1856)
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[ 163 पूर्वक विचार किया है। उनका मत है कि उत्तर भारतीय भाषाए सीथियन और द्रविड भापायो से प्रभावित हैं। संस्कृत मे अनेको शब्द ऐसे पाये जाते हैं जो निश्चित रूप से द्रविड और सीथियन भाषामो के शब्द हैं । अपने इस सिद्धान्त की पुष्टि मे वे तर्क देते हैं कि उत्तर भारतीय भाषाम्रो के बोलचाल के शब्दो की व्याकरगिक मरचना प्रारम्भ से लेकर अब तक सीथियन प्रभाव से ग्रस्त है। इसमे जो परिवर्तन हुए भी तो तब हुए जब पार्यो की विजय के बाद भाषाओं पर संस्कृत का प्रभुत्व छाता गया। लेकिन यह परिवर्तन शब्दो तक ही सीमित रहा । बोलचाल की भाषा के स्वरूप और उसके व्याकरण पर सस्कृत का विशेष प्रभाव न पड सका। पार० काल्डवेल के दल उत्तरी भारत की बोल चाल की भापामो पर ही द्रविड भापायो का प्रभाव नही देखते, उन्होने साहित्यक सस्कृत मे भी अनेको द्रविड शब्दो का उल्लेख किया है। । उन्होने कई शब्दो और घातुनो की एक तालिका देकर यह सिद्ध किया है कि ये शब्द निश्चित ही सस्कृत मे द्रविड भापामो से पाये हैं। परन्तु काल्डवेल का यह कहना कि ये सभी शब्द और धातुए द्रविड भापात्रो की है एक खुला प्रश्न है। इसके विपरीत जब तक प्राचीन सस्वत के लोतो को खोज कर यह निश्चित नही हो जाता कि ये तत्व आर्येतर हैं कुछ कहा नहीं जा सकता । ये तत्व, हो सकता है सस्कृत से ही द्रविड भापायो ने ग्रहण किया हो ।
पार० काल्डवेल की इस स्थापना का खण्डन जान वीम्स ने अपने केम्पेरेटिव ग्रामर आफ मार्डन आर्यन लेंग्वेजेज' (1872) मे किया है। बीम्स का कहना है कि काल्डवेल' और उनके शिष्यो की यह स्थापना कि भारतीय आर्य भाषाए द्रविड प्रभाव से ग्रस्त है, भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा भापा वैज्ञानिक तीनो ही दृष्टियो से ठीक नहीं है । यदि भौगोलिक दृष्टि से देखा जाये तो प्रार्य और द्रविड की जातियो के बीच में मुण्डा जाति की स्थिति है। प्रत पार्यों का प्रथम सम्पर्क और उन पर प्रभाव मुण्डा जाति का पडना चाहिए न कि द्रविड जाति का, जो कि उनसे काफी दूर थी। जहा तक ऐतिहासिक दृष्टि का सम्बन्ध है सबसे पहले यह निश्चय करना होगा कि आर्यों और द्रविडो का सम्पर्क किस समय हुआ । क्या यह सपर्क वैदिक युग मे हुआ था ? या बहुत आगे चलकर मुसलमानो की विजय के बाद ? यदि यह सम्पर्क वैदिक युग मे हा था तो इसकी परम्परा मे विकसित पालि, जैनो के धार्मिक साहित्य की भापा तथा अशोक के अभिलेखो आदि की भाषा सयोगात्मक क्यो रह
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1
आर फाल्डवेल 'कम्पेरेटिव ग्रामर आफ द्रवीडियन लेंग्वेजेज' (लागमेन्स, लदन,) पृ. 44 भूमिका । 18561 जे बीम्स 'कम्परेटिव ग्रामर आफ माहर्न आर्यन लेंग्वेजेज, प. 29
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____164 ]
गयी। काल्डवेल का कहना है कि आधुनिक भारतीय आर्य भापानो पर द्रविड़ मापानी का प्रभाव है। आधुनिक प्रार्य भाषाए विश्लेषणात्मक हैं और यह विश्लेणात्मकता काल्डवेल के अनुसार द्रविड प्रभाव है तो यह प्रभाव वैदिक तथा उसकी परम्परा की अन्य मव्यकालीन आर्य मापात्रो पर भी क्यो नही पड़ा ? काल्डवेल की यह परिकल्पना भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी ठीक नहीं लगती । सनी द्रविड मापाएं संश्लेषणात्मक हैं जबकि प्रा० प्रा० भापाएं विश्लेपणात्मक प्रवृत्ति से युक्त होते हुए मी सस्कृत की सयोगात्मकता से युक्त है । इसमे कुछ निश्चित कारक पर मर्गों का विकास हो गया है लेकिन मूल रूप मे ये सस्कृत- परम्परा का ही निर्वाह करती चल रही हैं । कुल मिलाकर आधुनिक आर्य भाषाएं प्राकृतो की परम्परा में विकसित हैं और प्राकृत भाषा के सयोगात्मक और वियोगात्मक दोनो ही प्रभावो से युक्त है। श्रत प्राधुनिक प्रार्यमापायो की मस्कृत से अलग स्वरूपगत और व्याकरणगत विशेषताएं है । आर्य जाति की भाषा प्राकृतो की परम्परा मे हैं न कि सीथियन और द्रविड भापानो की परम्परा मे । मयोगात्मकता से वियोगात्मकता की ओर यह विकास कोई नया उदाहरण नहीं, लेकिन (सयोगात्मक) मे विकसित इटेलियन, फ्रेंच, शेनिश,पोचंगीज आदि वियोगात्मक मापाए उदाहरण के रूप में देखी जा सकती हैं । अन्त मे यह कहा जा सकता है कि डा० काडवेल के मत मे वैदिक और लौकिक मस्कृत मे अनेको शब्द द्राविडीय भापानी से ग्रहण किये गये हैं ठीक नहीं है । क्योकि द्राविडीय भापा के जिस साहित्य मे रे शब्द पाये जाते हैं वह वैदिक माहित्य से प्राचीन नहीं है । हो सकता है ये शब्द आर्य भापा ने द्रविट भापा-मापियो ने ग्रहण किये हो।
प्रावुनिक भाषाविदो मे कुछ लोगो ने भाषा में पाये जाने वाले 'देशी' शब्दो का सम्बन्ध प्रार्येतर भापानी में बनाया है परन्तु इस पोर बहुत कम ही प्रयास हुअा है । जितने लोगो ने भी थोडे - हृत शब्दो को प्रार्येतर भापायो से सम्बन्वित करने का प्रयास किया है, उनका प्रयास अब भी मदिग्य बना हया है। शब्दो का मादृश्य मात्र दिग्वा देना पर्याप्त नहीं है । उनके लिए पर्याप्त ऐतिहामिक भौगोलिक नया भाषा वैज्ञानिक प्रावानों की आवश्यक्ता है। भारतीय प्रायों की सस्कृति मिश्रण प्रधान मस्कृति है। जब से यहा प्रार्य प्राय तब से लेकर अब तक उनका सम्पर्क किनी न किमी नयी जाति में होता रहा है। इस सम्पर्क के बीच प्रादान-प्रदान नवंथा मम्भव तत्र्य है। भारतीय प्रार्य भापायी ने भी इमी प्रक्रिया से प्रार्येतर जातियो मे वहत कुछ ग्रहण किया होगा। लेकिन इस प्रक्रिया ने इन पर जो भी प्रभाव पटा वह अत्यन्त मूदम है । शार्यो की भाषा प्रारम्भ से ही प्रार्येतर जातियो की भाषा मे सशक्त रही है। जो भी प्रभाव उमने दूसरो से ग्रहण किया अपने ढग से । जहा तक 'दशी' शब्दो का सम्बन्ध है मभव है कुछ शब्द भार्येतर जातियों से लिये गये हो पर दन बीती का ठीक ठीक निर्धारण कर पाना मर्वया असभव है।
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[ 165 "देशीनाममाला" मे आये हुए देशी शब्दो मे लगभग 800 शब्द आयेतर मापायो विशेषत द्रविड भाषाओं से आये हुए बताये गये हैं। रामानुजन् ने देशीनाममाला" के अन्त मे दिये गये शब्द कोश मे द्रविड भाषामो से मिलते जुलते देशी शब्दो की अोर सकेत कर दिया है। इसी प्रकार ए एन उपाध्ये ' महोदय ने कुछ देशी शब्दो की तुलना कन्नड भाषा के शब्दो से की है। इन अध्ययनों का यह अर्थ बिल्कुल ही नहीं है कि ये शब्द तमिल, तेलगु या कन्नड या इसी तरह की अन्य आर्येतर भापानो से लिये गये है। इन भाषायो मे प्रचलित ये शब्द ही हो सकता है आर्य भाषा-भापियो से आर्येतर भाषा-भापियो ने ग्रहण किये हो । उसके विपरीत यदि इन “देशी" शब्दो को आधुनिक भिन्न-भिन्न प्रान्तो मे वोली जाने वाली प्रार्य भापाग्यो की वोलियो मे टू ढा जाये तो ये ज्यो के त्यो वहा उसी अर्थ मे थोडे रूप परिवर्तन के साथ मिल जाते है । इन शब्दो की वास्तविक स्थिति प्रो० विल्सन के निम्न कथन से स्पष्ट हो जाती है -
____ "A Portion of a primiturve, unpolished and seanty speech. the relies of a period prior of civilization, has been calculated amount to one tenth of the whole"?
इस प्रकार प्रो० विल्सन के अनुसार साहित्यिक भाषायो मे प्रचलित शब्दो का लगभग 1-10 भाग बहत प्राचीनकाल से प्रादिम अवस्था के निवासियो मे प्रचलित ऊबड़-खाबड तथा कर्णकटु बोलचाल की भाषा का अवशेष है । समय समय पर माहित्यिक भाषानो मे इन अवशेषो का परिष्कार होता रहा है । ऐसे शब्दो का स्रोत कोई भी साहित्यिक भाषा नही हो सकती। लोक मे प्रचलित परम्परानो, रीति-रिवाजो तथा सदियो से चली आ रही सामाजिक मान्यताप्रो से इन शब्दो को सदभित किया जा सकता है। देशीनाममाला मे प्राप्त होने वाले विशुद्ध "देशी" शब्दो मे विकाश शब्द 'मराठी भाषा की बोलियो से सर्भित किये गये है। इसी प्रकार यदि अन्य प्रान्तीय भाषायो की बोलियो मे इन शब्दो को खोजा जाये तो अत्यन्त सुगमतापूर्वक प्राप्त हो जायेंगे। एक बात यहा और भी ध्यान देने की है । प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने देशीकोश का सकलन करते समय प्राकृत की साहित्यिक रचनायो के अतिरिक्त भिन्न-भिन्न प्रान्तीय बोलियो के आकडो को अवश्य
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1 AN Upaddhye' (cannaries words in Desı laxieons" A BO.
I R. V XII 2 आर काल्डवेल 'कम्पेरेटिव ग्रामर ऑफ द्वीडियन लैंग्वेजेज' पृ 53 से उद्धृत । 3 पी एल वैद्य, आन्जर्वेशन्स आन देशीनाममाला एनल्स आफ भण्डारकर ओरियण्टल
रिसर्च इन्स्टीट्यूट खण्ड 8 पृ 63-71 ।
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रखा होगा । यही कारण है कि इसके कुछ शब्द साहित्यिक प्राकृतो मे नही प्रयुक्त हुए है । ऐसे शब्द अवश्य ही प्रचलित प्रान्तीय बोलियो से लेकर संग्रहीत किये गये होंगे । इन तथ्यो को ध्यान में रखते हुए विद्वानो द्वारा दिया गया यह तर्क कि "देशी" शब्दो मे आर्येतर तत्व मिले हुए हैं तर्क की कसौटी पर खरा नत्री उतरता । दूसरी ओर आधुनिक भारतीय आर्य भापायो की बोलियो मे इन शन्दो की खोज मे यह निश्चित होता जा रहा है कि ये शब्द प्राचीनकाल से जनमाधारण की बोलचाल की भाषा में प्रचलित थे और आज भी उसी वर्ग के लोगो में प्रचलित देवे जा मकते हैं। उदाहरण सहित इस बात का विवेचन प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के एक अलग अध्याय में किया जायेगा। देशी गन्दो के उद्भव और विकास का सास्कृतिक धावार .
यह पहले ही बताया जा चुका है कि "देशी" शब्द बहुत प्राचीन काल से ही प्रचलित मामान्य वोचचाल की भाषा के रूप है । इन शब्दो के उद्भव और विकाम की कहानी समस्त प्रार्य संस्कृति के विकास की कहानी है । देशी शब्दो के उद्भव का मूल पार्यों के यहा पाकर बमने तथा उनका विभिन्न भाषा भापियो से सम्पर्क होने में निहित है। प्रार्य संस्कृति बहुत प्रारम्भ से ही ग्राम्य सस्कृति रही है । 'देशी' शब्दो का बहुत कुछ सम्बन्च ग्राम्य मस्कृति से ही है। ये शब्द युगयुगो से सास्कृतिक आदान-प्रदानो तथा विविध वार्मिक तथा सास्कृतिक आन्दोलनो के बीच में गुजरने हुए आज की नापानी में भी अपने वास्तविक स्वरूप को सजोये हुए हैं।
भारतीय पार्यों की मम्कृति का निर्माण मिश्रण से हरा है। श्रायों के यहा पाने के पहले यहा प्रमुख रूप से तीन चार आर्येतर जातियो का प्रभाव इन पर पड़ा था वे जातिया कोल, किरात, मृण्डा और द्रविड थी। निपाद कही जाने वाली प्रान्टिक जाति भी इन्ही में शामित्र की जा सकती है। इन जातियो से सम्पर्क होते ही पार्यो की सस्कृति में इनकी सस्कृति के अनेको तत्त्व मिश्रित हो गये । ग्रार्यों के पास एक मणक्त मापा थी उन्होंने इन आर्येतर जातियो के सास्कृतिक प्रभावी का ग्रहण अपनी भापा मे करने के माय ही पार्वतर जातियो को अपनी भाषा से भी अवगत कराया। धीरे-धीरे प्रार्येतर जातिया भी आर्य भापा मापी बनती गयीं। उनके अनेको माम्यदिक उपादान प्राय भापापो का सहारा लेकर प्रार्य मस्कृति के वीच ममाहित होते गये । यह प्रापसी प्रादान-प्रदान धीरे-धीरे अपना वास्तविक रूप प्रार्य-भाषाओं के अन्तर्गन ठिपाता गया। यह काल 'छान्दम्' काल रहा होगा। इस समय प्रचलित भिन्न भिन्न स्थानीय बोलियो में प्रार्य प्रार्येतर तत्त्व एकाकार हो चुके रहे होगे ।
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[ 167 'देशी' शब्दो के उद्भव के मूल मे यही सास्कृतिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया देखी जा सकती है । 'देशीनाममाला' मे अनेको शब्द 'अनुकार शब्द' (onomatopoerc) हैं । द्राविड तथा निपाद दोनो भापामो के अनुकार शब्द उनके एक बहुत महत्त्वपूर्ण भाग है । इसी प्रकार प्रतिध्वनि वाले शब्द भी बहुत कुछ आर्येतर ही कहे जा सकते है। ये सभी तत्त्व ग्रामीण पार्यों और प्रार्येतर जातियो के सम्पर्क के दृढतर होने के साथ ही दोनो की वोलियो मे स्थान पाते गये । जिस वातावरण और जिस अवस्था के लोगो मे इन शब्दो का उदभव हना था उसी वातावरण और उन्ही अवस्थानो मे रहने वाले लोगो के बीच इनका विकास भी आधुनिक आर्य भापायो मे देखा जा सकता है।
ऊपर बताये गये तथ्य ये सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि 'देशी' शब्द प्रचुर मात्रा मे आर्येतर सस्कृति से सम्बन्धित होते हुए भी स्वरूप की दृष्टि से पार्यो की भिन्न भिन्न प्रान्तीय वोलियो के शब्द हैं । ये बोलिया आर्य और प्रार्येतर दोनो ही वर्ग के लोगो में प्रचलित रही होगी। इन्ही बोलियो को 'प्राथमिक प्राकृत' कहा गया है । इसी की एक बोली वैदिक 'छान्दस्' भाषा के रूप में विकसित हुई थी । वैदिक साहित्य मे इन्ही भिन्न-भिन्न बोलियो के बोलने वाले लोगो को व्रात्य, असुर, दस्यु आदि कहा गया है । जब वैदिक भापा मध्यदेश की साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी और वह सामान्य बोलियो से दूर हटती गयी, फिर इन वोलियो ने सिर उठाना प्रारम्भ किया और साहित्यिक भापा से अलग हटकर ग्रामीण तत्त्वो से युक्त पालि का विकास हुआ। इसी परम्परा मे मध्यकालीन प्राकृतो और नव्य भारतीय आर्य भाषाओ का भी विकास हुा । ये सारी भाषाए सस्कृत के प्रभाव से इतनी ग्रस्त रही कि आगे चलकर इन्हे संस्कृत से ही उद्भूत मान लिया गया। लेकिन यह अवस्था केवल साहित्यिक प्राकृतो की थी। प्रत्येक साहित्यिक भापा के युग मे सामान्य बोलचाल की स्थानीय भाषाए अपने मूल स्रोत प्राथमिक प्राकृत से जुडी रही । आधुनिक आर्य-भाषामो के सदर्भ मे भी यही बात देखी जा सकती है । इन साहित्यिक भाषाप्रो की बोलिया आज भी अपने आप मे अनादि काल से चले आ रहे प्राकृत के शब्दो को सजोये हुए है । सुनीतिकुमार चाटुा के शब्दो मे
"नव्य भारतीय आर्य भापायो तथा बोलियो मे ऐसे कई सी शब्द है जिनकी व्युत्पत्ति भारतीय आर्य उद्गमो से नही मिलती" हा उनसे प्राकृत पूर्व रूपो का अवश्य सरलतया पुनर्निर्माण किया जा सकता है।"
1
चाटा, भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी', ' 111
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निष्कर्ष रूप मे यह कहा जा सकता है कि 'देशी' शब्द बहुत अनादिकाल से साहित्यिक भाषामो मे प्रविष्ट होकर विक्रमित होते चले आये हैं। ये अपने अन्तराल मे अनेको सास्कृतिक उथल-पुथल छिपाये आज की भापायो मे भी विकास प्राप्त कर रहे हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से इन शब्दो का अध्ययन एक रोचक सास्कृतिक तथ्य का उद्घाटन करता है । वैदिक युग से लेकर साहित्यिक संस्कृत, उसके बाद पालि और साहित्यिक प्राकृतो मे, इन्हे वरावर स्थान मिलता रहा है। इन शब्दो मे चिरकाल से सचित आर्यों की मिश्रित सस्कृति का इतिहास सुगमतापूर्वक खोजा जा सकता है।
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मानक हिन्दी तथा उसकी प्रमुख बोलियों
__ में विकसित देश्य शब्द
आधुनिक भारतीय प्रार्य भाषाओ के मूल मे विद्यमान प्राकृत भाषाम्रो की शब्द सम्पत्ति को वैयाकरणो ने तीन भागो मे विभाजित किया है- (1) तत्सम (2) तद्भव तथा (3) देशज । इनमे प्रथम दो वर्ग के शब्दो का विकास व्याकरण सम्मत और सीधे सस्कृत से जुडा हुअा है । तृतीय वर्ग के 'देश्य' शब्द सम्पूर्ण भारतीय आर्य भाषामो की विविध विकासात्मक अवस्थाओ की अनोखी कहानी प्रस्तुत करने वाले है । प्राकृतो मे आयी हुई, अव्युत्पाद्य 'देश्य' शब्दावली का सम्बन्ध, यहा पार्यो से भी पहले रहने वाली जातियो से जोड़ा जा सकता है। ऋग्वेद से लेकर भारतीय आर्य परम्परा की जितनी भी कृतिया लिखी गयी या जितनी भाषाए बनी, सभी पर 'देश्य' शब्दावली की अमिट छाप है । इसी परिपाटी से आधुनिक भारतीय आर्य भापानो प्रमुखत· हिन्दी तथा उसकी प्रमुख बोलियो मे भी 'देश्य' शब्दो का व्यवहार होता आ रहा है, यही सिद्ध करना इस अध्याय का प्रमुख विषय है। भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी की तत्सम और तद्भव शब्दावली के अध्ययन के अनेको प्रयास हो चुके है, परन्तु इसमे युग-युगो से व्यवहृत होते आये 'देश्य' शब्दो के अध्ययन के प्रयास लगभग नहीं के बराबर हुए हैं।
प्राचार्य हेमचन्द्र के 'देशज-कोश' 'देशीनामनाला' के प्रकाशित होने के बाद से ही विद्वानो ने इसमे सकलित शब्दावली का अध्ययन भिन्न-भिन्न दृष्टियो से प्रारम्भ किया । विदेशी विद्वानो मे पिशेल, टर्नर आदि ने इन शब्दो का अध्ययन अनार्य भाषानो के सन्दर्भ मे प्रस्तुत किया है। इन देश्य शब्दो मे लगभग 700 शब्द
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170 ] निश्चित रूप से उसी अर्थ में द्रविड तथा अनार्य कोल, मुण्डा, सथाल आदि भाषाओ में खोजे जा सकते हैं । इस ओर प्रयास भी हुए हैं, परन्तु इन शब्दो के विकास को भापायो में खोजने का प्रयास क्रम ही हुया है। मानक हिन्दी तथा उमकी बोलियो में भी ये शब्द अपना रूप बदल कर या फिर उसी रूप में व्यवहृत हुए हैं यहा यही देखना अभीष्ट है।
अाज की भापायो मे 'देशी' शब्दो का विकास दिखाने के पूर्व ऐसे शब्दो की सर्वथा पूर्वसिद्ध प्राचीनता पर विचार कर लेना असगत न होगा। 'देशी' शब्द अत्यन्त प्राचीनकाल से ही असभ्य और अशिक्षित वर्ग के बीच प्रयुक्त हाते रहे हैं । म्वय ऋग्वेद, जो आर्यों का प्राचीनतम प्रामाणिक ग्रन्थ है ~ उसे देखने से स्पष्ट हो जाता है कि दो तरह की भापाए उस युम मे भी थी। ऋग्वेद प्रथम मण्डल तथा दशम मण्डल की भाषा द्वितीय से अष्टम मण्डल तक की भापा से सर्वथा अलग रूप में देखी जा सकती है। प्रो० विल्सन ने अपनी "एन ओरिजन पाव इण्डिया" नामक पुस्तक मे एक स्थान पर लिखा है कि भारत में आर्य सभ्यता के उदय से पहले ही जो भाषाए , यहा विद्यमान थी उनका लगभग 10 वा भाग वाद की सभी भाषाम्रो में प्राप्त होता है ।
प्रो० विल्सन के इस तथ्य पूर्ण कथन को ध्यान में रखते हुए यदि हम महपि पाणिनि के लौकिक तथा वैदिक भापा के व्याकरण-ग्रन्थ 'अष्टाध्यायी' को देखें तो कुछ पप्ट तव्य नहा भी मिलेगे । पाणिनि के समय में भी शिक्षितो की भाषा मे अलग हटकर कुछ भापाए थी जिन्हें अधिकारी विद्वानो ने 'प्राकृत (अशिक्षित लोगो की। भापा कहा है। इस बात का समर्थन पतजलि और भरत भी करते है। पाणिनि के वातुपाट मे कई धातुए ऐसी पायी हैं जिनका प्रयोग उनके पूर्व की माहित्यिक भाषा में नहीं मिलता। इन धातुओं का विकास प्राश्चर्यजनक रूप से अाधुनिक प्रार्य-मापात्रों विशेषतया हिन्दी मे मिलता है, परन्तु साहित्यिक सस्कृन में इनका प्रयोग कम ही हुआ है । कुछ वातुए द्रष्टव्य हैं
(1) अड्ड-अभियोगे-सिद्धान्त कौमुदी 11371-हिन्दी में 'अडना' क्रिया पद ।
(2) कडु कार्कण्ये - मि. को 11372 हिन्दी मे 'कड़ा' विशेषण पद।
___ "A Portion of a primitive unpolished and scanty speech, the
relies of a period prior to civilization had been calculated to 2mount one tenth of the speech on the whole."
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[ 171 (3) कुट् शब्दे सि को-6173 हिन्दी 'कुट-कुट करना' - यह धातु नेपाली और कुमायु नी वीरा और क्वीडा (वात) के मूल मे अाज भी है।।
(4) घिरिण-ग्रहणे', सि को 11461 - प्राकृत मे गेण्हइ, घेण्णइ आदि रूप इसी से विकसित है।
(5) घुण-श्रमणे -- सि को. 1 464 – हिन्दी 'घूमना' क्रिया इसी से। ।
(6) चक् तृप्तो - सि को 1193 - हिन्दी के 'छकना' तथा 'चकाचक' श्रादि पद इनी से पाए होगे। ___(7) चप् मान्त्वने - सि. को 11426 - हिन्दी 'चुप' पद का मूल
(8) जमु अदने - सि को 11426 -- हिन्दी जमना (जमकर खाना) या जीमना आदि
(9) चुण्ट छेदने - वही, 81347 ~ हिन्दी का 'च्यूटी' पद । (10) जुड़ा बन्धने - वही 6137 – 'जुडा' 'जोडना' आदि क्रिया पद ।
(11) ट - बन्धर्थे - वही 10197 - हिन्दी के टाँका लगाना 'टाँकना' प्रादि पद।
(12) टङ्ग गत्यर्थे -- वही 11887 – 'टाग' या 'टाँगना' पद ।
(13) पौर-गतिचातुर्ये - वही 11585 -- हिन्दी 'दौडना' अवधी 'घोडना' क्रियापद इसी से विकसित होगे।
(14) पेल् गतौ - सि को 11574 - हिन्दी - 'पेलना', रेल, पेल, इत्यादि पद ।
(15) बाड प्राप्लावे - वही 11306 - हिन्दी 'वाढ' पद ।
(16) मस्क् गत्यर्थे - वही - 11102 -- 'मसकना' (अनधी) (टससे) मस ।
(17) हिंड् गत्यर्थे - वही 11287 -- बगला-हाटा तथा कुमायु नी 'हिट्णो' श्रादि के मूल मे।
(18) जिमु अदने - वहीं-11500 -- जेवना (अवधी तथा ब्रज, मारवाडीजेवणे सथाली-जाम । कुकू -जोम । जुग्राग-जिम । सवर-जम ।
1. घुणि - घुणि ग्रहणे-क्रमशः सि को. - 11462 - 11463 ।
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पर गिनाये गये ये कुछ प्रास्यात पद सस्कृत मे न के बराबर प्रयुक्त होते हैं । भागे लोक भापायो के सहारे विकसित होने वाली प्राकृत तथा उसकी अन्य सहचारिणी भापायो में ये घातुए प्रयुक्त होती रही और कालक्रम से आधुनिक भार्य भाषा मे अपने उसी अर्थ में प्रचलित हैं । महपि पाणिनि की अष्टाध्यायी में प्रयुक्त होने मात्र से ये शब्द सस्कृत-योनि नही होगे, फिर पाणिनि तो स्वय ही 'लौकिक एव वैदिक भाषा' का व्याकरण रचने की प्रतिज्ञा करते हैं। बाद में यदि 'लौकिक' का अर्थ 'साहित्यिक संस्कृत भापा' हो गया तो इसमे पाणिनि का दोष नहीं । अाधुनिक भापा वैज्ञानिको मे यह मान्यता जड पकडती जा रही है कि सस्कृत ऐसी भापा है जिमको सस्कार (सुवार) कर उसे खूब ठोका-पीटा गया है । इस कार्य मे पाणिनि ने सबसे अधिक योग दिया । इमी प्रक्रिया के बीच कितने ही लोक भाषायो के शब्दो पर सस्कृत की मुहर लगायी गयी।
इमी तथ्य को दूसरे रूप में भी देखा जा सकता है। महर्षि पाणिनि के पहले तथा वाद की भाषा मे कुछ विलक्षणताएं स्पष्ट ही परिलक्षित की जा सकती हैं। सस्कृत भाषा की लम्बी परम्परा मे कुछ शब्द ऐसे पाते है जो व्यवहृत तो एक ही अर्थ में हुए है, परन्तु उनकी स्थिति स्पस्ट रूप से अन्नग-अलग है। संस्कृत मे 'घोडे' के लिए घोटक और 'अश्व' दो शब्द मिलते है । तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि 'वोटक' शब्द आर्येतर भापायो से सम्बद्ध है - तमिल में 'कुदिर', कन्नड्ड में 'कुदरे' तथा 'कोटा' में भी 'कुदरे' मिलता है। इन मापात्रों में प्राप्त होने के कारण यह स्पष्ट ही आर्येतर मापा (द्रविड भापा) से लिया गया है। दोनो शब्द "पोटक' और 'अश्व' माथ-माय व्यवहृत होते रहे। स्थिति के अनुसार प्रथम लोकमापा ने पाना हा शब्द रहा होगा और द्वितीय शिक्षितो की भापा का शब्द रहा होगा। शिक्षितो का 'अध्व' गब्द अाज हिन्दी मे भी उसी वर्ग के लोगो का शब्द है - जब कि 'घोटक' 7 घोडग्र7 घोडा आदि त्यो मे परिवर्तित होता हया मामान्यजनो द्वारा व्यवहृत होता है। इसी प्रकार कुत्ते के लिए 'कुक्कुर' और 'वान' दो शब्द है । विल्ली के लिए 'विलाई' और 'मार्जारी' दो शब्द व्यवहृत होते न्हे है । यदि इन साथ-साथ चलने वाले शब्दो का विकासक्रम लक्षित किया जाये तो देखने में पायेगा कि वैदिक युग में चलने वाले प्राकृत जनो द्वारा व्यवहृत अनेको पद वह घोडे बनि परिवर्तन या स्प परिवर्तन के साथ आज भी चल रहे हैं। प्राचार्य हेमचन्द्र की 'देशीनाममाला' में ऐसे अनेको पद है जिनका आधुनिक आर्यभापायो विशेषतः मानक हिन्दी में विकास, एक अनोखी भापा-शास्त्रीय कहानी उपस्थित करता है । मानक हिन्दी का शब्द भण्डार विविध मापात्रो के मेल से बना
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[ 173 है। इसमें निहित विदेशी तत्त्वो को पहिचान लेना सरल है, परन्तु परम्परा से चली प्राती हुई 'देश्य' शब्दावली को पहिचान पाना एक अत्यन्त दुरूह कार्य है । हिन्दी मे कितने ही ऐसे 'देशज' शब्द हैं -- जिन्हे भ्रान्तिवश सस्कृत से उद्भूत और तद्भव मान लिया जाता है। मानक हिन्दी के ऐसे ही कुछ शब्दो पर प्रकाश डाला जायेगा जो युग युगो से भारतीय आर्य भापारो की सम्पत्ति रहे और आज भी भाषा के शब्द भण्डार को समृद्ध बना रहे हैं। जिन शब्दो का यहा उल्लेख किया जायेगा उन्हें प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'देश्य' मान कर अपने कोश ग्रन्थ 'देशीनाममाला' मे मलित किया है ।
1 प्रघारगो-- विशेषरण पद) - दे० ना० मा० 1-19 यह शब्द हिन्दी में प्रधाना अवधी में प्रधान व्रजभापा में 'अघाना' 'अघानो' आदि क्रिया पदो के रूप में विकसित है। प्राचार्य हेमचन्द्र इस शब्द को देश्य मानते है । परन्तु शब्द की स्थिति और रूपात्मक विकास दोनो अलग कहानी कहते हैं । जहा तक इस शब्द की स्थिति का प्रश्न है यह लोक भाषा का शब्द है । साहित्यिक हिन्दी मे 'अघाना' क्रिया का प्रयोग नगभग नही ही होता है । इसके स्थान पर 'तृप्त होना' त्रादि पर व्यवहत होते है। लोक भापात्रो और बोलियो मे 'देशी' शब्द प्रचुरमाना मे हैं यह बात मिद्ध हो चुकी है। यह तो एक पक्ष हुआ। दूसरी ओर यदि इस पद को 'मस्कृत' के 'पाघ्राण' पद मे व्युत्पन्न माना जाये तो खीचतान करनी पड़ेगी। 'यात्राग' का अर्थ है - 'नाक तक भरकर' इसका लाक्षणिक अर्थ ही तुप्तिवाचक होगा । ऐमी स्थिति मे इस शब्द के सास्कृतिक परिवेश के ही आधार पर इमकी वोटि का निर्धारण किया जाना चाहिए। इस कसौटी पर यह 'देश्य' ही ठहरता है । 'ग्रग्बाण' शब्द से 'अघाना' क्रिया का विकास रूपात्मक विकास की दृष्टि से भी सही दिशा में है- अवधी मे-'अघाइ के खावा' 'अघान अहै' प्रादि रूपो मे इसका व्यवहार देखा जा सकता है ।
उपर्युक्त शब्द विवेचन के बीच एक बात विज्ञजनो को खटक सकती है, वह यह कि यदि कोई शब्द संस्कृत भाषा मे विद्यमान है तो उसे 'देश्य' बताने का आग्रह हम क्यो करें ? इस प्रश्न पर विचार करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि कोई भी साहित्यिक भापा लोक भाषा के स्तर से उठ कर ही साहित्यिक भाषा बनती है - ऐसी स्थिति सस्कृत की भी रही है। स्वय महपि पाणिनि ने व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी मे कितने ही शब्द ऐसे आये हैं -- जिनका उद्गम लोकभाषायो मे खोजा जा सकता है। पाणिनि के धातुपाठ मे 'देश्य' तत्त्वो की चर्चा ऊपर की जा चुकी है । अष्टाध्यायी के उणादि प्रत्यय भी बहुत कुछ इसी तथ्य की
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174 ] पोर नकेत करते है। संस्कृत एक ऐमी भापा है जिसका पाणिनि जैसे वैय्याकरणों ने सम्कार क्रिया । इन क्रिया में कितनी ही 'देश्य' शब्दावली संस्कृत हो उठी। इनका मन पहले भी किया गया है ।
(2) अंगालि - (मना पद) इनु बण्ड - दे. ना मा 1-28 - इ गाली -1-79-ये दोनो शब्द - ईन्च के ऊपरी भाग-जिममै उसकी पत्तियाँ आदि रहती हैं, के प्रर्य मे व्यवहृत हुए हैं। अबवी का 'अगोरी' या 'अगौरी' पद तथा ब्रजभापा
और भोजपुरी में 'अंगोला' पढ़ इन्ही शब्दो के विमित स्प हैं । इस शब्द का प्रस्कृत वे 'अन' शब्द से भी व्युत्पन्न किया जा सकता है, परन्तु ऊपर कही गयी बातो को ध्यान में रखते हुए यह उपयुक्त नही होगा।
(3) श्रच्छ (विशेषण) - अत्यर्थ दे ना मा 1-49 - हिन्दी का 'अच्छा' विशेषण पद जो कि 'मुन्दर' का अर्थ देता है तथा बोलने में जो भिन्न-भिन्न मनोभावो के द्योतन के लिए प्रयुक्त होता है, इमी पद का विकमित त्प होगा।
(4। अच्छिविप्रच्छी (संजा) ~ परम्परमार्पणम्-दे ना मा.-1141 - यह एक ऐसे खेल का अर्थ देने वाला शब्द है जिसमे वेलने वाले परस्पर एक दूसरे गे दींचते हैं। हिन्दी में प्रचलित बच्चो के बेल का अर्थ देने वाले 'पान्व-मिचौनी' पद को इनका विकसित रूप माना जा सकता है क्योकि दोनो शब्द खेल वाचक हैं । वेल की प्राचीन प्रत्रिया और बात की प्रक्रिया मे भेद हो सकता है पर है दोनो एक ही।
(5) प्रजराटर - (मंनापद) उष्णम् दे ना मा - 1 45 - अवधी में जाडे में प्रयुक्त होने वाली गर्म और भोटे कपड़े को 'जडावर' कहा जाता है। 'जटावर' शब्द निश्चित रूप से 'जगह' जन् का ही विकमित प होगा। समय की लम्बी बाग के बीच उगातावाचक यह पद गर्म कपड़ो के लिए प्रयुक्त होने लगा होगा । अचात्मक पन्वितन की दृष्टि में यादि स्वर का लुप्त हो जाना या '२ का 'इ' हो जाना लोक गपाम्रो की न्यन् श्यिा है।
(6) प्रत्यार्घ तया अत्याह - अगाय (विशेषण) - दे ना मा 1-54 - हिन्दी तग उमत्रो नमी बोलियो में यह शब्द - थोटे परिवर्तन के साथ 'ग्रयाह' पद हैकर ने पनी की न नापी जा सकने वाली गहराई के अर्थ में प्रयुक्त होता है । संस्कृत ३ 'गाय' शब्द ने 'प्रयाह' पद का विकास मानना, व्वनिपरिवर्तन की दृष्टि मे अपन नहीं होगा।
(7) अल्लट्ट-पल्लट्ठ - '73 परिवर्तन (मनापद) दे ना मा 1-48-यह गन्द घोडे विकार के साथ हिन्दी में अलट-पलट या उलट-पलट' तथा अवधी मे
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'उलुटु-पुतुट' के रूप मे व्यवहृत हो रहा है। अवध के कुछ ग्रामीण क्षेत्रो मे इसका प्रयोग 'उलाट-पुलाट' के रूप मे भी होता है ।
(8) अवपुसिनो - सघटित (विशेषण) दे ना मा 1-48 - यह हिन्दी मे 'पापस' तथा अवधी मे 'यापुस' के रूप में विकसित होकर प्रयुक्त हो रहा है। ध्वनि परिवर्तन की दृष्टि से अवधी का 'पापुस' इसके अधिक समीप है । अब 7 प्रा। अवधी मे 'प्' का 'उ' स्वर सुरक्षित है जब कि हिन्दी मे इसका सस्कार किया गया और 'देशी' प्रकृति हटाने के लिए प् के 'उ' का 'अ' कर दिया गया है ।
(9) असियं'-दात्रम् (सज्ञापद) दे ना मा 1-14-फसल शब्द आदि की कटाई के लिए लोहे का बना हुअा धारदार अौजार विशेष । हिन्दी तथा अवघी मे 'हसिया ब्रजभापा 'असि' आदि पद इसी के विकसित रूप होगे। अवघी मे प्राय स्वरो का महाप्राणीकरण देखा जाता है - जैसे 'अइसन' और 'हइसन' दोनो ही पदो का व्यवहार होता है । हेमचन्द्र द्वारा दिये गये अर्थ से भी इसकी पर्याप्त समानता है।
(10) आऊरू - अतिशय (अधिकतावाची) (सर्वनामपद) दे ना मा 1176 - यह शब्द हिन्दी मे 'और' अवधी मे 'अउर' प्रादि रूपो मे विकसित है । हिन्दी तथा इसकी अन्य बोलियो मे इस शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है - एक अधिकतावाचक सर्वनाम के रूप मे जैसे और दीजिए', दूसरा सम्बन्ध बोधक अव्यय के रूप मे जहा पर इसे अग्रेजी के 'एण्ड' (And) का स्थानीय समझा जा सकता है । हमे अधिकतावाची सर्वनाम पद 'और' को ही लेना है। हिन्दी का 'और' तथा अवधी का 'अउर' दोनो ही पद 'पाऊर' के विकास होगे । अर्थ की दृष्टि से अ ग्रेजी के एण्ड (And ) का स्थानवाची सवधवाचक अव्ययपद 'और' सस्कृत 'अपर' शब्द का विकृत या तद्भव रूप है। . (11) पाहु-उलक सज्ञा पद) दे ना. मा 1-61 - हिन्दी तथा उसकी लगभग सभी ग्रामीण बोलियो मे व्यवहृत होने वाला 'हौवा' या 'हउा' शब्द इसी से विकसित माना जा सकता है । इसका व्यवहार प्राय 'डरावना' जीव के अर्थ मे होता है । उल्लू नामक पक्षी स्वभाव से भीरु होते हुए भी आकृति से बहुत अधिक डरावना होता है। 'पाहु' से 'हौवा' या 'हउमा' शब्द का विकास-भापा वैज्ञानिक दृष्टि से 'वर्ण विपर्य' के अन्तर्गत रखा जा सकता है ।
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सस्कृत के 'असि' (तलवार) तथा 'असित' (काला या अपवित्र) शब्दो से भी इसे व्युत्पन्न किया जा सकता है। इसके विपरीत यह भी सम्भावना है कि यह लोक भापा का शब्द रहा हो और वाद मे साहित्यिक संस्कृत में प्रयुक्त होने लगा हो।
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(12) उक्कामिया-उत्थित-(विशेपण पद) दे ना मा 1-114 हिन्दी 'उकमाना' ब्रजमापा 'उक्रमन' 'कमनि' तथा अवधी 'उमकाना' या 'हुसकाना' प्रादि पद इमी ये विक्रमित हुए होगे । विकास की इस प्रक्रिया के अन्तराल में अर्थ साम्य
और ध्वनि-माम्य दोनो ही पग्लिक्षित किया जा सकता है। उक्कामि-उपकाम-उकस 'ना' हिन्दी का क्रियावाची प्रत्यय - उकसाना । अवधी मे वर्ण विपर्यय से उकसानाउसकाना-दुमकाना ।
(13) उक्खली ~ पिठर (मनापद) दे. ना मा 1188 - अवधी मे 'पोखरी', राजस्थानी ब्रजभाया और भोजपुरी में 'पोखती' 'उबली' 'पोखरी' और 'पोखडी' तथा बुन्देली में 'उखरी' शब्द 'उपखली' शब्द के ही विकमित रूप हैं।
(14) उक्कु डो ~ मत्त (मनापद) दे. ना मा 1-91 - हेमचन्द्र ने इमका अर्थ मदमत्त या घमण्डी बताया है। हिन्दी तथा उमकी सभी बोलियो में व्यवहृत 'गुण्डा' 1 शब्द इम शब्द का विकसित रूप कहा जा सकता है । क का ग में परिवतन तथा प्रारम्भिक स्वर का लोप मध्यकालीन भारतीय आर्य भापायो के लिए ममान्य बातें हैं । उक्कु ड तथा उसके विकमित रूप 'गुण्डा' दोनो का ही सम्बन्ध यहा बहुत प्राचीन काल मे रहने वाली वर्वर एवं स्वेच्छाचारिणी 'गोड' जाति से जोडा जा सकता है । हेमचन्द्र ने इसी प्राशय का एक अन्य शब्द 'गुन्दा' (दे ना. मा 2110) अवम या नीच के अर्थ में दिया है। अरबी मे 'गोन्द' या 'गुन्द' शब्द सिपाही के अर्थ में आया है। राजघराने के मिपाहियो का स्वेच्छाचार और उनकी दुष्टता सर्वविदित है । हो मकता है वाद में अत्याचारी मिपाह्यिो के ममान ही पाचरण करने वाले व्यक्ति का नाम भी 'गोद' या इसी का विकमित रूप 'गुण्डा' पढ गरा हो । मेरी दृष्टि में 'गोर्ड' जाति में इसका सम्बन्ध दिखाना उचित होगा।
(15) उच्च टो, उच्छट्टो ~ नत्रीयम्, चोर (मनापट) दे ना मा 1-101 ये दोनो शब्द चोरी करने मे अत्यन्त पटु व्यक्ति के अर्थ में पाये है । हिन्दी का 'छंटा' गन्द - (जैम' खेटा हुया बदमाग) म्यप्ट ही इन दोनो शन्दी मे विक्रमित हृया होगा।
(16) उच्दु - भवत्रौर्यम् (मनापद) दे ना. मा. 1195 - चोरी करते समय भयभीत रहने वाले अक्ति का अर्थ देने वाला यह शब्द 'योचा' पद के
प्रामाषा रोप, 400 पर 'गष्ट्रा' गन्दी ममत के 'गण्टक (मनिन) गब्द में यत्पन्न बनाया गया है । 'मटा' मन्दी यह व्युत्पति वन व्यत्पनि दिखाने के लिए ही दी गयी उगती है। मम्न मा 'गदर' मदनी दण्य' प्रकृति का है। इस णन्द की भी टॉप पाटकर मम्कार युक्त किया गया हाा मतप से यह मन्द 'देश्य है तनव नहीं।
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रूप मे हिन्दी तथा उसकी लगभग सभी बोलियो मे प्रचलित है । यद्यपि इसका अर्थ दुष्ट, धोखेबाज आदि हो गया है, फिर भी इस शब्द के अन्तराल में निहित कायरता का प्राभास इसे 'उच्छ्य' के अर्थ से वहत दूर नहीं ले जाता । ध्वन्यात्मक विकास भी सही दिशा मे है । उच्छुअ7 प्रोच्छह (उद्ग्रोति) पीछा।
(17) उच्छवियं - शयनीयम् (सज्ञापद दे ना. मा 1-103 -- विस्तर का अर्थ देने वाला यह शब्द अवधी मे बिछौना, ब्रजभाषा मे बिछौन तथा विछौना एव हिन्दी की अन्य वोलियो मे भी इन्ही रूपो मे विकसित देखा जा सकता है ।
(18) उज्जडं - उद्वसम् (विशेपण पद) दे ना मा. 1-96 हिन्दी मे 'उजाड' 'ऊजड' अवधी मे ऊजर, व्रजभापा मे 'उजार' आदि रूपो मे इस शब्द का विकास देखा जा सकता है । हेमचन्द्र ने इसका प्रयोग 'सुनसान स्थान' के अर्थ मे किया है। हिन्दी तथा उसकी बोलियो मे भी इसका यह अर्थ सुरक्षित है। भापा वैज्ञानिक दृष्टि से ड्का र या ड में परिवर्तन हिन्दी तथा उसकी बोलियो मे वहुतायत से देखा जाता है।
(19) उज्झमणं -पलायनम् - (सज्ञा पद) दे ना. मा. 1-103 - हिन्दी तथा उसकी बोलियो मे व्यवहृत होने वाला त्वरावाचक 'झम' शब्द इसी शब्द से विकसित होगा । जैसे 'झम से उठा लिया', 'झम से भागा' 'झमकि झरोके झाकि' आदि ।
(20) उडिदो - मापघान्यम् -- (सज्ञापद) दे ना मा. 1-98 - यह शब्द खडी बोली तथा ब्रजभाषा से 'उडद', अवधी और भोजपुरी से 'उरिद' बुन्देली मे 'उरदन' गुजराती मे 'अडद' तथा राजस्थानी मे 'उडिद' या 'उडद' के रूप मे विकसित है । यह अपनी प्रारम्भिक अवस्था से दो दाल वाले बीज विशेष का वाचक रहा है और आज भी उसी अर्थ मे प्रचलित है।
(21) उडडसो - मत्कुण (सज्ञापद) दे ना मा 1-96 - भोजपरी मे 'उडिस' या 'उडीस', वगला और मैथिली मे 'उडीस' के रूप में विकसित यह शब्द आज भी 'खटमल' का वाचक है।
(22) उत्थल्लपत्थल्ला (सज्ञापद) - (श्रोत्थल्लपत्थल्ला)1 पार्श्वद्वयेन परिवर्तनम् दे ना मा. 11122 हिन्दी मे 'उथल-पुथल' शब्द इसी का विकसित रूप है । गुजराती मे यह शब्द 'उथल-पाथल' के रूप में प्रचलित है ।
'उतओति' से। हेमचन्द्र द्वारा दिया गया 'उत्थल्लपत्यला' शब्द एक स्थूल क्रिया' इधर-उघर बार-बार उलटना' का द्योतक है। हिन्दी मे यह 'उथल पुथल' के रूप में 'हलचल' वाची होकर सूक्ष्म अर्थ देने लगा है। शब्दो के इम अर्थविकास के अन्तराल मे एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथ्य निहित है। पहले अशिक्षित वर्ग में प्रचलित 'देशी' शब्द स्थूल क्रियाओ का ही अर्थ देते रहे होगे परन्तु सभ्यता और शिक्षा के विकास के साथ ही उन्ही शब्दो मे अर्थ गौरव आया। अभिधा के बाद लक्षणा फिर व्यजना और ध्वनि जैसी शब्द शक्तिया सभ्य सुशिक्षित मनुष्य का विकास लगती हैं। मादि युग का मानव और उसकी भाषा दोनो ही कमिधावादी रहे होगे।
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(22क) उन्बुक्क-प्रलपित - (सज्ञापद) दे ना मा 1-1 28 - हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे प्रचलित 'बुक्का' शब्द जैसे 'वुक्का फाडकर रोना, इसी शब्द से सम्बन्वित है।
(23) उम्मडा - (मज्ञा) बलात्कार - दे ना मा. 1-97 - हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे प्रचलित 'समड' विशेपण पद या 'उमडना' क्रिया पद इसी से विकसित होंगे। जैसे 'समड-घुमड' कर वरसना 'नदी खूब उमड़ कर बह रही है। आदि । इन दोनो ही प्रयोगो के कारण अन्तराल में' 'बलात्कारेण कार्य सम्पन्न होने की भावना निहित देखी जा सकती है।
(24) उन्बायो-खिन्नार्य-~-दे ना मा -1-102-व्रजभापा और अवधी की 'ऊवना' क्रिया भोजपुरी की 'उवना' क्रिया या बना इसी शब्द से विकसित होगी। अवधी कोश मे इस क्रिया को 'पोवा' नामक बीमारी से सम्बद्ध बताया गया है । 'पोवा' नामक बीमारी से भी लोग बहुत अधिक घबरा उठते हैं, फिर भी इमसे 'कवना' क्रिया का सम्बन्ध बनाना उपयुक्त नहीं है। 'योवा' पद अाज भी अवधी
और भोजपुरी मे 'अोवा' (भयानक आपत्ति जो एकाएक आती है) के रूप में प्रचलित है । अत. 'अोवा' से 'ऊवना' क्रिया का सम्बन्ध जोडना ठीक नही । दूसरी ओर यदि इसे तद्भव मानकर संस्कृत के "उदृस' शब्द से व्युत्पन्न बताया जाये तो भी अनेको कठिनाइया आयेंगी। हिन्दी का 'ऊवना' या 'उवाऊँ' शब्द 'देश्य' 'उन्बापो' के अधिक समीप है।
(25) औच्छिकेशविवरणम् दे ना मा -1-150-'बजभाषा मे प्रोछना' तथा अवधी मे 'पोइटना' क्रिया पदो के रूप में इमका विकास देखा जा सकता है । द्रजभाषा मे इसका मूल अर्थ 'वाल-झाडना' सुरक्षित है - मूग्दास ने 'पोछन गुहत ...............' आदि रूपो मे इसका प्रयोग किया है। अवधी में इमका थोडा अर्थ विकास हो गया है - जैसे 'गड्या कोएर प्रोडछ लइ गइ ।' यहा प्रोडछना' पद 'कोई वस्तु झटके से खीच लेने का अर्थ देता है । वाल भी खीच और झटक कर ही माफ किये जाते है । क्रिया वही है मात्र अर्थ विकास से विशिष्ट न रह कर सामान्य बन गयी है । अब फिर प्रश्न उठता है कि यह शब्द 'देशज' कैसे है - म में भी 'उछि - (मि को 1-230) ~क्रिया विद्यमान है । उसका भी अर्थ 'पोटना' या 'माफ करना है', फिर इस शब्द को इसी धातु से व्युत्पन्न क्यो न किया जाय । इस विवाद को मिटाने के लिए हमे अन्य प्रार्य पूर्व भारतीय भापायो की ओर जाना पड़ेगा। यह शब्द तमिल में उरिञ्जु (साफ करना, मिटाना) कन्नड में 'उछु' के रूप में मिलता है। संस्कृत के पहले की भापात्री के
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[ 179 इन गब्द की विद्यमानता यह सिद्ध करती है कि यह शब्द संस्कृत शब्द भण्डार की अपनी उस्तु न होकर अपहृत है । इसका प्रमाण इसी अध्याय मे पहले भी दिया जा चुका है । ऐसी स्थिति मे इसे तद्भव न मानकर 'देशज' मानना ही अधिक उपयुक्त होगा।
