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देशीनाममाला का भाषाशास्त्रीय अध्ययन
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देशीनाममाला मे संग्रहीत शब्दावली अपनी सास्कृतिक महत्ता की दृष्टि से जितनी विलक्षण है उतनी ही भापा शास्त्रीय दृष्टि से भी। 'देश्य' शब्दो की प्रकृति के विषय में पिछले अध्याय मे वहुत कहा जा चुका है । यहा उन शब्दो का ध्वन्यात्मक त्यात्मक एव अर्थगत अध्ययन प्रस्तुत किया जायेगा । भाषाशास्त्रीय अध्ययन के पूर्व यहां एक बात स्पष्ट कर देनी आवश्यक है-देशीनाममाला के शब्द प्राकृत के है या उसकी विकमितावस्था अपभ्र श के हैं। यह कहना अत्यन्त कठिन है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने इस ग्रन्य की रचना अपने अपभ्र श व्याकरण के पूरक अन्य के रूप में की थी । अत इन शब्दो को अपभ्र श का होना चाहिए, परन्तु इनमें निहित प्राकृत भाषा की विशेपताएं इस मान्यता से परे सकेत करती हैं। इतना ही नहीं ये शब्द माहित्यिक प्राकृतो से भी अपना स्पप्ट भेद प्रदर्शित करते हैं । क्योकि प्राकृतो मे होने वाले परिवर्तनो से ये सर्वथा भिन्न हैं । ऐसी स्थिति मे इन गब्दो का सम्बन्ध किसी भाषा की विशेष स्थिति से जोड पाना एक अत्यन्त कठिन कार्य है। देशीनाममाला की गव्दावली को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तीन भागो मे बाटा जा सकता है-(1) तत्मम, (2) तद्भव (3) देशज । तत्सम शब्द ध्वन्यात्मक एव रूपात्मक गठन की दृष्टि से सम्कृत से मिलते-जुलते है, तद्भव शब्द वर्णविकार, लोव, पागम आदि नियमो से युक्त होकर प्राकृत शब्दावली के अग है पन्न्तु देण्य म्हे जाने वाले शब्दो को प्रकृति प्रत्यय हीनता के कारण किसी भी मापा से जोडा या व्युत्पन्न नहीं किया जा सकता है । डा नेमिचन्द्र शास्त्री 1. पदेनोमन्द मग्रह. बोपशशब्दानुशासनाप्टमाध्यायोपलेशो रत्नावलीनामाचार्य हेमचन्द्रण रिचित इति मद्रम् ॥
-देवीनाममाला 8-77 की वृत्ति