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________________ 295 वट्टिव-परकार्यम्-ते वेट्टि । वड्डो-महान् ते प्रोड्डु । वहुण्णी-ज्येष्ठभार्या-द्र वदिन, मदिनि । विल्ल-अच्छ-द्र, वेल्ल । सरा-माला-ते सरमु । सिप्प-भूसी क -सिप्पे । सूला-देश्या-क सूले । हिड्डो-वामन -ते. पोट्टि । देशीनाममाला की शब्दावली मे द्राविड भाषा के इन सभी शब्दो का मिलना कोई प्राश्चर्यजनक बात नही है । जहा तक इन शब्दो के दक्षिणी भापात्रो से सबद्ध होने का प्रश्न है, यह निश्चयपूर्वक नही कहा जा सकना कि ये शब्द दक्षिणी भापात्रो की अपनी ही सम्पत्ति है। प्राकृत व्याकरणकारो की भाति द्राविड भापायो के व्याकरणकार भी इस कोटि के शब्दो को 'देशी' ही मानते है । उनका मन्तव्य है कि ये शब्द युग युगो से भाषा मे व्यवहृत होते चले आ रहे हैं, और उनका मूल उद्गम अत्यन्त रहस्यात्मक है । इस सदर्भ मे द्राविड व्याकरणकारो की मान्यताप्रो का उल्लेख अावश्यक है । प्राकृत व्याकरणकारो की भाति द्राविड व्याकरणकारो ने भी भाषा मे प्रयुक्त होने वाले शब्दो को तीन वर्गों में विभाजित किया है-(1) तत्सम (2) तद्भव (3) देश्य । सस्कृत से ज्यो के त्यो ले लिये गये शब्दो को वे तत्सम कहते हैं-जैसे-ते -विद्या-पिता, क -वन, धन, वस्त्र-त कमल, कारण इत्यादि । सस्कृत के वे शब्द जो द्राविड भाषाम्रो मे जाकर ध्वनिपरिवर्तनादि से सयुक्त हो या द्राविड भाषाम्रो की प्रकृति-प्रत्यय आयोजनामो के अनुरूप होकर प्रयुक्त होते है-तद्भव कहे गये है-जैसे - ते पाकासमु (स. आकाश), मेगमु (स मृग), वकर (स वक्र) । क - पयाण (स. प्रयाण), बीदि (स वीथी) वीणे (स वीणा) । त शुत्तम (स शुद्घम्), शट्टि (स षष्टि), पिच्चे या विच्चै (स भिक्षा)। ऐसे शब्द जो इन दोनो वर्गो के शब्दो से सर्वथा भिन्न है और भाषा मे युग-युगो से प्रयुक्त होते प्रा रहे हैं, देश्य कहलाते हैं-जैसे ते ऊरु-कस्बा , इल्लु-घर, क -मने-घर, होल-मैदान, नेल-फर्श, त अरकस्वार, मने-घर, तरे-फर्श आदि । द्राविड व्याकरणकारो ने सस्कृत से प्रसवद्ध लगभग सभी शब्दो को 'देश्य' मान लिया है। ऐसे शब्दो के मूल उद्गम के विपय में
SR No.010722
Book TitleDeshi Nammala ka Bhasha Vaignanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivmurti Sharma
PublisherDevnagar Prakashan
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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