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[ 115 मेअज्ज- 6-138 - यह शब्द सामान्य रूप से खाद्यान्नो का वाचक है ।
रोह ---7-11 -- यह शब्द चावल के आटे के अर्थ में प्रयुक्त है । "रोटी" माद इसी से विकनित हसा प्रतीत होता है।
लाहण 7-21 - एक भोज्य पदार्थ - यह कोई मृदु भोज्य पदार्थ होता रहा होगा।
वायएं 7151 - उपहार मे दिया गया भोज्य पदार्थ । ग्रामीण जीवन मे आज भी मिली गुभ अवसर के बाद "वायना" वाटा जाता है । इस शब्द का विकास उपर्युका शब्द मे देखा जा सकता है ।
ििलजरा- 7.69 – पश्चान्न विगेप ।
प्रवक्करस ---1-46 - सिरका - यह ईस या जामुन अथवा गुड के रस को मडा कर बनाया हया रम होता है जिसमे, तैयार हो जाने पर ग्राम-कटहल तथा अन्य कच्चे फनो को डालकर भोजन की सहायक सामग्री (तरकारी या चटनी) की तरह प्रयोग किया जाता है ।
पायानो मे चावल के लिए चाउला 3-8, तलप्फलो 5-7, अण 1-5, "चने" के लिए अणुभयो 1-21, ज्वार के लिए जोवारी 3-50, उडद के लिए उडिद 1-98, गेह के लिए उ वी 1-96, हरे “शाक" के लिए माहुर 6-130, "ककडीखीरा" के लिए सीलुट्टय - 8-35 शब्द प्रयुक्त हुए हैं । जगलो से प्राप्त होने वाले कदमून के लिए भी कदी 2-1 तथा ईस के खाने योग्य या चूसने योग्य छोटेछोटे टुकटो के लिए इ गाली 1-79 तथा गडीरी 2-82 शब्द आये हैं । गडीरी तो थोडे स्वर परिवर्तन के साथ "गडेरी" के रूप में आज भी हिन्दी की बोलियो मे प्रचलित है । ब्रजभाषा मे तो यह शब्द लगभग अपने प्राचीन रुप मे ही व्यवहृत होता है।
भोज पदार्थो से सम्बन्धित उपर्युक्त शब्दावली समाज के जिस स्तर का द्योतन करती है वह निम्नवर्ग से ही अधिकाशत सम्बन्धित है। इस तथ्य की पुष्टि "देशीनाममाला" मे पाये हुए “मदिरा" जैसे मादक पेय से सम्बन्धित शब्द भी कर देते हैं । मदिरा और उमसे सम्बन्धित विविध पात्रो का प्राप्त विवेचन, यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि इन शब्दो से सम्बन्धित समाज के लोग अशिक्षित तथा मभ्यता से कोसो दूर रहे होगे । “मदिरापान" और "यू तक्रीडा" दो कार्य ऐसे है जिन्हे समाज मे बडी हेय दृष्टि से देखा जाता है। इन्ही दो निम्न स्तरीय, यदि कहा जाये तो गर्हणीय, कार्यों से सम्बन्धित अनेको शब्द इस कोश मे यत्र-तत्र-सर्वत्र विखरे हुए देखे जा सकते है । अव इनका क्रमिक विवेचन कर देना उपयुक्त होगा ।