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एक सामाजिक सत्य का उद्घाटन करते हुए हेमचन्द्र कहते हैं-~-- ठाणो ण ठल्लयाण ठाणिज्जत ण यावि ठइमाण ।
ण ठिक्क सण्ढाण अठविग्रउवलाण ण य पूरा ।। 4151511
'निर्घन का मान नही, अवकाश रहित को गौरव नही, पण्ढ (नपुंसक) को शिश्न नही तथा प्रस्थापित प्रतिमा की पूजा नहीं होती।'
निर्वलो और विनम्र लोगो को पाश्रय देना प्रत्येक व्यक्ति का पुनीत कर्तव्य है। जो समृद्ध हैं उनका तो यह विशिष्ट कर्तव्य है। समृद्धि पाते हुए भी विनत लोगो की रक्षा न करने वाले दुष्ट पुरुष की भर्त्सना करते हुए हेमचन्द्र कहते हैं
किं ते रिद्धि पत्ता पिसुरणा जे पण इणो वि ताविन्ति ।
कवयकलवूउ वर कमि अकरोडीण दिन्ति जे चाहिं 11 2131311 "जो विनम्र जनो को भी तापित करता है ऐसे दुष्ट के समृद्धि प्राप्त करने से क्या ? (उससे तो) कुकुरमुत्ता और नालिका नामक लता श्रेष्ठ हैं जो समीप आयी कीटिका को भी छाह देते हैं।"
आचार्य हेमचन्द्र मे धर्मान्धता नाम मात्र को भी नहीं थी। एक जैन प्राचार्य होते हुए भी अन्य जैन प्राचार्यो की भाति उन्होंने सनातन धर्म की कटु आलोचनाएं नहीं की परन्तु समय-समय उन्होने सदैव इसके ढकोसलों तथा दिखावेपन का विरोध किया है । एक पद्य मे उन्होने मूर्तिपूजा के खोखलेपन की चर्चा की है।
पडिरजिअ पडिमाए कि रे पडिएल्लियाइ होइ फल । पडिग्रतय किं दिटो पिडिअ पज्जुणसराउ उच्छुरसो ।। 6-35-3211
“भग्नप्रतिमा से क्या कृतकृत्य करने वाला फल मिलता है ? रे कर्मकर । ईख केसदृश घास पेरने से क्या ईख का मीठा रस प्राप्त होता है ।" इसी प्रकार एक पद्य मे प्राचार्य यज्ञ मे वलि देने के रूप मे हत्या करने वाले ब्राह्मण को मूर्ख और अन्त मे बुरा परिणाम भुगतने वताते हैं । अपने पाण्डित्य का मिथ्या गर्व करने वाले तथा परम्परा की लीक पीटने वाले विद्वानो की तुलना प्राचार्य जुगाली करने वाले पशु से करते हैं -
उप्पाइउमसमत्था जे चन्विन चव्वण कुणन्ति कई । वोभीपणाफुड ते वोकिल्लिअकारिणो पसुणो 171761821
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दे. ना मा 7168