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________________ [ 213 प्रो प्रीत्यग्रो (1-151) पोट्ट (6-60) नीच्छिय (1-150) मोग्गरो (6-139) 'खण्डत र स्वर ध्वनिग्राम' अनुस्वार तथा अनुनासिक दे ना मा. के शब्दो मे वर्गीय अनुनासिक न्यजनो के स्थान पर सर्वत्र अनुस्वार (बिन्दु) ( ) का व्यवहार किया गया है । स्वरो के जिस क्रम मे हेमचन्द्र ने इमका व्यवहार किया है उससे स्पष्ट है कि वे इसे स्वरो का ही अग मानते हैं। इतना होते हुए भी उन्होने अलग से इस स्वर की परिगणना नही की। भरत ने तो पात स्वगे की गणना में प्रकार को स्पष्ट ही स्थान दिया था। सर्वप्राचीन प्राकन वैयाकरण वरूचि ने भी भरत की इसी मान्यता को स्वीकार करते हुए पदाल 'म' की विन्दु () सज्ञा स्वीकार की। हेमचन्द्र ने पाणिनि की ही मान्यता 'मोऽनुन्यार' को ज्यो का त्यो गहण कर लिया । त्रिविक्रम ने वरु रुचि की भाति पुन इमे विन्दु रूप में स्वीकार किया । वैदिक संस्कृत और सस्कृत मे वर्गीय व्य जनो के अतिरिक्त अन्य व्यजनो के सयोग मे पदान्न 'म्' का अनुस्वार हो जाता था । स्वरो के परे रहने पर अनुस्वार न होकर स्वर म् के साथ मिल जाता था। अनुस्वार की यह स्थिति उसे व्यजन वर्ग के अन्तर्गत ही सिद्ध करती है। इसीलिए शुक्ल यजु -प्रातिशास्य 'व्यजनकादि' 1147 सूत्र मे 'न इत्यनुम्वार एतदन्तम्' रूप मे अनुस्वार 'व्यजनो के ही अन्तर्गत गिना गया । परन्तु ऋग्वेद प्रातिशाख्या 1111 में 'अनुम्बारो व्यजनो वा स्वरोवा' कहकर इसे स्वर और व्यजन दोनो ही स्वीकार किया गया। इसी सूत्र की व्याख्या मे अनुस्वार मे कुछ व्यजन धर्म अर्धमात्राकालता एव मयोग तथा कुछ स्वर धर्मों को भी जैसे ह्रस्व, दीर्घ आदि बताया गया । इसी ग्रन्थ पे अनुस्वार और विसर्ग को पूर्व स्वर का श्रग स्वीकार किया गया है ।' भरत ने इसी प्रकार पद्धति को स्वीकार कर अनुस्वार को स्वरो के अन्त में स्थापित किया गया है । वस्तुत किसी भी स्वर के उच्चारण के अनन्तर जब जिह्वा अनुस्वार के उच्चारण मे शीघ्र प्रवृत्त होती है तो नासिक विवर मे श्वास ले जाने के 1. ना गा अध्याय 14 2 मो विन्द प्रा प्र 4112 मोऽनम्बार मि हे 811123 4. वि दल प्रा श 111140 'अ' इत्य नम्बारो वर्ण समाम्नाये पठयते, स काश्चित् स्वरधर्मान्गह्वति काशिचन्च ध्यजनधर्मान् यथा ह्रस्वत्व दीर्घत्वमदात्तत्वमनदात्तत्व स्वरितत्वमिति स्वरधर्मा. तथा मईमानाकालता स्वरवनोदात्तता स्वरितता सयोगश्चति व्यजनधमो.।'
SR No.010722
Book TitleDeshi Nammala ka Bhasha Vaignanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivmurti Sharma
PublisherDevnagar Prakashan
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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