(26) प्रोझरी (तज्ञापद)-दे ना मा. 1-157-हेमचन्द्र ने इस शब्द का प्रयोग गर्भाशय को ढके रहनी वाली पतली झिल्ली' के अर्थ मे किया है । अवघो, भोजपुरी तथा 'ब्रजभाषा' तथा हिन्दी की अन्य सभी ग्रामीण बोलियो मे यह शब्द 'नोकरी' के रूप मे थोडे ध्वनि विकार के साथ ज्यो का त्यो प्रचलित है अर्थ भी वही है जो हेमचन्द्र ने दिया है । 'प्रोझर' या 'प्रोझल' शब्द जो छिपने के अर्थ मे चलते हैं उनका भी सम्बन्ध इस शब्द से जोड़ा जा सकता है।
(27) प्रोड ढरणं - उत्तरीयम्-दे. ना मा. 1-155 - ब्रजभाषा-ओढनि, ओ हनी अवधी 'यो ढनी' तथा 'प्रोढना, इसी शब्द के विकसित रूप होगे । ब्रजभाषा मे यह दुपट्टा (उत्तरीयवाची) ही है। अवधी मे यह सज्ञा (प्रोढनी वस्त्र) तथा किया (प्रोटना)दोनो ही रूपो मे प्रचलित है । ग्रामीण वोलियो मे इसकी अवस्थिति स्वय इस शब्द के 'देशीपन' को व्यक्त करती है।
(28) अोलुग्गो ~ सेवक - दे ना मा 1-164- ब्रजभापा का 'लगुवा' और अवधी का 'लगया' ये दोनो ही इसी शब्द से विकसित होगे । यह शब्द ऐसे नौकर के अर्थ मे चलता है जो केवल अपने स्वामी का ही काम करता है । प्राय यह शब्द काश्तकारो का पुश्त-दर पुश्त हल जोतने वाले मजदूरो के अर्थ मे प्राता है । संस्कृत 'लग्न' शब्द से इसे व्युत्पन्न करने मे पर्याप्त खीच-तान करनी पड़ेगी।
(39) पोलुकी ~ छन्नरमणम् - दे ना मा 1-153- ब्रजभाषा लुकना, नुकनो, अवधी 'लुका-नुकी' या लुकी-लुका' आदि पद इसी से विकसित हैं । 'लुकीनुका' या लुका-छिपी' का सेल ग्रामीण बालको का अत्यन्त प्रिय खेल है।
(30) प्रोल्लरिनो - सुप्त - दे ना मा - 1-163 - अवधी का 'पोलरना' क्रियापद, व्रजभाषा का प्रोलरन (सज्ञा) तथा 'पोलराना' (प्रेरणार्थक क्रियापद) आदि पद इसी से विकसित होगे । स्वरूपगत विकास तो लगभग ठीक दिशा मे है पर अर्थ मे थोडा भेद है । प्राकृत का 'प्रोल्लरियो पद 'सोता हुआ' अर्थ देता है परन्तु अवघी और ब्रजभाषा मे विकसित अोलरना या 'पोलराना' न सोते हुए भी 'लेटने' के वाचक है । ये शब्द 'विश्राम करने के लिए लेटने तथा 'सोने' दोनो ही क्रियायो के वाचक है ।
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(31) प्रोमरिनं - अलिन्द ~ दे ना मा 1-161 - घर के दरवाजे के सामने बनी हुई कुल वरसाती के अर्थ मे यह शब्द पाया है । ब्रजभाषा मे प्रोसारा अववी मे 'श्रोमार' या 'मोसरिया' शब्द इसी के विकमित रूप है। सूर ब्रजभापा कोश (पृ. 183) मे 'पोसारा' शब्द की व्युत्पत्ति 'उपशाला' शब्द से दी गयी है । परन्तु प्रत्येक शब्द को घसीट कर सस्कृत की सीमा मे ले जाना एक स्वस्थ मनोवृत्ति नहीं है।
(32) प्रोसा - निशाजलम् - दे ना मा 1-164 - मानक हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे प्रचलित 'पोस' शब्द रात्रि मे स्वतः वपित जल के अर्थ मे प्रचलित है । यह शब्द 'मोसा' का ही एक विकसित रूप है। ऋग्वेद मे भी एक स्थान पर 'अवश्याय' शध्द 'बोस' के अर्थ मे पाया है । इसका यह अर्थ नहीं कि मूल रूप मे यह वैदिक संस्कृत का शब्द है। ऋग्वेद में कितने ही शब्द ऐसे हैं जो प्रार्यों ने अनार्यों से लिये और उन पर अपनी सभ्यता, मुशिक्षा और अपने ढग के उच्चारण की मुहर लगा ली। ऋग्वेद मे जगह-जगह पार्यो (देवो) और अनार्यों (असुरो) के वीच होने वाले मघर्प की चर्चा है। यह रचना आर्यों ने ऐसे समय म की जब वे वीरे-धीरे अनारों का प्रभाव ग्रहण करने लग गये थे। ऐसे कितने ही शब्द ऋग्वेद या इतरवेटो मे अनार्यों मे ग्रहण किये गये होंगे अनार्य या भारत के आदिवासियो का कोई लिखित साहित्यिक प्रमाण न मिलने के कारण ही यह भ्रान्त धारणा चल पदी कि जितने शब्द वेद - कम से कम ऋग्वेद में पाये, वे पार्यो के हैं, परन्तु आधुनिक खोजो से यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पार्यों ने अनार्यों मे बहुत कुछ लिया है।
(33) श्रोसायो - प्रहार पीडा - दे ना.मा - 1-152-~-अजमापा और अवधी दोनो बोलियो का 'ग्रोमाना' क्रिया-पद जो कि भेलने' या 'महन करने का अर्थ देता है ~ इसी से विकसित होगा । अपने मूल स्प मे प्रहार की पीडा का वोवक यह शब्द अर्थ-विकास के ग्रावार पर 'पीडा सहन करने या झेलने' का वाचक बन गया है । इसे सस्कृत की 'मह' धातु से व्युत्पन्न करना उपयुक्त नही होगा।
(34) अोहडणी -- फलहकार्गला (सनापद) दे ना मा. - 1.160-- अवधी का 'प्रोडयनी' या 'प्रोडसनी' पद इसी मे विक्रमित है । 'प्रोडघनी' का तात्पर्य
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देना मा 1-49में 'बोनाग' शन्द भी माया है जिममा अयं गोवाट यर्यात गायो का ठेडा दिया गया है। गावों में घर के सामने बने हए ओनारे में वरमा या जाड़े के दिनों में शनवर्गका वाघ दिया जाना यतिमामाय बात है।
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[ 181 काठ की ऐसी लकडी है जिसे दरवाजा चन्द करने मे साकल की जगह प्रयोग किया जाता है । भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह विकास उपयुक्त दिशा मे है । ह और ड् का वर्ण विपर्यय तथा ह, के घ में परिवर्तन हो जाने से - अोहडणी 7 प्रोडघनी रूप मे विकसित हो गया । प्राकृत शब्दो मे पाग जाने वाला अन्त्य रण हिन्दी मे च मे परिवर्तित हो जाता है।
__(35) प्रोहरिसो - घ्रात (विशेषणपद)-हेमचन्द्र ने इस शब्द का प्रयोग 'बासो' 'महकी' हुई वस्तु के विशेपण रूप में किया है । अवधि मे 'अोहरना' क्रिया 'वासी पडने' के अर्थ मे ही व्यवहृत होती है । स्पष्ट है कि इसका विकास 'मोहरिसो' शब्द से हुअा होगा।
(36) फट्टारी - क्षुरिका (सज्ञापद) - दे ना मा - 2-4 - हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे प्रचलित 'कटारी' शब्द इसी से विकसित होगा । सस्कृत के 'कर्तरी' शब्द से भी इसे व्युत्पन्न किया जा सकता है, परन्तु सस्कृत का यह शब्द स्वय ही प्राकृत शब्दो की प्रकृति का द्योतन करने वाला है ।
(37) कडच्छु - प्रयोदर्वी (सज्ञापद) दे ना. मा 2-7 - हिन्दी तथा उसकी मभी वोलियो में प्रचलित 'कडछुल' 'करछी' 'करछुल' या 'कल्छुल' पद इसी के विकसित रूप हैं । हेमचन्द्र ने 'कडच्छु' का अर्थ पाचन क्रिया में काम आने वाले लोहे की बनी हुई वस्तु विशेष' दिया है । इस शब्द के विकसित रूप करछी आदि भी इसी अर्थ के द्योतक है । अन्तर इतना ही है कि हेमचन्द्र द्वारा प्रयुक्त मात्र लोहे की 'करछुल' का वाचक है जवकि इसके विकसित रूप किसी मी धातु से बनी हुई करछुल के लिए पाते हैं।
(38) कन्दो - मूल शाकम् (सज्ञापद) - दे ना मा 2-1 - सस्कृत हिन्दी, बगला, तथा मैथिली आदि में प्रचलित 'कन्द' शव्द इसी शब्द से सम्बद्ध होगा । निश्चित ही 'कन्द' जैसी वस्तु का प्रचलन पार्यों के आने के पहले ही से रहा होगा।
(39) कंडो - क्षीण - दे ना मा 2-51 - हिन्दी तथा लगभग उसकी सभी वोलियो में प्रचलित 'कडा' शब्द इसी का विकास माना जा सकता है। 'कडा' का अर्थ सूखा हुया (विशेषतया) गोवर होता है । 'कडो' शब्द का अन्य अर्थ 'मृत' भी है । इस अर्थ मे भी 'कडा' पद का व्यवहार होता है - जैसे 'वह कडा हो गया' अर्थात् मर गया। यहा शब्द के स्वरूपगत विकास के साथ ही उसमे थोडा सा अर्थगत विकास भी निहित है।
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(40) फतवारो तथा कयारो - तृणाद्य त्कर . (सनापद) दे ना मा 2111 - हिन्दी तथा उसकी सभी वोलियो मे प्रचलित 'कतवार' तथा 'कवाड' पद इन्ही दोनो शब्दो से विकमित होंगे । हेमचन्द्र इनका अर्थ तृणममूह देते हैं-विकसित रूप में 'क्तवार' तथा 'कवाड' पद भी 'घास तथा कूडे कचरे के ढेर' का अर्थ देते हैं । 'कतवार' शब्द तो ज्यो का त्यो विना किसी ध्वन्यात्मक परिवर्तन के प्रचलित है, परन्तु कयार' पद अपनी विकसित अवस्था तक कुछ ध्वन्यात्मक परिवर्तनो से युक्त होकर पहुंचा है। 'कयार' के 'य' का 'व' फिर 'व' का 'व' तथा 'र' का 'ड' होकर 'कवाड' पद बना है। प्राकृतो से हिन्दी मे विकसित गब्दो में ये ध्वनि परिवर्तन अति सामान्य है।
(41) करिल्लं - वशाहकुरम् (सनापद) दे ना मा 2-10 - हिन्दी भाषा-भापी गावो मे आज भी वास के फूटते हुए अकुर को 'कर ल' या 'करइल' (अवधी) कहा जाता है । यह शब्द 'करिल्ल' का ही विकसित रूप है।
(42) कल्ला- मद्यम्, (संजापद) दे ना. मा - 2-2 - 'हिन्दी तथा उसकी वोलियो मे प्रचलित जाति विशेप का बोधक 'कलार' या 'कलवार' पद इसी शब्द से मबद्ध माना जा सकता है। ऐसी प्रसिद्धि है कि 'कलावार' नाम की एक जाति विशेष पहले मदिरा बनाती और उसका व्यवसाय भी करती थी। कल्ला (मदिरा) के व्यवसाय के आधार पर ही इस जाति का नाम 'कलार' या 'कलवार' पडा होगा।
(43) कल्होडी - वत्सतरी - (सज्ञापद) दे ना मा 2-9 - हिन्दी तथा उसकी लगभग सभी वोलियो मे गाय की वछिया के अर्थ मे 'कलोर' या 'कलोरी' पद का व्यवहार होता है । ये पद उपर्युक्त 'देश्य' शब्द 'कल्होडी' के ही विकसित रूप होंगे।
(44) काहारो - जलादिवाही कर्मकर (सज्ञापद) दे ना मा -2-27मानक हिन्दी ब्रजभापा-अवर्ग तथा अन्य वोलियो मे भी 'कहार' शब्दो उत्सवो या
'कल्ला' पद देश्य न होपर तद्भव है और मस्कृत 'कल्या' शब्द का विकृत रूप है । यह भी कुछ विद्वानों का मत है। हेमचन्द्र स्वय भी लिखते हैं -“पल्ला शब्द क्ल्या शन्द भवोsप्वस्ति । मत क्वीना नाति प्रमिद्ध ।" वे इस शब्द को मम्कृत में होते हए भी कवियो मे प्रमिद्ध न होने के कारण 'देश्य' मानते है। यह तो कामचलाऊ तक हवा । मेरी दृष्टि में यह मन्द दे' ही है क्यो कि' 'तमिल' में भी 'कल्' शब्द मदिरा के वयं मे प्रयक्त हबा है। इन प्रसार में आर्येतर तत्त्व माना जाना चाहिए । मूर ग्रनमाषा कोष में 'कहार' गान्द को तदभव माना गया है और टमकी दो व्यत्पत्तिया पी गयी हैं (1) म्क धमार (2) क - जन, हार - लाने वाला। जहा तक कहार शब्द पो 'म्य चमार' मन्द में भ्युत्पन्न करने की बात है वह किमी हद तक ठीक भी मानी जा गनी है - इसका सम्बघवघे पर पानकी ढोने वाले नौकरों से दिखाया जा सकता है। परन्तु दूसरी व्युत्पत्ति तो अत्यन्त हाम्यास्पद है। प्रत्येक शब्द को सस्कृत तक घमीट ले जाने पा विद्वानों का यह मोह पता नहीं कब छूटेगा।
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[ 183 सामान्य दिनो में भी पानी ढोकर लाने वाले 'नौकर' का वाचक है । पालकी आदि ढोकर ले जाने वाले नौकर को भी कहार' ही कहते है। यही शब्द आगे चल कर कर्म के आधार पर निर्मित एक जाति विशेष का वाचक बन गया ।
(45) कुक्कुसो-धान्यादितुप (सज्ञापद) दे ना. मा. 2-36 – हिन्दी 'कनकूकम' मुहावरे का 'कूकस' शब्द 'कुक्कस' का ही विकसित रूप है । अवधी मे यह शन्द 'कुक्कुस' या 'कूकुस' दोनो ही रूपो मे प्रचलित है ।
(46) कु दरो - कृश (विशेषण पद) दे ना मा 2-37 – हिन्दी मे यह शब्द "कुद' रूप मे ज्यो का त्यो प्रचलित है। अर्थ भी लगभग वही है - जैसे कुन्द बुद्धि-वाला (मन्द या कमजोर बुद्धि) व्यक्ति ।
(47) कुल्लड ~~ लघुभाण्डम् (सज्ञापद) दे ना मा 2-63 – हिन्दी तथा उसकी बोलियो मे व्यवहत होने वाला 'कुल्हड' शब्द इसी से विकसित है । यह शब्द 'मिट्टी के छोटे बर्तन' का अर्थ देता है । अवधी के कुछ ग्रामीण क्षेत्रो मे 'कोहला' शब्द भी चलता है।
(48) कोइला - काष्ठाडगार :- (सज्ञापद) दे. ना मा 2 49 - मानक हिन्दी में 'कोयला' अवधी मे 'कोइला' आदि रूपो मे यह शब्द आज भी प्रचलित है । हिन्दी मे इ का य (यण विधान) हो गया है, परन्तु अवधी मे यह शब्द ज्यो का त्यो 'ओ' के उच्चारण को हलका कर 'कोइला' के रूप मे चलता है।
(49) कोल्हुप्रो - इक्षुनिपीडनयत्रम् (सज्ञा) दे ना मा. 2-65 - हिन्दी तथा इसकी सभी बोलियो मे प्रचलित 'कोल्हू' शब्द इसी से सवद्ध है । 'कोल्हू' एक यत्र विशेप है जिससे ईख और तेल की पेराई की जाती है । पहले यह पत्थर का बना हुअा होता था।
(50) खट्ट ~ तीमनम् - (विशेपणपद) दे ना मा - 2-67 - हिन्दी तथा उसकी सभी वोलियो मे व्यवहृत 'खट्टा' विशेपणपद इसी का विकसित रूप है। सू. भा को पृष्ठ 320 पर 'खट्टा' पद की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'कटु' शब्द से दी गयी
यूरोपीय भाषाओ की प्रतिनिधि भापा अग्रेजी मे भी ' शब्द का मिलना यह सकेतित करता है कि यह मलभारोपीय भाषा का शब्द होगा । सू. व भा को 300 पर इस शब्द को तद्भव मानकर 'कोकिल' शब्द से इसकी अतिहास्यास्पद व्युत्पत्ति दी गयी है। तमिल मे 'कोल' क्रिया पद जान से मार डालने के अर्थ मे मिलता है। प्राचीन काल मे अपराधियो को पत्थर के कोल्हओ मे पेरवाकर मरवा डालने की अनेको कथाए मिलती हैं । इस तथ्य को दृष्टि रखते हुए तमिल' के कोल' क्रिया पद से इसका सम्बन्ध जोडा जा सकता है।
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है । यह व्युत्पत्ति न तो ध्वन्यात्मक विकास की दृष्टि से और न ही अर्थगत विकास की दृष्टि से उपयुक्त है । कटु से कडुवा शब्द वना है। अर्थ भी वही है पर कटु से 'खट्टा' शब्द किसी भी प्रकार व्युत्पन्न नही किया जा सकता। दोनो मे अर्थगत भेद भी है।
(51) खटिक्को - शौनिक (सज्ञापद) दे ना. मा. 2-70 - हिन्दी का जातिवाची 'खटिक' पद इसी से विकसित है । अन्तर केवल इतना है कि इसका अर्थ थोडा परिवर्तित हो गया है। कही-कही तो यह विधिक' का ही अर्थ देता है परन्तु कुछ स्थानो पर यह शाक सब्जी का व्यापार करने वाली जाति का बोधक है । द्रविड बल की तेलगु भाषा मे भी 'कटिक' (Katik) शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में हुया है । अत आर्येतर भाषा का शब्द होने से इसे 'देश्य' मान लेना उपयुक्त एव तर्कसगत होगा।
152) खड्डा ~ खानि. (सज्ञापद) दे ना मा - 2-66 -- मानक हिन्दी तथा उसकी सभी वोलियो मे 'खड्डा' 'खड्ड' 'गड्ढा' 'गढ़ा' आदि पद व्यवहृत होते हैं । ये सभी शब्द स्पष्ट ही 'खड्डा' के ही विविध विकसित रुप हैं । इन पदो को सस्कृत 'खात' 1 पद से व्युत्पन्न मानना उपयुक्त नहीं है।
(53) खली -- तिलपिण्डिका - (सज्ञापद)- दे ना. मा 2 66 - हिन्दी 'खली' अवधी तथा ब्रजभापा 'खरी, 'खली' के रूप मे ये शब्द ज्यो का त्यो विकसित है । संस्कृत मे भी 'खलि' शब्द इसी अर्थ मे आया है पर इसे सस्कृत का ही नहीं माना जा सकता । द्रविड कुल की कई भापायो मे यह शब्द मिलता है । तमिल कलनुकन्नड कढ (Kala) पुर्जी कली, कुयी-कलाइ । इन सभी भाषाओं में वर्गीय महाप्राण ध्वनिया नहीं है । अत इनका उच्चारण त०-खलनु, क०-खल, पर्जी - 'खली' कुयी'खलाई' भी किया जा सकता है । इन प्रमाणो के प्राचार पर निश्चय ही 'खली' शब्द प्रार्येतर भापायो की देन है । पर्जी मे तो यह उच्चारण भेद के साथ ज्यो का त्यो विद्यमान है।
(54) खाइमा ~ परिखा - (सज्ञापद) दे. ना मा - 2-73 - हिन्दी तथा उसकी प्राय ममी बोलियो मे प्रचलित 'खाई' या खाई पद इसी में विकसित होंगे । अयं भी एक ही है-'किले या खेत के चारो और सुरक्षा के लिए बना हुआ घेरा।'
1. मूयमा को, 4321 पर 'सडा' शन्द को सस्कृत 'वात' से व्युत्पन्न मानकर तद्भव
यो पोटि में रखा गया है।
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(55) खुट्टःत्रुटितम् (विशेपण पद) दे ना मा - 2-14 - हिन्दी में प्रचलित ध्वनिवानी 'खुट' शब्द जैसे 'खुट' से टूट जाना या 'खट' शब्द - जैसे 'खट' से गिरना (इसमे भी टूटकर गिरने का भाव निहित है), इसी प्रकार ब्रजभाषा में प्रयुक्त 'खुटकना' (तोडना) तथा अवधी मे 'कुटुकना' (तोडना) क्रियापद, ये सभी उपयुक्त शब्द से ही विकसित हुए होगे । ग्रामीण वोलियो मे इनका प्रयोग वाहुल्य ही उनके 'देशीत्व' को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। वालको द्वारा व्यवहृत 'खुट्टी' (करना) शब्द भी इसी से सम्बद्ध किया जा सकता है ।
(56) खोट्टी - - दासी - मज्ञापद) दे. ना मा. 2-77 - हिन्दी तथा उसकी वोलियो मे व्यवहृत 'खोट' 'खोटी' 'खोटा' प्रादि पद इसी शब्द से विकसित कहे जा सकते हैं । हेमचन्द्र ने 'खोट्टी' शब्द का प्रयोग 'दासी' के अर्थ मे किया है । दासियो में निहित बेईमानी तथा दुष्टता की भावना के कारण आगे चलकर यह सज्ञापद लक्षण या विशेषण के रूप मे व्यवहृत होने लगा होगा । ब भा. सू के, पृ. 352 पर इस शब्द को सस्कृत 'खोट' से निष्पन्न मानकर तद्भव की कोटि मे रखा गया है, परन्तु 'खोट' शब्द का सस्कृत शब्द भण्डार से सम्बद्ध होना भी सदग्धिता से रहित नहीं है । पाइअसद्दमहण्णव मे भी इस शब्द को 'देश्य' ही माना गया है ।
(57) खोसलयो - दन्तुर (विशेषण पद) दे ना. मा 2-77 – हिन्दी मे 'खूसट' तथा अवधी मे 'खोसडा' शब्द इसी के विकसित रूप होगे । ये शब्द 'असभ्य' या 'भद्दे पन' का अर्थ देते हैं । कही-कही आक्रोश मे कहे जाने पर इनसे नपु सक का अर्थ भी ध्वनित होता है । हेमचन्द्र 'खोसलनो' का अर्थ बड़े दाँत वाला या भद्दा व्यक्ति देते हैं । आगे चलकर हिन्दी मे इसका अर्थ-विकास हो गया और यह भद्दे पन या बुद्ध पन के अर्थ मे चलने लगा।
(58) गड्डरी-छागी (सज्ञापद) दे ना मा 2-84 - हिन्दी गडरिया 'ब्रज तथा अवधी' गडेरिया जातिवाची पद इसी शब्द से सबद्ध किये जा सकते हैं । 'गड्डरी' (भेड या बकरी) का पालन करने के कारण ही बाद मे व्यवसाय के आधार पर एक जाति का नाम ही 'गडरिया' पड गया।
(59) गड्डी - गन्त्री (सज्ञा-पद) दे ना मा. 2-81 - हिन्दी तथा लगभग उमकी सभी बोलियों मे 'गाडी' शब्द 'वाहन' के अर्थ मे प्रचलित है। पजाबी में तो यह ज्यो का त्यो प्रचलित है । सस्कृत 'शकट' या 'गन्त्री' शब्दो से इसकी व्युत्पत्ति सम्भव नही है । इसके विपरीत कन्नड मे 'गाडि' शब्द इसी अर्थ मे मिलता है प्रत बहुत कुछ सम्भावना है कि यह आर्येतर भाषाप्रो की सम्पत्ति हो।
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In
(60) गोच्छा ~ मजरी (सज्ञापद) दे. ना मा 2-15 - हिन्दी तथा उमकी सभी बोलियो मे 'गुच्छा' शब्द व्यवहृत होता है । सस्कृत मे भी 'गुच्छा' शब्द इसी अर्थ मे मिलता है । अत इस शब्द की स्थिति सदिन्ध है। भारत की प्रार्यतर भापायो मे प्रमुख तमिल मे 'कोत्त' शब्द इसी अर्थ मे आया है। खीच-तान कर इसमे इस शब्द को व्युत्पन्न किया जा सकता है परन्तु इस शब्द को तद्भव ही मानना अधिक उपयुक्त लगता है। .
(61) गोलामखी (मनापट) दे ना मा 2-104-राजस्थानी का दासीवाचक 'गोली' शब्द इसी से विकसित होगा।
(62) गोवर - करीपम् (सज्ञापद) दे ना मा 2-96 हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो का 'गोवर' पद इसी से विकसित है अन्तर केवल इतना ही है कि हेमचन्द्र ने इसका प्रयोग मूखे हुए गोवर (कडे या उपले) के अर्थ मे किया है जव कि इसका विकसित अर्थ जानवरो द्वारा विजित मल मात्र का वाचक है ।
(63) गंडोरी-इक्षुखण्डम् (सज्ञापद) दे ना मा 2-82-हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे व्यवहृत होने वाले 'गडेली' 'गडेरी' तथा 'गडीरी' पद इसी शब्द के विकसित रूप हैं । इनका अर्थ भी एक ही है।
(64) घरघर-जघनस्थवस्त्रभेद. (सज्ञापद) दे. ना मा 2-107-हिन्दी 'घाघरा' अवधी ब्रज 'घघरा' 'घवरी तथा राजस्थानी 'घाघरा' ये सभी पद उपर्युक्त शब्द के ही विकसित रूप हैं । इनमे अर्थगत माम्य तो है ही। इनका व्यन्यात्मक विकास भी व्याकरण सम्मत है।
(65) घल्ली-अनुरक्तः (विशेषण पद) दे ना मा 2-105-हिन्दी मे 'घायल' अवधी तथा ब्रजभाषा मे 'घाइल' पद 'मोहित या चोट खाया हया' के अर्थ मे प्रचलित है । ये 'घाली' शब्द के ही विकसित रूप होंगे।
तमिन 'कात' सुन्कृत (उच्चारण गोद्द भी) में हिन्दी की वोनियो मे न्यवहृत होने वाले 'घोट' या घोदा' गन्द को मबद्ध किया जा सकता है-जैसे थाम का घोद या वादा (गुच्छा)।
'पल्ली' मन्द में 'घायल' या 'घाइन' पद का विकाम ध्वन्याम्मक दृष्टि में उपयुक्न नहीं है परन्तु ऐसे म्यतों पर एक तय्य को ध्यान में रखना यावश्यक है । देशी शब्दो के ध्वनि विशाम की कोई परम्परा नहीं है। बहुत दिनों तक बोल-चाल में रहने के कारण मांग मनमाने ढग में इनका प्रयोग करते रहे हैं। अत विकास की एक परमारा निश्चित पर पाना सवया पटिन ही नहीं यमम्मव तथा काल्पनिक भी होगा।
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(66) घट्टो-नदीतीर्थम्- (मज्ञापद दे ना. मा 2-111-हिन्दी का 'घाट' गद उनी से विकसित है । सत्कृत मे भी 'घाट' शब्द मिलता है परन्तु वहुत फड नम्भावना है कि यह शब्द मस्त में प्राकृत से प्राया हो ।
(67) घुघुत्मय - साशकभरिणतम् (सज्ञापद) दे. ना. मा -2-109-हिन्दी में प्रयुक्त दिन्धी' शब्द जने-घिग्घी बध जाना (डर के मारे वोल न पाना) इसी से विकसित माना जा रगाता है।
(68) घुघरतो-उत्कारः (राजा) दे ना. मा 2-109-हिन्दी तथा उसकी नभी बीनियों में 'घर' शब्द कूडे का टेर लगाये जाने वाले स्थान के अर्थ मे प्रचलित है। का विशाल स्पष्ट ही 'घु घुरो' पद मे हुया होगा।
(69) चग चार (दियोपण) दे ना मा 3.1-हिन्दी, ब्रज तथा अवधी सभी में प्रचलित 'चगा' (अच्छा, भला मुन्दर) शब्द का विकास इसी शब्द से
हुप्रा है।
(70; चटू दारहत्त. (सज्ञा) दे ना मा 3-1-हिन्दी तथा उसकी प्राय नभी बोलियो मे 'चटू' शब्द ज्यो का त्यो प्रचलित है। यह लकडी का बनता है
और करी या करहुल की तरह इसका प्रयोग होता है । प्रवधी मे इसे ही 'दविला' भी कह्ते हैं।
(71) चाउला-तण्डुला (सज्ञा) दे ना मा 3-8-हिन्दी मे 'चावल' तथा अवघी मे 'चाउर' शब्द इसी शब्द से विकसित है ।
(72) चिल्लरी-मशक (सज्ञा) दे ना. मा 3-11-हिन्दी की सभी वोलियो मे कपडे में पढ़ने वाले गन्दे कीडो के लिए 'चीलर' या 'चिल्लर' शब्द का प्रयोग होता है।
(73) चिल्लो-वालफ (सज्ञा) दे ना मा 3-10-हिन्दी तथा उसकी मभी वोलियो मे 'चेला' शब्द शिप्य के अर्थ मे प्रयुक्त होता है। इस शब्द का सम्बन्ध 'चिल्लो' शब्द से ही होना चाहिए । सूर व्रजभाषा कोश पृ० 526 पर चेला शब्द को सस्कृत 'चेटक' से व्युत्पन्न माना गया है (स० चेटक 7 प्रा० चेडअ7 चेडा7 चेला) परन्तु यह उपयुक्त नहीं है। बालकवाची 'चिल्लो' शब्द ही 'चेला' पद के मूल मे है, वालको को बचपन मे ही दीक्षा देकर शिष्य बना लिया जाता था । अतः दोनो मे अर्थगत दूरी भी नहीं है। इसके अतिरिक्त पिथोरगढी-कुमायु नी भाषा मे 'चेला' शब्द बालक या लडके का ही वाचक है-जैसे-'चेलो षडाल लडके को सुला । अवघी मे यह शब्द 'चेरा' तथा 'च्याला' आदि रूपो मे प्रचलित है ।
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(74) चोट्टी-चूडा-शिखा (सज्ञा) दे ना मा.-3 1-हिन्दी तथा उसकी सभी वोलियो मे 'चोटी' 'चोटइया' 'चुटई' आदि पद शिखा के अर्थ मे व्यवहृत होते हैं । ये सभी उपर्युक्त शब्द के ही विकसित रूप हैं। इन शब्दो को सस्कृत 'चूडा'' से व्युत्पन्न मानना उपयुक्त नहीं है क्योकि सस्कृत मे 'चूडा' शब्द की स्वय की स्थिति ही सदिग्व है । द्रविड कुल की लगभग सभी प्रसिद्ध मापात्रो तमिलकन्नड तथा मलयालम ग्रादि मे इस शब्द की उपस्थिति यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि यह प्रार्य भापा का शब्द नही है। तमिल मे 'चोटी' के लिए 'चुटु' (इसे शुद्ध भी पढा जा सकता है। कन्नड मे सुठ तथा मलयालम मे 'चुटुक' शब्द मिलते हैं । ऐसी स्थिति मे हिन्दी का 'चोटी' शब्द निश्चित रूप से तद्भव न होकर प्रार्यतर भापायो से प्राप्त तथा युग यगो मे व्यवहृत होने वाला 'देश्य' पद है ।
(75) छहल्लो, छलियो-विदग्य दे. ना. मा.-3-24-हिन्दी तथा उसकी सभी वोलियो में प्रचलित 'छैला' तथा 'छलिया' पद इन्ही टोनो शब्दो से विकसित होगे । व. मा सू. कोप में खेला शब्द की व्युत्पत्ति स छवि-+-ऐला (प्रत्यय) से दी गयी है। इसी तरह 'छलिया' शब्द की व्युत्पत्ति सस्कृत छल+इया (प्रत्यय) से दी गयी है । परन्तु ये दोनो ही व्युत्पत्तिया पूर्वाग्रहग्रस्त हैं। इन शब्दो के प्रयोग का वातावरण ही यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि ये दोनो 'देश्य' शब्द हैं ।
(76) छल्ली-स्वक् (सज्ञा) दे ना. मा 3-24-हिन्दी तथा अवघी मे 'छाल' पद इमी से विकसित होगे । व्रजमापा मे तो यह शब्द ज्यो का त्यो 'छल्ली' रूप मे चलता है । 'टल्ली' शब्द सम्कृत में भी है, परन्तु वहा यह निश्चित ही प्राकृत से गया होगा।
(77) छिटोली-लघुजलप्रवाहः (सज्ञा) दे ना मा 3-27-हिन्दी मे प्रचलित 'छिछला' शब्द इमी से विकसत होगा। दोनो का अर्थ भी लगभग एक ही है । लक्षणया इसी शब्द से छिछोर, छिछोड (छल्का, दुप्ट) प्रादि पदो को भी निप्पन्न किया जा सकता है ।
1 य मा मू को ( 528 2 पृ. 263 3. सूद मा को, 1 544
दे ना मा 266 में 'मुन्ना' शब्द चमं के मयं में याया है। हिन्दी तया उसकी बोलियो में प्रचलिद 'माय' (चमडा) पद मी मदद कर विकमितरूप है।
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(78) छिण्णाली छिण्णालो-जार (विशेषण) दे ना मा. 3-27-हिन्दी तथा उसकी वोलियो मे चरित्र भ्रष्ट तथा कामी स्त्री-पुरुषो के लिए प्रयुक्त होने वाले 'छिनाल 'छिनार' (प्रवधी) छिनरा यादि पद इन्ही शब्दो से विकसित होगे । सस्कृत 'छिन्नलाज ' से इन्हे व्युत्पन्न करना उपयुक्त न होगा।
(79) डॅडी- लघुरथ्या (सज्ञा) दे. ना. मा 3-31-अजभाषा मे 'छेडी' शब्द सकरे एव छोटे रास्ते के लिए प्रयुक्त होता है । यह स्पष्ट ही 'छेडी' शब्द का विकसित रूप है।
(80) जगा-गोचर भूमि (सज्ञा) दे ना. मा-3-40-हिन्दी-'जगल' शब्द को इससे विकसित माना जा सकता है। ब्रजभाषा मे 'जगल' शब्द जल रहित भूमि के अयं मे भी प्रचलित है।
(81) जोण्णलिया-घान्यम् (सज्ञा) दे ना मा 3-50 ब्रजभाषा जुणरी, जुनगे, अवघी जोन्हरी भोजपुरी जनरी, राजस्थानी मे जोगरी या जुगरी तथा कुछ बोलियो मे जोगरा या जनेरा शब्द एक धान्य विशेप के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। ये सभी शब्द उपयुक्त देश्य शब्द के ही विकसित रूप हैं।
(82) जाडो-गुल्मम् (सज्ञा) दे ना मा. 3-15-हिन्दी 'झाडी' शब्द इसी का विकसित रूप है।
(83) झाडं-लतागहनम् (सज्ञा) दे ना मा 3 57-हिन्दी का 'झाड' शब्द इमी का विकसित रूप होगा । सस्कृत “झाट' शब्द भी प्राकृत का शब्द होना चाहिए।
(84) झकि -वचनीयम् (चुप्पा) (विशेषण) दे. ना मा 3-55हिन्दी का झक्की शब्द इसी से विकसित होगा। इसमे अल्प ध्वन्यात्मक विकास के साथ ही थोडी मात्रा मे अर्थगत विकास भी दृष्टिगोचर होता है ।
(85) झ खरो-शुष्कतरु (सज्ञा) दे ना भा. 3-54-हिन्दी 'झखाड' अवधी, 'झाखर' आदि शब्द इसी के विकसित रूप हैं। यहा थोड़ा सा अर्थविकास हुया है । हेमचन्द्र ‘झखर' शब्द का प्रयोग 'सूखे वृक्ष' के अर्थ मे करते हैं --जब कि हिन्दी मे 'झंखाड' या अवधी मे 'झाखर' पदो का प्रयोग पेड को काट कर डाल दी गयी सूखी डालियो के समूह तथा अन्य कटीली झाडियो प्रादि के अर्थ मे होता है ।
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(86) झखो-तुष्ट (विशेषण) दे. ना. मा 3-53 हिन्दी तथा उसकी वोलियो मे प्रचलित झखना (परेशान होना, तरसना) क्रियापद का सम्बन्ध इस शब्द से जोड़ा जा सकता है। परन्तु अपनी विकमावस्था में इसका अर्थ विल्कुल उलट गया है । शब्दो के अर्थ विकाम मे यह कोई नवीन घटना नही है । अव बुद्धिमत्ता और ज्ञान का वाचक 'बुद्ध' शब्द अपनी लवी यात्रा के बाद 'बुद्ध' के रूप मे एकदम विपरीत अर्थ देने लगा, तो सतुष्टि वाचक (झग्व) शब्द लम्बे अन्तराल के बाद उलट कर असतुष्टि वाचक बन गया तो इसमे आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
(87) झडी-निरन्तर वृष्टि (सत्रा) दे ना मा. 3-53-हिन्दी मे 'मडी' तथा अवधी मे 'झरी' आदि ल्पो मे इसी शब्द का विकास हुआ है । यह शब्द ज्यो का त्यों तमिल मे भी मिलता है । वहा 'जडि' शब्द पाता है। वर्गीय महाप्राण ध्वनियो के अभाव मे इसका उच्चारण 'झाड' भी किया जा सकता है ।
(88) झमाल-इन्द्रनालम्-(सज्ञा) दे. ना मा 3-53-हिन्दी तथा उसकी सभी वोलियो मे 'भमेला' पद व्यवहृत होता है। यह शब्द समझ मे न आने वाले कृत्य या झमट का वाचक है । ध्वनिगत और अर्थगत समीपता को देखते हुए इसका सम्बन्ध उपर्युक्त शब्द से जोड़ा जा सकता है।
(89) भलुसिन-दग्धम् (विशेषण) दे ना. मा 3-56-हिन्दी 'झुलसना' व्रजभाषा तथा अवधी 'झोसना' 'भसना' क्रिया पद इमी शब्द से विकसित होंगे । 'भामना' और 'भउँसना' तो इसके और भी समीप हैं "भुलसना' भी मान 'उ' कार परिवर्तन से समीप ही है। सरकृत 'ज्वल' या 'भल' पदो से इसकी व्युत्पत्ति क्यो न होगी।
(90) झसो-अयश (दिशेपण) दे. ना मा 3-60-अववी मे 'झाँस' शब्द दुप्ट और वेईमान व्यक्ति के विशेपण के रूप में प्रयुक्त होता है-यह शब्द स्पष्ट ही "मासो' का विकसित रूप है।
(91) झट-अलीकम् (सज्ञा) दे ना मा. 3-58-हिन्दी तथा उमकी सभी बोलियो मे (भूठ) शब्द व्यवहृत होता है वह इसी पद का विकसित रूप है ।
(92) नर-कुटिलम् (विशेषण) दे ना मा 3-59-अवधी में 'झूर शब्द मूबा हुया का अर्थ देता है । दुष्ट व्यक्ति भी अत्यन्त रुक्ष ही होता है । अत पहले कृटिलता का वाचक यह शब्द अर्थ विकास परम्परा मे लक्षणया 'रक्षता' (नमेपन) का वोधक हो गया होगा।
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(93) टिक्क टिपी-तिनकम् 'मज्ञा) दे. ना मा. 4 3-हिन्दी 'टीका' टिपकी या "टिप्पी' शब्द इन्ही शब्दो के विकास है । सस्कृत का 'टीका' शब्द प्राकृत से लिया गया होना चाहिए।
194) देवकर-स्थल (फडी जमीन) (सज्ञा) दे ना. मा. 4-3-ग्रवधी मे 'ठेकार' या 'ठोक्कर' शब्द कडी व पथरीली भूमि के अर्थ मे प्रयुक्त हुए है । हिन्दी के 'ठोकर' शब्द के मूल में भी ये ही शब्द है । इन शब्दो का सम्बन्ध 'टेक्कर' से जोडा जा सकता है।
(95) टट्टया-तिरस्करिणी (पर्दा) (सज्ञा) दे ना मा 4 1-हिन्दी 'टट्टी' अवधी तया ब्रज 'टटिया' शब्द इसी के विकसित रूप है अन्तर केवल इतना ही है कि हेमचन्द्र ने इसका प्रयोग कपड़े के बने पर्दे के अर्थ मे किया है जब कि इसके विकनित स्प घास-फूस के बने हुए प्रोट करने के साधन विशेष के वाचक है।
(96) ठल्लो-- निर्धन · (विशेषण) दे ना मा 4-5 - हिन्दी मे 'ठल्ला' 'निकला' आदि पद इसी के विकसित रूप है। अवधी के 'उठल्लू' शब्द का सम्बन्ध भी इसी से जोड़ा जा सकता है। हेमचन्द्र ने इसका प्रयोग निर्धन या दरिद्र के अर्थ मे किया है । हिन्दी मे यह शव्द अकर्मण्यता असमर्थता तथा आलस्य आदि का वाचक होकर विस्तृत अर्य धारण करने वाला बन गया है, फिर भी इसके अन्तराल मे मूल अर्थ निहित देखा जा सकता है ।
' (97) ठिक्क- शिश्नम् (सज्ञा) दे ना मा 4-5 - हिन्दी की ग्रामीण पोलियो मे प्रचलित 'ठेगा' शब्द इसी शब्द का विकसित रूप है। मूल मे अश्लीलता होने के कारण शिश्न के स्वरूप गत साम्य के आधार पर 'ठेंगा' शब्द ' गूठे' का वाचक हो गया है । परन्तु यह सभ्य समाज द्वारा आरोपित अर्थ है, गावो मे इस शब्द फा अर्थ अब भी शिश्न ही है ।
198) डलो- लोष्ट' (सज्ञा) दे. ना मा 4-7 -- हिन्दी मे 'डला' या 'डली' शब्द तथा अवधी मे 'ढेला' शब्द मिट्टी के पिण्डीकृत मिट्टी के टुकडे के वाचक हैं। ये सभी शब्द 'डलो' के ही विकसित रूप होने चाहिए।
(99) डंडो-डडी - मार्ग (सजा) दे. ना. मा 4-8 - हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे डडी (जैसे पगडडी) शब्द ज्यो का त्यो छोटे एव सकरे. मार्ग के लिये प्रचलित है । 'ड डओ' पद अवधी मे 'डाड' (खेतो पर बनाये गये मेड, जो
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पानी रोकने के साथ ही रास्ते का काम भी देते है) शब्द के रूप मे विकसित देखा जा सकता है।
(100) डाली- शाखा (सना) दे. ना. मा 4-9 - हिन्दी 'डाली' 'डाल' प्रादि पद इसी से सबद्ध हैं । अवघी मे 'डार' के रूप मे इसमे थोडा ध्वनि परिवर्तन हुमा है । सस्कृत के 'दल' शब्द से इसकी व्युत्पत्ति प्राय : असम्भव सी है ।
(101)वो- श्वपच : (मज्ञा) दे ना मा 4-11 - हिन्दी मे 'डोम' शब्द एक अस्पृश्य जाति विशेष के अर्थ मे प्रचलित देखा जा सकता है।
(102) डोला- शिविका (सना) दे ना मा 4-11 - हिन्दी मे तथा लगभग उसकी सभी बोलियो मे 'डोला' या 'डोली' शब्द पालकी (एक वाहन विशेष) के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं । सस्कृत 'दोला' शब्द मे भी इसे व्युत्पन्न किया जा सकता है।
(103) ढंकरगी- पिधानिका - (सज्ञा) दे ना 1 4-14 -हिन्दी 'ढक्कन' 'ढकनी' - अवधी तथा व्रज 'ढकना' 'ढकनी' आदि पद ढकरणी' के ही विकसित रूप हैं । इस शब्द के विकसित रूप (जसे ढकना) सज्ञा और क्रिया दोनो ही रूपो में प्रचलित हैं।
(104) की- वलाका (धान प्रादि कूटने का उपकरण) (सज्ञा) दे ना मा 4-15-डेकी'- शब्द अपने प्राचीन अर्थ मे ही अाज भी हिन्दी तथा उसकी अन्य वोलियो मे प्रचलित है।
(105) ढेंका- कूपतुला (सज्ञा) दे ना मा 4-17 - हिन्दी 'का' 'ढेकुल' या' ढेंकुली' कुए से पानी निकालने वाली ची के अर्थ मे प्रचलित है।
(106) एक्को-ब्राणम् (मक्षा) दे ना मा 4-46 - हिन्दी 'नाक' शब्द इसी का विकसित रूप है इसे सस्कृत 'नासिका' से व्युत्पन्न करने में पर्याप्त खीचतान करनी पड़ेगी।
(107) णत्या-नासारज्जु (सज्ञा) दे. ना मा 4-17 - हिन्दी 'नाथ' 'नाया' या 'नथान' शब्द इमी के विकमित रूप हैं । नाक छेद कर पहने जाने वाले प्राभूपण विशेष 'नथ' या 'नथुनी' (नथनी भी) का सम्बन्ध भी इसी शब्द से जोन जा सकता है।
(108) तरगं- सूत्र (सज्ञा) दे ना मा. 5-1 - हिन्दी 'तागा' (सूत्र) शब्द इसी शब्द का विकसित रूप है।
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(109) तडफडिन - परितश्चलितम् (विशेषण) दे ना मा 5.9 - हिन्दी 'तडफड़ाना' क्रियापद या त्वरावाची तडफड' विशेषण पद इसी शब्द के विकास
(110) तहरी-पकिला सुरा (सज्ञा) दे. ना मा 5-2 - अवधी मे 'तहरी' शब्द थोडे अर्थ परिवर्तन के साथ प्रचलित है । यहा इसका अर्थ देर तक आग पर चढाया गया वर्तन है। शराब चू कि बहुत देर तक आग पर बर्तन चढा कर निकाली जाती है इसीलिए देर तक आग पर चढाये गये वर्तन को 'तहरी' कहा जाने लगा होगा।
(111) तल्लं- पल्वल (सज्ञा) दे ना मा 5-19 - हिन्दी 'ताल' या तिलया' शब्दो के मूल मे यही शब्द है ।
(112) ताला- लाजाः (भुना हुआ अनाज) (सज्ञा) दे. ना मा 5-10 - हिन्दी तथा उसकी वोलियो मे प्रचलित 'तलना' क्रियापद इसी शब्द से सबद्ध माना जा सकता है - जैसे 'तला हुमा चना' अन्तर केवल इतना ही है कि मूल 'ताला' शब्द का अर्थ 'पाग मे भुनी हुई वस्तु' है जब कि तलना क्रिया तेल आदि के माध्यम से भूनने की क्रिया का द्योतन करती है ।
(113) तुलसी-सुरलता - (सज्ञा) दे ना मा 5-4 हिन्दी तथा उसकी सभी वोलियो मे 'तुलसी' शब्द एक पौधे के लिये प्रचलित है।
(114) थरहरिनं- कपितम् (विशेषण) दे ना मा 5-27 - हिन्दी 'धरथर' क्रिया विशेषण (जैसे थर-थर कापना) इसी शब्द से सबद्ध किया जा सकता
(115) थाहो- स्थानम् गम्भीर जलम् (सज्ञा) ना, दे, मा, 5-3 - हिन्दी 'थाह' तथा 'अथाह' दोनो ही इसी शब्द से विकसित होगे । पानी की गहराई नापकर उसकी तलीय भूमि का पता लगाना 'थाह लेना' कहलाता है । इसी प्रकार अतल गहराई वाले जल को 'अथाह' कहते हैं, इस प्रकार दोनो ही शब्द उपर्युक्त 'देश्य' शब्द से सम्बद्ध किये जा सकते हैं ।
(116) थूहो- प्रासाद शिखरम् - वल्भीकम् (सज्ञा) ना, दे, मा, 5-32, हिन्दी तथा उसकी बोलियो मे प्रचलित 'ठूह' या ढूह शब्द इसी से विकसित हुआ होगा। ऊ चे स्थान के लिए तथा दीमको की बावी आदि के लिए भी 'ढूह' शब्द का व्यवहार होता है।
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___(117) दुद्धिणिया- स्नेहस्यापनभाण्डम् (नेल का वर्तन) (सज्ञा) - दे ना मा 5-54 – अवधी का 'दुवही' शब्द इसने विकसित माना जा सकता है । यह जन्द अर्य की दृष्टि से (अप्रयोगत्वात्) देशज भले ही हो स्वरूप की दृष्टि मे तद्भव लगता है । इसकी व्युत्पत्ति सस्कृन के समस्त पद (दुग्धभाण्ड) या 'दुग्धभाण्डिका' से दी जा सकती है।
(118) घणी- भार्या (सज्ञा) दे ना मा. 5-62 - हिन्दी की बोलियो मे पत्नी के लिए 'वना' या 'धनी' शब्द प्रचलित है। राजस्थानी मे तो 'वणी' शब्द ज्यो का त्यो प्रचलित है । इम शब्द को सस्कृत के 'वन' शब्द से भी व्युत्पन्न किया जा सकता है । भारतीय समाज स्त्री को भी एक बहुमूल्य 'धन' मानता है।
(119) परिणया- भार्या (संज्ञा) दे ना मा 5-58 - हिन्दी की बोलियो ____ मे प्रचलित 'धनिया' शब्द इसी का विकसित रूप होगा ।
(120) पझ्य- स्थचत्रम् (संज्ञा) दे ना मा 6 64 - हिन्दी तथा उसकी लगभग सभी बोलियो मे प्रचलित 'पहिया' शब्द इसी का विकसित रूप है । ध्वनिपरिवर्तन नाम मात्र का ह का आगम) है ।
(121) पसरा- तुरगमनाह (सना) दे. ना मा. 6-10 - घोड़े की पीठ पर डाली जाने वाली गद्दी को 'पाखर' कहा जाता है। यह शब्द 'पाल्हाखण्ड' मे प्रायः व्यवहत हृया है। अवधी के अन्य ग्रामीण क्षेत्रो मे भी (बुन्देलखण्ड के अतिरिक्त) यह शब्द प्रचलित है ।
(122) पलही- कपास (मना) दे ना. मा - 6-40 - ब्रजभाषा मे 'पहेला' तथा 'पला' शब्द कपाम के अर्थ में ही व्यवहत होते हैं ।
(123) पंखुडी- पत्रम् (मज्ञा) दे ना मा.-6-8 हिन्दी 'एबुडी' 'पखडी' नया 'बजमापा 'पाबुही' शब्द इसी के विकसित रूप होंगे । इन सभी शब्दो को सस्कृत पक्ष णब्द से व्युत्पन्न करने में पर्याप्त खींच तान करती पडेगी। इस शब्द का सम्बन्ध तमिन 'पृह कु (Punku) शब्द से जोड़ा जा सकता है - संस्कृत में भी 'पुह ख' शब्द तोर के परदार निरे के अर्थ मे आता है। इसे भी तमिल की ही देन माना जा मरता है।
(124)- पडवा - पट्टी (मना) दे ना मा 6-6 - हिन्दी 'पडाव' गब्द इमी में विकनित माना जा सकता है। इस शब्द को अरवी या फारसी का मानना उपयुक्त नहीं है- क्योंकि हेमचन्द्र के समय तक भारत मे मुसलमान था तो
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गये थे परन्तु उनकी भाषा का प्रभाव उस समय तक लगभग नही ही पडा था।
(125) पत्तल - कृश (विशेषण) दे ना मा 6-14 - हिन्दी 'पतला' शब्द इसी का विकसित रूप होगा (ब्रजभाषा तथा अवधी मे 'पातर' मिलता है ।
(126) पप्पीमो- चातक (सज्ञा) - दे ना मा 6-12, हिन्दी 'पपीहा' अवधी 'पपिहा', 'पपिहारा' ब्रजभाषा 'पपिहा', 'पपीहरा' 'पपीहा' आदि पद इसी के विकसित रूप है। इन सभी का अर्थ भी चातक ही है । ध्वनिपरिवर्तन की दृष्टि से केवल 'ह' का आगम और प् का लोप हुआ है।
(127) पूरणी- तूललता (सज्ञा) दे. ना मा. 6-56 - हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे 'पूनी' शब्द रूई को लपेट कर बनायी हुई वस्तु विशेष के अर्थ मे प्रचलित है। यह शब्द थोडे ध्वनिपरिवर्तन (ण को न्। के साथ ज्यो का त्यो उसी अर्थ मे विकसित है । इसे कही-कही 'पिउनी' भी कहा जाता है । देशीनाममाला 6-78 मे 'पिउली' शब्द भी पाया है। 'पिउनी' शब्द इसी से विकसित माना जा सकता है।
(128) पीढ- इक्षुनिपीडनयत्रम् (मज्ञा) दे ना मा. - 651 - हिन्दी का 'पीढा' या 'पिढई' शब्द इसी से व्युत्पन्न माना जा सकता है। हेमचन्द्र ने 'पीढ' शब्द एक विशिष्ट अर्थ (कोल्हू) मे प्रयुक्त किया है । हिन्दी मे वह अर्थ न होते हुए भी मूल अर्थ से विकसित अथ का सम्बन्ध दिखाया जा सकता है । ईख पेरने का कोल्ह प्राज भी दो लकडी के मोटे तख्तो (जिन्हे पीढा कहा जाता है) पर आधारित रहता है । अत. कोल्हू के एक प्राधार भाग के अर्थ मे ही यह शब्द रूढ हो गया होगा । शब्दो के अर्थ विकास की परम्परा मे यह असम्भव नही लगता। पीढ' शब्द को सस्कृत 'पीठ' शब्द से भी निष्पन्न किया जा सकता है - पर यहा भी पीठ पीढ 2 पीदा आदि के विकास क्रम मे अर्थ सम्बन्धी खीचतान करनी पड़ेगी। सस्कृत का 'पीठ' शब्द 'स्थान' वाची है जव कि हिन्दी का पीढा शब्द लकडी की बनी हुइ वस्तु विशेष का वाचक
(129) पुप्फा-पितृवसा (सज्ञा) दे ना मा 6-52 - हिन्दी की बोलियो मे प्रचलित 'फुमा' या 'बुमा' (पिता की बहिन) शब्द इसी के विकसित रूप हैं । 'बुमा' शब्द कही-कही मा के लिए भी व्यवहत होता है। 'बुआ' या 'फुया' के पति को
1.
