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________________ 140 ] परिष्कार कर दिया । इतना हो जाने पर यद्यपि माहित्यिक संस्कृत अपने मुगठित रूप के कारण अत्यन्त प्रभावशालिनी बनी रही फिर भी जनभापानो का विकास अपनी स्वाभाविक रीति के होता रहा और समय-समय पर इनमे प्रचलित णब्द माहित्यिक भापानी की निधि बनते गये । शुद्धता पर अधिक वल देने वाली माहित्यिक सस्कृत मे ये तत्व कम पाये। लेकिन इसका महारा लेकर प्रागे माहित्यिक भापा के रूप में प्रतिष्ठित होने वाली प्राकृत और अपन श भापाए इन जनमापा के तत्वो या देशी शब्दो के वाहुल्य को बचा न मकी । प्रकृति, स्वल्प और मगठन सभी दृष्टियो से "छान्दस" भापा के समीप रहने वाली ये मध्यकालीन पार्यभापाए सस्कृत से मात्र विषय वस्तु ही ले सकी । इसके समस्त निर्माण मे जन भापायो का बहुत अधिक योग रहा । मध्यकालीन भारतीय आर्य भापायो मे पाये जाने वाले ये ही तत्त्व "देशी" कहे जाने चाहिए । युग-युगो से सामान्य लोगो के बीच मे प्रचलित होने के कारण इनकी व्युत्पत्ति देना भी अत्यन्त कठिन कार्य है। ऐसे तत्त्वो मे आर्य और प्रार्यतर दोनो ही प्रकार के तत्त्व मम्मिलित हैं। अब तक हुए अध्ययनो से यह सिद्ध हो चुका है कि माहित्यिक भापायो मे पाये जाने वाले ऐसे तत्त्व निश्चित ही कोल, सबाल, निपाद, द्रविड आदि जातियो की भाषा से लिए गये होगे। अस्तु । साराश रूप मे यह कहा जा सकता है कि देशी "शब्दो" का, सामान्य जन भापा, जो कि बहुत प्राचीन काल से व्यवहार मे चली आ रही है, अत्यन्त निकट का सम्बन्ध है। अशिक्षित जनता के बीच में व्यवहृत होते रहने के कारण इन्हे नियमित साहित्यिक भापायो (विशेषत सस्कृत) मे कम स्थान दिया गया । परन्तु जनभापा का प्रश्रय लेकर विकनित होने वाली साहित्यिक भापानो मे इन्हें बहुतायत से प्रयोग किया गया । प्राकृत एक ऐसी ही जनमापा थी जिमकी देशी शब्दो मे निकट का सम्बन्ध भी है अत "देशी" शब्दो को इसमे विशेष रूप मे प्रश्रय मिला। सस्कृत-विद्वानी के लोकभापायो से प्रति घृणापूर्ण दृष्टिकोण मे परे प्राकृत और इसी के अन्तिम विकमित रूप अपन शके कवियो तथा चिन्तको ने प्राय अपनी मापा को "देशी"2 ही बताया है। प्राकृतो से भी कहीं अधिक "देशी" शब्द अपभ्र णो मे पाये जाते हैं। प्रत इन दोनो के आपसी सम्बन्ध पर विचार कर लेना भी समीचीन होगा। "अपनग और देशी" अपन श का "भापा" के रूप में सर्वप्रथम उल्लेख महाभाष्य मे प्राप्त होता 1 2 अधिकतर विद्वान् 'अपभ्र म' को प्राकृत का एक भेद ही मानते हैं। इन पक्तियों के लेखक की भी सम्मति इन्हीं विद्वानों के माय हैं। प्राकृत के कवि भी अपनी भाषा को प्राय 'देशी' ही कहते हैं।
SR No.010722
Book TitleDeshi Nammala ka Bhasha Vaignanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivmurti Sharma
PublisherDevnagar Prakashan
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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