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प्राक्कथन
एक ग्रामीण अंचल का निवासी होने के कारण, प्रारभ से ही मुझे ग्रामीण भाषा और उसमे व्यवहृत होने वाली शब्दावली से लगाव रहा है। स स्कृत के अध्ययन ने इस रुचि मे और भी परिष्कार किया। संस्कृत की स्नातकोत्तर कक्षा मे वैदिक साहित्य के विशिष्ट अध्ययन से यह रुचि और भी परिष्कृत हुई। वेदो मे व्यवहत भाषा कितने जन-भापा के तत्वो से मण्डित है। इन तत्वो की खोज करने की प्रेरणा और भी बलवती हो उठी। इसी बीच मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषामो के अध्ययन के बीच 'देशी' शब्दो पर ध्यान गया । स्वाभाविक रुचि होने के कारण मैंने इस विषय को शोध-कार्य के रूप मे ग्रहण करना चाहा । परमपूज्य गुरु डा० लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय ( अध्यक्ष-हिन्दी-विभाग ) एव डा० माता बदल ( जायसवाल ) की कृपामयी अनुकम्पा से मुझे इस विषय पर कार्य करने का प्रोत्साहन भी मिल गया। प्रारम्भ मे समवेत रूप से 'देशी' शब्दो के पालोडन की भावना से अध्ययन प्रारम्भ किया । अध्ययन की इसी परम्परा मे प्राचार्य हेमचन्द्र की 'देशीनाममाला' पर दृष्टि गयी । इस ग्रन्थ की क्लिष्टता और परम्परा
के कारण विद्वानो द्वारा की गयी उपेक्षा ने पहले तो हतोत्साहित किया, पर गुरुयो ___ की प्रेरणा ने कार्य को इसी ग्रन्थ तक सीमित कर आगे बढाने का साहस दिया।
प्राचार्य हेमचन्द्र की देशीनाममाला भारतीय कोश साहित्य मे तो अद्भुत है ही, समस्त विश्व के कोशो मे भी विलक्षण है । आचार्य हेमचन्द्र ने इसकी रचना अपने व्याकरण ग्रन्थ 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' के पूरक ग्रन्थ के रूप मे की थी। वे अपने शब्दानुशासन को पूर्णता तक पहुचाना चाहते थे, अत उन्होने तत्सम और तद्भव शब्दो का आख्यान कर लेने के बाद युग-युगो से जनभाषानो मे व्यवहत होते आये, एव समय-समय पर साहित्य मे स्थान पाने वाले असदर्य 'देशी शब्दो'
का प्रत्याख्यान 'देशीनाममाला' मे किया। समवेत रूप से देशीनाममाला के __ महत्व-निदर्शन का यह प्रथम प्रयास है। इस पर कार्य करने के बीच जितनी
कठिनाइया सामने आयी हैं, सभी का उल्लेख कर पाना कठिन है , प्राकत तथा
अप्रभ्र श के मर्मज्ञविद्वान् डा० माताबदल जायसवाल तथा प्रो. महावीरप्रसाद लखेडा __ जी ने पग-पग पर पाने वाली कठिनाइयो का निवारण अत्यन्त उदारतापूर्वक
किया है।