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मे हेमचन्द्र के व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व, देशीनाममाला के स्वरूप एव उसके साहित्यिक तथा सास्कृतिक महत्त्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। द्वितीय खण्ड देशीनाममाला के भाषावैज्ञानिक महत्त्व पर प्रकाश डालता है। इसमे निहित तीन अध्यायो (5,6,7) मे क्रमश देशी शब्दो का स्वरूप-विवेचन उनका उद्भव तथा विकास, देशी शब्दो का हि दो तथा उसकी वोलियो मे विकास एवं देशी शब्दो का भाषाशास्त्रीय विवेचन प्रस्तुत किया गया है। एक एक अध्याय मे निहित अध्ययन की दिशाम्रो का उल्लेस इस प्रकार है।
अध्याय 1- इस अध्याय मे प्राचार्य हेमचन्द्र के व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। प्राचार्य हेम चन्द्र का विलक्षण व्यक्तित्व और उनके द्वारा की गयी रचनायो का विस्तत कलेवर पाश्चर्य मे डाल देने वाला है। अकेले हेमचन्द्र इतने विशाल कार्य को पूर्ण कैसे कर सके ? इसका रहस्य उनके जीवन-चरित्र से अवगत हुए विना नही जाना जा सकता । हेमचन्द्र को दो महान् हिन्दू राजाओ सिद्धराज जयसिंह और कमारपाल का सहयोग प्राप्त हुअा था। वे इन दोनो राजापो के पूज्यगुरु थे, अन हेमचन्द्र को उनसे समय-समय पर बहुत अधिक महायता मिलती रही । इन राजापो के प्राश्रय मे रहने वालो विद्वन्मण्डली ने भी हेमचन्द्र की पर्याप्त सहायता की होगी। ये ही कुछ स्थितियां थी जिन्होने हेमचन्द्र को एक ही जाम मे इतने विशाल ग्रथो की रचना मे सक्षम बनाया। इस अध्याय मे आचार्य हेमच द्र की जीवनगत परिस्थितियो को केन्द्र मे रखकर उनके कृतित्व पर विस्तार से विचार किया गया है । संक्षेप मे परे अध्याय का अध्ययन त्रम इस प्रकार है-हेमचन्द्र का जीवन चरित विद्याध्ययन और व्यक्तित्व निर्माण, सिद्धराज जयसिंह से सम्पर्क तथा सिद्ध हैमशब्दानुशासन की रचना की प्रेरणा प्राप्त करना, कुमारपाल से सपर्क तथा प्राकृत याश्रय काव्य की रचना, कुमारपाल तथा उस युग के ख्याति प्राप्त विद्वानो से हेमचन्द्र का सम्पर्क और अन्त मे प्राचार्य हेमचन्द्र की सभी रचनायो का सक्षिप्त विवरण एव तिथिक्रम निर्धारण । संक्षेप में प्रथम अध्याय के अध्ययन की यही सीमा है। इस अध्याय मे निहित प्रयास लगभग पारस्परिक है। हेमचन्द्र के व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व से सम्बन्धित पव विद्वानो के प्रयास ही यहा निहित अध्ययन के मूल प्राधार है।
अध्याय 2- यह अध्याय देशीनाममाला के स्वरूप विवेचन से सम्बन्धित है । इस अध्याय में निहित अध्ययनक्रम इस प्रकार है देशीनाममाला का स्वरूप तथा इसके नामकरण की समस्या एव उमका निराकरण, देशीनाममाला का रचवा काल (वि स 1214-15 या 1150ई ) इसकी मूल प्रतियो का सक्षिप्त उल्लेख, इसकी विषयवस्तु तथा इसके स्वरूप पर विस्तार से विचार, देशीनाममाला की मूलगाथागो तथा उदाहरण की गाथाओ का महत्त्व प्रकाशन, वृत्ति या टीका भाग पर विस्तृत विचार, उदाहरण की गाथाओ का वर्गीकरण, उनकी संख्या एव विपयवस्तु के विस्तृत प्रत्याख्यान के साथ-और अन्त मे देशीनाममाला के साहित्यिक एव भाषावैज्ञानिक महत्व का निदर्शन । सक्षेप मे यही द्वितीय अध्याय का प्रतिपाद्य है। इस अध्याय के कुछ तथ्य पूर्व विद्वानो द्वारा प्रतिपादित हैं जिन्हे ज्यो का त्यो मान लिया गया है। गाथाम्रो का वर्गीकरण और उनकी संख्या का निर्धारण प्रो. मुरलीघर वेनर्जी का उल्लेख मात्र है । अध्याय के अन्य प्रयास मेरे अपने है। स्वरूप