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[ 179 इन गब्द की विद्यमानता यह सिद्ध करती है कि यह शब्द संस्कृत शब्द भण्डार की अपनी उस्तु न होकर अपहृत है । इसका प्रमाण इसी अध्याय मे पहले भी दिया जा चुका है । ऐसी स्थिति मे इसे तद्भव न मानकर 'देशज' मानना ही अधिक उपयुक्त होगा।
(26) प्रोझरी (तज्ञापद)-दे ना मा. 1-157-हेमचन्द्र ने इस शब्द का प्रयोग गर्भाशय को ढके रहनी वाली पतली झिल्ली' के अर्थ मे किया है । अवघो, भोजपुरी तथा 'ब्रजभाषा' तथा हिन्दी की अन्य सभी ग्रामीण बोलियो मे यह शब्द 'नोकरी' के रूप मे थोडे ध्वनि विकार के साथ ज्यो का त्यो प्रचलित है अर्थ भी वही है जो हेमचन्द्र ने दिया है । 'प्रोझर' या 'प्रोझल' शब्द जो छिपने के अर्थ मे चलते हैं उनका भी सम्बन्ध इस शब्द से जोड़ा जा सकता है।
(27) प्रोड ढरणं - उत्तरीयम्-दे. ना मा. 1-155 - ब्रजभाषा-ओढनि, ओ हनी अवधी 'यो ढनी' तथा 'प्रोढना, इसी शब्द के विकसित रूप होगे । ब्रजभाषा मे यह दुपट्टा (उत्तरीयवाची) ही है। अवधी मे यह सज्ञा (प्रोढनी वस्त्र) तथा किया (प्रोटना)दोनो ही रूपो मे प्रचलित है । ग्रामीण वोलियो मे इसकी अवस्थिति स्वय इस शब्द के 'देशीपन' को व्यक्त करती है।
(28) अोलुग्गो ~ सेवक - दे ना मा 1-164- ब्रजभापा का 'लगुवा' और अवधी का 'लगया' ये दोनो ही इसी शब्द से विकसित होगे । यह शब्द ऐसे नौकर के अर्थ मे चलता है जो केवल अपने स्वामी का ही काम करता है । प्राय यह शब्द काश्तकारो का पुश्त-दर पुश्त हल जोतने वाले मजदूरो के अर्थ मे प्राता है । संस्कृत 'लग्न' शब्द से इसे व्युत्पन्न करने मे पर्याप्त खीच-तान करनी पड़ेगी।
(39) पोलुकी ~ छन्नरमणम् - दे ना मा 1-153- ब्रजभाषा लुकना, नुकनो, अवधी 'लुका-नुकी' या लुकी-लुका' आदि पद इसी से विकसित हैं । 'लुकीनुका' या लुका-छिपी' का सेल ग्रामीण बालको का अत्यन्त प्रिय खेल है।
(30) प्रोल्लरिनो - सुप्त - दे ना मा - 1-163 - अवधी का 'पोलरना' क्रियापद, व्रजभाषा का प्रोलरन (सज्ञा) तथा 'पोलराना' (प्रेरणार्थक क्रियापद) आदि पद इसी से विकसित होगे । स्वरूपगत विकास तो लगभग ठीक दिशा मे है पर अर्थ मे थोडा भेद है । प्राकृत का 'प्रोल्लरियो पद 'सोता हुआ' अर्थ देता है परन्तु अवघी और ब्रजभाषा मे विकसित अोलरना या 'पोलराना' न सोते हुए भी 'लेटने' के वाचक है । ये शब्द 'विश्राम करने के लिए लेटने तथा 'सोने' दोनो ही क्रियायो के वाचक है ।