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[ 65 6-14, 15, 16, 21, 24, 25, 26, 28, 42, 48, 53, 54, 61,
.63, 75, 81, 86, 88, 91, 93, 94, 97, 99, 105, 106,
116, 121, 132, 134, 140 तथा 145, 7-2, 16, 17, 18, 21, 31, 33, 37, 44, 45, 48, 62, 68, 69,
74, 75, 76, 88 तथा 91, ___8--10, 15, 18, 22, 27, 35, 36, 38, 44, 45, 59 तथा 67)। एके (2-89, 4-5 और 12, 6-11, 7-35, 8-7), कश्चित् (1-43, 2-18, 3-51, 5-13, 8-75) 7 केचित्-(1-5, 26, 34,
37, 41, 46, 47, 67 79, 103, 105, 117, 120, 129, 131 तथा 153, 2-13, 15, 16, 17, 20, 29, 33, 38, 58, 59, 87 तथा 89, 3--10, 12, 22, 23, 33, 34, 35, 36, 44 और 55, 4-4, 10, 15 तथा 45 5-12, 21, 44 और 58 6-4, 55, 80, 90, 92, 93, 95, 96, 110 तथा 111 7--2, 3, 6, 47, 58, 65, 75, 81 तथा 93,
8-4, 51, 69 तथा 70, पूर्वाचार्या (1--11 और 13), यदाह (1-4 और 5) हलायुध (1-37,75, 121,
171, 2-33, 48, 98, 3-23, 54, 4-4, 10, 21, 24 तथा 45, 5-1
और 63, 6-15, 42, 78, 81, 93, 140 और 140, 7-7146, 58 तथा 84, 8-1, 13, 43 तथा 68), यदाह (1-5, 3-6 तथा 4-15), इसी प्रकार के अन्य सर्वनामो के साथ 1-18, 94, 144 तथा 174, 3-33, 4-37, 6-8, 58 तथा 93, 8-12, 17 और 28 ।
इतनी अधिक सख्या मे विद्वानो का नाम देखकर कोई भी व्यक्ति हेमचन्द्र के अध्यवसाय और उनकी ईमानदारी की सराहना किये बिना नहीं रह सकता। हेरचन्द्र कही धोखे से भी यह बात नही कहते कि यह उनका मौलिक ग्रन्थ है । स्थानस्थान पर उन्होंने यह स्वीकार किया है कि 'देशीनाममाला' का संग्रह इसी प्रकार के पुराने ग्रन्थो के आधार पर किया गया है। जिस किसी स्थल पर प्राचीन प्राचार्यों मे मतभेद दिखायी पडता है और वे स्वय भी अपनी कोई स्पष्ट राय नहीं दे पाते, वहा अत्यन्त विनम्रता पूर्वक, 'तदैव ग्रन्थकृद्विप्रतिपत्तो वहुज्ञा प्रमाणम् ।' ऐसा कहते देखे जाते हैं । जहा कही वे पूर्वाचार्यों से अलग हटकर अपने मत का प्रतिपादन करना