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(2) मन्नाभिधान में प्रसिद्ध प्रा. भा पा या उससे भी पूर्व की भारीपीय भाषा मे मबद्ध गब्द-जैसे
मन्जुबइ अविर यवति-नववधु , अइराणी अविराज्ञी - इन्द्राणी, अक्कदो L'
बाद - रिजाता, अगुज्झहरो अगुह्यवर = रहस्यभेदी, अणुसूया प्रताप्रामनप्रनवा, उच्छुप्रणा इनरण्य == इझुवाटिका आदि ।
(3) द्राविड परिवार की तमिल, तेलुगु-कन्नड भापासो के शव्द
श्री गमानुजम्वामी ने दे ना. मा. की ग्लासरी मे कई शब्दो को द्राविड परिया पी भाषामो मे मवद्ध बताया है। 'देशी' शब्दो मे इस परिवार की
दापती मा पाया जाना भारत की द्राविडी (विभापा) की समस्या को भी हल र देता है । प्राचीन काल मे द्राविड भापा मापी ग्राज की भाति केवल दक्षिण तक
मोमिन नहीं ये । पार्यों के भारत प्राने पर उनका प्रथम मपर्क द्राविड भाषामापियो नही दृप्रा होगा। उन सम्पर्क के बीच शब्दावली का आदान-प्रदान अत्यत यामाविर बात थी। मध्यदेश मे कभी द्राविड भापा-मापियो का निवाम था
प्रमाण अाज भी मिलता है। बलोचिस्तान की 'बाहुई' तमिल की ही एक ना है । हरियाणा में तो बोली जाने वाली भापायो में तमिल का तृतीय स्थान -TE आना है। अतः प्राचीनकाल से ही द्रविडो और पार्यो का मपर्क रहने के
द यदि वार्यजनभापायो में ग्रा गये तो यह अन्यन्त स्वाभाविक है । देना मा में पाये हर छ द्राविद मन्द इन प्रकार है
य
पण मालिभेद: द अनुमु । अप्पो-पिता--प्रप्या। गली शार्दूल द्र-गुलि।
नीर-वधी-त. हल्ल। -नो दरिद्रद्र इल। सटिली नापाधान्य-न उन्ढन्दु-क. उछ। उपरी अधिक... उन्यु। उमगे गमतीन उम्मारपटि ।
ग्रान न कर। नी-तोतोदय नय-ने चु ।
गि।