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[ 101 इसकी साहित्यिकता मे सन्देह होने की बात है यह स्वाभाविक भी था। यह तो एक तथ्य है कि 'रयणावली' के पद्य कठिनता की दृष्टि से सम्पूर्ण प्राकृत साहित्य मे बेजोड हैं । सभी पद्यो का ठीक अर्थ कर पाना उनमे निहित साहित्यिक सौन्दर्य को देख पाना कम से कग असम्भव नही तो कठिन अवश्य है। मेरे समक्ष स्वय इस पक्ष को लेकर अनेको कठिनायां रही हैं। पद्यो मे देशी शब्दो का प्रयोग होने के कारण कही कही उनका प्राशय समझ पाने में कठिनाई अवश्य हुई है, परन्तु अधिकतर पद्यो मे ऐसी कोई भी बात नही है । 'रयणावली' के साहित्यिक दृष्टि से उपेक्षित होने का एक कारण और भी रहा है यह एक भाषा शास्त्रीय कोशकृति है, पिशेल महश विदेशी विद्वानो ने इसका अध्ययन भी इसी दृष्टि से किया था, इसके साहित्यिक मूल्याकन का प्रयत्न कम ही हुया है । प्रो० मुरलीधर बनर्जी ने इस ओर प्रयास अवश्य किया था पर वे मकेतमात्र ही कर सके थे, उनका अधिकतर प्रयास 'पिशेल' की असावधानिया टू ढने की ओर ही रहा है । यहा प्रस्तुत किया गया अध्ययन इस दिशा मे किया गया प्रथम प्रयास है। इस प्रयाम मे भी 'रयणावली' का समस्त काव्य सौन्दर्य सामने नही पा सका है क्योकि यह किसी एक प्रबन्ध के छोटे से अध्याय मे समाप्त होने वाला विषय भी नही है । गाहासत्तसई, वज्जालग्ग तथा अन्य प्राकृत के लोकिकता परक काव्यो की भाति इसका भी स्वतत्र अध्ययन अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण कार्य होगा । निष्कर्ष रूप मे इतना ही कहना पर्याप्त है कि 'रयणावली' अन्य सतसई परम्परा की कृतियो की भाति ही विषयवस्तु की दृष्टि से एक महान कृति है । भाव, भापा, छद, अलकार प्रयोग, अर्थगत प्रतीयमानता, प्रकृति चित्रण सभी दृष्टियो से यह एक श्रेष्ठ माहित्यिक कृति कही जा सकती है ।
'गाहासत्तसई' की भाति 'रयणावली' भी कृषिजीवी भारतीय जीवन का चित्र अकित करने वाली कृति है। इसमे तत्कालीन गुजरात के ग्रामीण जीवन की रीति नीति, प्राचार-व्यवहार आदि का स्पष्ट अकन हमा है । इसमे निहित कुलटाओ-वेश्या
ओ, हालिक-हालिक पत्नी, गोप-गोपी, गृहिणी-गृहपति और प्रेमी-प्रेमिका के बीच की ग्रामीण उक्तिया एव उनकी मनोहारी लीलाए चित्ताकर्षक होने के साथ तत्कालीन भारतीय ग्रामो और उनके समाज की कसोटी भी हैं। इसके पद्यो मे स्वभावोक्ति' की बहुलता है । इमी स्वभावोक्ति को शिष्ट समाज 'अश्लील उक्ति' के नाम से भी सम्बोधित करता है, पर इन अश्लील उक्तियो के अन्तराल से व्यक्ति का स्वच्छ, छल कपट रहित हृदय झाकता दिखायी देता है । इनमे निहित निम्नवर्गीय लोगो की भावनाए परिमार्जित न होकर अपने प्राकृत रूप मे पायी हैं। इनके भीतर और बाहर दोनो मे समानता है । कुल मिलाकर 'रयणावली' को भी ‘गाहासत्तसई' की भाति 'लोक साहित्य' के ग्रन्थो की तालिका मे एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के रूप मे स्वी