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[ 301 कुभिलो-चीर -संस्कृत मे यह शब्द 'घडियाल' एक जलजन्तु विशेष का प्रर्घ देता है । पानी मे चोर की तरह छिपकर रहने के कारण हो सकता है कि लोक में इसका अर्थ लक्षणया 'चोर' हो गया हो ।
कुररी-एक पगुविशेप- इस शब्द का सस्कृत मे भी यही अर्थ है, पर यह शब्द लोकभाषामो से ही सस्कृत मे गया हुया प्रतीत होता है।
कोलाहलो-नगरुतम्-चिडियो का कलकल निनाद । यहा भी सामान्य कोलाहलवाची शब्द को एक विशिष्ट अर्थ मे मीमित कर दिया गया है ।
छाया-कीतिः,भ्रमरी। तिमिलिगो-मीन:। तच्छ-अवगष्क। पाली दिक् या दिशा। पालीबंधो-तडागः। पूरण शूर्पः।
इसी प्रकार दे ना मे जितने भी तत्सम शब्द है, उनका अर्थ संस्कृत के शब्दो से भिन्न हैं। अर्थगत वातावरण और इनके लोक जीवन मे बहुतायत से व्यवहत होने को ही ध्यान में रखकर प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन शब्दो का सकलन 'देशी' शब्दो के बीच किया होगा । ऐसे शब्दो का सकलन जहां कही भी वे करते हैं-स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लेते हैं कि अमुक शब्द संस्कृत में भी प्रयुक्त होता है, परन्त अर्थगत वैषम्य के कारण मैने इसे 'देशी' । व्दो के वीच सकलित कर दिया है। श्राचार्य हेमचन्द्र की इतनी स्पष्टवादिता पर यदि सुधी विद्वानो को सदेह हो तो, इसके लिए स्वय हेमचन्द्र दोषी नहीं है, बल्कि दोष उन पूर्वाग्रहग्रस्त विद्वानो का ही है, जिनके ऊपर सम्बत हावी है । यह पहले भी कहा जा चुका है कि शब्द और अर्थ का शाश्वत सम्बन्ध है, शब्द पीर ध्वनि का नही । शब्दो का अर्थ लोक व्यवहार पर श्राधारित होता है, उनके ध्वनि प्रयोग पर नही। इस कोटि के शब्दो का सकलन करते समय हेमचन्द्र ने इसी दृष्टिकोण का समक्ष रखा था । सुधी पालोचको से कही अधिक, सस्कृत के जानकार, हेमचन्द्र थे, अत इस कोटि के शब्दो को कोश मे स्थान देना उनकी भ्रान्ति नही कही जा सकती। (ख) धातुनो के अर्थातिशय योग से युक्त देशी शब्द या तथाकथित तद्भव -
दे ना पर जितने भी विद्वानो ने विचार किया है लगभग सभी का यह मत रहा है कि-इस कोश मे तद्भव शब्दो का बाहुल्य है । पीछे रामानुज स्वामी द्वारा तद्भव बताये गये कुछ प्रमुख शब्दो के उदाहरण दिये जा चुके हैं। ध्वनिगतविकारो