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[ 149 पहले के याचार्यों की विचारधारा का पोपण स्वय हेमचन्द्र ने किया और आगे चलकर उनके बाद के व्याकरणकारो ने स्वय हेमचन्द्र की मान्यताप्रो का समर्थन किया । इतना अवश्य है कि प्राचार्य हेमचन्द्र की भाति किसी भी व्याकरणकार ने "देशी" पदो पर स्वतन्त्र ग्रन्य लिखकर अपने मतो का प्रतिपादन नही किया । पूरी भारतीय प्राय-भाषा परम्परा मे "देशी" शब्दो का परिज्ञान कराने वाला हेमनन्द्र का एकमात्र गन्य "देशीनाममाला" है । इसी से हमे यह भी पता चलता है कि इन तरह के गन्ध पहले भी लिये गये थे परन्तु अव वे उपलब्ध नही होते । हेमचन्द्र ने परम्परा के इन सभी देशीकारो के स्वीकार्य मतो को माना और अस्वीकार्य मनो मापन किया है। अब यहा "देशी" शब्दो के प्रति स्वय प्राचार्य हेमचन्द्र का क्या दृष्टिकोण है ? इसका विवेचन कर लेना समीचीन होगा। प्राचार्य हेमचन्द्र का मत
भारतीय व्याकरण अन्यो की परम्परा में प्राचार्य हेमचन्द्र के "सिद्धहेम शब्दानुगानन" का बहत बडा महत्त्व है। इस एक ही ग्रन्य मे उन्होने सस्कृत, प्राकृत, अपभ्र श तीनो का व्याकरण दे दिया है। तीनो भाषाओ मे व्याकरणसिद्ध शब्दो का पाख्यान कर चुकने के बाद उन्होने अपने ग्रन्थ के अष्टम अध्याय (प्राकृतव्याकरण) के पूरक ग्रन्थ के रूप मे व्याकरण से प्रसिद्ध "देशी" शब्दो का पाख्यान करने के लिये एक कोश का निर्माण किया। इसका नाम देशीनाम माला" रखा । भारत ही नहीं समस्त विश्व के भाषा सम्बन्धी ग्रन्थो मे यह एक अद्वितीय अन्य है।
प्राचार्य हेमचन्द्र "देशी" शब्द की परिभाषा देते हुए देशीनाममाला के प्रारम्भ मे ही कहते है
जे लक्खणे सिद्धाण प्रसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु ।
ण य गउणलक्खरणासत्तिसभवा ते इह रिणवद्धा ।।' "जो न लक्षण (व्याकरण) ग्रन्थो से सिद्ध होते हैं और न जो सस्कृत कोशो मे ही प्रसिद्ध है तथा जिन्हे लक्षणा आदि शब्द शक्तियो के आधार पर भी नहीं समझा जा सकता-ऐसे "देशी" कहलाने वाले शब्द इस कोश में निबद्ध किये गये हैं।"
इस बात को वे मूल गाथा की व्याख्या मे भली भाति स्पष्ट करते हैं। "लक्षणे शब्द शास्त्रे सिद्ध हेमचन्द्र नाम्नि ये न सिद्धा प्रकृति प्रत्यायादि विभागेन
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