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कुछ को शुभत्ति व्याकरण नम्मत है । कुछ की व्याकरण मम्मत है भी और नही भी है।" नाम पदो के इस मगह उन्य का नाम हेमचन्द्र "अभिधान चिन्तामणि" देते है । इन परिपाटी पर लिचे गरे उनके अधोलिखित ग्रन्य प्राप्त होते है
(2) अभिवाननिन्तामगि यह मस्कृत के अमर-कोप की भाति एक शब्द का मनेको पर्याय द्योतित करने वाला कोष है । हेमचन्द्र का यह कोष-ग्रन्थ अमर-कोष के समान ही प्रमिद हुपा । मस्कृत माहित्य परम्परा मे “हेमचन्द्रश्चरुद्रश्चामरोऽय मनानन" कहकर इनके उम ग्रन्थ की महत्ता स्वीकार की गयी है । हेमचन्द्र ने "तत्वबोध विधायिनी" नाम की एक टीका भी स्वय ही इस ग्रन्य पर लिखी ।
(3) अनेकार्थमाह - एक शब्द के प्रनेको पर्यायवाची शब्दो का अभिधान कर चुकाने के बाद प्राचार्य ने एक ही गद के कई प्रों से सम्बन्वित कोप ग्रन्थ का भी निर्माण किया। यह कोप छ, प्रच्यायो मे विभाजित है । इस काप की टीका हेमचन्द्र के निप्प महेन्द्रमूरि ने स्वय हेमचन्द्र के नाम से लिखी है ।
(4) देशी नाममाला जिस प्रकार "शब्दानुशासन" मे प्राकृत व्याकरण से मम्बन्नित एक अध्याय जोडकर हेमचन्द्र ने उस व्याकरण ग्रन्थ को अद्भुत और सर्वथा नवीन बना दिया था उसी प्रकार कोप-शास्त्र को पूर्ण और नवीन बनाने के लिये उन्होने देती शब्दो का एकत्र मकलन कर एक नवीन ग्रन्थ निर्मित कर दिया । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम "रमणावली" भी है । इसकी टीका भी इन्होने स्वय ही लिखी। गन्दो का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले दोहे भी इन्ही द्वारा रचे गये बताये जाते है।
(5) निघण्टु-प्राचार्य हेमचन्द्र ने वनस्पतियो के नामो को लेकर एक सर्वथा नवीन कोप का निर्माण भी दिया । इसे ही उन्होने निघण्टु नाम दिया। हेमचन्द्र के निघण्टु पर अब तक कोई टीका प्राप्त नहीं हुई है।
इस प्रकार समस्त अशो और उनकी वृत्तियो सहित हैमव्याकरण तथा चार उपर्युक्त कोपो का निर्माण कर प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपना शब्दानुशासन या शब्द विनान शास्त्र सम्पूर्ण किया । इतने विस्तृत एव महत्त्वपूर्ण कार्य को पूर्ण कर हेमचन्द्र ने गुजरात के विद्यागौरव को ऊ चा उठाया और साथ ही वहाँ के अध्येतायो के लिए मापा के सरल एव सुबोध मार्ग का निर्माण कार्य भी सम्पन्न किया। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन महान् ग्रन्यो की रचना कर सिद्धराज जयसिंह की अभ्यर्थना पूर्ण कर
1 अनेकार्थ मग्रह, प0 86 एडिटेड बाई द Th. Tachriac 2 विस्तृत परिचय के लिये प्रस्तुत प्रवन्ध का 'द्वितीय अध्याय' देखें। 3 इस विषय पर विभिन्न विद्वान् एक मत नहीं हैं-विस्तृत चर्चा द्वितीय अध्याय में की गई है।