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(31) प्रोमरिनं - अलिन्द ~ दे ना मा 1-161 - घर के दरवाजे के सामने बनी हुई कुल वरसाती के अर्थ मे यह शब्द पाया है । ब्रजभाषा मे प्रोसारा अववी मे 'श्रोमार' या 'मोसरिया' शब्द इसी के विकमित रूप है। सूर ब्रजभापा कोश (पृ. 183) मे 'पोसारा' शब्द की व्युत्पत्ति 'उपशाला' शब्द से दी गयी है । परन्तु प्रत्येक शब्द को घसीट कर सस्कृत की सीमा मे ले जाना एक स्वस्थ मनोवृत्ति नहीं है।
(32) प्रोसा - निशाजलम् - दे ना मा 1-164 - मानक हिन्दी तथा उसकी सभी बोलियो मे प्रचलित 'पोस' शब्द रात्रि मे स्वतः वपित जल के अर्थ मे प्रचलित है । यह शब्द 'मोसा' का ही एक विकसित रूप है। ऋग्वेद मे भी एक स्थान पर 'अवश्याय' शध्द 'बोस' के अर्थ मे पाया है । इसका यह अर्थ नहीं कि मूल रूप मे यह वैदिक संस्कृत का शब्द है। ऋग्वेद में कितने ही शब्द ऐसे हैं जो प्रार्यों ने अनार्यों से लिये और उन पर अपनी सभ्यता, मुशिक्षा और अपने ढग के उच्चारण की मुहर लगा ली। ऋग्वेद मे जगह-जगह पार्यो (देवो) और अनार्यों (असुरो) के वीच होने वाले मघर्प की चर्चा है। यह रचना आर्यों ने ऐसे समय म की जब वे वीरे-धीरे अनारों का प्रभाव ग्रहण करने लग गये थे। ऐसे कितने ही शब्द ऋग्वेद या इतरवेटो मे अनार्यों मे ग्रहण किये गये होंगे अनार्य या भारत के आदिवासियो का कोई लिखित साहित्यिक प्रमाण न मिलने के कारण ही यह भ्रान्त धारणा चल पदी कि जितने शब्द वेद - कम से कम ऋग्वेद में पाये, वे पार्यो के हैं, परन्तु आधुनिक खोजो से यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पार्यों ने अनार्यों मे बहुत कुछ लिया है।
(33) श्रोसायो - प्रहार पीडा - दे ना.मा - 1-152-~-अजमापा और अवधी दोनो बोलियो का 'ग्रोमाना' क्रिया-पद जो कि भेलने' या 'महन करने का अर्थ देता है ~ इसी से विकसित होगा । अपने मूल स्प मे प्रहार की पीडा का वोवक यह शब्द अर्थ-विकास के ग्रावार पर 'पीडा सहन करने या झेलने' का वाचक बन गया है । इसे सस्कृत की 'मह' धातु से व्युत्पन्न करना उपयुक्त नही होगा।
(34) अोहडणी -- फलहकार्गला (सनापद) दे ना मा. - 1.160-- अवधी का 'प्रोडयनी' या 'प्रोडसनी' पद इसी मे विक्रमित है । 'प्रोडघनी' का तात्पर्य
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देना मा 1-49में 'बोनाग' शन्द भी माया है जिममा अयं गोवाट यर्यात गायो का ठेडा दिया गया है। गावों में घर के सामने बने हए ओनारे में वरमा या जाड़े के दिनों में शनवर्गका वाघ दिया जाना यतिमामाय बात है।