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[ 161 (10) प्राकृत पचमी ए. व मे देवा, वच्छा, जिरणा आदि रूप होते हैं । वेद मे भी इसी प्रकार उच्चा, नीचा, पश्चा आदि रूप होते हैं।
(11) प्राकृत मे द्वि. व के स्थान पर ब. ब होता है - वैदिक भापा मे इस तरह के प्रयोगो की भरमार है यथा इन्द्रावरुणी-इन्द्रावरुणा इसी तरह मित्रावरुणा 'यो सुरथी रथितमी दिविस्पृशावश्विनौ"-"या सुरथा रथीतमा दिविस्पृशा अश्विना। इन सारी समानतायो को देखते हुए यह निश्चित हो जाता है कि सस्कृत
और वैदिक संस्कृत दोनो के विकास के मूल मे प्राकृत थी। इस तरह सस्कृत व्याकरणकारो और पालकारिको द्वारा प्राकृत की परिभाषा मे आया हुआ 'तत्' शब्द अलग अर्थ मे लिया गया। यहा तत् का अर्थ सस्कृत न होकर यही 'प्राकृत' है जिससे वैदिक संस्कृत विकसित हुई थी। इस प्रकार प्राकृत (तद्भव) तथा सस्कृत दोनो ही शब्दो का मूल वैदिक कालीन बोलचाल की प्राकृत मे जा पडता है । 'ग्रियर्सन' ने 'देश्य' शब्दो को भी इसी आधार पर 'तद्भव' कहा है । इसका भी मूल स्रोत इन्ही प्राकृतो मे खोजा जा सकता है ।
3 प्राकृत की सस्कृत से उत्पत्ति मापातत्व के सिद्धान्त के आधार पर मो ठीक नहीं क्योकि वैदिक संस्कृत और लौकिक सस्कृत ये दोनो ही अच्छी तरह परिष्कृत और माजित साहित्यिक भाषाए हैं । यह भाषा अशिक्षितो, बालको तथा नारियो को वोधगम्य भी नही थी अत इन लोगो की एक अलग ही कथ्य भाषा प्रचलित रही होगी । शिक्षित वर्ग के लोग भी अशिक्षितो से बातचीत करने में . इसी भाषा का प्रयोग करते रहे होगे। इस प्राधार पर देखने से पता चलता है कि वैदिक काल मे भी एक या कई कथ्य भाषाए प्रचलित रही होगी। सस्कत के युग मे तो यह बात नाटको के पात्रो की भाषा देखकर और भी स्पष्ट हो जाती है ।
पाणिनि ने अपनी भाषा को लौकिक भाषा कहा है और पतजलि ने इसे शिष्ट भाषा कहा है अर्थात् यह उम समय शिक्षित लोगो की सम्पर्क भाषा थी और शिक्षितो से अलग अशिक्षितो की भी एक भापा थी - जो उनकी बोल चाल की भाषा रही होगी। इन प्रशिक्षितो के बीच अपने मन्तव्यो का प्रचार करने के लिए सस्कृत के पण्डित अवश्य ही इनके शब्दो का ग्रहण करते रहे होगे । कभी कभी इन बोल-चाल के शब्दो को साहित्य मे भी ग्रहण किया जाता रहा
पाणिनि द्वारा व्यवहृत 'लोक' शब्द से जनभाषा का भी ग्रहण किया जा सकता है । उनका 'लौकिका: वैदिकाश्च' कथन प्रचलित जन भाषा तथा शिष्ट वैदिक भाषा दोनो की ओर सकेत करता है। आगे चलकर पण्डितों ने 'लौकिक'का अर्थ साहित्यिक सस्कृत लगा लिया।