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[ 279 है कि देण्य शब्दो को निरुक्ति किसी प्रकार भी सम्भव नही है । पूरे कोश मे सकलित शब्दावली को वे तीन वर्गों मे वाटते है
(1) जो लक्षण से प्रसिद्ध है-अर्थात् जो शब्दानुशासन के नियमो से अव्युत्पन्न हैं, जिनमे वर्णागम प्रादि चतुर्विध निरुक्तियो का समावेश नही तथा जिनमे प्रकृति प्रत्यय विवेचन का कथाचित् अवकाश नही और जो सर्वथा लोक मे रूढ हैं वे देशी हैं । देशीनाममाला के अधिकाश शब्द इमी कोटि के है जैसे-अक्को-दूत, अगिलाअवज्ञा, अडयणा-अगली, अणड-जार,प्ररिअल्लो-व्याघ्र, प्राहु-उल्लू, कली-शत्र, करडोव्याघ्र, कोलो-ग्रीवा, वेंका-पानी की चर्बी, ढेंकी-धान कूटने की चक्की, कोल्हुग्रोकोल्ह, तहरी शराब, तु गी-रात्रि, थट्टी-पशु , थरी-कपडा बुनने का यत्र, थूणो-अश्व, दारो-कटिसूत्र प्रादि ।
(2) ऐसे शब्द जो सस्कृताभिधान ग्रन्यो मे प्रसिद्ध नहीं है, अर्थात् प्रकृति प्रत्यय से सिद्ध होते हुए भी सस्कृत कोशो मे सकलित नहीं हैं (इन्हे सस्कृताभ शब्द भी कहा जा सकता है) । जैसे अम्बोच्ची-फूल चुनने वाली, अमयणिग्गमो चन्द्रमा, छिन्नोन्मवा छिन्नोद्भवा दूर्वा, अइराणी अधिराज्ञी-इन्द्राणी, वइरोग्रणो वेरोचन बुद्धः प्रादि ।
(3) गौणलक्षणा शक्ति से भी जो शब्द सिद्ध नही है-जैसे वहल्ल-वैल मूर्ख या गगा-गगातट जैसे शब्दो का सकलन नहीं किया गया । ।
देशी शब्दो का यह वैलक्षण्य प्राचार्य हेमचन्द्र ने स्वय ही बता दिया है । जहा कही व्युत्पत्तिलभ्य शब्द का सकलन उन्होने किया भी है, उसके देशी माने जाने का पौचित्य भी प्रतिपादित कर दिया है । इतना सब होने पर भी डा. वूलर जैसे विद्वान् को दे ना मा के सभी शब्द संस्कृत से व्युत्पत्ति गाह्य लगे । शब्दो के स्वरूप को देखकर उन्होने एक भटके से कह तो दिया कि सभी शब्द संस्कृत से व्युत्पत्तिलभ्य है पर व्युत्पत्ति उन्होने एक भी नहीं दी। उनकी ही परिपाटी का अनुसरण श्री रामानुजस्वामी ने किया। देशीनाममाला की भूमिका मे तथा इसकी ग्लासरी (शब्दसूची) मे उन्होने कितने ही 'देशी' शब्दो की व्युत्पत्ति सुझायी है, पर व्युत्पत्ति देते समय वे शब्द के अर्थ पर ध्यान नहीं दे सके, अधिकतर उनका ध्यान ध्वन्यात्मक साम्य पर ही गया है। उनकी बहुत सारी व्युत्पत्तिया निरुक्तकार 'यास्क' की व्युत्पत्तियो की याद ताजा कर देने वाली हैं । यह ठीक है कि देशीनाममाला की
1 दे ना मा 113 कारिका और उसकी वृत्ति । 2. प्राइअलच्छीनाममाला की भूमिका-बूलर, पृ. 14