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शरीरम् (2-58) गणगाइया-चण्डी (2-87),चु चुणिया-टपका हुया
(3-23) रुइरइग्रा-उत्कठा (7-18) इत्यादि । इइ- किरिइरिया-वर्णोपकणिका (2-61), इउ- कइउल्ल स्तोकम् । 2-21), कायपिउच्छा या कायपिउला-कोकिला (2-30),
रिणउक्करणो वायन (4-27) रिण उक्को-तूपणीक (चुप्पा (6-27), इऊ- विकरिन नप्टम् (7-72) डा- पडिएल्लि ग्रो-कृतार्थ 6-32) । पूरे कोश मे यही एक शब्द है। उदाहरण
की गाथाओ मे इस विवृति का प्रयोग प्राय हुमा । निविभक्तिक होने के कारण
मूल शब्द मे इस का व्यवहार कम हुआ है। इग्रो- कमिग्रो - उपमर्पित (2-3), कम्हिग्रो-मालिक (2-8),
कसणसिनो बलभद्र (2-23), कु डिग्रो-ग्रामाधिपति. ( 2-37),
खडइग्रो-सकुचित (2-72), चुण्णइग्रो-चूर्णाहत (3-17) | ईअ- प्रोसरीय अधोमुखम् (1-171), बीअनो-प्रसनवृक्ष (6-93) ,वीअजयणं
(6-93) मीन -समकालम् (6-133), वीस-विधुरम् (6-93)। ईग्रा-रणीयारण-बलिघटी (4-43), सरलीया-एक कीडा (8-15) । ईड- सीडया झडी (8-34) । ईउ- वच्छीउत्तो-नापित (7-47), सीउग्गय-मुजातम् (8-34) ईयो- अहिरीयो कान्तिहीन (1-27), औग्गीयो-नीहार (1-149)
प्रोमीग्रो-अधोमुख (1-158), छाईयो देवी-माता (3-26), घूमद्धयमहिमीयो-कृत्तिका (5-62), पप्पीग्रो-चातक (6-12) इत्यादि । उग्र, उपग्र ऋजु (1-88), उपक्किम पुरस्कृतम् (1-107), उग्रचित्तो-अपगतः
(1-108) उपरी-शाकिनी (1-199), उग्रह पश्यत् (1-198), उपहारी
दोग्धी (1-108) इत्यादि । उग्रा - उपाली अवतम (1-90), उच्छुपार-छिपा हुआ (1-115), उन्मुग्राग-दूघ
का उफान (1-105), कोउपा-कडे की आग (2-48)। उइ- सइ तगम् उत्तरीयम (1-103), अरुइग्रा-उत्कठा (7-8), उण्णुइअो-हुकार.
(1-132)। उई- कोमुर्द-मापूर्णिमा (2-48), छंकुई तथा छुई-केवाच-(3-24) । उठ- पुउपा-तुम्बीपात्रम् (1-112)