SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 139 ब्राह्मण साहित्य में तो स्पष्ट ही तीन "देश्य" भापानो या विभाषामो का उल्लेख हुमा है। (1) उदीच्या (2) मध्यदेशीया (3) प्राच्या। उदीच्या विमापा. उस काल की परिनिप्ठित भाषा थी । इसका केन्द्र सप्तसिन्धु प्रदेश था। ली मे ब्राहाण आरण्यक तथा उपनिपदो प्रादि की रचना हुई । मध्यदेशीया विभाषा का रूप स्पष्ट नहीं है । "प्राच्या भापा आधुनिक अवध-पूर्वी उत्तर प्रदेश एव विहार प्रदेश में बोली जाती थी। यह असम्कृत एव विकृत भाषा थी इसमे द्रविड एव मृण्डा भाषा के तत्वो का पूर्ण मिश्रण विद्यमान था। इस भापा के बोलने वाले ऐने लोग थे जिनका विश्वाग यज्ञीय सस्कृति मे नही था । इसी कारण उन्हे नात्य कहा जाता था। इन बात्यो का सामाजिक एव राजनैतिक सगठन भी उदीच्य सायों की अपेक्षा भिन्न था । बुद्ध और महावीर इन्ही मार्यों मे से थे । उन दोनो ने सामाजिक क्रान्ति के साथ मातभापा को समुचित महत्त्व दिया ।"। ताट्य ब्राह्मण में ब्रात्यो का उल्लेख हुआ है वहा कहा गया है कि बात्य लोग उच्चारण मे सरल एक वाक्य को कठिनता से उच्चारणीय बताते हैं यद्यपि वे दीक्षित नहीं है फिर भी दीक्षा पाये हुओ की भापा वोलते है। इन प्रकार बहुत प्रारम्भिक काल से ही आर्य भापायो (साहित्यिक) मे लोक या देण्य तत्व स्थान पाते आये है। महावीर तथा बुद्ध ने इन्ही जनभापात्रो का नहारा लेकर अपने धर्मों का प्रचार किया। इन दोनो क्रान्तिकारी महापुन्पो के कुछ समय बाद ही उदीच्य मे एक ऐमी शक्तिशालिनी प्रतिभा से युक्त व्यक्तित्व का उदय हुप्रा जिसने समस्त लौकिक तथा साहित्यिक भाषाप्रो के तत्त्वो का एकर समाहार कर एक सर्वथा नवीन भाषा का निर्माण कर दिया जो युगयुगो से देव मापा के पद पर विभूपित चली आ रही है। यह महान कार्य शालातुर निवामी महर्षि पाणिनि के हाथो सम्पन्न हया । उन्होने भाषा परिकार के उद्देश्य को सामने रख कर साहित्येतर अर्थात् जनभाषा मे प्रचलित शब्दो के रूपो का भी 2 टा नेमिच द्र भाम्बी 'प्राकृत भापा और माहित्य का इतिहास' ₹ 5, तारा पब्लिकेशन पामच्छा, वाराणसी से प्रकाशित । अदरक्तवाक्य दयातमाह अदीक्षिता दीक्षितवाचवदन्ति । ताण्ड्यद्रा0 17/41 'उपनयनादि से हीन मनप्य व्रात्य कहलाता है। ऐसे मनुष्यो को लोग वैदिक कत्यो के लिये बनाधिकारी बीर सामान्यत पतित मानते है। परन्तु यदि कोई व्रात्य ऐसा हो जो विद्वान् जोर तपस्वी हो तो ग्राहमण उमसे भले ही वैप करें, परन्तु वह सर्वपूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तल्य होगा।" -हा. सम्पूर्णानन्द द्वारा सम्पादित प्रात्यकाण्ट भूमिका, पृ 2 प्र सस्करण, डा नेमिचन्द्र शास्त्री 'प्राकृतभापा और साहित्य का इतिहास', 4 6 की पादटिप्पणी 2 से उद्धृत ।
SR No.010722
Book TitleDeshi Nammala ka Bhasha Vaignanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivmurti Sharma
PublisherDevnagar Prakashan
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy