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[ 225 ऊपर कुछ बलाघात के उदाहरण दिये गये हैं। जहां तक देशीनाममाला की शब्दावली मे बलाघात ढूढने का प्रश्न है, पग-पग पर नवीन समस्याएं उठ खडी होती हैं। यहा सक्षेप मे इस तत्त्व का भी विवेचन कर दिया गया है । मेरा तो दृढ मन्तव्य है कि इन शब्दो का बहुत अधिक प्राकृतीकरण किया गया है । जिस रूप मे ये सामान्य जनता मे बोले जाते रहे होगे, उसी रूप मे इनका सकलन नहीं किया गया है। दे. ना मा के व्यजन ध्वनिग्राम
देशीनाममाला के शब्दो मे व्यवहृत व्यजन ध्वनिग्राम पूर्ण रूपेण म भा प्रा. के व्यजन ध्वनिग्रामो का अनुसरण करते हैं । ऋग्वेद प्रातिशाख्य तथा यजु. प्रातिशाख्य मे कुल व्यजन वर्णो की सख्या 37 मानी गयी है। इनमे 25 स्पर्श, 4 अन्त स्थ तथा 8 ऊपम व्यजन परिगणित दिये गये हैं। महर्षि पाणिनि ने अपने महेश्वर सूत्र मे कुल 33 व्यजन वर्ण माने, इनमे 25 स्पर्श, 4 अन्त स्थ और 4 ऊष्म वर्ण सम्मिलित हैं । पाणिनि ने प्रातिशाख्यो मे व्यजनो के बीच गिने गये विसर्ग, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय तथा अनुस्वार को अपने प्रत्याहार सूत्र मे नही सम्मिलित किया। पाणिनि की ही मान्यता संस्कृत मे दृढ हो गयी। आगे चलकर भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में प्राकृतो मे व्यवहृत व्यजनो पर विचार किया, उन्होने प्राकृतों मे श्, ष, ड ज और न् का अभाव देखा अत इन 5 को निकालकर उन्होने प्राकृत व्यजनो मे केवल 28 व्यजनो की ही गणना की, वे इस प्रकार हैं
क ख ग घ्, च छ ज झ, ट् ठ् ड् ढ् ण, व थ् द् धू प्फ ब् भ् म्
य, र ल व्, स् ह । इन व्यजन ध्वनियो मे 'य' ही एक ऐसी ध्वनि है जिसका व्यवहार शब्दादि मे प्राय. नही होता (केवल अर्धमागधी को छोड कर) शब्दों के मध्य मे शुद्ध रूप में तथा अन्त मे य श्रुति के रूप मे इसका उच्चारण होता है । शब्दो के आदि में अर्धमागधी के कुछ अपवादो को छोडकर सर्वत्र ‘ज्' के रूप मे उच्चरित होता है।
1. 2.
ऋ प्रा 10 'हयवरट् लण जमघणनम् झ भन, धढघष, जवहदश् रवफछयचटतम् पय् शषसर
हल ।"