SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1441 'रणेमिणाह बरिउ', पादलिप्त' कृत 'तरंगवई कहा' (तरंगक्ती कथा) तथा विद्यापति सभी ने अपनी काव्य-मापा देशी बताया है । इस प्रकार सभी दृष्टियो से यह सत्य है कि अपभ्र स तृतीय युगीन प्राकृत थी। पिशेल ग्रियर्सन, भण्डारकर, चटर्जी, दुलनर जैसे विद्वानो ने अपभ्रश को देशीभाषा माना। पिशेल ने लिखा भी है “मोटे तौर पर देखने से पता चलता है कि प्रामाणिक सस्कृत से जो वोली घोडी बहुत भेद दिखाती है, वह अपभ्र श है । इसलिए भारत की जनता द्वारा बोली जाने वाली भापात्रो का नाम अपभ्र श पडा और बहुत वाद को प्राकृत भाणयो में से एक वोली का नाम भी अपन श रखा गया । यह भापा जनता के रात दिन के व्यवहार मे आने वाली बोलियो से उपजी और प्राकृत की अन्य भाषानो की तरह थोड़े बहुत फेर-फार के साथ साहित्यिक भाषा वन गयी। पिशेल के इस कथन से यह स्पष्ट है कि एक प्रकार की अपभ्र शशब्द रचना और स्परचना मे प्राकृत के ही रास्ते पर चलती है। इसे ही दण्डी ने काव्यभापा के रूप मे स्वीकार किया है । दूमरी प्रकार की अपभ्रश वोलचाल की मापा रही है। विद्यापति आदि अपभ्र श कवियो ने इसी वोल-चाल से सम्मत भापा को देशी कहा होगा। अपभ्र श के इन दोनो रूपी की सिद्धि सर जार्ज ग्रियर्सन के 'लग्वेज आफ इण्डिया' निबन्ध से भी होती है। इन्होंने प्राकृतो को प्रारम्भिक अपभ्रम कहा है। लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया' मे ग्रियर्सन ने अपभ्र शो को प्राकृत का स्थानीय अथवा प्रादेशिक विकार कहा है। इसी प्रकार' आन दि मार्डन इण्डो आर्यन वर्नाक्यूलर्स (इण्डियन एण्टीक्विरी, जिल्द-60) मे उन्होंने अपभ्रंश के अन्तर्गत बोलचाल की प्राकृतों को लेने से इन्कार करते हुए अपभ्रंश को साहित्यिक प्राकृतो के बाद की देशभापा माना है। स्पष्ट है कि अपन श मे देशीभाषा के तत्त्व अवश्य हैं। यह सम्भव है कि अपभ्रश बोलचाल की भाषा न भी रही हो, पर इतना तो मानना पडता है कि पूर्ववर्ती साहित्यिक प्राकृत ही देशीभापा के योग से अपभ्र श की अवस्था 1. पालित्तएण रइया वित्यणरो तह देसिवयहि नामेण तरगवई यहा विचित्ता य विउला य ।। पाहुड दोहा-भूमिका, प 45 देमिल वअना मबजन मिट्ठा। त तैमन जम्पनो यवदा ।। -पाहुह दोहा-भूमिका, पू 33 3 'प्राकृतभापायो का व्याकरण' - हिन्दी अनुवाद-विहार राष्ट्रभाषा परि , 57 4 भाभीरादिगिर वाय्येप्वपन म इतिम्मृता । का. मा 1136 5 'लग्वैज याफ इण्डिया', जिल्द 1, पृ 123
SR No.010722
Book TitleDeshi Nammala ka Bhasha Vaignanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivmurti Sharma
PublisherDevnagar Prakashan
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy