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________________ [ 135 । प्रारत भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से नहीं हुई है, किन्तु' प्रकृति सस्कतम्' का य है कि पाकृत भाषा को सीखने के लिये संस्कृत शब्दो को मूलभूत रखकर उनके नाम उच्चारण भेद के कारण प्राकृत शब्दो का जो साम्य-वैपम्य है, उसको दिवाना पर्यात संम्फान भाषा के द्वारा प्राकृत भाषा को सीखने का यत्न करना । इसी प्राधार से हेमचन्द्र ने गत को प्राकृन की योनि कहा है । 2 मान या प्राकृत भाषा के बीच किसी प्रकार का कार्य कारण या जन्यजना भाव है ही नहीं। ये दोनो भाषाए सहोदराए हैं । दोनो का विकास पिसी अन्य बोत में होता है, यह स्रोत घान्दग' ही है। 3 उच्चारमा भेद के कारण सम्कृत और प्राकृत मे अन्तर हो जाता है । पर जने अतर में इन दोनो भापानो को बिल्कुल भिन्न नही माना जा सकता। जननाधारण प्राकृत का उच्चारण करते हैं पर सस्कारापन्न नागरिक संस्कृत का । प्रत नस्तृत को प्राकृत की योनि इसी अर्थ मे कहा गया है कि शब्दानुशासन से पूर्णतया अनुशामिन सस्कृत भाषा के द्वारा ही प्राकृत के तद्भव शब्दो को सीखा जा सकता है । वन्तुन मस्कृत और प्राकृत एक ही भापा के दो रूप है।' सारा यह है कि प्राकृत वययाकरणो तथा अन्य विद्वानो द्वारा विवेचित पौर सस्कृत को प्रकृति मानकर चलने वाली 'प्राकृत' भाषा की कल्पना बहुत वाद की वस्तु है । वास्तव में 'प्राकृत' तो वह भापा है जो बहुत अनादि काल से जनसामान्य की भापा रही है । यह वैदिककाल में भी थी। साहित्यिक संस्कृत के युग मे भी इसका प्राधान्य रहा और फिर एक समय वह भी पाया जब यह सस्कृत का सहारा लेकर साहित्यिक मापा भी बन गयी। हेमचन्द्र प्रति प्राकृत वैय्याकरणो ने इसी साहित्यिक प्राकन को सस्कृत से उद्भूत बताया है। यहा उनका प्राशय जन-सामान्य के बीच प्रचलित प्राकृत से नही है । वे अपने प्राकृत शब्दानुशासन मे कहते भी हैं"यहा सिद्ध और साध्यमान सस्कृत भव शब्दो का विवेचन है, देश्य का नही । देश्य से उनका अभीष्ट अर्थ जन सामान्य मे प्रचलित भाषा से ही होगा। इसी कारण उन्होंने प्रागे चलकर 'देशी शब्दो' का प्रात्यान एक अलग सग्रह न थ 'देशीनाममाला' के अन्तर्गत किया है। वास्तविक 'प्राकृत' तो वह थी जिसका विवेचन नमिसाधु ने रुद्रट के काव्यालकार के श्लोक की टीका मे किया था. 1 'छान्दस्' या आप या प्राचीन वैदिक कविता की भाषा, जो प्राचीनतम भारतीय-आर्यभाषा फा साहित्यिक रूप थी और जिसका ग्राहमण लोग पाठशालामो मे अध्ययन करते थे। -भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी, पृ. 75 चटजी 2. प्राकृतसस्कृतमागधपिशाचभापाश्च शौरसेनी च । पप्ठोऽन्न भरि भेदो देश विशेपादपध्र शः। -काव्यालकार 2112
SR No.010722
Book TitleDeshi Nammala ka Bhasha Vaignanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivmurti Sharma
PublisherDevnagar Prakashan
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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