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142 ] मात्र है जिसे नाटककार विभिन्न पात्री से स्वच्छन्दतापूर्वक बोलवा सकता है । यदि हीरालालजी की तरह भरत के अनुसार आभीरो की भापा (विभाषा) अपभ्र श के रूप मे कल्पित कर ली जायेगी तो फिर द्रविड भापा (एक विभापा) को भी आर्य-भापा के अन्तर्गत लिया जा सकता है। कुछ भी हो इस विवाद ने परे हटकर भरत ने जिन प्राकृत की भापायो और विभाषायी की चर्चा की है उनमे 'देशी' तत्त्व विद्यमान हैं । हा इतना अवश्य है कि इस स्थल पर उरिलम्बित प्राकृते दो प्रकार की है- एक सस्कृत सम्मत, उमके विकृत रूप में, दूसरी विभिन्न प्रान्तीय और जातीय तथा स्थानीय वोलियो से सम्मत जिसे हम देशी बहुल प्राकृत कह सकते है ।
भरत मे आगे प्राकृत और अपभ्रण की अलग-अलग भापायो के रूप में गणना की गयी । परन्तु यह भरत की मान्यता के विपरीत बात नहीं थी। मस्कृत के विकृत रूपो की जिनमे प्रधानता रही वे काव्य प्राकृत के काव्य कहलाये । परन्तु ऐसे काव्य जिनमे प्रामीरादि देशी तत्त्वो की प्रवानता होती गयी एक अलग विभाग के अन्तर्गत रख दिये गये । यह विभाग ममवत साहित्यिक प्राकृत और देशी प्राकृत को अलग-अलग स्पष्ट करने के लिए रखा गया होगा । यही देशी तत्वो से युक्त प्राकृत (विमापा) अपभ्रंश कही जाने लगी होगी।
__वास्तव मे अपन । प्राकृत की ही अतिम अवस्था है जिसमे हिमालय के पार्वत्य प्रदेश, मिन्यु और मोवीर प्रदेश के निवामियो का उकार बहुल प्रयोग बढ़ गया था । भरत ने इसी उकार बहुला भापा को (विभाषा-प्राकृत) के रूप मे स्त्रीकार किया है । विनष्ट शब्द के प्रयोग से उनका तात्पर्य तद्भव शब्दो मे युक्त माहित्यिक प्राकृतो मे रहा होगा। इस प्रकार भरत द्वारा दिया गया। विवेचन' प्राकृतो से ही सम्बन्धित है।
विक्रम की प्रथम मदी मे ही प्राकृत साहित्यिक भापा का रूप धारगा करने लग गयी थी। धीरे-धीरे व्याकरणकारो के हाथो यह परिष्कृत होती गयी और परिनिष्ठित मापा बनकर जन भापा के स्वरूप से दूर होती गयी । परिणामत. इन परिनिप्ठित भाषा, प्राकृतो की जगह एक तृतीय युगीन' प्राकृत का विकास हुआ जिसे भाषाशास्त्रियो ने अपन्न ण कहा है। इस नाम के अनेको प्राकृत रूप प्रबहस -प्रवन्मस, अवहट्ट-अवहत्य आदि मिलते हैं। भरत ने इसी का उल्लेख उकार बहला प्राकृत (विभाषा) के रूप में किया है ।
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नमानणब्द विघ्रप्ट देशीगतमयापि च । ना मा 171311 प्राकृत भापायों का विस्तृत वर्गीकरण डा नेमिचन्द्र शास्त्री ने अपने 'प्राकृत भाषा और माहित्य का यानोचनात्मक इतिहाम' नामक ग्रन्य के पृ 17 पर दिया है। वहा इन्होंने भी वपन्नग को तृतीय युगीन प्राकृत के रूप में स्वीकार किया है।