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________________ [ 159 नब ये स्ट हो जाती है और इनका विकास रुक जाता है । यहा बोलचाल की भाषा की तुलना किनी लगातार प्रवाहित होने वाली नदी की धारा से की जा सगती है जो निरन्तर अपने प्रवाह को परिवर्तित करती तथा अनेक धाराओ को अपने याग मे नमेटनी हुई मतन प्रवाहमान रहती है । दूसरी ओर साहित्यिक मापा की तुलना कूमत में की जा सकती है जो एक ही क्षेत्र मे स्थिर होकर रह जाता है । उन पर अन्य किमी प्रवाहमानधारा का प्रभाव नही पडता । इस प्रकार कुए के जल के नमान एक निलित सीमा क्षेत्र में बढ़ साहित्यिक भापायो रूपी जलवारा निरन्तर रद्ध गोर गाग्विनित होने के कारण ग्रागे नहीं बढ़ पाती। परन्तु उन्मुन नदी को जलपारा के रूप में बोलचाल की भापा निरन्तर विकास के पथ पर बनी रहती है। इस तरह एक के निश्चित स्थान पर अवरुद्ध रहने तथा दूसरे के सतन पिकाममान रहने के कारण दोनो की दूरी बढती जाती है और एक समय ऐगा या जाता है जबकि दोनो का आपस मे कोई सम्बन्ध ही नही दियायी पाता। नामान्य मापामापी साहित्यिक मापा को न समझ पाने के कारण किलो अन्य भाषा के निर्माण में रत हो जाता है और फिर कोई लोक भाषा आगे पाकर साहित्यिक मापा का रूप धारण कर लेती है पीर पहले की माहित्यिक मापा मनप्राय हो जाती है। भापा विकास के सिद्धान्त का यह चक्र निरन्तर चलता रहता है। भारतीय प्रार्य भापायो सस्कृत, प्राकृत, अपभ्र श तथा आधुनिक प्रादेशिक भापायो के विकास में भी भापा विकास का यही सिद्धान्त कार्य करता है । भिन्नभिन्न युगो में विकसित होने वाली भारतीय प्रार्य भाषाए एक ही मूल स्रोत (प्रारम्भिक प्राकृत) से विकसित हुई हैं । साहित्यिक मापाए सस्कृत, पालि, अर्धमागधी, नाटको की प्राकृत, साहित्यिक अपभ्र श तथा प्रा. भा श्रा भाषाए सभी क्रम से अपने युगो मे विभिन्न प्रान्तो मे बोली जाने वाली प्राकृतो का प्रभाव ग्रहण कर विकसित हुई । भापायो के इस प्रकार के तुलनात्मक अध्ययन को देखते हुए वाक्पतिराज और नमिसाधु के सैकडो वर्ष पहले व्यक्त किये गये इस विचार की पुष्टि हो जाती है कि वोलचाल की प्राकृते ही साहित्यिक भापानो का मूल प्राधार है । 2 वेदो में प्राकृत रूपो की प्राप्ति से भी इस बात की पुष्टि हो जाती है कि इनकी भापा किसी न किसी वोलचाल की भापा से विकसित हुई है । जनभापा 1 मयलाओ इम वाया विसति एत्तो य णेति वायाओ। ए ति समुद्द चियणेति सायराओच्चिय जलाइ ।। वाक्पतिराज । गउडवहो 1930 2. काव्यालकार 2012 की टीका - 'प्राकृतेतिसकलजगजगज्जन्तूनाम् ... ||
SR No.010722
Book TitleDeshi Nammala ka Bhasha Vaignanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivmurti Sharma
PublisherDevnagar Prakashan
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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