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152 ] शब्दो पर अपने विचार दिये हैं। इनका एक-एक कर उल्लेख कर देना समीचीन होगा - जानवीम्स अपने "कम्पेरेटिव ग्रामर आफ माडन आर्यन लेग्वेज" नामक अन्य मे लिखते हैं-"देशी शब्द वे हैं जो किसी भी संस्कृत शब्द से व्युत्पन्न नही किये जा सकते इसलिए ये या तो पार्यों के पूर्व में रहने वाले आदिवासियो की मापा से लिये गये होंगे या फिर सस्कृत भाषा के विकसित होने के पहले ही स्वय प्रायों द्वारा प्राविकृप्त होगे।"
_ए एफ आर हार्नल अपने 'कम्परिटिव ग्रामर ग्रॉफ गौडियन लैंग्वेजेज' नामक ग्रन्थ मे "देशी" शब्दो को ग्रामीण अर्थात् प्रान्तीय या आदिवासियो की भाषा से ब्रहण किया गया बताते हैं ये ऐसे शब्द है जिन्हे सस्कृत के शब्दो से व्युत्पन्न नही किया जा सकता । इसका विचार है कि इन शब्दो को अशिक्षित ग्रामीण पार्यो ने यहा रहने वाली आदिवासी जातियो से सस्कृत (वैदिक) के विकास के पहले ही ग्रहण किया होगा या फिर इन ग्रामीण तथा अशिक्षित पार्यों ने अर्य शब्दो को ही ऐमा तोड मगेड और विगाड दिया होगा कि ये उनके परिनिष्ठित (साहित्य में प्रचलित) रुपो से बहुत दूर जा पडे होंगे और प्रागे चलकर इनका पहिचानना बहुत मुश्किल हो गया होगा । जहा तक इन शब्दो पर पड़े अनार्य तत्त्वो के प्रभाव का प्रश्न है, हानले का मत है जो भी अनार्य प्रभाव इन शब्दो पर पड़ा होगा वह अवश्य ही अत्यन्त प्राचीन काल का होगा जब कि यहा पाकर बनने वाले आर्य तथा पहले से ही रहने वाले आदिवासी सम्भवत "पेशाची" या प्राचीन अपभ्रंश बोलते रहे होंगे । हार्नले का विचार है कि उन आदिवासियो की भाषा जो सर्वप्रथम आर्यों के द्वारा अविकृत किये गये, "पेशाची" के समान रही होगी तथा आर्य, द्रविड और आदिवासियो के आपसी सम्बन्धो के कारण विकसित भापा "प्राचीन अपन श रही होगी । परन्तु हानले के इस मत को ग्रियर्सन नही स्वीकार करते । वे अपभ्र श को प्राकृतो की अन्तिम (तृतीय) विकामावस्था मानते हैं साथ ही पेशाची भी उनकी इष्टि मे बहन कुछ प्राकृतो से सम्बन्धित हैं । हार्नले का पेशाची और प्राचीन अपभ्र श को प्रार्यों के पूर्व आदिवामियो की भापा वताना-सर्वथा भ्रामक है।
श्री पार जी भण्डारकर का मन्तव्य है कि "देशज" वे शब्द हैं जो सम्कत से व्युत्पन्न नहीं किये जा सकते । इन्हें किन्ही अन्य स्रोतो से सदभित किया
1. John Beams "Comparative Grammar of Modern Aryan
Languages" VIP 12 AFR Hornle-A Comparative Grammar of Gaudian Langu
ages" PP XXXIX-XL (39-40) 3 Introducion to Deshinammala by M D Banarjee F N.
PP XXV 4 Bharkarkar "Wilson Philological lectures (1914)P 106.