चातक के अर्थ में बप्पीसी (दे. ना, मा 6-90) और पप्पीओ (दे ना मा 7-33) दो अन्य शब्द भी मिलते हैं।
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196 ] 'फुप्फा' या 'फूफा' कहा जाता है । यह शब्द 'पुप्फा' के अधिक समीप है। इसका अर्थ मी अपने मूल से जुड़ा हुआ है।
(130) पूरी- तन्तुवायोपकरण (सज्ञा)- दे. ना. मा 6-6 'पूरी' शब्द ज्यो का त्यो जुलाहे के उपकरण के अर्थ मे ही प्रचलित है । इसका एक अन्य रूप 'पुल्ली' भी है । यह शब्द अंग्रेजी के 'गेटेलकाक' का समानार्थी है।
(131) पेल्लिय- पीडितम् (विणेपण) दे ना मा 6 57- हिन्दी की 'पलना' (बलात्कारेण त्रस्त करना) क्रिया इमी शब्द से विकसित मानी जा सकती है । यद्यपि सस्कृत मे भी 'पेलु' गती', क्रिया पद विद्यमान है फिर भी वहा उसका अर्थ 'चलना' है न कि बस्त करना । इसी प्रकार सस्कृत 'प्रेर' (प्र+ईर) का भी अर्थ 'चलना' है न कि त्रस्त करना ।
(132) पोट्ट - उदर (सना) दे ना मा 6-60 हिन्दी का 'पेट' शब्द इसी से सबद्ध है । अवधी के कुछ ग्रामीण क्षेत्रो मे 'पोटा' शब्द भी प्रचलित है । ब्रज मापा सूर कोप, पृ० 1115 पर 'पेट' शब्द की व्युत्पत्ति 'स० पेटथेला' शब्द से दी गई है जो स्वय मे ही अति हास्याम्पद है ।
(133) पोत्तयो- वृपण. (संज्ञा) दे ना. मा. 6-62-हिन्दी तथा उसकी सभी वोलियो मे मानव शरीर के एक महत्वपूर्ण अंग (अण्डकोश के लिये 'पोत्ता' या 'फोता' शब्द का प्रयोग होता है । निश्चित ही यह शब्द 'पोत्तयो' का ही विकसित रूप है।
(134) फमरण- युक्तम् (विशेपण) दे ना मा 6-87- हिन्दी 'फसना' क्रिया पद इमसे विकमित माना जा सकता है। इसे सस्कृत 'पाश' शब्द से भी व्युत्पत किया जा सकता है- पाश फाँस 7 फंसना ।
(135) फोफा-- भीपयितु शब्द (सज्ञा) दे ना मा 6-86- हिन्दी के 'फोफों' तथा 'फू फू' जैसे ध्वन्यात्मक शब्द इसी से सम्बद्ध किये जा सकते हैं । 'फुक्कार' या 'फुफकारना' सभी इमी शब्द के विकसित रूप माने जा सक्ते हैं । देशी नाममाला की 'देश्य' शब्दावली में अनेको व्वन्यात्मक शब्द भी मकलित हैं। ऐसे शब्द तो निश्चित ही माहित्य को लोकजीवन की देन हैं । डा० पूर्ण सिंह ने तो हिन्दी की सारी 'ध्वन्यात्मक शब्दावली को देश्य' कोटि मे रखा है। 1. मिद्धार्गमदी 1-574 2 रापि अभिनदन ग्रय।
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(136) वइल्ल-- चलीवर्द : (संज्ञा) दे. ना मा 6-91-- हिन्दी 'बैल' प्रवधी 'यश्ल' प्रादि शब्द इसी के विकसित रूर होंगे। हिन्दी शब्दार्थ पारिजात (पृ 581) मे भी 'बल' शब्द को 'देश्य' ही माना गया है- सस्कृत 'वलीवर्द' से इसकी न्युत्तत्ति देना न तो व्याकरण सम्मत ही होगा और न पारम्परिक ही।
(137) बुलका- मुष्टि : (सशा) दे. ना. मा 6-94- हिन्दी तथा उसकी सभी वोलियो मे 'वूक' शब्द इमी भर्घ मे प्रचलित है- जैसे वूक भर दाना अर्थात् मुट्ठी भर दाना।
(138) बुलबुला-बदबुद (संज्ञा) दे. ना मा. 6-95-हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे 'बुल गुला' शब्द जलबुदवुद के अर्थ मे प्रयुक्त होता है । तेलगु मे भी बुलबुला' शब्द ही है। इस पद को भापा के ध्वन्यात्मक शब्दो की कोटि मे भी रखा जा सकता है।
(139 वेडो :-नो (सना) दे ना मा 6-95-हिन्दी का 'वेडा' शब्द इसी पा विभानित रूप है । परन्तु अर्थ विस्तार की प्रक्रिया में यह शब्द केवल 'नान' का पाचक न रहकर नावो के समूह का अर्थ देने लगा है।
(140) बोहारी-बउहारी-सम्मार्जनी (झाडू) दे ना भा.-6-97-हिन्दी मे 'वोहारी' शब्द ही प्रचलित है । 'बुहारना' क्रिया तथा 'बुहार' (झाड-बुहार) नाम पद का सम्बन्ध भी उपर्युक्त शब्द से ही जोडा जा सकता है।
(141) भल्लू-ऋक्ष (सज्ञा) दे. ना. मा 6-99-हिन्दी 'भालू' शब्द इसी से विकसित है। यद्यपि मस्कृत में 'भल्लूक' पद है, पर उसकी स्वय की ही स्थिति सदिग्ध है। 'भल्लक' शब्द जनता की सामान्य बोलचाल की भाषा से ग्रहण कर 'सस्कृत' (सस्कार किया गया,) शब्द प्रतीत होता है।
(142) मुरुकु डिनउद्ध लित (विशेषण) दे ना. पा. 6-106-अवधी मे 'भुरकुड' शब्द 'धुलधूसरित' होने के अर्थ मे ही प्रचलित है । यह विशेषण और क्रिया (भुरकु डना) दोनो ही रूपो मे व्यवहृत होता है ।
1. सग्रेजी मे भी Bubble शब्द मिलता है-'बुलबुला' शब्द से इसका पर्याप्त ध्वनि
साम्य है। 2 रोजी के Boat शब्द से इसकी तुलना की जा सकती है।
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198 1
(143) महो- गहीन (सना) दे ना मा. 6-112-हिन्दी में 'मट्ठर मान्द 'मालमी' 'बहानेवाज' व्यक्ति के विशेषण रूप में व्यवहृत होता है । इसे 'मको' शब्द का ही विकसित स्य माना जा सकता है। अर्थ विकास की प्रक्रिया मे इस शब्द के मूल अर्थ मे लामणिकता के कारण विकास हो गया होगा । सीग
और पूछ से रहित बैल भी 'हल में न चलने वाला' 'यालमी' 'वहाने वाज' व मट्ठर माना जाता है। आगे चलकर इस प्रकृति के मनुष्य के लिए भी यही शब्द व्यवहृत होने लगा होगा । इस शब्द का मूल स्रोत तमिल है। वहा 'मोटाइ शब्द इसी अर्थ मे मिलता है। हिन्दी का ग्रामीगा वोलियो मे 'मोटाई' शब्द भी अपने परिवर्तित अर्थ (बहाने बाजी मे देखा जा सकता है। हिन्दी का 'मोटा'' विशेषणपद भी इमी से सम्बद्ध किया जा सकता है।
(144) मम्मी-मामा-मातुलानी (मना) दे ना. मा 6-1 12~-हिन्दी तथा उसकी बोलियो में 'मामी' 'मामा' शब्द प्रचलित है। 'मम्मी' शब्द 'मामी' के रूप मे उमी अर्थ मे तथा 'मामा' शब्द मामी के पति के अर्थ में परिवर्तित होकर प्रचलित है। 'मम्मी' शब्द भी हिन्दी मे 'मा' के अर्थ में प्रचलित है पन्त इसे अ ग्रेजी के ममी गन्द से सम्बद्ध किया जाता है । वास्तव में यह हिन्दी को अंग्रेजी की देन न होकर प्राकृतो की देन है।
(145) माहुर-गाक (माजा)-दे ना. मा 6-13-हिन्दी तथा उसकी बोलियो मे 'माहुर' शब्द 'जहर' के अर्थ मे प्रचलित है । सुखी व्यक्तियों के लिए 'जाकखाना' 'जहर खान के ही नमन होता है । इमी कारण 'शाकवाची' 'माहुर' शब्द 'जहर' वाची बन गया होगा । इसका प्रयोग प्राय 'जहर-माहुर' जैसे मयुक्त पद मे हो होता है।
(146) मुई अमती (विशेषण) = ना मा 6-135-ग्रामीण अवधी मे 'मुन्ही' 'मुन्हा' पद क्रमश चरित्रहीन स्त्री-पुत्पो के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं। वैसे इन शब्दो का सम्बन्ध मस्कृत के 'मूल' (अवधी मूर) शब्द से जोडा ना सकता है, परन्तु मूल नक्षत्र में पैदा हुए व्यक्ति का चरित्र-भ्रप्ट होना आवश्यक नहीं है-अत्यन्त स्पष्ट शब्दो मे वह दृष्ट भले ही हो पर लोक जावन में 'टिनाल' शब्द मे विभूपित नहीं होगा। मुई' शब्द सीवे-सीये 'टिनाल' अर्थ देता है । प्रत 'मुग्ही' ग्रोर मुन्हा' दोनो पदों का मम्वन्ध इसी से जोड़ा जाना चाहिए ।
1. दिदी मन्दाय पारिजात पू 629 पर 'मोटा' सन्द 'देश्य' माना गया है।
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हिन्दी म पारिजात' मे इमे 'देश्य' ही माना गया है।
(147) मेलो-जनराहनि (सजा) दे ना मा. 6-138-हिन्दी तथा उसकी सनी बोगियो में 'मेलो' शब्द 'सगी-साधी' के अर्थ में प्रयुक्त होता है । हिन्दी का 'मेला' शब्द भी इनी का विकसित रुप माना जा सकता है । यद्यपि सस्कृत मे भी 'मेक शब्द पाया है फिर भी उसे प्रारुतो नी ही देन माना जाना चाहिए ।
(148) न्यानो---मन्यान: (मथानी) (मज्ञा) दे ना मा 7-3 ब्रजभाण में 'र', मपानी के अर्थ मे व्यवहन होना है
'फेन्त कर उलटी र न विलोवन हारि । बिहारी । नजगापा नूरणोप पृ० 1440 पर 'रई' को सस्कृत 'रय' शब्द से व्युत्पन्न माना गया है । पन्यात्मक विकास की दृष्टि से यह व्युत्पत्ति भले ही ठीक हो पर भाषागत शब्दो के विकास मिद्वान्तो तथा उनके प्रयोगगत वातावरण को ध्यान पे रमते हा शब्द को 'देय' ही माना जाना चाहिए। प्रत्येक पद का सबध मगर ने जोडने की मनोवृत्ति एक स्वस्थ मनोवृत्ति कदापि नही कही जा सकती।
(149) रिगिन-भ्रमण (सना) दे ना मा -7-6-हिन्दी की 'रेगना' निया का सम्बन्ध इनसे जोड़ा जा सकता है। यह क्रियापद 'पेट के बल रगड कर चलने के अर्थ में हिन्दी की सभी बोलियो मे भी प्रचलित है। अवघी के कुछ क्षेत्रो मे यह 'मनुष्य के चलने' का भी वाचक है। ब्र० सू० को. प. 1482 पर इसे सस्कृत के 'रिस गरण पद से व्युत्पन्न किया गया है । स्वय 'रिङ्गण' भी 'रे' और 'गम्' दो घातुनो के मेन से बना है । यहा एक बात स्पष्ट रूप से कह देना उपयुक्त होगा। मामान्य जनजीवन में प्रचलित शब्दावली का अधिकाश भाग व्याकरण से व्युत्पन्न नही किया जा सकता । किसी भी शब्द की व्युत्पत्ति देने के पहले उस शब्द के प्रयोग से सम्बन्धित वातावरण को ध्यान में रखना अावश्यक होता है। प्रशिक्षित समाज व्याकरण एव माहित्य का क्रम परम्परा का अधिक अनुसरण न करता है। ऐसी स्थिति मे भाषा के सभी शब्दो को व्याकरण के बने बनाये ढाचे मे फिट करने का प्रयत्न सराहनीय नहीं कहा जा सकता।
(150) रिद्ध -पक्व (विशेषण) दे ना मा 7-6--हिन्दी 'रीधना' क्रिया पकाने के अर्थ में प्रयुक्त होती है । इसका सम्बन्ध उपर्युक्त शब्द से ही होना चाहिए । सस्कृत 'ऋद्धि' (बटती) शब्द से इसकी व्युत्पत्ति सम्भव नही है ।
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वही, 618
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200 ]
(151) रुन्दो - विपुल – (विशेषण) दे. ना मा 7-14 - श्रवबी मे 'रिन्द' - पद हट्टे-कट्टे तन्दुरुस्त व्यक्ति के विशेषण रूप मे व्यवहृत होता है । ग्रत्यल्प ध्वनिपरिवर्तन ( उ का ड) के साथ इस शब्द का सम्बन्ध उपर्युक्त शब्द से जोडा जा सकता है ।
(152) रूत्र - तूल ( सज्ञा ) दे ना मा 7-9 - हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे प्रचलित 'रुई' शब्द इसी का विकमित रूप माना जा सकता है ।
(153) रोट्ट - तन्दुलपिष्टम् ( चावल का घाटा ) (सज्ञा) दे ना मा 7-11 हिन्दी 'रोटी' शब्द इसी का विकसित रूप होगा । पहले चावल के आटे का वाचक यह शब्द अपनी विकसितावस्था मे उससे बनी हुई 'रोटी' शब्द का वाचक हो गया होगा | अवधी के कुछ क्षेत्रो मे 'रोट' शब्द भी प्रचलित है । तमलि मे भी 'रोट्टि ' शब्द मिलता है | पी० वी० रामानुजस्वामी ' रोट्ट को तद्भव मानते हुए इसे संस्कृत के ‘रुच्य’ शब्द से व्युत्पन्न करते है, पर यह व्युत्पत्ति उपयुक्त नही है ।
1
(154) वक्खारय - रतिगृहम् (सज्ञा) दे. ना मा. 7-45 – अवधी मे 'बखरी' शब्द घनी लोगो के घर के लिए प्रयुक्त होता है । यह शब्द निश्चित ही 'वक्खारय' का ही विकसित रूप है । अवधी मे ही 'वखार' शब्द 'अनाज' रखने को कोठरी के अर्थ मे भी ग्राता है । इसका भी सम्बन्ध उपर्युक्त शब्द से जोडा जा सकता है |
(155) वड्डी - महान (विशेषण) दे ना. मा 7-29 - व्रजभापा 'बडो' हिन्दी 'वढा' श्रववी 'वड' श्रादि शब्द 'वड्डों' के ही विकसित रूप हैं । श्रर्थ भी वही है । व्रजभाषा सूर कोप मे इसकी व्युत्पत्ति सस्कृत के 'वर्द्धन' शब्द से दी गयी है । इससे हिन्दी का 'वहना' क्रिया पद निप्पन्न किया जा सकता है (वर्द्धन 7 वढ्ढरण = 7 वटना ) पर 'वडा' पद किसी प्रकार भी नही वन सकता ।
(156) वड्ढइग्रो - चर्मकार (सज्ञा) दे ना मा 7-44 - हिन्दी का जातिवाची 'बढई' शब्द का विकसित रूप माना जा सकता है । यद्यपि यहा 'वढई' का अर्थ 'चर्मकार' न होकर 'लक्डी' का कार्य करने वाली जाति विशेष है फिर भी इसमे कोई अन्तर नही पडता । भारत की जाति व्यवस्था प्राय कर्म के श्राधार पर ही की गयी है । कर्म की उच्चता श्रोर नीचता के आधार पर ही जाति की
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देना मानमरी, पु 73
को 1180
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भी उच्नता गौर नीचता पर आधारित रही है । हो सकता है कि किसी समय एक ही वर्ग के लोग लककी और चमटे का काम साय ही करते रहे हो, और आगे चलकर मार्ग निरोप के आधार पर दोनो के दो वर्ग बन गये हो। भारतीय वर्ण व्यवस्था में चमगार और वह दोनो ही को परगणित जाति का माना गया है। इस प्रकार फे शब्दो ऐतिहानिक अध्ययन भारतीय जाति व्यवस्था पर भी अच्छा प्रकाश पाल नाता है । मूलद्र भा० कोश में 'वटई' शब्द को सस्कृत के 'वर्द्ध कि' शब्द से निप्पन किया गया है-पकि= बढ्द+ वढई। इस दृष्टि से यह शब्द भले ही तदभव हो, पर ममा सास्कृतिक परिवेश इसे 'देश्य ही सिद्ध करता है ।
(157) वद्धियो- पण्ड (हिंजडा) (सज्ञा)-दे ना मा. 7-37- हिन्दी तथा उनी अधिकतर बोलियो में हिजडे के लिए 'वाधिया' विशेपण पद प्रयुक्त होता है । सस्कृत 'वधित ' से भी इसे व्युत्पन्न किया जा सकता है ।
(158) वायागे-शिशिरवात: (ठण्डी हवा) (सज्ञा) दे ना मा 7-56 - हिन्दी में 'क्यार' शब्द ठण्डी हवा के ही प्रर्थ मे प्रयक्त होता है। प्राय इसे घरबी-फारनी की देन समझा जाता रहा है। वास्तव में इसका सम्बन्ध सस्कृत 'वायु मे होना चाहिए । यही शब्द जनजीवन मे 'वयार' के रूप मे विकृत होकर प्रचलित हुअा होगा।
(1591 विनारिया-पूर्वाहण भोजन (सजा) दे ना मा 7-71 अवधी मे 'बियारी' शब्द कालेऊ के अर्थ मे प्रयुक्त होता है ।
(160) वोज्झनो-भार (मज्ञा) दे, ना मा 7-80-हिन्दी 'वोझ' या 'वोझा' पद इसी का विकसित रूप होना चाहिए।
(161) सिलग्रो-उज्छ (मजा) दे ना मा 8-30-हिन्दी 'सिला' या 'मोला' शब्द कटाई के बाद खेतो मे पड़े हुए अन्न' के अर्थ मे प्रयुक्त होता है । यह मान्द निश्चित ही 'सिलयो' का ही विकसित रूप है ।
(162) सूरणो कन्द (सजा) दे ना मा 8-41 - हिन्दी तथा उसकी लगभग सभी बोलियो मे 'सूरन' पद बरसात मे जमीन के अन्दर उगने वाली कन्द के अर्थ मे प्रयुक्त होता है । इसको कच्चा खाने पर मुह मे कनकनाहट होने लगती है ।
(163) हमहो -नीरोग (विशेपण) दे ना मा. 8-65 --हिन्दी 'हट्टाकट्टा' के मूल मे यह शब्द देखा जा सकता है ।
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पू. ५ मा को, ५ 1180
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(164) हड्डं-अम्बि : (मना) दे. ना. मा. 8-59 ~ हिन्दी 'हड्डी' या 'हाई' के रूप में इस शक का विकास टेवा जा सकता है।
(165) हन्त्रिाली-दूर्वा (मना) दे ना मा. 8-64 -हिन्दी 'हरियाली' के रूप में स्वल्प वनिपरिवर्तन (य) के माय इस शब्द को बिक्रमित देखा जा सकता है । सस्कृत हरियाली' में भी इसकी व्युत्पन्न किया जा सकता है।
(166) हलबोली-~वाचाल . (विशेषण) दे ना, मा 8-64 अबधी मे 'हलदुलहा' मन्द जल्दी जल्दी बोलने वाले तथा शीत्र कार्य करने वाले दोनो ही के लिए प्रयुक्त होता है । यह उपयुक्त शब्द का ही विकसित रूप कहा जा सकता है।
(167) हिदही-आकुल : (विशेष) दे ना. मा. 8-67 -अवधी (हिट्ठी) तथा हिन्दी 'ही' के रूप में इस शब्द को विकसित देखा जा सकता है । सस्कृत 'हट' शब्द से व्युत्पन्न करने पर यह शब्द तद्भव होगा।
(168) हुलिय-शीत्रम (विशेषण) दे. ना. मा 8-59 ~ 'अवधी में हलना' क्रिया नेज चलने या कोई मार्ग शीत्र करने के लिए या मारने के अर्थ में व्यबहत होता है । उपर्युक शब्द में ही इमका सन्तन्य होना चाहिए । निर्ण
पर देशीनाममाला के कुछ शब्दो का हिन्दी तथा उसकी बोलियों में विकास प्रणित किया गया। इस दोष गन्य के और भी अनेको मन्द अन्य प्रावनिक भानीय प्रारं मापानी और उनकी बोलियों में विकसित दिग्वाये जा सकते है। यदि इन विपत्र के अधिकारी विद्वान इस ओर व्यान दें तो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तव्य नामने प्रा भन्ने है । हिन्दी में भी कही अधिक मराठी, गुजराती तथा दक्षिणी भापायो बन्लड ग्रादि की शब्द सम्पत्ति का व्युत्पत्तिपरक अध्ययन इस कोण के गटोक महार मालतापूर्वक निया ला सकता है। देशीनाममाला की देश मब्दावली का अधिकाश भाग आज की ग्रामीण बोलियो मे विकसित होकर प्रचलित है, भूल सदमे कही मुम्न में सम्बद्ध बता दिया जाता है तो कही अन्य प्रागन्तुक विदेशी मापायो । वास्तव में भारत में जितनी भी प्रचलित मायाए हैं ममी में परम्परा मे चो प्रये जब्दों की भरमार है । इन जब्दो की स्थिति का पता मध्यकालीन भारतीय प्रारंभापानों की शब्दावली के अवगाहन में ही लग सकता है, क्योकि कम गेम भारतीय भाषाओं के बीच मध्यकालीन आर्य भाषाएं ही ऐमी भापाए हैं जो गर-जीवन के प्रधिक निकट रही है टमीलिए इनको शब्द सम्पत्ति भी पारम्परिक प्रयोगो में गेह है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने टम अथाह सम्पत्ति के अवगाहन का सफल प्रयास
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[ 203
fre : 17, नाम मोर देश सभी प्रकार के शब्दो का विवेचन स्पष्ट
F- AIL: पानि भान्तीय प्रार्य भापात्रो में विकसित नागेन ािये तो पता गात्त्वपूर्ण तथ्य सामने आ सकते हैं । ग:"aiनिमा प्राग प्रत्या नीमित है। देशीनामाला के नामपदो
; विमान गदि मगत रप से करें तभी इसकी सारी :: : : पातु किये गये अध्ययन में निहित दृष्टि के * मार - नाअनुपयुन होगा।
1 .; या ऊपर प्रस्तुत किया गया है यदि ध्यान मे देवा
TREET हो । न शन्दों के अध्ययन के वीच यह म : किन पनि पनि घोर नाम्गतिक वातावरण के बीच में
नानहरो, मी ती परिस्थिति और वैसे ही वातावरण नी । यावान गगने जापग तच्य की ओर इंगित करती
मानी तो तत्व है जिन्हे शिष्ट साहित्य ने ग्रहण ५-Tी पिष्टी मुहर लगा दी और उन्हें हम देख कर भी अनदेखा
शीममा ना भ द्र ने मान देण्य' यह जाने वाले मज्ञापदो का ही विवरण दिया है।
ग्य' मिपायो पा रियेचन उन्होंने अपने प्राकृत व्याकरण मे धात्वादेश के रूप में किया है। ६ग प्रपार उहोंने प्राकृतो की समस्त 'देश्य' मान्दावनी फा विस्तृत विनेचन प्रस्तुत कर दिया है।
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देशीनाममाला का भाषाशास्त्रीय अध्ययन
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देशीनाममाला मे संग्रहीत शब्दावली अपनी सास्कृतिक महत्ता की दृष्टि से जितनी विलक्षण है उतनी ही भापा शास्त्रीय दृष्टि से भी। 'देश्य' शब्दो की प्रकृति के विषय में पिछले अध्याय मे वहुत कहा जा चुका है । यहा उन शब्दो का ध्वन्यात्मक त्यात्मक एव अर्थगत अध्ययन प्रस्तुत किया जायेगा । भाषाशास्त्रीय अध्ययन के पूर्व यहां एक बात स्पष्ट कर देनी आवश्यक है-देशीनाममाला के शब्द प्राकृत के है या उसकी विकमितावस्था अपभ्र श के हैं। यह कहना अत्यन्त कठिन है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इस ग्रन्य की रचना अपने अपभ्र श व्याकरण के पूरक अन्य के रूप में की थी । अत इन शब्दो को अपभ्र श का होना चाहिए, परन्तु इनमें निहित प्राकृत भाषा की विशेपताएं इस मान्यता से परे सकेत करती हैं। इतना ही नहीं ये शब्द माहित्यिक प्राकृतो से भी अपना स्पप्ट भेद प्रदर्शित करते हैं । क्योकि प्राकृतो मे होने वाले परिवर्तनो से ये सर्वथा भिन्न हैं । ऐसी स्थिति मे इन गब्दो का सम्बन्ध किसी भाषा की विशेष स्थिति से जोड पाना एक अत्यन्त कठिन कार्य है। देशीनाममाला की गव्दावली को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तीन भागो मे बाटा जा सकता है-(1) तत्मम, (2) तद्भव (3) देशज । तत्सम शब्द ध्वन्यात्मक एव रूपात्मक गठन की दृष्टि से सम्कृत से मिलते-जुलते है, तद्भव शब्द वर्णविकार, लोव, पागम आदि नियमो से युक्त होकर प्राकृत शब्दावली के अग है पन्न्तु देण्य म्हे जाने वाले शब्दो को प्रकृति प्रत्यय हीनता के कारण किसी भी मापा से जोडा या व्युत्पन्न नहीं किया जा सकता है । डा नेमिचन्द्र शास्त्री 1. पदेनोमन्द मग्रह. बोपशशब्दानुशासनाप्टमाध्यायोपलेशो रत्नावलीनामाचार्य हेमचन्द्रण रिचित इति मद्रम् ॥
-देवीनाममाला 8-77 की वृत्ति
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[ 205 ऐसे शब्दो को 'निपात' कहते हैं । देशीनाममाला की शब्दावली के बीच लगभग 600 शब्द ऐसे हैं जिन्हें सभी दृष्टियो से देश्य कहा जा सकता है । आगे भाषाशास्त्रीय दृष्टि से इन तीनो प्रकार के शब्दो का अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है। ध्वनिग्रामिक विवेचन
आधुनिक भाषावैज्ञानिको की दृष्टि मे किसी भी भाषा मे पाये जाने वाले ध्वनिग्रामो के दो विभेद होते हैं
(1) खण्डीय ध्वनिग्राम । (2) खण्डेतर ध्वनिग्राम ।
खण्डीय ध्वनिग्रामो के अन्तर्गन किसी भाषा-विशेष मे प्रयुक्त स्वरों और व्यजनो का विवेचन किया जाता है। खण्डेतर ध्वनिग्रामो मे अनुस्वार विवृति, सुर, प्राघात, बल आदि की गणना की जाती है । इस विभाजन के आधार पर देशी नाममाला मे सकलित शब्दो का ध्वन्यात्मक विवेचन निम्न प्रकार है।
खण्डीय ध्वनिनाम(1) स्वर ध्वनिग्राम-देशीनाममाला के शब्दों मे कुल 81 स्वर ध्वनिग्राम
thor
श्र,
प्रा
उ, ऊ ए, श्रो
(ए) (प्रो) ह्रस्व ए (ए.) तथा ह्रस्व प्रो (प्रो) को मिला देने से कुल 10 स्वर हो जाते हैं, परन्तु इन्हे अलग स्वर ध्वनिग्राम न मानकर क्रमश 'ए' तथा 'ओ' का सस्वन माना जाना चाहिए । इनके लिए अलग से कोई लिपिचिह्न भी प्रयुक्त नहीं है।
भरत ना. शा. (17-7) मे प्राकृतो में प्रा. भा. मा. 14 स्वरध्वनियो के स्थान पर 8 की ही स्थिति स्वीकार करते हैं। हेमचन्द्र (8-1-1 की वृत्ति) भी यही स्वीकार करते है। त्रिविक्रम की 1-1-1 परवत्ति लक्ष्मीधरकृतचन्द्रिका तथा अन्य प्राकृत व्याकरणों में भी कुल 8 स्वरो को ही स्वीकार किया गया है।
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206 ] स्वर ध्वनिग्रामो के प्रयोग की दृष्टि मे देशीनाममाला पूर्णरूपेण प्राकृत स्वरो का अनुमण करती है। प्राप्य स्वर ध्वनिग्रामो की प्रकृति -
अ-कण्ठस्थानीय, प्रवृत्तमुखी, मध्य तथा विवृत स्वर है। भापावैनानिक दृष्टि ने प्रधान स्वर ध्वनिग्राम 'घ' जिह्वान से उच्चरित होता है अतः यह अग्रस्वर है । नकृत के प्रसिद्ध वैय्याकरण पाणिनि ने '' को संवत स्वर बताया है (अ, अ सूत्र मे) । मम्वृत मे यह भले ही सवृत रहा हो । म भा पा मे यह विवृत हो गया और आज भी अवधी-भोजपुरी आदि वोलियो में विवृत ही है । दे. ना. मा. मे भी यह 'विवृत्त' स्वर ही है।
(2) जिन प्रकार प्राकृत तण अपभ्रश मे मध्यवर्ती तथा अन्त्य 'अ' विविध स्वरो और व्यजनो का स्थानीय होकर पाया है, उसी प्रकार इसका प्रयोग दे ना. मा की शब्दावली में भी हुआ है-जैसे अक्कदो ग्रानन्द (दे. 1- 15) उज्झसिन । अत्यमित (दे 1130) अच्छभल्लो L अक्षभत्ल (दे 1137) ।
प्रा-कण्ठस्थानीय, म्वल्पवृत्तमुखी शिथिल, पश्च तथा विवृत स्वर है । इसके उच्चारण में जिवापश्च के प्रयोग होने के साथ ही मुख अधिक खुलता है। देशीनाममाला की शब्दावली मे यह शब्द अधिकाशत. अपने मूल रूप मे ही व्यवहृत हुया है । कही कहीं यह 'अ' के रूप मे तथा कही 'ड' के रूप मे भी परिवर्तित मिलता है । ऐमा प्राय इन कोण के तद्भव शब्दो मे ही हुअा है, देश्य शब्दो मे इसकी अपनी मही विनि विद्यमान देखी जा सकती है।
इ-तालव्य, अवृत्तमन्त्री, अन तथा सवृत स्वर है । दे ना. मा की शब्दावली मे वह स्वर ध्वनिग्राम अपने शुद्ध और परिवर्तित दोनो ही रूपो में मिलता है। मुख रूप में इसकी प्राच, मत्र्य और अन्त्य तीनो ही स्थितियां मिलती हैं, विणेपकर 'दान' गब्दो में । परिवर्तित रूप मे कही यह ऐ८ ई (इरावो7 ऐरावत्-दै 1-60) नहीं अ 75 (मुक्विन (उत्गुष्क-दे 1142), कही ई 7 इ, (इण्हि । इदानी दे 1179 रही 37 3 (पिच्छी पुच्छ-दे 6-37) कही ऋ7 ई (भिगम्भृङ्गम् दे 6-104) प्रादि पो में मिलता है।
-उसमे और 'ड' मे उच्चारण की मात्रा भर का भेद है। उच्चारण मे दी होने के प्रनिरिक और सभी विगेपनाएं 'इ' जैसी ही हैं । दे ना मा के देश्य मल्दों में उनकी पात्र, मध्य और अन्त्य नीनों ही स्थितिया अपनी मूल विशेषतायो में संयुन है नद्भव शब्दो में यह कहीं 57 ई (मयली शालिन् दे. 8-11) तथा
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[ 207 कातिर दिवाली नि दे० 5-41 रूप में भी मिलता है।
-- प्रौप्यमानीग, पूर्णवृत्तगुनी पाच तथा सवृत स्वर है। दे ना मा यो मायाध, मध्य प्रौद अन्त्य तीनो रूपो मे प्रयोग हुग्रा है । इसकी प्राय नि प्रयोग बात बोटे है, विशेष रूप से 5 देश्य शब्दो, पात,
ar, म, चीन और हणु में ही प्रगती अन्त्य स्थिति मिलती है। प्रो7 उ र पदोन ग. मिरोह-जग-गुमच्च ८ कुरोन्य (दे. 2-63) । औ7 उ ( फ .-2133) प्र.73 (3 श्रअ : जुक' दे 1188) आदि प्रयोग
'' यर पनि प्राग मी नियति को देखते हुए, दे ना मा के शब्दो का नम्बन्ध 'सार बरला' प्रपन्न श से जोड़ पाना सर्वथा असम्भव सा लगता है । मानमाारान पुस्लिग शब्दो में विसर्ग के स्थान पर प्राय 'उ' का प्रयोग हुआ
प्रारमी में 'यो' का प्रयोग होता रहा है। देशीनाममाला के पुल्लिग शब्द अधिबाल धोकारान्त है, विसर्ग स्थानीय 'उ' का सर्वथा प्रभाव है। इसका विस्तृत दिन प्रागे यथा त्यान किया जायेगा।
___-दीपं उच्चारण के अतिरिक्त इसकी सारी विशेषताएँ 'उ' जैसी ही । ना मा के शब्दो मे शुद्ध ' का प्रयोग आदि मध्य पोर अन्त्य तीनो ही सिनियों में सुप्रा है। तद्भव शब्दो में इसके परिवर्तित रूप भी मिलते हैं । पही प्र (जगत्यो ।अस्वस्य. दे 1-143) कही ऊL प्रा (कृसारो L कासारो दं 2-44) ही . [व (असलिय । उल्लसित दे 1-141) अादि ।
(ए) कण्ठनालव्य, प्रवृत्तमुसी शिथिल, अग्र, अर्घविवृत स्वर है । म का मा प्रार्यभापानी में इम स्वर ध्वनिग्राम की स्थिति लगभग सभी विद्वानो ने स्वीकार की है। इसमें लिए कोई अलग लिपि चिह्न न तो पहले ही था और न अाज ही है । इसे 'ए' स्वर ध्वनिग्राम का ही एक सस्वन (ए) कहा जा सकता है। दे. ना मा के शब्दो में ऐसे किसी भी स्वर ध्वनियाम का उल्लेख नहीं मिलता फिर भी सयुक्ताक्षरो के पहले का 'ए' स्वरग्राम (ए) के रूप मे उच्चरित होता हैं1-जैसे
पिशेल ने सफेत किया है कि प्रापत फाल मेहस्य ए, मो ध्वनिया थी (प्रा व्या 841119) इन ए ओ का विकास ऐ, ओ६, उ, फाई स्रोतो से हुआ देखा जाता है तथा सयुक्त व्यजन पनि के पूर्व हरव ए , मो नियतस्प से ह्रस्व (विवृत) उच्चरित होते हैं । डा टगारे ने भी अपन शकाल मे हस्थ एमओ पी सत्ता मानी है। (439) तथा इस बात का भी सकेत किया है कि उत्तरी हस्तलेखो में प्राय इन्हे 'इ' 'उ' के रूप में लिखा जाता है। डा. याकोवी ने भी इसका उल्लेख "मयिसयत्त पाहा' की भूमिका में किया है।
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208 ]
एक्कघरिल्लो (एक्कधरिल्लो (दे 1-146) । दे. ना मा. के शब्दों मे आदिम स्थिति मे (ए) मस्वन का प्रयोग 8 शब्दो मे हुप्रा है। इसके मध्यस्थिति वाले प्रयोग तो अनेक हैं, हा अन्त्य प्रयोगों का सर्वथा अभाव है । इन अभाव का सबसे वहा कारण यह है कि दे ना. मा. के शब्द निर्विभक्तिक रूप मे सकलित हैं ।
ए-कण्ठतालव्य अवृत्तमुखी, शिथिल, अग्र, अर्व संवत स्वर हैं। दे ना. मा. के शब्दो मे इसका प्रयोग श्राद्य और मध्य स्थितियो मे बहुश हुअा है, अन्त्य प्रयोग केवल एक शब्द (पुडे-दे. 6-52) मे मिलता है । प्रा. भा पा के 'ऐ स्वर ध्वनिग्राम के स्थान पर भी सर्वत्र इमका व्यवहार हुअा है। कहीं-कही यह 'ई' के गुण स्वर के रूप मे भी व्यवहृत है-जैसे एराणी, इन्द्राणी-दे ना. 1-1471
(प्रो) कण्ठ्योप्ठय, वृत्तमुखी, शिथिल, पश्च तथा अर्व विवृत स्वर है । यह भी 'नो' स्वर ध्वनिग्राम के एक सस्वन (श्रो) के रूप मे व्यवहृत हुआ है । (ए) की भांति इसका भी कोई लिपिचिह्न नहीं है। सयुक्ताक्षरो के पहले का 'ओ' स्वर ध्वनिनाम ही (ो) के रूप मे उच्चरित होता है। दे. ना मा के शब्दो मे यह 'मम्वन' पाता और मध्य दो ही स्थितियो में प्रयुक्त हुया है । अन्त्य स्थिति मे यह भी प्रयुक्त नहीं है ।
'
श्रीकण्ठ्योप्ठ्य, वृत्तमुखी, शिथिल, पश्च तथा अर्वविवृत स्वर हैं । दे. ना मा के शब्दो में इसके प्राद्य मध्य और अन्त्य तीनो ही स्थितियो के प्रयोग मिलते हैं । विशेषतया 'देश्य' शब्दो मे । तद्भव शब्दों मे यह कहीं उ के स्थान पर (उत श्रोति से) तथा कहीं प्रो के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है।
देशीनाममाला के शन्नो में इन्हीं (8) (ए) (ओ) की गणना कर लेने पर (10) स्वर व्वनिग्रामो का प्रयोग हुना है। प्राचीन भारतीय आर्यभापा के शेष स्वर व्वनिग्राम ऋ, लु, ऐ, औ, अ , अ आदि का प्रयोग कही भी नहीं हुआ है । इन सभी का प्रयोग तो प्राकृतो की प्रारभिक अवस्था से ही समाप्त हो चला था । भरत
1. एलवितो विनो-1-148 ॥
हैमरद पने अपनश व्याकरण (4-410) में ह्रस्व 'यो (यो) का अपन्न श में प्रयोग म्वीकार करते हा तनु हटकरि-जगि दुल्हहो' उदाह्मण भी देत है। देगीना मे (हम्द मो (बो) वं वन्य प्रयोग का न प्राप्त होना भी) इमर्क शन्दो यो ,अपन्न श भापा
सनग ही नाना है। इन कोप के पुल्लिग मन्द प्राय 'बोकारान्त' है, न तो कहीं इन नदीमयो' का बन्य उच्चागा हम्ब होना है और न ही इन गन्दी के प्रयोग स्वम्पदी
यी कायालय सायायों में ही। ऐसी स्थिति में इन शब्दो की प्रकृति इन्हे अपघ्र भाषा में प्रति दुरी पर रखती है।
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[ 209 ने पहले नाट्यगार में प्राकृनो ने इन सभी स्वरो के प्रप्रयोग की स्पष्ट चर्चा की है
एमा प्रारपराणि न घमारपर श पायए णत्यि । x x x
ना. शा. 17-7 ।। यही मत हेमनन्त (नि. 81111 की वृत्ति) त्रिविक्रम (11111 की वृत्ति) मादि का भी: । प्रानीन प्रारंभापा के इन (न, ल. ऐ, ग्री, अ, अ) छ' स्वरों पार, प्रानो में 8 पचान बरो (अ, पा, इ, ई, उ, ऊ, ए, श्रो) के अन्तर्गत हो पर लिया गया। इन स्वरों को विति किसी भी प्राकृत व्याकरणकार ने नहीं स्वी मी । जब साहित्यिक प्रातो मे ही इनकी स्थिति नहीं रही तो लोकजीवन शो बोनानी भाषा में व्यवहृत होने वाले देश्य शब्दो मे इनकी स्थिति का प्रश्न तीनही उठना। प्रारुन भाषायों के अनकल ही देय शब्दो मे भी इन स्वरो का पनिकता मान होता है। इनमें से प्रत्येक का वर्ण विकार निम्नलिखित रूपो मे प्राप्त है।
1 म.7 प्र~अच्छभल्लो म.क्षभल्ल (दे 1-37), अवत्तय। अवृत (दे०1-34)।
2. E7 F - भिंगमृगम् (दे 1-104), भिंगारी, भू गारी (दे 1-105) । उग्रमिकन । पुरस्कृत (दे. 1-107) ।
3. 7 उ-उपग्रजु (दे 1-88), उड्डयो2 वृद्ध, (दे 1-23)।
4 7 रि-रिछोली- ऋक्षालि (दे 7-7), रिद्धी, ऋद्धि (दे 7-6)
5 7 अर-करमरी, करमृदित (दे 1-15) 6 7 ए~-यह परिवर्तन देशीनाममाला के शब्दो मे बिल्कुल नहीं है ।
प्राकृत तथा अपभ्र श भापायो मे 'ऋ' के प्रयोग को लेकर विद्वानो मे पर्याप्त विवाद है। 'ऋ' का उच्चारण प्राकृतो मे लगभग समाप्त सा हो गया, इमीलिए व्याकरणकारो ने प्राकृत वर्णमाला मे इसकी गणना भी नही की । अपभ्र श मे भी यही स्थिति रही। अपभ्र शकाल मे कही कही लोकभाषामो मे इसका उच्चारण रह गया था इसकी सूचना हेमचन्द्र ने 8141329 तणु, और सुकिदु और सुकृदु के
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2101 उदाहरणों मे तथा दो अपभ्रंश दोही में 'गृहण्णई' और 'घृण' के प्रयोग के रूप में दिया है। रामतर्कवागीश के अनुसार-सिन्यु देश की वाचड अपभ्र श मे मृत्यादिगण में अन्यत्र 'ऋ' का उच्चारण होता है । इन्ही तथ्यो को ध्यान में रखते हुए पिशेल ने यह स्वीकार किया कि 'ऋ' का उच्चारण 'अपभ्रश प्राकृत मे रह गया है। अधिकाग अपन श वोलियो में सभी प्राकृत प्राचार्यों का नियम है, 'ऋ' नहीं होता । निष्कर्ष रूप में यह कहा जा मकता है कि कुछ प्रादेशिक भाषामो को छोडकर शेप म. भा या मे 'ऋ' की स्थिति नही रही । ग्रामीण वोलियो मे तो इसे निश्चित ही म्यान नहीं मिला। दे. ना मा. की शब्दावली इन्हीं ग्रामीण बोलियों से संबद्ध है, अत में 'ऋ' का सर्वथा अभाव स्वाभाविक ही है। ल का प्रयोग
'ल' स्वर का प्रयोग वैदिक काल से ही विरल रहा है। इसका प्रयोग केवल एक ही बातु 'क्लपि' मे है । ऋग्वेद प्रातिशास्य के अनुसार पद के श्रादि और अन्त मे लकार स्वर्ग मे परिगणित नहीं होता।" पाणिनि ने अपने माहेम्वर सूत्र में 'ल' की गणवा की है ऋल क) परन्तु महाभाप्यकार पतजलि स्वीकार करते हैं कि इसका प्रयोग क्षेत्र स्वरपतर है जो प्रयोग है भी वह मात्र 'वलपि' धातु तक सीमित है 1 यहीं पर वे यह भी बताते हैं कि पाणिनि ने 'लु' का प्रयोग यदृच्छा अशक्तिज अनुकरण और प्लुतादि के लिए ही किया होगा। प्राकृत व्याक्राकारो ने 'लु' का 'इलि' प्रादेश ही स्वीकार किया है। मदीश्वर (5-16) अपभ्रंश मे 'क्लुप्त' का 'कत्त' रूप स्वीकार करते हैं। निवर्प रूप में यह कहा जा सकता है कि प्राकृत तथा अपभ्र श भापायो मे 'ल' स्वर नहीं रहा । इसी के अनुरूप दे ना मा. के शब्दो मे भी लु' का प्रयोग कहीं नहीं मिलता।
ऐ-हम्बीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्राकृतो में 'ऐ' का उच्चारण 'ए' या 'टु' और 'इ' रूप मे मिलता है। यही स्थिति अपभ्रंण में भी है दे ना. मा. को जब्दावली 'ए' के इमी ह्रस्वीकृत रूप को स्वीकार करती है ।
1.
