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[ 211 ऐ 7 ए या '5'-एलविलो ऐलविलो (दे 11148) लक्छो निर्लक्षः (दे 4144) 'दै प्रल्ल वैकल्य (दे 8175) वेलुलिय वेदर्य (दे. 7177), सेलूसो। शैलप. (दे 8121 ) । इरावा ऐरावत (दे 1180)
ऐ7 प्रा - सइरवमहोस्वरवृपम (दे 8121) पूरे कोश मे यही एक शब्द प्राप्त है।
प्रौ 'ऐ' की भाति 'नौ' भी ह्रस्वीकृत रूप मे 'यो' या 'उ' तथा 'पउ' के म्प ने प्राप्त होता है।
प्रौ7ी या उ-कोमुई। कौमुदी (2148) कोलिप्रो।कौलिक (दे 2165) युद्धकौतुक (2-33) |
पी793 - पउढप्रोटम् (दे 614) । 'श्री' का 'अ' रूप मे विकार इस को के शब्दों में नहीं प्राप्त होता । जिन शब्दो मे यह विकार है भी वहा वह अन्य स्वरों का स्थानीय हैं । स्वर ध्वनिग्राम वितरण
ऊपर दे ना मा मे प्राप्त स्वर ध्वनिग्रामो की प्रकृति का ऐतिहासिक विवेचन प्रस्तुत किया जा चुका है। प्रव इन खण्डीय ध्वनिग्रामो का शब्द की आदिम माध्यमिक और अन्तिम तीनो स्थितियो मे प्रयोगो का विवेचन कर लेना भी समीचीन होगा । सबनियो सहित इनके उदाहरण निम्न प्रकार हैं । स्वरध्वनिग्राम सध्वनि आदिम-सन्दर्भ मध्य-सन्दर्भ अन्तिम स्थिति सन्दर्भ प्र नइरो (दे 1-16) कालवट्ठ (दे 2-28) प्रोग्गाल (दे 1-15)
श्रोद्दाल अ अकेल्ली (दे 1-7) अदसणो (दे 1-29) अद्धविश्वम (1-34) या अफरो (1-63) अवयारो (1-32) प्राडाडा (1-64)
श्रामेलो (1-62) पागाई (1-64) अम्माइआ (1-22) श्रा-यह सध्वनि किसी भी शब्द मे नही मिलती। इ इत्लो (1-82) किरिइरिया (2-61) पसडि (6-10) इभो (1-79) इरिमा (1-80) सरत्ति
(8-2) इ इदमहो (1-81) उविब (1-27) अन्तिम स्थिति का प्रयोग किसी इ दोवत्तो (1-81) कालिंजणी 2-29 भी शब्दो मे नही है । शब्दो के
निदिभक्ति होने के कारण कोइला (2-49) ऐसा हुआ है । छोइनो (3-33)
श्रा