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गये थे परन्तु उनकी भाषा का प्रभाव उस समय तक लगभग नही ही पडा था।
(125) पत्तल - कृश (विशेषण) दे ना मा 6-14 - हिन्दी 'पतला' शब्द इसी का विकसित रूप होगा (ब्रजभाषा तथा अवधी मे 'पातर' मिलता है ।
(126) पप्पीमो- चातक (सज्ञा) - दे ना मा 6-12, हिन्दी 'पपीहा' अवधी 'पपिहा', 'पपिहारा' ब्रजभाषा 'पपिहा', 'पपीहरा' 'पपीहा' आदि पद इसी के विकसित रूप है। इन सभी का अर्थ भी चातक ही है । ध्वनिपरिवर्तन की दृष्टि से केवल 'ह' का आगम और प् का लोप हुआ है।
(127) पूरणी- तूललता (सज्ञा) दे. ना मा. 6-56 - हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे 'पूनी' शब्द रूई को लपेट कर बनायी हुई वस्तु विशेष के अर्थ मे प्रचलित है। यह शब्द थोडे ध्वनिपरिवर्तन (ण को न्। के साथ ज्यो का त्यो उसी अर्थ मे विकसित है । इसे कही-कही 'पिउनी' भी कहा जाता है । देशीनाममाला 6-78 मे 'पिउली' शब्द भी पाया है। 'पिउनी' शब्द इसी से विकसित माना जा सकता है।
(128) पीढ- इक्षुनिपीडनयत्रम् (मज्ञा) दे ना मा. - 651 - हिन्दी का 'पीढा' या 'पिढई' शब्द इसी से व्युत्पन्न माना जा सकता है। हेमचन्द्र ने 'पीढ' शब्द एक विशिष्ट अर्थ (कोल्हू) मे प्रयुक्त किया है । हिन्दी मे वह अर्थ न होते हुए भी मूल अर्थ से विकसित अथ का सम्बन्ध दिखाया जा सकता है । ईख पेरने का कोल्ह प्राज भी दो लकडी के मोटे तख्तो (जिन्हे पीढा कहा जाता है) पर आधारित रहता है । अत. कोल्हू के एक प्राधार भाग के अर्थ मे ही यह शब्द रूढ हो गया होगा । शब्दो के अर्थ विकास की परम्परा मे यह असम्भव नही लगता। पीढ' शब्द को सस्कृत 'पीठ' शब्द से भी निष्पन्न किया जा सकता है - पर यहा भी पीठ पीढ 2 पीदा आदि के विकास क्रम मे अर्थ सम्बन्धी खीचतान करनी पड़ेगी। सस्कृत का 'पीठ' शब्द 'स्थान' वाची है जव कि हिन्दी का पीढा शब्द लकडी की बनी हुइ वस्तु विशेष का वाचक
(129) पुप्फा-पितृवसा (सज्ञा) दे ना मा 6-52 - हिन्दी की बोलियो मे प्रचलित 'फुमा' या 'बुमा' (पिता की बहिन) शब्द इसी के विकसित रूप हैं । 'बुमा' शब्द कही-कही मा के लिए भी व्यवहत होता है। 'बुआ' या 'फुया' के पति को
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चातक के अर्थ में बप्पीसी (दे. ना, मा 6-90) और पप्पीओ (दे ना मा 7-33) दो अन्य शब्द भी मिलते हैं।