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। 253 है । अप्रातिशारय मे 'र' की भाति इसका भी उच्चारण स्थान दन्तमूल है । परिणनि इसे दन्त्य बताते है । प्रा भा प्रा. मे इसका उच्चारण वत्स्य है । डा. वीरेन्द्र श्रीवास्तव म. भा. ग्रा (अपभ्र श) मे इमका उच्चारण वयं ही निश्चित फरते हैं । उनका मन्तव्य है कि-"प्रा मा के आधार पर अपभ्र श मे र की तरह (ल का) उच्चारण स्थान वर्म है । उच्चारण प्रयत्न की दृष्टि से यह पार्श्विक वर्ण है और इसे तरल ध्वनि कहा जाता है। मुख विवर मे पाती हुई श्वास वायु को मध्य रेग्वा पर अवरुद्ध करके जिह्वापाव से निकलने दिया जाता है ।" : देशीनाममाला के शब्दो मे प्रयुक्त 'ल' भी बहुत कुछ म भा पा की ही प्रकृति का है । इस कोश मे 'ल' से प्रारम्भ होने वाले शब्दो की पख्या 66 है । इसकी विभिन्न स्थितियो के उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैपारम्भवर्ती स्थिति
लमकं तरुक्षीरम् 7-181, लसुन तेलम् (7-18 ), लयण-तनु (7-27) विशेष-देशीनाममाला के शब्दो मे 'र' तथा 'ल' के विशुद्ध प्रयोग यह सिद्ध करते हैं कि इन शब्दो का प्रयोन म भा पा काल की पश्चिमी भाषामो या बोलियो मे होता रहा होगा। इम कोश मे 'र' तथा 'ल' से प्रारम्भ होने वाला कोई एक भी पाद ऐमा नहीं है जिसमे दोनो वर्ण क्रमश एक दूसरे के स्थानीय होकर प्राये हो । पतजलि के ममय (150 ई ) से ही यह प्रमिद्वि चली ग्रा रही थी कि पर्व के निवासी 'र' को ल' कर देते हैं तथा पश्चिम के निवासी 'ल' को 'र' करके (परिष्कृत
रूप मे) वोलते है । मध्यदेश मे 'र' और 'ल' प्रयोग होता है। इस दृष्टि से देशीनाममाला के शब्द विशुद्ध 'र' और 'ल' ध्वनियो के प्रयोगो से युक्त है। इनमे न तो कही 'र' और 'ल' का स्थानीय है न ही 'ल' 'र' का स्थानीय है। यव्यवर्ती -ल - प्रलय-विद् म (1-16), उवलय-सुरतम् (1-117), प्रोलइणी-प्रिया
(1.169) । -ल- पल्ललो-मयूर. (1-48), प्रोल्लणी माजिता (कढी), (1-154),
वक्कल्लय-पुरस्कृतम् (7-46)। मध्यवर्ती 'ल्ल' मे प्रतिनिहित है - प्रा भा. पा -ल्ल- उल्लु हिप-सचूणितम् । उत्-लुट्ट (1-109),
उल्लेहडो-लम्पट / उत्-लिह (1-104)। " -र- उल्लूढो-प्रारूद। उत्-रुह, (1-100)।
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अपन श भापा का अध्ययन, 19