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[ 209 ने पहले नाट्यगार में प्राकृनो ने इन सभी स्वरो के प्रप्रयोग की स्पष्ट चर्चा की है
एमा प्रारपराणि न घमारपर श पायए णत्यि । x x x
ना. शा. 17-7 ।। यही मत हेमनन्त (नि. 81111 की वृत्ति) त्रिविक्रम (11111 की वृत्ति) मादि का भी: । प्रानीन प्रारंभापा के इन (न, ल. ऐ, ग्री, अ, अ) छ' स्वरों पार, प्रानो में 8 पचान बरो (अ, पा, इ, ई, उ, ऊ, ए, श्रो) के अन्तर्गत हो पर लिया गया। इन स्वरों को विति किसी भी प्राकृत व्याकरणकार ने नहीं स्वी मी । जब साहित्यिक प्रातो मे ही इनकी स्थिति नहीं रही तो लोकजीवन शो बोनानी भाषा में व्यवहृत होने वाले देश्य शब्दो मे इनकी स्थिति का प्रश्न तीनही उठना। प्रारुन भाषायों के अनकल ही देय शब्दो मे भी इन स्वरो का पनिकता मान होता है। इनमें से प्रत्येक का वर्ण विकार निम्नलिखित रूपो मे प्राप्त है।
1 म.7 प्र~अच्छभल्लो म.क्षभल्ल (दे 1-37), अवत्तय। अवृत (दे०1-34)।
2. E7 F - भिंगमृगम् (दे 1-104), भिंगारी, भू गारी (दे 1-105) । उग्रमिकन । पुरस्कृत (दे. 1-107) ।
3. 7 उ-उपग्रजु (दे 1-88), उड्डयो2 वृद्ध, (दे 1-23)।
4 7 रि-रिछोली- ऋक्षालि (दे 7-7), रिद्धी, ऋद्धि (दे 7-6)
5 7 अर-करमरी, करमृदित (दे 1-15) 6 7 ए~-यह परिवर्तन देशीनाममाला के शब्दो मे बिल्कुल नहीं है ।
प्राकृत तथा अपभ्र श भापायो मे 'ऋ' के प्रयोग को लेकर विद्वानो मे पर्याप्त विवाद है। 'ऋ' का उच्चारण प्राकृतो मे लगभग समाप्त सा हो गया, इमीलिए व्याकरणकारो ने प्राकृत वर्णमाला मे इसकी गणना भी नही की । अपभ्र श मे भी यही स्थिति रही। अपभ्र शकाल मे कही कही लोकभाषामो मे इसका उच्चारण रह गया था इसकी सूचना हेमचन्द्र ने 8141329 तणु, और सुकिदु और सुकृदु के