व घ्या 8141336 दही-8141350 मृगापरेग र-नाविहत प्रकृत्या (31312) प्रारत मापात्रों का व्याकरण-पिगेल, पृ 96
म प्रा 19
6 नकाम्यापोदांचव प्रयोग विषय । यचापि प्रयोग विषय सोऽपि फ्लू पिस्थस्यैव ।
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[ 211 ऐ 7 ए या '5'-एलविलो ऐलविलो (दे 11148) लक्छो निर्लक्षः (दे 4144) 'दै प्रल्ल वैकल्य (दे 8175) वेलुलिय वेदर्य (दे. 7177), सेलूसो। शैलप. (दे 8121 ) । इरावा ऐरावत (दे 1180)
ऐ7 प्रा - सइरवमहोस्वरवृपम (दे 8121) पूरे कोश मे यही एक शब्द प्राप्त है।
प्रौ 'ऐ' की भाति 'नौ' भी ह्रस्वीकृत रूप मे 'यो' या 'उ' तथा 'पउ' के म्प ने प्राप्त होता है।
प्रौ7ी या उ-कोमुई। कौमुदी (2148) कोलिप्रो।कौलिक (दे 2165) युद्धकौतुक (2-33) |
पी793 - पउढप्रोटम् (दे 614) । 'श्री' का 'अ' रूप मे विकार इस को के शब्दों में नहीं प्राप्त होता । जिन शब्दो मे यह विकार है भी वहा वह अन्य स्वरों का स्थानीय हैं । स्वर ध्वनिग्राम वितरण
ऊपर दे ना मा मे प्राप्त स्वर ध्वनिग्रामो की प्रकृति का ऐतिहासिक विवेचन प्रस्तुत किया जा चुका है। प्रव इन खण्डीय ध्वनिग्रामो का शब्द की आदिम माध्यमिक और अन्तिम तीनो स्थितियो मे प्रयोगो का विवेचन कर लेना भी समीचीन होगा । सबनियो सहित इनके उदाहरण निम्न प्रकार हैं । स्वरध्वनिग्राम सध्वनि आदिम-सन्दर्भ मध्य-सन्दर्भ अन्तिम स्थिति सन्दर्भ प्र नइरो (दे 1-16) कालवट्ठ (दे 2-28) प्रोग्गाल (दे 1-15)
श्रोद्दाल अ अकेल्ली (दे 1-7) अदसणो (दे 1-29) अद्धविश्वम (1-34) या अफरो (1-63) अवयारो (1-32) प्राडाडा (1-64)
श्रामेलो (1-62) पागाई (1-64) अम्माइआ (1-22) श्रा-यह सध्वनि किसी भी शब्द मे नही मिलती। इ इत्लो (1-82) किरिइरिया (2-61) पसडि (6-10) इभो (1-79) इरिमा (1-80) सरत्ति
(8-2) इ इदमहो (1-81) उविब (1-27) अन्तिम स्थिति का प्रयोग किसी इ दोवत्तो (1-81) कालिंजणी 2-29 भी शब्दो मे नही है । शब्दो के
निदिभक्ति होने के कारण कोइला (2-49) ऐसा हुआ है । छोइनो (3-33)
श्रा
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212 1
इत्लीरं (183)
कुमारी (2-35) ईसयो (1-84) गहीरी (2-82)
कुमुली (2-39) ईसरो गदीगी (2-83)
कु भी (2-34) ईसिन गडीव (2184)
कुररी (2-40) ई-इस सध्वनि का प्रयोग कहीं नहीं है ।
उडू (1-86) कउह (2-5) टिवरु) (4-3) उग्ररी (1-98) कहुअालो (2-57) हणु (8-59)
को उग्रा (2-48)
पोउया (6-61) रवा (1-86) उलुउ डिअ (1-115) मुंडु (6-100) उ बी (1-86) उल्लु टिन (1-109) वीसु (7-73) करणी (1-140) पाऊर (1-176) श्राऊ (1.61)
ऊरो (1-143) अवगूढ (1-20) उडू (1-86) क-इस सध्वनि का प्रयोग विल्कुल नहीं है। क्योकि शब्द निविभक्तिक
होकर प्राय प्रतिपादिक रुप मे ही सकलित हैं। संध्वनि प्रादिम -- म ए एमिरिणया (1-145)
पुडे (6-52) एलो ( 1-144) छेनग्रयो (3-32)
छेली (3131) गेंड (2-93)
गेढल्ल (2-94) एक्कगं (1-144) कालेज्ज (229)
एक्कसिवली (1-146) पेज्जल (6-57) और (1-149) छिक्कोट्टली (3-37) छायो (3-33)
औरल्ली (1-154) टिवक्कोलिय (3-25) कुह्हो (3-36) ग्री -
कोडियो (2-48) कोढत्लू 1 2-49)
स्व व ए
प्रो
2 3. 4
पूरे शोग में कर चार टीद है। पूरे भाग में रंगागन्त देवल दो ही मन्द हैं। पूरे में यही एक एकागन गन्द है। मोममर में योकारान्त शन्दो की भरमार है और ये सभी प्रायः पल्लिग हैं।
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[ 213 प्रो प्रीत्यग्रो (1-151) पोट्ट (6-60)
नीच्छिय (1-150) मोग्गरो (6-139)
'खण्डत र स्वर ध्वनिग्राम' अनुस्वार तथा अनुनासिक
दे ना मा. के शब्दो मे वर्गीय अनुनासिक न्यजनो के स्थान पर सर्वत्र अनुस्वार (बिन्दु) ( ) का व्यवहार किया गया है । स्वरो के जिस क्रम मे हेमचन्द्र ने इमका व्यवहार किया है उससे स्पष्ट है कि वे इसे स्वरो का ही अग मानते हैं। इतना होते हुए भी उन्होने अलग से इस स्वर की परिगणना नही की। भरत ने तो पात स्वगे की गणना में प्रकार को स्पष्ट ही स्थान दिया था। सर्वप्राचीन प्राकन वैयाकरण वरूचि ने भी भरत की इसी मान्यता को स्वीकार करते हुए पदाल 'म' की विन्दु () सज्ञा स्वीकार की। हेमचन्द्र ने पाणिनि की ही मान्यता 'मोऽनुन्यार' को ज्यो का त्यो गहण कर लिया । त्रिविक्रम ने वरु रुचि की भाति पुन इमे विन्दु रूप में स्वीकार किया । वैदिक संस्कृत और सस्कृत मे वर्गीय व्य जनो के अतिरिक्त अन्य व्यजनो के सयोग मे पदान्न 'म्' का अनुस्वार हो जाता था । स्वरो के परे रहने पर अनुस्वार न होकर स्वर म् के साथ मिल जाता था। अनुस्वार की यह स्थिति उसे व्यजन वर्ग के अन्तर्गत ही सिद्ध करती है। इसीलिए शुक्ल यजु -प्रातिशास्य 'व्यजनकादि' 1147 सूत्र मे 'न इत्यनुम्वार एतदन्तम्' रूप मे अनुस्वार 'व्यजनो के ही अन्तर्गत गिना गया । परन्तु ऋग्वेद प्रातिशाख्या 1111 में 'अनुम्बारो व्यजनो वा स्वरोवा' कहकर इसे स्वर और व्यजन दोनो ही स्वीकार किया गया। इसी सूत्र की व्याख्या मे अनुस्वार मे कुछ व्यजन धर्म अर्धमात्राकालता एव मयोग तथा कुछ स्वर धर्मों को भी जैसे ह्रस्व, दीर्घ आदि बताया गया । इसी ग्रन्थ पे अनुस्वार और विसर्ग को पूर्व स्वर का श्रग स्वीकार किया गया है ।' भरत ने इसी प्रकार पद्धति को स्वीकार कर अनुस्वार को स्वरो के अन्त में स्थापित किया गया है । वस्तुत किसी भी स्वर के उच्चारण के अनन्तर जब जिह्वा अनुस्वार के उच्चारण मे शीघ्र प्रवृत्त होती है तो नासिक विवर मे श्वास ले जाने के
1. ना गा अध्याय 14 2 मो विन्द प्रा प्र 4112
मोऽनम्बार मि हे 811123 4. वि दल प्रा श 111140
'अ' इत्य नम्बारो वर्ण समाम्नाये पठयते, स काश्चित् स्वरधर्मान्गह्वति काशिचन्च ध्यजनधर्मान् यथा ह्रस्वत्व दीर्घत्वमदात्तत्वमनदात्तत्व स्वरितत्वमिति स्वरधर्मा. तथा मईमानाकालता स्वरवनोदात्तता स्वरितता सयोगश्चति व्यजनधमो.।'
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214 ] लिए अलिजिह्वा (कोया) को उठाना पड़ता है। इस स्थिति मे आकर स्वर उच्चारण के ममाप्न होते-होने अनुनामिक होने लगता है अत अनुम्वार के साथ स्वर का अनुनासिकीकरण सम्बद्ध है। स्वरानुवर्ता अनुम्बार स्वर को प्रभावित करता है। इसका निपेध नही किया जा सकता । प्राकृत और अपभ्र श में अनुस्वार के पूर्ववर्ती स्वर वहुवा अनुनासिक होते देखे गये है। ' सरलीकरण की पद्धति में आगे चलकर प्राकृत तथा अपभ्रश मे परसवर्णविधान न होकर सवत्र
नुस्वार का ही प्रयोग किया जाने लगा। देशीनाममाला के शब्दो मे भी इसी पद्धति मे सर्वत्र अनुस्वार विवान मिलता है। यह कोश केवल सजा तथा विशेपण पदो का ही सकलन है। इसमे स्वरानुनामिकीकरण की प्रवृत्ति केवल दो ही रूपो मे प्राप्त ह ती है(1) पदों के अन्त मे प्राय नपु सक लिङ्ग के द्योतन के लिए-'अ' का
प्रयोग जैसे कदोह नीलोत्पलम् (दे 2119), कउल-करीषम् (दे.
217)। (2) विशेषण पदो मे 'क्त' प्रत्यय के द्योतक 'अ' के रूप मे ~जैसे कड -
तरिन-दारितम् (दे 2-20) किलिम्मिन-कथितम् (दे. 2-32) (3) वर्गीय अनुनासिक व्यजनो के स्यानी रूप में ~ जैसे ककोड (दे 2-7),
कची (दे 2-1), गो (३.2199) गवलया (दे. 2-85), गु फो
(दे. 2-90) विसर्ग का प्रयोग
देशीनाममाला के किसी भी शब्द मे विसर्ग का प्रयोग नहीं है। इसमे सकलित प्राकारान्त पुल्लिग शब्दो मे अन्त्य विमर्जनीय का सर्वत्र 'नो' हो गया है । सस्कृतवाल मे ही कुछ म्थितियो में विमर्जनीय को 'यो' करने की प्रवृत्ति चली श्रा
दे ना मा के गन्दो की अनुम्बार प्रयोग की प्रवत्ति के ठीक विपरीत इन शब्दो के उदाहरण म्दाप रची गयी गावामी में गरमवणं की प्रवृति प्राय है कममे कम 'न्' और 'म' को तो मवंत्र पर वर्ण कर में निवा गा है। जैने धम्मिय (दे 6-9-16), मन्ति (6-12-19)। परन हम नियम का सवन्न वढाई मे पालन नहीं किया गया है। हम तो मवंत्र अनुयार प में ही निदे गये है न और म् का बनस्वार यौर पर सवणं दोनो ही प प्राप्त होता है प का मवंत्र पर मवणं काला न्प भी है। यह हेमचना को मान्यता के मदंया बनकली है उन्होंने मि है 811125 में -ज-ण नो व्यज्जन मूत्र में से मोर ज सो गवन बनम्बार मझा तया अन्य को विकल्प में स्वीकार किया है।
हेमचन्द्र , इम मृत्र को ध्यान में रखते हुए भी दे ना मा. परसवर्ण कर के अननारियनों (वियतन, म) को लिखने की प्रवृत्ति लिपिकारो को मल भी कही जा सकती है 'परमपरिट' टया दोहा कोश' के लिपिकारों में भी ऐसी हो नान्ति देखने में जाती है।
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[ 215 रही थी। प्रातकाल में यह रद होकर आवश्यक नियम सी बन गयी । अपभ्र शकाल मे उनका 'प्रो' ग्रो. 'उ' दोनो ही रूप रहा । वस्तुत अपभ्र श मे 'उ' का ही बाहुन्य है उसमें प्रयुक्न 'यो' प्राकृतामास कहा जा सकता है। सधि और स्वर संयोग
मधि - देशोनाममाला के शब्दो मे स्वरो का सधिविधान बिल्कुल नही है। स्वर्ग में साक्षर कहे जाने वाले 'ऐ' और 'औ' की स्थिति किसी भी शब्द मे नहीं है । इनके स्थान पर सर्वन 'ए' और 'नो' का ही व्यवहार हुआ है । कुछ शब्दो मे 'ए' को 'प्रः' और 'प्रो' को 'पउ' रूप में भी व्यवहृत किया गया है । इसका विस्तृत विवेचन पीछे 'ऐ' और 'ग्री' का विवेचन करते समय किया जा चुका है। इस प्रकार देगीनाममाला के शब्दो मे स्वरो मे सघिविधान कही नही मिलता । दो स्वर नाथ नाथ पाकर भी 'पर सन्निकर्ष सहिता' के नियम से एक दूसरे से मिलकर एकाकार नहीं होते, बल्कि दोनो अपनी अलग-अलग स्थिति बनाये रखते हैं। दोनो का उच्चारण भी अलग अलग होता है। प्रकारातर से स्वरो की समीपस्थ यिनि के होने हा भी इनमे सधिकार्य नहीं होता। परे कोश मे इस कोटि के स्वर सोगो की भरमार है। स्वरो की यह समीपम्यता विवति कहलाती है। ऋग्वेद मे भी अन्न पद विवति के दो उदाहरण मिलते है-तित उ और प्रउगम् । इन दो शब्दो मे अपौर उ मे समीप रहते हुए भी 'गुणविधान' नही हुआ । लगभग सभी विद्वानो ने ऋग्वेद के इन दो शब्दो को किसी जन-भाषा की सम्पत्ति माना है। देशीनाममाला की शब्दावली मे इस प्रकार की त्रिवृतियो की भरमार है । ऐसे शब्दो की प्राचीनता ऋग्वेद काल तक जा पहु चती है ।
वैदिक छान्दस् भाषा के वाद सस्कृत मे समीपस्थ स्वरो का सधि-विधान अनिवार्य सा हो गया। लेकिन आगे विकसित होने वाली प्राकृतो मे, भाषा को स्वाभाविक विकास प्रक्रिया मे उच्चारण शैथिल्य और मुखसोकर्य के कारण सधिविधान शिथिल होता गया। प्राकृतो मे मध्यवर्ती क्षीण त्यजनो का प्राय लोप ही हो चला 11 जहा-जहा क्षीण व्यजन लुप्त होते वहा स्वरो की स्थिति बनी रह जाती थी। इस प्रक्रिया से एक ही शब्द मे दो-दो, तीन तीन और कहींकही चार-चार तक स्वर समीपस्थ होकर आने लगे और उनमे परस्पर सधि-प्रक्रिया का अभाव हो चला। व्यजनो के लोप और उनके स्थान पर आने वाले स्वरो के कारण, कही-कही तो शब्दो का अर्थ करने में कठिनाई होने लगी। सस्कृत के दो
1.
क ग च ज त द प य वा प्रायोलोप । प्रा प्र 212
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216 ] शब्द मृग और मृत प्राकृत में 'मय' के रूप में विकृत हो गये। ऐसे शब्दो के अर्थ निर्वागण मे तरह-तरह की कठिनाइयाँ बाने लगी। इतना ही नहीं एक ही शब्द में इतने स्वरो की भरमार होने लगी कि उमका उच्चारण भी कठिन होने लगा। स्वरो के उच्चारण मे, मुख मे श्वासवाय का गत्यवरोव नहीं होता। अत.एक स्वर के स्पष्ट उच्चारण के बाद ही दूसरा स्वर उच्चरित हो सकता है । दो, एक से स्वरो के उच्चारण में, वक्ता को पर्याप्त प्रयास करना पड़ता है । इसी प्रकार तीन तीन और चार स्वरोका उच्चारण तो और भी कठिन है। फिर भी प्राकृतो में इस कठिनाई के विपरीत स्वर मयोगो की भरमार होती गयी। प्राकृतो की इम विशेषता का पता हमें तत्कालीन लिखित ग्रन्यो से चलता है । उम युग मे बोलने दालो की प्रवृत्ति कैसी थी इसका पता लगा पाना, एक सर्वथा असम्भव कार्य है । मेरी दृष्टि में प्राकृतो का यह स्वर वाइल्य उनकी कृत्रिमता का द्योतक है, प्राकृतों के वोलने मे इतने अधिक स्वर संयोग मम्भव नहीं रहे होंगे।
देशीनाममाला की शब्दावली भी प्राकृतो के इसी मन्विच्छेद विधान का अनुसरण करती है । इसकी शब्दावली में भी विवृति प्रधान शब्दावली की भरमार है । प्राकृत भाषामो मे स्वरो की ममीपता की जितनी स्थितिया थी, सभी का निरूपण देशीनाममाला की शब्दावली में भी किया जा सकता है। प्राकृतों मे स्वर सयोग की तीन स्थितिया प्राप्त होती हैं - विवृति या सघि का प्रभाव
प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण मे स्पष्ट विधान किया है कि द्वत स्वर परे रहने पर दो स्वर्ग में प्रापम मे सवि नहीं होगी। 1 व्यंजनों का लोप हो जाने के बाद जो स्वर वच रहते हैं, वे उद्बत स्वर क्लाते हैं । देशीनाममाला के तद्भव शब्दो मे यह नियम देखा जा सकता है । जैन अडग्री (सस्कृतअष्टज.), अमनो (म अमृत ) अाउर (म प्रातुर), उअन (स ऋजुक) आदि । (2) य ध्रुति और व अति -
एक म्वर के उच्चारण से दूसरे स्वर के उच्चारण में जाती हुई श्वामवायु के निरलने से अकस्मात् कोई हल्की ध्वनि प्राकर श्रोता को सुनायी देने लगती है । यही अनि कहलानी है । धीरे-धीरे वदता और श्रोता के बीच व्यवहृत होते-होते यह एक, स्पष्ट वर्ण का रूप धारण कर लेती है। देशीनाममाला की दावली मे यह अति पौर व वर्गों के रूप में विद्यमान देखी जा सकती है । यह अति-विधान प्राय. रवृत्त स्वरों का स्थानी बनकर पाता है। 1 स्वरम्यो । ऐम 81118
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[ 217 इन प्रकार का अतिविधान म भा. प्रा के लिए कोई नवीन वस्तु नही है । सस्कृत मे अकारान्त प्रथम बहुवचन के विसर्ग को स्वर अन्त स्थ और वर्णों के अन्तिम तीन वर्णों के परे होने पर य का आगम य श्रुति ही है । ऐसे स्थलो पर विसर्ग का प्रभाव हो जाता है और दोनो पदो के बीच मे य अति के रूप में आ जाता है । यह श्रुति विधान भी प्राय विकल्प से होता है । बोलने मे 'य' के न सुनायी पड़ने पर श्रुति विधान नही भी होता । उदाहरण के लिए देवा + इह को लिया जा सकता है । य ध्रुति का आगम होने पर यह देवायिहि तथा श्रति के न सुनायी पड़ने पर देवाइह रूपो में प्रयुक्त होता है । सस्कृत का 'इयड' आदेश भी य श्रुति ही है। संस्कृत के बाद प्राकृतो मे इस श्रुति का प्रयोग बहुतायत से होने लगा । अपभ्र श मे पश्चिमी और उत्तरी क्षेत्रो मे तथा जैन लेखको की भाषा मे य श्रुति की बहुलता देखी जा सकती है, इसके विपरीत पूर्वी क्षेत्र की भाषामो मे इसका प्रयोग अपेक्षाकृत न्यून है। देशीनाममाला की शब्दावली का सम्बन्ध भी अधिकाशत म. भा पा से है, अत इसमे भी य श्रुति-विधान की प्रवृत्ति स्पष्टतया लक्षित की जा सकती है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं -
प्रत्ययारिया-सखी (1-16), अमयणिग्गमो चन्द्र. (1-15), आमलय -नपुरगृहम् (1-67), उवकय-सज्जित स उपकृत (1-119), मायन्दो-पाम्र (6-128) रयणिद्धय-कुमुद स रजनीध्वजम् (7-4) लयापुरिसो स. लतापुरुषो (7-201, वयाडो-शुक सस्कृत वाचाट (7-56) आदि । इ के बाद 'ए' स्वर के सयोग मे भी 'य' श्रुति सुनी जा सकती हैं ।
व श्रुति का प्रयोग भी सस्कृत काल से ही प्रचलित रहा है । संस्कृत मे 'उ' के स्थान पर 'उवड' श्रादेश व श्रुति ही है । प्राकृत और अपभ्र शकाल मे भी 'व' श्रुति का प्रयोग मिलता है, परन्तु यह य श्रति के प्रयोग की भांति व्यापक नही है । म मा प्रा मे कभी-कभी प्रोष्ठस्थानीय वर्णों की समीपता समीकरण या कभी-कभी असमीकरण मे भी 'व' श्रति के होने की पर्याप्त सम्भावना हैं। इसके 'प्रोकारान्त' शब्दो मे हल्की व श्रुति सर्वत्र सुनायी पडती है, परन्तु प्रायः इसे स्वर 'ओ' के रूप मे ही लिखा गया है । सम्पूर्णकोश मे 'प्रोकारान्त' शब्दो की भरमार है। इन शब्दो के बोलने मे निश्चित रूप से 'व' श्रुति का आगम हो जाता रहा होगा। कुछ शब्दो को व श्रुति सयुक्त कर, लिखा भी गया है, जैसे-अणुवो- बलात्कार (2-19)। परन्तु त्रिविक्रम ने इसे 'अणुओ' रूप मे ही दिया है । 'उ' के बाद 'नो' तथा 'आ' के बाद प्रो स्वर के उच्चारण मे हल्की 'व' श्रुति सुनी जा सकती है । यद्यपि इसे सर्वत्र 'ओ' रूप मे ही लिखा गया है । व श्रुति का स्पष्ट प्रयोग कही-कही 'अकारान्त'
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218 ] पदो मे हुआ है । देशीनाममाला की शब्दावली मे 'व श्रुनि' के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं
प्राणवो-स्वपच. (1-64), ह कुरुखो-अ जलिः (8-71)। देशीनाममाला के शब्दों मे 'व' ध्रुति की स्थिति इन्ही दो शब्दो मे, स्पष्टतया लिखित रूप मे प्राप्त होती है । अन्य शब्दो में स्थित होते हुए भी यह स्वरो 'अ', 'या' तथा 'ओ' के रूप मे लिखी गयी है । कुछ ऐसे शब्द उल्लेखनीय है
हुमो-जीर्णघट (4-11) थोप्रो-रजक. (5-32) पडोयो-वाल (6-9), परभानो-सुरतम् (6-27), पूमा-पिशाचगृहीता (6-54), भामो-ज्येष्ठ भगिनीपतिः (6-102) भपुप्रा-शिवा (6-101), भूमिषिमाग्री-नाल (6-107) ग्रादि अन्यानेक शब्दो के उच्चारण मे व श्रुति विद्यमान देखी जा सकती है पर लिपि मे इन्हें स्वरो के रूप मे ही लिखा गया है।
इस प्र र देशीनाममाला की शब्दावली सधि-विधान को तो प्रश्रय देती ही नहीं, य श्रुति श्रीर व अति भी प्राय तद्भव और कुछ ही देशी शब्दो मे मिलती है। इनमे सर्वत्र स्वरो की उबृतता ही प्रवान है । उद्धृतस्वरो के निम्नलिखित सयोग देशीनाममाला की शब्दावणी मे देखे जा सकते हैंअन-अ-विस्तारितम् (2-49), उअन -ऋजुकम् (1.88), दअच्छरो-नाम
वामी (5-36) टहरी-मुग (5-34), समग्र-शिला (8-46) । अप्रा-मग्राइ - शिरोमाला (6-115)-पूरे कोश मे यही एक उदाहरण है । अइ- अहण-गिन्तिटम् (1-10), अइरो-पायुक्त (1-16), अारजुवई-नववधू
(1-48) अहहारा विद्य त् (1-34), यह स्वर संयोग बहुतायत से मिलता है।
अई- प्रहरजुबई (1-148), क्रमई-अरण्यवारीफल (2.6) खडई-असतो (2 67),
रायगई-जलोका (एकघाम) (7-4}, वित्तई-गवित (7-91), मई-सुग (6-113) ई को 'इ' रूप में ह्रस्वकर देने की प्रवृत्ति के कारण 'अई' स्वर नयोग अधिकाण स्थलो पर 'अई' के रूप में पा गया है, जैसे गईमासय को गइमासत्र कर दिया गया है । दीर्घ को ह्रस्व करके बोलने की प्रवृत्ति, लोक
भाषाम्रो की बहुत प्राचीन प्रवृत्ति है । प्रट- गाउप-प्रधानम् (2-56), काउल-करीपम् (2-7), कटह-नित्यम् (2-5),
चदम चत्वरम् (3-2), उपकरी-कार्तिकेय (3-5), चउरचियो मातवाइन (3-7), पटन्य-प्रोधित्म (6-66) वाढहारी-सम्मानी (6-97)
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[ 219 प्रऊ- पऊ ढ गृहम् (6-4), मऊ-पर्वतः (6-113), वऊ-लावण्यम् (8-30)।
कुल इतने ही शब्द है। पए- अवएइग्रा-मद्य परिवेपणभाण्डम् (1-118) पएरो-गुफा का द्वार (6-67),
पएमो-पडोसी (6-3), कुल तीन ही शब्द हैं । अनी- अज्जयो-गुरेटकतृणम् (1-54), अज्झनो-पडीसी (1-17), अण्हेअनो
भ्रान्त (1-21), अबडो-घास का घोख (1-20) इन्दड्ढलनो-चन्द्रो
त्यापनम् (1-82) आदि । यह स्वर सयोग प्रचुर मात्रा मे है। प्राग्र-प्रायड्डिय-परवशचलितम् (1-69), पाल्ली झाट भेद (1-61), आपल्लो
रोग 11-75), प्रोग्राअगे अस्तसमय (1-162) माअलिबा-मातृष्वसा
(6-131 ) आदि। पापा-यह स्वर-सयोग देशीनाममाला के किसी भी शब्द मे नही है । आइ- प्राइप्पण-पिष्टम् ( .78), प्राइसण-उज्झत-छोडा हुआ (1-71), करा
इणी-शात्मलितरु (2-18), पत्तपसाइना-पुलिन्द के शिर पर रखा गया
दोना (6-2), विग्गाइया-जोडे मे रहने वाला कीडा (6-93) आदि । प्राई- जाई-सुरा (1-45), विग्गाई-जोडे मे रहने वाला कीडा (6-93), साई-केसर
(8 22), इ दगाई-जोडे मे रहने वाला कीडा (1-81) इत्यादि । प्राउ-पाउरो-सग्राम. (1-65), पाउल- अरण्यम् (1-62), आउस-चम्
(1-65), पाउन -हियम् (6-38), पाउग्गो-सम्यः (6-41) इत्यादि । पाऊ- पाऊ-सलिलम (1-61), पाऊडिअ - तपणः (1-68), पाऊर-अतिशयम्
( 1-76),जाजरी-सुरा (1-45), पाऊ-विभक्त (6-75) इत्यादि । श्राए- इस स्वर-सयोग का सर्वथा अभाव है । उदाहरण की गाथानो मे स्त्री शब्दो
मे विभक्ति के प्रत्यय के रूप मे इसका व्यवहार हुआ है-जैसे-अलिणाएहि,
विप्रोअपराए प्रादि । प्रारो- उन्भारो-शान्तः (1-96), प्रोग्रामो-ग्रामाधीश (1-166) छात्रओ-बुभुक्षित
(3-33), जहाजाओ-जड (341), गाओ-गर्विष्ठ (4-23), पलामो
चौरः (6-8) इत्यादि । इअ- अविन -उक्तम् (1-10), पारेइअ -मुकुलितम् (1-77), कइ कसई-निकर
(1-13), कइअ को (2-13), कासिम-सूक्ष्मवस्त्र (2-59) इत्यादि । इआ- पावरेइया-करिका (1-71) कसिश्रा-अरण्यचारीफलम् (2-6), कालिमा
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शरीरम् (2-58) गणगाइया-चण्डी (2-87),चु चुणिया-टपका हुया
(3-23) रुइरइग्रा-उत्कठा (7-18) इत्यादि । इइ- किरिइरिया-वर्णोपकणिका (2-61), इउ- कइउल्ल स्तोकम् । 2-21), कायपिउच्छा या कायपिउला-कोकिला (2-30),
रिणउक्करणो वायन (4-27) रिण उक्को-तूपणीक (चुप्पा (6-27), इऊ- विकरिन नप्टम् (7-72) डा- पडिएल्लि ग्रो-कृतार्थ 6-32) । पूरे कोश मे यही एक शब्द है। उदाहरण
की गाथाओ मे इस विवृति का प्रयोग प्राय हुमा । निविभक्तिक होने के कारण
मूल शब्द मे इस का व्यवहार कम हुआ है। इग्रो- कमिग्रो - उपमर्पित (2-3), कम्हिग्रो-मालिक (2-8),
कसणसिनो बलभद्र (2-23), कु डिग्रो-ग्रामाधिपति. ( 2-37),
खडइग्रो-सकुचित (2-72), चुण्णइग्रो-चूर्णाहत (3-17) | ईअ- प्रोसरीय अधोमुखम् (1-171), बीअनो-प्रसनवृक्ष (6-93) ,वीअजयणं
(6-93) मीन -समकालम् (6-133), वीस-विधुरम् (6-93)। ईग्रा-रणीयारण-बलिघटी (4-43), सरलीया-एक कीडा (8-15) । ईड- सीडया झडी (8-34) । ईउ- वच्छीउत्तो-नापित (7-47), सीउग्गय-मुजातम् (8-34) ईयो- अहिरीयो कान्तिहीन (1-27), औग्गीयो-नीहार (1-149)
प्रोमीग्रो-अधोमुख (1-158), छाईयो देवी-माता (3-26), घूमद्धयमहिमीयो-कृत्तिका (5-62), पप्पीग्रो-चातक (6-12) इत्यादि । उग्र, उपग्र ऋजु (1-88), उपक्किम पुरस्कृतम् (1-107), उग्रचित्तो-अपगतः
(1-108) उपरी-शाकिनी (1-199), उग्रह पश्यत् (1-198), उपहारी
दोग्धी (1-108) इत्यादि । उग्रा - उपाली अवतम (1-90), उच्छुपार-छिपा हुआ (1-115), उन्मुग्राग-दूघ
का उफान (1-105), कोउपा-कडे की आग (2-48)। उइ- सइ तगम् उत्तरीयम (1-103), अरुइग्रा-उत्कठा (7-8), उण्णुइअो-हुकार.
(1-132)। उई- कोमुर्द-मापूर्णिमा (2-48), छंकुई तथा छुई-केवाच-(3-24) । उठ- पुउपा-तुम्बीपात्रम् (1-112)
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उऊ- कुल-नीवी (2-38) उप्रो-ग्रोहयो अभिभूतः-पराजितः (1-158), कोल्हुप्रो-ईख पेरने का कोल्हू
(2-65 ', झायो-मशक (3-54), झेडप्रो-कन्दुक (3-59), पउग्रो-दिनम्
(6-5) । का- जूनप्रो-चातक (3-47), गिहूप्र-सुरतम् (4-26), पू-दधि (6-56),
मूप्रलो-मूत्रल्लो मूक (6-137) । प्रा-जपा-यूक (1-139). पूग्रा-पिशाचगृहीता (6-54), कइ- सूइप्रो-चाण्डाल (8-39) । कई- सूई मजरी (8-41)। को- चूनो-स्तनाग्र (3-18), तूप्रो-इक्षुकर्मकर (5-16), तुडूमो-जीणंघट'
(5-15), दो हूा-शव (5-49), पुरुहूरो उल्लू (6-55), फूअो-लोहकारः
(6-85) एम- अाहेअनो-भ्रान्त (1-21), मेप्रज्ज-धान्यम् (6-38), मेरो असहन
(6-38) वेअल्लं-मृदु (6-75) । एमा-केया-रज्जु (2-44), केआरबागो-पलाश (2-45), खेालू-असह्य (2-77)
पेसाल-प्रमाणम् (6-57), वेनारिया-केश (6-95) । एइ- प्रारेइन मुकुलितम् (1-77), पावरेइया-करिका (1-71) उवएइअा-मद्य
परिवेषण भाण्डम् (1-118) विभेइम -सूच्याविद्धम् (7-67) । एउ- णेउड्डो-सद्भाव' (4-44), एऊ- केऊ कन्दः (2-44), एप्रो- छेनो-अन्त (3-38), साहिविच्छेप्रो-जघनम् (4-24), परेप्रो-पिशाचः
(6-12), सेप्रो-गणपति (8-42) । प्रोप-प्रोन वार्ता (1-149), प्रोग्रग्गिन-अभिभूतम् (1-72), प्रोप्रग्विन-घ्रातम्
(1-162) श्रीन को-गजितम् (1-154), प्रोअल्लो-पर्यस्तः-(1-165) श्रीपा-प्रोग्रारो-ग्रामाधीश. (1-166), प्रोप्राली-खड्गदोष' (1-151), प्रोग्रालो.
अल्प श्रोत • (1-151), प्रोग्रावलो-बालातप (1-161)। सोइ अोइत्त -परिधानम् (1-155) पोइल्ल-प्रारूढम् (1-158), कोइला-काष्टा.
गार. (2-49), जोइप्रो-खद्योत (3-50) ।
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222 } प्रोई- कुड्डगिलोई-गृहोघा (2-19), घम्मोई-गंडुत्संज्ञकतुणम् (2-106), नोई
विद्युत (3-49) प्रोड-कोटा-करीयाग्नि (2-48)। प्रोप्रो-जोरो-चन्द्र (3 48), ढोग्रौ-दान्हस्तः (लकडी का चम्मच) (6-11),
योयो-रजकः (5-32), दुरालोमो-निमिरम् (5-46), पोयो-धववृक्षः (6-81)
दो स्वरो के प्रापसी संयोग के अतिरिक्त देशीनाममाला की शब्दावली मे तीन-तीन और क्ही-कही चार-चार म्बरो का एक संयोग मिलता है । ऐसे शब्दों को देखकर आश्चर्य मे पड जाना होता है। दो स्वरों का एक साथ किया गया उच्चारण ही अत्यन्त कठिन होता है फिर तीन-तीन या चार-चार स्वरो का एक साथ उच्चारण कठिन नहीं, असम्भव मा लगता है । ऐसे स्वर सयोगो को देखते हुए, एक मभावना की जा सकती है- मध्यकालीन भारतीय प्राय भागो मे व्यजनों के स्गन पर न्वर के उच्चारण की प्रवृत्ति जोर पकटती जा रही थी, इस प्रवृत्ति को लगभग सभी वैय्याकरणो ने लोक मापा का प्रभाव बताया है। नव लोक भाषा के प्रभाव से ग्रस्त तत्सम शब्दो मे व्यजनो के उच्चारण की प्रवृत्ति नही रही तो म्वय लोकमायायो मे व्यजनी का उच्चारण बनाये रन्वना कहाँ तक उपयुक्त होता । मभवत प्राकृतीकरण की इसी प्रक्रिया में कुछ देशी शब्दो के व्यजन-उच्चारण को समाप्न ही कर दिया गया होगा । ऐसे शब्दो का निश्चित ही प्राकृतीकरण किया गया है, क्योकि ऐसे शब्द मामान्य जनता के बोलचाल के शब्द नहीं हो सकते । इस गेटि के कुछ वर-मयोगो के उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं
अअग्र - मग्र-शिला (8-46) प्रयाई - मनाई-शिगेमाला (6-115 1 अडग्र - कडगंको-निकर (2-13) 1 अइया - पोग्रडया निद्राकरीलता (6-63) । प्रहर - काटल्ल-स्तोक (2-24)। अडग्रो - वडग्रो-पीत (6-34)। प्रटन - कटन-प्रधानम् (2-56)। मायग्रो - पाणाअग्रो-श्वपचः (6-38)। पाटन -- पवहाइग्र-पागे बढा हृया (6-34), पाइअवदन विस्तार
(6-38)
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[ 223 प्राइमा पत्तपसाइग्रा-पूलिंद के सिर पर रखा हुआ पत्ते का होना
(6-2)। प्राईग्रो -- छाईप्रो-देवी-भाग (2-26) : प्राउप्र - पाउप्र-हिमम् (6-38) । भाउमा - माउप्रा-सखी (6-147) । इग्रयो - आसिप्रो-लोहमय. (1-67), खिलुत्तहिरो भ्रान्तः
(7.63) उप -उपग्र-ऋजु (1-88)। उइया - एअरुइग्ना-उत्कठा (6-8)। उइग्रो-उण्णुइग्रो-हकार, (1-132} 1 उउयो - कुउपा-तुम्वीपात्रम् (2-12)। ऊप्रयो - जूअनो-चातक' (3-47) । एइ - विभेइन -सूच्याविद्धम् (7-67) । एइग्रा - पावरेइया-करिका (1-71)। प्रोग्रयो -तोअग्रो-चातक (5-18) प्रोग्रयो - प्रोग्रामो-ग्रामाधीश. (1-166), पोमाओ-मामप्रधान
(6-60) श्रोइन - पहोइन-पर्याप्तम् (6-26) । श्रोइया -~- पोइशा-निद्राकरीलता (6-63)। श्रोडओ - छोडो-दास (3-33), पोइनो-हलवाई (6-61) जोयो
जुगुनू (3-50)। श्रीउप्रो - पोउपा-करीषारिन (661) : चार स्वरो के एकत्र संयोग
अएइमा -- उवएइअा-पद्यपरिवेषणभाण्डम् (1-118) प्रोग्रामो - प्रोपाप्रमो-अस्तसमय (1-162) । प्रोग्रइआ - पोमझा-पोई नामक लता (6-63) ।
स्वराघात
स्वराघात वस्तुतः किसी भाषण प्रक्रिया को अंग होता है। इसका सभ्यता निर्धारण किसी बोली जाने वाली भाषा मे ही किया जा सकता है। देशीनाम. माला की शब्दावली प्रति प्राचीन भाषण प्रक्रिया से सम्बन्धित है। इसका व्यवहार म. भा मा. काल मे प्रायः हुना है । इसका प्राप्त लिखित रूप इतना क्लिष्ट है कि
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224 ] इसके मात्र लिखित भाषा होने की विक सभावना है। अपने लम्बे लम्बे एव अटपटे स्वर मयोगो के कारण किमी जीवित-भाषा से इसका सम्बन्ध रहा होगा, ऐना कह पाना सभव नहीं है। इसमे स्वरावात का निर्धारण म भा श्रा के अनुगमन पर किया जा सकता है । म भा था प्राकृत और अपभ्र श भापाए बलाघात प्रधान नहीं नहीं। वैदिक भाषा का जटिल स्वर-विधान, ब्राह्मण काल तक टीना पड़ने लगा था। सस्कृत में, यह विल्कुल समाप्त ही हो गया। यही स्थिति म भा पा की भी रही । इन्ही की परम्परा में विकसित या भा. या विशेषतया हिन्दी भी बलाघात प्रधान भाषा नहीं है। परन्तु जिम प्रकार हिन्दी मे कुछ विशेष प्रकार के शब्दो मे बलाघात निश्चित है, उमी प्रकार ध्वनि-विकारो के अध्ययन से हिन्दी की पूर्ववर्ती भापात्रो से सम्बन्वित 'देश्य' शब्दावली मे भी वलावात के नियमो को ढूंढा जा सकता है।
देशीनाममाला की शब्दावली में बलाघात-निर्धारण निम्नत्पो मे किया जा सकता है -
(1) यक्षरात्मक मनायो तथा विशेषणो मे स्वराघात प्रथम अक्षर पर
पडता है- दिन-दिवस पूग्र-दधि, फूअ-लोहारः इत्यादि । (2) त्र्यक्षरात्मक मज्ञायो श्रार विशेषणो मे प्रवृत्ति प्रथमाक्षर से स्वर पर
ही बलावात टालने की हैरिविक्रय-रिगिम , गिगिणं इत्यादि ।
(3) चतुगक्षरात्मक या अधिकालरात्मक शब्दो या समस्त शब्दो मे, स्वरा.
वात प्रथम स्वर पर न रहकर मव्यस्वर या उपान्त्य स्वर पर रहता
पडिअमन, पडिग्र तप, पहिअली, फोहिय, भयवग्गामो, मयरिणवामो इत्यादि।
(4) मयुक्त व्यजनों के पहले के 'ए' और 'नो' प्राय हम्बीकृत रूप में
उच्चरित होते हैं और बताघात सयुक्त व्यजन वाले स्वरी पर होता
है जैसेउक्कामिन, उपरो, एक्क् परित्लो, एक्कसाहिल्लो, दो सयुक्त व्यंजनो के एक के बाद प्राने पर बतागत प्राय अन्तिम मयुक्त व्यजन के स्वर पर होता हैन एक्वे कम।
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[ 225 ऊपर कुछ बलाघात के उदाहरण दिये गये हैं। जहां तक देशीनाममाला की शब्दावली मे बलाघात ढूढने का प्रश्न है, पग-पग पर नवीन समस्याएं उठ खडी होती हैं। यहा सक्षेप मे इस तत्त्व का भी विवेचन कर दिया गया है । मेरा तो दृढ मन्तव्य है कि इन शब्दो का बहुत अधिक प्राकृतीकरण किया गया है । जिस रूप मे ये सामान्य जनता मे बोले जाते रहे होगे, उसी रूप मे इनका सकलन नहीं किया गया है। दे. ना मा के व्यजन ध्वनिग्राम
देशीनाममाला के शब्दो मे व्यवहृत व्यजन ध्वनिग्राम पूर्ण रूपेण म भा प्रा. के व्यजन ध्वनिग्रामो का अनुसरण करते हैं । ऋग्वेद प्रातिशाख्य तथा यजु. प्रातिशाख्य मे कुल व्यजन वर्णो की सख्या 37 मानी गयी है। इनमे 25 स्पर्श, 4 अन्त स्थ तथा 8 ऊपम व्यजन परिगणित दिये गये हैं। महर्षि पाणिनि ने अपने महेश्वर सूत्र मे कुल 33 व्यजन वर्ण माने, इनमे 25 स्पर्श, 4 अन्त स्थ और 4 ऊष्म वर्ण सम्मिलित हैं । पाणिनि ने प्रातिशाख्यो मे व्यजनो के बीच गिने गये विसर्ग, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय तथा अनुस्वार को अपने प्रत्याहार सूत्र मे नही सम्मिलित किया। पाणिनि की ही मान्यता संस्कृत मे दृढ हो गयी। आगे चलकर भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में प्राकृतो मे व्यवहृत व्यजनो पर विचार किया, उन्होने प्राकृतों मे श्, ष, ड ज और न् का अभाव देखा अत इन 5 को निकालकर उन्होने प्राकृत व्यजनो मे केवल 28 व्यजनो की ही गणना की, वे इस प्रकार हैं
क ख ग घ्, च छ ज झ, ट् ठ् ड् ढ् ण, व थ् द् धू प्फ ब् भ् म्
य, र ल व्, स् ह । इन व्यजन ध्वनियो मे 'य' ही एक ऐसी ध्वनि है जिसका व्यवहार शब्दादि मे प्राय. नही होता (केवल अर्धमागधी को छोड कर) शब्दों के मध्य मे शुद्ध रूप में तथा अन्त मे य श्रुति के रूप मे इसका उच्चारण होता है । शब्दो के आदि में अर्धमागधी के कुछ अपवादो को छोडकर सर्वत्र ‘ज्' के रूप मे उच्चरित होता है।
1. 2.
ऋ प्रा 10 'हयवरट् लण जमघणनम् झ भन, धढघष, जवहदश् रवफछयचटतम् पय् शषसर
हल ।"
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226 } नामिक्य ध्वनियो ड, ज और न् का भी अस्तित्व कुछ प्रादेशिक भापानो और उनके । ग्रन्यो' में मिलता है, परन्तु प्राय इनका व्यवहार नही ही हुआ है।
___ म मा प्रा के उपयुक्त व्यजन ध्वनिग्रामो का प्रयोग देशीनाममाला के शब्दो मे भी हुआ है । आदिम य का ज तथा उसका अप्रयोग ड, ज, न जैसी अनुनामिक ध्वनियो का अभाव तथा ऊप्म श, प प्रादि का अप्रयोग म. भा पा की सारी विशेषताएं इन शब्दो मे देखी जा सकती है। इनमें प्रयुक्त व्यजन ध्वनिग्रामो की प्रकृति का विवेचन इस प्रकार है।
क-कोमलतालव्य या कण्ठ्य' वाम अघोप, अल्पप्राण, निरनुनासिक म्पर्श ध्वनि है । वैदिक मापा मे यह शुद्ध कण्ठ्य ध्वनि थी। मम्कृत मे इसका उच्चारण जिह्वामूल से हटकर जिह्वा के पश्च भाग और कण्ठ के अन्तिम ऊपरी भाग से होने लगा। या भा प्रा. मे इसका उच्चारण जिह्वापश्च और कोमलतालु से होने लगा है । यही उच्चारण म भा पा मे भी रहा होगा । दे ना. मा. मे व्यवहृत 'क' ध्वनिग्राम म भा ग्रा. के ही उच्चारण का अनुसरण करने वाला माना जा सकता है । म भा. प्रा. मे किमी भी व्य नन ध्वनिग्राम की शुद्ध स्थिति प्रादि और मध्य में ही मिलती है। व्यजनान्त पदो का यहा सर्वथा अभाव है। सभी पद स्वगन्त ही हैं, अत व्यजन ध्वनिग्रामो की शुद्ध स्थिति अन्त में नहीं मिलती। यह विशिष्टता दे ना मा के शन्दो की भी है। प्रा भा या का 'क्' ध्वनिग्राम देश्य शब्दो मे सर्वथा सुरक्षित है । जैसे
___कमलो-पिठर (2-54), कराली-दन्तपवनकाप्ठम् (2-12) कराइणीशारमनिता (2-18)।
म. भा या मे प्रा भा पा के क, वल, स्क, क्व आदि के स्थानीय ध्वनिनाम 'क' का व्यवहार हुआ है । परन्तु अनात व्युत्पत्तिक 'देण्य' शब्दो मे इस लियम की परिणति नहीं देखी जाती ।
देशीनाममाला के शब्दो का मध्यवर्ती 'क' ध्वनिग्राम म भा पा के 'क्' या 'क' का ही अनुमरण है जैसे -
क- अकानि पर्याप्तम् (1-8), अकारो साहाय्यम् (1-9), कवेली-अशोकवृक्ष (2-12), ककोड (2-7)।
1. दान के अन्य पठमग्उि -कीनिलता आदि में बनस्वार को परमवणं बनाकर इ जन का
मणिय म्बीकार किया गया है। श्री मायाणी ने पाण्डलिपि के जनम्बार को निष्कारण पनमदग्णिन कर मदिन गया है मगया उममे ह ज और न का अस्तित्व मदेहा. पद है। कालिना मादि में परमवणं का म्यान मस्कृत तत्मम के यनकरण पर है।"
- यपध्र शभाषा का मध्ययन-4 76, डा वीरेन्द्र श्री.
