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160 ] या प्राकृत के अनेको रूप वेदो में खोजे जा सकते हैं जो पागे साहित्यिक मस्कृत मे परिष्कृत कर दिये गये । कुछ उदाहरण लिये जा सकते हैं
(1) प्राकृत में संस्कृत म की जगह उ प्राप्त होता है। ऋग्वेद में भी प्राकृतो के अनुरूप ही शब्द मिलते हैं - जैसे कृत कुट (ऋ 1 4614)
(2) प्राकृत मे सयुक्त वर्ण वाले शब्दो में एक व्यजन का लोप होकर पूर्व का हम्ब स्वर दीर्घ हो जाता है जैसे दुर्लभ दूलभ, विश्राम वीमाम । इसी तरह के रूप वेदो मे भी देने जा सकते है
दुर्लभ-दूलभ (ऋ-9-8), दुर्णाश-दुणाम (शु य प्राति 3143)
(3) संस्कृत के व्यञ्जनान्त शब्दो का प्राकृतो मे अन्त्य व्यजन लोप हो गया है जैमे-तावत् - ताव, यशस्-जस । वैदिक साहित्य में भी यह प्रवृत्ति बहुतायत में देखी जा सकती है - पश्चात् पश्चा (अथ. 10-4-11) उच्चात्-उच्चा (तनि म 213114), नीचात्-नीचा (तैत्रि स 112 14)
14) प्राकृत मे सयुक्त य और र का लोप हो जाता है - जैसे प्रगल्मपगम ज्यामा-मामा । ये विशेषताए वैदिक शब्दों में भी देखी जा सकती हैं। यथा अ-प्रगल्मा-अपगत्म (ते स 4-5~61) त्र्यचत्रित्र (शत वा 11313 33)।
(5) प्राकृत में मयुक्त वर्ण के पूर्व का म्बर बम्ब होता है । पात्र पत्र, रात्रि-रनि वेद में भी-रोदमीप्रा-रोदमिप्रा (ऋ. 10-88-10), अमात्र-अमत्र (ऋ3136164)
(6) जहा मम्कृत मे 'द' ध्वनि होती है, वहा प्राकृतो में अनेको जगह 'ड' अनि पायी जाती है - दण्ड-इट, दोना-डोला । वेदो मे भी यह विशेषता खोजी जा सकती है -- यया - दुर्लम-दून (बाज. स 3-36) पुगेदाम पुरोटाश (यज. प्रति 3-44)
(7) प्राकृत में व का ह होता है बधिर-वहिर, व्याव-वाह । वैदिक मापा में भी यया प्रतिमहाय-प्रतिमचाय (गो ब्रा 2,4) ऐमा ही है।
(8) प्राकृत मे न्वरागम की प्रक्रिया अत्यन्त सामान्य है - क्लिष्ट-किलिट्ठ, न्य मुत्र । वैदिक मापा में भी ऐमा देखा जाता है - स्वर्ग-सुवर्ग (ते म 41213), नन्त्र - तनुवः (तैत्ति पार 712211 ) स्व -सुव (तैत्तिरीय प्रारण्यक-61257)
(9) प्राकृत की तरह वैदिक मापा मे भी चतुर्थी के स्थान पर पाठी विभक्ति होती है। 1 'चतुय्यं बकुलम् दन्दमि' (अष्टाध्यायी 213162