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लगा था और उसके इस परिवर्तन में प्राचार्य मनन्त का वहन गाय गा निष्कर्ष रूप मे यह कहा जा सकता है कि हेमचन्द्र का गम्पक मापार में बात पहले ही हो चुका था और राजा होने के लगभग 16 वर्ष बाद उस जंग गमं स्वीकार किया, यही कारण है कि "मिटिलाणकारपर्धान्त' और "भियान. चिन्तामणि" मे हेमचन्द्र ने कुमारपाल की प्रगम्नि दी है।
जिम प्रकार सिद्धराज जयसिंह को प्रचना पर मचन्द्र में "गिद्ध 2. शब्दानुशासन" की रचना की थी उसी प्रकार कुमारपान के प्रार्थना करने पर कोने "योगशास्त्र", "वीतराग स्तुति" "विपष्टिनाशकारपरिन" तथा "मानचिन्ना मरिण" यादि ग्रन्थो की रचना की । हेमचन्द्र का फुमारपाल पर प्रभाव
जयसिंह के प्रसग में इस बात का उरलेस किया जा चुका है कि हेमचन्द्र जैन प्राचार्य होते हुए भी सभी धर्मों का समान रूप से प्रादर करते थे। उनकी उन भावना का प्रभाव कुमारपाल पर भी पहा । सम्भात मे कुमारपाल ने प्राचार्य में समक्ष यह शर्त मान ली थी कि यदि वह भविष्यवाणी के अनुमार निश्चित समय पर राजा हो गया तो जैन धर्म की सेवा करेगा। इसके अतिरिक्त 20 वर्ष की अवस्था से ही उस पर प्राचार्य की विद्वत्ता का प्रभाव पड़ चुका था। राज्य प्राप्त करने के वाद हेमेचन्द्र की इच्छानुसार उमने जैन धर्म स्वीकार भी कर लिया ।
कुमारपाल ने जैन धम स्वीकार दिया था या नही इस बात को लेकर छ विवाद भी है । शिलालेखो मे कुमारपाल को "महेश्वरनुपाग्रणी" कहा गया है। इन प्रमाणो के आधार पर यह कहा जा मकता है कि यद्यपि कुमारपाल की चिलन धारा में परिवर्तन आया फिर भी उसने अपनी पारम्परिक पूजा पद्धति को पूरी तरह नही छोड दिया । यज्ञो प्रादि के अवसर पर उभने पशुबलि भले ही बन्द करा दी हो लेकिन अपने कलदेव शिव का सदैव भक्त बना रहा । कुमारपाल प्राचार्य हेमचन्द्र को अपना गुरु मानता था। जैन धर्म की अच्छाइयो को देखकर उसका सम्मान भी करता था । कई अवसरो पर उसने जैन मन्दिरो में पूजा भी अपित की । परन्तु उसने पूर्णत जैन धर्म स्वीकार कर लिया था इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण विरोध करते हैं। प्रत्येक राजा का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने राज्य के सभी
1 निपष्टिशलाका पुरुपचरित मे हेमचन्द्र ने कुमारपाल को 'परमाहत' कहकर सम्बोधित
किया है। 2. कुमारपाल के शासनकाल में लिखा गया भाववृहस्पति का शिलालेप। इसका उल्लेख रसिक
लाल सी पारिख ने काव्यानुशासन को भूमिका पृ0 287 पर किया है।