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'कारय प्रसर सिद्धहस्तिराजमशड कितम् ।
त्रस्यन्तु दिग्गजा किं तैर्भू स्त्वयवोद्धता यत । 'हे सिद्धराज ! अपने गजराज को नि शक होकर आगे बढने दो। इसके भय से दिशाप्रो के दिग्गज भयभीत होकर कापते हैं तो कापे-पृथ्वी की कोई हानि नही होगी क्योकि उसका भार तुम्हारे कन्धो पर है (दिग्गजो के नही ) । बुद्धिमान राजा हेमचन्द्र की इस प्रशस्ति से बहुत अधिक प्रभावित हुआ और उसने दोपहर के वाद मिलने के लिए हेमचन्द्र को आमन्त्रित किया।''
इस प्रकार प्रभावकचरित के अनुसार युग के दो महान् व्यक्तित्व-एक राजा दूसरा सूरिपद प्राप्त अद्भुत विद्धान् साधु, दोनो आपस मे मिले और दोनो मे शीघ्र घनिष्टता भी हो गयी। इन दो महान व्यक्तियो के मिलन का बहुत ही अच्छा परिणाम हुआ।
प्रभावकचरित के अनुसार हेमचन्द्र और सिद्धराज की दूसरी भेट तब हुई जव मालवा विजय के उपलक्ष्य मे भिन्न-भिन्न मतावलम्बी सभी लोग राजा को साधुवाद देने गये । हेमचन्द्र जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप मे गये और उन्होने सिद्धराज की प्रशस्ति मे निम्न पक्तिया पढी
भूमि कामगवि | स्वगोमयर सैरासिञ्च रत्नाकरा । मुक्तास्वस्तिकमातनुध्वमुडुप | त्व पूर्ण कुम्भीभव । धृत्वाकल्पतरोदलानि सरलैदिग्वारणस्तोरणान्याधत्तस्वकरविजित्य जगती नन्वेति सिद्धाधिप ।
इन पक्तियो ने राजा को और भी अधिक प्रभावित किया और उसने दोबारा प्राचार्य को, मिलने के लिए अपने महल मे बुलाया ।
सिद्धराज जयसिंह से हेमचन्द्र की यह भेट वि स 1191 के अन्तिम माह या 1292 के प्रथम माह (1136 ई.) मे हुई होगी।
आचार्य हेमचन्द्र और सिद्धराज जयसिंह की मित्रता का प्रथम साहित्यिक परिणाम 'सिद्ध हैमशब्दानुशासन' के रूप मे प्रकट हुमा । यह व्याकरण का अद्भुत ग्रन्थरत्न है । इस ग्रन्थ की समाप्ति पर हेमचन्द्र ने स्वय ही इसको रचना का कारणसिद्धराज के द्वारा बार-बार की गयी प्रार्थना बताया हैं । परम्परा मे प्राप्त अन्य व्याकरण ग्रन्थ बहुत विस्तृत, समझने मे कठिन तथा अधूरे हैं । इन सभी कमियो
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प्र. च. वो , 65-69 वही, 70-73