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________________ ' [ 277 अज्ञात प्रतिपरोक्षशब्द की व्यास्या परोक्षवृत्ति का प्राश्रय लेकर प्रत्यक्षवृत्ति से करनी नाहिए । निरुत के टीकाकार दुर्गाचार्य इस प्रप्रिया का एक उदाहरण भी देते है, व स्वय 'निघण्ट' शब्द को अतिपरोक्षवृत्ति शब्द मान पहले परोक्षवृत्ति 'निगन्तव' शब्द में उसे व्यत्पन्न करते है और फिर निगमयिनार' जैसे प्रत्यक्ष क्रिया वाले ब्द से बने व्युत्पन्न कर लेते हैं। निरुपत या व्युत्पत्तिशास्न भाषा विज्ञान का एक महत्वपूर्ण अग है। किसी भी भाग में बावरत पद को समझने के लिए उसकी निरुक्ति आवश्यक है। दे ना मा.गी पदावली भी निगक्ति की अपेक्षा रखती है। परन्तु इस निरुक्ति के लिए पति-प्रत्यय का निर्धारण किया ही जाये, यह आवश्यक नही । शाकटायन: या नैरक्त सम्प्रदाय नी नाति सभी शब्दो का प्रकृति-प्रत्यय विवेचन अनिवार्य माने बिना भी गाय की भाति गध्यम मार्ग का अनुसरण किया जा सकता है । शाकटायन और यास्क ने सभी पदो की व्युत्पत्ति मे प्रकृति-प्रत्यय निर्धारण आवश्यक माना था, परन्तु गाय-समझते है कि सभी शब्दो की व्युत्पत्ति दे पाना सम्भाव्य नही, प्रत अमात व्युत्पत्तिक शब्दो के अर्थ अवधारण मात्र से स तोप कर लेना उपयुक्त है, उनकी दृष्टि में निर्वचन सभाव्य शब्दो की ही व्युत्पत्ति अन्वेषणीय है । देशीनाममाला के गब्दो मे भी यही सिद्वान्त लागू किया जाना चाहिए । इसमे नकलित अनेको शब्द ऐगे हैं, जिनकी शास्तसम्मत न्युत्पत्ति दी जा सकती है, पर यह व्युत्पत्ति ध्वन्यात्मक एव स्पात्मक समानता तक ही सीमित होगी अर्थविज्ञान की दृष्टि ने उपयुक्त नहीं होगी। एक उदाहरण लिया जाये-दे ना. मा 4 'अमयरिणग्गमो गन्द प्राया है । व्युत्पत्ति की दृष्टि से यह शब्द संस्कृत का 'अमृतनिर्गम 'शब्द है । इनगे ध्वनिगत विकार (वर्ण विकार) ध्वनिविज्ञान का विषय है, इसका रूपात्मका अश रूप विज्ञान का विषय है, परन्तु अर्थविज्ञान की दृष्टि से दोनो मे अन्तर या जाता है। 'ग्रमयरिणग्गमो' का अर्थ चन्द्रमा है, परन्तु 'अमृतनिर्गम' पर पूरे रास्कृत साहित्य मे कही भी चन्द्रमा के अर्थ मे व्यवहृत नही है । ऐसी स्थिति में इसकी व्युत्पत्ति अधूरी रह जाती है । यह पहले ही कहा जा चुका है कि शब्द और अर्ष का शाश्वत सम्बन्ध है। यदि शब्द है तो उसका कुछ अर्थ भी होगा गोर अर्थ का निर्धारक लोक होता है। अत किसी भी शब्द की व्युत्पत्ति देते समय अर्थ को ध्यान मे रखना आवश्यक हो जाता है। स्वय निरुक्तकार - 1 विविध ही शब्दावस्था-प्रत्यक्षवृत्तय परोक्षवृत्तय , अतिपरोक्षवृत्तयश्च। ततीक्तक्रिया प्रत्यक्षवृत्तय अन्तर्लीननिया. परोक्षवृत्तय महिपरोक्षवृत्ति' शब्देपु निर्वचनाम्यपाय.। तस्मात्परोक्षवत्तिमापाय प्रत्यक्षवृत्तिना शब्देन निर्वक्तव्या तद्यथा निघण्टव इत्यतिपरोक्षवृत्ति. निगन्तय इति परोक्षवृत्ति, निगमयितार इति प्रत्यक्ष वृत्ति.। -निरुक्त 11115 पर वृत्ति । निरुक्त-1112
SR No.010722
Book TitleDeshi Nammala ka Bhasha Vaignanik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivmurti Sharma
PublisherDevnagar Prakashan
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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