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का यह बहुत कुछ उचित लगता है । 'शब्दानुशासन' सम्बन्धी ग्रन्थो से सम्बन्धित प्राचार्य हेमचद्र की ग्रन्यमाला की अन्तिम कडी के रूप मे इस ग्रन्थ की रचना हुई है । ग्राचार्य स्वय ही उस तथ्य को यत्र-तत्र उल्लिखित करते चलते हैं। 'रयणावली' की रचना तक प्राचार्य हेमचद्र का भ'पाविद् का व्यक्तित्व स्थिर हो जाता है । इसके बाद उनका प्राचार्य का व्यक्तित्व प्रमुख रूप धारण करने लगता है । जहा तक प्राचार्य का कुमारपाल के जीवन से सम्बन्ध है । वे वि स 12161 के वाद से उसके निकट नम्पर्क में आने लगे थे। श्रत इसी के पास पास इस ग्रन्थ की सम्पूर्ण रचना का समय निर्धारित किया जाना उचित है ।
परवर्ती व्याकरणकारो का उल्लेख
जहा तक बहिक्ष्यि से सम्बन्धित हेमचन्द्र के समकालीन या उनके परवर्ती ग्रन्यो का सम्बन्ध है ये मभी उनकी रचनायो की क्रमिक चर्चा करते हुए भी उनका कोई निश्चित ममय नहीं देते । स्वय प्राचार्य हेमचन्द्र भी अपने ग्रन्थो का क्रम तो उल्लिखित कर देते हैं परन्तु कही भी उन्होने निश्चित तिथि देने का प्रयास नहीं किया । केवल डा० वूलर ने ही इस दिशा मे प्रयास किया है जो स्तुत्य भी है । डा० वूलर के मतो को लेकर काव्यानुशासन की भूमिका मे डा० पारिख ने कुछ पालोचनायें अवश्य की है परन्तु उनकी नवीन उपलब्धि कुछ भी नहीं है।
देशीनाममाला की मूलप्रतिया
प्राचार्य हेमचद्र के इस कोश ग्रन्थ की सर्वप्रथम सूचना डा० बूल्हर ने 1874 मे इण्डियन एक्टीविवरी भाग 2, पृ० 17 पर दी। उनकी यह सूचना अपने द्वारा प्राप्त की गयी 'सी' (C) मूलप्रति के आधार पर थी। अपनी अथक खोजो के आधार पर उन्होने 1877 ई० मे डा. पिशेल के सहयोग से इस ग्रन्थ का प्रकाशन कार्य प्रारम्भ किया । इन दोनो विद्वानो के सतत प्रयत्न के परिणामस्वरूप 1880 ई मे 'वाम्बे एजूकेशन सोसायटी प्रेस से देशीनाममाला का प्रकाशन हुआ। बाद मे 1938 मे इसका द्वितीय सस्करण महाराजा सस्कृत कालेज विजयानगरम् के प्रधानाचार्य प्रवस्तुवेड कटरामानुजस्वामी एम ए. द्वारा लिखी गई विस्तृत भूमिका,
1 डा0 वूलर ने द्वयाश्रय काव्य के उत्तरार्द्ध भाग 'या' कुमारपालचरित' की रचना का काल
1216 वि. स. के बाद बताया है। इस ग्रन्थ से विदित होता है कि कुमारपाल और हेमचन्द्र का निकट का सम्वन्ध था।