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282 } पत किया गया है-मकत से क्यो नही व्युत्पन्न कर सकते ।"1
___एम नन्ह श्री नामानुजन्वामी की सम्मति मे, देशीनाममाला के अन्तर्गत सस्कृत में मन या प्रयुत्पन्न देगी शब्दो की सच्या बहुत कम रह जाती है। जो शब्द वचे भी है उनका प्राधार विभिन्न समयो मे भारत में प्रवेश करने वाली आर्यघारापो द्वारा गैर में नमाविष्ट परन्तु माहित्य में अगृहीत शब्द हैं या हेमचन्द्र के समय में प्रचलित उनकामी घरी शब्द है । इसके साथ आभीर-गुर्जर आदि अनार्य नातियो को भी जोट नाते हैं जो अपन श के प्रचलन से ठीक पूर्व या प्रासपास भारत मे आयी और उन्होंने न देवल जन-जीवन को ही प्रभावित किया बल्कि राजसत्ता हाथ मे लेकर शामन भी किया और ग्रायों मे ही पूरी तरह घुलमिल गयी । पशुपालन और गोसवदं न मे सम्बद्ध अनेक शन्द इनके माक्षी है।
देगेनाममाता की शब्दावली की, इस प्रकार की गयी पालोचना कोई विशेष महत्व नही रपती । रामानुजम्वामी की यह पालोचना पूर्णतया शब्दो के ध्वन्यात्मक नाम पर प्राधारित है दे ना मा. के गन्दो मे, सम्कृत के कुछ शब्दो की ध्वनिगत गमानना देखकर उन्हे मस्कृत मे व्युत्पन्न कर लेना उपयुक्त नही । दे ना मा की
ब्दावली ता अध्ययन पूर्णतया अर्थ-विज्ञान का विषय है। प्रकृति प्रत्यय-निर्धारण माता पिया गया इस गन्दावती का अध्ययन समस्याग्रो पर समस्याएं खडा करता जागा । फिर तो 'देशी' शब्दो को तदभव या तत्मम सिद्ध करने के लिए एक अलग Tी निगा कन्ना होगा । किमी शन्द में मस्कृत की घातुनो का सकेत पाकर,
पनि मन्यन के गब्द मे देकर शब्द को सस्कृताभ वना देना स्वस्थ दृष्टिपर भी ला सपना । यह पहले ही बताया जा चुका है कि शब्द और अर्थ
मारगम्बर है, "पनि या पद के अंगो का नहीं। ऐसी स्थिति मे दे. ना मा. तोमरी प्रध्ययन पयं की दृष्टि से किया जाना चाहिए ध्वनिगतसाम्य के
र नहीं। द ना मा की शब्दावली का अर्थ को दृष्टि से अध्ययन करना T:- मिव होगा । न तव्य पर वन देते हुए डा वीरेन्द्र श्रीवास्तव का
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