SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 97 " भी (17) उमादित पाने में असमर्थ जो चवित-चर्वणमात्र करते हैं । सष्टको बनाने जगाली करने वाले पशु है।" का गुप पो ने अतिरिकम कोणग्रन्थ में नीति, उपदेश, - मम्वन्धित पोर भी प्रकोप है जो कवि की व्यावहारिकता प्रोगामामाजिर भानो स्पष्ट करने में प्रान्त ममर्थ है। हेमचन्द्र के इन पजी में घनमीत्री घोर गरल शैली में लोक व्यवहार, धार्मिक प्रास्थानो ग्व माजमनापोकापा । शिनी भी पद्य में प्राचार्य के कट्टर जैन पारी नानी मिना । नामाजिक कुरीतियो और घमंगत ढकोमनीती करने भी प्रत्यन्त विनम्रतापूर्ण शैली में करते है । बन पनी गलनाशिक पोरगदानोती दृष्टियो से मुनि रामसिंह के प्रमिद नार पाहा" की जा सकती। पग्यी हिन्दी मतसई परम्परा में पानी नन्दा गावर मुबर देखा जा सकता है । इन पद्यो ना कधिएक नया महामा, समाजहितचिन्तक, जटिल धार्मिक मान्यतायो से रहित दृष्टिकोण वाला युगद्रष्टा, व्यगिन है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि "रयानी" के नामान्य विषयों में सम्बन्धित पद्य भी अपना विशिष्ट मारित्विक महत्व रयते है। ग्यणायलो फा फलापक्ष छन्द "रयणावली" के उदाहरगो में प्राकृत के "गाहा" (गाथा) छन्द का प्रयोग हमा है । मम्मान तथा प्राशन के प्राचायां ने "गाहा" और सस्कृत के "पार्या" छन्द को एक ही बनाया है । "गाथा" शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य से लेकर सस्कृत नक में भिन्न-भिन्न प्रयों में किया गया है । छन्द शास्त्र के प्रणेता पिंगलाचार्य ने "अयानुक्त गाया" कह कार छोड दिया है । हलायुध" अत्रशास्त्रे नामोद्देश्येन-यन्त्रोक्त चन्द प्रयोगे च दृश्यते. तद्गानि मन्तव्यम्" कहते है। रत्नशेखर सूरि "गाहा" का नक्षग इस प्रकार देते हैं 'ममान्नेण वारस अठारम बार पनर मत्तायो। कमसो पाय चउपके, गाहाएइ हुति नियमेण ।। गाहाइदले चउचउमत्त सासत्त, अट्ठोभदुकलो। एयवीय दले विदु नवर छुट्टोइ एक गलो ॥" रत्नशेसर सूरि के अनुसार-गाहा चार पदो का छन्द होता है । इसके विपम पादो (प्रथम, तृतीय) मे 12 तथा समपादो (द्वितीय, चतुर्थ) मे 18 मात्राए होती हैं ।
SR No.010722
Book TitleDeshi Nammala ka Bhasha Vaignanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivmurti Sharma
PublisherDevnagar Prakashan
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy