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व्यमन, वेश्यागमन, परधनहरण आदि का निषेध कर दिया । इस तरह अपने जीवन के अन्तिम समय मे कुमारपाल ने हेमचन्द्र के प्रभाव से जैन धर्म स्वीकार कर लिया ।
डा० बूलर' की मान्यता है कि हेमचन्द्र कुमारपाल से तब मिले जब उसने राज्य प्राप्त कर लिया था । इस मत की पुष्टि मे वे "महावीर चरित” के 53 वे श्लोक का महारा लेते हैं । इसी ग्रन्थ मे ही यह उल्लेख मिलता है जब राज्य का विस्तार हो गया और सारी विजये भी प्राप्त हो गयी इसके बाद ही कुमारपाल और आचार्य हेमचन्द्र सम्पर्क मे आये । डा० वूलर प्रबन्ध सग्रहो द्वारा दिया गया विवरण ऐतिहासिक नही मानते ।
डा० वूलर के इस मत की आलोचना डा० रसिकलाल पारिख ने की है । उनका कथन है कि अपने मत की स्थापना मे डा० वूलर ने महावीर चरित' केजिन श्लोको का आधार लेकर निष्कर्ष निकालना चाहा है वह सर्वथा विवादास्पद है । इसके 45-51 तक के श्लोक स्वय कुमारपाल और उसके सुन्दर शासन का विवरण देते हैं श्लोक 52 मे उसके राज्य विस्तार का वर्णन प्रस्तुत किया गया है । 53-58 तक के श्लोक आचार्य हेमचन्द्र और कुमारपाल के बीच प्रत्येक दिन होने वाली वार्ता का विवरण प्रस्तुत करते हैं डा० बूलर ने भ्रम से यह समझ लिया कि दोनो के बीच हुई यह वार्ता प्रथम वार्ता है, परन्तु यह उनकी भ्राति मात्र है । इस तथ्य से केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस तरह की नित्य होने वाली वार्ता अवश्य ही कुमारपाल की महत्त्वपूर्ण विजयो के बाद ही शुरू हुई होगी । पहले अपनी व्यस्तता के कारण कुमारपाल को इस तरह प्राचार्य के उपाश्रय मे बैठकर शिक्षा ग्रहण करने का अवसर न मिलता रहा होगा ।
प्राप्त उल्लेखो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हेमचन्द्र से पूर्व परिचित होते हुए भी अर्णोराज पर आक्रमण करने के बाद ही कुमारपाल प्राचार्य तथा उनके माध्यम से जैन धर्म से घनिष्टतम रूप से सम्बन्धित होने लगा था । अर्णोराज पर किये गये अाक्रमण मे असफलता मिलने पर कुमारपाल ने अपने मत्री बाहड की सलाह से अजितनाथ स्वामी की प्रतिमा का स्थापन समारोह कराया। इसकी सारी विधि प्राचार्य ने ही सम्पन्न कराई लगभग वि स 1207 तक कुमारपाल जयसिंह के पुराने अधिकारियो द्वारा किये जाने वाले षडयन्त्रो से निश्चित होकर तथा युद्धो से भी छुटकारा पाकर धीरे-धीरे आध्यात्मिकता की ओर झुकने
1 डा0 बलर लाइफ आफ हेमचन्द्र, पृ0 83-84 । 2 महावीरचरित, पृ0 34 । 3 काव्यानुशासन, भूमिका, पृष्ठ मी0 सी0 एल0 33 ।