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[ 227
क्क–कक्कसारो-दगोदन (2-14), एक्केक्कम् - अन्योन्यम् ( 1 - 145 ) (जुग्रा) 1-159) श्रादि ।
ओक्कणी - यूक
शब्दो के उपान्त मे 'क' 'क्क' ध्वनिग्राम के प्रयोग के कुछ उदाहरण ये हैंकइ को - निकर (2-13 ) प्रक्का - भगिनी ( 16 ) प्रक्को - दूत ( 1-6 ) । विशेष - देशीनाममाला मे 'कु' ध्वनिग्राम से प्रारम्भ होने वाले शब्द संख्या मे
312 है।
ख
कण्ठ्य या कोमलतालव्य, श्वाम ग्रघोष, व्यजन ध्वनिग्राम है । दे ना मा की शब्दावली मे
महाप्राण इसकी भी
।
श्रौर मध्यवर्ती स्थिति ही मिलती है अन्तिम स्थिति 'उपान्त' रुप मे ही
सभी शब्दो के स्वरान्त होने के कारण इसकी मिलती है । इस कोश मे 'ख' से प्रारम्भ होने
वाले शब्दों की संख्या 81 है ।
तथा निरनुनासिक, केवल प्रारम्भवर्ती
श्रारम्भवर्ती स्थिति मे यह दो रूपो मे मिलता है
( 1 ) म भा श्रा का मूल 'ख्' ध्वनिग्राम - जैसे - खट्टिक्को-शौनिक. (2-70) खडक्की - लघुद्धारम् ( हिन्दी खिडकी ) (2-71), खप्परो- रुक्ष ( हिन्दी खपड़ा ) (2-69) I
(2) प्रा भा. आ के 'स्क' का स्थानीय ख-जैसे खघुग्गी ८ स्कन्धाग्निस्थूलेन्वनाग्नि ( 2-70 ), खवममो स्कन्वमृश् या स्कन्ध-अस-बाहु. (2-71), खवयट्टी [स्कन्वयष्टि - वाहु ( 2-71 ), प्रा भा श्रा की इस कोटि के कुल तीन ही शब्द हैं ।
प्रा भा ग्रा के 'क्ष' स्थानीय 'ख' दे ना. मा किसी भी शब्द मे प्रारम्भवर्ती स्थिति मे नही मिलता । केवल मध्यवर्ती स्थिति मे आया है ।
मध्यवर्ती स्थिति मे इस कोश के शब्दो मे आया हुआ 'ख' म. भा. झा के 'ख' 'क्ख' का अनुगमन है ।
ख - भखरो - शुष्कतरु ( 3-54), झखो - तुष्ट (3-53 ) 1
क्ख - ततुक्खोडी - वायकतन्त्रोपकरण (5-7) खिक्खिरी - यष्टि ( 2-73), खणुक्खुडिया - घ्राणम् ( 2-76 ) ।
क्खक्ष - चक्खुरक्खणी - लज्जा ( 37 ), गक्खत्तणोमि - विष्णु ( 4-22 ), क्खLक्ष्य — हइलक्ख- रति सयोगः ८ रतिलक्ष्य ( 7-13 ) ।
क्खत्क्ष - हक्खुत्त - उत्पटित उत्क्षिप्त ।
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228 ]
वज [क -- गिक्त्रो चोर काञ्चनम् निष्क
(4-47 ) ।
विवलभी-स्थानम् ८ विष्कम्भ. ।
(7-88 ) ।
बन्द - पडिलवी - जलवहनम् प्रतिस्कन्बी (6-28)
इस प्रकार मध्यवर्ती स्थिति मे ग्राया हुआ 'क्ल' म भा ग्रा का पूर्णरुपेण श्रनुमरण करता है ।
ग----
यह कोमल तालव्य, नाद, घोप, अल्पप्राण, निरनुनासिक स्पर्शव है । देना मा में 'ग' से प्रारम्भ होने वाले 119 शब्द है । यादि, मध्य तथा उपान्त मे सर्वत्र इसकी स्थिति मिलती है ।
प्रारम्भवर्ती स्थिति मे इसमे मभा था. का 'ग' तथा प्रा. भा. आ. का 'प्र' प्रतिनिहिन मिलता है
गढो- दुर्गम ( 2-81), गलित्र - स्मृत (2-81), गवत्त - घाम (2-85) गग्र - गामणी ग्रामप्रधान ग्रामरणी (2-89), गामहरण - ग्रामस्थानम्-ग्रामस्थानम्
ग
-
(2-90)
मध्यवर्ती स्थिति -
प्र. भा द्या. ग गामगोहो- ग्रामप्रधान ( 289 ), गागेज्ज - मथित (2-88), यागेज्जा नवपरिणीता ( 2-88 ) 1
प्राभा या क7 ग रहगेल्ली - श्रभिलपित रतिकेलि (7–3), अगोदानव. काय ( 1-6 )
घ
म. मा. श्री गा- खग्गियो- ग्रामेश ( 2-69). थग्गया - चचु ( 5-26 ) । मग्ग-अग्गवेो-नदीपूर [ अग्रवेग ( 1-29) 1
ग्न7ग्ग-प्रग्गिन - इन्द्रगोपकीट अग्निकाय (1-53), इदग्गी-तुहिन
इन्द्राग्नि (1-80 ) 1
दुग्ग - रमाहि गृहीत [रग्राहितम् (1-137) । द्गग्ग - श्रोग्गलो- J-uer dia Lezme (1–151) | गंग-गवारी [गगरी ( 289 ), सग्गो - पश्चात् मार्गत. (6 - 111 ) ।
यह कोमलतालव्य, नाद, घोष, महाप्राण, निग्नुनासिक स्पर्शं व्यजन ध्वनिग्राम है। दे ना मा मे 'घ' से प्रारम्भ होने वाले शब्दों की संख्या कुल 61
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[ 229 यान्म्मवर्ती 'घ' देश्य शब्दों मे अपने शुद्ध रूप मे मिलता है। कुछ तद्भव पादो मे यह 'ग' का स्थानीय है। प्रा भा या 'घ'-घडी-गोप्ठी (2-105), घारो प्राकारः (2-108) प्रादि । मध्यवर्ती स्थिति
घ-घघो-गृहम् (2-105). घघारो-भ्रमणशील (2-106) ग्घ-घग्घर - जघनस्थवस्त्रभेदः (2-107), अग्घाडो-अपामार्ग (बहेडा का वृक्ष) (1-108)
प्रा भा. प्रा. प्राग्य प्रग्घाणो-तृप्त:पाघ्राणः (1-19), द्घ7ग्ध - उग्यायो-सघात (उद्घात' (1-126), उद्धृढ ट-पुसित
उद्घुष्टम् (1-99) 'घ' का उपान्त्य प्रयोग भी कम ही है। चवर्गीय व्यंजन ध्वनिग्राम
प्राचीन वैयाकरणो ने क वर्ग से लेकर पवर्ग तक के सभी व्यंजनों को स्पर्श सज्ञा दी थी --'कादमामावसाना स्पर्शाः" । स्पर्श वर्णों के उच्चारण मे श्वासवायु को मुख वियर मे प्रागमन अवरोध और स्फोटन इन तीन स्थितियो से गुजरना पडता है । प्राधुनिक भापा वैज्ञानिक सभी वर्गीय पचम वर्गों तथा चवर्गीय व्यजनो को स्पर्श व्यजन नही स्वीकार करते । वे वर्गीय पचम वर्णों को अनुनासिक तथा चवर्गीय व्यजनो को स्पर्श सघर्षी मानते हैं । चवर्गीय व्यजनो के उच्चारण मे श्वासवायु को सघर्प कर निकलना पडता है, अत इन्हे स्पर्श संघर्षी ध्वनियो की कोटि मे रखना ही उपयुक्त माना गया है । दे ना मा के शब्दो से स्पर्श सघर्षी ध्वनियो की प्रकृति निम्न प्रकार है
यह तालव्य, श्वास, अघोष, अल्पप्राण, निरनुनासिफ, स्पर्श सघर्षी ध्वनि है । दे ना मा मे 'च' से प्रारम्भ होने वाले कुल 116 शब्द हैं । देश्य शब्दो मे प्रारम्भवर्ती 'ज' प्रा. भा पा के ही 'च' का अनुगमन है-जैसे
चउक्क-चत्वरम (3-2), एकप्पा-त्वक् (3-7), चडुला-काचनशू खलालम्बित. रत्नतिलकम् (3-8) ।
प्रा भा. पा के 'क' और 'च्य' के स्थानीय प्रारम्भवर्ती 'च' का देश्य शब्दों मे सर्वथा प्रभाव है।
मध्यवर्ती और उपान्त रूप मे इस कोश के शब्दो का 'च' प्रा सा मा. के 'च' तथा म. भा प्रा के 'च्च' का अनुगमन करता है।
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230 ] च-चत्रप्पर-असत्यं (3-4), चिरिचिरा-जलाधारा (3-13) ___उपान्त मे चिंचा-अम्लिका (3-10), चिचिणिचिंचा'-अम्लिका (3-10) । च्च - उच्चारो- विमल (1-97), उच्चु चो-दृप्त- (1-99), विच्चोग्रयो-उपधानम्
(6-68)। उपान्त मे - चिच्चो-चिपिटनास {3-9), चिच्ची-हुतासन (3-10), चोकुच्चो
सस्नेह (3-15)। प्र भा. या त्याच्च-कच्च-कार्य [कृत्य (3-2), पच्चुत्थ-बोया हुआ । प्रत्युप्त
(6-13), मच्चिलन -सत्य । सत्य (8-14)। र्चाच्च-चच्चा-स्थापक चर्चा (3-19) चच्चिक्क-भण्डित चचिका
(3-4) म्न27च्च-पच्चुहिन प्रस्तुत (दुहा हुग्रा) (6-25) |
त्पाच्च-उच्चारित्र । उत्पाटित (उखाडा हुआ) (1-14)। ये सभी विकार म ना आ के अनुरूप ही है ।
यह तालव्य, श्वास, अघोप, महाप्राण, निरनुनासिक, स्पर्श-सघर्षी ध्वनि हैं। दे ना मा मे इससे प्रारम्भ होने वाले शब्दो की सस्या 82 है। देश्य शब्दो मे प्रारम्भवती 'छ म भा पा के 'छ' का अनुगमन है । तद्भव शब्दो मे यह प्रा मा या 'क्ष' 'प' 'ग' का स्थानीय होकर पाया है। उदाहरण निम्न हैछ- डल्लो-विदग्ध (3-24) उदी शैया (3-24),
छटा-विद्युत (3-24) छवडी-चर्म (3-25)। प्रा मा पा पाछ छप्परगो-विदग्ध 7पटप्रन (3-24) ।
माछ-छल्ली-बक्श न्य (3-24), छमलो:-सप्तच्छद [शाल्मलि (3-25)। क्ष72 -- छुरमडी-सरहात । क्षुरमदं (नापित) (3-31)
छुरहत्यो-नापित झरहस्त (3-31)
छोहो- ममूह क्षोभः (3-39)। मध्यवर्ती स्थिति और उपान्त मे यह 'ई' और 'च्छ' रूपो मे मिलता है।
सबदी मन्द में 3-3 या1-4 दार एक ही ध्वनिग्राम का प्रयोग 'देश्य' शब्दो की मामान्य विगला हैमेन्दों का मन ट दना या उन्हें किसी भाषा विशेष से सम्बद्ध कर पाना
दन्हही नहीं यमम्मद माय है। पबितन मा माना है कि नवीन वम्त है।
मनपटर सेमी यापन किया जा मनसा है । म मा या. में प्री मा.या साछ के मी उदाहरण मिलते है जैसे छहा मुघा ।
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[
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छ - हिंछयो देह (3-36) छिछटरमण-चक्षुस्थगनक्रीडा (3-30) ।
छिछोली-लघुजलप्रवाह (हिन्दी छिछला) (3-27) च्छ- पडिच्छग्रो-समय : (6-16), पडिच्छदो-मुखम् (6-24), पडिच्छिणा
प्रतिहारी (6-21)। उपान्त मे '-प्रच्छ-प्रत्यर्थ (1-49), उच्छुच्छ्-दृप्त (1-99)
उच्छ-वात (1-85). उच्छुच्छ-दृप्त (1-99) अादि । प्रा. भा. या क्षाच्छ-उच्छिवडण-निमीलनम्। अक्षिपतनम् (1-39) ।
अच्छिहरुल्लो-हे प्य [क्षिहर (1-41)। उपान्त मे भी-काणच्छी-काणाक्षिदृष्ट कारणाक्षि (2-24) । प्रा भा पा-त्माच्छ-उच्छगिन -पुरस्कृत ! उत्सगित (1-107) वच्चीउत्तो--नापित वात्मीपुत्र (7-47), (वच्छीवो-गोप [वत्सीय
(7-41)। प्रा भा या घाच्छ-पच्छेणय Lपाथेय (6-24) ।
यह तालव्य नाद, घोष, अल्पप्राण निरनुनासिक स्पर्श सघी ध्वनि है । दे. ना. मा. मे ज' से प्रारम्भ होने वाले 73 शब्द हैं। इनमे 13 शब्दो का 'ज' प्रा भा पा के 'य' का तथा 8 शब्दो का 'ज' प्रा मा पा के 'ध' का स्थानीय है। म भा प्रा की ही परम्परा मे दे ना मा मे भी 'य' से किसी शब्द का प्रारम्म नही हुअा है । शव्दादि मे यह 'ज' के रूप मे आया है।
देश्य शब्दो के प्रारम्भवर्ती 'ज' की स्थितियो के उदाहरण इस प्रकार है__ज - जगल-पकिला सुरा (3-41 ) जच्चो-पुरुष (3-40) जडिन-खचित (3 41) प्रा मा पा गाज-जक्खरत्ती-दीपालिकाध्यक्षरात्रि. (343), जवनो-यवा
ड कुर (3 42), जोवणणीर, जोन्वाणवेन,
जोत्रणोवय वय परिणाम ! यौवन. .. - (3-51 ) । प्रा. भा आ ज्याज-जोइक्खो दीपक ज्योतिष्क (3-49),
जोई- विद्य त ज्योति (3-49), जोइस-नक्षत्रम्।ज्योतिष
(3-39) मध्यवर्ती तथा उपान्त्य 'ज' 'ज' तथा 'जज' दो रूपो मे मिलता हैमध्यवर्ती-ज-प्रजराउर-उष्ण (1-45), खजणो कर्दम (1-69) ।
1
उपान्त में '' भी 'च्छ' रूप में ही मिलता है। यह म.भा मा से अलग स्वतन्त्र प्रयोग है।
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232 ]
प्रा मा प्रा याज अजुअलवण्णा-अम्लिकावृक्षाप्रयुक्पुण (1-48),
अजुग्रो-सप्तच्छ। अयुक (1-17) | उपान्त मे-ज-अोहज-नास्तीतिभरिणत गर्भाक्रीड़ा (1 156), गजो गाल (2-8)
मध्यवर्ती-उज्जला बलात्कार. (1-97), उज्जूरिय-क्षीण (1-112)
उपान्त मे-अवरिज्जो-अद्वितीय (1-36), वज्जा-अविकारः (7-32) मध्यवर्ती 'ज्ज' मे निहित हैप्रा मा श्रा-----प्रज्जो जिन आर्य (1-5), मज्जा सीमा मर्यादा (6-113) प्रा. भा पा.-ध- खज्जोयो नक्षत्रम्, खद्योत (2-69), खिज्जिय उपालम्म
Lखिद्य (2-74)। प्रा मा. प्रा - ज- गज्जरणसद्दो मृगवारणध्वनिः गर्जन शब्दः (2-88)
मज्जि अवलोक्तिमाजित (6-144) प्रा मा आ .- ज्य-पेज्जल-प्रमाण (माप) Lप्राज्य । 6-57) । प्रा भा मा. - ज-भाउज्जनातजाया (6-103)। प्रा. भा - ह्य-हिज्जो कत्य (बीता हुआ क्ल) Lह्य. (8-67) ।
यह तालव्य, नाद, घोष, महाप्राण, निरनुनासिक स्पर्श सवी व्वनि है। द ना मा मे इनमे प्रारम्भ होने वाले पुल 54 शब्द हैं। इनमे 53 शब्दो मे प्रारम्भवी 'झ' म मा श्रा. के 'झ' का अनुगमन करता है। शेष एक शब्द मे यह प्रा मा प्रा 'ल' का स्थानीय है। माग्भवती-- -
मक्कियं - वचनीयम् (3-55), भडी-निरन्तरवृष्टि. (3-53)। प्रा मा या क्ष7झ-भपणी-पक्ष्माक्षप् (3-54)। मध्यवर्ती 'म'-भ और 'झ' दो रूपो मे मिलता है
-झनझलिया-भोलिका (3-56), झममुमय-मनोदुःख (3-58) | दे ना मा के शब्दो मे उपान्त्य "क' बिल्कुल ही नहीं मिलता।
मध्यवर्ती - प्रजमम्सं-प्रारप्ट (1-13), प्रज्मासिय-दृप्ट अवज्झम-कटी
(1-56), भजकरी- चारण डालर्याप्ट (3-54) मन्यव 'ज' में निहित है - प्र. ना प्रा ह्या-प्रगुन्नहरो-रहस्यभेदी/गुह्यहर प्र उपसर्ग-त्रिविक्रम) (1-43) ।
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[ 233 प्रा मा या -~-ध्य-मज्झनिय मध्य दिनम् (दोपहर) मध्य दिन (6-124),
मजिक्रमगड-उदरम।मध्यमगण्ड या काण्ड (6-125) उपान्त मे मिलने वाले -'झ' के उदाहरण ये हैं
अज्झा - असती (1-50), अविप्रज्झा नववधू (1-77), सइज्झो प्रातिवे
निमक-हिन्दी नाझा अवधी मझ्यिा (8-10)। एक शब्द मे उपान्त्य ज्झ में निहित है
प्रा भा या ध्य-- प्रोझ-अपवित्र/अवध्यम् (1-48)। मूर्यन्त्र व्यञ्जन ध्वनिग्राम---
दे ना मा. की मूर्धन्यव्य जनो विपत ट, ठ, ड, ढ, मे प्रारम्भ होने वाली शब्दावली, घनादिकाल से प्रचलित तथा प्रार्य भापात्रो द्वारा प्रार्येतर भापायों ने गहण की गयी शब्दावली का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट करती है । जहा तक मूर्धन्य व्यंजन ध्वनियामो का सम्बन्ध है इगे परम्परा के सभी विद्वानो ने एकमत से आर्यतर भापायो विशेषत द्रविड कल की भापायो की ध्वनियो से गृहीत माना है। भा या भा के मर्वप्राचीन उपलव्य यन्यो 'वेदो तथा ब्राह्मणो मे प्राप्त मूर्धन्यवर्णयुात शब्दो को या तो द्रविड भाषाम्रो का ऋण शब्द माना गया या द्रविड प्रभाव में दन्यदों का मूर्वन्यीकृत प । ऋण शब्दो मे वेद प्रयुक्त अणु, अरणि, कटुक, कूट, कुणाल, कुण्ड, गण इत्यादि तथा ब्राह्मण प्रयुक्त अटवी, आडम्बर, खड्ग, तण्डुल मटकी, मर्कट इत्यादि शब्द है । ' दन्त्य ध्वनियो के मूर्धन्यीकृत रूप के उदाहरण विकट, कीकट, सकट, प्रकट, गाढ आदि हैं। निष्कर्ष रूप मे श्री चटर्जी का अभिमत है कि- 'हम देखते हैं कि जैसे जैसे प्रार्य भाषा का विकास आगे बढता है वैसे-वैसे दन्त्यो की जगह मूर्धन्य ध्वनिया बढती जाती हैं। इस विपय में हम अवश्य बाहरी, सम्भवत द्रविड प्रभाव की कल्पना कर सकते हैं ।"2 इस सन्दर्भ में डा० वीरेन्द्र श्रीवास्तव का भी अभिमत उल्लेखनीय है- 'भारतीय आर्य भाषा में मूर्धन्य ध्वनिया सर्वथा नही थी यह नहीं कहा जा सकता। द्रविड भाषामो में टकारादि कोई शब्द नही, पर सस्कृत मे कुछ शब्द हैं । अत इसको मानने में कोई प्रापत्ति नहीं हो सकती कि प्रा भा. प्रा. मे अपनी निसर्ग मूर्धन्य ध्वनिया भी थीं जमे-टक, टकरण, टिट्रिम, टिप्पणी, टीका, घट, वट, पट, डमरु डिंभ, डीन इत्यादि पौर द्रविड प्रभाव या अन्य विकास शृखला के प्रभावो से गृहीत तथा मूर्धन्यीकृत
दि मोरिजन एण्ड डेवलपमेण्ट भाव वगाली लेंग्वेज' ए. फे चटर्जी, पृ. 42। 2. भारतीय आर्य भापा और हिन्दी-चटर्जी, पृ. 861 3. अपभ्र श भाषा का अध्ययन, पृ. 861
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ध्वनियां भी।" दे ना मा. की मूर्धन्य ध्वनिया विशेपत ट, ठ, 3, 8, भा प्रा. भा. की निसर्ग मूर्वच व्वनियो के अविक ममीप है, उस कोटि के शब्दो मे से अधिकाश शब्दो का सम्बन्ध द्रविड भापायी ने न होकर सामान्य रूप से विकसित परम्परित ध्वनियो ने है । इस मदर्भ में डा वीरेन्द्र श्रीवास्तव का अभिमत उपयुक्त है।
मूर्धन्य, श्वान, बाघोप, अल्पप्राण, निरनुनासिक स्पर्णवनि है । दे. ना मा. में इससे प्रारम्भ होने वाले 21 शब्द है। इनमे एक भी शब्द ऐमा नही है जिसे 'तदभव' की कोटि में रखा जा सके । इन शब्दो का प्रारम्भवर्ती 'ट' ध्वनिग्राम प्रा. मा प्रा. के निमर्ग पिड मधन्य 'ट्' का ही अनुगमन करता है। प्रारम्भर्ती म्यिनि- टम्हारी-अरणिकुममम् (4-2), टमरो केशचय (4-1), वारो,-अवमग्न (4-2), टिप्पी-तिलकम् (4-3)। मध्यवर्ती स्थिति तय उपान्त में यह '' और 8' दो रूपो मे म भा. पा के ही 'ह' और 'ट्ट' का अनुसरण करता हैमध्यवर्ती ''-काली-कण्टकारिका ( 2-4), कटोल-ककोड (एक वृक्ष) (2-7), छिटटरमरणम्- व स्थगन क्रीडा (3-30)। मव्यवर्ती 'टे' मे प्रतिनिहित हैमा मा अा. 'ई'-अट्टयो-यात (1-10), कुट्टयरी-चण्डी (2-35), दृश्यातिरस्
कन्णिी (4-1) प्रा मा प्रा--तं-कट्टारी-क्षुरिका कत्तंगे (2-4), वूलीवट्टी-अश्व (धुरीयवर्तः
15-61), पट्टियो-प्रवर्तित [प्रवर्तित (6-26) 1 प्रा मा पा ----योट्टो-अपमृन अपहृतः (1-66), वोसट्ट-मतोल्लुठित विक
मित सि. है 4-256 (6-81)। प्रा. भा पा.-४-भट्टियो-विष्णु। भट्टेक (6-100)। प्रा ना पा ~च्च-रोट तन्दुलपिटाच्य (6-11) । उपान्त में 'ट'-टुटो-छिनकर (4-3), टेंटा- तम्थान (43), कुटी पोटल
(2-34)। - ~टमगेट-मेयरः (4-1), झोटी-अर्वमहिपी (3-59), कदाट___ नीलोत्पल (2-9)।
यह मृन्य, प्रवास, अघोप, महाप्राण, निरनुनामिक स्पर्ण ध्वनि है । प्रा मा प्रा.में उगसे प्रारम्भ होने वाले शब्दो की सस्था अत्यल्प है । ठक्कुर, ठार,
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[ 235 ठानिनी (प्राप्ठे मस्कृत कोश) ग्रादि जो शब्द हैं वे भी देश्य ही लगते हैं । यहा यह ध्वनि प्राय. दन्त्य व्यजनो के मुघन्यकृत रूप मे ही मिलती है । म मा श्रा में भी यह प्राय: मून्यकृन स्प मे ही अवहृत हुई है जैसे सस्कृत की 'स्था' धातु प्राकृत मे 'ठा' हो गयी है। दे ना मा मे 'ठ' ध्वनि से प्रारम्भ होने वाले कुल 9 शब्द
जिनमे कुछ ही शब्दो जैसे ठल्लो-निधन (4-5), ठिवक-शिश्नम् (4-5) मे ही यह ध्वनि शुद्र हप ने मिलती है । शेप शब्दो मे इसकी शुद्धता सदिग्ध है । इन सभी को 'न्य' के मधन्यीकृत रूप में देगा जा सकता है। पारम्भव स्थिति7 मा प्रा 8-ठरिय-गौरवित (4-6), ठिविश्न-ऊर्ध्वम् (4-6) । प्रा मा प्रा. स्थ76-ठविप्रा-प्रतिमा । स्थापिता (4-5), ठाणिज्जो-गौरवित
स्थानीय (4-5) ठाणो-मान स्थान (4-5)। मन्यवर्ती चिति-'' श्री 'ट्ठ' प्रा भा. आ. -ठ- फटकु ची- गले मे बधे वस्त्र की गाठ (2-18), कठिनो दौवारिक:
(2-15)
घ7ठ " गेंठमो-दक्ष स्थल के वस्त्र की गाठ यन्थि (2-13) मध्यवर्ती 'ट्ठ' मे प्रतिनिहित हैप्रा मा पा -सत-ऊहह । उपहसित (-1-140), प्रौहट्ठो। उपहसित (1-153)।
,, -स्थ - चदहिया-भुजशिसर।चन्द्रस्थिता (3-6) । ,, -ष्ठ- पिट्ठ त-गुदा-पृष्ठान्त (6-49), सुरजेठो-वरुण
सुरज्येष्ठ (8-31) , ,, -प्ट- रिटो-काक Lअरिष्ट (7-6) पीलुढ़ जलाहुमा/प्लुष्ट (6-51) , ,, -4- पत्तटो-बहुशिक्षित प्राप्तार्थ (6 69)। गन्दो के उपान्त मे 'ठ' ध्वनिग्राम अपने सर्वथा शुद्ध रूप मे प्राप्त होता है-जैसे
कठो-सूकर (2-51) गुठी-घू घट (2-90), गुठो-अघमय (2-91)
मेठी, मेठो (6-138)। 'ट्ठ' - ग्रगुट्ठ-अवगु ठव (1-6), णिविठे-उचित (4-34) 'दहिट्ठो
कथित्य. (5-35)।
उदाहरण के इन दोनो शब्दो की ध्वनिग्रामिक शुद्धता सन्देह से परे नही है। इन्हें मर्धन्यीकृत रूप में भी लक्षित किया जा सकता है। मारम्भवर्ती शुद्ध 'ठ' ध्वनिग्राम ठल्लो और ठिका दो ही शब्दो से मिलता है।
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236 ]
यह मूर्वन्च, नाद घोप, अल्पप्राण, निरनुनासिक स्पर्शवर्ग है । दे ना मा में डकार से प्रारम्भ होने वाले कुल 36 शब्द है । इन शब्दो मे 'ड' व्यजन ध्वनिग्राम अपने मूल तथा मून्यीकृत दोनो ही स्पो में मिलता है । एक शब्द डोपण (4-9) लोचन, मे यह प्रा भा पा के 'ल' का स्थानीय है । श्री पी वी रामानुज स्वामी 'डोग्रण' शब्द को स लोचन से निष्पन्न करते हैं।' प्रारम्भवर्ती स्थिति में 'ड'2 और 'ड' प्रा मा पा -ड- अडणी-मार्ग (1-16), अडयणा अडया-असती (1-18),
अडाडा बलात्कारः (1-64)। प्रा मा प्रा.-''- उट्टरपो-वृद्ध 11-123), उड्डसो-मत्कुणः (1-96),
उड्डहणो-चौर (1-101) । मध्यवर्ती-'इ' में प्रतिनिहित है प्रा भा प्रा -६- उड्डाणो-प्रतिशब्द Lउद्दारणो (त्रिविक्रम) स उद्वदन्(1-128) प्रा भा प्रा. - उम्मड्डा - बलात्कार ।उन्मर्द (1-97), डिड्डिरी भेक.
दर्दुर (4-9)। प्रा मा भा -त- कुड्ट-आश्चर्यम्।कौतुक (2-33), खड्डा-खानिः खात
(2-661 प्रा. मा. प्रा -6- कुटगिलोई-गृहगोवा । कुट-गिल (2-19) प्रा मा प्रा --स्य-गड्टी-यानगन्त्री (2-81) उपान्त मे 'ड' और 'ड' के उदाहरण इस प्रकार हैं---
-ट-अन्घाटो अपामार्ग (1-8), अण्डो-जार (1-18), अवडो
(1-16) - प्रायट्टी-विस्तार (1-64)!
यह मूर्यच नाद, घोष, महाप्राण तथा निरनुनासिक स्पर्श वर्ण है । दे ना. मा. में कार से प्रारम्भ होने वाले कुल 22 पाव्द हैं । इन शब्दो में एक भी शब्द
1 देना का ग्लामरी५.411 2. मध्याम्पिति मा '' यदी यहीं पा मा पा के 'ट' या स्थानीय झाकर भी व्ययत इमा
है -मानीस्ट् । प्रारत टार' मूत्र मी यही निर्दिष्ट करता है।
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[ 237 ऐसा नहीं है जिसका प्रारम्भवर्ती 'ड' प्रा भा पा 'घ' का स्थानीय हो । मध्यवर्ती स्थिति में कही-बाही यह 'ठ' का स्वानीय होकर पाया है । इस दृष्टि से सभी शब्द निश्चित रूप से 'देश्य' प्रकृति के हैं। प्रारम्भवती स्थिति में 'द' प्रा. भा. प्रा. और मा. भा. पा का ही अनुगमन है
-उपरी-वीणा भेद (4-14), ढढरो-पिशाच 14-16), ढढो
पड गु. (4-16) मध्यवर्ती स्थिति में 'ड' ग्रीन 'इ' की स्थिति इस प्रकार है
- वाडिय-इटम् (1-74), कणगढत्ती-दत्तक (2-22),
गुडव-घुल्ली {2-63) - प्रड्ड अक्कली- फट्याहस्तनिवेश (1-45), इदड्ढलो-इन्द्रो
स्थापनं (1-82), उड्ढलो-उल्लास (1-91)। मध्यवर्ती-'युद्ध'- प्रतिनिहित हैपा मा प्रा.-ध-प्रोटड्ढ रक्तम् । प्रवदग्ध (1-156),
उड्ढाडी-दवमार्ग:दग्ध (4-8), प्रा. मा. प्रा--- घं-पटइनो चर्मकार (वर्षक (6.44),
वड्ढइयो, वड्ढवण-वस्नाहरण.वर्धापन (7-87) । उपान्त से 'ढ' और 'ढ' के प्रयोग के उदाहरण इस प्रकार हैं
-ढ- उबाढ विस्तीर्ण (1-129), उव्वीढ उत्खातम् (1-100),
कगढो-दधिकलशी (2-55) । -ढ-प्रोवडढी पारिधानकदेशः (1-151) ढड्ढो-भेरी (4-13),
वेगड्ढ भल्लातकम् (7-66)।
___यह मूर्धन्य, नाद, घोप, महाप्राण, सानुनासिक स्पर्शवर्ण है । मा भा. श्रा. की 'नोरणः सर्वन' (प्रा प्र 2-42) मान्यता के आधार पर देशीनामाला की शब्दावली मे भी सर्वत्र 'न' के स्थान पर 'रण' का ही व्यवहार किया गया है। इसके कुछ अपवाद श्रार्ण प्राकृत (अर्धमागधी) तथा सरह के दोहा-कोश मे मिलते हैं। इन अपवादो के अतिरिक्त सर्वत्र 'न' को 'रण' ही मिलता है। उत्तरी पश्चिमी और दक्षिणी पश्चिमी प्राकृत मे तो निश्चित रूप से 'न' का 'गत्व' विधान है । देशीनाममाला के शब्दो का सम्बन्ध प्रकृत्या इन्ही प्राकृतो और अपभ्र शो से है । पश्चिपी
1. म भा मा में 17ढ के अनेकों उदाहरण दढे जा सकते हैं जैसे पृष्टाढीठ । दे ना मा
सी कमढोकमठ. (2-55) ।
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238 अपन्न श के अन्य अन्यो, मंदशरासक और पाडदोहा प्रादि की भी यही स्थिति है । इन अपत्रण से प्रभावित गुजराती, राजस्थानी और पजाबी मापायो मे आज भी 'न' के रणव विधान की प्रवृत्ति स्पष्ट ही देखी जा सकती है। मध्यदेश तथा प्राच्य देश की संस्कृत से प्रभावित भापानो मे यह प्रवृत्ति कम हो गयी है। सस्कृत के अनु. प्प ही हिन्दी आदि भापायो में ' का प्रारम्भिक प्रयोग लगभग नहीं ही होता । मव्यवर्ती स्थिति में भी यह प्राय. मूर्धन्यीकृत रूप में ही व्यवहृत होता है । केवल मान्त में यह सुरक्षित है । प्राजक्ल हिन्दी तथा उसकी वोलियो में इसे भी 'न' के
प में व्यवहृत किया जा रहा है। जैसे वीणा7वीना । देशीनाममाला मे 'रण' से प्रारम्भ होने वाले 169 शब्द हैं, जिनमे कुछ का मूल तो निश्चित रूप से म भा. श्रा के रास्ते प्रा. भा पा मे टूटा जा सकता है केवल अयं अलग होने के कारण हमचन्द्र ने इन्हें 'देश्य' कह दिया है। 'रण' से प्रारम्भ होने वाले देश्य शब्दो की सन्या भी पर्याप्त है।
आरम्भवर्ती स्थिति में 'ण' म मा प्रा. के 'रण' का अनुगमन है-अधिकतर मदो में यह कृत 'णत्व' विधान के रूप में ही व्यवहृत है'ण' - गाग्रो-गविष्टः (4-23), गीरगी-शिरोवगुण्ठनम् (4-31),
गिहुप्रा-कामिता (4-26) 1 मध्यवर्ती 'गा' और 'गण' म. भा पा का ही अनुगमन करते हैं-- -ग-अणप्पो-ग्वट ग (1-12), अणराहो-शिरसिचिपटिका (1-24),
अगिल्ल-प्रभातम (1-19) ! मध्यवर्ती 'पण' में प्रतिनिहित हैम ना प्रा एण-प्रमाण-विवाहबदानम् (1-7), कण्णासो-पर्यन्त' (2-14), मा भा या न्न-उष्णमो-समुन्नत [उन्नम (1-88), प्रोसण-त्रुटित प्रवसन्नम्
(1-56), अण्णटयो-तृप्न./अन्नचित् (1-19) । पा मा. प्रा -न्य-अण्णमय-पुनमुक्त [अन्यमयम् (1-28)।
"--न- उन्दग-उद्विग्न । उद्विग्न (1-123) । , "-- कणवाल-कुण्डलादिकर्णाभरण कर्णवाल (2-233
कनी-चञ्चु.कलि-(2-57) । " "जपोहणोराक्षम यज्ञहन (3-43)।
1. 'यात भिारद है-हिदी या 'यारा' या 'पानी' पद इसी से सबद है।
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[ 239 उपान्त में 'गण' ग्रीन 'ण' की स्थिति १ मा पा का ही अनुगमन करती है। -- पण-निरितटम् (1-10), पपगरणी-इन्द्राणी (1-58), अगहणो~
कापालिक (1.31) -ror- प्राणी-देवरभार्या (1-51), घणो-उर (1-105), नहुण्णी ज्येप्ठभायाँ
(7-41)। यह ध्यनिगम की उपस्थिति -
प्रा भा.पा में 'न्ह' व्यजन ध्वनिग्राम को सत्ता अलग ही मानी जा रही है । अधिकार मापा बैज्ञानिक इमे सयुपत ध्वनि न मानकर एक स्वतत्र ध्वनिग्राम मानने के पक्ष मे है। इस स्वतत्र व्यजन ध्वनिनाम का मूलश्रोत म भा. प्रा मे खोजा जा सकता है । पहा यह 'ह' के रूप में विद्यमान है यद्यपि, यह अधिकाश स्थलो पर ध्वनि-परिवर्तनो के कारण है फिर भी इस ध्वनिग्राम की सत्ता अलग निर्धारित की जा सकती है । देशीनाममाला की शब्दावली मे इस व्यजन ध्वनिग्राम का पर्याप्त प्रयोग हुआ है । यह ध्वनिनाम मध्यवर्ती पीर उपान्त दो ही स्थितियो से प्राप्त होता है । कुछ उदाहरण इस प्रकार है
म भा या पह-उहिया-कृसरा (खिचडी) (1-88), गेण्हिन-उर मूत्रम् (2.94), जण्ह लघुपिठरम् (3-51), जोहली-नीची (3-40), तुण्हीसूकर (5-14), पिण्ही-क्षामा (6-46) सहाई-दूती (8-9) सिण्हा--हिमम् (8-53)।
ये कुछ ऐसे उदाहरण हैं- जिनमे 'ह' व्यजन ध्वनिग्राम की स्थिति स्पष्ट दिखायी देती है। इनके अतिरिक्त कुछ शब्दो मे यह व्यजन ध्वनिग्राम प्रा भा पा प्य, स्न आदि व्यजन सयोगो के परिवर्तित रूपो से भी मिलता है, जैसेप्रा भा पा ष्णाह-उण्होदयभडो-भ्रमर उरणोदय भण्डः (1-20),
तुहिक्को-मृदुनिश्चल तूप्रणीक (4-15)। प्रा. भा पा स्न7ह-अण्हेअयो-भ्रान्त । प्रस्नेह (कः) (1-21), पण्हनो-स्तन
धारा प्रस्तुत (6-3)।
निष्कर्ष रूप मे यह कहा जा सकता है कि देशीनाममाला के अधिकांश 'देश्य' शब्दो मे मिलने वाला ‘ण्ह' पा भा श्रा के स्वतंत्र व्यजन ध्वनिग्राम "न्ह' के मूल में देखा जा सकता है। मध्यदेश की तथा प्राच्य भाषाम्रो भे यही 'हे', 'न्ह' के रूप में परिवर्तित होकर प्रचलित है । उत्तरपश्चिमी तथा दक्षिण पश्चिमी भाषाओं
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240 मे 'ह' की स्थिति अति सुलभ है । यहा यह म भा पा का ही अनुगमन करता है। प्रा भा पा से लेकर पा भा ग्रा. तक इसके विकास की अवस्था एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट की जा सकती हैप्रा भा पा. कृपण म भा आ. वह आ भा. पा. कान्ह । दन्त्य या वर्षी व्यंजनध्वनिग्राम
म भा प्रा के दन्त्य व्यजन ध्वनिग्रामो की प्रकृति का विश्लेषण करते हुए डा वीरेन्द्र श्रीवास्तव लिखते हैं- "जिह्वात्र या जिह्वानीक द्वारा पर के दातो के स्पर्श से मुखविवर मे आती हुई श्वासवायु का अवरोध होकर स्फोटन होता है। दन्त के अग्र, मध्य और मूल का विभिन्न दलों में उपयोग होता है । अक्प्रातिशास्त्य ने तकारवर्ण का उच्चारण स्थान मितामूलीय बताया है (दन्तमूलीयन्तु। तकार वर्ण• 1-19) अव भी त और थ इसी तरह के वणं हैं । द और ध के उच्चारग मे दन्त के मध्य और न के उच्चारण में अग्रभाग का उपयोग होने लगा । पाणिनीय शिक्षा में सभी के लिए सामान्य दन्त्य शब्द का प्रयोग है 11 प्रा. भा. श्रा में दन्त्य कहे जाने वाले वरों का उच्चारण वर्क्स हो गया है। दे. ना मा के दन्त्यवों की प्रकृनि म मा पा सी ही है। दन्त्यो मे केवल त, थ, द, ६ वर्गों का ही प्रयोग हुअा है। न सर्वत्र 'ए' हो गया है, यह पहले ही प्रतिपादित किया जा चुका है।
यह दन्त्य, श्वास, घोप, अल्पप्राण, निरनुनासिक स्पर्ण वर्ण है। देशीनाममाला में 'त' से प्रारम्भ होने वाले शब्दों की सख्या 110 है। प्रारम्भवर्ती स्थिति में यह म भा पा के 'त' का ही अनुगमन है। मध्यवर्ती स्थिति में कही,
ही न मा ग्रा. के अनुरूप ही यह 'द' का स्थानीय होकर व्यवहन हुआ है। इस गेश के शब्दो मे इसकी विभिन्न चिनिया इन प्रकार है। प्रारम्मवर्ती -त- तहरी-पड्किलासुरा 15-2), तलारी, नगररक्षक. (5-3),
तुगी -रात्रि (5-14), तुण्ही-मूकर (5-14) | मध्यवर्ती -त-त
1. मन मापा र अध्ययन ५ 93 2. ममिन मे तृटम' या अर्थ 'मोना (रिया) है। हम सब्द को तामित्र की सम्पत्ति माना ना
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[ 241 -त- अतरिज्ज-टीसूत्रम् (1-35), शतेल्ली-मध्यम (1-55),
उइतरण-उत्तरीयम् (1-103)। या मा पा दात-ममति न । मध्य दिनम् (6-124)।
जात-मती-विवागणक (मन्त्री (6-111)। -त- उच्चत्तवरत्त -पायो स्थूलम (1-139) खित्तय अनर्थः
(2-79) गत्ताडी-गायिका (2-82) । मध्यवर्ती-त- मे प्रतिनिहित हैप्रा मा पा - प्रोसित्त -प्रवलिप्त अवसिक्तम् (1-158) ।
-द- गवत्त -घास गो+ प्रद् (2-85)। , -त- पत्तट्ठो बहशिक्षित प्राप्तार्थः (6-68), सत्तावीसजोप्रणो
इन्दु मप्तविणतियुज् (8-22)। " , -- वच्छी उत्तो-नापित (वात्मीपुत्र (7-47) । , , -तु- वरइत्तो-अभिनववर वरयितृक (7.44) । उपान्त मे त और त के उदाहरण इस प्रकार है
-त- श्रद्ध तो-पर्यन्त (सीमा) (1-8), मोसायतो-ज़म्भालसः
____(1-170) कडत-मूलशाकम् (2-56) । -त- प्रणुमुत्ती अनुकूल (1-25), अत्ता-जननी (1-5),
अप्पगुत्ता-केवाच (1-29), कत्ता-कौडी (21) ।
यह दन्त्य, श्वास, अघोप, महाप्राण, निरनुनासिक स्पर्शवर्ण है । देशीनाममाला मे 'थ' मे प्रारम्भ होने वाले कुल 47 शब्द हैं । प्रा भा पा (संस्कृत) मे '' प्वनि से प्रारम्भ होने वाले शब्दो की संख्या अतिस्वल्प है।' म. भा. प्रा. मे 'थ' का प्रयोग प्राय प्रा. भा प्रा. 'रथ' 'स्त' तथा 'त्स' आदि के स्थान पर हुआ है । देशीनाममाला के तद्भव शब्दो मे यह स्थिति ज्यो की त्यो है । देश्य शब्दो मे 'थ' व्यजन ध्वनिग्राम का प्रयोग परिशुद्ध रूप मे हुया है । प्रारम्भवर्ती स्थिति मे 'थ'
थक्को- अवसर. (5-24), थव-विषमम् (5-24), थवो पशु-(5-24)। प्रा. भा श्रा. त्स74 थरू-तलवार की मूठ/त्सरुः (5-24)।
1.
आप्टे ने अपनी सस्कृत हिनशनरी ( 489) में थवं, धूप, थुङ्, थूत्कार, -फूल इतने ही शब्द 'घ' से प्रारम्भ होने वाले बताया है।
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242 ] प्रा ना प्रा. स्नाय- विष्णे-नि नेहहृदय (स्तीर्ण. (5-30), थिमिअ-स्थिरम्।
निमित (5-27),येवो-बिन्दु तप (5 29 ) । प्रा मा या न्याय -थिरसीग्रो-निीक ।यि रशीप (5-31), बेरो-ब्रह्मा।
म्पविर (5-29). थेरानणपद्मम् ।न्यविरा-सनम् (529)। प्रा मा प्रा नाच -न-तन्तुबायोपनाम्।तूरी।।
पूरे देशीनाममाला कोण ने मध्यवती नया उपान्त्य स्थितियो मे 'य' व्यजनध्वनित्राम का नया अभाव है। इन दोनो स्थितियो मे यह मर्वत्र मयुक्त व्यजन पनिदान 'स्व' के हा ने पवहत हुना है । मध्यवर्ती'' - प्रत्यक अनवसर (1-14), अत्युबड-भल्लातकम् (1-23)
उत्पन्नापत्यल्ला-पार्श्वयनपरिवर्तनम् (1-122)। नरवी' में प्रनिनिहित है - प्रा ना मा 'स्तृ'- प्रत्यागे-महापम् !प्रा+7 (1-9)। . . 'य'-प्रन्युट-ननुप्रस्थल (1-9), उत्यग्यो सम्भद -उत्+स्थग्
(1-93)। " , 'न'-नन्धरी-हान चिन्तरि (3-2), पत्यरा-चरणाघातः/प्रस्तरा
(6-8)। , ''-पत्यउटो-चन्ताय बित्र उटज (7-45) । " , 'ई'-मित्या-न्द्र मिद्राय (१-31)। प्रा मा प्रा. ' - प्रगुत-अगुनीयम् अगुष्ठ (1-31) । मानव उदाहगाउन प्रमार हैं - उदलो-
विलन्त्र (1-96), श्रीनन्यो-विदारित (1-56), जोडिन्ध-निट (1-368) ।
मानार, घोष, अल्पप्रमा, निन्तनामिज म्पर्ण वर्ण है । देशीनाममा ':' में प्रारमोने वाले पन्दी की नन्या 118 है। इनमें केवल दो ही पर निद्रामा 'द' प्रा भा. या 'च' का म्यानीय है वे हैं-दोम
नयत (5.51) नवा दीभिगी ज्योत्स्ना (5-50 ) । इनके अतिरिक्त परमा ':' मा प्रा 'द' काही अनुगमन है ।
!
!:
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[ 243 प्रारम्भवती 'द' - दय-जलम् (5-33), दर - प्रर्धम् (5-33), दसू-शोफ'
(5-34)1 बारम्भवर्ती 'द' में प्रतिनिहित हैप्रा भा. प्रा -ह-दुग्घटो हस्ती/द्वि-+-धुट (5-44), दोग-युग्मम्द्विक
(4.49), दूगो-हस्ती। द्विपान (5-4471 मा भा या - द्र- दुहोली-दृष्टपक्ति । दोली (5-43) । मध्यवर्ती स्थिति में 'द' और 'द' म भा पा के ही अनुकरण हैं~६- पारदर-अनेकान्तम् (1-78), पाहु दुरो-पुच्छ (1-66),
कदल-कपालम् (2-4)। -~ - अहमो-याकुल (1-15), प्रवद्द स-उलखलादि (1-30),
उद्दामो-सधात (1-126) । मध्यवर्ती 'द' मे प्रतिनिहित हैप्रा मा पा - (+द-उद्दरिय उत् दारितम् (1-100), उद्दिसिग्न-उत्प्रेक्षितम्
उत+दिश (1-109), तद्दिग्रस - अनुदिवसातदिवसम् (5-8)। प्रा भा श्रा-ई- कमिग्रो-मपि ।कर्दमित. (2-15), गद्दन्भो-कटुघ्वनि गार्दम्य
(2.82)। पा भा प्रा -'द'-गज्जणमहो-मृगवारणध्वनिः । गर्जनशब्दः (2-88), सद्दाल
नूपुरम् । शब्दाल (8-10) । प्रा भा. प्रा --धूमदार-गदाक्षी धूमद्वारम् (5-61) । मा भा प्राद'-समुद्रावरणीय-अमृत । समुद्रनवनीतम् (8-50),
समुद्दहर-गानीयगृह समुद्रगृहम् (8-21) । उपान्त गे 'द' और 'द' के प्रयोग के उदाहरण इस प्रकार हैं-~~- कदी मूलशाकम् (2-1), फदो-दृढ (2-51), फलयदी-पाटला-(2-58)
- - उद्द-जलमानुपम् (1-123), कुद्द -प्रभूतम् (2-34), गज्जपसहो-मृगपारराध्वनि. (2-88) ।
___ यह दन्त्य, नाद, घोप, महाप्राण, निरनुनासिक स्पर्श ध्वनि है । देशीजाममाला मे '' से प्रारम्भ होने वाले कुल 39 शब्द हैं । इनमे केवल दो ही शब्दो,
1
दे ना मा 7/80 में 'वोद्रहो' (तरुण ) शब्द नाया है। इस शब्द फा मध्यवर्ती 'ग' प्रा मा आ के अनुरूप है अत इस माद को तत्सम फहा जाना चाहिए । म भा. आ द्रा ही सर्वन मिलता है।
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244 ] -धुग्ररात्री जनर प्रवराग (5-57) तथा घूगो-गज म्यूण (5-60) मे 'व'
मा: प्रा. भा. या 'ध्र' और म्य' का स्थानीय है। शेष सभी शब्दो की प्रारम्भवर्ती तिथि में यह न मा पा के 'ध' का ही अनुगमन है । मध्यवर्ती और उपान्त स्थितियो में भी 'घ' म प्रयोग है । म. मा त्रा की घोप महाप्राण ध्वनियो को 'ह' कर देने ही प्रवृत्ति के पद नया विपरीत है । 'देश्य' शब्दों की यही ता विलक्षणता है कि
अधिकाशन में म. भा पा की व्याकरणिक प्रक्रियायो और ध्वनिपरिवर्तनो से मारित होते हुए भी कही नहीं अपनी मर्वया विपरीत स्थिति का प्रदर्शन करते है। भारम्भवनी-ब- दर तूलम् (5-7), वाडी-निरस्तम् (5-59), घूमरी-नीहार.
(5-61) 1 मध्यवर्ती स्थिति में 'ध' और द्ध' पूर्णत. म भा पा का ही अनुगमन करते हैं~६- इग्गियूम तुहिनम् (1-80), कायनो-कामिज्जुलाय. पक्षी
(2-29 ), 'कुधरी नघुमत्यः (2-32) | ध- रखधविग्रं-सज्जितम् (1-119), उद्धामो-विषमोन्नतप्रदेश
(1-124), गिद्धमो अनिन्नगृहः (4-38), दोद्धियो चर्मकार.
(5-44)। ग्य ती ध में प्रतिनिहित है - प्रा मा गा--पद्धविन मनाकरगाम् सर्वाक्षिकम् (1-34),
प्रद्धजया-मोचकम् (जूना) ग्रजघा (1-33) । , , - ग्य-बुद्धगविनमुहो-बाल [दुग्धविकमुम्ब (5-40) । , -व-घूमरम्हिनीग्रो-वृत्तिका धूमध्वजमहिप्य. (5-62) | उपान में 'ध' और 'द' उदाहग इन प्रकार है
वजनिचो-मातवाहन (3-7), छेघो-म्यामक. (3-39), पटिखधजलवाम् (6-28)। पारद मतृप्य (1-75), प्राविद -प्रेरितम् (1-63), खद्ध -मुक्तम्
(2-67)
नीनाममाता न जनध्वनिग्राम या सवंया प्रभाव है। भरत के समय मारतों में 'म' ही 'ग' कर देने की प्रवृत्ति बल पटी थी। स्वय हेमचन्द्र ने पीपको सारा प्रत्य के 'दादी (1-129) गृय में प्राकृत शब्दों में 'न' की स्थिति
1. ५.८१८ : 2-27)
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[245 स्वीकार की है। यही स्थिति लगभग सभी वैय्याकरणो की रही है । जहा तक 'देश्य' शब्दों का प्रश्न है, हेमचन्द्र ने इनमे 'न' की स्थिति स्वीकार नहीं किया । देशीनाममाला की 63 वी कारिका की वृत्ति (पृ० 208) मे उन्होने स्पष्ट कह दिया -
"नकारादयस्तु (शब्दाः) देश्यामसभविनएवेति न निबद्धाः । यच्च 'वादो' सूत्रितमस्माभिस्तत्सस्कृत भवप्राकृतशब्दापेक्षया न देश्यपक्षेयेति सर्वमवदातम् ।"
___ इस प्रकार देश्य शब्दो मे सर्वत्र 'न' को 'ण' ही मिलता है । फलतः देशीनाममाला मे न तो नकारादि कोई शब्द है और न ही किसी अन्य स्थिति मे इसका प्रयोग ही है। इससे सबधित अन्य तथ्यो का विवेचन पीछे 'ण' ध्वनिग्राम की चर्चा के बीच किया जा चुका है।
यह प्रोप्ठ्य, श्वास, अघोष, अल्पप्राण, निरनुनासिक स्पर्शवर्ण है । देशीनाममाला मे 'प' से प्रारम्भ होने वाले शब्दो की संख्या 393 है । प्रारम्भवर्ती स्थिति का 'प' पूर्णरूपेण म. भा पा के 'प' का अनुगमन है, जिसमे प्रा भा पा 'प्र' भी प्रतिनिहित है-- प-पक्खरा-तुरगसंनाहः (6-10), पज्जा-अधिरोहिणी (6-1), पडवा-पटकुटी
(6-6), पडाली-पक्ति (6-9)। प्र7प-पच्चुत्थ-बोया हुआ.प्रत्युप्तम् (6-13), पडिच्छदो-मुखम्। प्रतिच्छन्द.
