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________________ 208 ] एक्कघरिल्लो (एक्कधरिल्लो (दे 1-146) । दे. ना मा. के शब्दों मे आदिम स्थिति मे (ए) मस्वन का प्रयोग 8 शब्दो मे हुप्रा है। इसके मध्यस्थिति वाले प्रयोग तो अनेक हैं, हा अन्त्य प्रयोगों का सर्वथा अभाव है । इन अभाव का सबसे वहा कारण यह है कि दे ना. मा. के शब्द निर्विभक्तिक रूप मे सकलित हैं । ए-कण्ठतालव्य अवृत्तमुखी, शिथिल, अग्र, अर्व संवत स्वर हैं। दे ना. मा. के शब्दो मे इसका प्रयोग श्राद्य और मध्य स्थितियो मे बहुश हुअा है, अन्त्य प्रयोग केवल एक शब्द (पुडे-दे. 6-52) मे मिलता है । प्रा. भा पा के 'ऐ स्वर ध्वनिग्राम के स्थान पर भी सर्वत्र इमका व्यवहार हुअा है। कहीं-कही यह 'ई' के गुण स्वर के रूप मे भी व्यवहृत है-जैसे एराणी, इन्द्राणी-दे ना. 1-1471 (प्रो) कण्ठ्योप्ठय, वृत्तमुखी, शिथिल, पश्च तथा अर्व विवृत स्वर है । यह भी 'नो' स्वर ध्वनिग्राम के एक सस्वन (श्रो) के रूप मे व्यवहृत हुआ है । (ए) की भांति इसका भी कोई लिपिचिह्न नहीं है। सयुक्ताक्षरो के पहले का 'ओ' स्वर ध्वनिनाम ही (ो) के रूप मे उच्चरित होता है। दे. ना मा के शब्दो मे यह 'मम्वन' पाता और मध्य दो ही स्थितियो में प्रयुक्त हुया है । अन्त्य स्थिति मे यह भी प्रयुक्त नहीं है । ' श्रीकण्ठ्योप्ठ्य, वृत्तमुखी, शिथिल, पश्च तथा अर्वविवृत स्वर हैं । दे. ना मा के शब्दो में इसके प्राद्य मध्य और अन्त्य तीनो ही स्थितियो के प्रयोग मिलते हैं । विशेषतया 'देश्य' शब्दो मे । तद्भव शब्दों मे यह कहीं उ के स्थान पर (उत श्रोति से) तथा कहीं प्रो के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है। देशीनाममाला के शन्नो में इन्हीं (8) (ए) (ओ) की गणना कर लेने पर (10) स्वर व्वनिग्रामो का प्रयोग हुना है। प्राचीन भारतीय आर्यभापा के शेष स्वर व्वनिग्राम ऋ, लु, ऐ, औ, अ , अ आदि का प्रयोग कही भी नहीं हुआ है । इन सभी का प्रयोग तो प्राकृतो की प्रारभिक अवस्था से ही समाप्त हो चला था । भरत 1. एलवितो विनो-1-148 ॥ हैमरद पने अपनश व्याकरण (4-410) में ह्रस्व 'यो (यो) का अपन्न श में प्रयोग म्वीकार करते हा तनु हटकरि-जगि दुल्हहो' उदाह्मण भी देत है। देगीना मे (हम्द मो (बो) वं वन्य प्रयोग का न प्राप्त होना भी) इमर्क शन्दो यो ,अपन्न श भापा सनग ही नाना है। इन कोप के पुल्लिग मन्द प्राय 'बोकारान्त' है, न तो कहीं इन नदीमयो' का बन्य उच्चागा हम्ब होना है और न ही इन गन्दी के प्रयोग स्वम्पदी यी कायालय सायायों में ही। ऐसी स्थिति में इन शब्दो की प्रकृति इन्हे अपघ्र भाषा में प्रति दुरी पर रखती है।
SR No.010722
Book TitleDeshi Nammala ka Bhasha Vaignanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivmurti Sharma
PublisherDevnagar Prakashan
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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