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अपभ्र श कही जाने वाली इस तुतीय-युगीन-प्राकृत का प्रचलित जनभाषा से घनिष्ठ नग्बन्ध था यह दात भरत ने भी स्वीकार की है। इसी प्राकृत का विवेचन मर्तु हरि ने अपने वाक्यपदीय मे किया है -
शब्द सत्कार हीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षते ।
तमपत्र शमिच्छन्ति विशिष्टार्थ निवेशनम् ।। वाक्यपदीय, 1 का०, कारिका 148 यहा भर्तृहरि का सकेत ऐसे शब्दो की ओर है जो पाणिनीय व्याकरण से प्रसिद्ध है । पतजलि ने भी यही बात कही थी जो शब्द भ्रष्ट, च्युत, स्खलित विकृत और अगुद्र हैं उन्हें वे अपभ्र ग शब्द कह देते है। एक बात यहा स्पष्ट कर देने की है । पतजलि ने यहा अपभ्र श पद का प्रयोग शब्द के सदर्भ मे किया है, भाषा विशेष के नहीं । महाभाष्य के टीकाकार कैयट (10 म्शदी) इस गत को प्रोर भी स्पष्ट कर देते है -
अपशब्दो हि लोके प्रयुज्यते साधुशब्दसमानार्थञ्च 'अपभ्र श शन्द' साधु शब्दो के समान अर्थ मे लोक मे प्रयुक्त होते है ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि तृतीय युगीन प्राकृत जिसे कि अपभ्र श नाम दिया गया है, जन भापा के तत्त्वो से भरी हुई है। इसका विकास विभिन्न प्रदेशो में स्थानीय जनमापायो का सहारा लेकर होता रहा । धीरे-धीरे इसमे भी काव्यादि की रचना होने लगी। इमे अलग भाषा के रूप में भले ही मान लिया गया हो परन्तु इसका स्वरूप निर्माण और शब्दावली सभी कुछ देश्य तत्त्वो से युक्त है और सबसे अाश्चर्यचकित कर देने वाली बात तो यह है कि अपभ्र श के लगभग सभी कवियो ने अपनी काव्यभापा को 'देशी' कहा है । सस्कृत के प्राचार्यों ने तो इसे पूर्ण रूप से देशी भापा माना ही है । अब अपभ्र श के कवियो के विचारो का उल्लेख कर देना भी समीचीन होगा।
___'पउमचरिउ' के रचयिता स्वयभू अपने रामायण को 'देशीभापा' या ग्रामीण मापा मे विरचित बताते हैं 11 पुष्पदन्त2 ने भी अपनी भाषा को 'देशी' नाम से अभिहित किया है। पद्मदेव कृत 'पासणाहचरिउ' लखमेव (लक्ष्मणदेव) कृत
1 देसी-मापा उभय तडज्जल गामेल्ल भास परिहाणइ । पउमचरित 3/1 2. णउ हउ होमि देसिण वियाणमि ।
-महापुराण 1/18 3 वायरण देमि मद्दत्य गाढ
छदालकारविमाल पोढ । + + + पाहुड दोहा की भूमिका, पृ 44 से उद्धृत ण समाणमि छद न बधभेउ । ण होणाहिउ मत्ता समेउ । ण सक्क्रय पायउ देम-भास । णउ सद्द वण्णु जाणमि समास । इत्यादि पाहुइ दोहा भूमिका, पृ 45