(6-24), पण्हो -स्तनधारा-प्रस्तुत (6-3) । मध्यवर्ती स्थिति मे 'प' और 'प्प' दोनो म भा आ. का ही अनुगमन करते हैं
अपारमग्गो-विश्रामः ( 1-43), उरुपुल्लो-अपूप (1-134), कडपडवा-यवनिका (2-25) | प्रप्पझो प्रात्मवश. (1-14), उप्पेहड-उद्भट (1-116), कुप्पढो
गृहाचार (2-36)। मध्यवर्ती 'प्प' मे प्रतिनिहित हैप्रा. भा आ. त्प-उप्पको-पड का उत्पड क. (1-30), उप्पीलो-संघात उत्पीछ
या पिण्ड (1-126)।
, प-कप्परि-दारितम् ।खर्पर (2-20)। " , प्र-वप्पो-सुमट [वप्र (6-88), बप्पिणो-क्षेत्रम् वप्र या वप्रि
(7-85)।
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246 उपान्त में 'प' और 'प्प' के उदाहरण इस प्रकार है-- ५- पा-तृणादिमय वृष्टितिवारणम् (2-75), पा-विन्दुः
(1-101), दैलुप-मुमल ( 3-1 )। अप्पो-पिता (1-6), बोप्या शाण र मणि को उमकाना (1-1482 कटयो-निकर. (2-13}:
या प्रोप्ठ्य, मान, अघोष, महाप्राण, निरनुनासिक, स्पर्शवम् है । देशी नाममाला में '' से प्रारभ होने वाले कुल 35 पाब्द हैं । ये सभी शब्द 'देश्य' प्रति के हैं। प्रारम्भमा---पुक्का-मिथ्या (6-84), फलाबा-मातुलानी (6-85), फोफा
भापयितु शब्द (5-86)। मध्यवर्ती 'C' और 'क' पूर्णरूपेण न. भा. ग्रा का अनुगमन करते हैं
यफाटा-महा (2-7), कुलफलणी कुलकलड क : (2-42), गुपगुमिप्रगुगन्धि (2-93): प्राण-पूर्ण (1-20), उकालो-दुर्जन. (190), फल-गिरोगाता
(3-20) 4 में प्रतिनिहित हैगया --ए-पोलो-पल [उम्पन्द (1-102),
शिरिसोनिय निर् स्यणं (437) । -नगमो उदगम लिम्फोट (1-91)
गाल होरी स्पोटक (2-86), aire
निटिनमा मटित (6-27) । t- अकादविपुप्पन (मापन) (5-35), देवईक देवयुप्पम् (5-49) र अनिमयोपणम्वाप्पाकुलम (6-29)।
' वाटारा मिनते हैं - गु दी (2.93), गु फो-गुप्ति (2.90), गण-भीयितुं ? (6.86) ।
नम् (5-35), देवउपक पव्यापम् (5-49), पुप्फा7 (6-57)।
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नोकर, नाव, नोप, अल्पप्राग्ग निरनुनामिक स्पर्ण वर्ण है । देशीनारा 'a' में पाकरने वाले कुल 68 शब्द है। इनमें अधिकतर शब्दो का पान
ने पति में ही तद्भव शब्द ऐसे हैं जिनमे व 'व' मानोराम भा. मा में 'ब' पीर व एक दूमरे मे परिवर्तित रविनी काटी गतिमान्य है। प्राच्य प्रदेशो मे 'व' को 'व' उच्चामाने तोकितिको विपरीत पस्चिमी पत्र में वकार बहुलता है । -
सोपान पनिम जना ने ही है । यही कारण है कि जहा में माना जा 357, की 'ब' से प्रारम्भ होने वाले शब्दो की सत्या पाचन 6 पोरन भी पाईको 'ब' प्रा मा श्रा, 'व' म्यानीय है । कावा -गानो लर, (6-90), यागो-नुभग (6-97),
जोडी मागित (6-96), बौदर-पृथु (6-96)। पा. का 'पा 274- -गाट गा पितावप्र (6-88), बोक्रूडो-छाग वर्कर
, -272-२मार मानहाय मरना जिनमें 'द' प्रौर दोनो ही बिजुद देण्य प्रकृति के है । --कोटिन (1-16), प्र यून गरग (1-11), उबर-बहु (1.90) --अनुगिनोग्यानिकानप्राप्ति (1-42), उच्चुवक-प्रलपितम् (1-128), उन्यूगेम (1-126) ! उपान्त में 'ब' का प्रयोग पर्याप्नमाया मे है जबकि 'ब' का प्रयोग प्रत्यल्प है। च-- मानव-भूमिकाम् (1-64), उ ब-बन्धनम् (1-86), उ वी-पपवगोधूम
(186) -पिम जनम् (6-46)
यह प्रोप्ल्य, नाद, घोप, महाप्राण, निरनुनासिक महाप्राण ध्वनि है । 'दशीनाममा मेम' से प्रारम्भ होने वाले शब्दो की सख्या 65 है । प्राकृत भाषाओं में 'म' को प्राय 'ह' हो गया है, परन्तु देशीनाममाला के शब्दो मे सभी स्थितियो 1 प्राप्त काल में प को प (पौर्य प्रा प्र 2-15) उच्चारण करने की प्रवृत्ति के कारण 'क'
यो '८' उच्चारण करने को प्रयत्ति को अधिक बल मिला होगा । 2 उपान्त में 'ध' के माम उदाहरण मिलने का प्रमुख कारण है 'ब' या 'ब' रूप में व्यवहार
फिया जाना है।
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248 में 'म' सुरक्षित है। इने पश्चिमी प्राकृती पर प्रा मा श्रा का प्रभाव कहा जा मरता है । प्रारम्भवर्ती न-पूर्णरूपेण म. भा श्रा. के 'भ' का अनुगमन करता है-म- माइल्लो हालिक (किसान) (6-104), भल्लु की-शिवा (6-101),
भेडो-भीर (6-107)। प्रा गा.पा-बान-भाउज्जा-भाभी नातजाया। . मृाम-मिग-कृष्णम्भृट ग (6-104), भिंगारी-चोरी भृडगारी मध्यवर्ती 'ग' और 'भ' म गा पा का ही अनुगमन करते हैं
प्रभिण्णपुडो रिक्तपुट. (1-44), कटभुकुटकण्ठ (2-20),
मिलो चौर (2-62)। अमायत्ती-प्रत्यागत: (1-31), उमग्गो-गुण्ठित (1-95),
छोम त्य-अरियम् (3-33)। व्यक्ती कम में प्रतिनिहित हैप्रा ना. वा-- अमपिमाप्रो-राहु अभ्रपिणाचः (1-42) 1 , दन- उम्भालन-दिनोत्पवनम् ।उद्भालन (1-103)
जिण्णाभवा दूर्वा जीर्णोद्गवा (4-46) । - छोटगो-पिशुन क्षुब्ध (3-33) ||
- णिमुग्गो-मग्न निर्मग्न (4-32) । पान में भी 'म' और 'म' के पयोग मिलते है-- -- टिपभो-स्टीन्यस्तोहात. (2-17), कुभी-मीमान्तालकादिः बैंश
रचना-(2-34), चमो हन्नस्फाटितभूमिरेसा (3-1)। - नो-णि {1-79), छोमो-पिणन (3-33), बभो (न की बदी
व (6.88) ।
पर पोस, नार, घोप, प्रमाण मानुनामिक स्पर्शवर्ण है। देशीनाममाला 'प्रामाती वाले जो की मात्रा 196 है। इन शब्दो का प्रारम्भवती
रमना मा पा अनुगमन है। पर शब्दो मे यह प्रा भा श्रा-म-का है।
*
--
मानद्वार (6 137), मेढा गावानहाय. (6-138}, मेठी
___for_16-138)। Frt - 1महोदर मा (1-141), गट्टा-बलात्कार मर (6
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- - . ,
.. ...: ;.:---:: (6-130) ... ... .. .. .. ना ले:
. . . : -.":. . 1107', मि.गो प्रमिला (1-144),
::. :: . ... ... .... ___..: ',
(149), धम्मोडी मध्याह्न ( 1)
: . . : .::: (107), उमाल्लोना Lउवमन्ना
..... :
____ ... .::: : : " " .":.; (2-79), दुमपो-गट मुन
६.:..::. : - .. . । (5-47) । .. ... .....: (..:)]
" . , . . . . . ,, हा उच्चारण म्ह हो ___r... :: ::
::
का प्रयोगकामो मे हमा ' : -::.:.:.., पका स्थानीय न होकर अपनी अलग " • ; :
. न पदो एका घनिग्राम के - -
रिमति देशीनाममाला के शब्दों - 1. . . . !: M IT प्रयोग प्राय मध्यवर्ती स्थिति
-... (1117) नो-मानिका (पाटे की चकीवाला) (*). : : (53). .71 (6-13), वम्ह-वल्मी कम् 17.1,
(7-33) 17 जी का शब्दों में 'म्ह' का प्रयोग एक 7TH माता सलता है।
गोरा के उदारण इस प्रकार है-म-मायामो६- (1-5), ममनोमोटीन (2-86), तमो-शोक (5-1)। --- IPS-111 (1-5), गीता (290), पालीहम्म-वृत्ति' (मेड़)
(1.45), मनी मातुनानी (6.112)।
1.
4.421
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250
]
पतन्य वजन
ऋक् प्रातिशास्त्र के अनुसार स्पर्श तथा ऊम वर्गों के वीत्र में स्थित वर्ण अन्नाम्य वर्ग है । य, र, ल, व-इन चार वग्गों को अन्न स्व बताया गया । इन्हे प्रद्धंबर भी कहा जाता है क्योकि इन उच्चारणा का प्रारम्भ स्वरस्थिति से होता है और अन्त में ये अागामी बर और वजन की स्थिति में चले जाते हैं । य का मप्रमाण 'ड', व का उ र का ऋतया ल का ल इनकी स्तरावना को और भी मट कर देता है । म न पा मे इन अर्द्ध स्वगे में केवल 'य' और 'व' का प्रयोग मिलता है । उनमें भी '' प्राय श्रुनि ध्वनि के रूप मे ही व्यवहत हुग्रा है। म भा. प्रा में प्रौर का प्रयोग लगभग मणप्न ही हो गया । अत र और ल प्रर्द्ध स्वर न रहकर पूर्ण व्य न ध्वनियों के रूप मे घवहन होने लगे । देशीनाममाला के शब्दो में व्यवहन इन पन्त न्य ध्वनियो का विस्तृत विवेचन इस प्रकार है
कार यह कहा जा चुका है कि 'य' श्रद्धं म्बर है म भा पा मे इसका प्रयोग बनम अजन के कर में न होकर पति के रूप मे हुमा है । इसके साथ हीपरप्रपवादी (मे अब मागधी यादि) को छोडकर शब्दो के प्रारम्भ मे इसका पयोग भी नही हुया है । म भा प्रा का प्रारम्भवर्ती य 'ज' हो गया है । यह 'ज'
जन ध्यान ये विवेचन में स्पष्ट किया जा चुका है । दे. ना मा के शब्दो मे भी 'घ' को मिपनि पृगंम्पेग म भा पा पा अनुगमन करती है । इन शब्दो मे 'य' का प्रयोग मन्यवनी और उपान्य स्थितियों में प्रायः श्रुति के रूप में हुया है । कुछ
मपाती-- अनि
गणयमो-विवाहगरा क (2-66), जीवयमई-मृगाकर्षणहेतुाघमृगी 13.46),
नापटिपा अगुनीयम (5-9), पायड-प्रदानम् (6-40) । मान्य-व-(ति)
गुज्य-निम् (2-71), गुग्ग य-मागद कमणिनम् (2-109) नाम (3.6), नमाय-ग्राम् (5-2) |
शोकामपा
'ब' 7 प्रयोग गुद दन्योप्ठ व्यजन 'ब', 'व' श्रुति तथा
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[ 251 औष्टय 'व' के स्थानीय 'व', इन तीन रूपो मे हृया है। यह पहले ही बताया जा चुका है कि म भा पा काल मे पश्चिमी भाषायो मे 'वकार' बहुलता पायी जाती है । दे ना मा के शब्द इसी क्षेत्र की भापामो से सबद्ध लगते हैं । इन शब्दो मे 'ब' व्यजन ग्राम अपनी प्रघं स्वरता से परे शुद्ध व्यञ्जन ध्वनिग्राम के रूप मे व्यवहृत है जो प्रकृति की दृष्टि से दन्त्योट्य, नाद, घोप, अल्पप्राण, निरनुनासिक तथा अन्त स्थ वर्ण है । ' देशीनाममाला मे 'व' से प्रारम्भ होने वाले शब्दो की सख्या 327 है । इमकी विभिन्न स्थितियो के उदाहरण इस प्रकार हैं -
प्रारम्भवर्ती स्थिति मे व म भा पा के 'व' का ही अनुगमन करता है जसमे प्रतिनिहित है प्रा भा प्रा 'प' 'व' तथा 'वृ' प्रादि । -- व - वगेब-यूकर (7-42), वणवो-दवाग्नि (7-37) 'वणसवाई-कलकठी
(7-52) । प्रा मा आ-47व वइरोडो-जार पति-रोट् (7.42),
, वाव बफाउल वाप्पाकुलम् (6-92), वफिन-भुक्तम्वप्सित । ., वृ7व- वाडी वृत्ति (वृत्तिः (7-43), बट्टा-पन्था. वृत् (7-31) । , वाव विलिन लज्जा/वीडित । , व्याव-वावडय विपरीतरतम्। व्यावृतक (7-58), वाविन-विस्तारि
तम् व्यापित ( 7-57)। मध्यवर्ती स्थिति मे व और व्व पूर्णतया म भा श्रा• का ही अनुगमन करते हैं ।
अग्गवेप्रो-नदीपूर (1-29) प्रवरिक्को-क्षणरहित . (1-20), प्रोवरो
निकर (1-157)। - व्व- उव्वत्त-नीरागम् (129), कव्वाडो दक्षिणहस्त (2-10), कव्वाल
कर्मम्थानम् (2-52)। मध्यवर्ती-व-मे प्रतिनिहित हैप्रा भा पा +व - उव्वाहियो-उत्क्षिप्त ८ उत् + वह (1-106)। प्रा मा पा द्व-उन्नुण्ण उद्विग्नम् (1-123)
-व-तिब्व-दुविषहम्।तीव्र (5-11) | उपान्त मे 'व' और 'व्व' के प्रयोग के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं~ व-कावी-नीलवर्णा (2-36), कूवो हृतानुगमनम् (2-62), खेवो-वामकरः
(2-77)।
।
2
दे ना मा के शब्दो मे अननासिक व (4) का बिल्कुल ही प्रयोग नहीं है । यह प्रयोग अपभ्र श मे अनादिसयक्त मकार के स्थान पर प्राय पाया जाता है-जैसे-कवल/कमल । उपान्त मे व' के अधिकाश प्रयोग 'श्र ति' के रूप में देखे जा सकते हैं। ऊपर के उदाहरणों मे 'वो', 'खेवो' आदि ऐसे ही प्रयोग हैं।
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। 253 है । अप्रातिशारय मे 'र' की भाति इसका भी उच्चारण स्थान दन्तमूल है । परिणनि इसे दन्त्य बताते है । प्रा भा प्रा. मे इसका उच्चारण वत्स्य है । डा. वीरेन्द्र श्रीवास्तव म. भा. ग्रा (अपभ्र श) मे इमका उच्चारण वयं ही निश्चित फरते हैं । उनका मन्तव्य है कि-"प्रा मा के आधार पर अपभ्र श मे र की तरह (ल का) उच्चारण स्थान वर्म है । उच्चारण प्रयत्न की दृष्टि से यह पार्श्विक वर्ण है और इसे तरल ध्वनि कहा जाता है। मुख विवर मे पाती हुई श्वास वायु को मध्य रेग्वा पर अवरुद्ध करके जिह्वापाव से निकलने दिया जाता है ।" : देशीनाममाला के शब्दो मे प्रयुक्त 'ल' भी बहुत कुछ म भा पा की ही प्रकृति का है । इस कोश मे 'ल' से प्रारम्भ होने वाले शब्दो की पख्या 66 है । इसकी विभिन्न स्थितियो के उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैपारम्भवर्ती स्थिति
लमकं तरुक्षीरम् 7-181, लसुन तेलम् (7-18 ), लयण-तनु (7-27) विशेष-देशीनाममाला के शब्दो मे 'र' तथा 'ल' के विशुद्ध प्रयोग यह सिद्ध करते हैं कि इन शब्दो का प्रयोन म भा पा काल की पश्चिमी भाषामो या बोलियो मे होता रहा होगा। इम कोश मे 'र' तथा 'ल' से प्रारम्भ होने वाला कोई एक भी पाद ऐमा नहीं है जिसमे दोनो वर्ण क्रमश एक दूसरे के स्थानीय होकर प्राये हो । पतजलि के ममय (150 ई ) से ही यह प्रमिद्वि चली ग्रा रही थी कि पर्व के निवासी 'र' को ल' कर देते हैं तथा पश्चिम के निवासी 'ल' को 'र' करके (परिष्कृत
रूप मे) वोलते है । मध्यदेश मे 'र' और 'ल' प्रयोग होता है। इस दृष्टि से देशीनाममाला के शब्द विशुद्ध 'र' और 'ल' ध्वनियो के प्रयोगो से युक्त है। इनमे न तो कही 'र' और 'ल' का स्थानीय है न ही 'ल' 'र' का स्थानीय है। यव्यवर्ती -ल - प्रलय-विद् म (1-16), उवलय-सुरतम् (1-117), प्रोलइणी-प्रिया
(1.169) । -ल- पल्ललो-मयूर. (1-48), प्रोल्लणी माजिता (कढी), (1-154),
वक्कल्लय-पुरस्कृतम् (7-46)। मध्यवर्ती 'ल्ल' मे प्रतिनिहित है - प्रा भा. पा -ल्ल- उल्लु हिप-सचूणितम् । उत्-लुट्ट (1-109),
उल्लेहडो-लम्पट / उत्-लिह (1-104)। " -र- उल्लूढो-प्रारूद। उत्-रुह, (1-100)।
1.
अपन श भापा का अध्ययन, 19
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।
2550
पदे तो तो प्रानो में अपवाद स्प से 'श' भी सुरक्षित रहा-जैसे मागधी प्राकृत में ।
गीनाममाता ने भी दो ही ऊप्म ध्वनिया 'स' और ह मिलती हैं ।' क्रम से इनका वित विवरण नीचे दिया जा रहा है।
- काय, पास, प्रयोप, महाप्राण, निग्नुनासिक ऊप्म वर्ण है। देशीमाममाना जमने प्रारम्भ होने वाले शब्दो की सत्या 298 है । प्रारम्भवर्तीस्थिति में यम मारे काही अनुगमन है जिसमें प्रतिनिहित हैं-'श' 'स' 'स्व' प्रादि। न- मुमो-गोपाल (8-33), सूई मज्जरी ( 8-41), सूरणो कन्द (8-41) मा. मा प्रा 171 सुनन्यारी नाडीगुलवारिणी (8-42), सेल्लो-मृगशिशु.
गत्य (8-57), नाराजी-प्राटि (एक चिडिया) पराटि!
(8-24) : मा भा. या नाम-गोत्ती-नदीनोतम् । " बाम- माउल्लो अनुराग [स्वाद । स , थाम मेटी-गामेश श्रेष्ठिन् । मध्यवर्ती रियति में 'ग' और स' पूर्णरूपेण म गा पा. का अनुगमन करते है-- -म- प्रज्झमिया -दम (1-30), प्रोसण-उग (1-155),
कामिण सुक्ष्मवत्रम् (2-59)। -स्स- पास्सय-प्रामृत (भेट) (2-12), गिस्सको-निर्भरः (4-32), गिल्सरिन -
प्रस्तम् (4-40) उपान्त में 'स' और 'स्म' के प्रयोग के उदाहरण इस प्रकार है--- प्रबुमू-शरभ (1-11) बेसी गृहद्वारफलहकः (1-8),मोहसो चन्दनम्
(1-168) । स्म- प्रज्झस्सं-प्राकृष्टम् (1-13), कस्सो-पड क (2-2) |
यह कण्ठ्य, नाद, घोप, महाप्राण, निरनुनासिक, ऊज्म वर्ण है । उच्चारण मे स्वास का सघर्षण होने के कारण इसे सघी ध्वनि भी कहा जाता है। प्रातिशाख्यो मे इसे कण्ठ्य या उरस्य बताया गया है । सम्भवतः उस समय इसका उज्चारण स्वरयत्रमुख (काकल) मे होता रहा होगा । सस्कृत मे यह कण्ठ्य हो गया है ।
-
1. मा और प के स्थान पर सर्वत्र 'म' ही का व्यवहार हुगा है।
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256 मा ने भी इसकी सस्कृत की ही स्थिति रही। यह ध्वनि दो प्रकार की बनी गनी है (1) प्रत्येक वर्गीकरण महाप्राण व्यजन (द्वितीय तथा चतुर्थ) के मन्त में मुनानी पड़ने वाली अन्तिम प्राणवनि या कम ध्वनि (2) शुद्ध घी नि । यही गारण है कि न मा प्रा में उच्चारण सौर्य को दृष्टि में रखते हुए मे- नाना व्यननी व घर व और भ (इन्ही के अनुकरण पर फ भी) को 'ह' 7 दिया गया । देजीनाममाला के शब्दो में निहित 'ह' ध्वनि म भा था की 'ह' पनि पूर्णतया अनुगमन करती है। इन कोश में-ह-मे प्रारम्भ होने वाले शब्दो की मन्य7 90 है । इन की विनिय स्थितिया नीचे दी जा रही हैं। मा भवती स्थिति में 'ह' म मा या का ही अनुगमन है जिसमे प्रतिनिहित है
महापागध्वनि-हैं- ये सभी शब्द 'देश्य' प्रकृति के हैं - म भा पा के नदारदो की भाति इम प्रारम्नवर्ती देय ह मे, प्रा भा पा भ, घ, फ, स, स्क पादिप्रतिनिहित नहीं है। उन्ट उदाहरण यहा दिये जा रहे है
परप्पो बहनापी (8-61), हरी-शक (8-59:, हलहल-तुमुन. (8-74),
काजाहलो मालिक (ग्राटा इन्छा करने वाला) (8-75) । मना नवा आन्य स्थिति में -ह- पूर्ण रूपेण म भा पा के ह 'का' अनुगमन पता: - जिममे प्रतिनिल है-ह- प्रनीहरी-दृती (1-35), अरिहइ-नूनम् (1-22),
प्रहिन्नी-ज्वरः (1.10), टहरो-शिणु (4-8) । प्रा मा प्रा-7- दु-मुमो मांट । दुमुंग्य (5-44), धूमसिहा-नीहार धूमशिवा
(5-61), मुहल , मुपम् (6-134) प्रणानरम् (1-13), ग्रह प्रथम (1-5),जगारीही-ऊर. । नरोद (3-44), जहण सब प्रोग्यम्।जवनागुक (3 45)
जहानाग्रो जट । ग्याजात (3.41) पाहेजपायेषम् (6-24) घ- प्रमुबह शासनबन्ध (1-48), दहिफ-नवनीतम्। दधिपुप्पम्
(5-55) दहियागे दधिना (536) 1 ना ~~-पनीर गुरु ( 2.75)।
- नानामिदाम (424), गाहिविटेनो-जानामिच्छेदक
(4-24), गिय निर्वापारम् निन्त (450।। -- नानपान 12-90) F- - - नाग (4-37)।
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[ 257 ना. या ५ पच्यू हो-रवि . पित्यूप (6-5) | " -मविणायहर-समुद्र मणिनागगृह (6-128) । जपाना में मृत प्राणध्यनि -ह-के कुछ उदाहरण ये है
उत्त, को-याट. कूप. (1-94), गणायमहो-विवाहगणक' (2-86),
गगमगीहो-सामप्रधान. (2-89), चीही-मुस्तोद्भवतण (3--14) निप्प
देशीनाममाला के शब्दो में प्रयुक्त व्यंजन ध्वनि ग्रामो की प्रकृति का विस्तृत विये पन कार किया गया । इसे दृष्टि में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि ध्वनियो के प्रयोग की दृष्टि नेम भा. प्रा. काल की देश्य शब्दावली पूर्णरूपेण इस काल की प्राजापौर अपना कही जाने वाली मापात्रो से कही भी अलग हटकर नहीं है। इन देश नमो में प्रयुक्त तुच नवीन सयुक्त धनिया पह, म्ह, ल्ह, आदि अवश्य प्रा भा आ मे चाहत होने वाली, न्ह, म्ह, ह, द आदि ध्वनियो के विकास की कडी के रूप मे देखी जा सकती है। या भा ग्रा की 'ड' ध्वनि के विकास की पूर्वावस्था भी इन देश्य दो मे घवहत ड' ध्वनियाम के प्रयोग के रूप में देखी जा सकती है । डा. चीनेन्द्र श्रीवास्तव ने काठी गाडी प्रादि देश्यपदो मे----'ड' की पूर्वस्थिति माना है उनका मन्तव्य है कि इन पदो को निसा भले ही सस्कृत के प्रभाव के कारण (ड) जाता रहा हो पर इनका उच्चारण निश्चित ही 'ड' की तरह होता रहा होगा।' देगी गयो पर विस्तार के माय विचार करते समय यह बताया जा चुका है कि 'देश्य' शब्द परम्परा प्रचलित ग्रामीण अशिक्षित लोगो की बोलियो के शब्द हैं । इन ग्रामीण बोलियो मे जिन ध्वनियो का व्यवहार होता रहा उन्ही का साहित्यिक मापायो मे भी व्यवहार हग्रा । भापाग्रो में समय-समय पर होने वाले ध्वनि परिवर्ननो से 'देश्य' शब्द भी प्रभावित होते रहे । अत ध्यनियो के प्रयोग की दृष्टि से साहित्यिक मापापो के शब्दो और 'देश्य' शब्दो के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खीची जा सकती। केवल अर्थ ही इनका विभेदक हो सकता है । निष्कर्ष रुप मे यह कहा जा सकता है कि ध्वनिग्रामिक प्रयोगो की दृष्टि से देशीनाममाला की शब्दावली पूर्णरूपेग म भा पा का ही अनुगमन करती है यदि और भी स्पष्ट कहा जाय तो इस दृष्टि से देश्य शब्द प्राकृत तथा अपभ्र श भाषा के ही अग हैं । ध्यंजन परिवर्तन -
देशीनाममाला की शब्दावली (विशेपतया तद्भव) मे व्यजन-परिवर्तन की
1
अपभ्र श भापा का अध्ययन, 107
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:58 ] निन्नतिन दिगाए परिलक्षित की जा मकती हैं । इन व्यंजन-परिवर्तनो के ठीक वारीत देर शब्दावली की स्थिति है । इन शब्दो मे म भा ग्रा. के अनुरूप व्यजनो
पनिवर्तित न कर या उनका लोप न कर, ज्यो का त्यो लिखा गया है- जैसेनोगे, तोतडी, तुरी, पलही, पारी, वोदर, वोलो, महरो, मरालो, मगे, रूवी, गे, गेली इत्यादि अनेको देश्य शब्द है, जो व्यजन-विकार, लोप, प्रागम प्रादि घ्यिालों से परे अपने प्राचीन रूप मे सुरक्षित हैं । म. भा आ. की व्यजन परिवर्तन प्रात्री केन नद्भव और कुछ तद्भववत् देश्य शब्दो पर ही प्रभाव डालती है । परन्तु अवयं हेमचन्द्र की दृष्टि में ये सभी शब्द भी 'देश्य ही हैं (प्रर्थ की दृष्टि से। अत' पहा भी ऐने मन्डो को 'देश्य' मानकर म भा पा के अनुरूप इनमे व्यजनपरिवर्तन पी दिगानी को लक्षित किया जा रहा है । 1 लोप(7) दिव्यग्नलोप-पिरणामो स्थिर-नास्ते (त्रिविक्रम), थिरसीसोस्थिरशीर्षः
गान्यविर , घोरो स्थल । (ब) जनलोप-प्रइग्जुब प्रचिरयुवती, प्रोबायग्नो/नपा-तप , रइलवव।
नियन्, व्हरूइया महिका ।
चन्न लोप की विविध दिपायो के उदाहरण पीछे दिये जा चुके हैं। 2 प्राम1) दिव्यजनागम -प्रादि व्यजनागम पी प्रवृत्ति देशीनाममाला के किसी भी शब्द
में नहीं है । शब्द में पके स्थान पर 'ह' का पागम है-अच्छिहरूल्लो।
हाल्यो। () यव्यजनागम-मध्ययजनागम की प्रवृत्ति भी नही है। न) प्रायव्य नागम-म भा पा की प्रकृति के अनुरूप ही देशीनाममाला के
यी ने भी प्राय प्रन्ययजन के लोप की प्रवृत्ति है । सभी शब्द स्वरान्त
3. दिन
हिमातिरा, दुहियोतिप्णीका ram
माता नया में पुरोगामी और पश्चगामी दोनों ही प्रकार के समी17
! -तानम्, अगायघोप्रिग्रमयः, अगहरा
ग्निम्, नम्मुरी उन्मुष , गद्दगोगादम्य प्रादि ।
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। 259
____ चोधीकरण
अघोष महाप्राणवणं प्राय' ह मे बदल गये हैं। इनके सघोषमहाप्राण परणों में परिवर्तित होने के उदाहरण लगभग नहीं है। सघोष महाप्राण वर्णो घ, क. ८, घ, भ की मूलस्थिति ही सर्वत्र देखी जा सकती है। म. भा पा मे इन सभी को 'ह' में परिवर्तित कर देने की प्रवृत्ति रही है। देशीनाममाला के तद्भव शब्दो में इनकी परिवर्तित स्थिति है, पर देश्य शब्दो मे ये वर्ण आदि मध्य, और अन्त्य तीनो स्थितियो मे अपने मूल रूप में विद्यमान है । इनका विस्तृत विवरण ध्यजनो की प्रवृत्ति का विवेचन करते समय दिया जा चुका है। (क) प्रघोप अल्पप्राण क, च, ट, त, प, को सघोष अल्पप्रारण ग, ज, ड, द, ब
में परिवर्तित कर देने के उदाहरण नही हैं । (स) अघोप महाप्राण स, छ, ठ, प, फ, को सोप महाप्राण थ, झ, 6, घ, भ,
मे घोषीकृत करने के उदाहरण भी नहीं हैं। इनमे ख, ष, फ को 'ह' मे
परिवर्तित करने के उदाहरण मिल जाते हैं-जैसेल- दुम्मुहो। दुर्मुख , घूमसिहा धूमशिखा, मुहल। मुखम् । थ- जहाजानो।यथाजात., पाहेज्जी पाथेयम् । फ- खन्नुहो। गुल्फ । 6. महाप्राणीकरण -
जैसे-धरूत्सर, थोयो। स्तेप या स्तोक ! ध्यंजन-सयोग
देशीनाममाला की शब्दावली मे निम्नलिखित व्यजन सयोग प्राप्त होते
प्रवलसंयुक्तव्यजन--
क, ख, ग, घ, ज्च र, ज, झ, है, ह, इंड, इद, ल, त्य ६, , प्प, फ, व, भ । जैसे
एक्वकर्म, कक्खडी, अग्गवेग्रो, अंग्घाडी उच्चारी, उच्छट्टो, उज्जडें, उज्झ मणं, कट्टारी, गिळूहो, कुड्डगिलोई, अड्ढअक्कली, अत्त, अत्थयारि, पद पदणो, अद्वविधार, अप्पगुत्ता, अप्फुण्ण, अब्बुद्धसिरी, अब्भक्खणं,
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बीमार मयुक्त व्यसन
ग, प्ह, म्म, म्भ, म्ह, ल, ल्ह, ब, स्म । में-प्रणाण, उहिया, अम्मा, वमणी (वम्भणी), उम्हाविन, अल्ल, कोल्हाहर्ल, उच्चत्त, गिमले। मित्रमयुक्त यजन-त, न्द, न्य । परन्तु इन्हें सर्वत्र अनुस्वार रूप मे ही लिखा गया
प्रतीहरी, दुरदर अषयू । न्य सोग मिलता तो है, पर ण्ठ रूप में परिवर्तित
मयुक्तासर
सयुक्ताक्षरों क्ष, त्र, तथा म्ह, ल्ह प्रादि का विवेचन पीछे व्यजनो के विवान के बीच विस्तार में किया जा चुका है। इस दृष्टि से किया गया देशीनाममाता को पदावली का अध्ययन कोई महत्त्वपूर्ण परिणाम समक्ष नही लाता । कन्नो विकार की लगभग सभी दिशाएं म. भा प्रा. जैसी ही हैं ।
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[ 261 अध्ययन 1. पगाम-मापा जी लघुतम अर्थवान् इकाई को पदयाम कहते है। एक पावागाया अनेक राहादगाम होते हैं । ये सहपदनाम परिपूरक वितरण
पामिक अध्ययन पी हष्टि में देतीनाममाला की शब्दावली अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस प्रकार के अध्ययन में ही इस कोश के शब्दो का सबध किसी युग विरामी भाषा से जोड़ा जा सकता है । "देशीनाममाला' केवल नामपदो का सग्रह गन्चो नामपदी का भारतीय विचन ही यहा अभीष्ट है। निरुक्तकार गार ने पद गमा, के चार विभाग निये 2-1 नाम, 2 पाख्यात, 3. उपसर्ग, 4. निधप्रधान प्रर्यात द्रव्यप्रधान पद नाम हैं। भावप्रधान अर्थात् क्रिया माग पर प्रगान गाहनाने हैं। अगंद्योतक पद उपसर्ग हैं तथा सपाती और पदपूरक पद निरात पहलाते हैं।
देशोनाममाला की शब्दावन्नी का सम्बन्ध प्रथम वर्ग की शब्दावली से है। जमो अन्तर्गत, सजा, विशेपण पीर प्रियानिशेपण पदो का समाहार किया जाता है। पारवान प्रर्धात क्रियापदो का प्रयोग देशीनाममाला की शब्दावली मे नही के बगबर है जो है भी, कृदन्ती प्रयोगो के प्राधार पर विशेपण या मिया विशेषण स्प मे है । उपमर्ग सज्ञापो के व्युत्पादक अभिन्न अ ग वनकर आये हैं । मुक्त रूप में प्रर्यवान् न होते हुए भी ये पद-बद्ध होकर अर्यवान हो जाते हैं । प्रत इनका विवेचन धुवादक प्रत्ययो के रूप में किया जाना चाहिए। निपातो की स्थिति देशीनाममाला की शब्दावली में नहीं है प्रत. इनका विवेचन यहा किये जाने वाले अध्ययन फा विपय नहीं होगा। शब्दो का स्वरूप
__ भाषा मे किसी भी प्रातिपदिक या धातु का स्वतत्र प्रयोग सभव नही होता । सस्कृत में तो यह नियम ही था-"नापदशस्र प्रयुञ्जीत" | निविभक्तिकपद भाषा का प्रग ही नहीं बन सकता । पाणिनि ने तो सुवन्त या तिडन्त होना, पद का लक्षण ही बताया है । जहा विभक्तियो का कोई लक्षण उपस्थित नही होता वहा भी विभक्तियो का लोपप्रदर्शित कर, पद को विभक्त्यन्त बनाकर प्रयोग करने की प्रवृत्ति है।
1 2. 3.
फवीर की मापा-डा मातावदल जायमवाल, पृ.51 पर दी गयी पाद टिप्पणी। सुप्तिहन्त पदम् । पाणिनि 114114 सध्यपादपिसुप । पाणिनि 214182
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___262 1
इन विवेचन से यह सप्ट हो जाता है कि किसी भी भाषा में व्यवहत होने वाले पदो में प्रत्यय प्रन्यिा अनिवार्य है। देशीनाममाला की शब्दावली मे भी प्रत्यय प्रतिया इसके पदात्मकगन का महत्त्वपूर्ण प्रग है । इसमे सक्रलित सभी शब्द प्रमाल, एम्दवन हैं । इनके लिंग निर्णय मे भी प्रत्यय ही सहायक हैं।
यायव्यापार की दृष्टि से प्रत्यय प्रमुखत दो प्रकार के होते हैं :(1) पुत्लादक प्रत्यय
(2) विभक्ति प्रत्यय (1) ध्युत्पादक प्रत्यय
वे प्रत्यय है जो किमी घातु अथवा प्रातिपदिक के पूर्व या पश्चात सम्बल होगर, दूसरी घानु अथवा प्रातिपदिक का निर्माण करते हैं। (2) विभक्ति प्रत्यय
प्रत्यय है जो रिमी घातु या प्रातिपदिक के अन्त में जुडकर व्याकरणिका रको प्रस्ट वरते हैं। विभक्ति प्रत्यय के बाद फिर कोई प्रत्यय नही जुडता, नाव इन प्रत्ययो यो चरम प्रत्यय कहा जा सकता है। व्युत्पादक प्रत्ययो के आगे, विभक्ति प्रत्यय तो मा सकते हैं, किन्तु विभक्ति प्रत्यय के बाद व्युत्पादक प्रत्यय नहीं पाते हैं।
___ इन्हीं दो विभागों के अनुन्य देशीनाममाला के पदनामिक-गठन का विवेचन नीचे किया जा रहा है। सर्वप्रया विभन्नि प्रत्ययो का विवरण दे देना उपयुक्त होगा। (स) विमरित प्रत्यय
देशीनाममाता के मनी गन्द प्रथमा एकवचन के है। इनमे, ससा, विशेपण और या विपरामद की है। इनमें लगने वाले विभक्ति प्रत्यय इस प्रकार
यर पुगि, मा, विपण पोर रिया विशेपण पदो में लगने वाला नाए व मा प्रत्यय है।। मन में अकारान्त मन्दी के प्रयमा एक वचन के गि नो' पर देने की प्रवृत्ति रही है । प्राकृत मे सभी प्रकारान्त शब्दो के प्रसारमा प्रकारात पर दिया गया । देशीनामगाला के सभी लोका
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:-:- LATE:
पोकारान्त सज्ञा तथा विशेपण
m. समो वागब, नारः, प्रदसणो चोर', प्रवगो-कटाक्ष, ..-:", TET,
उ न र:-प्रोपानो गामाधीश , कठिग्रोयो
। faming:बर.- .
न उवचित्तो नपगतः, उद्धवनो15.- Sam, णिपिरिन', उरलूडो-प्रास्टः, एकको
पनि भूग. । नातिनी 'पोयागन्त' पुल्लिग शब्दी से युक्त
गल' प; न दो और भी निविभक्तिक 'देशी' शब्द 13
ली गनुपनियन पोर 'पोरान्न' शब्दो का वाहुल्य, देशीनापीकोकासारवाला अपना से पूर्व की 'प्रोकार-बहुला
रना है।न को प्रोकारान्त पदो में, अधिकाश तद्भव भी लिम प्रात भाता है। प्रकार देणीनाममाला की शब्दावली
far प्रायन गोदगम्पत्ति है । इसे अपभ्रश से किसी प्रकार भी नहीं सोना । उदाहरण की गाथायोगे भी प्रथमा ए व के रूपो मे 'नो' रिमा प्रत्यय का व्यवहार प्रा है ! 'उकारान्त' प्रयोग एक भी नहीं हैं। प्रासन प्रोगगन प्ररमा एव व. या प्रयोग अत्यन्त विरल है। डा हरिवल्लभनयागी ने प्रपा में प्रोकारान्त प्रयोगो को प्राताभास माना है। वे पउमचरिउ की भूमिका में लिपने हैं-पत्ती एम वचन Fघ 'नो' बहुत विरल है, जो प्राकृताभास
प्रोर प्रत्यकों के पूर्व या छन्द के अनुरोध से प्रयुक्त होता है।' इसी प्रकार सदेशरागत यो 'प्रोकाराम' प्रगोगो को भी भायारणी प्राकृताभास ही कहते हैं । डा वीरेन्द्र श्रीवास्तव भी 'प्रोकारान्त' स्पो को प्राकृत की विशेषता स्वीकार फरते हुए, इने प्रपत्र श मे (विशेषतया पश्चिमी अपभ्र ा मे) स्वल्प प्रयोग का विषय बतलाते हैं । वे लिखते हैं- 'वस्तुत.' पो 'अपभ्र श भाषा मे प्राकृताभास है । संस्कृत को अकारन्त प्रथमा एक वचन का विसर्गान्त रूप अवर्ण, वर्गों के तृतीय, चतुर्थ,
1. उमचरिउ~-मायाणी की भूमिका, पृ 61 । 2. सदेशरामक भूमिका, पृ. 28
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264 1 पचमनी, अन्नन्य, यो ह (हश् प्रत्याहार) के परे होने पर 'नो' मे मधिनियम से
न हो जाता है। उसी प्रोकारान्त नप को प्राकृत ने स्वीकृत कर लिया (घाव-प्रा अन्, प्रोत् नो (511)। अपन श ने लघुच्चरित कर इसे 'उ' मे पर दिया पर कुछ रूप प्रानन्द चलते रहे हैं।
गागरा प्य में यह कहा जा सकता है कि देशीनाममाला के प्रोकारान्त शब्द मात्रा की 'कारान्त' की अन्यारी पूर्वावन्या का द्योतन करने वाले है। इसकी विगर बना इस नन्द दी जा नाती है -
प्रम737 प्रो73।
देनानमाला के प्रायागन्त पद प्राय. स्त्रीलिङ्ग है । यह संस्कृत के स्त्रीनिंग चाची टाप् प्रत्यय के अनुकरण पर ही हुआ है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य
मनाग्द
प्रगिला गणना, नणमिग्रा-नापिच्छलता प्रत्यणा असती, अणुमूग्राघालताना, पाना-प्रम्बा, ग्रहावा-गमती, ग्रामवा-इच्छा, इरिग्रा-कुटी, उप्फुपिकी, कलिग्रागी, पापिया कोकिला इत्यादि ।
पर प्रकारान्त' देण्यपदो में 'या' विभक्ति प्रत्यय का अग न होकर ऐसा रगता है, मामानिदिक का ही अगबन कर पाया है। ऐसे प्राकारान्त पद-अथं की are भी पोलिंग पानी नहीं हैं। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं -
प्रजघा-माना (नति), प्रचना कोप , अमाग-बदली, पाहाटापता: प्रो-निशान, कामिना-प्रवचारी पन्नम्, कालिया शरीरम्, कोडला4 7 बसमटा-बनवार ? बैशा-मश्र ।
प्रा प्रयोगी अन्य विभक्ति 'देसी' प्रयोग कहा जा सकता है।
नि-प्रत्यय का निर्धारण नहीं दिया गा मरना । प्रति प्रत्यय प
नीय ये मन्द अर्थगत विकार की विषयवस्तु है। प्रकली सम्कृत माग गयो बी युति दे पाना एक प्रगम्भव मा कार्य है। MEHTप्रकारापानी की सम्पनि है। युग युगों में भाषा में प्रयुक्त
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होये आने के कारण इनका अर्थ मात्र ज्ञात होता है । ऐसे शब्दो को अज्ञातव्युत्पत्तिक शब्दो की कोटि मे रखा जा सकता है।
प्राकृत भापा मे संस्कृत के अकारान्त शब्द की प्रथमा विभक्ति के ब. व मे विसर्गयुक्त प्राकारान्त से, विसर्ग का लोप कर केवल 'या' के प्रयोग की प्रवृत्ति भी रही है-जैसे वच्चा-वत्सा । देशीनाममाला के कुछ प्राकारान्त शब्दो मे यह प्रवृत्ति देखी जा सकती हैं
उवलभत्ता-वलयानि, खड्डा-मौक्तिकानि, गुन्दा, गुपा-बिन्दव , चाउलातण्डुला ।
उपर्युक्त नीन विशेषताग्रो के अन्तर्गत देशीनाममाला के समस्त प्राकारान्त पद समाहित किये जा सकते है । विशुद्ध देश्य प्रकृति के शब्दो मे इसे शून्यविभक्तिक प्रयोग भी कहा जा सकता है ।
प्राकारान्त पदो की भाति ईकारान्त पद भो तद्भव और देश्य दो प्रकार के हैं । ऐसे शब्द कही तो विभक्त्यन्त हैं और कही निविक्तिक । विभक्त्यन्त पदो मे 'ई' स्त्रीलिंगवाची विभक्ति प्रत्यय है । ऐसे शब्दो मे यह सस्कृत के स्त्रीलिंगवाची 'डीप' प्रत्यय का ही विकास है । तद्भव शब्दो से अलग 'ई' प्रत्यय लघुतावाचक भी हैं। दोनो के उदाहरण द्रष्टव्य हैस्त्रीलिंगवाची 'ई' ~~
खोट्टी-दासी, गड्डरी-छागी, गत्ताडी-गायिका, गदीणी-चक्षु स्थगन-क्रीडा, मल्लारणी-मामी, महावल्ली, नलिनी, माणसी-मायाविनी,मामी-मातु-लानी,मायदीश्वेताबरासन्यासिनी मेठी-पीलवान की स्त्री इत्यादि । लघुतावाचक 'ई'
यह प्रा 'डी' और 'री' व्युत्पादक परप्रत्ययो के साथ मिलकर प्रयुक्त है । इसका विस्तृत विवरण व्युत्पादक प्रत्ययो के प्रसग मे दिया जायेगा। खडक्की-खिडकी, गोजी-मजरी आदि इसके उदाहरण है । शून्यविभक्तिक 'इ' प्रत्यय
जैसे-अणुसुत्तो-अनुकूल , ई दग्गी-तुहिनम्, उत्तु रिद्धी-दृप्त', उद्धच्छवी, उररी__ पशु., खुल्लिरी सकेत: घुग्घुरी.,-मण्डूक., छछुई-कपिकच्छू इत्यादि ।
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यह नपु.लि. का द्योतक विभक्ति प्रत्यय है। देशीनाममाला के सज्ञा और विगेपण पदों में यह दो रूपो मे व्यवहृत है। एक तो संस्कृत (फलम् आदि) के अनुकरण पर विभक्ति प्रत्यय (प्रए व ) के रूप मे और दूसरे स्वार्थिक श्र (सस्कृत 'क') और कृदनी 'त' (प्र) प्रत्यय के स्थानी रूप मे । स्वार्थिक 'अ' के स्थानी रूप में यह र विशेषरण पदो में व्यवहृत हुआ है। क्रमश दोनो के उदाहरण इस प्रकार है
प्रवक्त-ग्रानान्तम्, अण्णमय-पुनरुक्तम, अवगूढ-व्यलीकम्, इदग्गिधूमंतुहिनम् गुन-चुम्बनम्, गोड-काननम, झमुर-ताम्बूलम् इत्यादि । म्यायिक 'क' प्रौर कृदन्ती 'त' का स्थानी यं--
ज्नु भिप्र-रद्धगलगेदन (उन मुम्भितम), प्रौअग्घियं-घात (अव-अाघ्रात), कडन्नि बारितम् ('न'), भलुमिग्र -दग्ध ('न') णिहुन-
निर्व्यापार (निभृत) इत्यादि।
दनिय-निरिगतान (दलिक), बन्ध-इक्षसदृश तणम् (क), वेप्युअ-निशुत्व (क), हलिग्र -शीन (लघुक ) । म्वाधिक 'क' प्रत्यत्य के स्थानी 'अ' और तज्जन्य 'प्र' प्रत्यय मयुक्त म्प, 'त' के न्यानी रुपो की तुलना मे, अत्यल्प हैं । देनी--
अन्यानेक देमी पन्दी में यह विभक्ति प्रत्यय न होकर पूरे प्रातिपदिक का ही प्रग वाकर ग्रगा। ऐसे शब्द नम्वन ने अव्युत्पाद्य है। इस कोटि के कुछ प्रयोग दादन ?
