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को ध्यान में रखते हए "गिद्धगशब्दानुभागन" नी रचना मग्न गोर याकरता ग्रन्थ के रूप में की गयी है। इस ग्रन्य की प्रशस्ति को देखने में पता चलता है कि हमकी रचना सिद्धराज की मालवा विजय के बाद हुई थी। यह नो मनाना है कि मालवा विजय के लिए प्रस्थान करने के पहले ही गिद्धगज ने हेमचन्द्र मेन ग्रन्य की रचना करने की प्रार्थना की हो और उमो लौटने तक ग्रन्य तैयार हो गया हो।
प्रभावकचरित मे इस ग्रन्थ की रचना में सम्बन्धित एक अत्यन्त विस्तृत विवरण दिया गया है जो सम्भवत ठीक ही लगता है क्योंकि यह विवरण स्वय हेमचन्द्र के द्वारा दिये गये कारणो का पूरक माना जा सकता है। इसका हेमचन्द्र से कोई विरोध नहीं है।
प्रभावक चरित का विवरण इस प्रकार है
'एक बार सिद्धराज के राज्यकर्मचारी उसे 'अवन्ति' के पुस्तकालय मे लायी गयी पुस्तकें दिखा रहे थे । सिद्धराज की दृष्टि एक 'लक्षण पुस्तक' (व्याकरण ग्रन्य) पर पडी । सिद्धराज के पूछने पर कि यह क्या है ? हेमचन्द्र ने बताया कि महाराज यह राजाभोज द्वारा लिखा गया व्याकरण ग्रन्य है । यह इस समय का सबसे अधिक पढा जाने वाला व्याकरण ग्रन्य है। इसके रचयिता भोज विद्वानो के शिगेभूपण थे । उनका दरवार देश के श्रेष्ठ विद्वानो से मुशोभित था। स्वय उन्होंने शब्दशास्त्र, अलकारशास्त्र, देवज्ञशास्त्र (ज्योतिप) और तर्कशाम्य तथा अन्यानक ग्रन्यो की रचना की थी। इस प्रकार हेमचन्द्र ने भोज के द्वारा रचित अनेको ग्रन्यो का उल्लेख जारी रखा।।
राजा भोज की साहित्यिक समृद्वि से मिद्धराज को स्वाभाविक ईर्ष्या हुई । उन्होंने प्राचार्य हेमचन्द्र से पूछा, क्या इस प्रकार हमारे यहा ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थ नही लिखे जा सकते ? क्या इसी तरह के विद्वान सारे गुजरात देश मे नही बनाये जा सकते ? सभा के सारे श्रादमियो ने एक साथ हेमचन्द्र की अोर देखा । इसके बाद स्वय राजा ने भी हेमचन्द्र से प्रार्थना की, हे महपि । मेरी अभिलापा पूर्ण कीजिए। ऐसे वैज्ञानिक ग्रन्थ का निर्माण कीजिये जिससे भापा सूकरता से मीखी जा सके। इस समय व्यवहार मे आने वाला 'कलापक' व्याकरण भाषाज्ञान कराने में समर्थ नही है । पाणिनि का व्याकरण भी वैदिक होने तथा अनेको अपवादो एव सीमित भापायो का ज्ञापक होने से सर्वजन लभ्य नही है ।
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प्र च , श्लोक 74-78