________________
[ 173 है। इसमें निहित विदेशी तत्त्वो को पहिचान लेना सरल है, परन्तु परम्परा से चली प्राती हुई 'देश्य' शब्दावली को पहिचान पाना एक अत्यन्त दुरूह कार्य है । हिन्दी मे कितने ही ऐसे 'देशज' शब्द हैं -- जिन्हे भ्रान्तिवश सस्कृत से उद्भूत और तद्भव मान लिया जाता है। मानक हिन्दी के ऐसे ही कुछ शब्दो पर प्रकाश डाला जायेगा जो युग युगो से भारतीय आर्य भापारो की सम्पत्ति रहे और आज भी भाषा के शब्द भण्डार को समृद्ध बना रहे हैं। जिन शब्दो का यहा उल्लेख किया जायेगा उन्हें प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'देश्य' मान कर अपने कोश ग्रन्थ 'देशीनाममाला' मे मलित किया है ।
1 प्रघारगो-- विशेषरण पद) - दे० ना० मा० 1-19 यह शब्द हिन्दी में प्रधाना अवधी में प्रधान व्रजभापा में 'अघाना' 'अघानो' आदि क्रिया पदो के रूप में विकसित है। प्राचार्य हेमचन्द्र इस शब्द को देश्य मानते है । परन्तु शब्द की स्थिति और रूपात्मक विकास दोनो अलग कहानी कहते हैं । जहा तक इस शब्द की स्थिति का प्रश्न है यह लोक भाषा का शब्द है । साहित्यिक हिन्दी मे 'अघाना' क्रिया का प्रयोग नगभग नही ही होता है । इसके स्थान पर 'तृप्त होना' त्रादि पर व्यवहत होते है। लोक भापात्रो और बोलियो मे 'देशी' शब्द प्रचुरमाना मे हैं यह बात मिद्ध हो चुकी है। यह तो एक पक्ष हुआ। दूसरी ओर यदि इस पद को 'मस्कृत' के 'पाघ्राण' पद मे व्युत्पन्न माना जाये तो खीचतान करनी पड़ेगी। 'यात्राग' का अर्थ है - 'नाक तक भरकर' इसका लाक्षणिक अर्थ ही तुप्तिवाचक होगा । ऐमी स्थिति मे इस शब्द के सास्कृतिक परिवेश के ही आधार पर इमकी वोटि का निर्धारण किया जाना चाहिए। इस कसौटी पर यह 'देश्य' ही ठहरता है । 'ग्रग्बाण' शब्द से 'अघाना' क्रिया का विकास रूपात्मक विकास की दृष्टि से भी सही दिशा में है- अवधी मे-'अघाइ के खावा' 'अघान अहै' प्रादि रूपो मे इसका व्यवहार देखा जा सकता है ।
उपर्युक्त शब्द विवेचन के बीच एक बात विज्ञजनो को खटक सकती है, वह यह कि यदि कोई शब्द संस्कृत भाषा मे विद्यमान है तो उसे 'देश्य' बताने का आग्रह हम क्यो करें ? इस प्रश्न पर विचार करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि कोई भी साहित्यिक भापा लोक भाषा के स्तर से उठ कर ही साहित्यिक भाषा बनती है - ऐसी स्थिति सस्कृत की भी रही है। स्वय महपि पाणिनि ने व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यायी मे कितने ही शब्द ऐसे आये हैं -- जिनका उद्गम लोकभाषायो मे खोजा जा सकता है। पाणिनि के धातुपाठ मे 'देश्य' तत्त्वो की चर्चा ऊपर की जा चुकी है । अष्टाध्यायी के उणादि प्रत्यय भी बहुत कुछ इसी तथ्य की