___ मालिप्र-गृहम, मलिन -नयक्षेत्रम्, ग्ढुग्र-रज्जु इत्यादि । परन्तु प्राचार्य गचन्द न एन मनी शन्दी में निपचन ही मानकर मकानित किया है। उदाहरण सो गामामो न ना प्रयोग विभवन्यन्न नपु नि० गन्दी के रूप में ही किया गया है। (ज) निविरित शून्य प्रयोग
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[ 267 उकारान- गाहु-उल्लूक', टिंम्बर-एकफल विशेप, वीसु-जोडे मे से एक, हण
अधूरा। अकारान्त- प्रधधू.कूप , प्रयु सू-शरभ , पाऊ-सलिल, उच्छुच्छू-हप्त , उच्छू-वात ,
उड तगपरिवारणम्, कलबू-तुम्बीपायम्, काहेण-गु जा, केऊ-कन्दः, कोरण लेखा (पवित), सेनालू-नि सह , चित्तदाऊ, मधुपटलम्, । डाऊ-फलिहमक 'वृक्ष , रिणम्मसू-तरुण.. थरू-तलवार की मूठ, दसू. शोक, पलभू-सेवा, पाऊ-भवतम्. पिंचू-पक्वकरीरम् भल्लू - ऋक्ष , मऊपर्वत., मुग्गूगू-नकुन , वज-लावण्य, वगेवडू- शूकर , वसू-ढेर, वहू
मुगधिन-द्रव, वेलू चोर । एकारान्त-पु ने अलगाव ।
जायुंपा विभक्त्यन्त प्रत्ययो को दृष्टि में रखते हुए देशीनाममाला की शब्दावली को स्पष्ट ही दो भागो मे वाटा जा सकता है-(1) सस्कृत के अनुकरण पर विकलित प्राकृतो की विशेषतायो से युक्त शब्दावली, (2) देश्यशब्दावली जिसे अज्ञातव्युत्पत्तिक कहा जा सकता है । (2) व्युत्पादक प्रत्यय :
व्युत्पादक प्रत्ययो का किमी भाषा की शाब्दिक या पदगत रचना मे बहुत बडा हाथ रहता है । व्युत्पादक प्रत्ययो को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है--- (क) व्युत्पादक पूर्व प्रत्यय-जिन्हे उपसर्ग कहा जाता है (स) व्युत्पादक परप्रत्यय-ये सजा एव क्रियापदो मे लगकर उनका एक अलग अर्थवान रूप निर्मित करते है । देणीनाममाला की शब्दावली में दोनो प्रकार के प्रत्ययो का व्यवहार हुआ है । इनका विस्तृत विवेचन इस प्रकार है । (क) व्युत्पादक पूर्व प्रत्यय या उपसर्ग
मापिक सरचना में उपसर्गो' का बहुत बडा स्थान है । पदात्मक गठन के सदर्भ मे इनकी महत्ता वहत प्राचीन काल से ही स्वीकार की जाती रही है। उपसर्ग सज्ञा या क्रिया पदो मे लगकर उनका अर्थ वदल देते है । मुक्तावस्था मे उपसर्ग अर्थवान् होते हैं या नहीं, इस बात पर पर्याप्त विवाद रहा है । शाकटायन की सम्मति मे उप सर्ग विना सम्बन्ध के अर्थ का कथन नहीं करते, नाम और पाख्यात से सयुक्त होकर अर्थद्योतक बनते हैं। गार्य का विचार है कि उपसर्गों के विविध अर्थ होते है
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.--"न निर्वदा उपमर्गा अर्यान्निराहरितिकाशटायन । नामाख्यातयोगे कर्मोपनयोगद्यातकाभवन्ति । उच्चावचा पदार्था भवन्ति इति गार्य ।"1
पाणिनि ने प्रियायोग मे ही उपसर्ग सज्ञा स्वीकार की और यह माना कि उससे योग में बलात् धात्वर्थ अन्य प्रतीत होने लगता है । सस्कृत मे प्र, अप, स, निर्, दुर प्रादि प्रमुन्न 22 उपसर्ग माने गये । इनकी अपनी अर्यवान् मत्ता तो है ही, सज्ञा या धातु में जुडकर ये उनका अर्थ भी बदल देते हैं । म भा प्रा मे प्रा भा या के उपनगों का ध्वनिपरिवर्तन के साथ प्रयोग किया गया । शब्दो के आदि मे जुड़ने के वारण उन्हे पूर्वसर्ग (prefix) भी कहा गया है। गदग्नामिक अध्ययन की दृष्टि में ये प्राव पदनाम है जो कि युक्तपदग्राम में जुडकर उसमे अर्थ परिवर्तन कर देते है । वाधुनिक भाषा वैज्ञानिक इन्हें पूर्व प्रादपदग्रामो अर्थात् पूर्वप्रत्ययो की सज्ञा से अभिहित करते हैं । देणीनाममाला की शब्दावली में भी इन पूर्वप्रत्ययो या उपसर्गों के प्रयोग देने जा सकते हैं । यहा प्रयुक्त उपसर्ग पूर्णतया म भा या के उपसर्गों का अनारा परते हैं।
पसम - पहाण प्रतिष्ठान, पउत्यप्रोधित (गृह), पएमो/प्रातिवेश्मिक ,
परिहयो प्रतिहस्त आदि । प्रम ,प्रप- प्रवगा/अपाह ग, अवहानो अपभोग, अवरत्तयो । अपरचत । प्रबाप्रय- अवगियो अवगणित,अवअण्णे अवहन् । प्रवप्र- प्रवत्तय प्रवृत् ।
प्रोपिन नव-याघ्रात, प्रोढ प्रवदग्ध, पोहत्तोपत्त, प्रोसित्त
Lप्रमिालम् । प्रोप्राप्रप- घोडाप्रपोप्रपातप. (प्रयाप्रमो),
শহিঙ্গা গণ্য प्रा- योगीनाउन शीर्ष । मामा- अनीतु:, अणुमृग्राम ! fro- गिनियमन, लिपी निकृति दम्भ ),
गि प्रमनियत, गिउपको निम्म ।
} :~-7-113 2 7 14 दिन 111159 7 घाा बलाद यननीयी-प्रहाराहा महार FI
-f... यान्त्रिा ।
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। 269 णि निर,निस् -णि रगी।निर्स गी, रिगरिंगणनिर्गतम् ।
हिस्सको नि णक. (निर्भर.) रिगळुहिन निष्ठ्यूत, गिट्ट हो। निस्तब्धः।
रिणफरिसोनिर्-स्पर्श । दुदुर्- दुम्मुनोदुर्मुस. (बन्दर),दुम्मइपिए। दुर्मति, दूदुर- दूमलो, दूहलो।दुर्भग , दूहट्ठो।दुर्ह दय । विवि- विक्केणुग विक्री, विश्वभविष्कभ,
विच्चड्डो। विच्छई , विलुत्तहिनो विलुप्तहृदय । अगयो । अकाय (राक्षस), अइरजुवई,अचिरयुवती, अगहणो
अग्रहण , अचल अचल (गृह) माध्या ग्रार पोटोविन प्राटोपित (कोधित), श्रारेइग्र पारेचित (मुकुलित)
प्रारोहोमारोह (स्तन) अहिट अभि अहिासण. अभीदण्य, अहिहाण अभिधानम् । केवल दो ही उदाह
रण हैं।
अहि अघि के उदाहरण एक भी नहीं है । प्रति- प्राणिन अतिनीत । सुमु- सुदारुणो। सुदारणो (चाण्डाल), सुदुम्मणिग्रा,
मुलनमजरी आदि में भी 'सु' का प्रयोग लक्षित किया जा सकता
है । पर ये शब्द अज्ञात व्युत्पत्तिक है । उ.उत्, उद्- उग्घयो। उद्घात (समूह), उग्धुट्ट उद्धृष्ट (साहस), उच्छित्त
Lउत्क्षिप्त (विक्षिप्त), उत्थरघो/उत्-स्थग्, उद्दिसिन उत्
दिश । ऊ7उन्- ऊसविना उत-अप् (उद्भ्रान्त)
सुभिन्न उद्-सुम्भ । ऊ.उप- ऊहट्ट Lउप-हस । पडिप्रति पडिक्कियो प्रतिक्रिया, पडिखध / प्रतिस्कघ,पडिच्छन्दो/प्रतिच्छन्द
(मुखम्), पडिरिणअसण/प्रतिनिवसन (रात्रि का वस्त्र)। देसो पडि- पडिच्छनो-समय पडित्थिरो-सदृश ।
पडिसत-प्रतिकूलं, पडिसारो-पटुता आदि । परिम्परि- परिहण,परिधानं, परिहारइत्तिमापरिहार्या स्त्री।
परिहच्छ।परिहस्त (पटु) आदि । उव/उप- उवकय /उपकृत, उवदीव, उपद्वीप,
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उवमन्गो/उपमृ, उवउज्जो/उपकृतः । प्रणा अन् न-प्रा मा पा में अजन के पूर्व न को 'अ' हो जाता था और
स्वर से पूर्व अन् । म मा या मे यही अन् - अरण के रूप में प्रयुक्त होता दखा जा सकता है । दे ना मा की शब्दावली मे भी यह पूर्वसर्ग प्रयुक्त है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैंप्रणाअनघ, अगडो/अनृतः । अव्युत्पाद्य देश्य शब्दो मे भी
इमसी स्थिति अत्यन्त स्पष्ट हैप्रगन्धिनार-अन्छिन्न, अणरामप्रो-परति , अपरिक्को-क्षरणरहित ,
ग्राहप्परगप-प्रनष्ट, अणहारो-ऊंचा नीचा असमतल आदि । (ब) व्युत्पादक पर प्रत्यय
गाब्दिक नरचना में युवादक परप्रत्ययो का बहुत बडा हाथ होता है । प्रामा प्रा में उन्हें तद्धित और कृदन्त दो विभागों के अन्तर्गत बर्गीकृत किया गया
किती कृदन्त नामपद से, जिसके अन्तर्गत सना, सर्वनाम और विशेपण हैं अन्य नाम पद का निर्माण करने वाले प्रत्यय तद्धित कहलाते हैं और किसी, वातु मे सयुक्त होमरद का निर्माण करने वाले प्रत्यय कृदन्त कहलाते हैं । देशीनाममाला की देश्य मन्दिर गन्यता में इन दोनो प्रकार के प्रत्ययो का महत्वपूर्ण स्थान है । इसमे
का प्रत्यय तो नकृन के हैं, कुछ प्रार्येतर द्राविड श्रादि भाणो के और पुट विमुदाय में 'दमी' है । तदित और कृदन्त इन दो विभागो के अन्तर्गत इस कोश रेली में व्यवहार प्रत्यो का विवरण नीचे दिया जा रहा है। नचिनान्त सन्द
प्राप्ताशिल प्रयोगो को पाच वों में विभाजित किया जा सकता है --- (1) वापिर प्रत्यय
नानादी में स्वायं में कई प्रकार के प्रत्ययों का व्यवहार हा 12 मागि प्रत्ययों को देते हुए उनके भिन्न-भिन्न प्रदेशो की भापा से
का निदान भी ग्पष्ट हो जाता है ।
: ना ! - नाशा
यो में यह प्रत्यय पर्याप्त मात्रा में व्यवहृत है । यह अल्पार्थ है। दमहफामुग्रो इन्द्रमहवामुक , उत्तरगावर दिया।
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उत्तरणवरडिका (नाव), करिना।कारिका, कासिम कशिक,कोलियो।कौलिक जोइअो।ज्योतिष्कः, दलिअ । दलिक, पडिच्छिा । प्रति-इच्छिका,बीअयो।बीजकः, भट्टियो। भर्तृक इत्यादि। अड़ या इ
आ भा. प्रा. मे ट् स्वार्थवत् प्रयोग- यह विशुद्ध देशी प्रत्यय है । हेमचन्द्र 8141429 तथा तर्कवागीश 31216 मे इस प्रत्यय का विवरण देते हैं । अपभ्र श भाषा का यह अपना प्रत्यय माना गया है । अपभ्र श मे यह देश्य शब्दो के प्रयोगबाहुल्य के कारण ही प्राया होगा। लगभग सभी प्राकृत व्याकरणकारो ये इस प्रत्यय की स्थिति स्वीकार की है। रामतर्कवागीश ने स्वाथिक-इ-प्रत्यय को कोन्तली तथा -डी-प्रत्यय को पाचालिका की विशेषता बताया है। उत्तरी राजस्थान मे अाज भी-डी-प्रत्ययान्त शब्दो का वाहल्य है। हिन्दी मे लकडी, पगडी, झाडी, मराठी मे पारडू, करडू शेरडू तथा गुजराती मे भनडू, दियडू अादि प्रयोग इसी स्वार्थिक प्रत्यय से सवद्ध हैं ।
पुल्लिग मे प्रयुक्त होने पर यह प्रत्यय 'डा' (अतो स्त्रिया डा) तथा स्त्रीलिंग मे प्रयुक्त ही -डी- के रूप मे पाता है। परन्तु दे ना मा के शब्दो मे इन प्रत्ययो का प्रयोग इस नियम से मुक्त है ।
अडाडो बलात्कारः, करडा-लटू,करडो-याघ्र , घटिअघडा-गोष्ठी, झाड-लतागहन (हिन्दी-झाडी), डड-चीथडा, तडमडो क्षुभित , तडवडा एकवृक्ष, तल्लड-पलग, तिरिडो-तिमिरवृक्षः परडा एक साप, पुरोहड, वेडो-नाव (बडा) डी
पाराडी-विलपितम्, करयडी-स्थूलवस्त्र, करोडी-कीटिका, खडहडी-तरुमर्कट गत्ताडी-गायिका, गोडी-मजरी, धम्मोडी-मध्याह्नसमय, झडी-निरन्तरवृष्टि , डडी-चीथड़ा, तणवरडी-एकनाव, ततडी-दही की कढी, तोतडी-कढी, घाडी-फेंका हुअा, पखुडी-पत्ती, मउडी-जूट, मडी पिधानिका, रोडी इच्छा, तुरुडी-फोडा । कही-कही अड्+डी साथ-साथ भी पाये हैं-जैसे
छुरमड्डी-नापितः तिरिड्डी-उणवात , पड्डी-प्रथम-प्रसूता ।
1 2
डकारमम्नी क्लि कौन्तली स्यात् 313139 ई डी बहुलात् पाउचालिका-313139
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272 ]
रो
कच्छी-वात्र, कट्टारी-झुन्किा, करमरी-बलात् लायी गयी स्त्री, गड्डरीछागी, बिल्लिगे-माफ प्रादि । द - यह भी 'देमी प्रत्यय है ।
भोट्टी-प्रघमहिपी, तरवडो-क वृक्ष, धट्टी-पशु , दुग्धुट्टो-हस्ती, परिहट्टीप्राय पंग, पोट्ट उदरम, गेट्ट-पाटा ।
गाउटो-मभाव , यउट-भेलावा का वृक्ष, वेड्डा-मू छ-दाढी, मड्डा
बलात्कार , दड्डो-महान् हुड्डा-जुग्रा, हिड्डो-वामन अल्ल-इल्ल-टल्ल-उल्ली
इनकी तुलना प्रा. मा पा के उल (चटुल-मृदुल) से की जा सकती है । पर प्रा ना आ मे भी यह देश-भापायो मे ही लिया गया होगा। पाणिनि के उणादि प्रत्ययो में अनेक देग्य प्रकृति के है । ग्रन यह विगुद्व 'दमी' प्रत्यय है । रामतकंवागीश ने वैदी मे न प्रत्यय का प्रयोग वाहुल्य बताया है
'वेदमकामन्नघना वन' 31318 मारंप्टेब गिल वाते है । दे ना मा की शब्दरचना मे इन प्रत्ययो का वाहुल्य
उम्मन्न तृप्या, उम्मल तोन्नृप , प्रोल्ली-दीर्घमधुरध्वनि., कल्ला-मद्यम् निन्दा-गनिपती, दरवत्लो गाम स्वामी, मूप्रत्लो मूक , लइग्रल्लीबृपभ गिल-बमातम्,प्राकिलो नवीन, एककनाहिल्लो एकस्थानवाची, एक्क पछिल्लो देवर, पोरिलो-प्रल्पमम्य ,, कइलबरलोम्वच्छदचारी वृपभ , गन्दा लो मयूर । लन्टिलो -प्य , रन्दुल्लो अनुवाद , उमपुर ना-पुरा, काउन्ल
बोनस पाउनोस अम्मा-पुनी-गिला, पन्निन गपितम्
परियो सादिमनन, प्रथरिकको भणरहितः, उबुक्क रदन, बट्टिक्कोगोनिन, मटरको उद्धार प्रादि ।
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[
273
फत्त त्ववाचक प्रत्ययआण- प्रोडण-उत्तरीयम, पोहरण-विनिपातनम्, कुद्दणो-रासक कूसरण-खट्टा,
कुनफमरणो-कुल कलक । हार-हारी-हर-हरी
बउहारी, बोहारी-झाड़, बोहहरो-मागध.
अंतहरी-दागी। नागा- अग्धागो तृप्न. ।
यगनिज-अनवननम् । चुज-मानर्यम् ।
वालप्प-पुच्छ, विडप्पो-राहु , झोडप्पो-चना, टिप्पी-तिलक । नम्बधार्थक प्रत्यय
पारी-प्रार/कार-पेपणयारी-दूनी
प्राग्राली-मिश्रीभावः, ग्रावाल-जननिकटम्, कटुनालो-लघुमत्स्य : ई-का-कमणी-जमणी (गीढी) कु तली एक प्याला । खदाकी विटविकका-खिडकी, गाणी गणिका-गायिका ।
गागणी ग्रामगी-प्रामाधिपति । पणी-देली प्रत्यय
गामेणी गाम : एगी-छागी
वती, गती-दुम्बवती-नदी, कुक्सिमईकुक्षिमती-गभिरणी । म्नी प्रत्ययग्रा
अडयणा, अडया असती, कायपिउच्छा-कोकिला, कलिया-सखी, कीला
नववधू, कुकुला-नववधू, नागेज्जा-नवपरिणीता, चिरचिरा-जलधारा । अाया- गड्ढ-शैया ।
कल्होडी-बछिया, कुट्टयरी-चण्डी, खडई-असती, गाणी-गायिका,गोवी
बाला, भीरा-नज्जा, गदा-गाय । गो
गदीणी-चक्षु,स्थगनक्रीडा, रणदिणी-गाय, पीसगी-सीढी, दुद्धिणी
दुधहँडी, पच्चुच्युहणी नवसुरा । रु चरणी-आटे की चक्की। एणी-गामेणी-छागी (हिन्दी मे दहँडी) । इग्रा/इका- उत्तरणवरडिया-नौका, गणणाइना-चण्डी, घुणघुणिमा-कर्णोप
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प्राया
274 ] कणिका, गोमणिग्रा-मोटी, दुििद्धणिग्रा-दुधहँडी, पडिच्छिना-प्रतिहारी। इन्गी- दुम्मइगी-फलहशीला स्त्री, दु दुमिणी-रूपवती पुत्राइणी-पिशाचगृहीता,
पुडाणी-नलिनी ।
फेलाया-मातुलानी मयामलामा-सारिका । प्राई- वणमबाई -कोकिला जाई-मुरा । अई- वाई-वृक्षपक्ति , जीवयमई-मृगाकर्षण हेतु व्याधिमृगी (5) कृदन्तीप्रयोग
देशीनाममाला की शब्दावली में भूत कृदन्त तथा भाववाची कृदन्त के प्रयोग ही देखने में प्राते हैं । उनके उदाहरण नीचे दिये जा रहे है नूतकृदन्तप्र प्रा मा या यत
प्रचनिय-प्रनिफलिन, अज्मवसिग्र-दाढी मूछ से सफाचट, अछिप्रयाट, प्रोनिवियत्र -गनिव्याघात प्रौमिरित्र -घ्रातम् कडततिन-दारित त्यादि। गमग मनी विशेषणपदो में जो ग्रान्यातज हैं। इस प्रत्यय का व्यवहार देखा जा
नवन
ग्रागिन (प्रमित जगा उत्ती/जनायुक्त.- ग्राम प्रधानपुरप । दिप्रधुनीपार , दिग्दन - दोपहर का भोजन । भारतामा प्रगा प्रा मा या अन
331 उदभातनम् (पादि में पटोग्ना), उज्झना, प्रोज्झमरणक्पलायनम् अपने पाणी पुट-लेपन -नृता, मुटिअपेगगा--ब्राह्मण का भेजा जाना छिक्कोग्रणोपमान , मि. महा-विवाह ।
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। 275 "अर्थगत अध्ययन" ध्वनि पीर पद यदि किसी शब्द के बाह्य अग है तो अर्थ उसकी प्रात्मा है । जिस प्रकार जीवात्मा के बिना शरीर का कोई मूल्य नही उसी प्रकार अर्थ के बिना शन की कोई महत्ता नहीं है । महाभाष्यकार पतजलि ने 'सिद्ध शब्दार्थ' सवध सूत्र में यही घनित किया है । शब्द और अर्थ दोनो का शाश्वत सम्बन्ध है । यह कहना तो उपयुक्त नहीं कि किनी शब्द विशेष का एक ही अर्थ नित्य है उसका अर्थ परिवर्तित हो माता है, पर शब्द नदेव सार्थक ही होता है । किसी शब्द से उसके किसी अर्थविशेष को नित्यता घोर अनित्यतता के विवाद से परे, मामान्य रूप से यह स्वीकार किया जाता रहा है कि शब्द और अर्ध का सम्बन्ध माश्वत है अर्थात् शब्द सदैव अर्थवान् होता है । वा और अर्थ के इमी शाश्वत सम्बन्ध की चर्चा कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंशम् के प्रारम्भिक श्लोक मे की है
"वागर्थाविव सक्तो वागर्थप्रतिपत्तये" प्रादि । अब एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है-प्राचिर शब्द गे अयं के सम्बन्ध का नियामक कौन है ? महाभाष्यकार पतञ्जलि इस सम्बन्ध का नियामका लोक को मानते हैं । लोक मे शब्दो का व्यवहार ही लिमी शन्द ने उसके प्रथ का नियामक होता है । अत. लोकव्यवहार को ध्यान में रखकर ही किमी शब्द के अर्थ की परीक्षा की जानी चाहिए । यही व्यवस्था निरक्तकार यास्क ने 'अर्थनित्य परीक्षेत' कह कर दी। 'शब्द और अर्थ का सम्बन्ध गुरुत्वाकपंग नियम के अनुसार प्राकृतिक नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो किसी शब्द के उच्चारण करते ही अनाया मर्वत्र सर्वदा एक अर्थ की ही प्रतीति हो जाती । शब्दार्य सम्बन्ध देशकालावचिन्न न होकर भी, किसी व्यक्ति विशेप की इच्छा पर निर्भर न होकार, समाज पर आधारित है। ध्वनियो का अर्थों से कोई प्राकृतिक सम्बन्ध नहीं, फिर भी ध्वन्यानुकरणात्मक, भावाभिव्यजक शब्दो मे ध्वनि का प्रभाव श्रा ही जाता है और किसी भी भापा मे ऐसे शब्दो की नगण्य मात्रा नही होती। उनकी प्रर्थ वोधन प्रक्रिया पर विचार करना ही चाहिए। शव्द वस्तुत अर्थों के सकेत है । जव सकेतो मे मस्ति प्रर्थों की बोधनक्षमता कथचित घट जाती है या नही रहती तो सकेत परिवर्तित कर दिये जाते है या सकेत का नये अर्थ से सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाता है । यही वागर्थप्रतिपत्ति है-शब्द से अर्थ का प्रतिपादन है ।"2
___डा वीरेन्द्र श्रीवास्तव का यह कथन उपर्युक्त कथन का ही समर्थन करता है । शब्दो से अर्थ का सम्बन्ध-ज्ञान पूर्णत लोक व्यवहार पर आधारित है । लोक
1. महागाप्य प्रथम आह्निक । 2. अपभ्र श भाषा का अध्ययन-डा. वीरेन्द्र श्रीवास्तव, 243
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276 1 अवतार को ध्यान में रखते हुए शब्दार्थ नम्बन्च का निर्धारण और उसके अर्थ विकास का विचार हो प्रय-विज्ञान का विषय है। इन्ही सिद्धान्तो के आधार पर देशीनाममालाको दाबली का अर्थगत अध्ययन यहा अमाप्त है। इस कोण मे सकलित
मावलीमा तो पूर्णतया लोरव्यवहार नान पर आधारित है। दे. ना. मा. की नारी का सम्बन्ध अनादि प्रवृत्त प्रातक नापा (लोक मापा) में है। इसमे मचित शब्द युग पुगो में वीर मापात्रो में प्रचलित रहे हैं । जान्त्रो में प्रयुक्त न होने के कारण
न्य नबीन पद्धति पर नहीं किया जा सकता। इनकी महत्ता केवल या अन्चन भी दृष्टि में है । यह अर्थनिर्धारण भी पूर्णतया शब्दो के लोकव्यवहा ग्राश्रित है। देखने में इम कोश के अनेको शब्दो मन और प्राकृत (माहिकिनमेलगते है, पर इनवा अर्थ मस्त और प्राकृत के अर्थविकास से नहीं जुड पाना । उनले प्रर्य का नियामक तो लोक ही है। लोक में प्रचलित इनके प्रयोगो को पर ही उन अयं का निर्धारण किया जा सकता है। यही कारण है कि प्राचार्य हेमचन्द्र इन गब्दो को किमी एक युग विशेष की भाषिक सम्पत्ति न मानते नया नम्बत अनादिप्रवृत्त लोकमापा से बताते है
..." "तस्मादनादि प्रवृत्तप्राकृतनापाविशेप एवाय देशीशब्दो नोच्यत नि नातिव्याप्नि.11
इन अनानव्युत्पत्तिक गब्दो का अध्ययन केवल अयं की ही दृष्टि मे किया
है । बत्रामा और पदात्मक दृष्टि से दी गयी इनकी युवत्ति अत्यत भामर हात्याम्पद मी लगती है, अतः अर्थ-विमान की विविध दिशाम्रो को घामपाही नपा अध्ययन किया जाना उपयुक्त होगा।
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'
[ 277 अज्ञात प्रतिपरोक्षशब्द की व्यास्या परोक्षवृत्ति का प्राश्रय लेकर प्रत्यक्षवृत्ति से करनी नाहिए । निरुत के टीकाकार दुर्गाचार्य इस प्रप्रिया का एक उदाहरण भी देते है, व स्वय 'निघण्ट' शब्द को अतिपरोक्षवृत्ति शब्द मान पहले परोक्षवृत्ति 'निगन्तव' शब्द में उसे व्यत्पन्न करते है और फिर निगमयिनार' जैसे प्रत्यक्ष क्रिया वाले ब्द से बने व्युत्पन्न कर लेते हैं।
निरुपत या व्युत्पत्तिशास्न भाषा विज्ञान का एक महत्वपूर्ण अग है। किसी भी भाग में बावरत पद को समझने के लिए उसकी निरुक्ति आवश्यक है। दे ना मा.गी पदावली भी निगक्ति की अपेक्षा रखती है। परन्तु इस निरुक्ति के लिए पति-प्रत्यय का निर्धारण किया ही जाये, यह आवश्यक नही । शाकटायन: या नैरक्त सम्प्रदाय नी नाति सभी शब्दो का प्रकृति-प्रत्यय विवेचन अनिवार्य माने बिना भी गाय की भाति गध्यम मार्ग का अनुसरण किया जा सकता है । शाकटायन और यास्क ने सभी पदो की व्युत्पत्ति मे प्रकृति-प्रत्यय निर्धारण आवश्यक माना था, परन्तु गाय-समझते है कि सभी शब्दो की व्युत्पत्ति दे पाना सम्भाव्य नही, प्रत अमात व्युत्पत्तिक शब्दो के अर्थ अवधारण मात्र से स तोप कर लेना उपयुक्त है, उनकी दृष्टि में निर्वचन सभाव्य शब्दो की ही व्युत्पत्ति अन्वेषणीय है । देशीनाममाला के गब्दो मे भी यही सिद्वान्त लागू किया जाना चाहिए । इसमे नकलित अनेको शब्द ऐगे हैं, जिनकी शास्तसम्मत न्युत्पत्ति दी जा सकती है, पर यह व्युत्पत्ति ध्वन्यात्मक एव स्पात्मक समानता तक ही सीमित होगी अर्थविज्ञान की दृष्टि ने उपयुक्त नहीं होगी। एक उदाहरण लिया जाये-दे ना. मा 4 'अमयरिणग्गमो गन्द प्राया है । व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह शब्द संस्कृत का 'अमृतनिर्गम 'शब्द है । इनगे ध्वनिगत विकार (वर्ण विकार) ध्वनिविज्ञान का विषय है, इसका रूपात्मका अश रूप विज्ञान का विषय है, परन्तु अर्थविज्ञान की दृष्टि से दोनो मे अन्तर या जाता है। 'ग्रमयरिणग्गमो' का अर्थ चन्द्रमा है, परन्तु 'अमृतनिर्गम' पर पूरे रास्कृत साहित्य मे कही भी चन्द्रमा के अर्थ मे व्यवहृत नही है । ऐसी स्थिति में इसकी व्युत्पत्ति अधूरी रह जाती है । यह पहले ही कहा जा चुका है कि शब्द और अर्ष का शाश्वत सम्बन्ध है। यदि शब्द है तो उसका कुछ अर्थ भी होगा गोर अर्थ का निर्धारक लोक होता है। अत किसी भी शब्द की व्युत्पत्ति देते समय अर्थ को ध्यान मे रखना आवश्यक हो जाता है। स्वय निरुक्तकार
-
1
विविध ही शब्दावस्था-प्रत्यक्षवृत्तय परोक्षवृत्तय , अतिपरोक्षवृत्तयश्च। ततीक्तक्रिया प्रत्यक्षवृत्तय अन्तर्लीननिया. परोक्षवृत्तय महिपरोक्षवृत्ति' शब्देपु निर्वचनाम्यपाय.। तस्मात्परोक्षवत्तिमापाय प्रत्यक्षवृत्तिना शब्देन निर्वक्तव्या तद्यथा निघण्टव इत्यतिपरोक्षवृत्ति. निगन्तय इति परोक्षवृत्ति, निगमयितार इति प्रत्यक्ष वृत्ति.। -निरुक्त 11115 पर वृत्ति । निरुक्त-1112
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278 याब ने भी प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति देने का प्रयास किया था, पर इस झोक मे वे चिनने ही शन्दी की उटपटाग व्युत्पत्तिया दे गये हैं । यही कारण है कि हेमचन्द्र समय होते हा भी देण्यपदो की व्युत्पत्ति (प्रकृति-प्रत्यय निर्धारण) के चक्कर मे नहीं । उनि लोक को प्रमाण मानकर, अनादिप्रवृत्तप्राकृत भाषा (लोकभाषा) केन्दो का अर्थनिर्धारमा मात्र कर दिया है । इस कोश के अधिकाश शब्द ध्वन्यात्मक ग्य पान्म का गठन की दृष्टि मे म मा पा का अनुगमन करते हैं, परन्तु अर्थ की दृष्टि में वे विल्गाल भिन्न प्रतीत होते है जैसे 'अम्वोच्ची'' को लीजिए-इसका अर्थ है 'पन चुनने वानी' । इनकी व्युत्पत्ति 'ग्राम्राणि उच्चिनोति' इस रूप मे सस्कृत से दी जानी है. फिर भी यह शब्द संस्कृत का नहीं है क्योकि सस्कृत मे न तो इसका प्रयोग ही प्राग्रार न व्युत्पन कर लेने पर ही इसका अर्थ 'फूतचुननेवाली' होता
नरा व्युत्वनिलन्य अर्थ होगा 'ग्राम का फूत चुनने वाली' । परन्तु इस अर्थ मे, लोमा व्यवहार नही होता-प्रतः ये 'देशी' शब्द हैं। हेमचन्द्र स्वय भी कहते
पदि सा अर्ग 'ग्राम का फल चुनने वाली' ही होगा तब यह देशी नहीं होगा
'यदानपुष्पाप्येवाच्चिनीति तदा न देगी।'
रग प्रकार 'देशी' शब्दो का प्राचीन परिपाटी मे किया गया व्युत्पत्तिगत पवन मिती याम का नहीं मिद्ध होता । इनका केवल अर्थ की दृष्टि से किया गया प्रसनी उपयोगी होगा । नाराशप में यह कहा जा सकता है कि 'देशी' पाब्दो का मान परान या अर्थ-विज्ञान के क्षेत्र मे पटता है। व्युत्पत्ति के अन्य प्रग-वर्णागम,
ला, बर्गविपर्यय, वर्णविनाश और धातु का अतिशय योग उन शब्दो अनि निकम ही हो, इनमे उन शब्दो के 'देशीपन' में कोई अन्तर नही HTTEE मात्रा मेरायटी नहीं-प्रनेको ऐमे शब्द हैं, जिन्हे सुधी विद्वानों ने मग या या फिर मम्मन मे विपत तद्भव शब्दावली का श्रग बतलाया है। ऐसे प रामरत-नापा-
गही उभर कर मामने पाता है। ऐसे स्थलो पर ५ मा . या भर राने हति गम्कत व्यय प्राकृतो (लोकभापारो) की ऋणी है ।
Tririमदाता (लोक भाषाम्रो) की सम्पत्ति है। प्रत्येक शब्द को 1. नीट - जानेर में वे वारनविय तथ्यों को और मे ग्राख बन्द -17 AR, विद्वानी द्वारा दी जाने वाली ग्वींचतान से अच्छी तरह
रोने जीनाममाला के प्रारम्न में ही यह स्पष्ट कर दिया
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[ 279 है कि देण्य शब्दो को निरुक्ति किसी प्रकार भी सम्भव नही है । पूरे कोश मे सकलित शब्दावली को वे तीन वर्गों मे वाटते है
(1) जो लक्षण से प्रसिद्ध है-अर्थात् जो शब्दानुशासन के नियमो से अव्युत्पन्न हैं, जिनमे वर्णागम प्रादि चतुर्विध निरुक्तियो का समावेश नही तथा जिनमे प्रकृति प्रत्यय विवेचन का कथाचित् अवकाश नही और जो सर्वथा लोक मे रूढ हैं वे देशी हैं । देशीनाममाला के अधिकाश शब्द इमी कोटि के है जैसे-अक्को-दूत, अगिलाअवज्ञा, अडयणा-अगली, अणड-जार,प्ररिअल्लो-व्याघ्र, प्राहु-उल्लू, कली-शत्र, करडोव्याघ्र, कोलो-ग्रीवा, वेंका-पानी की चर्बी, ढेंकी-धान कूटने की चक्की, कोल्हुग्रोकोल्ह, तहरी शराब, तु गी-रात्रि, थट्टी-पशु , थरी-कपडा बुनने का यत्र, थूणो-अश्व, दारो-कटिसूत्र प्रादि ।
(2) ऐसे शब्द जो सस्कृताभिधान ग्रन्यो मे प्रसिद्ध नहीं है, अर्थात् प्रकृति प्रत्यय से सिद्ध होते हुए भी सस्कृत कोशो मे सकलित नहीं हैं (इन्हे सस्कृताभ शब्द भी कहा जा सकता है) । जैसे अम्बोच्ची-फूल चुनने वाली, अमयणिग्गमो चन्द्रमा, छिन्नोन्मवा छिन्नोद्भवा दूर्वा, अइराणी अधिराज्ञी-इन्द्राणी, वइरोग्रणो वेरोचन बुद्धः प्रादि ।
(3) गौणलक्षणा शक्ति से भी जो शब्द सिद्ध नही है-जैसे वहल्ल-वैल मूर्ख या गगा-गगातट जैसे शब्दो का सकलन नहीं किया गया । ।
देशी शब्दो का यह वैलक्षण्य प्राचार्य हेमचन्द्र ने स्वय ही बता दिया है । जहा कही व्युत्पत्तिलभ्य शब्द का सकलन उन्होने किया भी है, उसके देशी माने जाने का पौचित्य भी प्रतिपादित कर दिया है । इतना सब होने पर भी डा. वूलर जैसे विद्वान् को दे ना मा के सभी शब्द संस्कृत से व्युत्पत्ति गाह्य लगे । शब्दो के स्वरूप को देखकर उन्होने एक भटके से कह तो दिया कि सभी शब्द संस्कृत से व्युत्पत्तिलभ्य है पर व्युत्पत्ति उन्होने एक भी नहीं दी। उनकी ही परिपाटी का अनुसरण श्री रामानुजस्वामी ने किया। देशीनाममाला की भूमिका मे तथा इसकी ग्लासरी (शब्दसूची) मे उन्होने कितने ही 'देशी' शब्दो की व्युत्पत्ति सुझायी है, पर व्युत्पत्ति देते समय वे शब्द के अर्थ पर ध्यान नहीं दे सके, अधिकतर उनका ध्यान ध्वन्यात्मक साम्य पर ही गया है। उनकी बहुत सारी व्युत्पत्तिया निरुक्तकार 'यास्क' की व्युत्पत्तियो की याद ताजा कर देने वाली हैं । यह ठीक है कि देशीनाममाला की
1 दे ना मा 113 कारिका और उसकी वृत्ति । 2. प्राइअलच्छीनाममाला की भूमिका-बूलर, पृ. 14
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[ 281 शब्द बताते है ?..... ........."पुन कुछ और शब्द संस्कृत मूल तक पहुचते है, यपि वे प्रापत वयाफरगो द्वारा स्थापित किये गये ध्वनि नियमो से व्युत्पन्न नही पिचे जा सकते ।.... ... ... ." इस तरह उदाहरण स्वरूप-कल्ला, चूप्रो, दुल्ल, हेरिवो शब्द प्रमश नम्तृत के शब्दो कल्ग,नूनुक, दुक्ल पोर हेरव से निकटतया सम्बन्धित है। इसके विपरीत शुद्ध पाद जैसे गडीव, गदिशी, प्रादि थोडे अर्थपरिवर्तन के साथ धनु पोर घेनुः पा ही सफेत देते हैं और प्रदसणो, धूलधोगो, धूमद्दारं, मेहच्छीर परिहार, त्यिमा, महरोमराई और इन्ही से मिलते जुलते शब्द संस्कृत के शब्दो से व्युलन पिये जा सकते हैं यद्यपि (सतात फे) ये शब्द इनके पर्यायवाची नही है तव मी ये अमराः चोर, सूकर, गवाक्ष उदफा, ऋतुमती, भू प्रादि का ही सकेत देते हैं । देशीनाममाला के प्रधियामा शब्द इगी प्रकृति के हैं, परन्तु कुछ निश्चित सख्या ऐसे भी शब्दो को है, जो पायेंतर से हैं प्रोर जो इन शब्दो का सस्कृत के अतिरिक्त अन्य मापापों में निश्चित सम्बन्ध प्रदर्शित करते हैं । इनमे से अनेको शब्द द्राविड भाषा से अपना निपट का सम्बन्ध प्रदर्शित करते हैं। कुछ विशेष उल्लेखनीय शब्द यहां उद्धृत किये जा रहे हैं।
करो (द. जर)-कन्या, चिपका (क. चिक्का)-छोटा, छाणी (त. चाणि या द्वाणि)-गोवर, छिन्न (ते. निल्लि) - सूराख, दारो (ते. दारमु) -सूत्र या फटिनूत्र, पसटि (ते पसिण्डि) - स्वर्ण, पडुजुवई (ते पाडुचु) - अधेड स्त्री, पोट्ट (ते पोट्ट)-उदर, पुल्ली (द्र पुलि)-यात्र, मानो (ते. बाव)-बहिन का पति, (त - म)-सोग रहित या गजा (हेमचन्द्र पालसी) मम्मी (त मामी) - मातुलानी, वंग (ते वर ग) एक फल, वडो (ते प्रोड्ड) - बडा, सूला (क सूले) - वेश्या । ये प्रौर इसी तरह के अन्य शब्दो की अोर शब्दकोश मे सकेत कर दिया गया है । श्री के. अमृतराव ने (इण्डियन एटीक्विरी - 33 पर) यह बताया है कि देशीनाममाला मे कई शब्द अरवी और पसियन के हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने (जर्नल प्राव रायल एशियाटिक सोसायटी- 235 पर) एक अन्य अरवी के शब्द (खिलाल) का मग्रह इस कोश में दिखाया हैं । इस प्रकार हेमचन्द्र का देशी, केवल सस्कृत के ही शब्दो को नहीं अपितु सस्कृतेतर भारतीय एव विदेशी दोनो ही प्रकार की भापायो के शब्दो का समाहार करता है । यहा सस्कृताभ शब्दो से तात्पर्य है जो शब्द संस्कृत से तो व्युत्पन्न किये जा सकते है, पर जो प्राकृत व्याकरण मे बताये गये नियमो के अनुकूल न हो, इनको देशी शब्दो की परिधि से निकाल देने का पर्याप्त करण भी है क्योकि प्राकृत व्याकरणकारो द्वारा बनाये गये नियम स्वय लचर हैं । यदि हेमचन्द्र प्राकृत 'लट्ठी' और हेट्ठ' शब्द को क्रमश· सस्कृत यष्टि और अधः से व्युत्पन्न कर मकते हैं तो हम नहीं समझ पाते कि वे सभी सस्कृताभ देशी शब्दो को जिनका
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282 } पत किया गया है-मकत से क्यो नही व्युत्पन्न कर सकते ।"1
___एम नन्ह श्री नामानुजन्वामी की सम्मति मे, देशीनाममाला के अन्तर्गत सस्कृत में मन या प्रयुत्पन्न देगी शब्दो की सच्या बहुत कम रह जाती है। जो शब्द वचे भी है उनका प्राधार विभिन्न समयो मे भारत में प्रवेश करने वाली आर्यघारापो द्वारा गैर में नमाविष्ट परन्तु माहित्य में अगृहीत शब्द हैं या हेमचन्द्र के समय में प्रचलित उनकामी घरी शब्द है । इसके साथ आभीर-गुर्जर आदि अनार्य नातियो को भी जोट नाते हैं जो अपन श के प्रचलन से ठीक पूर्व या प्रासपास भारत मे आयी और उन्होंने न देवल जन-जीवन को ही प्रभावित किया बल्कि राजसत्ता हाथ मे लेकर शामन भी किया और ग्रायों मे ही पूरी तरह घुलमिल गयी । पशुपालन और गोसवदं न मे सम्बद्ध अनेक शन्द इनके माक्षी है।
देगेनाममाता की शब्दावली की, इस प्रकार की गयी पालोचना कोई विशेष महत्व नही रपती । रामानुजम्वामी की यह पालोचना पूर्णतया शब्दो के ध्वन्यात्मक नाम पर प्राधारित है दे ना मा. के गन्दो मे, सम्कृत के कुछ शब्दो की ध्वनिगत गमानना देखकर उन्हे मस्कृत मे व्युत्पन्न कर लेना उपयुक्त नही । दे ना मा की
ब्दावली ता अध्ययन पूर्णतया अर्थ-विज्ञान का विषय है। प्रकृति प्रत्यय-निर्धारण माता पिया गया इस गन्दावती का अध्ययन समस्याग्रो पर समस्याएं खडा करता जागा । फिर तो 'देशी' शब्दो को तदभव या तत्मम सिद्ध करने के लिए एक अलग Tी निगा कन्ना होगा । किमी शन्द में मस्कृत की घातुनो का सकेत पाकर,
पनि मन्यन के गब्द मे देकर शब्द को सस्कृताभ वना देना स्वस्थ दृष्टिपर भी ला सपना । यह पहले ही बताया जा चुका है कि शब्द और अर्थ
मारगम्बर है, "पनि या पद के अंगो का नहीं। ऐसी स्थिति मे दे. ना मा. तोमरी प्रध्ययन पयं की दृष्टि से किया जाना चाहिए ध्वनिगतसाम्य के
र नहीं। द ना मा की शब्दावली का अर्थ को दृष्टि से अध्ययन करना T:- मिव होगा । न तव्य पर वन देते हुए डा वीरेन्द्र श्रीवास्तव का
37ीर
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[ 283
नर मे चालू रहकर अपभा में और उनके साहित्य मे समाविष्ट हो गये तो उन्हे 'देशी' ही समझाना चाहिए । स्वय हेमचन्द्र ने अनेक शब्दो मे सस्कृत व्युत्पत्ति की सभावना मममते हुए भी देशी होने का प्राधार अर्व-परिवर्तन ही समझा है । उदाहरणार्थ 'प्रधा' पद पवाची दिया गया है (1-18) । हेमचन्द्र लिखते हैं। -अन्यश्चासाबन्ने तिविग्रहे गर भवो प्रघ धु शब्द. केवल सोऽन्धकूपावाची। प्रयतु कूपमात्र. वाचीतील निबद्ध । त्योगादिकमधु शब्दमिच्छन्ति तैरपि सस्कृते प्रयोगादर्शनादय नग्राध एव ।" कहने का तात्पर्य है कि यदि अन्ध अन्धु में कर्मधारय समास और परम्प ना अनुम्बार का घनिविकार मान कर अध धु शब्द को पूर्णतः तद्भव मदपीकार पर भी लिया जाय तो भी उसका अधा कुप्रा (जलरहिन कूप) यह विशेष प्रर्य ही होगा। अपर म मे इसका अर्थ सामान्य रूप है, प्रत इसे देशी मानना चाहिए । पर्यविस्तार का यह उदाहरण है। यदि वैयाकरण उणादिगण मे अघ घु पदको मिद्धि कर लेते हैं तो भी इन शब्द का सस्कृत भाषा मे प्रचलन में नही, प्रत देणी गन्द मे गहण करना चाहिए। इसी तरह अपभ्र श मे अइराहा-विद्यु त, है। जय हेमनन्द्र लिखते है- "पाराहा इति त्वचिराभाशब्दभव" अर्थात् प्रहाग प्रचिराना वर्णव्यत्यय द्वाग निष्पन्न तद्भव होता है । यह शब्द देशी इसलिए है कि मम्कृत-कोग में नहीं घोर न विद्य त पर्थ मे सस्कृतभाषा मे प्रयुक्त है । एक और उदाहरण प्रयोच्ची है । इस शब्द का अर्थ 'पुष्पलावी' (फूल चुनने वाली) है । 'प्रामाणि उच्चिनोति' इम व्युत्पत्ति से यह मस्कृताभ शब्द या तद्भव शब्द बडी प्रागानी से बन सकता है, फिर भी सस्कृत शब्द नही, क्योकि 'फूल चुनने वाली' अर्थ सम्पत में नहीं है । हेमचन्द्र तो उनने मतर्क हैं कि वे कहते हैं, 'यदाम्र पुष्पाण्येवोच्चिनोति तदा न देशी' प्रर्यान् अबोच्ची का 'ग्राम्रपुष्प ही चुननेवाली' यह अर्थ कर लिया जाय तो इमे देणी नहीं कहना चाहिए । हेमचन्द्र सस्कृताभ से व्याकुल नहीं होते । मम्कृत भाषा मे मामान्य फूल चुनने वाली, यह अर्थ-विस्तार नहीं था, अत. इस शब्द को देशी समझा गया । अनेक बार सस्कृत कोश मे किसी शब्द को देखकर भ्रान्ति हो जाती है कि वह सस्कृत शब्द है । यद्यपि वह अन्य भाषा या प्राकृत से पाया हुया होता है । भ्रमर के पर्यायवाची शब्दो मे रोलव दिया हुआ है (दे ना 7-2) | हेमचन्द्र टिप्पणी करते हैं
" .. रोलब शब्द केचित् सस्कृतेऽपि गतानुगतिकया प्रयुञ्जते" अर्थात् गता. नुगतिक पद्वति पर रोलव शब्द मस्कृत में चला गया है अन्यथा देशी शब्द है । "... • ......"अण्णाण' देशी शब्द का अर्थ दहेज है, पर मुर्खतावाची 'अण्णाण' शब्द अज्ञान का तद्भव है (दे ना. मा. 117 पर वृत्ति), एक सी वर्णानुक्रमणी होने से दोनो एक
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284 1 प्रतीत होते हैं।
वन ध्वनिलाम्य के आधार पर शब्दों की व्युत्पत्ति कभी-कभी वडी भ्रामक हो गती है । दे. ना मा की ग्लासरी (शब्दकोश) मे श्री रामानुजन् ने ध्वनिमान्य के प्राचार पर कुछ ऐनी व्युत्पत्तिया दी हैं जो अत्यन्त श्रामक होने के साथ ही हान्गम्पद भी हो गयी हैं। वे उजडं शब्द को संस्कृत उज्ज्वल शब्द से व्युत्पन्न करते हैं। हिन्दी का 'उजडा' पद 'उजड' का ही विकसित रूप है। इसका स. उज्ज्वल शब्द में कोई नबन्न नहीं दिखायी पड़ता । इमी प्रकार 'अगों' शब्द को, जिसका अर्थ दानव है, वे स, प्रमुर शन्द मे व्युत्पन्न करते हैं, अच्छा था वे इसे 'अकाय.' शब्द में पान करते हैं, दानव भी कभी-कभी अशरीरी होते है। इमी तरह अगहणोसागतिर को वे स 'अगवन' शब्द से व्युत्पन्न करते हैं। कापालिक को कौन ग्रहण जग्ना चाहगा। इसी प्रकार अनेकों काल्पनिक एवं ध्वनिसाम्य पर आधारित व्युवतियों को नामरी में भरमार है । इस तरह की व्युत्पत्तिया निरुक्तकार यास्क के समय में ठीक लगती , उनका एक मिद्धान्त भी था, वे सभी शब्दो को प्राख्यानड मानगर वो थे । परन्तु ग्राज, जब कि भापा-शास्त्र बहुत आगे बढ चुका है, पता नही गिननी प्राचीन मान्यताएं भ्रामक सिद्ध हो चुकी है, इस प्रकार की व्युत्पत्ति मुगाना कहा तक उपयुक्त होगा । इस म्पल पर दे. ना. मा की ग्लामरी में दी गयी दुरबत्तियों का उल्लेव कर देना अनुपयुक्त न होगा
प्रसन - प्रवद ग्रानान्त । मन्ठिान्लो = द्वेप्य. (ण) अक्षिहर । प्रजुमनवाया = अम्लियावृक्षाअयुगलपणं । प्रट्ट = पृग प्रिट्ट । प्रगनिमोक्षगरहित ।न-रिक्त । अवधि = हियका अनुबंध । प्रमय - पुनन्ताप्रन्य मय । मायुद्ध - साप्रम्यत । प्रदगि = मनोग्याधियफलप्राप्तिः प्रबुदधी प्यारी = वानर प्रयक्ष ।
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[ 285 अलिपा = सखी पाली ('पाली' शब्द संस्कृत मे स्वयं ही प्राकृत से पाया प्रा लगता है)
प्रवप्रणियो = प्रसघटित प्रव-गणित । प्रवडो - कप या बगीचा प्रवट, प्रवत । प्रवत्तय = विसस्युलित (ढीला-ढाला) प्रवृत्त । प्रवरत्तमो - पश्चात्ताप.प्रवरक्त । प्रवरिषको = क्षणरहित प्रवरिक्त । प्रवरिज्जो = अद्वितीयासप्रवर । प्रवरुडिन = परिरम्भ अवरुद्ध । प्रवहट्टो = गर्वितः अवष्ट । प्रवहा : मुसल/अवघत । प्रवारी = प्रापण अपार । प्रविहाविध = दोनम्।अविभावित । प्रमागतो - अश्वः प्रसगितः । ग्रह - दुखाप्रघ। अहरो - असमर्थ भर । अहिसि = ग्रहशकारुदित अभि-सद् । अहिहर = देवकुल/पहिगृह । प्रहिहाण = वर्णना अभिधान । प्राउर - समाह..मातुर । ग्राउनं = अरण्य म्याकुल । पाऊ =जलाप्राप । हिन्दी प्याऊ इसी से। अडोविन-प्रारोपितम्याटोपित। श्रादिन = इच्छित श्राढ्य । प्राणु प्राकृतिप्रानन । पामेलो - जूडा प्रापीड । धारणाल = कमल पारात्-नाल । पारेहन = मुकुलित पारेचितम् । 'पालवं = कुकुरमुत्ता,(मालम्ब) । श्रावट्टिया-नववधू/ग्रावृत । श्रावडिन = सगठित प्रापतित । पासवरण = गृह प्रावास (वर्ण विपर्यय) । प्राहुड = सीत्कारापा-हृत ।
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दमहकामुमो = कुक्षा/इन्द्रमहकामुक । इदमहो = कुगरी का पुत्र/इन्द्रमह । उजाग्री = मंग्रह उद्घात । उग्छ == मामा उद्धृष्ट । उनोदी = विस्तृत उच्चट् । उन्टिन = विक्षिप्ताउत्क्षिप्त-अच्छा था विक्षिप्त' से ही इसे
