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224 ] इसके मात्र लिखित भाषा होने की विक सभावना है। अपने लम्बे लम्बे एव अटपटे स्वर मयोगो के कारण किमी जीवित-भाषा से इसका सम्बन्ध रहा होगा, ऐना कह पाना सभव नहीं है। इसमे स्वरावात का निर्धारण म भा श्रा के अनुगमन पर किया जा सकता है । म भा था प्राकृत और अपभ्र श भापाए बलाघात प्रधान नहीं नहीं। वैदिक भाषा का जटिल स्वर-विधान, ब्राह्मण काल तक टीना पड़ने लगा था। सस्कृत में, यह विल्कुल समाप्त ही हो गया। यही स्थिति म भा पा की भी रही । इन्ही की परम्परा में विकसित या भा. या विशेषतया हिन्दी भी बलाघात प्रधान भाषा नहीं है। परन्तु जिम प्रकार हिन्दी मे कुछ विशेष प्रकार के शब्दो मे बलाघात निश्चित है, उमी प्रकार ध्वनि-विकारो के अध्ययन से हिन्दी की पूर्ववर्ती भापात्रो से सम्बन्वित 'देश्य' शब्दावली मे भी वलावात के नियमो को ढूंढा जा सकता है।
देशीनाममाला की शब्दावली में बलाघात-निर्धारण निम्नत्पो मे किया जा सकता है -
(1) यक्षरात्मक मनायो तथा विशेषणो मे स्वराघात प्रथम अक्षर पर
पडता है- दिन-दिवस पूग्र-दधि, फूअ-लोहारः इत्यादि । (2) त्र्यक्षरात्मक मज्ञायो श्रार विशेषणो मे प्रवृत्ति प्रथमाक्षर से स्वर पर
ही बलावात टालने की हैरिविक्रय-रिगिम , गिगिणं इत्यादि ।
(3) चतुगक्षरात्मक या अधिकालरात्मक शब्दो या समस्त शब्दो मे, स्वरा.
वात प्रथम स्वर पर न रहकर मव्यस्वर या उपान्त्य स्वर पर रहता
पडिअमन, पडिग्र तप, पहिअली, फोहिय, भयवग्गामो, मयरिणवामो इत्यादि।
(4) मयुक्त व्यजनों के पहले के 'ए' और 'नो' प्राय हम्बीकृत रूप में
उच्चरित होते हैं और बताघात सयुक्त व्यजन वाले स्वरी पर होता
है जैसेउक्कामिन, उपरो, एक्क् परित्लो, एक्कसाहिल्लो, दो सयुक्त व्यंजनो के एक के बाद प्राने पर बतागत प्राय अन्तिम मयुक्त व्यजन के स्वर पर होता हैन एक्वे कम।