निप्पन्न किया जाता। उज्जल्ला = बनात्याना उज्ज्वल । उत्त गो - हप्न [उद्वदन । उत्यन्पत्यल्ला पार्श्वद्वयेनपरिवर्तनउत्स्थल प्रस्थला । उदयो = निराशावृथा-अर्थ । उत्पीनी = सग्रहः उद्-पोट् या पिण्ड । उन्मायो = शान्तः उत् भाव । उम्मुहो = हप्न उन्मुख । उनुहनी = काम:उलक-हन्त । उल्लुटिन - पिमा हृया चूर्ण. उत लुट् । उल्लेहटी = लम्पट उन-लिह, । उसमग्गो = मन्दः उप-म। उन्यन = रगहीन उत्वत । नुवानी - चिन्न (उन-बै । स्याहत = पोमुक्य । उत् व्याकुल । अग यो = जमाई। पन्धम्य । जविन - उद्वान्ता (उन्-अपयति । अविरण = विमुनाउत-गुण ।
विध - गदगल गेदन [ उत-मुम्भ । गाग = चन्दन -प्रगम् । rat Tयस.एसनट ।
पुष्मि = बिलविन्दुयप एका-रफुन् । प्रोगगे - पोत उद्गार । यो - प्रतिमा प्राय । arm - पनुगमा प्रवदम्य । पोर --- नाम पर मग रिपाटीपापति।
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1287 प्रोलुग्गो = सेवक अवरुग्ण । होता कि 'अवलग्न' शब्द से इसे
व्युत्पन्न किया जाता। श्रोसक्की = अपसृत शप-सन्त । पोसण्ण = त्रुटित7वसन्त ।। प्रोसिगे = प्रवल अप-धि-क । प्रोमोस = अपवृत्त (पीछे घूमना) L उत्-शीर्द । फवानको = पीन कर्कश । कडप्पो = निकर ।कलाप या कर्पट । फप्परिन = दारिताखर्पर । फलवू = सुन्वीपामग्रलाबू । फलिग = नीलोत्पल/कली। फलेरो = ककालकराल । फविलो = पूया.कपिल । कविन = पाराव.फपिश । फालट्ठ = धतु काल-वर्त । फालिया - शरीरकाल । किरिइरिया = कर्णोपकरिणका । किरिकिरि । फुड्डगिलोई = छिपकली/कुद-गिल । फुनु भिलो - पिशुन Lकुसुम्भ । फूल = सैन्यस्य पश्चाद्भाग कूल केयालू = नि सह Lखेदालू । गत्ताडी = वेश्यागात्री। गयगरई = मेघ । गगनरति । गहकल्लोलो = राहु ग्रहकल्लोल 1 गुम्मइयो = सचलित गुल्म । घरयदो - दर्पण।गृहचन्द्र । चूयो = स्तनाग्रसचचुक -- यह शब्द प्राकृत से ही संस्कृत मे
गया हुया लगता है। छेधो = स्थासक ।छेद। झपरणी = पक्ष्मक्षप् । झाड = लतागहन । माट-यह शब्द भी प्राकृत की सम्पत्ति
लगता है। डाली = शाखा/दल ।
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288 ]
तणमोल्ली = मल्लिका तृणशूल्य । तवा - गो ताना। तामर = रम्य तामरस । तोमरिनो = शस्त्रप्रमार्जक तोमर-जातिवाची "तोमर" पद निश्चित
रूप से प्राकृतो की सम्पत्ति है इसका सस्कृत शब्दावली
से कोई सम्बन्ध नही है। तोस - घनतोष । पिण्णो = निर्दयास्तीर्ण । पूरी = तन्तुवायोपकरण तुरी-यह-शन्द भी संस्कृत मे प्राकृतो से
पाया होगा। थेरामण - कमल स्थविरासनम् । घेवो = विन्दु नेप या स्तोक । घोरो = क्रमपृथवर्तुल ।स्थूल । दलिन = निकरिणताक्ष,दारु, दलिक दुग्ग = नितम्ब दु ख-अच्छा था यदि इसे दुर्गम से व्युत्पन्न किया
जाता। दुच्चटिमो = दुर्ललित-दुर-चण्डिक । दूमलो = प्रभागा/दुभंग । दोगहारी = पनिहारिन, मालिन।दोहन-ह । घणि - गाढ स्तन । धुप्रगानो == श्रमर ८५ वराग । घणो = गज स्यूग या स्थूल या घातु घू । घनीयट्टो = अश्व घुगेयवर्त । पटिगुत्ती = प्रतिकूल प्रतिस्रोत । परिमृगे = प्रतिकूल प्रतिक्षर । पदरा = शरणाघात प्रम्नर । पचनाप्रो = हर (गकर भगवान्) पदनाय । परनुहनो - वक्ष परमुपत्व । परिमलो - निषिद्ध , भोर । परमक्त-अच्छा था कि इसकी
व्युत्पति परिमीत. या परिभ्रान्त. से दी जाती। सोनी में युद्ध नो प्रर्णमाम्य होता । परिहो = मृगाउपनादय । पर = दुगुमा प्रसूनम् ।
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[ 289 पायप्पहणो=कुक्कुट पादप्रहण । पासारिणो = साक्षी पार्श्वनीत । पिच्छी = चूडा 'चोट) Lपुच्छ-स्वय पुच्छ शब्द की ही सस्कृत मे नदिग्य स्थिति है। पुडणी = नलिनी[पुटकिनी । पुग्राइणी = पिशाचगृहीता/पिशाचिनी या पूयादिन् । पूग्राई = तरुण उन्मत्त , पिशाच पिशाच । पैनाल = प्रमाण (माप) Lप्राय । बुपकरणो = काक बुक्कन । बुदीरी = महिपः। वृद्ध । वोपपाडे - छाग ।वर्कर । भारोच्य = तालफल भार-उच्छ्य । गल्ल क्षाभल्लक - यह शब्द निश्चित रूप से सस्कृत की
सम्पत्ति नहीं है। गुनकरणो = ण्वा, मद्यादिमानबक्कन । मट्टो = अलस मृज् त-हिन्दी की बोलियो मे आज भी मट्ठर,
घालसी अर्थ में प्रचलित है । शब्द के प्रयोग का वाताबरण ही बताता है कि यह लोक-भाषा का शब्द रहा
होगा। मम्मरका = उत्कण्ठा/मर्म । मयलवुत्ती = रजस्वला (मलिनपुरी) । मरालो = अलस Lमराल । मुहालक्सो - तरुण..महालक्ष्य । मेली = सव या सभा मेल या मेला । रिट्ठो = काक अरिष्ट । रोमराइ = जघन (नितम्ब) रोमराजि । रोट्ट = तन्दुलपिष्ट । रुच्य । लयापुरिवो = यत्रपद्माकारवधूलिख्यते। लतापुरुप । वइरोडा = जार पति-रोट वइवेला = सीमा/वेला । वो = गृध्रपक्षी/वृक। वहुधारिणी = नववधू । वधू । वैनल्ल = मुदुवैकल्य ।
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समाहरण-अनुगमन मम-साधन । सगोन्ली - नमूह-सघातः ।
हुलिय गोत्र लघु ।
श्री रामानुन स्वामी द्वारा दी गई ये व्युत्पत्तिया पूर्णतया ध्वनिसाम्य पर प्रवान्ति हैं देगी शब्दो में मस्कृत शब्दो को एक-दो ध्वनियो की भी छाया उन्हे मिनी जिवे उन्हें संस्कृत के शब्दो मे व्युत्पन्न कर लेते हैं। व्युत्पत्ति का तात्पर्य वन ध्वनिनाम्य खोजना नहीं होता। शब्द में ध्वनियो का उतना महत्त्व नही होता. निना उसके अर्थ का । इन युत्पत्तियो में शब्दो के अर्थ पर ध्यान दिये बिना ही ध्वन्यात्मक माम्य का निदर्गन कर दिया गया है । देशीनाममाला मे सयामा प्रयोग की दृष्टि मे तत्मम और तद्भव शब्द बहुतायत से सकलित हैं । पन्तु नगरी पनि देते समय उनके अर्यों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक हो जाना है। श्री गमानुज स्वामी इस तथ्य को ध्यान मे नही रख सके हैं । कहीरही तो उनका मान-भाषा-प्रेम प्रतिहाम्याम्पद स्थिति पैदा कर देता है । सम्कृत चीनी तो मग मूल मानकर जब तक शब्दो की गुत्पत्तिया दी जाती रहेंगी, नारी प्रभार की भ्रान्तिरा उठती रहेगी । अच्छा तो यह हो कि अनादिप्रवृत्त प्रापली लोक भापात्रो) की शब्दावली (देशी पदो) को ध्यान मे रख कर,
सम्पत माया की च की जाये। इस दृष्टि में किया गया प्रयत्न महत्त्वपूर्ण परिनाम सामने लायेगा । मन्यत मापा ने रितने ही लोकरूढ शब्दो को प्रात्मसात
किया है।
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[ 291 जहा तक देशी शब्दो और सस्कृत के शब्दो मे ध्वनिगत समानता का प्रश्न है यह अत्यन्त स्वाभाविक है। दोनो ही प्रकार के शब्दो का सम्बन्ध भारतीय प्रार्य-भाषाम्रो से है। यह पहले ही प्रतिपादित किया जा चुका है कि देशीशब्द युग यगो में सामान्य जनता के बीच व्यवहृत होते अ ये शब्द हैं, इसके वितरीत सकृत नो तत्सम शब्द पाहित्यिक भापा की सम्पत्ति है । साहित्यिक भाषा और जनभाषा मे जहा युद्ध मौलिक भेद होते हैं, वहीं कुछ समानताए भी होती है। दोनो समानान्तर याग करती रहती है, परन्तु दोनो की अभिव्यक्ति प्राय समान नहीं होती। पभी कभी अनजाने ही जन भाषा के शब्द साहित्यिक भाषा मे पा जाते है और माहित्यिक भाषा उन्हे प्रात्मसात कर लेती है। यही प्रक्रिया जन भाषामो मे भी जननी है । भारत विभिन्न जातियो और सस्कृतियो का देश है। प्रायों के यहा पाने के पहने और बाद में नी अनेको जातिया पायी उनकी अपनी भाषा रही होगी । अपने पूर्व प्रायी हुई जातियो से शब्द ग्रहण करना, प्रार्य-जनभापा के लिए स्वाभाविक बात थी । इसी प्रक्रिया से इसमे द्राविउ' और आग्नेय कुल (कोल, सथाल, मुण्डा पादि) की भाषानो के शब्द आये होगे । पार्यों के बाद भारत मे पाकर बसने वाली जानियो से नी जनभापा ने शव्द गहण किया होगा। अरबी-फारसी के शव्द इसी प्रप्रिया से लाये होगे । प्राचार्य हेमचन्द्र ने इस कोश का सकलन 12 वी शताब्दी मे किया था। उस समय तक प्रार्य जनभा पाए विभिन्न आर्येतर एव विदेशी शब्दावली का प्रभाव रहण कर चुकी रही होगी । ये प्रार्येतर भापायो के तथा विदेशी शब्द, दोनो ही, देशी शब्दो की अपनी प्रकृति प्रत्यगत विशेपतानो से सयुक्त होकर व्यवहृत हुए है। 12 वी शदी तक लोक-भापा मे जितने भी शब्द प्रचलित थे, हेमचन्द्र ने सभी (प्राप्य) का सकलन इन कोश मे कर दिया होगा। इसका विस्तृत विवरण आगे दिया जायेगा ।
उपरोक्त तथ्यो को ध्यान में रखते हुए देशीनाममाला की शब्दावली को निम्नलिखित विभागो मे वर्गीकृत किया जा सकता है
(1) अनादिप्रवृत्त प्राकृत भापा (लोकभापा) के वे शब्द जिनकी व्युत्पत्ति नहीं दी जा सकती । देशीनाममाला के अधिकाश शब्द इसी वर्ग के अन्तर्गत पाते हैं । ऐसे शब्दो का स्रोत भारत मे भिन्न-भिन्न समयो मे पाने वाली जातियो की भाषा मानी जा सकती है ।
1. (अ) दे ना मा फी ग्लासगे मे द्राविड भापामओ से गृहीत कई शब्दो की ओर सकेत
किया गया है। (व) इडियन ए टीक्विरी-जिल्द 46 मे के. अमृतराव के एक लेख 'दि द्रवीडियन एलीमेट
इन प्रात' में भी कई शब्दो को और सकेत किया गया है।
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(2) मन्नाभिधान में प्रसिद्ध प्रा. भा पा या उससे भी पूर्व की भारीपीय भाषा मे मबद्ध गब्द-जैसे
मन्जुबइ अविर यवति-नववधु , अइराणी अविराज्ञी - इन्द्राणी, अक्कदो L'
बाद - रिजाता, अगुज्झहरो अगुह्यवर = रहस्यभेदी, अणुसूया प्रताप्रामनप्रनवा, उच्छुप्रणा इनरण्य == इझुवाटिका आदि ।
(3) द्राविड परिवार की तमिल, तेलुगु-कन्नड भापासो के शव्द
श्री गमानुजम्वामी ने दे ना. मा. की ग्लासरी मे कई शब्दो को द्राविड परिया पी भाषामो मे मवद्ध बताया है। 'देशी' शब्दो मे इस परिवार की
दापती मा पाया जाना भारत की द्राविडी (विभापा) की समस्या को भी हल र देता है । प्राचीन काल मे द्राविड भापा मापी ग्राज की भाति केवल दक्षिण तक
मोमिन नहीं ये । पार्यों के भारत प्राने पर उनका प्रथम मपर्क द्राविड भाषामापियो नही दृप्रा होगा। उन सम्पर्क के बीच शब्दावली का आदान-प्रदान अत्यत यामाविर बात थी। मध्यदेश मे कभी द्राविड भापा-मापियो का निवाम था
प्रमाण अाज भी मिलता है। बलोचिस्तान की 'बाहुई' तमिल की ही एक ना है । हरियाणा में तो बोली जाने वाली भापायो में तमिल का तृतीय स्थान -TE आना है। अतः प्राचीनकाल से ही द्रविडो और पार्यो का मपर्क रहने के
द यदि वार्यजनभापायो में ग्रा गये तो यह अन्यन्त स्वाभाविक है । देना मा में पाये हर छ द्राविद मन्द इन प्रकार है
य
पण मालिभेद: द अनुमु । अप्पो-पिता--प्रप्या। गली शार्दूल द्र-गुलि।
नीर-वधी-त. हल्ल। -नो दरिद्रद्र इल। सटिली नापाधान्य-न उन्ढन्दु-क. उछ। उपरी अधिक... उन्यु। उमगे गमतीन उम्मारपटि ।
ग्रान न कर। नी-तोतोदय नय-ने चु ।
गि।
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फट्टारी-क्षुरिका-द्र क (ट्) ठारी। कण्णवाल कर्णस्याभरण कुण्डलादि-कर्ण द्र. वाल । फदी-मूलशाकम् ते कन्द । करडो-व्याघ्र -द्र, करडि कल्ला-मद्यम्-द्र. कल्लु । किरो-शूकरः-द्र. किरु । कीरो-शुकः-द्र किलि । कुन्डो-निर्दयः, निपुण-द्र कुरुल । कुल्लो-ग्रीवा, असमर्थः ते. कुल्लु । कोलित्त' -उल्मुक-द्र कोढि ढ । खडक्की-लघुद्वार-ते किटिकि । खड्ड श्मश्र-द्र गड्ड या कट्ट । खण्ण-खातम्-ते कन्नम्। खुड्ड-लघु त कुट्ट । गड्डी-गन्त्रीक गाडि । गुत्ती-वधन, इच्छा, वचन-ते. गुत्ति । गुफमुमिन-सुगन्धि-ते गुमगुम । गोडी-मजरी-क. गोण्डे । वारो-प्राकार -ते गोड । चिक्का-अल्पवस्तु-द्र चिरु, चिक्का । चिच्ची-हुताशन द्र. शिक्कु चिक्कु । छाण-धान्यादिमलनन्द्र चानि, शानि । छिप्प-भिक्षा-द्र चिपा (छिप्पा) । छिल्ल-छिद्रम्-ते चिल्लि । जगडिग्रो-विद्रानित , कथित ते जगडमु जोण्णलिपा-धान्य-ते जोन्न । झडी निरतरवृष्टि-द्र जडि । झंडो-कन्दुक -द्र. चण्डु, जण्डु झण्डु भी उच्चारण हो सकता है डोश्रो-दारुहस्त--ते डोकि । तट्टी वृत्ति -द्र तट्टि । तडमडो-क्षुभित-ते तड-बडु । खट-पृष्ठम्-ते तुण्टि ।
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1941
कगाय-ग्राम ते.-तणि तलागे-नगर रक्षकः-द्र तलेयारि । तुप्पो-कौतुक, स्निग्य -द्र. तुप्पा । दारो कटिन्त्रम्- दारनु। पटि-कनकम्-ते पमिदि। पावो-मर्प-द्र पामु या पाव । पिह-लघुपक्षिल्प-ते पिल्ल । पुल्ली-त्र्यात्र द्र-पुति। पंड-बण्डम-द्र पेण्डर। पोट्ट उदरम् द पोट्ट। फिडो-वामन-ते पोट्रि। बलियो पीन बिलिमिना। वृनबुला-वृद्धवृद ते वुलबुना । दोती. म्द्र बोन्दि। नडी-निरीक्षवलन वण्डि या वण्डि। भानो-ज्येष्ठमागिनीपति -5 वाव या भाव। नगुमो-नकुन मुगिम। पजिग-प्रबलोक्तिम ते मज्जिग । नट्टो ग गहीन मोट्ट। मठो प्रलममहि । मो य -- मेट। मयो-ति-निग-ने मष्टि-गा। मामा-गियरदेश नमते । मा-गेमग (बालदार) त मायिर या मशिर । मागिन - गृहम- माहि-त. मादम । गाना-मानुदानी- मरमा । मनी-माजानी-2 (प्रम्) मामि ।
दी-विनम् ते गुद। मंग-मर्यादा-द भरा। गो - म्-द्र मोग-ते मोगर
-प्रधान दी।
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295 वट्टिव-परकार्यम्-ते वेट्टि । वड्डो-महान् ते प्रोड्डु । वहुण्णी-ज्येष्ठभार्या-द्र वदिन, मदिनि । विल्ल-अच्छ-द्र, वेल्ल । सरा-माला-ते सरमु । सिप्प-भूसी क -सिप्पे । सूला-देश्या-क सूले ।
हिड्डो-वामन -ते. पोट्टि । देशीनाममाला की शब्दावली मे द्राविड भाषा के इन सभी शब्दो का मिलना कोई प्राश्चर्यजनक बात नही है । जहा तक इन शब्दो के दक्षिणी भापात्रो से सबद्ध होने का प्रश्न है, यह निश्चयपूर्वक नही कहा जा सकना कि ये शब्द दक्षिणी भापात्रो की अपनी ही सम्पत्ति है। प्राकृत व्याकरणकारो की भाति द्राविड भापायो के व्याकरणकार भी इस कोटि के शब्दो को 'देशी' ही मानते है । उनका मन्तव्य है कि ये शब्द युग युगो से भाषा मे व्यवहृत होते चले आ रहे हैं, और उनका मूल उद्गम अत्यन्त रहस्यात्मक है । इस सदर्भ मे द्राविड व्याकरणकारो की मान्यताप्रो का उल्लेख अावश्यक है ।
प्राकृत व्याकरणकारो की भाति द्राविड व्याकरणकारो ने भी भाषा मे प्रयुक्त होने वाले शब्दो को तीन वर्गों में विभाजित किया है-(1) तत्सम (2) तद्भव (3) देश्य । सस्कृत से ज्यो के त्यो ले लिये गये शब्दो को वे तत्सम कहते हैं-जैसे-ते -विद्या-पिता, क -वन, धन, वस्त्र-त कमल, कारण इत्यादि । सस्कृत के वे शब्द जो द्राविड भाषाम्रो मे जाकर ध्वनिपरिवर्तनादि से सयुक्त हो या द्राविड भाषाम्रो की प्रकृति-प्रत्यय आयोजनामो के अनुरूप होकर प्रयुक्त होते है-तद्भव कहे गये है-जैसे -
ते पाकासमु (स. आकाश), मेगमु (स मृग), वकर (स वक्र) । क - पयाण (स. प्रयाण), बीदि (स वीथी) वीणे (स वीणा) । त शुत्तम (स शुद्घम्), शट्टि (स षष्टि), पिच्चे या विच्चै (स भिक्षा)। ऐसे शब्द जो इन दोनो वर्गो के शब्दो से सर्वथा भिन्न है और भाषा मे युग-युगो से प्रयुक्त होते प्रा रहे हैं, देश्य कहलाते हैं-जैसे
ते ऊरु-कस्बा , इल्लु-घर, क -मने-घर, होल-मैदान, नेल-फर्श, त अरकस्वार, मने-घर, तरे-फर्श आदि । द्राविड व्याकरणकारो ने सस्कृत से प्रसवद्ध लगभग सभी शब्दो को 'देश्य' मान लिया है। ऐसे शब्दो के मूल उद्गम के विपय में
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296 ] नभी चुत है । प्राकृत व्याकरणाकाने के समान ही उनका भी मत है कि इन शब्दो का ।। मृत उद्गम एक गूट रहस्य है । ये अनादिकाल में देश की भापामो में व्यवहृत होने पाये हैं। इसी परम्पग में कवियों ने इन्हे अपनी रचनायो मे भी व्यवहृत स्सिा है।
द ना मा की अविकाश गन्दावली भी अनादिप्रवृत्त प्राकृत भाषा (लोकनापा) गे शब्दावली है। इसमे मिलने वाले प्राविड भाषाओं के देश्यपद हेमचन्द्रग 'देनी' शब्द विचार से सम्बन्धित मान्यताप्रो की ही पुष्टि देते हैं ।
पर द्राविड भाषा के जो शब्द संकेतित किये गये हैं, वे द्राविड व्याकरणकारों के अनुसार 'देग्य' हैं और अनादिकाल में प्रचलित देशभाषा से संबद्ध हैं। क्या उनने यह ध्वनित नहीं होना कि द्राविड भापायो के ऐसे शब्द निश्चित रूप से किसी अन्य देशनापा में लिए गए शब्द होगे । जिम तरह ये शब्द काविड भापायो मे गये मंग, उसी प्रकार प्राय मापानी में भी पा सकते हैं। इस वग के शब्द जनता की
आबकि बार-चाल की भाषा में प्रचलित रहते हैं, ये किसी एक भाषा की मनि बतार नहीं रहते। इनका प्रमार नित्य भिन्न-भिन्न भापायो मे होता रहता है। निक रूप में यह कहा जा सकता है कि दे. ना मा में प्राप्त होने वारी द्राविड भापायी की शब्दावनी भी 'देश्य' ही है। इसमे दक्षिणी भापाग्रो को समत्ति न कहकर युग युगो में प्रत्रनित देश-भापा या जन-मापा की सम्पत्ति पना परि पाना होगा। प्राचार्य हेमचन्द्र की भी यही मान्यता है, उन्होने एक
न क्षेत्र की देन्य' शब्दावली का सकलन उस कोश अन्य में किया है। यदि वे मा नापगं प्राली पोर नभी भापायी की देण्यशब्दावली का मक्लन करते दोल ने परने । यही बात उन्होंने दे. ना मा 114 मे कही है।
(4) दिगी गन्द
प्रमन गव' प्रौर जार्ज नियमन प्रति विद्वानो ने दे ना मा की रानी गरिन युट प्ररबी-फारमी के शब्दो की और मोत किया है। मन दो माहोना की. वाकाने वाली बात नहीं है । प्राचार्य हेमचन्द्र
ही मारमान व्यापारी भाग्न प्राने लगे थे। 711 ई. ने मुहम्मद of f: 7 मामा हो गया और उनके उत्तराविकारी तव तक शासन सोra-fr गनी ने उन्हें सन्नाट नही दिया। प्राग महमूद गजनवी 1 -- - -zि» 45, समाग माग 'दि योरियन एलीमेंट
1 frri (r r; :-प्रियान-मन याय रामम एशियाटिक Imrns4343.235
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[ 297 के एक वजीर ने व्यापारिक कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए फारसी लिपि प्रचलित की और उसके सहारे व्यापारिक फारसी शब्द भी चल पडे । हेमचन्द्र के समय तक अनेको अरबी-फारसी के शब्द सामान्य जनभापात्रो मे घुलमिल चुके थे । सम्भवतः इन विदेशी शब्दो का इतना प्राकृतीकरण हो गण और तत्कालीन जनभापापो मे इतने सामान्य हो गये थे कि प्राचार्य हेमचन्द्र इन्हे पहिचान न सके होगे । प्रत. कोश मे कुछ फारसी-अरबी शब्दो का प्रा जाना अधिक प्राश्चर्यजनक नहीं । एसे कुछ शब्दो के उदाहरण यहा दिये जा रहे है
1 अगुत्थल (दे. ना 1131) - अ गुलीयम् - अगूठी। फारसी-अगु स्तरी, पहलवी - अगुस्त, जन्द-यगुम्त (स्त का वर्ण विकार त्थ है जैसे हस्त हत्थ) म छाया-प्रगुष्ठ। यहा एक तथ्य विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है । कोई एक समय था जब भारतीय और ईरानी आर्य एक ही प्रकार के भापा-भापी थे। दोनो अलग हुए तो दोनो की भाषाम्रो और सस्कृतियो मे भी अन्तर पाता गया। दोनो की भापायो मे अनेको ऐसे शब्द होगे जो अाज भी समान रूप और अर्थ वाले हैं। पारसियो का जन्द-प्रवेस्ता तो थोडे ध्वनि परिवर्तनो के साथ सस्कृत मे रूपान्तरित किया जा सकता है। ऐसी स्थिति मे अगुस्त प्रौर अ गुण्ठ शब्द दोनो एक ही स्रोत से उदभूत लगते है। जहा तक अगुत्थल शब्द के फारसी शब्द होने की सम्भावना है यह यदि अ गुस्त से निष्पन्न किया जा सकता है तो अगुष्ठ से भी निष्पन्न करने मे कोई कठिनाई नही दिखती- गुष्ठ7 अगुठ्ठ7 अगुत्थ । यह शब्द तद्भव माना जाना चाहिए-विदेशी नही । फारसी मे इसकी उपस्थिति देखकर इसे विदेशी शब्द कह देना उपयुक्त वात नही है ।
2 दत्थरो (दे ना 5134)-हस्तशाटक'- रूमाल, फारसी-दस्तार7 दत्थर (जैमे-प्रस्ताव पत्थव)। यद शब्द निश्चित रूप से फारसी का होगा । जनभाषा मे यह ध्वनिविकार के साथ प्रचलित हो गया होगा । फारसी का ज्ञान न होने के कारण, ध्वनिगत विशेपनाप्रो को देखते हुए प्राचार्य हेमचन्द्र ने इसे प्राकृत की शब्द सम्पत्ति समझ लिया होगा।
3. वधो (दे ना 6-88)-मृत्य -नौकर, फारसी-बन्दह, पहलवी-बन्दक, प्राचीन फारसी-बन्दक, सस्कृत छाया-बन्धक । फारसी भाषा-भाषी समाज मे गुलाम रखने की परम्परा के वाहुल्य को देखते हुए, इस शब्द का सम्बन्ध भले ही फारसी से जोड दिया जाये पर जो स्थितिया-अगुत्थल शब्द के सम्बन्ध मे बतायी जा चुकी हैं, बहुत कुछ इस शब्द पर भी सत्य प्रतीत होती हैं। संस्कृत बन्धक शब्द फारसी के वन्दह या बन्दक से अधिक प्राचीन लगता है। फिर दासो को, भाग जाने के डर से,
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298 ] उन्हें कर्ज प्रादि देकर बांध रखने की परम्परा भारतीय आर्य समाज में भी अप्राप्य घटना नहीं है। ऐसी स्थिति में इस शब्द को भी तद्भव माना जाना चाहिए, विदेशी नहीं ।
4 परक (दे ना 6-8)-अल्प श्रोत -छोटी नदी, फारसी परक-एक नदी का नाम । "व्यक्तिवाचक मना जातिवाचक मजार्थ प्रयुक्त होती है । जैसे सत्कृत गाण्डीव (अजुन वा धनुप) फारमी में गाण्डीव स मान्य धनुषवाची शब्द है । गगा शब्द नदीवाची रहा है।" कारमी-मापी घागरियो के माध्यम से यह शब्द जन जीवन मे थोडे ग्रयं परिवर्तन के साथ प्रचलित रहा होगा । आचार्य हमचन्द्र ने इस प्राक्त शब्द समझ कर संकलित कर लिया होगा।
5 बोबडो (दे ना 6-96)-छाग -बकरा फारमी के माध्यम से प्राप्त मून अरबी श द बकर-वैल, हिबू में बकर पशु (प्राकृतानुल्प ध्वनिविकार-प्रकार यो ग्रोकार जमे पदम को पोम्म, र का मे परिवर्तन) म छाया वोल्कर । रामानजम्वामी, तदभव मान म. के "वर्कर" शब्द से व्युत्पन्न करते हैं। परन्तु सम्मत में 'वि' पीर 'प्रजा' जैसे शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त होते रहे है । प्रत यह गन्द प्रवी का ही ह ना चाहिए ।
6 जया (दे ना 3-40) हा मनाह ~जीन, पारमी-जीन, पहलवीजीन, जद-नि, म न छापा जबरम् । श्री गमानुजस्वामी इस शब्द को तद्भव मानते है। प्रान में यह शब्द मम्कन के ही माध्यम ने पाया होगा । जन्द मे जइनि प्रम में जवन शन्दा नाय लार मिलना, दीनो को किसी अन्य सयुक्त मापा में, गरदन। वह पानी की मसमय की नापा का शब्द माना जाना चाहिए जा दोनो गाव माय रहने पर बोलते रहे होगे । प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा मलित यह
- 'नयनम् गम्दाही नाकाम में व्यवहृत रम्प होगा ।
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[ 299 की यह परिपाटी विल्कुल ही कामचलाऊ है। देशीनाममाला के हजारों शब्दो को 'देश्य' मान लेने मे यापत्ति नहीं है, तो फिर एक शब्द को खीचतान कर विदेशी भापा तक ले जाने का मोह कितना भ्रामक है। मेरी दृष्टि मे यह शब्द पूर्णतया 'देवी' है और भारतीय ग्रार्य-मापा का है । परन्तु ग्रियर्सन जैसे विद्वान् की हा मे हा मिलाने के कारण सभी विद्वानो ने इसे विदेशी शब्द मान लिया है ।
दे ना मा के कुछ ऐसे ही शब्द है, जिन्हे विद्वानो ने विदेशो शब्द सम्पत्ति से सम्बन्धिन बनाया है। जहा तक हेमचन्द्र के दृष्टिकोण का प्रश्न है, वे इन शब्दो के विदेशी होने की स्थिति से बिल्कुल अनभिज्ञ है । उन्होने लोक-भापायो मे प्रचलित देखकर ही इन्हे समलित कर दिया होगा । सस्कृत मे पारसियो के माध्यम से कितने ही शब्द भारत आ गये है, परन्तु इसमे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि ये शब्द विदेगी हो गये । इसके विपरीत स्वय ईरानी पार्यशाखा की भापाए -भारतीय प्रार्य भाषाग्रो मे बहुत अधिक प्रभावित है । वहत प्राचीनकाल से ही भारत के आर्य, ईरान जाकर उन्हे अपनी शासनपटुता से प्रभावित करते रहे है। इतिहासकार स्मिथ का विचार है कि पल्हव दूसरी शताब्दी मे भारत के पश्चिमी भाग मे विजेता बनकर फारम मे पा गये थे। 641 ई० मे फारसी वश के समाप्त हो जाने पर जरथन के उपासक भारत मे या बसे, जो आज भी पारसी कहलाते है । जरथुस्र के इन उपामको मे अधिकाश भारतीय प्रार्यवशज ही हैं । ऐसी स्थिति मे, भारतीय प्रार्यमापा की इतनी प्राचीन परम्परा मे देशी शब्दो की व्युत्पत्ति न खोजकर, विदेशी भापाग्रो मे जाना उपयुक्त नहीं है । (5) ध्वन्यनुकरणात्मक शब्द
प्रारम्भ से ही मनुष्य अनुकरणशील प्राणी रहा है। वह पशुपक्षियो की अव्यक्त ध्वनिया सुनता है, अन्य वस्तुप्रो के गिरने, हिलने-डुलने आदि से उत्पन्न आवाजे, सुनता है और भावावेश मे श्राकर स्वय या अन्य द्वारा विहित भावाभिव्यजक विभिन्न नादो को कर्ण गोचर करता है । वह इन सभी का अनुकरण करता है । इसी अनुकरण की प्रवृत्ति के कारण भापा मे अनेक शतुप्रकृतिया, नाम और विस्मयादिवोधक शब्द, व्यवहृत होने लगते है । दे ना की शब्दावली मे इस कोटि के शब्द भी पर्याप्त मात्रा में है। इस कोश की शब्दावली का सम्बन्ध लोकजीवन से है, प्रत ध्वन्यनुकरणात्मक शब्दो का मिलना अतिस्वाभाविक है । दे ना मे आये हुए ध्वन्यनुकरणात्मक शब्दो का विवरण इस प्रकार है(1) लोकोद्भूत ध्वन्यनुकरणात्मक शब्द -जैसे -
खम्मक्खमो-सग्राम , खिक्खिरी डोम के हाथ मे रहने वाली फटे वास की छडी (खिर खिर शब्द करने के कारण), खुट्ट-त्रुटितम् (किसी वस्तु के टूटने
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[ 301 कुभिलो-चीर -संस्कृत मे यह शब्द 'घडियाल' एक जलजन्तु विशेष का प्रर्घ देता है । पानी मे चोर की तरह छिपकर रहने के कारण हो सकता है कि लोक में इसका अर्थ लक्षणया 'चोर' हो गया हो ।
कुररी-एक पगुविशेप- इस शब्द का सस्कृत मे भी यही अर्थ है, पर यह शब्द लोकभाषामो से ही सस्कृत मे गया हुया प्रतीत होता है।
कोलाहलो-नगरुतम्-चिडियो का कलकल निनाद । यहा भी सामान्य कोलाहलवाची शब्द को एक विशिष्ट अर्थ मे मीमित कर दिया गया है ।
छाया-कीतिः,भ्रमरी। तिमिलिगो-मीन:। तच्छ-अवगष्क। पाली दिक् या दिशा। पालीबंधो-तडागः। पूरण शूर्पः।
इसी प्रकार दे ना मे जितने भी तत्सम शब्द है, उनका अर्थ संस्कृत के शब्दो से भिन्न हैं। अर्थगत वातावरण और इनके लोक जीवन मे बहुतायत से व्यवहत होने को ही ध्यान में रखकर प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन शब्दो का सकलन 'देशी' शब्दो के बीच किया होगा । ऐसे शब्दो का सकलन जहां कही भी वे करते हैं-स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लेते हैं कि अमुक शब्द संस्कृत में भी प्रयुक्त होता है, परन्त अर्थगत वैषम्य के कारण मैने इसे 'देशी' । व्दो के वीच सकलित कर दिया है। श्राचार्य हेमचन्द्र की इतनी स्पष्टवादिता पर यदि सुधी विद्वानो को सदेह हो तो, इसके लिए स्वय हेमचन्द्र दोषी नहीं है, बल्कि दोष उन पूर्वाग्रहग्रस्त विद्वानो का ही है, जिनके ऊपर सम्बत हावी है । यह पहले भी कहा जा चुका है कि शब्द और अर्थ का शाश्वत सम्बन्ध है, शब्द पीर ध्वनि का नही । शब्दो का अर्थ लोक व्यवहार पर श्राधारित होता है, उनके ध्वनि प्रयोग पर नही। इस कोटि के शब्दो का सकलन करते समय हेमचन्द्र ने इसी दृष्टिकोण का समक्ष रखा था । सुधी पालोचको से कही अधिक, सस्कृत के जानकार, हेमचन्द्र थे, अत इस कोटि के शब्दो को कोश मे स्थान देना उनकी भ्रान्ति नही कही जा सकती। (ख) धातुनो के अर्थातिशय योग से युक्त देशी शब्द या तथाकथित तद्भव -
दे ना पर जितने भी विद्वानो ने विचार किया है लगभग सभी का यह मत रहा है कि-इस कोश मे तद्भव शब्दो का बाहुल्य है । पीछे रामानुज स्वामी द्वारा तद्भव बताये गये कुछ प्रमुख शब्दो के उदाहरण दिये जा चुके हैं। ध्वनिगतविकारो
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302 ] कोलन पर ही इन शन्नो को नद्भव कह दिया गया है, जबकि स्थिति कुछ और ही है। नमन नन्दो को नाति प्राचार्य हेमचन्द्र ने ऐसे शब्दो का प्रयोग भी अर्थ की इष्टिमेटी देनी गन्दी रे बीच किया है। यहा भी उनका ध्यान शब्दो के लोक
ही ही पोर गया है. माहिविक प्रयोगो की अोर नहीं । इस वर्ग के शब्दो के प्रतिकाजधान जब्द हैं । इन शब्दो मे वातगत अतिशय योग सर्वत्र लक्षित विधान माना है । नत में ही उपमों के योग ने यातुगत अर्थ बदलते हुए देखा गता है । प्रहार, विहार, याहार, महार-सभी का अर्थ अलग है । दे. ना की नमाक्ति नभत्र पसाबली में भी यही अर्यातिपय योग देखा जा सकता है । सभी प्रात धारणागे ने प्राकृत की घानुग्रो को आदेश द्वारा तद्भव स्वीकार कर किया । दे ना केन्दी में ऐसी अनेको धातुप्रो का प्रयोग हुआ है। परन्तु पनि योग में उनका प्रमिन्न हो गया है । जैसे
प्राष्टुिन प वशतितम नृतवानु प्रायड्ड है-जिसका अर्थ व्या-पृ- यदि
हार्ग भिन्न हो गया है । प्रामपा-:च्छा । नाम-'मवध' या मभावना के अर्थ में प्रयुक्त
म
7--नारेबान पर हमना ।
-हिमा जान अबरा करता। ती प्रामाविद्धान प्रनितम् है, ग्रामनिग्रो (ग्राश्रित ) का अर्थ
गया है, मालकिन का अर्थ लगडा है न कि सजा हुग्रा । ऐसे अनेक 1472 में देगनबने हैं, जो स्वरूप से तो तदभव लगते हैं, पर
त्रिगना की है। प्राचार्य हेमचन्द्र जहा भी ऐसे शब्दो का मकलन -:: : --में नेवि यह तदभव भी हो सकता है, परन्तु अर्थ 7221 दिगो आमने पर वे अपने पत्र के देशीकाने
मतच नहीं जाने ? नरें द्वारा गिनाये गये अनेको तदभव शब्दों न
म त्र पर्ग को ही महत्ता देते देखे जाते हैं। ---, MP4 पाना दिसली वे वित्तु न परवाह नही करते ।
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[ 303 मे यह कहा जा सकता है कि देशीनाममाला की शब्दावली के सकलन का आधार पूर्णतया लोकव्यवहार में प्रयुक्त शब्दो का अर्थ है । इसी दृष्टि से इसका अध्ययन भी किया जाना चाहिए। देशीनाममाला के शब्द अनादिकाल से सामान्य जनजीवन की भाषा में व्यवहन होने वाली शब्दावली के अश है । इनका साहित्यिक भाषाओ से प्राय दूर का ही सम्बन्ध रहा है । इनका ज्ञान पूर्णतया लोकज्ञान पर आधारित है । हेमचन्द्र इसी तथ्य की ओर 'लोकतोऽवगन्तव्य ' कहकर सकेत देते है। इनकी व्युत्पत्ति दूहना एक दुम्म्ह ही नहीं असम्भव सा कार्य है, फिर भी इनकी व्युत्पत्ति की जितनी की सभावनाए हो सकती हैं, सभी की और सकेत कर दिया गया है। देशीनाममाला की अधिकाण शब्दावली वातावरण की दृष्टि से ग्रामीण है । आज भी ग्रामीण भापायो में इसकी शब्दावली का व्यवहार पर्याप्त मात्रा में मिलता है। ये शब्द सतत वर्तमान रहने वाली उन जनभापायो के अश हैं जो समय-समय पर सदैव साहित्यिक मापात्रो को शब्द-सम्पत्ति प्रदान करती रही है ।
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सहायक ग्रन्थ-सूची
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। प्रसववेद 2 प्र र्गम ग्रह-हेमचन्द्र 3. अपनाना-वीरेन्द्र श्रीवास्तव ६ प्रग माहिम-हरिवन कोछड
पमिवानचिन्तामगि-हमचन्द्र
प्रामाका-प्रभार 7 विजान पोर व्यारमादान- पिलदेव द्विवेदी १ वाटयानो-पाणिनि ।
मानि । मलाबार-बलदेव उपाध्याय । प्राजानी-जोरदकानार्य 11 गन टु समेटिन नावाजी-पी डी गुणे 12 : दाल-वर, मी। 13 पर धागा-दानीदर पटिन (न मुनिजिन विजय) 1 RETE- मुनि जिनविजन 15 मार
37 मोटर प्रादमानियन नग्ज-हाल १५. टटी प्रार-पार वी जोशी 19.
प्राय मिली मंज-दम र पायगारी लेवन-
सन ।
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[ 21 ए गामर प्रार प्राकृत लैंग्वेज-डी सी सरकार 22. एवल्यूमन प्राव अवधी-बा बाबू गम सक्सेना 23. ए वैदिक वर्ड कन्काईन्म-विश्वबन्धु शास्त्री 24 नोरिजिन एण्ड डेवलपमेट ग्राफ वेगाली लेंग्वेज-सुनीतिकुमार चाटुा 25 कबीर की भापा-टा माताबद न जायसवाल 26 करमजरी-राजरोबर 27 कोरेटिव पामर पाव माउन प्रार्यन लेग्वेजेज-बीम्स, जे. 28 कम्पेरेटिव यामर प्राव बोडियन लेन्वेजेज-फाल्टवेज प्रार 29 कामसूत्र-वात्म्यायन 30 कायादा-दण्डी 31. काव्यानुशामन-हेमचन्द्र-स. रनिकलाल सी पारिख 32 कामालकार-द्रट 33 कोनिलना पोर अवह भाषा-शिवप्रसाद सिंह 34 कुमारपाल चरित-हेमचन्द्र 35 कुमारपालप्रतिबोध -सोमप्रममूरि 36 कुमारपालप्रतिवध-जिन मण्डन उपाध्याय 37 कुवलयमाला कहा-उद्योतन मूरि 38 मजुराहो पार्ट-उमिता अग्रवाल 39 गउउयहो-वावपतिराज 40 गाहानत्तमई-हाल 41 ग्रामर पाव ईस्टर्न हिन्दी-हानले 42 ग्रामीण हिन्दी-डा घीरेन्द्र वर्मा 43 गुजराती लैंग्वेज एण्ड लिटरेचर-दिव ह्यिा, एन बी. 44 छन्दोऽनुशासन-हेमचन्द्र । 45 डोयत्से-लिसरातूरत्साइटु ग-जीगफीड गोल्डस्मिथ 46 णायकुमारचरिउ-पुष्पदत-स हीरालाल जैन 47 ऐमिणाहचरिउ - लखमेव (लक्ष्मणदेव) 48 तरगवईकहा-पादलिप्त 49 ताण्ड्यब्राह्मण50 दक्खिनी हिन्दी-डा. बाबूराम सक्सेना 51. द्वात्रिंशिका (स्तोत्र) -हेमचन्द्र 52 दि कल्चरल हैरिटेज प्राव इण्डिया-मजूमदार
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53 दिनम्वन लेंग्वेज-टी. बरी
। देगीनाममाला-हेमचन्न, न पिशेन 55 देजीनाममाता-हेमचन्द्रका मुरलीवर बनर्जी 56 जीनाममाला-हेमचन्द्र-गुजराती सभा, बम्बई में प्रकाशित । 57 दाहालोग-राहुल माकृत्यायन
६ नाट्यशास्त्र-मन्त 59. निव-हेमचन 10 निम्तम्-यान्य-टीका प. उमाशकर शर्मा 11 नीनिशतक-भर्तृहरि 62 परमाप्रकाग एण्ड योगमार प्राव जोइन्दु-उपाध्ये ए एन. 1,3 परिमापेन्द्रशे वर-नागेशभट्ट १६ पासप्रन्टीनाममाला-धनपाल,म वनर 65 पाति मिलन डिकशनरी-पीलहान 66 पाहदोहा-मुनि गम्हि H; पालनामा-या दोग्राग
, निधापरण-जगदीशकश्यप १) परियाण-मित धर्मगजिन 20 दन्य मग्रह-मकनन 71 गुगनी हिन्दी - गुतरी
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[
307
85. प्राकृत दयाश्रयकाव्य-हेमचन्द्र 86 प्राकृतविमर्श - डा. सरयूप्रसाद अग्रवाल 87 प्राकृत भाषाम्रो का रूप-दर्शन-प्राचार्य नरेन्द्रनाथ । 88. प्राकृत लक्षण-चण्ड । 89 प्राकृतव्याकरण- मधुसूदनप्रसाद मिश्र 90 प्राकृत भाषा-डा प्रबोध वेचर दास पडित 91 प्राकृतभाषा और उसका साहित्य-डा, हरदेव बाहरी 92 प्राकृतभाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास-डा ने मिचन्द्र 93 प्राकृतव्याकरण - पी एल वैद्य 94 प्राकृतप्रकाश-कावेल 95 प्राकृतभाषाप्रो का व्याकरण-पिशेल-हिन्दी अनुवाद-हेमचन्द्र जोशी 96 प्राकृतपेड गलम् - भोलाशकर व्यास 97 प्राकृत-विमर्श -डा सरयूप्रसाद अग्रवाल 98 पृथ्वीराजरासो की भाषा-डा नामवरसिंह 99 प्री आर्यन एण्ड प्री द्रवीडियन इन इण्डिया-पी सी बागची 100 ब्रजभाषा व्याकरण --डा धीरेन्द्र वर्मा 101 ब्रजभाषा-डा धीरेन्द्र वर्मा 102 वाल गमायण-राजशेखर 103 विहारी-सतसई --टीका-जगन्नाथदास 'रत्नाकर' 104 भविसयत्तकहा- धनपाल 105. भारतीय आर्य भाषा-हि० अनु०-डा० लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय 106 भारत का भाषा सर्वेक्षण-हि० अनु० डा० उदयनारायण तिवारी 107 भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी - सुनीतिकुमार चाटुा 108 भाषाविज्ञान और हिन्दी-डा सरयूप्रसाद अग्रवाल 109 भाषा-विज्ञान-डा श्यामसुन्दर दास 110 भोजपुरी भाषा और साहित्य - डा उदयनारायण तिवारी 111 मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषामो का तुलनात्मक व्याकरण
सुकुमार सेन, हि. अनु डा. महावीर प्रसादलखेख 112 महाभारत113 महाभाष्य-पतञ्जलि 114 मृच्छकटिक- शूद्रक 115 मोहराजपराजय-यशपाल
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16 योगगाब-हेमचन्द्र 117 राजद अभिनन्दन ग्रन्य 138 गलाने का इतिहास- गौरीगकर हीराचन्द अोझा 119 गमावणा (पटमचरित)-स्वयंभू 120 ग्राव हेमचन्द्र -बूलर 121 निग्विस्टिक सर्वे याब इण्डिया-पियनन नभी जिल्र्दै 322 निग्विस्टिक मग्रियसन, जी ए 123 ली नान्हा वाहन 124 बगतार-ज्योतिरीश्वर ठाकुर 125 वादी-भर्तृहरि 126 किनक्रितालाजिकल लेक्चर्म (1914)-भण्डारकर 12: वीतरागस्तृति – हेमचन्द्र 124 या कारण मृपगणनार - भूपण } 29 गवन्तर नर्तृहरि 13 ननकानाहा-- 131 गार प्रयाग - भोज
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[ 309 ____148 हिन्दी के विकास मे अपभ्र श का योग-नामवर सिंह 149 हिन्दी व्याकरण-कामताप्रसाद गुरु 150. हिन्दी निरुक्त-किशोरीदाम पाजपेयी 151. हिन्दीशब्दानुशासन-किशोरीदास वाजपेयी 152 हिन्वारिकल लिंग्विस्टिक्स इन इण्टोग्रार्यन-एस एम. कत्रो 153. हिस्टारिकल ग्रामर प्राव इन्स्क्रिप्शनल प्राकृत-एम ए. महेन्दले 154 हिन्टारिकल ग्रामर आव अपभ्रंश-जी वी तगारे 155 हेमचन्द्राज प्राकृतग्रामर -वैद्य पी एल. 156 विपष्टिशलाकापुरुपचरित-हेमचन्द्र
कोशग्रन्थ 1 प्रभिधान राजेन्द्र 2 अभिनव हिन्दी को ग-हरिराकर पर्मा (गयाप्रसाद एण्ड सस प्रागरा) 3 अमरकोप-अमरसिंह 4 अवधीकोप --रामाज्ञा 'समीर' 5 अग्रेजी हिन्दी डिक्शनरी-डा हरदेव बाहरी 6 इटिमालाजिक गुजराती इग्लिश डिक्शनरी-एम एन वालसरे 7. ए कम्प्रेरेटिव एण्ड इटिमालाजिकल डिक्शनरी प्राव पालि लेंग्वेज--प्रार.
एल टर्नर 8 ए डिक्शनरी प्राव पालि लेग्वेज-पार सी. चाइल्डर्स 9 ए डिक्शनरी पाव हिन्दी लेंग्वेज रे जे डी वाटे 10 तमिल लेक्सिकन-सभी जिल्दे-मद्रास यूनिवसिटी-प्रकाशन 11. नालन्दा विशालशब्दसागर-नवलजी(न्यू इम्पीरियल बुक डिपो नई सडक, दिल्ली 12. पाइअमद्दमहण्णवो-हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ 13 बिहारी डिक्शनरी (अपूर्ण) हानले ग्रियसन । 14 भापा विज्ञान कोश -डा. भोलानाथ तिवारी 15. वाचस्पत्यम् 16 वैजयन्ती कोश-यादवप्रकाश कृत । 17 शव्दार्थकौस्तुम-प्रकाशित रामनारायण लाल अग्रवाल, प्रयाग 18 शब्दकल्पद्रुम- स्यारराजा राधाकान्त देव 19 सूरजजभापा कोश-टण्डन 20 सस्कृत इग्लिश डिक्शनरी-मोनियर विलियम्स । 21. सस्कत इग्लिश डिक्शनरी-वी० एस० प्राप्टे ।
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२
310 ] 22 हिन्दीमवार्थ पारिजात-चतुर्वेदी द्वारकाप्रमाद शर्मा (रामनारा० अग्रवाल,
इलाहाबाद) 23 हिन्दीशन मागर -श्यामसुन्दरदास, ना प्र सभा, काशी 24 हिन्दी जन्मग्रह-मुकन्दीलाल श्रीवास्तव (जान म०, काशी) 25 हिन्दी राष्ट्रभाषा कोण-विश्वेश्वर नारायण श्रीवास्तव इण्डि प्रेस,
इलाहाबाद 26 हिन्दी लोकोक्ति-कोश-विश्वम्भरनाय खत्री, हरीशन रोड, कलकत्ता 27 हिन्दी मुहावराकोश-डा० भोलानाथ तिवारी 28 हिन्दी मुहाविरा कोप-मरहिन्दी 29 हिन्दी नमिल कोप-दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, हैदरा० 30 हिन्दुस्तानी टिक्शनरी प्लेटमजान । हिन्दी पर्यायवाची कोप-श्रीकृष्ण शुक्न 32 हिन्दी रन्न ह वोप-श्रीकृष्णा शुक्ल 33 हिन्दी तमिल कोप- श्रीयागा शुक्न 34 हिन्दी नेगु कोष - कृष्ण शुक्न्न
जर्नल्स | दिन निग्विस्टिका। 2 टन सटोरिवगे।
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________________ [ 311 17 दि बुलेटिन ग्राफ दि स्कूल आफ ओरिएण्टल स्टडीज / (निवर्सिटी ग्राफ लण्डन) 18 न्य् इणियन एण्टीविबरी। 19 बुलेटिन ग्राफ दि डकन कालेज-रिसर्च इन्स्टीच्यूट पूना / 20 ममायर्म आफ दि एशियाटिक सोसायटी ग्राफ वगाल / 21 मरम्बनी स्टडीज-बनारम